हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ #130 – आतिश का तरकश – ग़ज़ल – 17 – “ख़ैरात” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “ख़ैरात …”)

? ग़ज़ल # 17 – “ख़ैरात…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

बात तो उनसे होती है मगर वो बात नहीं होती,

अब वैसी दिलचस्प हमारी मुलाक़ात नहीं होती।

 

मसरूफ़ियत बन चुकी शातिर अन्दाज़ की सौतन 

साथ होकर भी कोई बात ए ज़ज़बात नहीं होती।

 

जुबां तो खूब चलती है दोनों की देर तलक,

अजीब बात है मगर कोई बात ही नहीं होती।

 

पहले पूरी रात गुज़र ही जाती थी बातों में,

अब बात के इंतज़ार में ख़त्म रात नहीं होती।

 

जुबां उनकी अब खुलती है बहुत मुश्किल से,

आँखों आँखों में भी उनसे बात नहीं होती।

 

अश्कों से दामन भीग जाता था बातों-बातों में,

अब आँख भर आती हैं मगर बरसात नहीं होती।

 

बदल चुके जमाने के रिवाज कुछ इस क़दर,

किसी को ढाई हर्फ़ों की अता ख़ैरात नहीं होती।

 

दामन फैलाए बैठे हैं कब से इश्क़ की महफ़िल में,

आतिश दिल की दिल से कोई बात नहीं होती।

 

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा 69 ☆ गजल – ’’अमर विश्वास के बल पर’’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “अमर विश्वास के बल पर”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 69 ☆ गजल – ’अमर विश्वास के बल पर’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

सुनहरी जिन्दगी के स्वप्न देखे सबने जीवन भर

सुहानी भोर की पर रश्मियाँ कम तक पहुँच पाई।।

रहीं सजती सँवरती बस्तियाँ हर रात सपनों में

और दिल के द्वार पै बजती रही हर रोज शहनाई।।

भरी पैंगें सदा इच्छाओं ने साँसों के झूलों पर

नजर भी दूर तक दौड़ी सितारों से भी टकराई।।

मगर उठ-गिर के सागर की लहर सी तट से टकराके

हमेशा चोट खा के अनमनी सी लौट फिर आई।।

मगर ऐसे में भी हिम्मत बिना हारे जो जीते हैं

भरोसे की कली मन की कभी जिनकी न मुरझाई।।

कभी तकदीर से अपनी शिकायत जो नहीं करते

स्वतः हट जाती उनकी राह से हर एक कठिनाई।।

समय लेता परीक्षा पर किया करता प्रशंसा भी

विवश हार उससे जीत भी आती है शरमाई।।

अमर अपने सुदृढ़ संकल्प औ’ विश्वास के बल पर

सभी ने अपनी मनचाही ही सुखद मंजिल सदा पाई।।         

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 12 (96-100)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #12 (96-100) ॥ ☆

सर्गः-12

उसे राम ने अर्द्धचंद्र शर से डाला काट।

शत्रु विजय की आश सब हो गई बाराबाट।।96।।

 

सीता के दुख काट कर फिर देने नव प्राण।

किया राम ने धनुष पर ब्रह्मअस्त्र संधान।।97।।

 

कई फन का आकाश में दीप्तिमान विकराल।

शेषनाग की देह सा था वह अस्त्र कराल।।98।।

 

काटी उस ब्रह्मास्त्र ने शीश पंक्ति तत्काल।

था अमोघ अभिमंत्रित वह रावण का काल।।99।।

 

कई लहरों में तरंगित अरूण सा ज्यों नदतीर।

रक्त सिक्त ज्यों कण्ठ बिन था वह कटा शीर।।100।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 120 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 120 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

मध्वासव पीकर हुए, दृग प्रेमिल बेचैन।

अंग-अंग फडकन लगे, कैसे आए चैन।।

 

विजया तेरी आरती, करता हर पल राम।

कृपादृष्टि से आपकी, बनते बिगड़े काम।।

 

तुझे देख कहते सभी, मदिर तुम्हारा रूप।

चाल ढाल बदली हुई, दिखती नहीं अनूप।।

 

मन्मथ का जिसको कभी, लगा प्यार का बाण।

रक्षा उसकी हो रही, बचे रहेंगे प्राण।।

 

अंगूरी के स्वाद का, जो करते रसपान।

उनके नयनों में बसे, अक्सर हालाजान।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ पहचान ☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆

डॉ निशा अग्रवाल

☆  कविता – पहचान ☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆

किसी को नाम से जाना जाता है

तो किसी को उसके काम से

 

किसी को उसकी फितरत से जाना जाता है

तो किसी को उसकी फुरकत से

 

किसी को उसकी रुचियों से जाना जाता है

तो किसी को उसकी खर्चियों से

 

किसी को उसके होलिये से जाना जाता है

तो किसी को साफा और तौलिए से

 

किसी को उस के गुरूर से जाना जाता है

तो किसी को उसके मगरूर से

 

किसी को पैसे से जाना जाता है

तो किसी को पद प्रतिष्ठा से

 

किसी को उसकी टाई कोट से जाना जाता है

तो किसी को फ़टी टूटी चप्पल से

 

किसी को उसकी शहादत से जाना जाता है

तो किसी को उसकी आदत से

 

एक मैं हूँ जो सिर्फ मेरी कलम से जानी जाती हूँ

एक मैं हूँ जो मेरी कलम से पहचानी जाती हूँ।

 

©  डॉ निशा अग्रवाल

एजुकेशनिस्ट, स्क्रिप्ट राइटर, लेखिका, गायिका, कवियत्री

जयपुर, राजस्थान

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 12 (91-95)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #12 (91-95) ॥ ☆

सर्गः-12

राम ने मारा तीर जो रावण का उर चीर।

गया समा पाताल में हरने वहाँ की पीर।।91।।

 

शब्द शब्द को काटते अस्त्र शस्त्र की ओर।

राम औ’ रावण युद्ध का मचा भयानक शोर।।92।।

 

जैसे दो मदमत्त गज की न जीत न हार।

उन दोनों के युद्ध का रूप था उसी प्रकार।।93।।

 

मारण और प्रतिकार में छोड़े गये जो अस्त्र।

देव पुष्प वर्षा से हुई उन्हें शांति न हर्ष।।94।।

 

तब रावण ने राम पर मारी गदा कठोर।

जो ‘शतघ्नी’ थी नाम से कील खचित था छोर।।95।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 98 ☆ बाल कविता – चले शयन को अपने घर ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है आपकी एक बाल कविता  “चले शयन को अपने घर”.

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 98 ☆

☆ बाल कविता – चले शयन को अपने घर ☆ 

पश्चिम दिग में सूरज दादा

चले शयन को अपने घर।

कई दिनों में धूप है निकली

जाड़े जी भागे डर कर।।

 

श्वान खेलते हैं बालू में

गंगा की लहरें अनुपम।

बनती, बिगड़ें बार – बार हैं

आँखें भी थकती हैं कब।

 

पुष्प गुच्छ ,मालाएँ बहकर

चले जा रहे नई डगर।

पश्चिम दिग में सूरज दादा

चले शयन को अपने घर।।

 

चली शुकों की टोली – टोली

गीतों का गायन करतीं।

बुलबुल बोलें नई धुनों में

जीवन के रस हैं भरतीं।

 

कटी पतंग गिरी है जल में

बही जा रही नई समर।

पश्चिम दिग में सूरज दादा

चले शयन को अपने घर।।

 

जलमुर्गी और सोनचिरैया

गंगा के जल में तैरें।

शीतल जल भी लगता कोमल

खूब मजे से करतीं सैरें।

 

पूर्व से पश्चिम को गंगा

बहती हैं जीवन पथ पर।

पश्चिम दिग में सूरज दादा

चले शयन को अपने घर।।

 

जलपक्षी भी कभी तैरते

कभी उड़ें जल के ऊपर।

घर भी उनका गंगा तट है

आसमान की छत सिर पर।

 

जाने क्या – क्या चलीं बहाकर

मानव के पापों को भर।

पश्चिम दिग में सूरज दादा

चले शयन को अपने घर।।

 

जो भी आए खुश हो जाए

गंगा के पावन तट पर।

स्वच्छ रखें गंगा को हम सब

नहीं डालते कचरा पर।

 

पुण्य करें , न पाप कमाएँ

हम सब रखें स्वच्छ मगर।

पश्चिम दिग में सूरज दादा

चले शयन को अपने घर।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 12 (86-90)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #12 (86-90) ॥ ☆

सर्गः-12

मातलिने पहना दिया इंद्रकवच रक्षार्थ।

शत्रु अस्त्र सब हो गये कमल-पत्र, बेधार।।86।।

 

मिले पराक्रमी शत्रु द्वय बहुत समय के बाद।

राम औ’ रावण युद्ध तब हुआ वहाँ चरितार्थ।।87।।

 

नष्ट हो चुका पूर्व ही जिसका सब परिवार।

वह बहुभुज रावण था पर सक्रिय उसी प्रकार।।88।।

 

जिसने जीते देव कई शिव को दे सिर दान।

उस शत्रु के गुणों का भी राम को था सम्मान।।89।।

 

अति क्रोधी रावण ने तब भी करके अभिमान।

राम की दक्षिण भुजा में मारा अपना बाण।।90।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#120 ☆ जैसे-जैसे उथली होती गई नदी… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज  नर्मदा जयंती के पुनीत अवसर पर प्रस्तुत है भावप्रवण रचना “जैसे-जैसे उथली होती गई नदी…”)

☆  तन्मय साहित्य  #120 ☆

☆ जैसे-जैसे उथली होती गई नदी… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

जैसे-जैसे उथली होती गई नदी

वैसे-वैसे अधिक उछलती गई नदी।

 

अपने मौसम में, प्रभुता पा बौराई

तोड़ दिए तटबंध, मचलती गई नदी।

 

तीव्र वेग से आगे बढ़ने की चाहत

प्रतिपल तिलतिल कर के ढलती गई नदी। 

 

हवस भरे मन में कब सोच समझ रहती             

उद्वेलन में रूप बदलती गई नदी।

 

उतरा ज्वर यौवन का तन-मन शिथिल हुआ

मदहोशी में, खुद को छलती गई नदी।

 

बनी कोप भाजन अपनों से ही वह जब

है अंजाम किए के, जलती गई नदी।

 

तेवर सूरज के सहना भी तो  जायज

हो सचेत यूँ  स्वयं सुधरती गई नदी।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से#13 ☆ गीत – देह महक उठी— ☆ डॉ. सलमा जमाल ☆

डॉ.  सलमा जमाल

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन। ) 

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है। 

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर गीत  “देह महक उठी”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 13 ✒️

?  गीत – देह महक उठी —  डॉ. सलमा जमाल ?

(गीत बसंत)

देह महक उठी ,

स्वासों की सुगंध में ।

छाया ऋतुराज बसंत ,

गीत और छंद में ।।

 

व्याप्त है चहुं ओर ,

अनुपमता निसर्ग की ,

धरती पर छटा आज ,

बिखरी है स्वर्ग की ,

प्रसन्नता मानव ,

विहग – खग – वृंद में ।

छाया ————————— ।।

 

सुरभित हुईं दिशाएं ,

परिणति दृष्टि विनिमय ,

देख कर मौन प्रणय ,

गगन भी आज विस्मय ,

कूकती – कोयलिया ,

अमराई के झुंड में ।

छाया ————————– ।।

 

बसंती भोर में ,

दिग्दिगंत पूर्ण मधुमय ,

गा रहे नव पल्लव ,

रति का इतिहास तन्मय ,

गुंजित भ्रमावली ,

कानन – कुंज – निकुंज में ।

छाया ————————— ।।

© डा. सलमा जमाल 

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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