हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ #129 – आतिश का तरकश – ग़ज़ल – 16 – “हमने उनके ख़्वाबों को…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “हमने उनके ख़्वाबों को …”)

? ग़ज़ल # 15 – “हमने उनके ख़्वाबों को …” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

 

मुहब्बत वाले क़यामत की नज़र रखते हैं,

महबूब को हो तकलीफ़ तो ख़बर रखते हैं।

 

हमने उनके ख़्वाबों को आँखों पर सजाया,

हमपर आई सख़्त धूप वो शजर रखते हैं।

 

उन्होंने हमारी रातों को ख़्वाबों से सजाया,

उनकी यादें हम दिल में हर पहर रखते हैं।

 

ग़ज़ल सिर्फ़ आपही लिखना नहीं जानते हो,

हम रदीफ़ संग क़ाफ़िया ओ बहर रखते हैं।

 

हमने तो लुटा दी जन्नत उनकी चाहत में

वो हमेशा मिल्कियत पर तेज नज़र रखते हैं।

 

फ़लक से तोड़ तारे बिछाए तेरी रहगुज़र,

खुद के लिए टूटे प्यालों में ज़हर रखते हैं।

 

उन पर होवे इनायात की बारिश हर पहर,

आतिश उनकी मुसीबतों से बसर रखते हैं।

 

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा 68 ☆ गजल – ’माहौल देखकर के बेचैन मन बहुत है’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  माहौल देखकर के बेचैन मन बहुत है। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 68 ☆ गजल – ’माहौल देखकर के बेचैन मन बहुत है’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

खबरें सुनाती हर दिन आँसू भरी कथायें

दुख-दर्द भरी दुनियाँ, जायें तो कहाँ जायें ?

बढ़ती ही जा रही है संसार में बुराई

चल रही तेज आँधी हम सिर कहाँ छुपायें ?

उफना रही है बेढब बेइमानियों की नदियॉ

ईमानदारी डूबी, कैसे उसे बचायें ?

सद्भाव, प्रेम, ममता दिखती नहीं कहीं भी

है तेज आज जग में विद्वेष की हवायें।

है जो जहाँ भी, अपनी ढपली बजा रहा है

लगी आग है भयानक, जल रहीं सब दिशाएं।

दिखता न कहीं कोई सच्चाई का सहारा

अब सोचना जरूरी कैसे हो कम व्यथायें।

सब धर्म कहते आये है, प्रेम में भलाई

पर लोगों ने किया जो किसकों व्यथा सुनायें ?

बीता समय कभी भी वापस नहीं है आता

सीखा न पर किसी ने कि समय न गँवायें।

माहौल देखकर के बेचैन मन बहुत है

कैसे ’विदग्ध’ ऐसे में, चैन कहाँ पायें ?          

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 12 (61-65)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #12 (61-65) ॥ ☆

सर्गः-12

लंका में हनुमान ने देखी सीता दीन।

राक्षसी विष लतिकाओं के घिरी सुधैव मलीन।।61।।

 

देख राम की मुद्रिका चिर परिचित पहचान।

सीता ने आँसू बहा किया स्नेह सम्मान।।62।।

 

सीता को दे सान्त्वना सुना राम-संदेश।

‘हनु’ ने मारा ‘अक्ष’ को जारा लंका देश।।63।।

 

सीता-चूड़ामणि लिये जब लौटे हनुमान।

कुशल-कार्य सम्पन्न सुन हरषे राम महान।।64।।

 

सिय-चूड़ामणि हाथ ले, मूँद नयन कपि ओर।

प्रिया मिलन सम सुख समझ हो गये आत्मविभोर।।65।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ जाने कब ☆ डॉ. हंसा दीप

डॉ. हंसा दीप

संक्षिप्त परिचय

यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत। पूर्व में यॉर्क यूनिवर्सिटी, टोरंटो में हिन्दी कोर्स डायरेक्टर एवं भारतीय विश्वविद्यालयों में सहायक प्राध्यापक। तीन उपन्यास व चार कहानी संग्रह प्रकाशित। गुजराती, मराठी व पंजाबी में पुस्तकों का अनुवाद। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित। कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार 2020।

☆ कविता ☆ जाने कब ☆ डॉ. हंसा दीप 

कभी धूप, कभी छाँव

जाने क्यों

मौसम इतना खफा हुआ है।

 

काली घटा, कड़कती बिजली

जाने कहाँ

कोई बादल मचला हुआ है।

 

कभी प्यार, कभी नफरत

जाने कैसे  

हवा का रुख बदला हुआ है।

 

बहती नदियाँ, पूछतीं सवाल

जाने कौन

रो-रोकर बेहाल हुआ है।

 

कहीं दूर, कुछ टूटा है

जाने किससे

कोई हाथ छूटा हुआ है। 

☆☆☆☆☆

© डॉ. हंसा दीप

संपर्क – Dr. Hansa Deep, 22 Farrell Avenue, North York, Toronto, ON – M2R1C8 – Canada

दूरभाष – 001 647 213 1817

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 119 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 119 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

तुझसे अब कहते बना, होती जब है शाम।

प्यारा सा अहसास है, लेना तेरा नाम।।

 

खोज बहुत की सत्य की, करते रहे प्रचार।

संत कबीर ने कर दिया, धर्म पर ही प्रहार।

 

तेरी अपनी सोच है, मेरी अपनी सोच।

सोच सोच कर बोलना, लगे न दिल पर मोच।।

 

कविता में ही रच दिया, तूने सब संसार।

शब्द शब्द से झलकता, तेरा प्यार अपार।।

 

उनकी वाणी कह रही, मीठा मीठा बोल।

 सबकी वाणी हो मधुर, यह जीवन का मोल।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 109 ☆ राधा नाम सुनत हरि धावें…. ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  रचना “राधा नाम सुनत हरि धावें….। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 109 ☆

☆ राधा नाम सुनत हरि धावें….

राधा नाम देत सुख सारे, मनवांछित फल पावें

जाको नाम जपें खुद कृष्णा, निशदिन नाम बुलावें

रास विहारिनि नवल किशोरी, मोहन को अति भावें

राधे राधे जपिये प्यारे, कृष्णा सुन झट धावें

पाना है गर मोहन को तो, निशदिन राधे  गावें

राधे कह “संतोष”मिलेगा, सुख-शान्ति घर लावें

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 12 (56-60)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #12 (56-60) ॥ ☆

सर्गः-12

मृत जटायु का किया फिर उनने दाह संस्कार।

उस दशरथ के मित्र को पिता समान विचार।।56।।

 

पथ में मार ‘कबन्ध’ को दे सद्गति श्रीराम।

पंपा गये सुग्रीव ने उनको किया प्रणाम।।57।।

 

अनुज वधू का कर हरण करता था जो राज।

उस बाली को मार कर दिया सुग्रीव को ताज।।58।।

 

तब सीता की खोज मे वानर भेजे हजार।

कपिपति ने ज्यों राम के मन के विविध विचार।।59।।

 

सम्पाती से ज्ञात कर रावण का स्थान।

पहुँचे सागर पार कर पवन-पुत्र हनुमान।।60।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 145 ☆ कविता – रंगोली ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। )

आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता रंगोली

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 145 ☆

? कविता – रंगोली ?

त्यौहार पर सत्कार का

इजहार रंगोली

उत्सवी माहौल में,

अभिसार रंगोली

 

खुशियाँ हुलास और,

हाथो का हुनर हैं

मन का हैं प्रतिबिम्ब,

श्रंगार रंगोली

 

धरती पे उतारी है,

आसमां से रोशनी,

है आसुरी वृत्ति का,

प्रतिकार रंगोली

 

बहुओ ने बेटियों ने,

हिल मिल है सजाई

रौनक है मुस्कान है,

मंगल है रंगोली

 

पूजा परंपरा प्रार्थना,

जयकार लक्ष्मी की

शुभ लाभ की है कामना,

त्यौहार रंगोली

 

संस्कृति का है दर्पण,

सद्भाव की प्रतीक

कण कण उजास है,

संस्कार रंगोली

 

बिन्दु बिन्दु मिल बने,

रेखाओ से चित्र

पुष्पों से कभी रंगों से

अभिव्यक्त रंगोली

 

धरती की ओली में

रंग भरे हैं

चित्रो की भाषा का

संगीत रंगोली

 

अक्षर और शब्दों से,

हमने भी बनाई

गीतो से सजाई,

कविता की रंगोली

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ उड़ता यौवन ☆ डॉ निशा अग्रवाल

डॉ निशा अग्रवाल

☆  कविता – उड़ता यौवन ☆ डॉ निशा अग्रवाल ☆

वसंत ऋतु के आते ही, भंवरे कलियां मुस्काते है।

ऐसे ही मानव जीवन में, यौवन के दिन आते है।।

जैसे ही यौवन आता, अंग प्रस्फुटित हो उठता।

मुख आभान्वित, कजरारी आंखें ,अंग अंग दमक उठता।।

लुभा रही है नागिन वेणी, लहराती, बलखाती चमेली।

चाल चले हिरनी सा देखो, इतराती संग सखी सहेली।।

यौवन का हुस्न देख ज़माना, तारीफों के पुल बंधते देखूं।

सुन -सुन कर तारीफें ऐसी, बार -बार दर्पण को देखूं।।

मैं हंसती ,दर्पण भी हंसता, मैं रोती तो वो भी रोता।

दर्पण से याराना ऐसा, मैं खाती,जब वो भी खाता।।

दर्पण से यारी को देख, मन में लड्डू फूटे जाएं।

हर दिन मेरी उम्र बताकर, मुझसे मेरी पहचान कराए।।

उत्तरोत्तर दर्पण में एक दिन, शक्ल में उम्र परिवर्तन देखा।

पहली बार चमकता बाल, चांदी का मैने सिर में देखा।।

लगा जोर का झटका ऐसा, झकझोर दिया दर्पण को मैने।

जब दर्पण में बूढ़े तन की झुर्रियों को देखा मैने।।

कहाँ गयी कजरारी आँखें, और दमकता मेरा यौवन।

कहाँ गयी आभा चेहरे की, अंग फूल सा मेरा कोमल।।

दर्पण बोला उम्र बढ़ गयी, जिंदगी कगार पर पहुंच गई।

जहाँ खत्म हो जाता यौवन, इसी को कहते उड़ता यौवन।।

छणभंगुर है काया, जीवन, कुछ पल तक ही रहता यौवन।

जहाँ खत्म हो जाता सब कुछ, उसी को कहते उड़ता यौवन।।

मत घमंड करो काया पर इतना, ये भी साथ ना जाएगी।

होगा देह का अंत तो एक दिन, सिर्फ आत्मा रह जायेगी।।

 

©  डॉ निशा अग्रवाल

एजुकेशनिस्ट, स्क्रिप्ट राइटर, लेखिका, गायिका, कवियत्री

जयपुर, राजस्थान

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 97 ☆ बाल कविता – दिन हैं गजक मूंगफली वाले ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है आपकी एक बाल कविता  दिन हैं गजक मूंगफली वाले”.

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 97 ☆

☆ बाल कविता – दिन हैं गजक मूंगफली वाले ☆ 

चले सैर को बादल राजा

उत्तर दिग से दक्षिण में।

लाव – लश्कर साथ लिए हैं

ऐसा लगता हैं रण में।।

 

आँख मिचौनी सूर्य कर रहे

बादल जी की सेना से।

सुबह घने कोहरे की चादर

सूर्य छिपे चुप रैना से।।

 

हवा भी गुम है , पेड़ मौन हैं

हरियाली करती झम – झम।

पक्षीगण भी राग सुनाएँ

कहते सबसे खुश हैं हम।।

 

मौसम की भी अजब कहानी

रंग बदलता नए निराले।

कोहरा भागे बादल उमड़े

दिन हैं गजक मूंगफली वाले।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

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