हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा 67 ☆ गजल – ’याद’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  ग़ज़ल  “याद ”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा 67 ☆ गजल – ’याद’ ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

तुम्हारे सँग बिताया जब जमाना याद आता है

तो आँसू भरी आँखों में विकल मन डूब जाता है।

बड़ी मुश्किल से नये-नये सोच औ’ चिन्ता की उलझन से

अनेकों वेदनाओं की चुभन से उबर पाता है।

न जाने कौन सी गल्ती हुई कि छोड़ गई हमको

इसी संवाद में रत मन को दुख तब काटे खाता है।

अचानक तुम्हारी तैयारी जो यात्रा के लिये हो गई

इसी की जब भी आती याद, मन आँसू बहाता है।

अकेले अब तुम्हारे बिन मेरा मन भड़ भड़ाता है।

अँधेरी रातों में जब भी तुम्हें सपनों में पाता हूँ

तो मन यह मौन रो लेता या कुछ-कुछ बड़बड़ाता है।

कभी कुछ सोचें करने और होने लगता है कुछ और

तुम्हारे बिन, अकेले तो न कुछ भी अब सुहाता है।

अचानक तेवहारों में तुम्हारी याद आती है

उमड़ती भावनाओं में न बोला कुछ भी जाता है।

बड़ी मुश्किल से आये थे वे दिन खुष साथ रहने के

तो था कब पता यह भाग्य कब किसकों रूलाता है।

है अब तो शेष, आँसू, यादें औ’ दिन काटना आगे

अंदेशा कल का रह-रह आ मुझे अक्सर सताता है।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 12 (26-30)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #12 (26-30) ॥ ☆

सर्गः-12

करती अनुसरण राम का सिया सुनारि अनूप।

गुणोन्मुखी लक्ष्मी सदृश हुई सुशोभित खूब।।26।।

 

अनुसूया के वचन की बिखरी पुण्य सुगंध।

पाकर भौंरे भूल गये वन पुष्पों की गंध।।27।।

 

सांध्य मेघ के वर्ण का वन में मिला विराध।

जैसे चंद्रपथ रोकने ‘राहु’ करे अपराध।।28।।

 

वर्षा ऋतु में ग्रह यथा हरते वर्षा-धार।

उस राक्षस ने जानकी हर ली उसी प्रकार।।29।।

 

राम-लखन ने तब उसे अतिशय पीस-पछाड़।

आश्रम दूषण बचाने दिया भूमि में गाड़।।30।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 118 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 118 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

रागिनी

मधुर रागिनी छेड़ दी, बजती है झंकार ।।

सुधा बरसती प्रेम की, भीगे दिल के तार।।

 

मयूर

हलचल बादल में हुई, भरे मयूर उड़ान।

ठुमक -ठुमक कर चल रहा, दिखा रहा है शान।।

 

पुष्पज

भ्रमर फूल को देखकर, आते हैं जो पास।

पुष्पज का परिमल उन्हें, देता सुख-उल्लास।।

 

पर्जन्य

उमड़ – घुमड़ कर छा रहे, मिल-जुलकर हर ओर।

देख सभी पर्जन्य को, झूम मचाते शोर।।

 

अंगना ..

छेड़छाड़ से है व्यथित, छुपी अंगना आज।

डर से थरथर काँपती, किसे बताए राज।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष#107 ☆ कैसे कहूँ विरह की पीर…. ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  रचना “कैसे कहूँ विरह की पीर….। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 107 ☆

☆ कैसे कहूँ विरह की पीर….

 

पल पल राह निहारे आँखें, मनवा होत अधीर

जब से बिछुड़े श्याम साँवरे, अँखियन बरसत नीर

नैनन नींद न आबे मोखों, छूट रहा है धीर

बने द्वारिकाधीश जबहिं से, भूले माखन खीर

व्याकुल राधा बोल न पावें, चुभें विरह के तीर

दर्शन बिनु “संतोष” न आबे, काहे खेंचि लकीर

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 12 (21-25)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #12 (21-25) ॥ ☆

सर्गः-12

एक बार छाया सघन तरूतल सहित प्रमोद।

थके हुये से सो रहे राम सिया की गोद।।21।।

 

तभी इन्द्र-सुत काक बन आया वहाँ जयन्त।

रख कुदृष्टि छू सिया को नभ में उड़ा अनन्त।।22।।

 

मारा बाण इषीक तब, यह घटना सुन राम।

क्षमा माँगने पर किया एक नेत्र बेकाम।।23।।

 

चित्रकूट है निकट अति जहाँ भरत का वास।

यह विचार हरिणों भरा छोड़ा वह वन खास।।24।।

 

रह नक्षत्रों बीच ज्यों वर्षा बीते भानु।

किया राम ने रह वहाँ, दक्षिण दिशा प्रयाण।।25।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 96 ☆ तुझको स्वयं बदलना होगा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण  गीत  “तुझको स्वयं बदलना होगा”. 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 96 ☆

☆ गीत – तुझको स्वयं बदलना होगा ☆ 

देख रहा घर – घर में रगड़े

तुझको स्वयं बदलना होगा।

जीवन की हर बाधाओं से

हँसते – हँसते लड़ना होगा।।

 

कर्तव्यों से हीन मनुज जो

अधिकारों की लड़े लड़ाई।

प्रकृति के अनुकूल न चलता

आत्ममुग्ध हो करे बड़ाई।

झूठे सुख के लिए सदा ही

देख रहा ना पर्वत – खाई।

धन  – संग्रह की होड़ लगी है

मन कपटी है चिपटी काई।

 

हे मानव ! तू सँभल ले अब भी

तुझको स्वयं भुगतना होगा।

देख रहा घर – घर में रगड़े

तुझको स्वयं बदलना होगा।।

 

जो सन्तोषी इस धरती पर

वह ही सुख का मूल्य समझता।

वैभवशाली, धनशाली का

सबका ही सिंहासन हिलता।

उद्यम कर, पर चैन न खोना

अपना लक्ष्य बनाकर चलना।

परहित – सा कोई धर्म नहीं है

देवदूत बन सबसे मिलना।

 

समय कीमती व्यर्थ न खोना

तुझको स्वयं समझना होगा।

देख रहा घर – घर में रगड़े

तुझको स्वयं बदलना होगा।।

 

सामानों की भीड़ लगाकर

अपने घर को नरक बनाए।

सारा बोझा छूटे एक दिन

उल्टे – पुल्टे तरक चलाए।

उगते सूरज योग करें जो

उनकी किस्मत स्वयं बदलती।

कर्म और पुरुषार्थ , भलाई

यहाँ – वहाँ ये साथ हैं चलतीं।

 

परिस्थितियां जो भी हों साथी

तुझको स्वयं ही ढलना होगा।

देख रहा घर – घर में रगड़े

तुझको स्वयं बदलना होगा।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 12 (16-20)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #12 (16-20) ॥ ☆

सर्गः-12

 

किया राम ने भरत का अनुनय अस्वीकार।

परिवेत्ता बनने भरत हुये बहुत लाचार।।16।।

 

पितृ आज्ञा को त्यागने राम न थे तैयार।

चरणपादुका गह भरत पाये कुछ आधार।।17अ।।

 

राज्यदेवि के रूप में राम पादुका पूज।

राज चलाया भरत ने पा उनसे ही सूझ।।17ब।।

 

बनकर प्रतिनिधि राम के किया न नगर प्रवेश।

नंदि-ग्राम में रहे रख अपना तापस वेश।।18।।

 

अग्रज में दृढ़ भक्ति रख, लोभ-रहित मन साफ।

किया भरत ने प्रायश्चित माता के कृत पाप।।19।।

 

वयोवृद्ध इक्ष्वाकु नृप के कर सब आचार।

किया राम ने कम उमर में ही वन संचार।।20।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#118 ☆ अभी थे वे, अब नहीं है…..☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं एक भावप्रवण कविता “अभी थे वे, अब नहीं है…..”)

☆  तन्मय साहित्य  #118 ☆

☆ अभी थे वे, अब नहीं है….. ☆

अभी थे वे, अब नहीं है

जिंदगी का, सच यही है।

 

आज तो उनने, सुबह की चाय पी थी

और सब को, रोज जैसी राय दी थी

सुई-धागा हाथ में ले, सिल रहे थे,

बाँह कुर्ते की फटी, निरुपाय सी थी।

उलझते से, क्षुब्ध टाँके

कुछ कहीं, तो कुछ कहीं है

जिंदगी का सच यही है….

 

कह रहे थे, काम हैं कितने अधूरे

कामना थी, शीघ्र वे हो जाएँ पूरे

हैं सभी अंजान हम अगली घड़ी से,

एक पल में ध्वस्त सब मन के कँगूरे।

एषणाओं से भरा मन

अनगिनत खाते-बही है

जिंदगी का सच यही है….

 

कल नहा कर जब,अगरबत्ती जलाई

प्रार्थना के संग, फूटी थी रुलाई

बुदबुदाते से स्वयं, कुछ कह रहे थे,

किस अजाने से, उन्होंने लौ लगाई।

दिप्त मुखमुद्रा विलक्षण

जो दिखी वह अनकही है

जिंदगी का सच यही है….

 

बुलबुले हँसते-विहँसते जो खिले ये

कौन से पल बून्द बन जल में मिले ये

क्रम यही बनने-बिगड़ने का निरंतर,

जिंदगी के सर्वकालिक सिलसिले ये।

श्वांस सेतु, बटोही का

देहावरण शाश्वत नहीं है

जिंदगी का सच यही है

अभी थे वे, अब नहीं है।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलमा की कलम से#11 ☆ गीत – जाने किस गांव में ☆ डॉ. सलमा जमाल

डॉ.  सलमा जमाल

(डा. सलमा जमाल जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। रानी दुर्गावती विश्विद्यालय जबलपुर से  एम. ए. (हिन्दी, इतिहास, समाज शास्त्र), बी.एड., पी एच डी (मानद), डी लिट (मानद), एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त ।  15 वर्षों का शिक्षण कार्य का अनुभव  एवं विगत 22 वर्षों से समाज सेवारत ।आकाशवाणी छतरपुर/जबलपुर एवं दूरदर्शन भोपाल में काव्यांजलि में लगभग प्रतिवर्ष रचनाओं का प्रसारण। कवि सम्मेलनों, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी । विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जिनमें भारत सरकार की पत्रिका “पर्यावरण” दिल्ली प्रमुख हैं में रचनाएँ सतत प्रकाशित।अब तक लगभग 72 राष्ट्रीय एवं 3 अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार/अलंकरण। वर्तमान में अध्यक्ष, अखिल भारतीय हिंदी सेवा समिति, पाँच संस्थाओं की संरक्षिका एवं विभिन्न संस्थाओं में महत्वपूर्ण पदों पर आसीन। ) 

आपके द्वारा रचित अमृत का सागर (गीता-चिन्तन) और बुन्देली हनुमान चालीसा (आल्हा शैली) हमारी साँझा विरासत के प्रतीक है। 

आप प्रत्येक बुधवार को आपका साप्ताहिक स्तम्भ  ‘सलमा की कलम से’ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर गीत  “जाने किस गांव में”। 

✒️ साप्ताहिक स्तम्भ – सलमा की कलम से # 11 ✒️

?  गीत – जाने किस गांव में  —  डॉ. सलमा जमाल ?

होकर दीवानी मैं ढूंढती ही रही,

कभी इस गांव में, कभी उस गांव में ।

वो मिले ही , नहीं छुप गए हैं कहां,

जाने किस शहर में ,पेड़ों की छांव में ।।

 

इस ज़माने में उनको पाने के लिए,

मैंने सब कुछ किया, पर वफ़ा ना मिली ,

हर तरफ़ से मुझको ही शिकस्त मिली,

एक के बाद एक , हर प्यार के दांव में ।

होकर दीवानी ————- ।।

 

मुझको मंज़िल अभी तक मिली ही नहीं ,

चलते चलते अभी तक थकी ही नहीं ,

मेरे पैरों में कांटे चुभे अनगिनत ,

आज इस गांव में, तो कल उस पांव में ।

होकर दीवानी ————- ।।

 

एक ज़माना था दोनों ही दीवाने थे,

प्यार के दरिया से दोनों अनजाने थे ,

बदनसीबी नहीं है तो फिर और क्या ,

मैं हूं मझधार में ,वो जाने किस नाव में ।

होके दीवाने ————— ।।

 

मेरी राहें अलग ,उनकी मंज़िल जुदा ,

“सलमा”आज कहती है , हाफ़िज़ ख़ुदा ,

बेरहम दुनिया ने डाली हैं बेड़ियां ,

मेरे भी पांव में, उनके भी पांव में ।

होकर दीवाने ————– ।।

 

© डा. सलमा जमाल 

298, प्रगति नगर, तिलहरी, चौथा मील, मंडला रोड, पोस्ट बिलहरी, जबलपुर 482020
email – [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे – 10 – प्रेम, युद्ध और राजनीति ☆ श्री हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

☆ शब्द मेरे अर्थ तुम्हारे – 10 ☆ हेमन्त बावनकर

☆ प्रेम, युद्ध और राजनीति

यदि

‘प्रेम’ और ‘युद्ध’ में

सब ‘उचित’ है*

और

प्रेम, युद्ध और राजनीति में भी

सब ‘उचित’ है

इसका तात्पर्य है कि,

‘राजनीति’ में

सब ‘उचित’, ‘अनुचित’ 

और

सब ‘अनुचित’, ‘उचित’ ।

 

संभवतः

लोकतान्त्रिक समाज में

परस्पर ‘प्रेम’ के लिए

स्त्री और पुरुष का होना आवश्यक नहीं।  

‘युद्ध’ के लिए

राष्ट्रों का होना आवश्यक नहीं।  

और

परस्पर ‘राजनीति’ के लिए भी

राष्ट्रों का होना आवश्यक नहीं।  

 

संभवतः

लोकतान्त्रिक समाज में

धर्म, जाति और मानवीय संवेदनाओं  

की भुजाओं से निर्मित

‘त्रिकोण’ के तीन कोण हैं

प्रेम, युद्ध और राजनीति।  

 

अब

आप स्वयं तय करें  

कि आप

‘त्रिकोण’ के अंदर हैं,

‘त्रिकोण’ के बाहर हैं

या

तटस्थ हैं।

 

  * “All is fair in love in war” (प्रेम में सब उचित है) भावना का सबसे प्रथम उपयोग 1579 में प्रकाशित कवि जॉन लिली के उपन्यास “Euphues: The Anatomy of Wit” में किया गया था।   स्त्रोत – इंटरनेट

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

2 फ़रवरी  2022

मो 9833727628

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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