हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 11 (86-90)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #11 (86-90) ॥ ☆

पितुहंता क्षत्रियों का कर सम्पूर्ण विनाश।

योग्य ब्राह्मणों को दिया जिसने पृथ्वी राज्य।।86अ।।

 

ऐसे मुझको पराजित करना अपने हाथ।

उचित प्रशंसा योग्य है कार्य आपका नाथ।। 86ब।।

 

अतः बुद्धि वर गति मेरी तीर्थगमन की रक्ष्य।

नहीं भोग की कामना स्वर्ग करें प्रभु नष्ट।।87।।

 

कह-‘तथास्तु’ तब राम ने इच्छा उनकी मान।

छोड़ा स्वर्ग अवरोध हित पूर्व दिशा में बाण।।88।।

 

परशुराम के चरण छू ‘क्षमा करें’ हे राम।

 

विजय प्राप्त कर शक्ति से, क्षमा बड़ों का काम।।89।।

 

मातृदत्त तज रजोगुण सत ग्रह पितृ-प्रदत्त।

मुझे न चहिये स्वर्ग जो निश्चित है मम हित।।90।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – परिधि ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – परिधि ??

 

कुछ मैं,

कुछ मेरे शब्द,

सब कुछ की परिधि

कितनी छोटी होती है..!

 

©  संजय भारद्वाज

(शनि. 20 अप्रैल 2019 , संध्या 6.54 बजे)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 117 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 117 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

संविधान जबसे बना, है गणतंत्र महान।

हमको अपने देश का, रखना होगा मान।।

 

संविधान देता हमें, जीने का अधिकार।

बदला हुआ राजतंत्र, हमें यही स्वीकार।।

 

संविधान की भावना, जिसके मन में आज।

वही कर रहा है अभी, सभी दिलों पर राज।।

 

कहे तिरंगा शान से, बसे देश के प्रान।

कहता गाथा देश की, दिए बहुत बलिदान।।

 

देश भक्ति के भाव का, करते  है गुणगान।

मिलजुल कर करते सभी, देश का सम्मान।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष#106 ☆ प्रेम के बस में हैं घनश्याम ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण  रचना “प्रेम के बस में हैं घनश्याम…. । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 106☆

☆ प्रेम के बस में हैं घनश्याम ….

 

प्रेम गीत सुनाए बाँसुरी,प्रेम मिले बिन दाम

प्रेम दिवानी मीरा कहतीं,प्रेम राधिका नाम

बिष पी कर जब नाचन लागी,चकित हुआ आवाम

चीर द्रोपदी का जब बाढ़ा,हुआ न तन नीलाम

सिंघासन पर बिठा मित्र को,पैर पखारें श्याम

दीन-हीन “संतोष”पुकारे,श्याम प्रेम के धाम

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 11 (81-85)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #11 (81-85) ॥ ☆

टिका भूमि पर धनुष को चढ़ा प्रत्यंचा राम।

परशुराम के तेज की दिखा दिया कर शाम।।81।।

 

देखा सबने पूर्णिमा चन्द्रोदय सम श्रीराम।

और डूबते सूर्य से गतछवि परशूराम।।82।।

 

परशुराम को अस्तछवि औ’ अमोध उस बाण।

को निहार कार्तिकेय सम विनयी बोले राम।।83।।

 

हुये पराजित किन्तु हैं ब्राह्मण चूंकि आप।

कर प्रहार निर्दयी सा मैं न करूँगा पाप।।84अ।।

 

इससे अपने बाण से कर दूँ गति तव नाश।

या बोलें कि यज्ञ से अर्जित स्वर्ग-विनाश।।84ब।।

 

परशुराम बोले-मुझे अवतारी तुम ज्ञात।

लखूँ वैष्णवी तेज तव कुमति किया सो नाथ।।85।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संतुलन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – संतुलन ??

वे सकते में हैं

मुझे देखकर वहाँ

कल वे थे जहाँ…,

मैं देख रहा हूँ

कल मेरी जगह

कोई और होगा यहाँ…,

जानने के बजाय

सच को मानना

हितकर होता है,

यथार्थ का स्वीकार

जीवन को सदा

संतुलन देता है!

 

©  संजय भारद्वाज

(शनि. 20 अप्रैल 2019 , संध्या 6.54 बजे)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 95 ☆ हँसता जीवन ही बचपन ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण  रचना “हँसता जीवन ही बचपन”. 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 95 ☆

☆ गीत – हँसता जीवन ही बचपन ☆ 

भोला बचपन कोमल मन है

प्यार तुम्हारा सदा अमर है।

मुझको तो बस ऐसा लगता

तू पूरा ही गाँव  – नगर है।।

 

रहें असीमित आशाएँ भी

जो मुझको नवजीवन देतीं।

जीवन का भी अर्थ यही है

मुश्किल में नैया को खेतीं।

 

हँसता जीवन ही बचपन है

दूर सदा पर मन से डर है।

भोला बचपन कोमल मन है

प्यार तुम्हारा सदा अमर है।।

 

पल में रूठा , पल में मनता

घर – आँगन में करे उजारा।

राग, द्वेष, नफरत कब जागे

इससे तो यह तम भी हारा।

 

बचपन तू तो खिला सुमन है

पंछी – सा उड़ता फर – फर है।

भोला बचपन कोमल मन है

प्यार तुम्हारा सदा अमर है।।

 

बचपन का नाती है नाना

खेल करे यह खूब सुहाए।

सदा समर्पित प्यार तुम्हीं पर

तुम ही सबका मिलन कराए।

 

झरने, नदियाँ तुम ही सब हो

जो बहता निर्झर – निर्झर है।

भोला बचपन कोमल मन है

प्यार तुम्हारा सदा अमर है।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 11 (76-80)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #11 (76-80) ॥ ☆

विष्णु ओज विगलित समझ शिवधनु किया दोटूक।

सरित वेगविगलित विटप तो वायु भी देता फूँक।।76।।

 

अतः मेरा धनु चढ़ाओ और चलाओ बाण।

तभी तुम्हारी विजय का होगा सफल प्रमाण।।77।।

 

यदि भय देती हो मेरे अग्नि परशु की धार।

तो विनम्र तव प्रार्थना हो सकती स्वीकार।।78।।

 

क्रुद्ध देख भृगुपुत्र को लिये मधुर मुसकान।

लिया धनुष उनसे कि दें, उत्तर चढ़ा कमान।।79।।

 

पूर्व जन्म का धनुष पा पुलक उठे रघुनाथ।

मेघ स्वतः ही है सुखद, अधिक इन्द्रधनु साथ।।80।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य#117 ☆ गणतंत्र दिवस विशेष – मैं भारत हूँ…..☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”  महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं एक भावप्रवण कविता “मैं भारत हूँ…..”)

☆  तन्मय साहित्य  #117 ☆

?? गणतंत्र दिवस विशेष – मैं भारत हूँ….. ??

मैं हूँ भारत देश, अहिंसा मेरा नारा।

प्रेम शांति सद्भावों की, बहती जलधारा।।

 

सत्य सनातन धर्म-कर्म के स्रोत यहाँ है

भेदभाव नहीं जाति पंथ में, द्वेष यहाँ है

हिंदू-मुस्लिम, बौद्ध, पारसी और ईसाई,

सब के अंतर में समतामय, बोध यहाँ है।

  क्षमताओं में ममतामय कौशल बल निर्मल

  सर्वे भवन्तु सुखिनः, मूलमंत्र यह प्यारा।

  मैं हूँ भारत देश, अहिंसा मेरा नारा

 

अलग-अलग भाषा बोली के कंठ सुरीले

सबसे ऊपर हिंदी, इसके बोल रसीले

गंगा, यमुना और नर्मदा पुण्य दायिनी

पाप मिटे जो इनका जल श्रद्धा से पी ले,

    ज्ञान ध्यान साधना नियम संयम है मुझमें

    इंद्रधनुष सतरंगा ये गुलशन अति प्यारा।

    मैं हूँ भारत देश, अहिंसा मेरा नारा।।

 

 मैं शांति का उदघोषक सब जीव अभय हो

 हूँ क्रांति का पोषक, अपनी सदा विजय हो

 “वसुधैव कुटुंबकम” का संदेश हमारा,

 चाह, विश्व में भ्रातृभाव की, मधुरिम लय हो

   पराक्रमी पुरुषत्व, उमंगित जन-मन मेरा

   सकल विश्व में हूँ, समज्योतिर्मय ध्रुव तारा।

   मैं हूँ भारत देश अहिंसा मेरा नारा।।

                                    

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ।।गणतंत्र दिवस।। हर धड़कन में हिंदी, हिन्द, हिंदुस्तान चाहिये।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण एवं विचारणीय रचना ।।हर धड़कन में हिंदी, हिन्द, हिंदुस्तान चाहिये ।।)

☆ कविता – ?? गणतंत्र दिवस ?? हर धड़कन में हिंदी, हिन्द, हिंदुस्तान चाहिये ?? ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

।।विधा।। मुक्तक।।

[1]

हर रंग से हमें रंगीन हिंदुस्तान चाहिये।

खिलते बाग बहार गुलिस्तान चाहिये।।

चाहिये विश्व में नाम ऊँचा भारत का।

विश्व गुरु भारत का ऊँचा सम्मान चाहिये।।

 

[2]

मंगल चांद को छूता भारत महान चाहिये।

अजेय अखंड विजेता हिंदुस्तान चाहिये।।

दुश्मन नज़र उठा कर देख भी ना सके।

हर शत्रु का हमको काम तमाम चाहिये।।

 

[3]

हमें गले मिलते राम और रहमान चाहिये।

एक दूजे के लिए प्रणाम सलाम चाहिये।।

चाहिये हमें मिल कर रहते हुए सब लोग।

एक दूजे के लिए दिलों में एतराम चाहिये।।

 

[4]

एक सौ पैंतीस करोड़ सुखी अवाम चाहिये।

कश्मीर कन्याकुमारी प्रेम का पैगाम चाहिये।।

चाहिये विविधता में एकता शक्ति दर्शन।

देश भक्ति सरीखा राष्ट्र में यशो गान चाहिये।।

 

[5]

पुरातन संस्कार मूल्यों का गुणगान चाहिये।

हर भारतवासी चेहरे पर गर्व मुस्कान चाहिये।।

चाहिये गौरव अभिमान अपने देश भारत पर।

हर धड़कन हिन्दी, हिन्द का ही पैगाम चाहिये।।

 

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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