हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 64 ☆ शिव के मन मांहि बसी गौरा ……. ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा रचित भावप्रवण कविता  ‘शिव के मन मांहि बसी गौरा ……. ’। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 64 ☆ 

☆ शिव के मन मांहि बसी गौरा ……. ☆ 

शिव के मन मांहि

बसी गौरा

.

भाँग भवानी कूट-छान के

मिला दूध में हँस घोला

शिव के मन मांहि

बसी गौरा

पेड़ा गटकें, सुना कबीरा

चिलम-धतूरा धर झोला

शिव के मन मांहि

बसी गौरा

.

भसम-गुलाल मलन को मचलें

डगमग डगमग दिल डोला

शिव के मन मांहि

बसी गौरा

.

आग लगाये टेसू मन में

झुलस रहे चुप बम भोला

शिव के मन मांहि

बसी गौरा

.

विरह-आग पे पिचकारी की

पड़ी धार, बुझ गै शोला

शिव के मन मांहि

बसी गौरा

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य #94 ☆ इंसान चुप क्यूँ है ? ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# #94 ☆ # इंसान चुप क्यूँ है ?# ☆

इंसान चुप क्यूँ है ?

आज इंसानियत से इंसान,

इतना दूर क्यूँ है?

 दया धर्म की बातें करता है,

फिर इतना मगरूर क्यूँ है?

आज इस वतन की फिज़ाओं में,

ज़हर घुला क्यूँ है?

इस चमन को,

आज माली से गिला क्यूँ है?  

 

ये सब आपसी ,

झगड़े क्यूँ है?

हिन्दू मुस्लिम आपस में,

लड़े क्यूँ है?

इंसानियत में क्यूँ,

चीख़ें है इंसानों की?

उनके भीतर बारूदो का धुआं क्यूँ है?

चलते चलते इंसानों के कदम ठिठके है,

ख़ुदा भगवानों के दर पे पहरा क्यूँ है?

 

क्या भगवान भी डरता है

अब इंसानों से,

नां जाने आज वो सहमा क्यूँ है?

बताओ आज भीड़ में लाशें क्यूँ है,

इंसानी लहू बहता है सड़कों पर,

उसकी मौत पर तमाशे क्यूँ है?

बड़े गहरे हैं दाग दामन के,

सभी कुछ देख कर इंसान चुप रहता क्यूँ है?

 

अपने मतलब की खातिर,

वो इन्सान से हैवान बना।

इंसानियत  छोड़ कर,

इंसान से शैतान बना।

अपने फर्ज भूल कर,

वो राजनीति करता है।

गुनाह करते वो

मालिक से न डरता है।

वो कौम परस्त बन कर

वतनपरस्ती भूल बैठा है।

वो इबादतें करता नहीं

अब मादरेवतन की।

मजहबी आड़ ले गुनाह वो कर बैठा हैं,

इंसानियत की सीख भूल बैठा है।।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

23-10-2021

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 6 (51-55)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #6 (51-55) ॥ ☆

 

 

औं गिरि-गोवर्धन की कंदराओ में वर्षा सिंचित सुगंधवाली

शिलाओं पै बैठ मयूर नर्तन मधुर मनोरम विलोको आली ॥ 51॥

 

पहाड़ को लांघ सगर्त सरिता है बढ़ती जैसे जलधि को पाने

तथैवं उस नृप से आगे इन्दु बढ़ी चरम अपना लक्ष्य पाने ॥ 52॥

 

केयूर भुज श्शत्रुविनाशकर्ता, कलिंग नृप तक पहुंचके दासी

वरानना इंदुमती से, हेमांगद के विषय में यह बात भाषी ॥ 53॥

 

महेन्द्र गिरि सा महाबली यह महेन्द्र और सिन्धु का योग्य स्वामी

कि जिसकी यात्राओं में है चलते पहाड़ से गज मद प्रवाही ॥ 54॥

 

अरिराज लक्ष्मी के अंजनाश्रु से सिक्त वनपथ सी धनुर्ज्या से

सुभुज धनुर्धारी अग्रगामी है घात से लांछित हाथ जिसके ॥ 55॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – ऊहापोह ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – ऊहापोह ?

(कल ऑनलाइन लोकार्पित होनेवाले कविता-संग्रह क्रौंच से)

ऐसी लबालब

क्यों भर दी

रचनात्मकता तूने,

बोलता हूँ

तो चर्चा होती है,

मौन रहता हूँ तो

और अधिक

चर्चा होती है!

©  संजय भारद्वाज

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश – ग़ज़ल # 1 – “सहारे” ☆ श्री सुरेश पटवा

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश आज प्रस्तुत है आपकी ग़ज़ल “सहारे ”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश – ग़ज़ल # 1 – “सहारे” ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

हम से मुफ़लिस ज़िन्दगी से हारे बहुत हैं, 

मिलता नहीं कोई नाख़ुदा किनारे बहुत हैं।

 

नज़रिया सबका अलहदा जम्हूरियत में

आजकल सियासत समझाने वाले बहुत हैं।

 

काफिरों के घरों में है जन्नत का नजारा,

दौर-ए-ज़िल्लत मुसीबत के मारे बहुत हैं।

 

कोई न समझेगा हमारे लफ़्ज़ों की भाषा,

समझदार को निगाहों में इशारे बहुत हैं।

 

कोई न मददगार हमारा वक्त-ए-मुसीबत,

इस जहाँ में कहने को हमारे सहारे बहुत है।

 

आड़े वक्त काम न आए ‘आतिश’ के वो,

जनाजे को कंधा देने वाले पराए बहुत हैं।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 52 ☆ गजल ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण  “गजल”। हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा # 52 ☆ गजल ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध ☆

 

हंसी-खुशयों से सजी हुई जिन्दगानी चाहिये।

सबको जो अच्छी लगे ऐसी रवानी चाहिये।

समय के संग बदल जाता सभी कुछ संसार में।

जो न बदले याद को ऐसी निशानी चाहिये।

आत्मनिर्भर हो न जो, वह भी भला क्या जिन्दगी

न किसी का सहारा, न मेहरबानी चाहिये।

हो भले काँटों तथा उल्झन भरी पगडंडियॉ

जो न रोके कहीं वे राहें सुहानी चाहियें।

नजरे हो आकाश पै पर पैर धरती पर रहे

हमेशा  हर सोच में यह सावधानी चाहिये।

हर नये दिन नई प्रगति की मन करे नई कामना

निगाहों में किन्तु मर्यादा का पानी चाहिये।

मिल सके नई उड़ानों के जहॉ से सब रास्ते

सद्विचारों की सुखद वह राजधानी चाहिये।

बांटती हो जहां  सबको खुशबू  अपने प्यार की

भावना को वह महेती रातरानी चाहिये।

हर अॅंधेरी समस्या का हल, सहज जो खोज ले

बुद्धि बिजली को चमक वह आसमानी चाहिये।

नित नये सितारों तक पहुंचाना तो है भला

मन ’विदग्ध’ निराश न हो, और हो समन्वित भावना

देश  को जो नई दिशा  दे वह जवानी चाहिये।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 6 (46 -50)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग #6 (46-50) ॥ ☆

 

ये नीपवंशी सुषेण नृप हैं आ जिनके आश्रय सभी गुणों ने

भुला दिया बैर है जैसे सिद्धाश्रमों में जा हिस्रजों ने ॥ 46॥

 

सुखद मधुर चंद्र सी कांति जिसकी तो शोभती है स्वयं सदन में

पर तेज से पीडि़त शत्रु है सब हैं घास ऊगे घर उन नगर में ॥ 47॥

 

विहार में घुल उरोज चंदन कालिन्दी में मिल यों भास होता

ज्यों यमुना का मथुरा में ही गंगा से शायद सहसा मिलाप होता ॥ 48॥

 

गले में इनके गरूड़ प्रताडि़त है कालियादत्त मणि की माला

श्री कृष्ण का कौस्तुभ मणि भी जिसके समक्ष है फीकी कांति वाला ॥ 49॥

 

स्वीकार इसको मृदुकिरूलयों युक्त सुपुष्प शैया से वृन्दावन में

जों चैत्ररथ सें नहीं कोई कम, हे सुन्दरी रम सहज सघन में ॥ 50॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – भाषा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

? संजय दृष्टि – भाषा ?

(रविवार को ऑनलाइन लोकार्पित होनेवाले कविता-संग्रह क्रौंच से)

‘ब’ का ‘र’ से बैर है,

‘श’ की ‘त्र’ से शत्रुता,

‘द’ जाने क्या सोच

‘श’, ‘म’ और ‘न’ से

दुश्मनी पाले है,

‘अ’ अनमना-सा

‘ब’ और ‘न’ से

अनबन ठाने है,

स्वर खुद पर रीझे हैं,

व्यंजन अपने मद में डूबे हैं,

‘मैं’ की मय में

सारे मतवाले हैं,

है तो हरेक वर्ण पर

वर्णमाला का भ्रम पाले है,

येन केन प्रकारेण

इस विनाशी भ्रम से

बाहर निकाल पाता हूँ,

शब्द और वाक्य बन कर

मैं भाषा की भूमिका निभाता हूँ।

©  संजय भारद्वाज

(16.12.2018, रात्रि बजे 11:55 )

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 104 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे । ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 104 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

पाती तुमको लिख रही,

लिखती  हूं  अविराम।

शब्द शब्द में है रचा,

बस तेरा ही नाम।।

 

नेह निमंत्रण दे रहे,

इसे करो स्वीकार।

आपस के संबंध में,

नहीं जीत या हार।।

 

पीड़ित मन से पूछ लो,

अंतर्मन की आग।

कैसे समझेंगे भला,

फूटे जिनके भाग।।

 

झरने झील पहाड़ की ,

करो न कोई बात।

याद मुझे आने लगी ,

वही सुहानी रात।।

 

मृगनयनी सा रुप है,

तू जंगल की हीर।

दिखता तुझको लक्ष्य है,

साधे बैठी तीर।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 93 ☆ प्रभु जी जानत हौ गति जन की ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.  “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण कविता “प्रभु जी जानत हौ गति जन की । आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 93 ☆

☆ प्रभु जी जानत हौ गति जन की ☆

 

हम अज्ञानी साँच ना जाने, करते हैं बस मन की

मूल स्वरूप भूल कर प्राणी, फिकर करे बस तन की ।।

 

माया बस लालच में लिपटे, यतन करें बस धन की

सिर पर चढ़ कर अहं बोलता, रखें याद निजपन की।।

 

नेकी की हम राह न जाने, राह थाम अवगुन की

माया से “संतोष” उबारो, बेला हुई गमन की ।।

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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