हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 84 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं विशेष भावप्रवण कविता  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 84 ☆

☆ संतोष के दोहे ☆

धर्म सनातन कह रहा, सारा जग परिवार

भेद-भाव मन से मिटे, सब ईश्वर अवतार

 

सुख-दुख में सब साथ हों, रहे प्रेम व्यबहार

बच्चे भी सीखें सदा, नव आचार-बिचार

 

रिश्तों की मीठी महक, सबको दे सम्मान

जोड़े सब परिवार को, बढ़ती घर की शान

 

कभी न टूटे आपके, रिश्तों की यह डोर

माला सा परिवार बँध, खींचे सबकी ओर

 

हो वसुदेव कुटुम्बकम, कहते अपने ग्रंथ

प्रेम भाव से सब रहें, सबके अपने पंथ

 

पर कलियुग में आजकल, बिखरे सब परिवार

धन-दौलत की लालसा, स्वारथ का व्यबहार

 

जीवन में गर चाहिए, सुख-शांति संतोष

साथ रहें माँ-बाप के, यह जीवन परितोष

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (1-5)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (1-2) ॥ ☆

तनप्रात में उस नृपति ने गुरू-धेनु को वन गमन हेतु घर से निकाला

था वत्स जिसका बँधा दूध पी, जिसे रानी ने पहनाई थी पूजमाला ॥1॥

 

उसके खुन्यास से पावनी धुलि का अनुगमन तब किया पतिव्रताने

वन मार्ग राजरानी ने जैसे कि श्रुति अनुसरण किया स्मृति, दृढव्रताने ॥2॥

 

निश्चिंत सुस्वरूप दयालु राजा ने नंदिनी की सुरक्षा सम्हाली

गोरूप धारिणि धरा सी सुशोभित जो थी चार सागर स्तन ऐनवाली ॥3॥

 

व्रत हेतु उस धेनु अनुयायि ने आत्म अनुयायियों को नवन साथ लाया

अपनी सुरक्षा स्वतः कर सके हर मनुज इस तरह से गया है बनाया ॥4॥

 

खिला के हरी घास, तन को खुजा के औं वनमक्षिका दे शनों से बचा के

थे सम्राट सेवा निरंतनंदिनी की, जो चरती थी स्वच्छन्द बे रोक जाके॥5॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – ज्योतिर्गमय ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – ? ज्योतिर्गमय  ?

अथाह, असीम

अथक अंधेरा,

द्वादशपक्षीय

रात का डेरा,

ध्रुवीय बिंदु

सच को जानते हैं,

चाँद को रात का

पहरेदार मानते हैं,

बात को समझा करो,

पहरेदार से डरा करो,

पर इस पहरेदार की

टकटकी ही तो

मेरे पास है,

चाँद है सो

सूरज के लौटने

की आस है,

अवधि थोड़ी हो,

अवधि अधिक हो,

सूरज की राह देखते

बीत जाती है रात,

अंधेरे के गर्भ में

प्रकाश को पंख फूटते हैं,

तमस के पैरोकार,

सुनो, रात काटना

इसी को तो कहते हैं..!

( ध्रुवीय बिंदु पर रात और दिन लगभग छह-छह माह के होते हैं।)

# सजग रहें, स्वस्थ रहें। शुभ प्रभात। ?

 

©  संजय भारद्वाज

(रात्रि 3:31 बजे, 6.6.2020)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 110 ☆ कट्टरता के काले पंजे…. ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी द्वारा रचित समसामयिक विषय पर आधारित एक कविता  कट्टरता के काले पंजे….। इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 110 ☆

? कट्टरता के काले पंजे ?

कठपुतली की तरह नचाते हैं अवाम को

कट्टरता के काले पंजे

छीन कर ताकत

सोचने समझने की

डाल देते हैं

दिमाग पर काले पर्दे

कट्टरता के काले पंजे

 

ओढ़ा देते हैं बुर्के औरतों को,

कैदखाना बना देते हैं

घर घर को

अदृश्य काले पंजे

 

मनमानी व्याख्या कर लेते हैं

पवित्र किताबों की

जिंदगी को

जहन्नुम बना देते हैं

फासिस्ट क्रूर काले पंजे

 

बंदूक की नोक

बम और बारूद

अमानवीय नृशंसता

तो महज दिखते हैं

दरअसल कठमुल्ले विचार

हैं काले पंजे

 

हिटलर के गोरे शरीर में

छिपे थे ऐसे ही काले पंजे

तालिबानी ताकत हैं

ये ही काले पंजे

 

सावधान

रखना है दिल दिमाग

हमें कभी कठपुतली

न बना सकें

कोई काले या सफेद

दृश्य या अदृश्य

प्रत्यक्ष या परोक्ष

फासिस्ट पंजे

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 72 ☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – एकादश अध्याय ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है  एकादश अध्याय

फ्लिपकार्ट लिंक >> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 72 ☆

☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – एकादश अध्याय ☆ 

स्नेही मित्रो सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा श्रीकृष्ण कृपा से दोहों में किया गया है। पुस्तक भी प्रकाशित हो गई है। आज आप पढ़िए ग्यारहवें अध्याय का सार। आनन्द उठाइए।

 – डॉ राकेश चक्र 

ग्यारहवां अध्याय – विराट रूप

श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को अपने विराट स्वरूप के दर्शन कराए।

श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को दसवें अध्याय में गुह्य ज्ञान के बारे में बताया, जो अति गोपनीय है। अर्जुन ने अपनी जिज्ञासा भगवान के विराट स्वरूप के दर्शनों को लेकर कुछ इस प्रकार प्रकट की——

 

गुह्य ज्ञान आध्यात्मिक, कहा आपने आज।

दूर हुआ सब मोह अब, जाना प्रभु का राज।। 1

 

कमलनयन जगदीश प्रभु, प्रलय-सृष्टि हैं आप।

अक्षय महिमा आपकी, हर लेती सब पाप।। 2

 

रूप सलोना दिव्य प्रभु, पुरुषोत्तम हैं आप।

छवि विराट दिखलाइए, मिट जाएँ संताप।। 3

 

विश्वरूप अवतार प्रभु,  योगेश्वर यदुनाथ।

दर्शन देकर कीजिए,केशव मुझे सनाथ।। 4

 

श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को अपने विराट स्वरूप के दर्शन कराए——-

 

कहा कृष्ण भगवान ने, पार्थ देख ऐश्वर्य।

देव हजारों देख तू ,लख मेरा सौंदर्य।। 5

 

आदित्यों को देख तू, देख देव वसु रुद्र।

कुमारादि लख अश्विनी,देख दृष्टि से भद्र।। 6

 

चाहो यदि तुम देखना, देखो दिव्य शरीर।

देखो भूत-भविष्य तुम, देखो धरि मन धीर।। 7

 

दिव्य आँख में दे रहा, देख योग ऐश्वर्य ।

भौतिक आँखों से नहीं,दिखे दिव्य सौंदर्य।। 8

 

धृतराष्ट्र का सारथी संजय भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन का संवाद सुना और इस प्रकार भगवान के विराट रूप का वर्णन कर धृतराष्ट्र से कहा–

 

संजय कह धृतराष्ट्र से, कृष्ण दिखाएँ रूप।

विश्वरूप दिखला रहे, देखे देव अनूप।। 9

 

विश्वरूप अंतर्निहित, रूप अनादि अनंत।

अनगिन लोचन शीश मुख,अस्त्र-शस्त्र विजयंत।। 10

 

दैवी-आभूषण सुभग,दिव्य अस्त्र हथियार।

सुंदर माला वस्त्र हैं, दिव्य-सुगंध अपार।। 11

 

सहस सूर्य -सा तेज भी, है सम्मुख श्रीहीन

विश्वरूप परमात्मा, के सर्वथा अधीन। 12

 

विश्वरूप भगवान का, अर्जुन देखे रूप।

भाग हजारों विभक्ता, ब्रह्म सभी का भूप।। 13

 

अर्जुन हतप्रभ देखता, हुआ मोह से ग्रस्त।

नत-मस्तक करता विनय,जोड़ युगल निज हस्त।। 14

 

अर्जुन ने श्रीकृष्ण भगवान से कहा-

 

विश्वरूप में देव हैं, देखे विविधा रूप।

ब्रह्मा, शिवजी, ऋषि-मुनी, देखे नाग अनूप।। 15

 

अर्जुन बोला कृष्ण से, हे प्रभु विश्व स्वरूप

अंत, मध्य ना आदि तव,तन विस्तार अनूप।।

 

चकाचौंध अति तेज है, जैसे सूर्य प्रकाश।

तेजोमय सर्वत्र है, मुकुट, चक्र अविनाश।। 17

 

परम् आद्य प्रभु ज्ञेय हैं, सकल आश्र ब्रह्माण्ड।

अव्यय और पुराण हैं,स्वयं आप भगवान।। 18

 

अनत भुजाएँ आपकी, सूर्य-चंद्र हैं नैन

आदि,मध्य न अंत है, तेज अग्नि-से सैन। 19

 

मुख में अनगिन लोक हैं, दिग्दिगंत परिव्याप्त।

रूप अलौकिक देखकर, भय से सब हैं आप्त।। 20

 

शरणागत हैं देवगण, दिखते अति भयभीत।

सब करते हैं प्रार्थना, ऋषिगण सहित विनीत।। 21

 

शिव के विविधा रूप हैं, यक्ष, असुर गंधर्व

सिध्य-साध्य,आदित्य वसु, मरुत-पित्रगण सर्व।। 22

 

यह विराट अवतार लख, विचलित होते लोक।

अंग भयानक देखकर, बढ़ा हृदय भय शोक।। 23

 

सर्वव्याप प्रभु विष्णु का, रूप अलौकिक देख।

धैर्य न धारण हो रहा, मन भी रहित विवेक।। 24

 

मुझ पर आप प्रसन्न हों, हे प्रियवर देवेश।

प्रलय अग्नि मुख देखकर, मन में बढ़ा कलेश।। 25

 

कौरव दल के योद्धा, मुख में करें प्रवेश।

दाँतों में सब पिस रहे, बचा न कोई शेष।। 26

 

सौ सुत सब धृतराष्ट्र के, भीष्म, द्रोण सह कर्ण।

सभी प्रमुख योद्धा मरे, देख रहा सब वर्ण।। 27

 

नदियाँ जातीं जिस तरह, प्रिय के गाँव समुद्र।

उसी तरह योद्धा मिले, मुख में होते बद्ध।। 28

 

मुख में देखूँ वेग-सा, पूरा ही संसार।

अग्निशिखा में जिस तरह, जलें पतिंगे क्षार।।29

 

जलते मुख में आ रहे, निगल रहे सब आप।

इस पूरे ब्रह्मांड को, करें प्रकाशित आप।। 30

 

कृष्ण मुझे बतलाइए, उग्र रूप में कौन।

करता हूँ मैं प्रार्थना, तोड़ें अपना मौन।। 31

 

श्री भगवान ने अर्जुन से कहा

 

सकल जगत वर्तमान का, करने आया नाश।

पाँच पाण्डव बस बचें, सबका करूँ विनाश।। 32

 

उठो, लड़ो, तैयार हो, यश का करना भोग।

ये योद्धा पहले मरे, तुम निमित्त संयोग।। 33

 

भीष्म, द्रोण, जयद्रथ सहित,समझ मरे सब पूर्व।

तत्पर होकर तुम करो,केवल कर्म अपूर्व।। 34

 

संजय ने धृतराष्ट्र से कहा—–

 

संजय कह धृतराष्ट्र से , अर्जुन काँपे वीर।

हाथ जोड़ करता विनय, जय-जय हे! यदुवीर।। 35

 

अर्जुन ने श्रीभगवान कृष्ण से भयभीत होकर यह वचन कहे——

 

जो प्रभु का सुमिरन करे, होते हर्ष विभोर।

असुर सभी भयभीत हैं, भाग रहे चहुँओर।। 36

 

सबके सृष्टा आप हैं, हे अनन्त देवेश।

अक्षर परमा सत्य हैं, जगत परे हैं शेष।। 37

 

आप सनातन पुरुष हैं, आप सदय सर्वज्ञ।

आप सभी में व्याप्त हैं, दृश्य जगत सब अज्ञ।। 38

 

परम् नियंता वायु के, अग्नि सलिल राकेश।

प्रपितामह, ब्रह्मा तुम्हीं, विनती सुनो ब्रजेश। 39

 

शक्ति असीमा आप हैं,वंदन बारंबार।

आप सर्वव्यापी प्रभो, विनती सुनो पुकार।। 40

 

सखा जान हठपूर्वक, विनय सुनो हरि कृष्ण।

अज्ञानी हूँ मैं प्रभो, हरो हृदय के विघ्न।। 41

 

मित्र समझ, अपमान कर, किए कई अपराध।

क्षमा करो मैं मंद मति, सुन लो प्रियवर साध।। 42

 

चर-अचरा के जनक हैं, गुरुवर पूज्य महान।

तुल्य न कोई आपके, तीनों लोक जहान।।43

 

सब जीवों के प्राण हैं, आप पूज्य भगवान।

क्षमा करें अपराध सब, और परम् कल्यान।। 44

 

दर्शन रूप विराट के, पाकर मैं भयभीत।

कृष्ण रूप दिखलाइए, हे केशव जगमीत । 45

 

शंख, चक्र धारण करो, गदा,पद्म युत रूप।

चतुर्भुजी छवि धाम का, दर्शन दिव्य स्वरूप।। 46

 

श्रीभगवान ने अर्जुन से कहा

 

शक्ति पुंज मेरा अमित, अर्जुन सुन प्रिय लाल।

विश्वरूप तेजोमयी , था यह दृश्य विशाल।। 47

 

विश्वरूप इस दृश्य को,दृष्ट न कोई पूर्व।

यज्ञ, तपस्या, दान से, भी न मिला अपूर्व।। 48

 

रूप भयानक देखकर, विचलित मन का मोह।

प्रियवर इसे हटा रहा, देख रूप मनमोह।। 49

 

संजय ने धृतराष्ट्र से कहा

 

रूप चतुर्भुज वास्तविक, आए श्रीभगवान।

अन्तस् में फिर आ गए, पुरुषोत्तम श्रीमान।। 50

 

अर्जुन ने श्रीभगवान से कहा

 

मनमोहक छवि देखकर, अर्जुन हुआ प्रसन्न।

सुंदर मानव रूप से, मिटे मोह अवसन्न।। 51

 

जो छवि तुम अब देखते, यह है ललित ललाम।

देव तरसते हैं जिसे,पाने को अविराम।। 52

 

दिव्य चक्षु से देख लो, मेरी छवि अभिराम।

तप-योगों से ना मिलें, बीतें युग-जुग याम।। 53

 

जब अनन्य हो भक्ति तब, दर्शन हों दुर्लभ्य।

ज्ञान-भक्ति जो जान ले, मिले कृष्ण- गंतव्य। 54

 

शुद्ध भक्ति में जो रमें, कल्मष कर परित्यक्त।

कर्म करें मेरे लिए, मम प्रिय ऐसे भक्त।। 55

 

इति श्रीमद्भगवतगीतारूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन संवाद में ” विराट रूप ” ग्यारहवाँ अध्याय समाप्त।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 1 (91-95)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 1 (91-95) ॥ ☆

इस विधि इनकी सुश्रषा कर पा पुण्य प्रसाद

निज सम पा सत्पुत्र तुम करो दूर अवसाद ॥ 91॥

 

पत्नी सहित प्रसन्न हो सुन गुरू के उपदेश

देश काल लख विजत नृप बोले -‘‘जो आदेश ”॥92॥

 

तब मुनिवर नृप श्रेष्ठ सें बोले मीठे बैन

रात्रि हो गई कीजिये जाकर के अब शयन ॥ 93॥

 

तपोसिद्धि बल राजसी पाने हेतु समर्थ

मुनि ने वन साधन सकल दिये व्रती नृप अर्थ ॥ 94॥

 

कुलपति गुरू द्वारा जो नियत पर्णशाला

नवभार्या सम वास उसको बनाया ।

राजा ने रजनी कुश शयन पर बिताई

छात्राध्यन ध्वनि ने प्रात जिसको जगाया 95।।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #95 – “काव्यांजलि” – वंदे मातरम…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत हैं आपकी “काव्यांजलि” – वंदे मातरम…. । )

☆  तन्मय साहित्य  # 95 ☆

 ☆ “काव्यांजलि” – वंदे मातरम…. ☆

देश प्रेम के गाएँ  मंगल गान

वंदे मातरम

तन-मन से हम करें राष्ट्र सम्मान

वंदे मातरम।।

 

हम सब ही तो कर्णधार हैं

प्यारे  हिंदुस्तान  के

तीन रंग के गौरव ध्वज को

फहराए हम शान से,

इसकी आन बान की खातिर

चाहे जाएँ प्राण

वंदे मातरम

देश प्रेम के गाएं मंगल गान, वंदे मातरम।

 

धर्म पंथ जाति मजहब

नहीं ऊँच-नीच का भेद करें

भाई चारा और प्रेम

सद्भावों  के हम बीज धरें,

मातृभूमि दे रही हमें

धन-धान्य सुखद वरदान,

वंदे मातरम

देश प्रेम के गाएँ मंगल गान, वंदे मातरम

 

अमर रहे जनतंत्र

शक्ति संपन्न रहे भारत अपना

सोने की चिड़िया फिर

जगतगुरु हो ये सब का सपना

देश बने सिरमौर जगत में

यह दिल में अरमान,

वंदे मातरम

देश प्रेम के गाएँ मंगल गान, वंदे मातरम।

 

युगों युगों तक लहराए

जय विजयी विश्व तिरंगा ये

अविरल बहती रहे, पुनीत

नर्मदा, जमुना, गंगा ये,

सजग  जवान, सिपाही, सैनिक

खेत और खलिहान,

वंदे मातरम

देश प्रेम के गाएँ मंगल गान, वंदे मातरम।।

 

सुरेश तन्मय

अलीगढ़/भोपाल

मोबा. 9893266014

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 46 ☆ जिंदगी के मोड़ ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

(श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता ‘जिंदगी के मोड़। ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 46 ☆

☆ जिंदगी के मोड़ 

जिंदगी जैसे जैसे आगे बढ़ती गयी,

तिलस्मी जिंदगी के रंग बदलते रहे ||

 

जिंदगी में खट्टे मीठे अनुभव होते रहे,

जिंदगी के हर मोड़ पर नए चौराहे आते रहे ||

 

हर चौराहे पर फिर नए मोड़ आते रहे,

हर चौराहै पर नए रास्ते मिलते रहे  ||

 

कुछ रास्ते आगे जाकर तिराहे में मिल गए,

आगे मोड़ पर ‘खतरा है’ लिखी तख्तियां देखते रहे ||

 

हम किसी भी खतरे से अनजान थे,

इधर आगे मोड़ पर खड्डे भी कुछ गहरे मिले ||

 

जिंदगी तिराहे से निकल दो राहे पर आ गयी,

कुछ भी समझ नहीं आया अब किस राह पर मुड़े ||

 

थोड़ा आगे एक एक सुनसान राह नजर आयी,

सुनसान राह पर बढ़े तो देखा आगे रास्ता बंद है ||

 

जिंदगी उधर ही जाती जिधर राह आसान नहीं होती,

थक गया सही राह ढूंढते, यह तो रास्ता ही आगे बंद है ||

 

किसी ने कंधे पर हाथ रख कर कहा,

तू गलत नही सही राह पर है, जिंदगी का रास्ता यहीं बंद है ||

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ हर दिल में प्यार का कारोबार चाहिये ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

(बहुमुखी प्रतिभा के धनी  श्री एस के कपूर “श्री हंस” जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवा निवृत्त अधिकारी हैं। आप कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। साहित्य एवं सामाजिक सेवाओं में आपका विशेष योगदान हैं। आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण कविता ।।हर दिल में प्यार का कारोबार चाहिये।।)      

☆ ।।हर दिल में प्यार का कारोबार चाहिये।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆ 

।।विधा।।मुक्तक।।

1

हर दिल में प्यार का कारोबार चाहिये।

सबके अंदर महोब्बत लगातार चाहिये।।

चाहिये अमन चैन सकूं की ही बात।

हर हक़ का असली ही हक़दार चाहिये।।

 

2

कर्तव्य निभायें तभी ही अधिकार चाहिये।

पतझड़ नहीं हर बाग में बहार चाहिये।।

चाहिये भावना सवेंदना का ज्वार दिलों में।

हर व्यक्ति में मानवता का संचार चाहिये।।

 

3

हर आदमी इंसानियत का इश्तिहार चाहिये।

बस आपस में प्रेम भरा व्यवहार चाहिये।।

चाहिये नैतिकता से हर किसी का लगाव।

हर जीवन से दूर संकट दुर्व्यवहार चाहिये।।

 

4

नफरत की हम सबको बस हार चाहिये।

कभी न टूटे दिलों में वह एतबार चाहिये।।

चाहिये दौलत प्यार की बेशुमार हमको।

हर किसी का हर किसी से सरोकार चाहिये।।

 

5

भरी हुई हर रिश्ते के बीच दरार चाहिये।

एक छत तले रहता पूरा परिवार चाहिये।।

चाहिये महोब्बत से लबरेज संसार हमको।

स्वर्ग से भी सुंदर धरती का श्रृंगार चाहिये।।

 

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 1 (86-90)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 1 (86-90) ॥ ☆

पुण्य दर्शनी धेनु लख शकुन सुखद अनुमान

मुनिवर बोले नृपति से, सफल मनोरथ मान ॥ 86॥

 

सिद्धि न कोई दूर है हो राजन विश्वास

नाम लिये ही आ गई कल्याणी लो पास ॥ 87॥

 

वन में कर गो अनुगमन वनचर बन रह पास

करें प्रसन्न इन्हें यथा विद्या को अभ्यास ॥ 88॥

 

इनके चलते ही चलें, रूकने पै रूक जाँय

जल पीने पर जल पियें बैठे तब सुस्ताँय ॥ 89॥

 

भक्तिभाव से वधू भी कर पूजन अविराम

वन को जॉयें प्रात प्रति, लौटे सँग में शाम ॥ 90॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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