हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 56 ☆ गीत सलिला:  तुमको देखा ..… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताeह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आचार्य जी द्वारा  रचित  ‘गीत सलिला:  तुमको देखा ..। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 56 ☆ 

☆ गीत सलिला:  तुमको देखा .. ☆ 

तुमको देखा

तो मरुथल मन

हरा हो गया।

*

चंचल चितवन मृगया करती

मीठी वाणी थकन मिटाती।

रूप माधुरी मन ललचाकर –

संतों से वैराग छुड़ाती।

खोटा सिक्का

दरस-परस पा

खरा हो गया।

तुमको देखा

तो मरुथल मन

हरा हो गया।

*

उषा गाल पर, माथे सूरज

अधर कमल-दल, रद मणि-मुक्ता।

चिबुक चंदनी, व्याल केश-लट

शारद-रमा-उमा संयुक्ता।

ध्यान किया तो

रीता मन-घट

भरा हो गया।

तुमको देखा

तो मरुथल मन

हरा हो गया।

*

सदा सुहागन, तुलसी चौरा

बिना तुम्हारे आँगन सूना।

तुम जितना हो मुझे सुमिरतीं

तुम्हें सुमिरता है मन दूना।

साथ तुम्हारे गगन

हुआ मन, दूर हुईं तो

धरा हो गया।

तुमको देखा

तो मरुथल मन

हरा हो गया।

*

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य #85 ☆ जलो दिए सा…. ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी की  एक भावप्रवण रचना  “जलो दिए सा….। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 85 ☆ जलो दिए सा …. ☆

यदि जलना है जलो दिए सा,

    दिल की तरह कभी मत जलना।

चलना है तो चलो पथिक सा,

        तूफानों सा कभी न चलना।

दीप का जलना राह दिखाता,

      जग में प्रकाश  वो फैलाता है।

 दिल का जलना दुख देता,

   बर्बाद सभी को कर जाता है।।1।।

 

 पथिक का चलना तो राही को,

    उसकी मंजिल तक पहुंचाता है।

पर तूफानों का चलना तो,

      ग़म औ पीड़ा को दे जाता है।

अगर बरसना चाह रहे हो,

     बूंदें बन कर बरसों तुम।

 अपने नफ़रत का लावा,

     इस जग में कभी न फैलाना।।2।।

 

बूंदों का बरसना तो जग में,

      हरियाली खुशहाली लाता है।

नफ़रत का फूटता लावा तो,

    सारी खुशियां झुलसाता है।

यदि बनना है तो बीर बनों,

     निर्बल की रक्षा करने को।

अपनी ताकत का करो प्रदर्शन,

       जग की पीड़ा हरने को।।3।।

 

धोखेबाजी मक्कारी से,

    कायरता का प्रदर्शन मत करना।

 परमार्थ की राहों पे चलना,

       मरने से कभी न तुम डरना।

 परमार्थ की राह पे चलते चलते,

 इतिहास नया इक लिख जाओगे।

सारे जग की श्रद्धा का,

 केंद्र ‌बिंदु तुम बन जाओगे।।4।।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (46-50)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (36-40) ॥ ☆

 

तब उस अँधेरी गिरिकन्दरा को स्वदंत आभा से कर विभासित

उस शम्भु अनुचर ने फिर नृपति से हँसते हुये बात कही प्रकाशित ॥46॥

 

एकछत्र स्वामित्व वसुन्धरा का, नई उमर स्वस्थ श्शरीर सुन्दर

इतना बड़ा त्याग  पाने जरा सा, दिखते मुझे मूर्ख हो तुम अधिकतर ॥47॥

 

बचा जो जीवन पितैव राजन करेगा नित धन – प्रजा सुरक्षा

औं तव मरण केवल एक गौ की ही कर सकेगा तो प्राण रक्षा ॥48॥

 

इस एक गौ के विनाश से व्यर्थ गुरू की अवज्ञा से डर रहे तुम

परन्तु ऐसी हजार गायें प्रदान करने न समर्थ क्या तुम ? ॥49॥

 

जो आत्म ओजस्वी देह को तुम अनेक हित हेतु रखो बचायें

विशाल पृथ्वी पर स्वर्ग सदृश है राज्य यह इन्द्र भी जो न पाये ॥50॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 43 ☆ पत्रकार ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  रचित विशेष कविता  “पत्रकार“।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ काव्य धारा # 43 ☆ पत्रकार  

जनतांत्रिक शासन के पोषक जनहित के निर्भय सूत्रधार

शासन समाज की गतिविधि के विश्लेषक जागृत पत्रकार

 

लाते है खोज खबर जग की देते नित ताजे समाचार

जिनके सब से, सबके जिनसे रहते है गहरे सरोकार

जो धडकन है अखबारो की जिनसे चर्चायेे प्राणवान

जो निगहवान है जन जन के निज सुखदुख से परे निर्विकार

कर्तव्य परायण पत्रकार

 

चुभते रहते है कांटे भी जब करने को बढते सुधार कर्तव्य

 पथ पर चलते भी सहने पडते अक्सर प्रहार

पर कम ही पाते समझ कभी संघर्षपूर्ण उनकी गाथा

धोखा दे जाती मुस्काने भी उनको प्रायः कई बार

कर्तव्य परायण पत्रकार

 

आये दिन बढते जाते है उनके नये नये कर्तव्य भार

जब जग सोता ये जगते है कर्मठ रह तत्पर निराहार

औरो को देते ख्याति सदा खुद को पर रखते हैं अनाम

सुलझाने कोई नई उलझन को प्रस्तुत करते नये सद्विचार

कर्तव्य परायण पत्रकार

 

जग के कोई भी कोने में झंझट होती या अनाचार

ये ही देते नई सोच समझ हितदृष्टि हटा सब अंधकार

जग में दैनिक व्यवहारों मे बढते दिखते भटकाव सदा

उलझाव भरी दुनियाॅ में नित ये ही देते सुलझे विचार

कर्तव्य परायण पत्रकार

 

सुबह सुबह अखबारों से ही मिलते हैं सारे समाचार

जिनका संपादन औ प्रसार करते हैं नामी पत्रकार

निष्पक्ष औंर गंभीर पत्रकारों का होता बडा मान

क्योंकि सब गतिविधियों के विश्लेषक सच्चे पत्रकार

कर्तव्य परायण पत्रकार

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संजय दृष्टि – झुर्रियाँ ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – झुर्रियाँ  ?

देखता, समझता, पढ़ता हूँ

दहलीज़ तक आ पहुँची झुर्रियाँ,

घर के किसी रैक पर

कभी सलीके से धरी,

कभी तितर-बितर पड़ी

तो कभी फटे टुकड़ों में सिमटी,

बासी अख़बार की तरह उपेक्षित झुर्रियाँ..,

गुमान में जीते

नये अख़बारों को पता ही नहीं

कि ख़बरें अमूमन वही रहती हैं,

बस संदर्भ ताज़ा होते हैं और

तारीख़ें बदलती रहती हैं,

और हाँ, दिन, हर दिन ढलता है,

हर दिन नया अख़बार भी निकलता है!

 

आपका दिन सार्थक हो।

©  संजय भारद्वाज

प्रात: 8:33 बजे, 24.8.2021

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (41-45)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (41-45) ॥ ☆

 

तब उस नृपति ने जो मृगाधिपति की, ऐसी सुनी बात प्रगल्भ सारी

स्वशस्त्रसंपात की रूद्धगति पर अपमान औं ग्लानि सभी बिसारी ॥41॥

 

बोला तथा सिंह से बाणसंधान में जो विफल तब तथा हो गया था

जैसे कि शिवदृष्टि से वज्रआबद्ध हो इन्द्र भी खुद विफल मुक्ति हित था ॥42॥

 

अवरूद्ध गति मैं जो हूँ चाहूँ  कहना, हे सिंहवर बात वह हास्य सम है

सब प्राणियों की हृदयभावना ज्ञात है आपको क्या कोई ज्ञात कम है ? ॥43॥

 

माना सभी जड़ तथा चेतनों का विनाशकर्ता जो परमपिता हैं

पर यों परम पूज्य गुरूधेनु कां अंत हो सामने ये भी समुचित कहाँ है ? ॥44॥

 

तो आप मेरे ही श्शरीर से आत्मक्षुधा निवारें कृपालु होकर

इस बालवत्सा गुरूधेनु को देव ! दें छोड़ सब भांति दयालु होकर ॥45॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – संजय दृष्टि – विरेचन  ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – विरेचन  ?

आदमी जब रो नहीं पाता,

आक्रोश में बदल जाता है रुदन,

आक्रोश की परतें

हिला देती हैं सम्बंधों की चूलें,

धधकता ज्वालामुखी

फूटता है सर्वनाशी लावा लिये,

भीतरी अनल को

जल में भिगो लिया करो,

मनुज कभी-कभार

रो लिया करो…!

 

आपका दिन सार्थक हो।

©  संजय भारद्वाज

(प्रात: 9:18 बजे, 23.6.21)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 95 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं   “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 95 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

शेर देखते हम सभी,

हो जाते थे ढेर।

कानन में शोभा नहीं,

दिखे न कोई शेर।।

 

रघुनंदन की हम सभी,

करते रहे पुकार।

अंतरतम में जा बसे,

करते हैं उद्धार।।

 

सूख गए पनघट सभी,

नहीं घड़ों का शोर।

पनिहारिन आती नहीं,

हो जाती है भोर।।

 

नैनों की शोभा बहुत,

काजल सोहे नैन।

एक बार जो देख ले,

मिले नहीं फिर चैन।।

 

रक्षा बंधन प्यार का,

प्यारा सा त्योहार।

खुशियां भाई बहिन की,

मना रहा संसार।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 85 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं विशेष भावप्रवण कविता  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 85 ☆

☆ संतोष के दोहे ☆

(कुवलय, कुमुदबन्धु, वाचक, विरहित, वापिका)

कुवलय के नव कुंज प्रभु, कमलापति श्रीधाम

सादर वन्दन आपको, हरिये दोष तमाम

 

कुमुद-बंधु छवि मोहनी, शीतल उसकी छाँव

विकसे बिपुल सरोज जब, लगता सुंदर गाँव

 

वाचक ऐसा चाहिए, जिसके मीठे बोल

वाणी से झगड़े बढ़ें, वाणी है अनमोल

 

विरहित रहे जो प्रेम से, देखे बस निज काम

प्रेम बढ़ाता दायरा, यह ही राधे-श्याम

 

ताल तलैया वापिका, गाँवो की पहिचान

पानी के साधन सुलभ, राजाओं की शान

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (36-40)॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

॥ महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम्” ॥ हिन्दी पद्यानुवाद सर्ग # 2 (36-40) ॥ ☆

 

जो सामने देखते दारू तरू ही वह पुत्रवत पालित श्शम्भु द्वारा

जिसे सुलभ वृद्धि हित स्कन्दंजननी अंचल कलश से सतत नेहधारा ॥36॥

 

कभी किसी वन्य राज ने खुजाते, उखाड़ी थी छाल इसकी रगड़ से

तो पार्वती मातु ने बात समझी कि स्कन्द ने छाल छीली बिगड़ के ॥37॥

 

मैं तभी से इसे प्रभु श्शम्भु आदेश पा हूॅ निरत वन्य राज सें बचाने

इस सिंह के रूप में इस गुफा में निकट आये सारे पशु – प्राणी खाने ॥38॥

 

तो मुझ बुमुक्षित के हेतु आई ज्यों राहुहित चन्द्रमा की सुधा सी

यथाकाल प्रेषित यहाँ ईश द्वारा, यह धेनु पर्याप्त होगी क्षुधा की ॥39॥

 

तब त्याग लज्जा स्वगृंह लौट जाओ, बहुत है दिखाई गुरूभक्ति तुमने

यदि शस्त्र से भी न हो रक्ष्य रक्षा, तो है शस्त्रधर का न कुछ दोष इसमें ॥40॥

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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