हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 43 ☆ हाथों की लकीरें ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

(श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता ‘हाथों की लकीरें। ) 

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 43 ☆

☆ हाथों की लकीरें 

हाथों में लकीरों की भीड़ देखी,

दोनों हथेलियों पर लम्बी-लम्बी लकीरें देखी,

ना जाने कौन सी लकीरें हाथों में भरी है,

लकीरें तो हमने अमीरों की ही पढ़ते देखी,

फकीरों के हाथों में अमीरी की लकीरें देखी,

अमीर के हाथों में हमने फकीरी की लकीरें देखी,

जीवन-रेखा उस अमीर की बड़ी लम्बी थी,

छोटी लकीर वाले फकीर की उम्र उससे ज्यादा लम्बी निकली,

ना जाने कैसे लकीरों से लोग तकदीर पढ़ते हैं,

अमीरों के हाथों में भाग्य की लकीरें गरीबों के हाथों से कम देखी,

गरीब की दुनिया में लकीरों की क्या अहमियत,

यहां तो गरीबों में और गरीबी, अमीरों में और अमीरी बढ़ती देखी ||

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “श्री रघुवंशम्” हिन्दी पद्यानुवाद #  ॥ श्री रघुवंशम कथासार ॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

॥ श्री रघुवंशम् ॥

महाकवि कालिदास कृत श्री रघुवंशम् महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “श्री रघुवंशम् ” हिन्दी पद्यानुवाद #  ॥ श्री रघुवंशम कथासार ॥ ☆

(प्रिय प्रबुद्ध पाठक गण – अभिवादन! आपने अब तक प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी के सत्साहित्य श्रीमद्भगवतगीता एवं महाकवि कालिदास रचित मेघदूतम का पद्यानुवाद आत्मसात किया। आज से हम आपके साथ महाकवि कालिदास रचित महाकाव्य रघुवंशम का पद्यानुवाद साझा करेंगे। आशा है हमें आपका ऐसा ही अप्रतिम स्नेह एवं प्रतिसाद  मिला रहेगा।)   

कथासार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव

रघुवंश महाकाव्य कवि कुल गुरू कालिदास की एक प्रमुख तथा प्रौढ़ रचना है . मेघदूत महाकवि की कल्पना की उड़ान का दर्शन कराता है । अभिज्ञान शाकुंतलम् अप्रतिम नाटक है किन्तु रघुवंश और कुमारसंभव उनके वर्णन प्रधान महाकाव्य हैं । जिनमें कल्पना के साथ प्राकृतिक सौन्दर्य का वर्णन , मनुष्य के विभिन्न मनोभावों का चित्रण , आदर्श स्थापना और उसके पाने के मानवीय प्रयासों के साथ ही सामाजिक परिवेश में स्वाभाविक कमजोरियों का भी दर्शन होता है । रघुवंश में तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था में आश्रमों का महत्व , गौ – भक्ति , राजा का अभीष्ट आचरण , दानशीलता , शूरवीरता , जन्मोत्सव , स्वयंवर समारोह , दाम्पत्य प्रेम , युद्ध क्षेत्र का वर्णन , वनस्थलों की शोभा , सरल हृदय ऋषि कन्याओं की वृक्षों और मृग छौनों से सहज आत्मीयता और मृत्यु के दारूण दुख पर संसार की असारता का बोध और स्वजन के वियोग में करूण रूदन आदि जीवन की अनेकानेक मनोदशाओं का सुंदर मधुर भाषा में चित्रण है ।

अपने नाम के अनुकूल ही संपूर्ण ग्रंथ इक्क्षाशु वंश के राजा रघु के वंश का वर्णन है । इसमें विभिन्न राजाओं के जीवन काल की घटनाओं का क्रमिक उल्लेख है । रघुवंश में कुल 19 सर्ग हैं । संक्षेप में प्रत्येक सर्ग का कथ्य इस प्रकार है ।

सर्ग 1 – राजा दिलीप पुत्रहीन होने के कारण दुखी हैं । पुत्र कामना से वे अपनी पत्नी सुदक्षिणा सहित कुल गुरू वशिष्ठ के आश्रम को प्रस्थान करते हैं । पुत्र प्राप्ति हेतु गुरुवर , कामधेनु की पुत्री नंदिनी , जो उनके आश्रम में धेनु है , की सेवा करने का परामर्श देते हैं ।

सर्ग 2 – राजा दिलीप और रानी सुदक्षिणा भक्ति भाव से श्रद्धापूर्वक गुरु की गौ , नंदिनी की सेवा में रत हो जाते हैं । नंदिनी को वनचारण के लिए प्रतिदिन ले जाते हैं और निरंतर सुश्रुषा करते हैं । नंदिनी उनकी परीक्षा लेती है जिसमें वे ह्रदय से सेवाभाव रखने के कारण सफल होते हैं । नंदिनी प्रसन्न हो उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान देती है और अपना क्षीरपान करने को कहती है । राजा और रानी वरदान प्राप्त कर गुरू आज्ञा ले राजधानी लौटते हैं ।

सर्ग 3 – उन्हें कालांतर में पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है । जिसका नामकरण रघु किया जाता है । रघु बड़ा होता है । अश्वमेघ यज्ञ किया जाता है जिसमें युवा रघु अपना पराक्रम प्रदर्शित करते हैं । राजा दिलीप रघु को राज्य प्रदान कर पत्नी सहित वन गमन करते हैं एवं वानप्रस्थ धारण करते हैं ।

सर्ग 4 – पराक्रमी राजा रघु दिग्विजय करते हैं ।

सर्ग 5 – इस सर्ग में राजा रघु की अद्वितीय दानशीलता का वर्णन है । राजा रघु अपना सर्वस्व दान में न्यौछावार कर चुके होते हैं , तब ब्रह्मचारी कौत्स अपने गुरू को दक्षिणा प्रदान करने हेतु राजा से धनराशि की याचना करने उनके समीप पहुंचते हैं । रघु उसे चौदह कोटि स्वर्ण मुद्राएँ देने हेतु कुबेर पर आक्रमण की तैयारी करते हैं किन्तु कुबेर स्वयं ही स्वर्ण वर्षा कर दान देने हेतु राजा रघु को पर्याप्त धन दे देते हैं । कौत्स को राजा सारा स्वर्ण दे देना चाहते हैं किन्तु कौत्स केवल अपनी आवश्यकता का ही धन लेकर रघु को यशस्वी एवं उनके समान ही सुयोग्य पुत्र पाने का आशीष देकर के बिदा हो जाते हैं । कालांतर में रघु को अज के रूप में सुयोग्य पुत्र प्राप्त होता है ।

सर्ग 6 – इस सर्ग में अज युवावस्था को प्राप्त करते हैं और विदर्भ- राज की पुत्री इंदुमती के स्वयंवर में आमंत्रित किये जाते हैं । इंदुमती उन्हें अपना वर चुनती है । विवाह हर्षपूर्वक सम्पन्न होता है ।

सर्ग 7 – इंदुमती स्वयंवर में विफल राजागण विवाहोपरान्त विदाई में लौटते हुए अज – इंदुमती के ऊपर अचानक आक्रमण कर देते हैं । जिससे कि भीषण युद्ध होता है । अज की विजय होती है । राजा अज इंदुमती सहित राजधानी में प्रवेश करते हैं ।

सर्ग 8 – राजा अज के पुत्र दशरथ का जन्म होता है । रानी इंदुमती का पुष्पमाल के आघात से आकस्मिक निधन हो जाता है ।

सर्ग 9 से 15 – दशरथ के पुत्र राम और उनके तीन भाईयों का जन्म होता है । इन सर्गों में संक्षेप में समस्त रामायण की ही कथा कही गई है ।

सर्ग 16 – राम के पुत्र कुश का जन्म व तत्पश्चात् उनका नागकन्या कुमुद्वती से विावह व जलविहार का वर्णन है ।

सर्ग 17 – इस सर्ग में कुश के पुत्र अतिथि के जन्म और उनकी जीवन गाथा का सुन्दर वर्णन है ।

सर्ग 18 – राजा अतिथि के बाद की पीढ़ियों का वर्णन है । इसमें कुल 21 राजाओं की जीवन गाथा सोपानों में चित्रित हैं ।

सर्ग 19 – इसमें राजा सुदर्शन के पुत्र अग्निवर्ण की विलासिता वर्णित हैं व उनकी दुःखद मृत्यु का हृदय विदारक चित्रण है । राजा अग्निवर्ण  के वर्णन के साथ ही ” रघुवंश ” महाकाव्य की समाप्ति है ।

महाकवि कालिदास , महाकाव्य रघुवंश के माध्यम से राजा रघु की वंशावली का वर्णन करते हैं एवं राजाओं हेतु प्रजावत्सलता , दानशीलता , शूरवीरता और प्रजा के सदाचार व सद्भावना के कल्याणकारी संदेश देते हैं ।  आचार्यों ने  रघुवंश में वर्णित विषय विविधता को ही ध्यान में रखकर महाकाव्य के लक्षणों का निर्धारण स्थापित किया है एवं महाकाव्य की परिभाषा व्यक्त की है । महाकवि कालिदास की लेखनी से लगभग 1600 वर्षों से अधिक समय पूर्व जो काव्य निःसृत हुआ वह आज भी उतना ही रसमय एवं नवीनता लिये हुए है ।

शताब्दियों से संपूर्ण विश्व के विद्वानों ने महाकाव्य रघुवंश की भूरि – भूरि प्रशंसा की है । अनेकों विद्वानों ने काजलयी कृति रघुवंश के रसास्वादन के लिए संस्कृत भाषा का अध्ययन किया । महाकवि कालिदास अद्वितीय थे और आज भी अद्वितीय ही हैं ।

… विवेक रंजन श्रीवास्तव

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 81 ☆ लक़ीर ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “जो मिला, सो मिला । )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 81 ☆

☆ लक़ीर ☆

कितना आसान होता है ना

लक़ीरों को जोड़ देना

किसी भी आकृति से?

 

वो भी एक लक़ीर ही थी…

जिससे जोड़ दिया गया,

वो जुड़ गयी!

 

उससे कहा गया, “मुड़ो!”

वो मुड़ गयी…

उससे कहा गया, “घूमो!”

वो गोल घूम गयी…

उससे कहा गया, “झुको!”

वो झुक गयी…

उससे कहा गया, “काटना पड़ेगा तुम्हें!”

वो कट गयी…

 

आख़िर, लक़ीर ही तो थी वो-

कोई भी रूप ले सकती थी!

 

एक दिन किसी कोने में पड़े हुए

जब उसकी नज़र अचानक आईने पर गयी,

वो अपना रूप देखकर कांप गयी…

सिहरन सी उठी उसके बदन में…

न जाने कहाँ से उसमें ताक़त आई

कि वो सीधी होकर खड़ी होने लगी!

 

कहाँ मंज़ूर था समाज को

उसका इस तरह अपना स्वरूप ले लेना?

वो अपनी परम्पराओं की तलवार से

करने लगा उसपर वार!

 

पर इस बार

वो न मुड़ी, न घूमी;

वो न झुकी, न कटी!

उसने अब अपना अस्तित्व और उसका महत्त्व

बखूबी जान लिया था…

खड़ी रही सीना तानकर

हर वार को सहती हुई,

ख़ुद को सहलाती हुई,

और आगे बढती हुई…

 

जब उसको चलते हुए

ज़माने ने इस नए रूप में देखा,

वो भी समझ गया

कि उसकी उड़ान को

कोई नहीं रोक सकता!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सहोदर…(2) ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि –  सहोदर…(2) ?

न माटी मिली, न पानी,

न पोषण ही हिस्से आया,

पत्थर चीरकर राह बनाई

तब कहीं अंकुरित हो पाया,

पूर्वजन्म, पुनर्जन्म का मिथक

हमारा सहोदर यथार्थ निकला,

बोधिवृक्ष और मेरा प्रारब्ध

हरदम एक-सा निकला..!

# आपका दिन सार्थक हो #

©  संजय भारद्वाज

प्रात: 8:13, 29 मई 2021

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ सकारात्मक कविता – ब्रेस्ट मिल्क डोनर – माँ! ☆ श्री हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

☆ सकारात्मक कविता – ब्रेस्ट मिल्क डोनर – माँ! ☆ हेमन्त बावनकर

( एक सच्ची घटना से प्रेरित )

सोशल मीडिया पर अनुरोध आया

आवश्यकता है

ब्रेस्ट मिल्क डोनर की

एक नवजात बच्ची को

जिसने खो दिया है

अपनी माँ – कोरोना महामारी में।

 

अगले ही क्षण

उत्तर आता है एक माँ का –

हाँ, मैं दे सकती हूँ।

 

सारा सोशल मीडिया

नतमस्तक हो गया

अश्रुपूर्ण नेत्रों से

उस माँ के प्रति।

 

अगले ही क्षण

उस प्यारी बच्ची को

एक निःसंतान युगल ने

गोद लेने की पेशकश भी कर दी

धर्म, जाति और रंगभेद

को दरकिनार कर।

 

सारा सोशल मीडिया

पुनः नतमस्तक हो गया

अश्रुपूर्ण नेत्रों से

उस युगल के प्रति।

 

मानवीय संवेदनाओं को नमन!

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ वैश्विक माता-पिता दिवस विशेष – निःस्वार्थ समर्पण ☆ सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

सुश्री दीपिका गहलोत ” मुस्कान “ जी  मानव संसाधन में वरिष्ठ प्रबंधक हैं। एच आर में कई प्रमाणपत्रों के अतिरिक्त एच. आर.  प्रोफेशनल लीडर ऑफ द ईयर-2017 से सम्मानित । आपने बचपन में ही स्कूली शिक्षा के समय से लिखना प्रारम्भ किया था। आपकी रचनाएँ सकाळ एवं अन्य प्रतिष्ठित समाचार पत्रों / पत्रिकाओं तथा मानव संसाधन की पत्रिकाओं  में  भी समय समय पर प्रकाशित होते रहते हैं। आपकी कविता पुणे के प्रतिष्ठित काव्य संग्रह  “Sahyadri Echoes” सहित और कई संग्रहों में प्रकाशित हुई है।  आज प्रस्तुत है वैश्विक माता-पिता दिवस – 1 जून पर उनकी विशेष कविता  – निस्वार्थ समर्पण )

?  वैश्विक माता-पिता दिवस विशेष – निस्वार्थ समर्पण ?

रूठकर जा बैठा मैं नानी के गांव,

न देख आव न ताव बस कर दी चढ़ाई,

 

देख मेरे मिजाज का उछाल ,

नानी ने भाप लिया सब हाल,

आया हूँ मैं माँ- बाबा से होकर नाराज़,

कुछ तो है गड़बड़ जिससे मैं हूँ बेहाल,

 

नानी ने जब खूब कुरेदा,

तब मेरा गुस्सा भी निकला,

मेरी बात को माँ- बाबा नहीं देते है मान,

छोटी सी ख्वाहिश को भी नहीं चढ़ाते परवान,

कैसे है ये मेरे माँ- बाबा ना जाने भगवान,

नहीं देते जो मुझ पर बिलकुल भी ध्यान,

 

इक स्कूटर की ही तो अर्ज़ी थी लगाई,

नहीं माँगा था कोई बंगला मेरे भाई,

राजू के माँ-बाबा कितने अच्छे करते उसकी सुनवाई,

करते इक पल की भी ना देरी समझ आई,

 

नानी के अब पूरी बात समझ थी आई,

किसने है ये आग लगाई,

तेरी माँ साल में कितनी साड़ियाँ,

और कितने गहने खरीद लाई,

तूने कभी ये हिसाब लगाया ,

बाबा ने फटे जूते का क्या कभी हाल बतलाया ,  

 

जितना कमाते है सब तुझ पर लुटाते है,

तेरी हर इच्छा पूरी कर जाते है ,

अपनी इच्छा दोनों कितना दबाते है,

तेरी परवरिश को पहला दर्जा बतलाते है ,

तुझे सिर्फ कमियाँ नज़र आई ,

क्या तूने कभी उन पर नज़र घुमाई,

 

सोनू ने स्मरण कर माँ- बाबा की,

उनकी छवि मन में दोहराई ,

माँ की चार साल पुरानी साड़ी,

बाबा की रफ़ू की शर्ट ही नज़र आई ,

उसको नित नयी चीज़ उपलब्ध करवाई,

कभी ना शिकायत की ना की सुनवाई,

 

सोनू की नज़र शर्म से झुक आई ,

पलकें भी आँसू से नम हो आई ,

माता- पिता का निस्वार्थ समर्पण,

अब उसे  समझ में पूरी तरह से आई ,

उनके त्याग का कोई मोल नहीं ,

उनके चरणों से बड़ा कोई स्वर्ग नहीं है भाई ,

 

सोनू ने झट से भीगी पलकों से,

माँ-बाबा को फ़ोन पर पुकार लगाई ,

मार्मिक आवाज़ सुन, माँ-बाबा की एक ही आवाज़ थी आई ,

“बेटा तू  ठीक तो है ना, नहीं है ना तुझे कोई कठिनाई “.

 

© सुश्री दीपिका गहलोत  “मुस्कान ”  

पुणे, महाराष्ट्र

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.५४॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.५४॥ ☆

एतत्कृत्वा प्रियमनुचितप्रार्थनावर्तिनो मे

सौहार्दाद्वा विधुर इति वा मय्यनुक्रोशबुद्ध्या ।

इष्टान्देशाञ्जलद विचर प्रावृषा संभृतश्रीर्मा

भूदेवं क्षणमपि च ते विद्युता विप्रयोगः॥२.५४॥

अतः मित्र के भाव से या तरस से

या यह सोच यह जन वियोगी विकल है

क्रके कृपा इस मेरी प्रार्थना पर

जो अनुचित भले पर विनत है सबल है

प्रिय कार्य को पूर्ण करके जलद तुम

करो स्वय संचार इच्छा जहाँ हो

वर्षा विवर्धित लखो देख संपूर्ण

तुम दामिनी से कभी दूर न हो।

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की#48 – दोहे – ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  लेखनी सुमित्र की #48 –  दोहे  ✍

 

नील वसन तन आवरित,सितवर्णी छविधाम।

कहां प्राण घन राधिके, अश्रु अश्रु घनश्याम।।

 

मौसम की गाली सुने ,मन का मौन मजूर ।

और आप ऐसे हुए ,जैसे पेड़ खजूर।।

 

जंगल जंगल घूम कर ,मचा रहे हो धूम ।

पंछी को पिंजरा नहीं, ऐसे निकले सूम।।

 

क्या मेरा संबल मिला, बस तेरा अनुराग ।

मन मगहर को कर दिया, तूने पुण्य प्रयाग।

 

सांस सदा सुमिरन करें, आंखें रही अगोर।

 अहो प्रतीक्षा हो गई, दौपदि वस्त्र अछोर।।

 

 बरस बीत कर यो गया , मेघ गया हो रीत।

कालिदास के अधर पर, यक्ष प्रिया का गीत।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 47 – वह विदुषी वीर  कुड़ी  … ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “वह विदुषी वीर  कुड़ी  …  । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 47 ।। अभिनव गीत ।।

☆ वह विदुषी वीर  कुड़ी   …  ☆

जाने किस उधेड़बुन में

वह बैठी मुड़ी- तुड़ी |

ठीक उस जगह जिससे यों

चिड़िया तक नहीं उडी  ||

 

था गन्तव्य विरानेपन का

देहरी पर बैठा

जो सारे सिद्धांत धरम में

है सबसे जेठा 

 

जिसके क्षमतावान पक्ष का

मर्म समझने को 

कलिंगपोंग से जा पहुंँचा

सुख जैसे सिलीगुड़ी  ||

 

कैसा अन्तर्बोध, समय के परे विराट  लगा

जिसके सपनों का सूनापन

कैसे लगे सगा 

 

बाहर भीतर के प्रमाण

ले आये दुविधा में

जिनके सतत  प्रयास आँकते

प्रतिभा तक निचुड़ी  ||

 

घर की सीमाओं में फैली

एक विकट कटुता

जिसके बाह्य  कलेवर  में

जीवित अफ़सोस पुता

 

उसे दर्द में डूबी प्रतिमा

विवश कहें बेशक,

किन्तु युद्ध पर विजय प्राप्त

वह विदुषी वीर  कुड़ी  ||

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

10-03-2019

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सहोदर ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – सहोदर ?

अमृत से हलाहल तक

कंठ में लिए बहती धारा,

भीतर थपेड़े मारती लहरें

बाहर सहज शांत किनारा,

उसकी-मेरी वेदना में

सहोदर अपनापा निकला,

मेरा और समुद्र का दुख

एकदम एक-सा निकला..!

# घर में रहें। सुरक्षित रहें, स्वस्थ रहें। #

©  संजय भारद्वाज

सुबह 10.25 बजे, 17.6.19

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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