हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 68 ☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – सप्तम अध्याय ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । 

आज से हम प्रत्येक गुरवार को साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत डॉ राकेश चक्र जी द्वारा रचित श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति साभार प्रस्तुत कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें । आज प्रस्तुत है सप्तम अध्याय

फ्लिपकार्ट लिंक >> श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 68 ☆

☆ श्रीमद्भगवतगीता दोहाभिव्यक्ति – सप्तम अध्याय ☆ 

स्नेही मित्रो श्रीकृष्ण कृपा से सम्पूर्ण श्रीमद्भागवत गीता का अनुवाद मेरे द्वारा दोहों में किया गया है। आज श्रीमद्भागवत गीता का सप्तम अध्याय पढ़िए। आनन्द लीजिए

– डॉ राकेश चक्र

भगवद ज्ञान

भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को सरल शब्दों में इस तरह भगवद ज्ञान दिया।

पृथापुत्र मेरी सुनो,भाव भरी सौगात।

मन मुझमें आसक्त हो, करो योगमय गात।। 1

 

दिव्य ज्ञान मेरा सुनो, सरल,सहज क्या बात।

व्यवहारिक यह ज्ञान ही, जीवन की सौगात।। 2

 

यत्नशील सिधि-बुद्धि हित, सहस मनुज में एक।

सिद्धि पाय विरला मनुज, करे एक अभिषेक।। 3

 

अग्नि, वायु, भू, जल, धरा; बुद्धि, मनाहंकार।

आठ तरह की प्रकृतियाँ, अपरा है संसार।। 4

 

पराशक्ति है जीव में, यह ईश्वर का रूप।

यही प्रकृति है भौतिकी, जीवन के अनुरूप।। 5

 

उभय शक्तियाँ जब मिलें, यही जन्म का मूल।

भौतिक व आध्यात्मिकी, उद्गम, प्रलय त्रिशूल।। 6

 

परम श्रेष्ठ मैं सत्य हूँ, मुझसे बड़ा न कोय।

सुनो धनंजय ध्यान से, सब जग मुझसे होय।। 7

 

मैं ही जल का स्वाद हूँ, सूरज-चन्द्र-प्रकाश।

वेद मन्त्र में ओम हूँ , ध्वनि में मैं आकाश।। 8

 

भू की आद्य सुगंध हूँ, ऊष्मा की मैं आग।

जीवन हूँ हर जीव का, तपस्वियों का त्याग।। 9

 

आदि बीज मैं जीव का, बुद्धिमान की बुद्धि।

मनुजों की सामर्थ्य मैं, तेज पुंज की शुद्धि।। 10

 

बल हूँ मैं बलवान का, करना सत-हित काम।

काम-विषय हो धर्म-हित, भक्ति भाव निष्काम।। 11

 

सत-रज-तम गुण मैं सभी, मेरी शक्ति अपार।

मैं स्वतंत्र हर काल में, सकल सृष्टि का सार।। 12

 

सत,रज,तम के मोह में, सारा ही संसार।

गुणातीत,अविनाश का, कब जाना यह सार।। 13

 

दैवी मेरी शक्ति का, कोई ओर न छोर

जो शरणागत आ गया, जीवन धन्य निहोर।। 14

 

मूर्ख, अधम माया तले, असुर करें व्यभिचार।

ऐसे पामर नास्तिक, पाएँ कष्ट अपार।। 15

 

ज्ञानी, आरत लालची, या जिज्ञासु उदार।

चारों हैं पुण्यात्मा, पाएँ नित उपहार।। 16

 

ज्ञानी सबसे श्रेष्ठ है, करे शुद्ध ये भक्ति।

मुझको सबसे प्रिय वही, रखे सदा अनुरक्ति।। 17

 

ज्ञानी सबसे प्रिय मुझे, मानूँ स्वयं समान।

करे दिव्य सेवा सदा, पाए लक्ष्य महान।। 18

 

जन्म-जन्म का ज्ञान पा, रहे भक्त शरणार्थ।

ऐसा दुर्लभ जो सुजन, योग्य सदा मोक्षार्थ।। 19

 

माया जो जन चाहते, पूजें देवी-देव।

मुक्ति-मोक्ष भी ना मिले, रचता चक्र स्वमेव।। 20

 

हर उर में स्थित रहूँ, मैं ही कृपा निधान।

कोई पूजें देवता, कोई भक्ति विधान।। 21

 

देवों का महादेव हूँ, कुछ जन पूजें देव।

जो जैसी पूजा करें, फल उपलब्ध स्वमेव।। 22

 

अल्प बुद्धि जिस देव को,भजते उर अवलोक।

अंत समय मिलता उन्हें, उसी देव का लोक।। 23

 

निराकार मैं ही सुनो,मैं ही हूँ साकार।

मैं अविनाशी, अजन्मा, घट-घट पारावार।। 24

 

अल्पबुद्धि हतभाग तो, भ्रमित रहें हर बार।

मैं अविनाशी, अजन्मा, धरूँ रूप साकार।। 25

 

वर्तमान औ भूत का, जानूँ सभी भविष्य।

सब जीवों को जानता, जाने नहीं मनुष्य।। 26

 

द्वन्दों के सब मोह में, पड़ा सकल संसार।

जन्म-मृत्यु का खेल ये, मोह न पाए पार।। 27

 

पूर्व जन्म, इस जन्म में, पुण्य करें जो कर्म।

भव-बन्धन से मुक्त हों,करें भक्ति सत्धर्म।। 28

 

यत्नशील जो भक्ति में, भय-बंधन से दूर।

ब्रह्म-ज्ञान,सान्निध्य मम्,पाते वे भरपूर।। 29

 

जो भी जन ये जानते, मैं संसृति का सार।

देव जगत संसार का , मैं करता उद्धार।। 30

 

इस प्रकार श्रीमद्भागवतगीता सातवाँ अध्याय,” भगवद ज्ञान ” का भक्तिवेदांत का तात्पर्य पूर्ण हुआ।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.३६॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.३६॥ ☆

 

तस्मिन काले जलद यदि सा लब्धनिद्रासुखा स्याद

अन्वास्यैनां स्तनितविमुखो याममात्रं सहस्व

मा भूद अस्याः प्रणयिनि मयि स्वप्नलब्धे कथंचित

सद्यः कण्ठच्युतभुजलताग्रन्थि गाढोपगूढम॥२.३६॥

 

यदि उस समय मेघ वह सो रही हो

तो धर प्रहर भर धैर्य , मत नाद करना

कहीं स्वप्न में कंठ मेरे लगी का

न भुजबंध छूटे न हो भंग सपना

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 89 – बाल कविता – चोर-सिपाही, राजा-रानी…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी स्वास्थ्य की जटिल समस्याओं से  सफलतापूर्वक उबर रहे हैं। इस बीच आपकी अमूल्य रचनाएँ सकारात्मक शीतलता का आभास देती हैं। इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी बाल कविता चोर-सिपाही, राजा-रानी…..। )

☆  तन्मय साहित्य  #89 ☆

 ☆ बाल कविता – चोर-सिपाही, राजा-रानी….. ☆

चोर सिपाही राजा रानी

मची हुई थी खींचातानी।

 

चोर कहे, चोरी नहीं की है

कहे सिपाही अलग कहानी।

 

रानी जी को गुस्सा आया

राजा ने भी, भृकुटी तानी।

 

फिर न्यायाधीश को बुलवाया

करी सिपाही ने अगवानी।

 

न्यायाधीश ने समझाया कि,

सही बोल, मत कर मनमानी।

 

झूठ कहा तो, दंड मिलेगा

हवा जेल की पड़ेगी खानी।

 

हाँ साहब जी, भूल हो गई

चोर ने अपनी गलती मानी।

 

अब न करुँगा आगे चोरी

माफ करो मेरी नादानी।

 

तंग गृहस्थी और गरीबी

नरक हुई मेरी जिंदगानी।

 

न्यायाधीश को रहम आ गया

चिंतित भी थी सुनकर रानी।

 

राजा को भी दया आ गई

थोड़ी सजा की मन में ठानी।

 

गर्मी के मौसम भर तुम्हें

पिलाना है प्यासों को पानी।

 

खत्म हो गई यहाँ कहानी

एक था राजा एक थी रानी।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश0

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 40 ☆ कांटों भरी डाल ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता ‘कांटों भरी डाल। ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 40 ☆

कांटों भरी डाल

 

माना मैं कांटों भरी डाल हूँ ,

मगर यकीन करिये दिल से मैं गुलाब हूँ ||

बेशक कांटों भरी चुभन हूँ,

मगर सबके लिए खुशबू भरा अहसास हूँ ||

नहीं आती मुझे दुनियादारी,

गलती हो जाए कभी तो अपनी गलती तुरंत मानता हूँ ||

सबको खुश रखना मेरे बस की बात नहीं,

मगर सबको खुश रखने की कोशिश पूरी करता हूँ ||

मैं कोई मजबूत ड़ोर नहीं,

कच्चा धागा हूँ थोड़ा सा खींचने से ही टूट जाता हूँ ||

प्यार सबका पाने को आतुर हूँ,

धागा बन सबको माला में पिरोये रखने की तमन्ना रखता हूँ ||

माना मैं कांटों भरी डाल हूँ,

मगर यकीन करिये दिल से मैं गुलाब हूँ ||

 

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.३५॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.३५॥ ☆

 

वामश चास्याः कररुहपदैर मुच्यमानो मदीयैर

मुक्ताजालं चिरपरिचितं त्याजितो दैवगत्या

संभोगान्ते मम समुचितो हस्तसंवाहमानां

यास्यत्य ऊरुः सरसकदलीस्तम्भगौरश चलत्वम॥२.३५॥

मम नखक्षतो से लिखित दीर्घ परिचित

मुक्ताओ की माल दुर्देव मारे

इस आ पडी विरह की दुख घडी मे

रसनाभरण आदि जिसने उतारे

जंघा मृदुल वाम मम हस्त तल ने

दुलारा जिसे रति विरति पर हमारे

शीलत सुखद तरूण कदली सुदृश गौर

होगी स्फुरति पहुंचने पर तुम्हारे

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 78 ☆ औरत ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता “औरत। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 78 ☆

☆ औरत ☆
तस्लीम करो उस औरत की

जिसने तुम्हें जनम दिया

इबादत करो उस औरत की

जिसने तुम्हें संग दिया

मोहब्बत करो उस बेटी को

जिसने तुम्हारा नाम किया

दुआ करो उस औरत के लिए

जो तुम्हारे साथ काम किया

देखो जब कोई भी औरत को तो सोचो

किन-किन पहाड़ों को उसने लांघा है

कैसे तिनके-तिनके को इकठ्ठा कर

उसने अपने जीवन को बांधा है

 

आरज़ू नहीं कि तुम साथ चलो-

बहुत है तुम्हारा याद करना ही!

देखो, उसे – उसे कोई गुमान नहीं!

 

अभी तो इस औरत को पर खोलना है,

 

‘गर तुम्हारी आँखों में सुकून होगा-

गुरुर होगा उसे अपनी उड़ान पर भी!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.३४॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.३४॥ ☆

 

रुद्धापाङ्गप्रसरम अलकैर अञ्जनस्नेहशून्यं

प्रत्यादेशाद अपि च मधुनो विस्मृतभ्रूविलासम

त्वय्य आसन्ने नयनम उपरिस्पन्दि शङ्के मृगाक्ष्या

मीनक्षोभाच चलकुवलयश्रीतुलाम एष्यतीति॥२.३४॥

 

कज्जल बिना तेज से हीन जिनकी

अलकजाल से रूद्धगति नैनवाली

सुरापान के त्याग ने कर दिये हो

जिन्हें लास्य भ्रूभंग से पूर्ण खाली

पहुंच मृगनयनि के निकट मौन गति से

चपल कमल की भांति मै मानता हॅू

लखोगे फडकता हुआ नेत्र बांया

उसका वहां तुम मै अनुमानता हॅू

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की#45 – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम कालजयी दोहे।)

✍  लेखनी सुमित्र की #45 –  दोहे  ✍

प्यार प्रकट हमने किया, उसने दिया जवाब।

याद दर्द आंसू दिये, बिखराये सब ख्वाब।।

 

आंखें होती चार जब,  जलता प्रेम प्रदीप।

मोती मिलकर जनमते, हो जाते तन सीप।।

 

सुध बुध अपनी भूलकर, खो बैठे सन्यास।

मुनि कौशिक जी ये हुए, रूपराशि के दास।।

 

बादल आकर छा गए, आंखों के आकाश।

मन की धरती सूखती, कौन बुझाए प्यास।।

 

गंध कहीं से आ रही म हक उठा मन देश।

बिखराये हैं आपने, शायद सुरभित केश।।

 

गलत सही जो कुछ कहो, याकि भाव अतिरेक।

जिसको मैं अर्पित हुआ, वह है केवल एक।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 44 – पेड़ सभी बन गए बिजूके  … ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत “पेड़ सभी बन गए बिजूके … । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 44 ।। अभिनव गीत ।।

☆ पेड़ सभी बन गए बिजूके  …  ☆

अध-बहियाँ

पहन कर सलूके ||

धूप , छेद ढूंढती

रफू के ||

 

आ बैठी रेस्त्रां

दोपहरी

देख रही मीनू

टिटहरी

 

हैं यहाँ तनाव

फालतू के ||

 

स्वेद सनी

गीली बहस सी

लहलहा उठी

फसल उमस की

 

पेड़ सभी

बन गए बिजूके ||

 

बादल के श्वेत –

श्याम द्वीपों

गरमी है खुले

अंतरीपों

 

मैके में

मौसमी  बहू के ||

 

इधर -उधर

भटकी छायायें

अब उन्हें कहो

घर चली जायें

 

बादल शौक़ीन

कुंग- फू के ||

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

३०-०३-२०१७

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.३३॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.३३॥ ☆

 

जाने सख्यास तव मयि मनः संभृतस्नेहमस्माद

इत्थंभूतां प्रथमविरहे ताम अहं तर्कयामि

वाचालं मां न खलु सुभगंमन्यभावः करोति

प्रत्यक्षं ते निखिलम अचिराद भ्रातर उक्तं मया यत॥२.३३॥

तुम्हारी सखी का गहन नेह मुझपर

इसे मैं भलीभांति पहचानता हॅू

दशा इस प्रथम विरह में अतः उसकी

यही है हुई,  खूब मैं जानता हॅू

नही यह कि अपनत्व का भाव मुझसे

मेरी प्रियतमा की प्रशंसा कराता

वरन यही प्रत्यक्ष मैने कहा

उसे तुम स्वंय लखोगे शीघ्र भ्राता

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares