हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 80 – होली पर्व विशेष – होली आई रे…. ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  श्री सूबेदार पाण्डेय जी की  होली पर्व पर एक होली के रंगों से सराबोर रचना  “होली आई रे….। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य# 80 ☆ होली पर्व विशेष – होली आई रे…. ☆

(प्रस्तुति –  होली आई रे, मतलब उत्साह तथा उमंगों का त्यौहार जो मानव जीवन में रंग भर देते हैं। छेड़-छाड़ एवं मस्ती का त्योहार, लोगों के दिल में उतर कर एक अमिट छाप छोड़ देने का त्योहार, खुशियों के सागर में उतर कर गोते लगाने का त्योहार।

इन्हीं सपतरंगी छटाओं तथा खट्टे मीठे अनुभवों का चित्रण है ये रचना जो बनारस की सबसे पुरानी हिन्दी साहित्यिक संस्था नागरी प्रचारिणी सभा की नागरी पत्रिका के नव० २०१७ के अंक में पूर्व प्रकाशित है जो आप लोगों के समीक्षार्थ  प्रस्तुत है पढ़ें और अपने आशीर्वाद से अभिसिंचित करें। – सूबेदार पाण्डेय

 

रंग बिरंगी होली आई,

हर कोई मतवाला है।

किसी का चेहरा नीला पीला,

किसी का चेहरा काला है।

हर छोरी बृषभानु किशोरी,

हर छोरा नंदलाला है।

चंचल नटखट अल्हड़ है सब,

आंखों  में का प्याला है।

मृगशावक सी भरें कुलांचे,

ना कोई रोकने वाला है।

।। रंग-बिरंगी होली आई।।१।।

 

किसी की भींगे पाग पितांबर,

किसी की चूनर धानी।

किसी की भीगे लहंगा चोली,

सबकी एक कहानी।

धरो धरो पकड़ो पकड़ो,

हर तरफ मची आपाधापी।

हर कोई है गुत्थमगुत्था,

हरतरफ मची चांपा चांपी।

गुत्थमगुत्था छीना झपटी में,

मसकी अंगिया चोली।

फटी मिर्जयी, गिरा अंगरखा,

(पगड़ी वाल साफा)

घरवालों की मांग चली टोली।

छाई है इक अजब सी मसलती,

हर कोई दिलवाला है।

।। रंग-बिरंगी होली आई।।०२।।

 

तानें है कोई पिचकारी,

जैसे तीर कमान लिए है।

कोई लिए गुलाल खड़ा,

जैसे हाथों में तोप लिए है।

धोखे से कोई गोपी,

मोहन को पास बुलाती है।

गालों में रंग-गुलाल लगा,

गाल लाल कर जाती है।

ग्वालों की टोली बीच कोई,

गोपी जब फंस जाती है।

भर भर पिचकारी रंगों से,

टोलियां उसे नहलाती है।

।। रंग बिरंगी होली आई।।०३।।

 

कोई किसी बहाने से,

नवयौवन को छू जाता है।

कोई लेता पप्पी झप्पी,

दिल❤️ अपना कोई दे जाता है।

कोई तकरार मचाता है,

दिल किसी का कोई चुराता है।

हर तरफ शोर है गीतों का,

हर तरफ जोर है होली का।

खुशियों से सना हर लम्हा है,

हर कोई हिम्मत वाला है।

।। रंग-बिरंगी होली आई।।०४।।

 

होली का त्यौहार है भइया,

खुशियों से जश्न मनाने का।

जीवन में रंग भरने का,

सबके दिल में बस जाने का।

अपना प्यार लुटाने का,

सबके प्यार को पाने का।

भूल के सारे शिकवों गिलों को,

सबको गले लगानें का।

सबको दिल से अपनाने का,

और सबका बन जाने का।

।। रंग बिरंगी होली आई।।०५।।

 

© सूबेदार  पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.२७॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.२७॥ ☆

 

सव्यापारम अहनि न तथा पीडयेद विप्रयोगः

शङ्के रात्रौ गुरुतरशुचं निर्विनोदां सखीं ते

मत्सन्देशः सुखयितुम अलं पश्य साध्वीं निशीथे

ताम उन्निद्राम अवनिशयनां सौधवातायनस्थः॥२.२७॥

 

दिन में विरह की व्यथा व्यस्तता से

है संभव न होगी निशा में यथा हो

मैं अनुमानता हूं गहन शोक मन का

जो निशि में सताता मेरी प्रियतमा को

तो साध्वी तव सखी को रजनि में

पड़ी भूमि पर देख उन्निद्र साथी

उचित है कि संदेश मेरा सुनाकर

दो सुख बैठ गृह गवाक्ष पर प्रवासी

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 35 ☆ राम जाने कि – क्यों राम आते नहीं ? ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  एक भावप्रवण कविता  “राम जाने कि – क्यों राम आते नहीं ? “।  हमारे प्रबुद्ध पाठक गण  प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 35 ☆

☆ राम जाने कि – क्यों राम आते नहीं ? ☆

 

राम जाने कि – क्यों राम आते नहीं ?

है जहाँ भी कही, दुखी साधुजन, दे के उनको शरणं क्यों बचाते नही ?

धर्म के नाम नाहक का फैला जुनू, हर समझदार उलझन में बेहाल है।

काट खाने को दौडे  ये वातावरण, राम जाने कि क्यों राम आते नहीं ?

 

बढ़ रही  हर जगह कलह बेवजह, स्नेह – सदभाव पड़ते दिखाई नहीं।

एकता प्रेम विश्वास है अधमरे, आदमियत आदमी से हुई गुम कही ।

स्वार्थ सिंहासनों पर अब आसीन है, कोई समझता नहीं है किसी की व्यथा।

मिट गई रेखा लक्ष्मण ने खींची थी जो, महिमा – मंडित है अपराधियों की कथा।

है खुले आम रावण का आवागमन – राम जाने कि क्यों राम आते नहीं ?

 

सारे आदर्श बस सुनने पढ़ने को हैं, आचरण में अधिकतर हैं मनमानियां।

जिसकी लाठी है अब उसकी ही भैस है, राजनेताओं में दिखती हैं  नादानियां।

स्वप्न में भी न सोचा, जो होता है वो, हर समस्या उठाती नये प्रश्न कई।

मान मिलता है अब कम समझदार को, भीड़ नेताओं की इतनी बढ़ गई।

हर जगह डगमगा गया है संतुलन, राम जाने कि क्यों राम आते नही ?

 

है सिसकती अयोध्या दुखी नागरिक, कट गये चित्रकूटों के रमणीक वन।

स्वर्णमृग चर रहे दण्डकारण्य को, पंचवटियों में बढ़ रहा हैअपहरण।

घूमते हैं असुर साधु के वेश में, अहिल्याएं  कई बन गई हैं शिला।

सारी दुनियां में फैला अनाचार है, रूकता दिखता नही ये बुरा सिलसिला।

हो रहा गाँव – नगरों में नित सीताहरण, राम जाने की क्यों राम आते नहीं?

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – महाकाव्य ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? अंतरराष्ट्रीय रंगमंच दिवस ?

‘सारा जगत एक रंगमंच है और सारे स्त्री-पुरुष केवल रंगकर्मी।’

यह वाक्य लिखते समय शेक्सपिअर ने कब सोचा होगा कि शब्दों का यह समुच्चय, काल की कसौटी पर शिलालेख सिद्ध होगा।

जिन्होंने रंगमंच शौकिया भर किया नहीं अपितु रंगमंच को जिया है, वे जानते हैं कि पर्दे के पीछे भी एक मंच होता है। यही मंच असली होता है। इस मंच पर कलाकार की भावुकता है, उसकी वेदना और संवेदना है। करिअर, पैसा, पैकेज की बनिस्बत थियेटर चुनने का साहस है। पकवानों के मुकाबले भूख का स्वाद है।

फक्कड़ फ़कीरों का जमावड़ा है रंगमंच। समाज के दबाव और प्रवाह के विरुद्ध यात्रा करनेवाले योद्धाओं का समवेत सिंहनाद है यह रंगमंच।

इस अनहद नाद में अपना स्वर मिलाने वाले हर रंगकर्मी को नमन।

अंतरराष्ट्रीय रंगमंच दिवस की हार्दिक शुभकामनायें।

  – संजय भारद्वाज

? संजय दृष्टि – महाकाव्य  ?

तुम्हारा चुप,

मेरा चुप,

चुप लम्बा खिंच गया,

तुम्हारा एक शब्द,

मेरा एक शब्द,

मिलकर महाकाव्य रच गया!

©  संजय भारद्वाज

(कवितासंग्रह ‘योंही’ से।)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ शिकवा.. ☆ श्री जयेश वर्मा

श्री जयेश वर्मा

(श्री जयेश कुमार वर्मा जी  बैंक ऑफ़ बरोडा (देना बैंक) से वरिष्ठ प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। हम अपने पाठकों से आपकी सर्वोत्कृष्ट रचनाएँ समय समय पर साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता शिकवा.. ।)

☆ कविता  ☆ शिकवा.. ☆ श्री जयेश वर्मा☆

मुख्तसर सी

बात है,

 

तमाम उम्र,

रहे मेरे साथ,

अब रहना

गवारा नहीँ,

 

क्या कहूँ,

कहाँ जाऊँ,

कोई अब,

सहारा नहीँ,

 

उम्र की ढलान पर,

कोई ले यूँ रुखसत,

मुझको भी तो

ये मंज़ूर नहीँ..

 

सरे राह हाथों

उड़ गये तोते

कौन बताये

हम परिंदे नहीँ हैं,

पंख नहीँ हैं, हमारे,

 

पहरों पहर पीता रहा,

आँखों के प्यालों, से,

धीमा जहर दिया

बताया नहीँ मुझे,

 

क्या, गिला

कैसा शिकवा,

किससे करूँ,

 

किस्मत, समय,

ज़िन्दगी, या रब से..

 

©  जयेश वर्मा

संपर्क :  94 इंद्रपुरी कॉलोनी, ग्वारीघाट रोड, जबलपुर (मध्यप्रदेश)

वर्तमान में – खराड़ी,  पुणे (महाराष्ट्र)

मो 7746001236

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.२६॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.२६॥ ☆

 

शेषान मासान विरहदिवासस्थापितस्यावधेर वा

विन्यस्यन्ती भुवि गणनया देहलीदत्तपुष्पैः

सम्भोगं वा हृदयनिहितारम्भम आस्वादयन्ती

प्रायेणैते रमणविरहेष्व अङ्गनानां विनोदाः॥२.२६॥

 

या गमन दिन से धरे देहली पुष्प

को योग हित भूमि पर फिर बिछाती

विरह की अवधि के दिवस शेष

एक एक कर काटने पुष्प गिन गिन बिताती

या याद करती मेरी प्रेम क्रीड़ा ,

तथा भोग के भिन्न व्यापार सारे

जो पति विरह में सदा नारियों को

समय काटने मधुर साधन सहारे

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – नादानी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – नादानी  ?

तो तुम देख चुके

शब्दों में छिपा

मेरा आकार…,

और मैं नादान,

निराकार होने का

भरम पाले बैठा था।

 

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

9890122603

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 87 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 87 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

गोरी तुझसे  कर रहा, थोड़ी सी मनुहार।

होली का त्यौहार है, खोलो चितवन द्वार।

 

होली के त्यौहार में, छाई ख़ुशी उमंग।

भोले का सब नाम ले , छान रहे हैं भंग।

 

होली का त्योहार है, बना रहे हैं स्वांग।

बम भोले का नाम ले,खूब छानते  भांग।

 

सजनी साजन से कहे, क्यों पी ली है भांग

अंग-अंग फड़कन लगे, क्यों करते हो स्वांग।

 

होली के हर रंग में, मिला प्यार का रंग।

रंग बिरंगी हो गई, लगी पिया के अंग।

 

मन ही मन तुम सोच लो, सजना का है संग

अबीर गुलाल के बिना, चढ़ा प्यार का रंग

 

लाल,लाल हर गाल है, उडत अबीर गुलाल ।

होली के हर रंग में,  मन भी होता लाल ।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 77 ☆ कहाँ गई नन्ही  गौरैया ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं एक भावप्रवण कविता  “कहाँ गई नन्ही  गौरैया। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 77 ☆

☆ कहाँ गई नन्ही  गौरैया ☆

कहाँ गई नन्ही  गौरैया

पूछ रहा अब मुनमुन भैया

 

फुदक फुदक कर घर आँगन में

बसे सदा वह सब के मन में

करती थी वो ता ता थैया

कहाँ गई नन्ही गौरैया

 

पेड़ों की हो रही कटाई

जंगल सूखे गई पुरवाई

सूख गए सब ताल-तलैया

कहाँ गई नन्ही गौरैया

 

घर में रौनक तुम से आती

चुगने दाना जब तुम आती

खुश हो जाती घर की मैया

कहाँ गई नन्ही गौरैया

 

हमें अब अफसोस है भारी

सूनी है अब घर-फुलवारी

बापिस आ जा सोन चिरैया

कहाँ गई नन्ही गौरैया

 

तुम बिन अब “संतोष” नहीं है

माना हम में दोष कहीँ है

बदलेंगे हम स्वयं रवैया

घर आ जा मेरी गौरैया

 

रखी है पानी की परैया

बना रखी पिंजरे की छैयां

अब घर आ मेरी गौरैया

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत…. उत्तर मेघः ॥२.२५॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत …. उत्तरमेघः ॥२.२५॥ ☆

 

उत्सङ्गे वा मलिनवसने सौम्य निक्षिप्य वीणां

मद्गोत्राङ्कं विरचितपदं गेयम उद्गातुकामा

तन्त्रीम आर्द्रां नयनसलिलैः सारयित्वा कथंचिद

भूयो भूयः स्वयम अपि कृतां मूर्च्चनां विस्मरन्ती॥२.२५॥

या मलिन वसना धरे गोद वीणा

मेरे नाममय गीत को उच्च स्वर में

गाने मेरी याद में उमड़ आये

नयनवारि से सिक्त ले वीण कर में

बड़े कष्ट से पोंछकर तार उसके

फिर आलाप कर भूल भरती रुलाई

यों भाव भीनी दशा में तुम्हें मेघ

आलोक में वह पड़ेगी दिखाई .

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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