हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.२०॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.२०॥ ☆

 

तस्यास तिक्तैर वनगजमदैर वासितं वान्तवृष्टिर

जम्बूकुञ्जप्रतिहतरयं तोयम आदाय गच्चेः

अन्तःसारं घन तुलयितुं नानिलः शक्ष्यति त्वां

रिक्तः सर्वो भवति हि लघुः पूर्णता गौरवाय॥१.२०॥

जल रिक्त घन , वन्य गजमद सुवासित

सघन जम्बुवन रुद्ध रेवा सलिल को

पी हो अतुल , क्योकि पाते सभी रिक्त

लघुता तथा मान पा पूर्णता को

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ हरित ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ मकर संक्रांति/ उत्तरायण/ भोगाली बिहू / माघी/ पोंगल/ खिचड़ी की अनंत शुभकामनाएँ ☆

सूर्यदेव अर्थात सृष्टि में अद्भुत, अनन्य का आँखों से दिखता प्रमाणित सत्य। सूर्यदेव का मकर राशि में प्रवेश अथवा मकर संक्रमण खगोलशास्त्र, भूगोल, अध्यात्म, दर्शन सभी दृष्टियों से महत्वपूर्ण है।

इस दिव्य प्रकाश पुंज का उत्तरी गोलार्ध के निकट आना उत्तरायण है। उत्तरायण अंधकार के आकुंचन और प्रकाश के प्रसरण का कालखंड है। स्वाभाविक है कि इस कालखंड में दिन बड़े और रातें छोटी होंगी।

दिन बड़े होने का अर्थ है प्रकाश के अधिक अवसर, अधिक चैतन्य, अधिक कर्मशीलता।

अधिक कर्मशीलता के संकल्प का प्रतिनिधि है तिल और गुड़ से बने पदार्थों का सेवन।

निहितार्थ है कि तिल की ऊर्जा और गुड़ की मिठास हमारे मनन, वचन और आचरण तीनों में देदीप्यमान रहे।

तमसो मा ज्योतिर्गमय!

–  संजय भारद्वाज

☆ संजय दृष्टि  ☆ हरित ☆

काट दिये गए हैं

पेड़ों के मुंड

निकाल दी गई है

पूरी की पूरी छाल,

धरती को

पच्चीस-पचास मीटर तक

घनी छाँव से ढकनेवाले

अब स्वयं खड़े हैं

निर्वस्त्र और विवश,

इनकी असहाय देह पर

घातक रंगों से

पोती जा रही हैं

रंग- बिरंगी पत्तियाँ,

उकेरे जा रहे हैं

कई तरह के फूल,

एल.ई.डी.की रोशनी में

प्रदर्शन के लिए रखी

अनावृत लाज पर

चस्पां हो रहे हैं

कई स्लोगन

और इसके इर्द-गिर्द

फल-फूल रही है

बेखौफ ब्यूरोक्रेटिक घास,

सारा माज़रा

आशंका मिश्रित भय से

निहार रहे हैं

जवानी की दहलीज पर खड़े

आसपास के कच्चे पेड़,

मैं लिखता हूँ ख़त

आयोजकों को-

माफ कीजियेगा

हरित शहर अभियान के

उद्घाटन के लिए

नहीं आ पाऊँगा!

 

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

मोबाइल– 9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य #88 ☆ कविता – सब जानती हैं वे ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक  विचारणीय कविता  ‘सब जानती हैं वे’ इस सार्थकअतिसुन्दर कविता के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 88 ☆

☆ कविता – सब जानती हैं वे ☆

सब जानती हैं वे   !

क्योंकि बुहारती हैं वे घर का कोना कोना .

घर की हर खटक को पहचानती हैं वे .

सब जानती हैं वे   !

 

तुम्हें अच्छी तरह पहचानती हैं वे,

क्योंकि तुम्हें देखा है उन्होंने अनावृत.

उन्हें होती है तुम्हारी हर खबर,

 

घर, बाहर .

सुन सकती हैं तुम्हारी अनकही बातें .

सब जानती हैं वे   !

 

अपनी पीठ से भी वे

पढ़ सकती हैं सारी  आंखें .

होती हैं वे गर जरा भी  बेखबर .

तो हो जाता है उनका बलात्कार .

कितना घटिया समाज है यार .

इसीलिये शायद

सब जानती हैं वे   !

 

पैंट तो पहन लिया है तुमने,

पर उतारी नहीं है पैरों की पायल .

ओढ़ ली है

नारी प्रगति के नाम पर

पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर तुमने

बाहर की जबाबदारी

पर अब भी लदी हुई है पूर्ववत

तुम पर घर की जिम्मेदारी .

 

अच्छा लगता है जब तुम्हें देखता हूँ ,

पुरुष साथी को साथ बैठाये

स्कूटी या कार चलाते हुये

पर सोचता हूँ कि

तुम थक जाती होगी ,

क्योंकि

रोटियाँ तो तुमसे ही माँगते हैं बच्चे.

थके हारे क्लाँत पुरुष को

तुम्हारे ही अंक में मिलता है सुकून .

 

तुम्हें पंख लगाकर ,

कतर लिये हैं

फैशन की दुनिया ने

तुम्हारे कपड़े .

 

छद्म रावणों

दुःशासन और दुर्योधनों की

आँखों से घिरी हुई,

महसूस करती हो हर तरफ

मर्यादा का शील हरण .

पर तुम बेबस हो .

 

इस बेबसी का हल है

मेरे पास .

पहनो शिक्षा का गहना ,

मत घोंटने दो

कोख में ही गला

अपनी अजन्मी बेटी का ,

संसद में अक्षम नहीं होगा

स्त्री आरक्षण का बिल

जब सक्षम होगी स्त्री .

 

और जब सक्षम होगी स्त्री

तब तुम

बाहर की दुनियाँ सम्भालो या नहीं

घर , बाहर ससम्मान जी सकोगी .

पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर .

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 57 ☆ बाल कविता – गठरी सिर पर धरे सवेरा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं   “बाल कविता – गठरी सिर पर धरे सवेरा.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 57 ☆

☆ बाल कविता – गठरी सिर पर धरे सवेरा ☆ 

सूरज दादा की किरणों की

गठरी सिर पर धरे सवेरा।

धूप सुहानी तन को भाती

उसका स्वागत करे सवेरा।।

 

पंछी सारे बड़े मगन हैं

मीठे-मीठे गीत सुनाएँ।

कौवे काले पढ़ें ककहरा

काँव- काँव की धुन में गाएँ।।

 

ठंडी हवा शीत ऋतु मोहक

कुहरा छंटा धूप का सेहरा।।

 

मस्त कबूतर करें ठिठोली

मगन – मगन दाना चुग खाएँ।

तोते खाएँ सेव गुलाबी

नई – नई वे धुन में गाएँ।।

 

गुलदावदी है खिलकर झूमे

गेंदा का मनभावन डेरा।।

 

जागो प्यारे तुम भी जागो

जाड़े की ऋतु ठंडक लाई।

पालक, धनियाँ , गेंहूँ लहके

सँग मूँगफली गजक सुहाई।।

 

खाएँ – पीएँ रखें ध्यान हम

ईश्वर मन में भरें उजेरा।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.१९॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.१९॥ ☆

स्थित्वा तस्मिन वनचरवधूभुक्तकुञ्जे मुहूर्तं

तोयोत्सर्गद्रुततरगतिस तत्परं वर्त्म तीर्णः

रेवां द्रक्ष्यस्य उपलविषमे विन्ध्यपादे विशीर्णां

भक्तिच्चेदैर इव विरचितां भूतिम अङ्गे गजस्य॥१.१९॥

  

जहां के लता कुंज हों आदिवासी

वधू वृंद के रम्य क्रीड़ा भवन हैं

वहां दान पर्जन्य का दे वनो को

विगत भार हो आशु उड़ते पवन में

तनिक बढ़ विषम विन्ध्य प्रांचल प्रवाही

नदी नर्मदा कल कलिल गायिनी को

गजवपु उपरि गूढ़ गड़रों सरीखी

लखोगे वहां सहसधा वाहिनी को

 

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 78 – श्रेय और प्रेय— ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(वरिष्ठ साहित्यकार एवं अग्रज  श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी स्वास्थ्य की जटिल समस्याओं से उबर रहे हैं। इस बीच आपकी अमूल्य रचनाएँ सकारात्मक शीतलता का आभास देती हैं। इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना  श्रेय और प्रेय—-.)

☆  तन्मय साहित्य  #  78 ☆ श्रेय और प्रेय—- ☆ 

चलते-चलते भटके राह हम

यश-कीर्ति सम्मानों से  घिरे

बढ़ते ही जा रहे हैं, अंक

आभासी लुभाते प्रपंच।

 

श्रेय और प्रेय  के, दोनों  पथ  थे

लौकिक-अलौकिक दोनों रथ थे

सुविधाओं की चाहत

प्रेय  को  चुना  हमने

लौकिक पथ, मायावी मंच

आभासी लुभाते प्रपंच।

 

आकर्षण, तृष्णाओं  में  उलझे

अविवेकी मन, अब कैसे सुलझे

आत्ममुग्धता  में  हम

बन गए स्वघोषित ही

हुए निराला, दिनकर, पंत

आभासी लुभाते प्रपंच।

 

आँखों में मोतियाबिंद के जाले

ज्ञान  पर  अविद्या के, हैं  ताले

अंधियाति आँखों ने

समझौते  कर  लिए

मावस के, हो गए महन्त

आभासी लुभाते प्रपंच

 

हो गए प्रमादी, तन से, मन से

प्रदर्शन,अभिनय, झूठे मंचन से

तर्क औ’ वितर्कों के

स्वप्निले  पंखों  पर

उड़ने की चाह, दिग्दिगंत

आभासी लुभाते प्रपंच ।

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ है और था…(3) ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ है और था…(3) ☆

यूँ देखें

बंद मुट्ठी में

अनादि साँसों की

संपदा गड़ी है,

यूँ सोचें

खुली मुट्ठी तो

बस साँस भर

खर्चने को मिली है।

©  संजय भारद्वाज

(प्रात: 3:55 बजे, 22.5.19)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 29 ☆ वीराना ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता वीराना। ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 29 ☆ वीराना

अजीब सा वीराना छा गया है आज,

माना परिवर्तन सृष्टि का नियम है मगर अब सब कुछ तो बदल गया,

कल तक जो आबाद थे आज वीरान हैं,

सैनिकों से सुसज्जित, तोप-घोड़ों की पदचाप से किले कभी  आबाद थे ||

महलों की भव्यता देखते ही बनती थी,

राजा रजवाड़ों का साम्राज्य, महलों सी आबाद थी सेठों की भव्य कोठियाँ,

खुशहाली और सादगी भरी थी लोगो में,

आबाद थी चौपाले, लोग  कहीं चौपड़ तो कहीं शतरंज खेलते दिखते थे ||

सब पुराने जमाने की बातें हो गयी,

किले महल कोठियाँ गांव और शहर की चौपाले अब सब वीरान हो गए,

सब तरफ वीराना ही वीराना है,

सूने किले-महल, कोठियाँ और बंगले अपनी दुर्दशा पर आंसू बहा  रहे हैं ||

आज सब कुछ बदल गया,

मगर आज भी ये किले महल सब अपनी जगह मजबूती से खड़े हैं,

समय बड़ा बलवान है,

आज ये किले महल कोठियाँ सब अपनों के इन्तजार में शांत  खड़े हैं ||

मगर समय कुछ ऐसा बदल  गया,

ना राजा रहे ना उनका राज रहा, ना नौकर रहे ना उनके चाकर,

राजा रजवाड़ों का जमाना चला गया,

जो  महल और किले उनके हिस्से आये वे होटल में तब्दील हो   गए हैं ||

जिन महलों पर राजाओं को अभिमान था,

आज वे होटलो में तब्दील होकर आज आम आदमी के लिए उपलब्ध है,

जीवन कितना परिवर्तन शील है,

कल तक जो राजा थे वे खुद आज काम कर जीने को मजबूर हो गए हैं ||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.१८॥ ☆ प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

महाकवि कालीदास कृत मेघदूतम का श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद : द्वारा प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

☆ “मेघदूतम्” श्लोकशः हिन्दी पद्यानुवाद # मेघदूत ….पूर्वमेघः ॥१.१८॥ ☆

 

चन्नोपान्तः परिणतफलद्योतिभिः काननाम्रैस

त्वय्य आरूढे शिखरम अचलः स्निग्धवेणीसवर्णे

नूनं यास्यत्य अमरमिथुनप्रेक्षणीयाम अवस्थां

मध्ये श्यामः स्तन इव भुवः शेषविस्तारपाण्डुः॥१.१८॥

 

पके आम्रफल से लदे तरु सुशोभित

सघन आम्रकूटादि वन के शिखर पर

कवरि सदृश स्निग्ध गुम्फित अलक सी

सुकोमल सुखद श्याम शोभा प्रकट कर

कुच के सृदश गौर, मुख कृष्णवर्णी

लगेगा वह गिरि, परस पा तुम्हारा

औ” रमणीक दर्शन के हित योग्य होगा

अमरगण तथा अंगनाओ के द्वारा

© प्रो. चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’   

A १, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर. म.प्र. भारत पिन ४८२००८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 66 ☆ चाहत-ए-नैरंग ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं ।  सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है “चाहत-ए-नैरंग”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 66 ☆

☆ चाहत-ए-नैरंग

न कोई ख़ुशी, न कोई गुमाँ

थी लगती ज़िंदगी धुंआ-धुंआ

 

खेले जैसे कोई बाज़ी ताश की

यूँ चलती जीस्त जैसे हो जुआ

 

दूर घाटियों तक आवाज़ चीरती

थीं नज़र ढूँढ़ रही कोई रहनुमा

 

थक गयी घुटना टेके हारकर

थी हुई न कुबूल कोई दुआ

 

जब कहीं झांका भीतर रूह के

यूँ लगा चाहत-ए-नैरंग हुआ

 

यूँ मुस्कुराकर खिल दिए गुल

हो जैसे मैंने मौला को छुआ

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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