हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 141 – घूमा बहुत विदेश में….🇮🇳 ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “घूमा बहुत विदेश में…। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 141 – घूमा बहुत विदेश में… ☆

घूमा बहुत विदेश में, मिला मुझे यह ज्ञान।

मेरा भारतवर्ष यह, जग में बड़ा महान।।

*

विविध संस्कृतियाँ बसीं, हिल-मिल रहते लोग।

हैं स्वतंत्र सब जन सभी, पाते अमृत भोग।।

*

अमृत वर्ष मना रहे, हम भारत के लोग।

प्रगति राष्ट्र उत्थान में, मिल-जुल करते योग।।

*

विश्व जगत में बन गई, स्वाभिमान पहचान।

पाँचवीं अर्थ व्यवस्था, अब भारत की  शान।।

*

आजादी का पर्व यह, संस्कृति का ही पर्व।

सत्य सनातन परंपरा, हम सबको है गर्व।।

*

फहराया है देश में, आज तिरंगा देख।

देश भक्ति की भावना, खिची बड़ी है रेख।।

*

अठत्तरवाँ यह पर्व है, मना रहे हम आज।

देश प्रेम में  हम पगे, लोकतंत्र सरताज।।

*

शस्य श्यामला है धरा, मिली सनातन राह।

कभी तिरंगा झुके न, भारत की यह चाह।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पाठशाला ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  पाठशाला ? ?

पाठशाला के दिन अच्छे थे,

संगी-साथी गणित में कच्चे थे,

फिर क़िताबों को पढ़ना बंद हुआ,

आदमी को पढ़ने का सिलसिला हुआ,

हानि पहुँचाने के गणित में तब जो कच्चे थे,

अपना लाभ उठाने के गणित में अब पक्के हैं,

संबंधों को कंधा बनाने के मर्मज्ञ हैं,

मैं और मेरा के अनन्य विशेषज्ञ हैं,

नि:स्वार्थ भाव पढ़ाती थी पाठशाला,

पग-पग स्वार्थ का अब बोलबाला,

निष्कपट थे, सादे थे, सच्चे थे,

पाठशाला के दिन अच्छे थे..!

© संजय भारद्वाज  

प्रात: 6:47 बजे, 5 मार्च 2024

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्रवण मास साधना में जपमाला, रुद्राष्टकम्, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना करना है 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 203 – विश्वास बादल तो नहीं… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – विश्वास बादल तो नहीं।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 203 – विश्वास बादल तो नहीं… ✍

विश्वास बादल तो नहीं है

जो घिरे, घुमड़े,

शोर से उमड़े,

और बूंदों में बादल

अस्तित्व ही अपना मिटा दे।

 

विश्वास तो आकाश है,

दीखता है दूर –

आँखों से

मगर, मन के पास है;

किन्तु, उसे मत बांधो

क्षणों के वृत्त में,

बल्कि कुछ ऐसा बनाओ,

जिस किसी को भी दिखाओ –

वह कह उठे – ‘क्या बात है,

सौ-गंधों से भरी सौगात है।“

 

तो विश्वास को

‘प्रिय’ कि तरह रखो प्राण में –

उसे तुम बीज-सा बोओ,

धैर्य मत खोओ।

अपना समस्त स्नेह

उसे खाद की तरह दो॰

पानी दो नयन का

वह वृक्ष बने।

वट के समकक्ष बने।

 

फिर उसकी छाँह में बैठो

उठाओ स्वर

और गाओ।

वे और तुम

सब आओ ।  

विश्वास को संबल बनाओ।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 203 – “टाँका करता हूँ कपड़ों में…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत टाँका करता हूँ कपड़ों में...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 203 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “टाँका करता हूँ कपड़ों में...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी 

बापू गये छोड़ कर अपनी

अर्वाचीन फतूम ।

फिर पहनेंगे कहकर

जिसको रक्खे नामालूम –

 

समय , से पेटी के

नीचे

बहुत सम्हाल रखा था

जिसको बेटीने पीछे

 

एक एक धागा दर्जी ने

मोती सा टाँका

काम दिखाई देता जिसका

बेहद ही मासूम

 

दर्जी का कहना शब्दों को

नये अर्थ दे कर

टाँका करता हूँ कपड़ों में

क्या कमीज – नेकर

 

बारहखड़ी सरीखी उसकी

सीवन की रचना

पहनो तो किताब सी जो

होती है बस मालूम

 

इस अलौकिका फतुहीं

का अदभुत रचना संसार

जाने किस किस को बापूजी

दिखा चुके कई बार

 

उनकी खुशी बढाने गनपत

सम्पत  कन्छेदी

की अनचाहे ही नजरें

जाया करती थी घूम

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

18 – 8 – 2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 190 ☆ # “रक्षाबंधन” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता रक्षाबंधन

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 190 ☆

☆ # “रक्षाबंधन” # ☆

धागो के इस बंधन पर

खुश होता संसार है

छुपा हुआ है इसमें

भाई बहन का प्यार है

सिर्फ नहीं है रेशम के धागे

यह स्नेह का इजहार है

जनम जनम का पावन रिश्ता

इस जीवन का आधार है

 

आज हर बहना

बुन रही है सपने

भैया से मिलने के अपने

दिनभर भूखी-प्यासी रहकर

राह उसकी लगी है तकने

 

भाई भी मिलने को है आतुर

बहना रहती है मीलों दूर

कैसे उड़कर उस तक पहुंचूं

राह मे सोच रहा होके मजबूर

 

दरवाजे की हर आहट पर

बहना का लगा ध्यान है

पल पल हो रही देरी में

उसके अटके हुए प्राण है

घंटी बजी तो वो दौड़ी

नहीं कुछ उसको भान है

भाई को देख लिपट गई वो

उसको जैसे मिल गया भगवान है

 

राखी बांधी मिठाई खिलाई

उसके चेहरे पर मुस्कान आई

भाई ने सर पर हाथ रखा

रक्षा करने की कसम खाई

 

दोनों के चेहरे पर

खुशी के भाव झलक रहे हैं

आंखों से स्नेह के सागर

चुपके चुपके छलक रहे हैं

 

दोनों को सारा जहां मिल गया

कुछ नहीं अब बाकी है

भाई बहन के मिलन की साक्षी

भाई के कलाई पर राखी है

 

यह पवित्र ऐसा बंधन है

महकता हुआ जैसे चन्दन है

भाई बहन के अमर प्रेम को

मेरा शत् शत् वंदन है /

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – अम्मा की रोटी… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय कविता ‘अम्मा की रोटी…‘।)

☆ कविता – अम्मा की रोटी… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

याद आती है हमको, अम्मा की रोटी,

गोल गोल चंदा जैसी, अम्मा की रोटी,

मिट्टी के चूल्हे की, सौंधी सी रोटी,

याद आती है हमको, अम्मा की रोटी,

रोज सबेरे उठ कर खाते, अम्मा की रोटी,

पीछे पीछे लिए दौड़ती, अम्मा वो रोटी,

यादों में ही बसी हुई है, अम्मा की रोटी,

गोल गोल चंदा जैसी, अम्मा की रोटी,

भूख नहीं है,नहीं खाना, अम्मा की रोटी,

मना मना के मुझे खिलाती, अम्मा एक रोटी,

मन करता था खाता जाऊं, अम्मा की रोटी,

गोल गोल चंदा जैसी, अम्मा की रोटी,

आपा धापी में,खो गई, अम्मा की रोटी,

रोजी रोटी,आगे, पीछे अम्मा की रोटी,

किस्मतवालों को मिलती है, अम्मा की रोटी,

गोल गोल चंदा जैसी, अम्मा की रोटी,

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 200 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain (IN) Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 200 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 200) ?

Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.

Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.

He is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 200 ?

☆☆☆☆☆

लगता था जिन्दगी को

बदलने में वक्त लगेगा

पर क्या पता था बदला

वक्त जिन्दगी बदल देगा…!

☆☆

Always felt, it would take

Time  to  change  the life…

Never knew that changed

time would change the life…!

☆☆☆☆☆

हालात तो कह रहे हैं

मुलाकात नहीं मुमकिन

पर उम्मीद कह रही है

थोड़ा  इंतजार  कर…

☆☆

Circumstances are saying

It’s not possible to meet

But the expectation  says

Just  wait  for a  while..!

☆☆☆☆☆

अब तो तन्हाई भी

मुझसे है कहने लगी

मुझसे ही कर लो मोहब्बत

मैं  तो  बेवफा नहीं…

☆☆

Now,  even loneliness

has also started saying 

Please fall in love with me

At least I am not unfaithful…

☆☆☆☆☆

नज़र जिसकी समझ सके

वही  दोस्त  है वरना…

खूबसूरत   चेहरे  तो

दुश्मनों के भी होते हैं…

☆☆

Just a glance  of  whose,

perceives you fully, is your friend

Otherwise  even   enemies

Too  have  pretty  faces…!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 200 ☆ मुक्तिका – राधे माधव… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है मुक्तिका – राधे माधव…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 200 ☆

☆ मुक्तिका – राधे माधव☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

जब बसंत हो, मुदित रहें राधे माधव

सुनें सभी की, कहें कभी राधे माधव

*

हीरा-लाल सदृश जोड़ी मनबसिया की

नारीभूषण पुरुषोत्तम राधे माधव

*

अमर स्नेह अमरेंद्र मिले हैं वसुधा पर

अमरावति बृज बना रहे राधे माधव

*

प्रभा किशोरी की; आलोक कन्हैया का

श्री श्रीधर द्वय मुकुलित मन राधे माधव

*

नत नारीश पगों में नरपति मुस्काते

अद्भुत मनोविनोद करें राधे माधव

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – पुस्तक चर्चा ☆ “पृथ्वी किताबें नहीं पढ़ती” (काव्य संग्रह) – लेखक : श्री कुल राजीव पंत ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी , बी एड , प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । यादों की धरोहर हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह -एक संवाददाता की डायरी को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह-महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ पुस्तक चर्चा ☆ “पृथ्वी किताबें नहीं पढ़ती” (काव्य संग्रह) – लेखक : श्री कुल राजीव पंत ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

पुस्तक : पृथ्वी किताबें नहीं पढ़ती

कवि : कुल राजीव पंत

प्रकाशक : प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली

मूल्य : 250 रुपये 

☆ प्रकृति, पहाड़ और नदी के प्रेम की कवितायें : पृथ्वी किताबें नहीं पढ़ती – कमलेश भारतीय ☆

शिमला जब कभी जाना हुआ, किसी साहित्यिक समारोह में कुल राजीव पंत से, उनकी प्यारी सी, मासुम सी मुस्कान से मुलाकात जरूर हुई । कभी आराम से बैठकर तो नहीं लेकिन जब जब कोई रचना सुनी, तब तब कुछ अच्छा सा महसूस हुआ । मैं सोचता था कि वे शिमला में रहते हैं लेकिन यह मुगालता दूर हुआ उनके काव्य संग्रह में लिखे परिचय से कि वे तो सोलन में रहते हैं पर जब बातचीत की तो यह मुगालता भी टूट गया कि उनके पिता बरसों पहले सोलन  उत्तराखण्ड के रूद्रप्रयाग के पास से आये और यहीं बस गये । यही हिमाचल में ही कुल राजीव का जन्म हुआ, इस तरह वे एक पर्वतीय प्रदेश से दूसरे पर्वतीय प्रदेश में आ बसे। यहीं पढ़े, लिखे, नौकरी की हिमाचल विश्वविद्यालय, शिमला में !

यह पृष्ठभूमि इसलिए कि बता सकूं कि  कुल राजीव पंत किस तरह जन्म से लेकर अब तक, जीवन की सांध्य बेला में भी पहाड़, प्रकृति और नदी से सीधे सीधे जुड़े हैं और ऐसे ही उनकी कवितायें ये बताती हैं कि पहाड़ का दर्द क्या है, पहाड़ पर किस तरह धीरे धीरे कब्ज़ा किया जा रहा है, बाज़ार की ओर से, कैसे चिड़िया की तरह एक एक कर उसकी संपदा, उसका सौंदर्य, उसकी मासूमियत और भोलापन छींना जा रहा है, लूटा जा रहा है पहाड़ से ही चुरा कर कैसे शुद्ध पानी और हवा का व्यापार बढ़ रहा है, कैसे पेड़ पर ही शुद्ध हवा का विज्ञापन चस्पां किया जा रहा है ! सच कहूं, ये पहाड़ के दर्द, पीड़ा और उसकी आत्मा को सामने लातीं, असली, बिल्कुल प्रकृति से जुड़ी कवितायें हैं ! एक पहाड़ के आदमी ने पहाड़ के झेले दर्द बड़ी ईमानदारी से बयान किये हैं ! वैसी ही मासूम, भोली सी भाषा में, जैसे पहाड़ी होते हैं या माने जाते हैं । इन कविताओं से गुजरते गुजरते जैसे मैं पहाड़ों के दर्द से गुजरता गया और मुंह से आह और वाह निकलता गया । आह, इसलिए कि कितना खरा व सच्चा लिखा है दर्द पहाड़ का और वाह इसलिए कि कितना खूबसूरत लिखा है ! सबसे खरी खरी बात कही है, इन पंक्तियों में :

हां, किताबों में

खूब बयां होते हैं पहाड़ के दर्द

लेकिन अफ़सोस

पृथ्वी किताबें नहीं पढ़ती!!

इसी तरह पहाड़ को बचाने के लिए की जाने वाली गोष्ठियों की पोल खोलती है कविता – पहाड़ पर पहाड़ के लिए!

दुनिया भर के देवता प्रतिष्ठित हैं

बड़े बड़े हैं उनके मंदिर

इसलिए तुम तो सबसे ज्यादा सुखी होंगे

पर तुम तो सदियों से

इतने दुख सह रहे हो

और हमें कोई खबर ही नहीं !

कितने दर्द सहता आ रहा है पहाड़, कितनी सताई जा रही है प्रकृति और हम शुद्ध हवा,, पानी को तरसते जा रहे हैं ! कितनी प्यारी प्यारी कल्पनाओं से भी और सच्चाई से भी जुड़ी हैं कवितायें! छाते में बारिश मे भीगते, किसी को साथ लेकर चलते कितनी यादे चली आती हैं और पुराने बाज़ार और‌ शहरों का चित्रण भी!

लिखना चाहूँ तो लिखता चला जाऊ़ लेकिन बस, इतना लिखना चाहता हू कि पहाड़, प्रकृति और समाज पर इस संग्रह की कवितायें बहुत सच्ची और खरी हैं। इन्हें‌ निश्चय ही पढ़ा जाना चाहिए और खूबसूरत मुखपृष्ठ भी आमंत्रित करता जान पड़ता है कि प्रकृति के निकट आओ, दोस्तो! नदी के जूड़े में जंगल ने फूल टांके हैं और नदी शर्मा, सकुचाई सी है! पहाड़ और छाते का साथ और बहुत सी प्रेम कथायें लेकिन चिंता कि ऑक्सीजन बार खुलने लगे हैं और पतझर का मायका पहाड़ मूक दर्द सह रहा है !

फ्लैप पर प्रो कुमार कृष्ण ने भी कहा है कि ये कवितायें सृजनात्मक अनुभव और जीवनानुभव से निकली हैं। ये नदी के पांव से लेकर पृथ्वी पर चलने के लिए आतुर है तो आपकी आतुरता इन कविताओं को पढ़ने की बढ़ती जायेगी, निश्चित है। बहुत बहुत बधाई, कुल राजीव! अबकि शिमला मिलेंगे तो आपकी कविताओं पर खुलकर बात करेंगे।

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

संपर्क :   1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #249 – 134 – “पहली नज़र में समझ लेते थे इज़हार…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल पहली नज़र में समझ लेते थे इज़हार…” ।)

? ग़ज़ल # 134 – “पहली नज़र में समझ लेते थे इज़हार,…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

मुहब्बत में जीने के दिन आ गये हैं,

लो मोती पिरोने के दिन आ गये हैं।

*

किस्से दूसरों के बहुत सुन चुके हैं,

हमारे  फ़साने के दिन आ गये हैं। 

*

हुज़ूर कुछ दिनों से उखड़े से रहते हैं,

लगता हैं सताने के दिन आ गये हैं।

*

जज़्ब कर लेते थे कल तक भीतर ही, 

अब अश्क़ बहाने के दिन आ गये हैं। 

*

पहली नज़र में समझ लेते थे इज़हार,

प्यार अब जताने के दिन आ गये हैं।

*

उड़ चुके इश्क़ के कबूतर फड़फड़ा कर,

लो ज़ख़्म सहलाने के दिन आ गये हैं।

*

चुराने  लगे  अब नज़रों से नज़र वो,

लो आतिश लुभाने के दिन आ गये हैं।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

*≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares
image_print