हिंदी साहित्य – कविता ☆ ऐंठन ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ कविता ☆ ऐंठन ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

अंधेरा

लील लेता है

सारे रंग

रूप पर कालिख पोतकर

गगनभेदी

अट्टहास करता है

*

अचरज है

लोग

अंधेरे पर इल्जाम

देने की बजाय

अपनी आँखों पर

शक करने लगते हैं

*

बावजूद इसके कि

सुबह के सप्ताश्वरथ को

रोकना

नामुमकिन है

यहां किसी दुर्धर्ष योद्धा की भी

दाल नहीं गलती

*

एक रात की

बादशाहत पर

ऐंठता है

अंधेरा

सब कुछ जानता है

पर मानता नहीं।।

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – अंजुरी (काव्य-संग्रह)– पुष्पा गुजराथी ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 14 ?

?अंजुरी (काव्य-संग्रह)– पुष्पा गुजराथी  ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम- अंजुरी 

विधा- कविता

कवयित्री – पुष्पा गुजराथी 

? ढलती दुपहरी की अंजुरी में ओस की बूँदें  श्री संजय भारद्वाज ?

माना जाता है कि कविता लिखना संतान को जन्म देने जैसा है। तथापि निजी अनुभव प्रायः कहता है कि कविता संतान की नहीं अपितु माँ की भूमिका में होती है। कवि, कविता को चलना सिखा नहीं सकता बल्कि उसे स्वयं कविता की उंगली पकड़ कर चलना होता है। एक बार उंगली थाम ली तो अंजुरी खुद-ब-खुद संवेदना की तरल अभिव्यक्ति से भर जाती है। पुष्पा गुजराथी की अनुभूति ने कविता की उंगली इतने अपनत्व से थामी है कि उनकी अंजुरी की अभिव्यक्ति नवयौवना नदी-सी श्वेत लहरियों वाला वस्त्र पहने झिलमिल-झिलमिल करती दिखती है।

पुष्पा गुजराथी की कविताओं के ये पन्ने भर नहीं बल्कि उनके मन की परतों पर लिखे भावानुभवों के संग्रहित दस्तावेज़ हैं। कवयित्री ने हर कविता लिखने से पहले संवेदना के स्तर पर उसे जिया है। यही कारण है कि उनकी कविता स्पंदित करती है। यह स्पंदन इन दस्तावेज़ों की सबसे बड़ी विशेषता और सफलता है।

ओशो दर्शन कहता है कि उद्गम से आगे की यात्रा धारा है जबकि उद्गम की ओर लौटने के लिए राधा होना पड़ता है। पुष्पा गुजराथी इन कविताओं में धारा और राधा, दोनों रूपों में एक साथ प्रवाहित होती दिखती हैं। ये कविताएँ कभी अतीत की केंचुली उतारकर जीवन का वसंतोत्सव मनाना चाहती हैं तो कभी अतीत के सुर्ख़ गुलाब की पंखुड़ियाँ सहेज कर रख लेती हैं। कभी धूप और बरखा के मिलन से उपजा  इंद्रधनुषी रंग वापस लौटा लाना चाहती हैं तो कभी यादों को यंत्रणाओं की शृंखलाओं-सा सिलसिला मानकर स्वयं को थरथराती दीपशिखा घोषित कर देती हैं। कवयित्री कभी सरसराती हवा के परों पर सवार हो जाती हैं तो कभी हौले से आकाश से नीचे उतर आती हैं, यह जानकर कि आकाश में घर तो बनता नहीं।

पुष्या गुजराथी की ‘अंजुरी’ को खुलने के लिए जीवन की ढलती दुपहरी तक प्रतीक्षा क्यों करनी पड़ी, यह मेरे लिए आश्चर्य का विषय है।  आश्चर्य से अधिक सुखद बात यह है कि ढलती दुपहरी में खुली अंजुरी में भी ओस की बूँदे ज्यों की त्यों सुरक्षित हैं। यह बूँदें उतनी ही ताज़ा, चमकदार और स्निग्ध हैं जितनी भोर के समय होती हैं।

कच्चे गर्भ-सी रेशमी यह नन्हीं ‘अंजुरी’ पाठक के मन के दरवाज़े पर हौले से थाप देती है, मन की काँच-सी पगडंडियों पर अपने पदचिह्न छाप देती है। पाठक मंत्रमुग्ध होकर कविता के कानों में गुनगुनाने लगता है- ‘आगतम्, स्वागतम्, सुस्वागतम् ।’

हिंदी साहित्य में पुष्या गुजराथी की सृजनधर्मिता का स्वागत है। वे निरंतर चलती रहें –

जागो !

उठो चलो।

चलते ही रहो,

चलना ही तुम्हारी मंज़िल है,

अगर रुके तो ख़त्म !

हर एक के हिस्से में आता है,

दर्द अपना-अपना,

किसी के हिस्से चलने का !

किसी के हिस्से रुकने का !

कवयित्री को ढेरों शुभकामनाएँ।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #23 – ग़ज़ल – आज मिलती है कहां शर्मो -हया लोगों में… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम – ग़ज़ल – आज मिलती है कहां शर्मो -हया लोगों में

? रचना संसार # 23 – ग़ज़ल – आज मिलती है कहां शर्मो -हया लोगों में…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

मुझको मंज़ूर नहीं और से कमतर होना

मेरी फ़ितरत में ही ईमान की चादर होना

 *

काम मुश्किल ही है क़िस्मत का सिकंदर होना

सर बुलंदी को भी साथ में लश्कर होना

 *

चाह सबकी ही रही मीर सा बेहतर होना

बस में सबके तो नहीं यार सुख़नवर होना

 *

आज मिलती है कहां शर्मो -हया लोगों में

कितना दुश्वार है तहज़ीब का ज़ेवर होना

 *

मेरी हसरत है यही हो ये ज़ुबां भी शीरी

खलता है बहुत इसका भी नश्तर होना

 *

लोग उँगली ही उठाते हैं सदा नेकी पर

कितना मुश्किल है ज़माने में पयम्बर होना

 *

मौत आने का नहीं तय है समय भी मीना

क्या ज़रूरी है तेरे जिस्म का जर्जर होना

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #251 ☆ भावना के दोहे – श्राद्ध पक्ष  ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे – श्राद्ध पक्ष )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 251 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे – श्राद्ध पक्ष  ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

घर  आँगन में बैठते, पति पत्नी के संग।

पुरखों का हैं आगमन, उनका हैं सत्संग।।

*

श्राद्ध पक्ष में हम करें, करें  पिंड का दान।

पितरों का तर्पण करें, करते वो कल्याण।।

*

गौ का  ग्रास निकालते, काग श्वान का भाग।

आस लगाए बैठते, गौ माता अरु काग।।

*

श्रद्धा प्रादुर्भाव से, श्राद्ध पक्ष में आज।

पुरखों के आशीष से, बनते बिगड़े काज।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #233 ☆ कविता – तर्पण… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है कविता – तर्पण आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 231 ☆

☆ कविता – तर्पण ☆ श्री संतोष नेमा ☆

नर्मदा  तट  पर  भीड़  भारी  है

पितरों  का  तर्पण अब जारी है

*

उनको समर्पित है यह पखवाड़ा

यह  उनकी  ही  तो  फुलवारी है

*

देते   हैं  श्रद्धा   से   जल   उन्हें

जो  होता   बहुत  चमत्कारी  है

*

पिंड  दान  दे शांति  पितरों  को

महिमा जिसकी सबसे  न्यारी है

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ प्रेमा के प्रेमिल सृजन… तर्पण ☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆

श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ 

(साहित्यकार श्रीमति योगिता चौरसिया जी की रचनाएँ प्रतिष्ठित समाचार पत्रों/पत्र पत्रिकाओं में विभिन्न विधाओं में सतत प्रकाशित। कई साझा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित। दोहा संग्रह दोहा कलश प्रकाशित, विविध छंद कलश प्रकाशित। गीत कलश (छंद गीत) और निर्विकार पथ (मत्तसवैया) प्रकाशाधीन। राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय मंच / संस्थाओं से 350 से अधिक सम्मानों से सम्मानित। साहित्य के साथ ही समाजसेवा में भी सेवारत। हम समय समय पर आपकी रचनाएँ अपने प्रबुद्ध पाठकों से साझा करते रहेंगे।)  

☆ कविता ☆ प्रेमा के प्रेमिल सृजन… तर्पण ☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆

तर्पण अर्पण जो करें,  पाते हर आनंद ।

सुख होते संतति सभी, जीवन हो मकरंद ।।

जीवन हो मकरंद, यही तो शान बढ़ाते ।

होती है पहचान, सदा ये गोद खिलाते ।।

कहती प्रेमा आज , पितर कर जीवन अर्पण ।

देते हैं आशीष, करें सेवा अरु तर्पण ।।1!!

*

तर्पण करना चाहिए, अर्पण करके दान ।

पढ़ा लिखा हमको सदा, देते अपनी जान ।।

देते अपनी जान , करें न्योछावर जानो ।

रहते है कुर्बान, त्याग सब करते मानो ।।

कहती प्रेमा आज , दिखाते जीवन  दर्पण ।

जीवन सुखमय भोग, पितर का करते तर्पण।।2!!

*

तर्पण पितरों का करें, सजता जीवन रोज ।

देते आशीर्वाद हैं , पितर करायें भोज ।।

पितर करायें भोज, मिले जीवन सुख सारे ।

करें नेह बरसात, यही तो जग में प्यारे ।।

कहती प्रेमा आज, नेह का करते वर्षण ।

दिए हमें वरदान, करें जीवन में तर्पण ।।3!!

© श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’

मंडला, मध्यप्रदेश मो –8435157848

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ पाँच कविताएँ ☆ श्री धर्मपाल महेंद्र जैन ☆

श्री धर्मपाल महेंद्र जैन

ई-अभिव्यक्ति में सुप्रसिद्ध साहित्यकार व्यंग्यकार श्री धर्मपाल महेंद्र जैन जीका स्वागत। श्री धर्मपाल जी के ही शब्दों में अराजकता, अत्याचार, अनाचार, असमानताएँ, असत्य, अवसरवादिता का विरोध प्रकट करने का प्रभावी माध्यम है- व्यंग्य लेखन।

संक्षिप्त परिचय

जन्म : 1952, रानापुर, जिला: झाबुआ, म. प्र. शिक्षा : भौतिकी, हिन्दी एवं अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर. टोरंटो (कनाडा) : 2002 से कैनेडियन नागरिक.

प्रकाशन :  “गणतंत्र के तोते”, “चयनित व्यंग्य रचनाएँ”, “डॉलर का नोट”, “भीड़ और भेड़िए”, “इमोजी की मौज में” “दिमाग वालो सावधान” एवं “सर क्यों दाँत फाड़ रहा है?” (7 व्यंग्य संकलन) एवं Friday Evening, “अधलिखे पन्ने”, “कुछ सम कुछ विषम”, “इस समय तक” (4 कविता संकलन) प्रकाशित। तीस से अधिक साझा संकलनों में सहभागिता।

स्तंभ लेखन : चाणक्य वार्ता (पाक्षिक), सेतु (मासिक), विश्वगाथा व विश्वा में स्तंभ लेखन।

नवनीत, वागर्थ, दोआबा, पाखी, पक्षधर, पहल, व्यंग्य यात्रा, लहक, समकालीन भारतीय साहित्य, मधुमती आदि में रचनाएँ प्रकाशित।

☆ धर्मपाल महेंद्र जैन – पाँच कविताएँ

☆ एक ☆ तुम्हें लिखने में

मैं प्रेम को कभी

शब्दों में नहीं लिख पाया

रेले की तरह

सब कुछ बह जाता था उसी क्षण

पूरे आवेग के साथ

कुछ ठहरता नहीं था

जो पकड़ पाता मैं शब्दों में।

 

लगा कि मैं प्रेम में डूबा पड़ा हूँ

किसी राग की तरह

जो ठुमरी में उलझा है

बिना आलाप के और

उसे वहाँ से निकलना ही नहीं है।

 

तुममें रहकर मैं

तुम्हें लिख नहीं पाता

और तुममें रहे बिना

कुछ लिखना बेमानी है

कुछ पन्ने हैं जो लिखे-फाड़े

पुनः जोड़े, फिर से लिखे और

फिर-फिर फाड़ दिए

तुम्हें लिखने में।

 

☆ दो ☆ हर बार बदल गए शब्द ☆

 

हर बार बदल गए शब्द, राग

बदल गई ताल

प्रेम की हमराह होने में।

कोई शब्द ऐसे नहीं बचे

जिन्हें काट-काट कर

फिर से नहीं लिखा।

अब सारे शब्द कटे पड़े हैं।

 

यह जानते हुए कि

आदि से लिखा है और

अनंत तक लिखा जाएगा प्रेम को

यह जानते हुए कि

किसी भी भाषा में

कोई भी शब्द नहीं लिख पाये

प्रेम को सही-सही।

ऐ दोस्त आओ मिल कर लिखते हैं

कोई शब्द

जो प्रेम को लिख जाए

उसके आवेग के साथ।

☆ तीन ☆ ऐ ☆

ऐ, तुम सुनो मैं बोलता हूँ।

सच की कसम

जो भी कहूँगा सच कहूँगा

सच के सिवा कुछ और तो

आता नहीं है

वे विरोधी, बस विरोधी

बेकार हैं, बदमाश हैं, मक्कार हैं

इसलिए नाकाम हैं

छोड़ दो उनको

मुझको सुनो, मैं बोलता हूँ।

 

ऐ, तुम लिखो मैं बोलता हूँ

इतिहास मैं, विचार मैं

धर्म मैं, व्यवहार मैं

सर्जक मैं, संसार मैं

भगवान मैं, संहार मैं

ईश की संतान मैं।

मुझ पर लिखो जो बोलता हूँ।

 

ऐ, तुम वो करो जो बोलता हूँ।

मत डरो, करो या मरो

तुम कुछ नहीं लाए

मैं ही तुम्हारा भाग्य हूँ

जो तुमने कमाया मैंने दिया है

और दूँगा

बस सुनो तुम ध्यान से,

वो ही करो जो बोलता हूँ।

 

☆ चार ☆  कौन-सा राग है यह ☆

 

नदी किनारे जब चलती हो तुम

तुम्हारे पैरों तले रेत

बिखर कर मुस्कुराना सीखती है।

ऐसे में

उबड़-खाबड़ चट्टान पर बैठ

मेरे लिए अब

बुद्ध बनना संभव नहीं।

 

रेतीली ज़मीन के कुछ कंकड़

आँखों को भा गए हैं

वे उठकर उँगलियों तक आ गए हैं

और प्रक्षेपित हो

पानी की सतह पर

फैलाने लगे हैं तरंगों की परिधियाँ।

 

बहती नदी की शांत ध्वनि में

कौन-सा राग है यह

कि प्रार्थना में आकाश झुका है

घाट पर दीये जल उठे हैं

और टनटनाने लगी है घंटियाँ।

ढलती शाम

रात को कितने अदब से बुलाती है।

 

मैं अब समझने लगा हूँ

तुम्हारे स्पर्श से

रेत के कठोर-महीन कण

क्यों कोमल-गंधार-से बहकने लगते हैं।

 

☆ पाँच ☆ महानगर ☆

निचली बस्तियाँ शाप जीती हैं और

खड़ी हो जाती हैं हर बार

और ज़्यादा बड़ी होकर।

 

होते हैं कुछ लोग जो छत चाहते हैं

औरतों और बच्चों के साथ

रात को नींद का सपना देखने और

दिन में रोटी कमाने के लिए।

 

होते हैं कुछ लोग जो हड़पना चाहते हैं

नदी, तालाब, जंगल, रेलों के किनारे 

हफ़्ते पर उठा देने बस्तियाँ।

 

यहीं वोट गिरते हैं एक दिन

दादा बन जाता है बस्ती का नुमाइंदा।

यहीं बाढ़ आती है एक दिन

और चौड़ा हो जाता है बस्ती का पाट।

यहीं आग लगती है एक दिन

हड्डियों और मलबे से

ठोस हो जाती है ज़मीन।

यहीं बुल्डोज़र चलते हैं एक दिन

और ऊँचे माले झाँकने लगते हैं।

 

आसपास और उगने लगती है बस्तियाँ

वे लैंड-फिल करती हैं सालों तक

अभिशाप जीती हैं और

खड़ी हो जाती हैं हर बार

और ज़्यादा बड़ी होकर।

 ********

© श्री धर्मपाल महेंद्र जैन

संपर्क – 22 Farrell Avenue, North York, Toronto, ON – M2R1C8 – Canada

वेब पृष्ठ : www.dharmtoronto.com

फेसबुक : https://www.facebook.com/djain2017

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – मतलबी ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – मतलबी ? ?

शहर के शहर

लिख देगा मेरे नाम,

जानता हूँ…,

मतलबी है,

संभाले रखेगा गाँव तमाम,

जानता हूँ…!

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय, न्यू आर्ट्स, कॉमर्स एंड साइंस कॉलेज (स्वायत्त) अहमदनगर संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆ 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️💥 श्रीगणेश साधना सम्पन्न हुई। पितृ पक्ष में पटल पर छुट्टी रहेगी।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 484 ⇒ कयामत से इनायत तक ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक कविता – “कयामत से इनायत तक।)

?अभी अभी # 484 ⇒ कयामत से इनायत तक? श्री प्रदीप शर्मा  ?

कुछ सांसें लेना छूट गईं,

कुछ सांसें बीच में ही उखड़ गईं।

हम भी लड़खड़ाए,

दो घूँट पानी पिया,

दो घूँट गम। ।

थोड़ा लिया दम

और फिर चल पड़े हम।

साँसों का हिसाब,

सुना है

ऊपर वाला रखता है। ।

गिनकर देता है,

जेब खर्च की तरह

और बाद में

हिसाब मांगता है।

ये चल रही सांसें भी,

किसी की अमानत है,

इनमें खयानत ना हो। ।

जो सांसें बीच में छूटी हों

उनकी भी हिफाजत हो।

जिंदगी एक जश्न हो …

चाहे कयामत हो। ।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 221 ☆ बाल गीत – साहस करो जीत ही होगी… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 221 ☆ 

बाल गीत – साहस करो जीत ही होगी ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

साहस करो जीत ही होगी

कर्म करो, पुरुषार्थ करो।

पैराओलंपिक है प्रेरक

हर बाधा को पार करो।

शीतल ने बिन हाथों के ही

देश के लिए जीता मैडल ।

गौरव, सौरभ हुआ है उज्ज्वल

पैरों में अद्भुत है बल।

 *

जिनके हाथ साथ हैं साथी

प्रेरित हो उपकार करो।

साहस करो जीत ही होगी

कर्म करो, पुरुषार्थ करो।।

 *

हार नहीं मानी उनने भी

तन से अंग-भंग हैं चेते।

लक्ष्य बना मंजिल तक पहुँचे

नाव स्वयं ही रहे वे खेते।

 *

जिनका तन है सही सलामत

खुद में सदा सुधार करो।

साहस करो जीत ही होगी

कर्म करो, पुरुषार्थ करो।

 *

सदा देश हित जीना अच्छा

सार्थक जीवन करो मगर।

मुश्किल में भी मत घबराओ

तब होगी आसान डगर।

 *

मोबाइल में व्यर्थ न उलझो

कुछ तो अच्छे कार्य करो।

साहस करो जीत ही होगी

कर्म करो, पुरुषार्थ करो।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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