हिन्दी साहित्य – कविता ☆ दीपावली विशेष – व्यंग्य कविता – एक दीये ही हैं ☆ श्री घनश्याम अग्रवाल

श्री घनश्याम अग्रवाल

(श्री घनश्याम अग्रवाल जी वरिष्ठ हास्य-व्यंग्य कवि हैं. आज प्रस्तुत है उनकी  दीपावली पर्व पर  विशेष व्यंग्य कविता एक दीये ही हैं )

दीपावली विशेष – व्यंग्य कविता – एक दीये ही हैं

 एक दीये ही हैं

जो

रात में जलते हैं,

वरना

जलने वाले तो

दिन – रात जलते हैं । ”

 

आप पहली किस्म के हैं

आपको

सलाम करता हूँ,

दीवाली की अपनी शाम

आपके नाम करता हूँ ।

 

मेरा क्या  ?

मुझे जब भी

रोशनी को जरूरत होती

आपको याद कर

रोशन हो जाता हूँ,

जब मूड आये

दीवाली मनाता हूँ ।

(इससे इम्युनिटी बढ़ती सो अलग ! )

 

© श्री घनश्याम अग्रवाल

(हास्य-व्यंग्य कवि)

094228 60199

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ दीपावली विशेष – दीपावली ☆ सुश्री हरप्रीत कौर

सुश्री हरप्रीत कौर

(आज प्रस्तुत है  सुश्री हरप्रीत कौर जी  की एक समसामयिक भावप्रवण कविता  “दीपावली”।)   

☆ दीपावली विशेष – दीपावली  

जगमग दीपों से करते

अमावस्या की काली रात्रि

में उजियारा.

हो सबके जीवन में प्रकाश

है ईश्वर से यही प्रार्थना.

हर लो मेरे मन का तम भी

भगवन्,

दूर करो अज्ञान रूपी अंधेरे को,

परोपकार और करुणा के

दीप से प्रज्ज्वलित करो उर को.

श्रेष्ठ अपना जग को दे जाए

आओ,

इस दीपावली को

अहंकार को तिलांजलि दे

नवजीवन की ज्योति जलाए.

 

©  सुश्री हरप्रीत कौर

ई मेल [email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ सुदर्शन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ सुदर्शन 

जब नहीं रहूँगा मैं

और बची रहेगी सिर्फ़ देह,

उसने सोचा….,

सदा बचा रहूँगा मैं

कभी-कभार नहीं रहेगी देह,

उसने दोबारा सोचा…,

विचार पहले से दूसरे

पड़ाव तक पहुँचा

उसका जीवन बदल गया…,

दर्शन क्या बदला

कल तक जो नश्वर था

आज ईश्वर हो गया..!

 

©  संजय भारद्वाज 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 59 ☆ संतोष के दोहे ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत हैं  “संतोष के दोहे। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 59☆

☆ संतोष के दोहे ☆

अरुण रश्मियाँ नेह की, फैला रहीं प्रकाश

तिमिर सिमट कर भागता, नभ में हुआ उजास

 

हटता मन का जब तिमिर, तब आता है ज्ञान

गुरू भक्ति से दूर हो, अंतर का अभिमान

 

रोशन अब सारा शहर, झालर ज्योतिर्मान

दीप नेह के जल उठे, लक्ष्मी का सम्मान

 

बिजली बिन सूना लगे, सारा घर संसार

आदत इसकी पड़ गई, बिन बिजली लाचार

 

सूरज अपनी ताप से, देता है बरसात

जल-थल-नभचर पालता, उसकी यह सौगात

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ प्रयोग ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ प्रयोग 

अदल-बदल कर

समय ने किये

कई प्रयोग पर

निष्कर्ष वही रहा,

धन, रूप, शक्ति,

सब खेत हुए

केवल ज्ञान

चिरंजीव रहा!

 ©  संजय भारद्वाज 

रात्रि 12:08  21-10-2018.

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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English Literature – Poetry (भावानुवाद) ☆ यह पृथ्वी रहेगी/Earth will be there… – स्व केदारनाथ सिंह ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. Presently, he is serving as Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad is involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.)

We present an English Version of Late Kedarnath Singh’s  Classical Poem यह पृथ्वी रहेगी  with title  “Earth will be there… ” .  We extend our heartiest thanks to the learned author  Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit,  English and Urdu languages) for this beautiful translation.)

स्व केदारनाथ सिंह 

☆ यह पृथ्वी रहेगी ☆   

मुझे विश्वास है

यह पृथ्वी रहेगी

यदि और कहीं नहीं तो मेरी हड्डियों में

यह रहेगी जैसे पेड़ के तने में

रहते हैं दीमक

जैसे दाने में रह लेता है घुन

यह रहेगी प्रलय के बाद भी मेरे अंदर

यदि और कहीं नहीं तो मेरी जबान

 

और मेरी नश्वरता में

यह रहेगी

और एक सुबह मैं उठूँगा

मैं उठूँगा पृथ्वी-समेत

जल और कच्छप-समेत मैं उठूँगा

मैं उठूँगा और चल दूँगा उससे मिलने

जिससे वादा है

कि मिलूँगा।

  ☆ Earth will be there… ☆

 I do believe this earth,

if nowhere else,

will remain in my bones

Like termites living

in a tree trunk

Like weevils living in grain

It will remain inside me

even after the holocaust…

If nowhere else

It’ll live in my tongue

and in my mortality…!

 

And, one fine morning,

I will wake up

with the earth

And rise up with the

water and turtle

I’ll get up and walk

to meet him

whom I have

promised to meet!

 

© Captain (IN) Pravin Raghuanshi, NM (Retd),

Pune

≈  Blog Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 48 ☆ गीत – चन्दनवन वीरान हो गए ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  एक गीत “चन्दनवन वीरान हो गए.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 48 ☆

☆ गीत – चन्दनवन वीरान हो गए ☆ 

 

नीरवता ऐसी है फैली

चन्दनवन वीरान हो गए।

जो उपयोगी था उर-मन से

लुटे-पिटे सामान हो गए।।

 

झाड़ उगे, अँधियारा फैला

सूनी हैं दीवारें सब

अर्पण और समर्पणता की

खोई कहाँ बहारें अब

कौन किसी के साथ गया है

किसको कहाँ पुकारें कब

 

गठरी खोई श्वांसों की सच

सब ही अंतर्ध्यान हो गए।।

 

कितने सपने, कितने अपने

खोई है तरुणाई भी

भोग-विलासों के आडम्बर

लगते गहरी खाई – सी

बचपन के सब गुड्डी- गुड्डन

छूटे धेला पाई भी

 

वक्त, वक्त के साथ गया है

मरकर सभी महान हो गए।।

 

अर्थतन्त्र के चौके, छक्के

गिल्ली से उड़ गए चौबारे

साथ और संघातों के भी

आग उगलते हैं अंगारे

प्यार-प्रीति भी राख हो गई

दिन में भी कब रहे उजारे

 

जोड़ा कोई काम न आया

सारे ही शमशान हो गए।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 70 – अखबार में….. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण रचना  “अखबार में…….। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 70 ☆

☆ अखबार में…….☆  

आज, कोई भी खबर

ऐसी नहीं, अखबार में

अब कहाँ सच मिल रहा है

शहर के बाजार में।

मुँह चिढ़ाते शब्द

बौने से लगे अक्षर

चित्र, मृतकों के,

वहीं, विज्ञापनों के स्वर,

चल रही है, दावतें

स्वर्गस्थ के परिवार में। आज…….

एक पर, दो मुफ्त

मनमाफिक उठा लें ऋण

लोक सेवक बन,

बजाने में, लगे हैं बीन,

चहकते फरमान, प्रतिदिन

मौसमी दरबार में।………

योजनाएं, छ्द्म

कॉलम हैं बने न्यारे

और अंतिम आदमी के

चित्र, रतनारे,

है इधर आरोप, तो कुछ व्यस्त

जय जयकार में। आज………

सफेदी ओढ़े तमस

मुखपृष्ठ पर बैठा

पैरवी, गैरों की

अपनों से रहा ऐंठा,

हो गया ये अब सयाना

फरेबी व्यवहार में।।आज……

 

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ धुँए का दर्द… ☆ श्री जयेश वर्मा

श्री जयेश कुमार वर्मा

(श्री जयेश कुमार वर्मा जी का हार्दिक स्वागत है। आप बैंक ऑफ़ बरोडा (देना बैंक) से वरिष्ठ प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। हम अपने पाठकों से आपकी सर्वोत्कृष्ट रचनाएँ समय समय पर साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक  अतिसुन्दर भावप्रवण कविता धुँए का दर्द…।)

☆ कविता  ☆ धुँए का दर्द… ☆

जब…वो…बीड़ी….

सुलगाता है…..,

दर्द…हवा..

मजा.. मजा…सा…आता..है..

धुँए सा निकलता है….,

दर्द….सीने.. का..

पल भर… आँखों को…धुंधुआँता….

अंतरतम की अंनत गहराइयों को..

तृप्त..कर..

कायनात में मिल जाता है…

मुसीबतें..

कितनी..कितनी…झेलीं.. उसने…

लक़ीर.. दर.. लकीर..,

उकेरीं…माथे..पे..वक़्त ..ने..

मुसीबतों का..ये.. शिलालेख..

बीड़ी के धुँए में…..

गुम.. गुम.. सा.. जाता. है..

वक़्त के साथ…

एक.. बीड़ी..

बुझ..बुझ..कर…

रोज़ जलती है..

उठते…धुएँ..सा..दर्द..

ज़िन्दगी पर..

फिर…. भारी….. हो जाता है…

 

©  जयेश वर्मा

संपर्क :  94 इंद्रपुरी कॉलोनी, ग्वारीघाट रोड, जबलपुर (मध्यप्रदेश)
वर्तमान में – खराड़ी,  पुणे (महाराष्ट्र)
मो 7746001236

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 21 ☆ रिश्तों में जमी बर्फ ☆ श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता रिश्तों में जमी बर्फ। ) 

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 21 ☆ रिश्तों में जमी बर्फ

 

जिंदगी के हसीन पल यूँ ही जाया हो गए,

जीवन तो बस फालतू की बातों में ही बीत गया ||

 

जिन बातों की जिंदगी में अहमियत नही थी,

जीवन तो बस उन्हीं बातों में उलझ कर रह गया ||

 

जीवन में हर कोई मेरे दिल के करीब था,

बिना वजह तेरी-मेरी करने में रिश्ता रीत गया ||

 

जिंदगी में जो सबसे प्यारे और अजीज थे,

बेमतलब की बातों ने उन्हें ही पराया कर दिया ||

 

छोटी-छोटी फिजूल बातें हम समझ नही सके,

इन फिजूल बातों का पंच दिल में गहरा घाव कर गया ||

 

रिश्तों में जमी बर्फ पिघल जाती तो अच्छा था,

बर्फ तो पिघली नहीं मोम सा दिल पिघल कर बह गया ||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
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