हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 49 ☆ मिलाओ हाथ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  एक भावप्रवण रचना “मिलाओ हाथ ”। )

आप निम्न लिंक पर क्लिक कर सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी के यूट्यूब चैनल पर उनकी रचनाओं के संसार से रूबरू हो सकते हैं –

यूट्यूब लिंक >>>>   Neelam Saxena Chandra

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 49 ☆

☆ मिलाओ हाथ  

 

ऐ दोस्त!

क्या तुमको अच्छा नहीं लगता

जब कोयल मधुर सा गीत गाती है

और हर दिल को लुभाती है?

जब सुबह की केसरिया किरण

सारे जग को महकाती है?

जब लहराती हवाएं लचकती सी चलती हैं

और मुस्कुराते दरख्तों से टकराती हैं?

जब परिंदे उड़ान भरते हैं

और हमारी भी उम्मीदें आसमान छू जाती हैं?

 

कितना कुछ है क़ुदरत के पास

हमें देने के लिए, हमें सिखाने के लिए?

क्यों हम उसी क़ुदरत से खेलते हैं

और उसके नियमों को तोड़ते हैं?

 

उसकी तो वंदना करनी होगी,

लेनी होगी कसम हम सभी को

कि मिला लेंगे हम सब हाथ

उस कोयल से, उस किरण से,

उन दरख्तों से, उन परिंदों से

और हम सब अब चलेंगे साथ-साथ!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ अंतर्मुखी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ अंतर्मुखी 

 

बाहरी दुनिया

देखते-देखते

आदमी जब

थक जाता है,

उलट लेता है

अपनी आँखें

अंतर्मुखी

कहलाता है,

लम्बे समय तक

बाहरी दुनिया को

देखने, समझने की

दृष्टि देता है,

कुछ समय

अंतर्मुखी होना

अच्छा होता है..!

 

©  संजय भारद्वाज 

दोपहर 3:33 बजे, 25.8.18

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिव्यक्ति # 24 ☆ कविता – उड़ान ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा।  आज प्रस्तुत है  एक कविता  “ उड़ान ”।  यह कविता एक माँ की दृष्टी में बच्चे के जन्म के पश्चात नन्हें बच्चे के कोमल हृदय की जिज्ञासाएँ और भविष्य की कल्पना की काव्यभिव्यक्ति है। अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दीजिये और पसंद आये तो मित्रों से शेयर भी कीजियेगा । अच्छा लगेगा। यह कविता मेरी नै ई- बुक ” तो कुछ कहूँ ” से उद्धृत है। )  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 24

☆ उड़ान  ☆

वो देखो

कितना सुंदर

कितना प्यारा

नीला आसमान है।

उतने ही सुंदर

पेड़ों पर कलरव करते पक्षी

उतने ही प्यारे

इस धरती पर इंसान हैं।

 

देखती हूँ प्रतिदिन

कौतूहल

तुम्हारी अबोध आँखों में।

जानती हूँ

तुम्हें लगता है प्रत्येक दिन

यह संसार

जीवन के विभिन्न रंगों से भरे

जादुई बक्से की तरह।

 

माँ हूँ तुम्हारी

अतः

पढ़ सकती हूँ

मन तुम्हारा

और

आँखें तुम्हारी।

 

मैं बताऊँगी

वह सब कुछ

जो जानने को आतुर हो तुम

कुछ तुम्हारी तोतली भाषा में

और

कुछ संकेतों में

कि –

कितने सुंदर हैं

आसमान पर उड़ते पक्षी

रंग-बिरंगे फूलों से भरे बाग

उन पर मँडराते भौंरे

और रंग-बिरंगे पंखों वाली तितलियाँ।

पड़ोस की प्यारी पालतू बिल्ली

और प्यारा पालतू कुत्ता।

ऊंचे-ऊंचे पहाड़

उनसे गिरते झरने

खेतों और शहरों के बीच से बहती नदी

और अथाह नीला समुद्र।

पुराने महल-किले

सुंदर गाँव-शहर

और देश-परदेश।

इन सबसे तुम प्रेम करना।

 

पार्क में बहुत सारे

बच्चे खेलते हैं प्यारे

काले या गोरे

किसी के बाल काले होंगे

किसी के भूरे

कोई नमाज़ पढ़ते हैं

कोई करते हैं प्रार्थना

किन्तु,

तुम करना उन सबसे

अपना मन साझा।

क्यूंकि बच्चे

बच्चे होते हैं

मन के सच्चे होते हैं

इन सबसे तुम प्रेम करना।

 

सारी अच्छी प्यारी बाते

पिता तुम्हें बताएँगे

रोज शाम को काम से आकर

नए खिलौने लाएँगे

नए खेल खिलाएँगे

कहानियाँ नई सुनाएँगे।

 

दादा-दादी और नाना-नानी

की आँखों के तारे हो।

सबके दुलारे

सबके प्यारे

कल के चाँद-सितारे हो।

 

अपने कर्म-श्रम से

तुम्हें यहाँ तक लाये हैं।

दूर करेंगे जीवन के

जितने भी अंधकार के साये हैं।

 

कठिन परिश्रम करके तुमको

सारे विश्व  में

अपनी पहचान बनाना है।

नया मुकाम बनाना है।

नया संसार बनाना है।

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

28 जुलाई 2008

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लेखनी सुमित्र की – दोहे ☆ डॉ राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपके अप्रतिम दोहे। )

  ✍  लेखनी सुमित्र की – दोहे  ✍

 

फूल अधर पर खिल गए, लिया तुम्हारा नाम।

मन मीरा – सा हो गया, आंख हुई घनश्याम।।

 

शब्दों के संबंध का ज्ञात किसे इतिहास ।

तृष्णा कैसे  ‘मृग ‘ बनी, दृग कैसे आकाश।।

 

गिर कर उनकी नजर से, हमको आया चेत।

डूब गए मझधार में, अपनी नाव समेत।।

 

हृदय विकल है तो रह, इसमें किसका दोष।

भिखमंगो के वास्ते, क्या राजा का कोष।।

 

देखा है जब जब तुम्हें, दिखा नया ही रूप ।

कभी दहकती चांदनी, कभी महकती धूप।।

 

पैर रखा है द्वार पर, पल्ला थामें पीठ ।

कोलाहल का कोर्स है, मन का विद्यापीठ।।

 

मानव मन यदि खुद सके, मिलें बहुत अवशेष ।

दरस परस छवि भंगिमा, रहती सदा अशेष।।

 

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सामाजिक चेतना – #64 ☆ भगवद्गीता अति रमणम् ☆ सुश्री निशा नंदिनी भारतीय

सुश्री निशा नंदिनी भारतीय 

(सुदूर उत्तर -पूर्व  भारत की प्रख्यात  लेखिका/कवियित्री सुश्री निशा नंदिनी जी  के साप्ताहिक स्तम्भ – सामाजिक चेतना की अगली कड़ी में प्रस्तुत है एक गीत भगवद्गीता अति रमणम्।आप प्रत्येक सोमवार सुश्री  निशा नंदिनी  जी के साहित्य से रूबरू हो सकते हैं।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सामाजिक चेतना  #64 ☆

☆ भगवद्गीता अति रमणम् ☆

 

मंदम् मंदम् अधरम् मंदम्

स्मित पराग सुवासित मंदम्।

सरल सुबोधा ललिता रमणम्

भगवद्गीता अति रमणम्।

 

विरचित व्यासा लिखिता गणेश:

अमृतवाणी अति मधुरम्।

सरल सुबोधा ललिता रमणम्

भगवद्गीता अति रमणम्।

 

मनसा सततम् स्मरणीयम्

वचसा सततम् वदनीयम्

सरल सुबोधा ललिता रमणम्

भगवद्गीता अति रमणम्।

 

अतीव सरला मधुर मंजुला

अमृतवाणी अति मधुरम्

सरल सुबोधा ललिता रमणम्

भगवद्गीता अति रमणम्।

 

विश्व वंदिता भगवद्गीता

नीति रीति भवतु साधकम्।

सरल सुबोधा ललिता रमणम्

भगवद्गीता अति रमणम्।

 

सगुणाकारम् अगुणाकारम्

भक्ति ज्ञान कर्म विज्ञानम्।

सरल सुबोधा ललिता रमणम्

भगवद्गीता अति रमणम्।

 

भजंति एते भजंतु देवम्

करतल फलमिव कुर्वाणम्

सरल सुबोधा ललिता रमणम्

भगवद्गीता अति रमणम्।

 

© निशा नंदिनी भारतीय 

तिनसुकिया, असम

9435533394

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 14 – गुमशुदा कोई …. ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा ,पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित । 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज पस्तुत है आपका अभिनव गीत  “गुमशुदा  कोई ….। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 14 – ।। अभिनव गीत ।।

☆ गुमशुदा  कोई ….☆

जून की

पीली महकती

यह सुबह

 

गंध से भीगे

करोंदों की

उमर पर

तरस खाती

सी हवा लगती

मगर पर

 

उभर आती

है हरी

गीली सतह

 

बाँह पर रखे

हुये सिर

पड़ी कल से

ऊँघती है

स्मृति में जो

अतल -तल सी

 

स्वप्न में

कोई चुनिंदा

सी बजह

 

इधर करवट

लिये धूमिल

है निबौरी

पान की मुँह

में दबाये

सी गिलौरी

 

गुमशुदा कोई

गिलहरी

की तरह

 

© राघवेन्द्र तिवारी

22-06-2020

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

 

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ फेरा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ फेरा 

अथाह अंधेरा

एकाएक प्रदीप्त उजाला

मानो हजारों

लट्टू चस गए हों,

नवजात का आना

रोना-मचलना

थपकियों से बहलना,

शनै:-शनै:

भाषा समझना,

तुतलाना

बातें मनवाना

हठी होते जाना,

उच्चारण में

आती प्रवीणता,

शब्द समझकर

उन्हें जीने की लीनता,

चरैवेति-चरैवेति…,

यात्रा का

चरम आना

आदमी का हठी

होते जाना,

येन-केन प्रकारेण

अपनी बातें मनवाना,

शब्दों पर पकड़

खोते जाना,

प्रवीण रहा जो कभी

अब उसका तुतलाना,

रोना-मचलना

किसी तरह

न बहलना,

वर्तमान भूलना

पर बचपन उगलना,

एकाएक वैसा ही

प्रदीप्त उजाला

मानो हजारों

लट्टू चस गए हों

फिर अथाह अंधेरा..,

जीवन को फेरा

यों ही नहीं

कहा गया मित्रो!

 

©  संजय भारद्वाज 

प्रात: 10:10 बजे, शनिवार, 26.5.18

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ निधि की कलम से # 18 ☆ विचार ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

डॉ निधि जैन जी  भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता  “विचार”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆निधि की कलम से # 18 ☆ 

☆ विचार ☆

विचार से बना पूरा संसार, विचार ही जीवन का आधार।

विचार ही हर पतझड़ में बहार, विचार ही हर यौवन का श्रृंगार।

विचार ही तूफ़ान में मंझधार, विचार ही करते हैं चमत्कार।

विचार से बना पूरा संसार, विचार ही जीवन का आधार।

विचार मिटाते हैं ‌‍अन्धकार।

विचार जलाते हैं, ज्ञान की ज्योति अपारI

 

विचार से बना पूरा संसार, विचार ही जीवन का आधार।

विचार करते हैं इस जीवन सागर से पार।

विचार मिटाते हैं हमारे जीवन में विकार।

विचार हर संगीत का राग मल्हार।

विचार हर मूर्ति का आकार।

विचार देता है, अँगुलीमाल को वाल्मीकि सा संस्कार ।

 

विचार से बना पूरा संसार, विचार ही जीवन का आधार।

विचार दिलाता है हर लड़की को लक्ष्मी बाई का साहस।

विचार कराता है लाल बहादुर से नदियाँ पार।

विचार कराता है गाँधी से बापू तक का सफर।

विचार से बना पूरा संसार, विचार ही जीवन का आधार।

विचार कितने ही इतिहास बदल चुका है।

 

विचार से बना पूरा संसार, विचार ही जीवन का आधार।

विचार कितने ही पहाड़ हिला चुका है।

विचार कितने ही पत्थरों से आग निकाल चुका है।

विचार कितने लोगो को चाँद पर भेज चुका है।

विचार कितनी पीढ़ियाँ बदल चुका है और कितनी बदलेगा।

विचार से बना पूरा संसार, विचार ही जीवन का आधार।

 

©  डॉ निधि जैन, पुणे

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #7 ☆ तर्पण ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं । सेवारत साहित्यकारों के साथ अक्सर यही होता है, मन लिखने का होता है और कार्य का दबाव सर चढ़ कर बोलता है।  सेवानिवृत्ति के बाद ऐसा लगता हैऔर यह होना भी चाहिए । सेवा में रह कर जिन क्षणों का उपयोग  स्वयं एवं अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए उन्हें जी भर कर सेवानिवृत्ति के बाद करना चाहिए। आखिर मैं भी तो वही कर रहा हूँ। आज से हम प्रत्येक सोमवार आपका साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी प्रारम्भ कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है एक समसामयिक रचना  “तर्पण”। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी #7 ☆ 

☆ तर्पण ☆ 

पति-पत्नी ने पितृ मोक्ष अमावस्या के दिन प्रण किया

दोनों ने सामूहिक निर्णय लिया

कि पुरे विधि-विधान से

पूजा करेंगे

पूर्वजों को अन्न खिलाने

के बाद ही

मुंह में अन्न का दाना धरेंगे।

स्वर्गीय माता पिता के

छाया चित्र को माल्यार्पण किया

पंडित से पूजा करवाकर

उसे दान दिया

पंच पकवानो भरी थाली

रखी छत पर जाकर

आसमान से दो काले

कौए बैठे आकर

कौओं ने अन्न के दाने को

नहीं छुआ।

दोनों पति-पत्नी

अन्न ग्रहण करने की

मांगने लगे दुआ ।

लंबे समय के बाद भी स्थिती में

कुछ परिवर्तन ना हुआ।

कौए अड़े हुए थे

उन्होंने अन्न को नहीं छुआ।

पत्नी भूख से व्याकुल होकर बोली-

जीते जी तुम्हारे माता-पिता ने

मुझे चैन से जीने नहीं दिया

अब मरकर भी तड़पा रहे हैं।

सुबह से मैंने पानी तक नहीं पिया

तभी कौए ने मुंह खोला

कांव कांव करते हुए बोला

हम जीते जी

अन्न के दाने दाने को तरसे हैं

मरने बाद हम पर

यह पंच पकवान क्यों बरसे हैं।

दोनों आकाश में उड़ते उड़ते बोले

बेटा, जीते जी हमको कभी

तृप्ति नहीं मिली है

तो अब क्या मिलेगी ?

तुम अब कितना भी प्रपंच करलो

अब तुम्हारे हाथों

हमें कभी मुक्ति नहीं मिलेगी ?

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़)

मो  9425592588

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ फिर चुप्पी ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ फिर चुप्पी

 

कर्कश कोलाहल

जम चुका चुप्पी में,

चुप्पी फूट रही है

कर्णकटुता के साथ,

कोई विज्ञान को बताओ,

केवल पानी और बर्फ ही

‘इंट्रा ट्रांसफॉर्मेशन’ का

उदाहरण नहीं होते!

 

©  संजय भारद्वाज 

रात्रि 10:42 बजे, 3.9.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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