हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ निधि की कलम से # 11 ☆ लम्हों की किताब ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

डॉ निधि जैन जी  भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  आपकी एक भावप्रवण कविता  “लम्हों की किताब ”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆निधि की कलम से # 11 ☆ 

☆ लम्हों की किताब  ☆

 

लम्हों की किताब में यादों को शब्दों में पिरोकर, कुछ बात मैंने कही हैं,

माँ छूटी मायका छूटा कई रिश्ते जुड़े, एक मजबूत रिश्ता तुम्हारा भी है,

शहर बदले रास्ते बदले दोस्त बदले, कई रास्ते बदलने के बाद,

नये साथ के साथ एक साथ तुम्हारा भी था,

लम्हों की किताब में यादों को शब्दों में पिरोकर, कुछ बात मैंने कही हैं।

 

तिनका तिनका जोड़ा बूंद-बूंद को समेटा,

घर के द्वार खिड़की जोड़ी, मेरे कन्धों के साथ एक कन्धा तुम्हारा भी था,

ख्वाब टूटे, फिर टूटे, नए सपने टूटे फिर जुड़े,

रात में घबरा कर जब उठे, तो एक तकिया तुम्हारा भी था,

लम्हों की किताब में यादों को शब्दों में पिरोकर, कुछ बात मैंने कही हैं।

 

मौसम बदले काले बादल आए,

आँसू झरे डर गई, गमों में डूब गई एक आँसू तुम्हारा भी था,

बेटा आया, फूलों सी मुस्कान लाया,

आँखों में नए ख्वाब नई रोशनी आई, उसमे एक मुस्कान तुम्हारी भी थी,

लम्हों की किताब में यादों को शब्दों में पिरोकर, कुछ बात मैंने कही हैं।

 

बात पुरानी हो गई, किताबों के पन्ने मैले हो गए,

काई पतझड़ सावन आ कर चले गए, जीवन ने समय के साथ मौसम बदले,

फिर भी हम साथ चलते-चलते, लम्हों की किताब बन गई,

 

हर लम्हें का एक-एक पन्ना खुलता गया, उम्र कटती जा रही है,

लम्हों की किताब में यादों को शब्दों में पिरोकर, कुछ बात मैंने कही हैं।

 

©  डॉ निधि जैन, पुणे

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 11 ☆ मुक्तिका/हिंदी ग़ज़ल ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी मुक्तिका/हिंदी ग़ज़ल

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 11 ☆ 

☆ मुक्तिका/हिंदी ग़ज़ल☆ 

 

किस सा किस्सा?, कहे कहानी

गल्प- गप्प हँस कर मनमानी

 

कथ्य कथा है जी भर बाँचो

सुन, कह, समझे बुद्धि सयानी

 

बोध करा दे सत्य-असत का

बोध-कथा जो कहती नानी

 

देते पर उपदेश, न करते

आप आचरण पंडित-ज्ञानी

 

लाल बुझक्कड़ बूझ, न बूझें

कभी पहेली, पर ज़िद ठानी

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ पर्यावरण दिवस विशेष – धरती प्यारी मां ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। पर्यावरण दिवस के अवसर पर आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की एक रचना  धरती प्यारी मां।  यह डॉ मुक्ता जी के  पर्यावरण के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण कविता के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ पर्यावरण दिवस विशेष – धरती प्यारी मां

 

धरती हमारी स्वर्ग से सुंदर

नव-निधियों की खान मां

सहनशीलता का पाठ पढ़ाती

मिलजुल कर रहना सिखाती मां

अपरिमित सौंदर्य का सागर

अन्नपूर्णा, हमारी प्यारी मां

जन्मदात्री,सबका बोझ उठाती

पल-पल दुलराती,सहलाती मां

विपत्ति की घड़ी में धैर्य बंधाती

प्यार से सीने से लगाती मां

कैसे बयान करूं उसकी महिमा

शब्दों का मैं अभाव पाती मां

मानव की बढ़ती लिप्सा देख

रात भर वह आंसू बहाती मां

सरेआम शील-हरण के हादसे

उसके अंतर्मन को कचोटते मां

अपहरण, फ़िरौती के किस्से

मर्म को भेदते,आहत करते मां

पाप,अनाचार बढ़ रहा बेतहाशा

विद्रोह करना चाहती घायल मां

मत लो उस के धैर्य की परीक्षा

सृष्टि को हिलाकर रख देगी मां

 

आओ! वृक्ष लगा कर धरा को

स्वच्छ बनाएं,हरित-क्रांति लाएं

प्लास्टिक का हम त्याग करें

स्वदेशी को जीवन में अपनाएं

जल बिन नहीं जीवन संभव

बूंद-बूंद बचाने की मुहिम चलाएं

वायु-प्रदूषण बना सांसों का दुश्मन

नदियों का जल भी विषैला हुआ

प्रकृति का आराधन-पूजन करें

सर्वेभवंतु सुखीनाम् के गीत गाएं

 

पर्यावरण की रक्षा हित हम सब

मानसिक प्रदूषण को भगाएं मां

दुष्प्रवृत्तियां स्वत: मिट जाएंगी

ज़िंदगी को उत्सव-सम मनाएं मां

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

22.4.20….4.30 p.m

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हिन्दी साहित्य – सस्वर बुंदेली गीत ☆ बुंदेली फागें – आचार्य भगवत दुबे ☆ स्वरांकन एवं प्रस्तुति श्री जय प्रकाश पाण्डेय

आचार्य भगवत दुबे

(आज प्रस्तुत है हिंदी साहित्य जगत के पितामह  गुरुवार परम आदरणीय आचार्य भगवत दुबे जी  की  बुंदेली फागें ”। हम आचार्य भगवत दुबे जी के हार्दिक आभारी हैं जिन्होंने अपनी अमृतवाणी के माध्यम से बुंदेली भाषा में  बुंदेली फागें आपसे साझा करने हेतु प्रेषित किया है। इस कार्य के लिए हमें श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी का सहयोग मिला है,  जिन्होंने उनकी बुंदेली फागें अपने  मोबाईल में  स्वरांकित कर हमें प्रेषित किया है।  – हेमन्त बावनकर )    

आप आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विस्तृत आलेख निम्न लिंक पर पढ़ सकते हैं :

हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆ – हेमन्त बावनकर

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि आपके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर तीन पी एच डी ( चौथी पी एच डी पर कार्य चल रहा है) तथा दो एम फिल  किए गए हैं। डॉ राज कुमार तिवारी ‘सुमित्र’ जी के साथ रुस यात्रा के दौरान आपकी अध्यक्षता में एक पुस्तकालय का लोकार्पण एवं आपके कर कमलों द्वारा कई अंतरराष्ट्रीय सम्मान प्रदान किए गए। आपकी पर्यावरण विषय पर कविता ‘कर लो पर्यावरण सुधार’ को तमिलनाडू के शिक्षा पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। प्राथमिक कक्षा की मधुर हिन्दी पाठमाला में प्रकाशित आचार्य जी की कविता में छात्रों को सीखने-समझने के लिए शब्दार्थ दिए गए हैं।

श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के ही शब्दों में  
संस्कारधानी के ख्यातिलब्ध महाकवि आचार्य भगवत दुबे जी अस्सी पार होने के बाद भी सक्रियता के साथ निरन्तर साहित्य सेवा में लगे रहते हैं । अभी तक उनकी पचास से ज्यादा पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। बचपन से ही उनका सानिध्य मिला है।
उन्होंने बुंदेली फागें टेप कर ई-अभिव्यक्ति पत्रिका में प्रकाशित करने हेतु  प्रेषित किया है।
आप परम आदरणीय आचार्य भगवत दुबे जी की बुंदेली फागें उनके चित्र अथवा लिंक पर क्लिक कर उनके ही स्वर में सुन सकते हैं। आपसे अनुरोध है कि आप सुनें एवं अपने मित्रों से अवश्य साझा करें:

आचार्य भगवत दुबे 

शिवार्थ रेसिडेंसी, जसूजा सिटी, पो गढ़ा, जबलपुर ( म प्र) –  482003

मो 9691784464

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 49 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं प्रदत्त शब्दों पर   “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 49 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

होता है आलोक जब,

खिलता पुष्पित पुंज।

कलियों का कलरव बढ़ा,

गूंज उठा है कुंज।

 

करते है हम आचमन,

गंग जमुन का नीर।

ईश अर्चना पूर्ण हो

मन से हटती पीर।

 

आज लोग डरते नहीं,

करने से ही पाप ।

अंतरात्मा दे रही,

उनको ही अभिशाप।।

 

मन की चाबी से भला,

कैसे खोले भेद।

सबके मन में दिख रहे

जाने कितने  छेद।

 

चतुराई की चाल से,

उनसे किया सवाल।

आज आदमी डस रहा,

बनकर जैसे व्याल।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ सैनिक ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी  बेंगलुरु के जैन महाविद्यालय में सह प्राध्यापिका के पद पर कार्यरत हैं एवं  साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में मन्नू भंडारी के कथा साहित्य में मनोवैज्ञानिकता, स्वर्ण मुक्तावली- कविता संग्रह, स्पर्श – कहानी संग्रह, कशिश-कहानी संग्रह विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त आपकी एक लम्बी कविता को इंडियन बुक ऑफ़ रिकार्ड्स 2020 में स्थान दिया गया है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आज ससम्मान  प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता  सैनिक ।  इस बेबाक कविता के लिए डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी की लेखनी को सादर नमन।)  

☆ कविता – सैनिक  ☆ 

निस्वार्थ, निष्कलमश

सेवार्थ तन-मन से

मात्र माँ को बचाना

करने चले साकार सपना

 

न देखा सुख व दर्द

न किसी की भी

व्यथा-कथा ध्येय मात्र

स्वदेश की प्राप्ति

 

कर स्वयं को अर्पित

उठाया शस्त्र

नाश मात्र अरिदल का

आन-बान से लडा वीर

 

युद्धभूमि में न डगमगाये कदम

आँधी न तूफ़ान से डरा वीर

न डरा अरिनाग फूँककार से

चल पडा अंगारों पर

 

दौड़ाये घोड़े रण रंग में’

सुध-बुध खोकर हुआ खूंखार

ललकारते हुए शत्रु को

मात्र कहता रहा

 

तुम्हारी एक मार तो

सह मेरी सहस्त्र मार

तुमने डाली आंख मां की ओर

नहीं तुम बचोगे इंसान

 

अक्षौहिणी का सिपाही

खुली हवा में

लहराते झंडे को देख

मेरा देश, मेरी माँ

 

हिन्दुस्तानी करते  सबसे प्यार,

देश हमारा सबसे न्यारा,

मर मिटेंगे देश की खातिर,

आंखे नोंच लेंगे दुश्मनों की,

 

मर्यादाओं का भान कर,

अभिमान से सर उठाकर,

स्वाभिमान की रक्षा कर,

न किसी को कुचलने देंगे

 

रक्षा करेंगे माँ भारती की,

अंगारों पर चलकर,

कर देंगे अर्पित स्वयं को,

सांसे है धरोहर माँ की,

 

दुश्मनों को दिखायेंगे,

उनकी औकात…

पर्वत से उनको है

टकराना…

 

हम लें चले माँ की सौगात

रास्ता बतलायेंगे उनको,

शेर-सी दहाड सैनिक,

चल पड़ा रणक्षेत्र में

 

कर्ज चुकाने के लिए

त्यागा परिवार को,

छोडा नवेली दुल्हन को,

रणरंग में चला अकेला,

 

सैनिक की एक मात्र पुकार,

दुश्मन को ललकारता,

आज मेरी तलवार या तुम

करेंगे रक्षा माँ भारती की

 

माँ भारती, सोयेंगे तुम्हारे अंचल में

जब तक है साहस भुजबल में

अंचल न छूने देंगे शत्रु को

माँ तुम्हारे ऋणी है हम

 

सिपाही की बुलंद आवाज़

चल पडा निडर होकर

मत कर साहस अरि

मां का आंचल बेदाग करने की

 

बेमतलब की बातें कर,

गुमराह नहीं करते हम,

मां भारती पुकार रही,

सहारा मात्र मांग रही,

 

हे माँ रक्षा करेंगे हम

तुम निश्चिंत होकर सो जाओ,

जाग रहे तुम्हारे बेटे

निज कर्तव्य का पालन करने

 

विवश नहीं हम

विरोचित है हम

कायर नहीं हम

लडेंगे मरने तक

 

आन-बान से रहना है तुझको

जग में न हिम्मत करेगा कोई

तुम्हें छूने से डरेगा हर इन्सान

आज आया चिताह रणभूमि में

 

दुश्मनों को भी भागना पडेगा

ठान लिया है एक सैनिक ने

कटकर मर जायेंगे

रक्षा तुम्हारी करेंगे

 

माथे पर लगाया

लहू का तिलक

भाले को चूमकर,

निकल पडा सैनिक,

 

दुश्मनों के छक्के छुडाने

लड रहा है सैनिक

आखिरी सांस तक

बचाया माँ भारती को

 

आशियाना बर्बाद कर देंगे

नहीं लोगे तुम चैन की साँस

आंचल माँ का थाम

प्यार से धूल को

 

माथे पर लगाकर

अटहरी में मुस्कुराता

चढता बलिवेदी पर

चिर निद्रा में सोता है

 

संपर्क:

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

लेखिका, सहप्राध्यापिका, हिन्दी विभाग, जैन कॉलेज-सीजीएस, वीवी पुरम्‌, वासवी मंदिर रास्ता, बेंगलूरु।

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 40 ☆ जीवन पथ …. ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  श्री संतोष नेमा जी  का  एक भावप्रवण रचना “ जीवन पथ …. ”। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 40 ☆

☆ जीवन पथ .... ☆

 

जीवन के पथ में मिले, तरह तरह के लोग

सीखा हमने भी बहुत, इनसे जग का योग

 

जीवन के हर मोड़ पर, काँटे मिले तमाम

आयेंगी मुश्किल कई, तभी बनेंगे काम

 

अपनी इक्छा शक्ति से, होगा पथ आसान

नहीं मुश्किलों से डरें, चलिए मन में ठान

 

घूम घूम अनजान पथ, उड़ कर चले पतंग

मन भँवरा सा घूमता, जैसे चले मतंग

 

पाता  मंजिल है वही, चलता पथ अविराम

जब हिय में “संतोष’हो, हुए सफल सब काम

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मो 9300101799

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 30 ☆ पावन-सा चंदन ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  एक भावप्रवण कविता  “पावन-सा चंदन.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 30 ☆

☆ पावन-सा चंदन ☆

 

प्रात मुझे सुखमय लगता है

चिड़ियों का वंदन

जीवन नित आशा से भरता

एक नया विश्वास बरसता

पावन-सा चंदन

 

कभी हँसूँ अपने पर मैं तो

कभी हँसूँ दुनिया पर

मुस्काती हैं दिशा-दिशाएँ

नई-नई धुन भरकर

 

प्रेम खोजता खुली हवा में

हर्षित जग-वंदन

 

तमस निशा-सा था यह जीवन

मरुथल-सा तपता मन

सूनापन घट-घट अंतर् का

करता मधु-गुंजन

 

दुख हरता है,सुख भरता है

भोर किरण स्यंदन

 

कितने जन्म लिए हैं मैंने

अब तो याद नहीं कुछ

अनगिन थाती और धरोहर

के संवाद नहीं कुछ

 

पल-छिन माया छोड़ रहा मैं

काट रहा बंधन

 

सन्मति की मैं करूँ प्रार्थना

इनकी-उनकी सबकी

मार्ग चुनूँ मैं सहज-सरल ही

मदद अकिंचन जन की

 

रसना गाती भजन राम के

जय-जय रघुनंदन

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001

उ.प्र .  9456201857

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 50 – बाल कविता – कष्ट हरो मजदूर के ……☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है आपकी एक बाल कविता के रूप में भावप्रवण रचना कष्ट हरो मजदूर के ……। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 50 ☆

☆ बाल कविता – कष्ट हरो मजदूर के …… ☆  

चंदा मामा दूर के

कष्ट हरो मजदूर के

दया करो इन पर भी

रोटी दे दो इनको चूर के।।

 

तेरी चांदनी के साथी

नींद खुले में आ जाती

सुबह विदाई में तेरे

मिलकर गाते परभाती,

ये मजूर ना मांगे तुझसे

लड्डू मोतीचूर के

चंदा मामां दूर के

कष्ट हरो मजदूर के।।

 

पंद्रह दिन तुम काम करो

तो पंद्रह दिन आराम करो

मामा जी इन श्रमिकों पर भी

थोड़ा कुछ तो ध्यान धरो,

भूखे पेट  न लगते अच्छे

सपने कोहिनूर के

चंदा मामा दूर के

कष्टहरो मजदूर के।।

 

सुना, आपके अड्डे हैं

जगह जगह पर गड्ढे हैं

फिर भी शुभ्र चांदनी जैसे

नरम मुलायम गद्दे हैं,

इतनी सुविधाओं में तुम

औ’ फूटे भाग मजूर के

चंदा मामा दूर के

दुक्ख हरो मजदूर के

दया करो इन पर भी

रोटी दे दो इनको चूर के।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 1 – फलसफा जिंदगी का ☆ – श्री प्रह्लाद नारायण माथुर

श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी  अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता फलसफा जिंदगी का

 

Amazon India(paperback and Kindle) Link: >>>  मृग  तृष्णा  

 

☆ फलसफा जिंदगी का ☆

फलसफा जिंदगी का लिखने बैठा था,

कलम स्याही और कुछ खाली पन्ने रखे थे पास में ||

 

सोच रहा था आज फुर्सत में हूँ,

उकेर दूंगा अपनी जिंदगी इन पन्नों में जो रखे थे साथ में ||

 

कलम को स्याही में डुबोया ही था,

एक हवा का झोंका आया पन्ने उड़ने लगे जो रखे थे पास में ||

 

दवात से स्याही बाहर निकल गयी,

लिखे पन्नों पर स्याही बिखर गयी जो रखे थे पास में ||

 

हवा के झोंके ने मुझे झझकोर दिया,

झोंके से पन्ने इधर-उधरउड़ने लगे जो स्याही में रंगे थे ||

 

कागज सम्भालने को उठा ही था,

दूर तक उड़ कर चले गए कुछ पन्ने जो पास में रखे थे ||

 

उड़ते पन्ने कुछ मेरे चेहरे से टकराए,

चेहरे पर कुछ काले धब्बे लग गए लोग मुझ पर हंसने लगे थे ||

 

नजर उठी तो देखा लोग मुझे देख रहे थे,

लोगों ने मेरी जिंदगी स्याही भरे पन्नों में पढ़ ली जो बिखरे पड़े थे ||

© प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002

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