हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 10 ☆ दोहा सलिला ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपके दोहा सलिला

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 10 ☆ 

☆ दोहा सलिला ☆ 

कर अव्यक्त को व्यक्त हम, रचते नव ‘साहित्य’

भगवद-मूल्यों का भजन, बने भाव-आदित्य

.

मन से मन सेतु बन, ‘भाषा’ गहती भाव

कहे कहानी ज़िंदगी, रचकर नये रचाव

.

भाव-सुमन शत गूँथते, पात्र शब्द कर डोर

पाठक पढ़-सुन रो-हँसे, मन में भाव अँजोर

.

किस सा कौन कहाँ-कहाँ, ‘किस्सा’-किस्सागोई

कहती-सुनती पीढ़ियाँ, फसल मूल्य की बोई

.

कहने-सुनने योग्य ही, कहे ‘कहानी’ बात

गुनने लायक कुछ कहीं, कह होती विख्यात

.

कथ्य प्रधान ‘कथा’ कहें, ज्ञानी-पंडित नित्य

किन्तु आचरण में नहीं, दीखते हैं सदकृत्य

 

व्यथा-कथाओं ने किया, निश-दिन ही आगाह

सावधान रहना ‘सलिल’, मत हो लापरवाह

 

‘गल्प’ गप्प मन को रुचे, प्रचुर कल्पना रम्य

मन-रंजन कर सफल हो, मन से मन तक गम्य

 

जब हो देना-पावना, नातों की सौगात

ताने-बाने तब बनें, मानव के ज़ज़्बात

 

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – प्यारी‌ कविता ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज आपके “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है आपकी एक अत्यंत भावप्रवण एवं परिकल्पनाओं से परिपूर्ण रचना  –  प्यारी‌ कविता।  

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य –  प्यारी‌ कविता ☆

 

मृगनयनी ‌से‌ नयनां कजरारे,

तेरी ‌मदभरी आंखों की‌‌ चितवन ।

तेरी ‌पायल की‌ रूनक झुनक,

अब मोह रही है मेरा‌ मन।

तेरे अधरो की‌ हल्की‌ लाली,

चिटकी गुलाब की कलियों ‌सी।

तेरी जुल्फों का‌ रंग देख,

भ्रम‌ होता काली ‌रातों की।

तेरा  मरमरी बदन  छूकर ,

मदमस्त हवा में होती है।

जिन राहों ‌से‌ गुजरती हो तुम,

अब वे राहें महका करती हैं।

तुम जिस महफ़िल‌ से गुजरती हो,

सबको दीवाना करती हों

पर तुम तो प्यारी कविता हो,

बस‌ प्यार‌  मुझी से करती‌ हो ।।1।।

तुम मेरे ‌सपनों की शहजादी,

मेरी‌ कल्पना से ‌सुंदर‌ हो ।

ना तुमको देख‌ सके‌ कोइ,

तुम मेरी स्मृतियों के ‌भीतर हो ।

मैंने तुमको इतना चाहा,

मजनूं फरहाद से  भी बढ़कर।

तुम मेरी जुबां से बोल पड़ी,

मेरे दिल की‌‌ चाहत बन कर।

तुम कल्पना मेरे मन की‌‌ हो ,

एहसास मेरे जीवन की‌ हो।

तुम ‌संगीतों का गीत‌ भी‌ हो ,

तुम‌ मेरे मन का मीत भी हो

तुम मेरी अभिलाषा हो,

मेरी जीवन परिभाषा हो ।

अब‌ मेरा अरमान हो तुम ,

मेरी पूजा और ध्यान हो तुम।

मैं शरीर तुम आत्मा हो ,

मेरे ख्यालों का दर्पण हो।

अब तो मैंने संकल्प लिया,

ये जीवन धन तुमको अर्पण हो

जब कभी भी तुमको याद किया,

तुम पास मेरे आ जाती हो ।

मेरे ‌सूने निराश मन को,

जीवन संगीत सुनाती हो

मैं राहें तकता रहता हूं,

अपने आंखों के ‌झरोखों से ।

तुम हिय में ‌मेरे‌ समाती हो,

शब्दों संग हौले हौले ‌से

जब याद तुम्हारी आती है,

कल्पना लोक में खोता हू

शब्दों  भावों के गहनों से,

मै  तेरा बदन पिरोता  हूं।

तुम जब‌ जब आती हो ख्यालों में,

तब मन में मेरे मचलती हो ।

शब्दों का प्यारा‌ रूप पकड़,

लेखनी से मेरी निकलती हो,

चलो आज  बता दें दुनिया को,

तुम मेरी प्यारी कविता हो मेरी प्यारी कविता हो।।

 

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ चलो ननिहाल  चलें ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी“

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी” जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है। आज प्रस्तुत है श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी  की  एक भावप्रवण कविता  चलो ननिहाल  चलें ।इस अतिसुन्दर रचना के लिए आदरणीया श्रीमती हेमलता जी की लेखनी को नमन। )

☆ चलो ननिहाल  चलें ☆ 

(ननिहाली दोहे)

दुखती रग पर रख दिया,

फिर से तुमने बान!

अब कैसा ननिहाल औ

कैसी रैन विहान!!

 

वो चौपाल चबूतरा

वो इमली अमराई!

अब भी मन भीतर बसी

नदिया की गहराई!!

 

जंगल में वो टिटहरी

टिहु टिहु ढूंढे गोह!

कबसे पुरानी बात हुईं

गुइयां सखी बिछोह!!

 

अब नाना नानी नहीं

ना मामा के  बोल!

रिश्ते राग अनुराग के

तोल मोल संग झोल!!

 

अनचीन्हीं सी अब लगें

वो गलियां वो शाम!

ना आल्हा उदल कहीं

ना अब सीताराम!!

 

अँसुवन धुंधली आंख हुईं

ले ननिहाल की प्यास!

अब इस जनम में ना मिले

अगले जन्म की आस!!

 

बिटिया ना जायी सखी

फिर फिर आए ख्याल!

बेटी जन्म लेती अंगन

मेरा घर ननिहाल!!

 

नातिन के प्रिय बोलों में

मैं हो जाती निहाल

उसकी मधुर अठखेलियाँ

घर बनता ननिहाल!!

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ बाज़ार ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी  बेंगलुरु के जैन महाविद्यालय में सह प्राध्यापिका के पद पर कार्यरत हैं एवं  साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में मन्नू भंडारी के कथा साहित्य में मनोवैज्ञानिकता, स्वर्ण मुक्तावली- कविता संग्रह, स्पर्श – कहानी संग्रह, कशिश-कहानी संग्रह विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त आपकी एक लम्बी कविता को इंडियन बुक ऑफ़ रिकार्ड्स 2020 में स्थान दिया गया है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आज ससम्मान  प्रस्तुत है आपकी एक बेबाक कविता  बाज़ार।  इस बेबाक कविता के लिए डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी की लेखनी को सादर नमन।)  

☆ कविता – बाज़ार ☆ 

 

बिका हर इन्सान

बचा न सका स्वयं को

मर गई आत्मा उसकी

न मुडा पीछे वह

आगे बढने की चाह में

किए अनेक गलत काम

संवेदनहीन हुआ आदमी

बाज़ार के चकाचौंध में

गलियारों में खो गया वह

पूरा विश्व बना बाज़ार

बदले जीवन मूल्य

आत्मीय संबंधों को भी बेचा बेटे ने

आत्मीय संबंधों का भी किया कत्ल

किए झगड़े संपत्ति की खातिर

भाई-भाई के बीच हुई होड़

बहिन को भी न बचाया

किया व्यापार पत्नी का भी

आत्मीय संबंधों की हत्या कर

क्या पाना चाहता था वह?

 

संस्कृति भी बिक गई

सभ्यता के बाज़ार में

अर्थ कमाने की खातिर

किए अनेक कुकर्म

दान, दया औ’ धर्म छोडकर

मात्र मांग रहा अर्थ स्वयं

नहीं चाहिए उसे राशनकार्ड

आज तो मात्र क्रेडिट कार्ड

अपनी पैनी दृष्टि डाली उसने

तो खड़ा विश्व बाज़ार में स्वयं

आगे की राह ताक रहा,

विश्व बाज़ार में देखे

सुनहरे सपने स्त्री ने भी

केश कटवाकर…

छोटे कपडे पहनकर

नग्न नृत्य प्रस्तुत कर

कर रही स्वयं का विज्ञापन

पुरुष के साथ समानता

रहा मात्र उसका ध्येय

न पता चला उसे

यह तो विश्व बाज़ार है

जहाँ वह खड़ी है

नहीं खड़ी रह सकती

वह पुरुष के साथ

मात्र बात करती रह गई

हर जगह प्रताड़ित हुई

शोषित किया गया उसे

कभी विज्ञापन में तो कभी सिनेमा

अत्याचार होते रहे उसके साथ

देखनेवालों को लगा खुश है वह

अंदर ही अंदर टूटती चली गई

न बता पाई खुलकर अपना दर्द

मुस्कुराती रही  हमेशा

समाज में खुले रुप से

नग्न होती चली गई

जब अहसास हुआ तब

वह बन चुकी थी सर्वभोग्या

कुछ गणिका के तो घर होते है

लेकिन इस स्त्री का

कोई ठिकाना नहीं था

कोई देश नहीं था

आज भी विज्ञापनों में

नहीं दिखाये जाते पुरुष  अर्धनग्न

नहीं दिखाये जाते सिनेमा में भी

बेआबरु होती है मात्र स्त्री

लोगों को नज़र आता है

देह उसका सबसे सुंदर,

यह वैश्वीकरण है कहते हुए

महत्वांकांक्षा की आड़ में

बिन आग जल रही स्त्री

नाम की चाहत में हुई बर्बाद स्त्री

खत्म हुआ वजूद उसका

विश्वबाज़ार में खुद भी बिक गई

लिए अनेक स्त्री के उदाहरण

किया स्वयं को सही साबित

सही अर्थों में मध्यमवर्ग

नहीं रहा कहीं का भी

स्त्री की बढती इच्छा

सपनों को साकार करने

निकल पडी स्वयं बाज़ार में

एक ओर बहुराष्ट्रीय कंपनी

तो दूसरी ओर स्त्री स्वयं

देश बढ रहा है या देह व्यापार

अनजान है, अनभिज्ञ है स्त्री

घुट घुट कर मर जायेगी स्त्री।

 

किन्तु,

अब भी हैं

असंख्य स्त्री- पुरुष अपवाद

जो जी रहे हैं निर्विवाद

वसुधैव कुटुम्बकम की मशाल लिए

वैश्विक ग्राम के बाज़ार में।

 

संपर्क:

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

लेखिका, सहप्राध्यापिका, हिन्दी विभाग, जैन कॉलेज-सीजीएस, वीवी पुरम्‌, वासवी मंदिर रास्ता, बेंगलूरु।

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 48 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं प्रदत्त शब्दों पर   “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 48 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

 

दस्यु

कोरोना ने ले लिया, क्रूर दस्यु का रुप।

दहशत पूरे विश्व में, फैली काल- स्व्रूप।

 

भूकंप

उस भीषण भूकंप से, सहमा है गुजरात।

भयाक्रांत है आज भी, जब चलती है बात।।

 

कुटिया

सब कुटिया में बंद हैं, नहीं चैन- आराम।

रोजी-रोटी छिन गई, हर पल-छिन संग्राम।

 

चौपाल

गाँवों की चौपाल का, रहा अनूठा रंग।

हिलमिल गाते झूमते, जन-गण-मन रसरंग।।

 

नवतपा

आग उगलता नवतपा,  लू ने लिया लपेट।

कोरोना को अब यही, देगा मृत्यु-चपेट।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 39 ☆ वापिस अपने घर चले…. ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  श्री संतोष नेमा जी  का  एक भावप्रवण रचना “वापिस अपने घर चले…. ”। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 39 ☆

☆ वापिस अपने घर चले .... ☆

मजदूरों पर दे रहे, नेता रोज बयान

सुनते सुनते पक गए, मजदूरों के कान

 

पाँवों में छाले पड़े, गया हाथ से काम

वापिस अपने घर चले, लेकर दर्द तमाम

 

रोटी छूटी हाथ से, छूटा सकल जहान

भूख गरीबी चीख कर, चल दी देकर जान

 

मजदूरों की आत्मा, करती आज सवाल

किया किसी ने कुछ नहीं, उनके जीवन काल

 

कहते आह गरीब की, छोड़े बहुत प्रभाव

संभव हो तो कीजिये, उनका दूर अभाव

 

खाने के लाले पड़े, जीना हुआ मुहाल

रोजी रोटी भी गई, हुए तंग बदहाल

 

संकट नहीं दरिद्र सा, नहीं दरिद्र सी पीर

आखिर कोई कहाँ तक, मन में रक्खे धीर

 

श्रमजीवी लाचार हैं,  बेबस  हैं मजदूर

उनके हित कुछ कीजिये, साहिब आज जरूर

 

देखे अब जाते नहीं, इनके यह हालात

करना गर कुछ कीजिये, छोड़ हवाई बात

 

ऐसीं  नीति बनाइये, मिले  हाथ को काम

सब के हिय “संतोष”हो, कहीं न हों बे-काम

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मो 9300101799

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ विचारणीय ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆  विचारणीय

मैं हूँ

मेरा चित्र है;

थोड़ी प्रशंसाएँ हैं

परोक्ष, प्रत्यक्ष

भरपूर आलोचनाएँ हैं,

मैं नहीं हूँ

मेरा चित्र है;

सीमित आशंकाएँ

समुचित संभावनाएँ हैं,

मन के भावों में

अंतर कौन पैदा करता है-

मनुष्य का होना या

मनुष्य का चित्र हो जाना…?

प्रश्न विचारणीय

तो है मित्रो!

# दो गज की दूरी, है बहुत ही ज़रूरी।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(शुक्रवार, 11 मई 2018, रात्रि 11:52 बजे)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 
मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 29 ☆ चक्र के दोहे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  “चक्र के दोहे.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 29 ☆

☆ चक्र के दोहे  ☆

 

कोरोना के चक्र में, फँसा सकल संसार।

मानव के दुष्कृत्य से, विपदा अपरंपार।।

 

हर कोई भयभीत है, मान रहा अब हार।

कार कोठियां रह गईं, धन सारा बेकार।

 

चमत्कार विज्ञान के, हुए सभी निर्मूल।

जान बूझकर ये मनुज, करता जाए भूल।।

 

बड़े-बड़े योद्धा डरे, कोरोना को देख।

पर मानव सुधरे नहीं, लिखे प्रलय का लेख।।

 

धन-दौलत की चाह में, करे प्रकृति को क्रुद्ध।

दोहन अतिशय ये करें, करता नियम विरुद्ध।।

 

मुश्किल में अब जान है ,घर में ही सब कैद।

बलशाली भी डर गए,डरे चिकित्सक वैद।।

 

अभी समय है चेत जा, तज दे तू अज्ञान।

काँधा देने के लिए, मिलें नहीं इंसान।।

 

भौतिक सुख सुविधा नहीं, अपने भव की सोच।

फास्टफूड ही कर रहा , लगी सोच में मोच।।

 

शाकाहारी भोज में , मिलता है आनन्द।

चाइनीज भोजन करे, सबकी मति है मन्द।।

 

योग, सैर अपनाइये, तन-मन रहे निरोग।

संस्कृति अपनी ही भली, कहते आए लोग।।

 

श्रम करने से ही सदा , तन का अच्छा हाल।

आलस मोटा कर रहा, बने स्वयं  का काल।।

 

व्यसनों में है आदमी, झूठा चाहे चैन।

मन भी बस में है नहीं, भाग रहा दिन रैन।।

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001

उ.प्र .  9456201857

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य # 49 – फिर नदी निर्मल बहेगी……☆ डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण रचना फिर नदी निर्मल बहेगी……। )

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य  # 49 ☆

☆ फिर नदी निर्मल बहेगी…… ☆  

 

बाढ़ है ये

फिर नदी निर्मल बहेगी

बोझ आखिर क्यों

कहाँ तक ये सहेगी।

 

सिर उठाते ठूंठ,

हलचल है शवों में

अट्टहासी गूंज

प्रकुपित कलरवों में

मुंह छिपाए तट

विलोपित हो गए हैं

त्रस्त है मौसम

विषम इन अनुभवों में,

 

है उजागर

उम्र यूँ ढलती रहेगी।

बाढ़ है ये

फिर नदी निर्मल बहेगी।।

 

जीव जलचर

जो निराश्रित हो रहे हैं

घर, ठिकाने

स्वयं के सब खो रहे हैं

विकल बेसुध,

भोगते कलिमल किसी का

कौन सी भावी फसल

हम बो रहे है,

 

ये असीम करूण कथा

सदियां कहेगी।।

बाढ़ है ये

फिर नदी निर्मल बहेगी।।

 

क्या पता,

संग्रहित कब से जो पड़ा था

राह रोके

सलिल-लहरों के अड़ा था

वह कलुष कल्मष

समेटे बढ़ रही है

संग बरखा के,

इरादा सिर चढ़ा था,

 

लक्ष्य को पाने

सतत चलती रहेगी।

बाढ़ है ये

फिर नदी निर्मल बहेगी।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ चुप्पियाँ – 10 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  ☆  चुप्पियाँ – 10

…….पूर्ण से

पूर्ण चले जाने पर भी

पूर्ण ही शेष रहता है,

चैनलों पर सुनता हूँ

प्रायोजित प्रवचन

चुप हो जाता हूँ..,

सारी चुप्पियाँ

समाप्त होने के बाद भी

बची रहती है चुप्पी,

पूर्णमिदं……

……..पूर्णमेवावशिष्यते!

# दो गज की दूरी, है बहुत ही ज़रूरी।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

(प्रातः 7:49 बजे, 2.9.18)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 
मोबाइल– 9890122603

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