हिन्दी साहित्य – कविता ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – वो नटखट बचपन… ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज प्रस्तुत है श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित  एक भावप्रवण रचना  – वो नटखट बचपन…। इस सन्दर्भ में हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी के हार्दिक आभारी हैं जिन्होंने अपना बहुमूल्य समय देकर  इस कविता को इतने सुन्दर तरीके से सम्पादित किया।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – वो नटखट बचपन… ☆

जब बेटा-बेटी बन,

घर आंगन में आया

मेरे घर खुशियों का

अंनत सागर लहराया

 

तेरा सुंदर सलोना मुख चूम,

दिल खुशियों से भर‌ जाता

संग तेरे हँसी  ठिठोली में ,

दुख दर्द कहीं खो जाता…

 

अपनी गोद तुझे  बैठा मैं,

बीती यादों में खो जाता हूँ

जब-जब तेरी आंखों  में झाँका

तो अपना ही बचपन पाता‌ हूँ…

 

कभी तेरा यूँ छुपकर आना

गुदगुदा, पैरों में लिपटना,

कभी गोद में खिलखिलाना

कभी जोर से निश्छल हंसना

 

कभी तेरा हाथ हिला

यूँ मदमस्त  हो चलना,

कभी दौड़ना, कभी छोड़ना

यूँ खिलौनों के लिए मचलना…

 

ये तेरा नटखटपन,

ये तेरी चंचल शरारतें,

ना जाने क्यूं मुझको

लुभाती तेरी ये हरकतें

 

एक टॉफ़ी  की खातिर

कभी मुझसे लड़ बैठता,

टिकटिक घोड़ा बना मुझे

खुद घुड़सवार बन, मुझे दौड़ाता

 

कभी सताता, कभी मनाता

कभी मार मुझे, भाग जाता,

कभी रिझाता, कभी खिझाता

मेरे सीने पे चढ़, खूब मचलता…

 

कभी बेटा, कभी पोता बन

खूब कहानी सुनता रहता,

तो कभी बाप बन वो  मुझे

ढेरों  डाँट पिलाता  रहता…

 

कभी सर रख सीने पर

कभी गोद में आ छुप कर

बाल क्रीड़ाएँ करता रहता

मनोहारी कन्हैया बन कर…

 

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

मोबा—6387407266

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ विश्व परिवार दिवस विशेष – विश्व परिवार की परिभाषा! ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी“

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी” जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है। आज प्रस्तुत है श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी  की विश्व परिवार दिवस  पर विशेष रचना  विश्व परिवार की परिभाषा!।इस अतिसुन्दर रचना के लिए आदरणीया श्रीमती हेमलता जी की लेखनी को नमन। )

☆ विश्व परिवार दिवस विशेष – विश्व परिवार की परिभाषा! ☆ 

आत्मांश मां के हम

सिर्फ़ संतान नहीं

हम ही उसके – – – जीवन मरण

बिखेरती इंद्रधनुषी रंग

रचती सतरंगी जीवन

 

पिता जीवन के जलते हवन यज्ञ में

महकते चंदन से

विश्वामित्री मन को साधते

समिधा जुटाते

संतान हित – – स्वयं आहुति बन जाते।

 

साड़ी की फटी किनारी से बनी

या दामी डोरी रेशमी

राखी की महिमा अनमोल ही रही

मां की छाया सी बहन का ममत्व

आशीष है साक्षात ईश्वरत्व

 

दुनिया में सबसे ज्यादा

भाई ही सगा

वो प्यार लड़कपन पगा

नेह रंग संग

रक्त संबंध

ज्यों  राम लखन भरत शत्रुघ्न

 

कुटुम्ब की परिभाषा

मां पिता भाई बहन मात्र

की नहीं अभिलाषा

दादा दादी की छांव

बुआ का नेह गांव

चाचा का अनुभाव

सबका साथ जीवन की धुरी

परिवार रहित आस अधूरी।

 

विश्व परिवार दिवस

नहीं सिर्फ एक कहावत

वसुधैव कुटुम्बकम

क्षिति जल पावक गगन समीरा

पृथ्वी पानी अग्नि आकाश हवा

के साथ

परिवार समाज देश विश्व

सभी की शुभाकांक्षा–

इसी में निहित है

विश्व परिवार की परिभाषा!

इन सब की करें सुरक्षा

पूरी हो विश्व परिवार दिवस की परिभाषा।।

 

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ अपराजेय ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

आज  इसी अंक में प्रस्तुत है श्री संजय भरद्वाज जी की कविता  “ सीढ़ियों “ का अंग्रेजी अनुवाद  Stairs…” शीर्षक से ।  हम कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी के ह्रदय से आभारी  हैं  जिन्होंने  इस कविता का अत्यंत सुन्दर भावानुवाद किया है। )

☆ संजय दृष्टि  ☆ अपराजेय

“मैं तुम्हें दिखता हूँ?”

उसने पूछा…,

“नहीं…”

मैंने कहा…,

“फिर तुम

मुझसे लड़ोगे कैसे..?”

“…मेरा हौसला

तुम्हें दिखता है?”

मैंने पूछा…,

“नहीं…”

” फिर तुम

मुझसे बचोगे कैसे..?”

ठोंकता है ताल मनोबल

संकट भागने को

विवश होता है,

शत्रु नहीं

शत्रु का भय

अदृश्य होता है!

कृपया घर में रहें, सुरक्षित रहें।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

प्रात: 11 बजे, 13.5.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 37 ☆ नीलमोहर ☆ सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है  सौ. सुजाता काळे जी  द्वारा  प्रकृति के आँचल में लिखी हुई एक अतिसुन्दर भावप्रवण  कविता  “ नीलमोहर ”। सुश्री सुजाता जी के आगामी साप्ताहिक  स्तम्भ में अमलतास पर अतिसुन्दर रचना साझा करेंगे।  )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 37 ☆

 नीलमोहर

नील गगन से

यह नीलमोहर

जाने क्या क्या

बात करें ।

आसमान को

अपना रंग देकर

फिर आकर

धरती से मिले।

शाखाओं पर

आसमान ही

लेकर अपने

साथ चले।

फिर क्यों धूल में

नीलाभ बनकर

धरती पर आँचल

ओढ़ चले।

 

© सुजाता काळे

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोबाईल 9975577684

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि ☆ सीढ़ियाँ ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

आज  इसी अंक में प्रस्तुत है श्री संजय भरद्वाज जी की कविता  “ सीढ़ियों “ का अंग्रेजी अनुवाद  Stairs…” शीर्षक से ।  हम कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी के ह्रदय से आभारी  हैं  जिन्होंने  इस कविता का अत्यंत सुन्दर भावानुवाद किया है। )

 

☆ संजय दृष्टि  ☆  सीढ़ियाँ

आती-जाती

रहती हैं पीढ़ियाँ

जादुई होती हैं

उम्र की सीढ़ियाँ,

जैसे ही अगली

नज़र आती है

पिछली तपाक से

विलुप्त हो जाती है,

आरोह की सतत

दृश्य संभावना में

अवरोह की अदृश्य

आशंका खो जाती है,

जब फूलने लगे साँस

नीचे अथाह अँधेरा हो

पैर ऊपर उठाने को

बचा न साहस मेरा हो,

चलने-फिरने से भी

देह दूर भागती रहे

पर भूख-प्यास तब भी

बिना लांघा लगाती डेरा हो,

हे आयु के दाता! उससे

पहले प्रयाण करा देना

अगले जन्मों के हिसाब में

बची हुई सीढ़ियाँ चढ़ा देना!

मैं जिया अपनी तरह

मरूँ भी अपनी तरह,

आश्रित कराने से पहले

मुझे विलुप्त करा देना!

कृपया घर में रहें, सुरक्षित रहें।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

प्रातः 8:01 बजे, 21.4.19

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 46 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  “भावना के दोहे। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 46 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆

 

उथल-पुथल है हृदय में,

कर लो तुम संवाद।

जीवन हो तुम राधिके,

गूंजा अनहद नाद।।

 

जीवन में चारों तरफ,

फैला है अँधियार

बिना ज्ञान-दीपक भला,

कौन करे उजियार।।

 

इस अनंत संसार  का,

कोई ओर न छोर

हरि सुमिरन से ही मिले,

मंगलकारी भोर

 

कोरोना के काल में,

बढ़ी पेट की आग।

सुनने वाला कौन है

भूख तृप्ति का राग।।

 

जीवन के नेपथ्य से,

कौन रहा है भाग।

करो आज का सामना,

छोड़ कपट खटराग।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 37 ☆ बुंदेली गीत – बड़ो कठिन है बुजर्गों को समझावो …. ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  श्री संतोष नेमा जी  का  “बुंदेली गीत – बड़ो कठिन है बुजर्गों को समझावो …. ”। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर सकते हैं।) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 37 ☆

☆ बुंदेली गीत – बड़ो कठिन है बुजर्गों को समझावो .... ☆

 

कोरोना खों समझ ने पा रए का हुई है

परे परे कछु भव बतिया रए का हुई है

 

सरकार कहत रखो दो गज दूरी

गइया से जबरन रंभा रए का हुई है

 

निकर निकर खें घर सें बाहर झाँखे

हाथ धोउन में शरमा रए का हुई है

 

बऊ खुदई लगीं दद्दा खों समझावें

दद्दा बऊ को आँख दिखा रए का हुई है

 

हमने कही सोशल डिस्टेंस बनाओ

सुनतई सें हम खों गरया रए का हुई है

 

बतियाबे खों अब कौनउ नइयाँ

पूछत हैं सब कहाँ हिरा गए का हुई है

 

बड़ो कठिन है बुजर्गों को समझावो

सांची हम”संतोष” बता रए का हुई है

 

जीवन में गर चाहिए, सुख समृद्धि “संतोष”

माटी से नाता रखें,  माटी जीवन कोष

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मो 9300101799

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ रिटायरमेंट के बाद ☆ श्री श्याम खापर्डे

श्री श्याम खापर्डे 

(श्री श्याम खापर्डे जी का  ई- अभिव्यक्ति  में हार्दिक स्वागत है। आप भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं । सेवारत साहित्यकारों के साथ अक्सर यही होता है, मन लिखने का होता है और कार्य का दबाव सर चढ़ कर बोलता है।  सेवानिवृत्ति के बाद ऐसा लगता हैऔर यह होना भी चाहिए । सेवा में रह कर जिन क्षणों का उपयोग  स्वयं एवं अपने परिवार के लिए नहीं कर पाए उन्हें जी भर कर सेवानिवृत्ति के बाद करना चाहिए। आखिर मैं भी तो वही कर रहा हूँ। फिर शुरुआत भी तो ऐसी ही कविता से होनी चाहिए, जैसे  “रिटायरमेंट के बाद ”।  हम श्री खापर्डे जी की  चुनिंदा कवितायेँ  समय-समय पर आपसे साझा करते रहेंगे। ) 

☆ रिटायरमेंट के बाद  ☆

मैं आजाद हो गया हूं,

यह सोचकर बहुत खुश होता हूं

 

ना सुबह उठने की झंझट

ना पत्नी की खट-खट

ना खाने की लटपट

खूब लंबी तान कर सोता हूं

मै आजाद हो गया हूं

यह सोचकर बहुत खुश होता हूं

 

ना तो ट्रेन पकड़ने की भागमभाग

ना वो ट्रेनमे भीड़ के बीच सुलगती आग

ना वो नयी ड्रेस पर लगते तंबाकू और पान के दाग़

अब उस कड़वाहट को मुस्कराहट से धोता हूं

मै आजाद हो गया हूं

यह सोचकर खुश होता हूं

 

आफिस में टेलीफोन, मोबाइल की बजती घंटियां

टेबल पर छुट्टी की अर्जियां

स्टाफ की मनमौजी मनमर्जिंयां

अब इस टेंशन को चाय की चुस्कियों में उड़ाता हूं

मैं आजाद हो गया हूं

यह सोचकर बहुत खुश होता हूं

 

वो मोबाइल पर बास का नंबर देखकर थरथराहट

वो बात-बात पर बास की डांट से घबराहट

वो ट्रांसफ़र की धमकी भरी गुर्राहट

आज बेखौफ होकर बास को ससम्मान भिगोता हूं

मैं आजाद हो गया हूं

यह सोचकर बहुत खुश होता हूं

 

अब ना किसी से शिकायत

ना उनको तकरार है

एक हाथ में चाय

दूसरे में अखबार हैं

पास बैठी पत्नी की आंखों में

बेशुमार प्यार है

अब हर नई सुबह

नयी सोच को संजोता हूं

मैं आजाद हो गया हूं

यह सोचकर बहुत खुश होता हूं।

 

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़)

मो  9425592588

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हिन्दी साहित्य – कविता / गीत ☆ अभिनव गीत ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी का ई-अभिव्यक्ति में स्वागत है। पत्रकारिता, जनसंचार, दूर शिक्षा एवं मानवाधिकार में शिक्षित एवं दीक्षित यह रचनाकार 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक “अभिनव गीत”।)

 || अभिनवगीत ||

विरहाकुल कनखियाँ

ढूँड रहीं अपनापन और में

कुंतल के कानन से,

दिखतीं कुमकुम रेखें

पहली ही गौर में

 

दहक रहे होंठों के

किंचित नम हैं पलाश

काली इन भौहों में

गुम सा गया प्रकाश

 

कमतर कुछ भी नहीं

चेहरे के मानचित्र

कोयल छिप जाती ज्यों

आमों के बौर में

 

बदली भरे जल को

उमड़ती घुमड़ती सी

साँसों में अटकी है

आह एक उड़ती सी

 

बहती है नर्मदा

सतपुड़ा की बाहों से

कुंठित सारे मुमुक्षु

सूखे के दौर में

 

आधी है ओट और

आधे में है पहाड़

फूले वैसाख- जेठ

रोके जबरन अषाढ़

 

वाट में पपीहे की

सूख रही टिटहरी

जैसे छोटी बहू

नई -नई पौर में

 

© राघवेन्द्र तिवारी

08-05-2020

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-112, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 27 ☆ देश के मजदूरों के नाम दोहे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  आपकी एक समसामयिक रचना  “देश के मजदूरों के नाम दोहे.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 27 ☆

☆ देश के मजदूरों के नाम दोहे ☆

 

कोरोना ने कर दिया, श्रमिकों को बेहाल।

शहर छोड़कर चल दिए, लिए हाथ में काल।।1

 

पाँव थके हैं,तन थका, पग में हो गए घाव।

पत्नी, बच्चे साथ में, देखे मौत पड़ाव।।2

 

नियति नटी के खेल से, हुए मार्ग सब बन्द।

कहीं मिले जयचंद हैं, कहीं प्रेम के छन्द।।3

 

रेल मार्ग से जो चले, करते पत्थर हास्य।

मानव का दुर्भाग्य है, लिखे स्वयं ही भाष्य।।4

 

भूख-प्यास से तन थका, सिर पर गठरी बोझ।

पटरी पर जब सो गए, मृत्यु कर रही भोज।।5

 

कभी गाँव, कभी शहर में, यही श्रमिक का चक्र।

जिस घर में हूँ मैं सुखी, करता उन पर फक्र।।6

 

कोई जाए ट्रेन में, कोई पग-पग डोर।

घर की राह न दीखती, रोज थकाए भोर।।7

 

साइकिल लेकर कुछ चले , कोई रिक्शा ठेल।

मौसम के दुख झेलकर, बना स्वयं ही मेल।।8

 

कोरोना सबसे लड़ा, करे मौत से संग।

बिन देखा भारी पड़ा, हुआ सबल भी दंग।।9

 

ईश्वर करना तुम कृपा, सकुशल पहुँचें  गाँव।

खुली हवा में श्वास लें, मिले गाँव की छाँव।।10

 

देश चुनौती ले रहा, बढ़ी समस्या रोज।

समाधान है खोजता, मिले सभी को भोज।।11

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001

उ.प्र .  9456201857

[email protected]

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