हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – आभा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – आभा  ☆

 

दैदीप्यमान रहा

मुखपृष्ठ पर कभी,

फिर भीतरी पृष्ठों पर

उद्घाटित हुआ,

मलपृष्ठ पर

प्रभासित है इन दिनों..,

इति में आदि की छाया

प्रतिबिम्बित होती है,

उद्भव और अवसान की

अपनी आभा होती है!

 

# घर में रहें, स्वस्थ रहें, सुरक्षित रहें।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

प्रात: 11:07 बजे, 25.4.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ World on the edge / विश्व किनारे पर # 5 ☆ हर तरफ मौत का सामान ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

ई- अभिव्यक्ति में डॉ निधि जैन जी का हार्दिक स्वागत है। आप भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपने हमारे आग्रह पर हिंदी / अंग्रेजी भाषा में  साप्ताहिक स्तम्भ – World on the edge / विश्व किनारे पर  प्रारम्भ करना स्वीकार किया इसके लिए हार्दिक आभार।  स्तम्भ का शीर्षक संभवतः  World on the edge सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद एवं लेखक लेस्टर आर ब्राउन की पुस्तक से प्रेरित है। आज विश्व कई मायनों में किनारे पर है, जैसे पर्यावरण, मानवता, प्राकृतिक/ मानवीय त्रासदी आदि। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है  जीवन के स्वर्णिम कॉलेज में गुजरे लम्हों पर आधारित एक  समसामयिक भावपूर्ण एवं सार्थक कविता  हर तरफ मौत का सामान।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ World on the edge / विश्व किनारे पर # 5 ☆

☆  हर तरफ मौत का सामान ☆

 

रास्ते गलियां सुनसान हैं, घर में कैद इंसान है

संभल के जियो, हर तरफ मौत का सामान है ।

 

दुनिया बंद, इंसान परेशान है,

संभल के जियो,हर तरफ मौत का सामान है ।

 

कैसा समय है  इंसान कैद, पंछी उड़ते गगन में खुला आसमान है,

संभल के जियो, हर तरफ मौत का सामान है।

 

सब बेहाल परेशान हैं, ना किसी से मिलना ना किसी के घर जाना,

डरा हुआ सा इंसान है, हर तरफ मौत का सामान है।

 

ना बरखा की बूंदे अच्छी लगती, ना कोयल की कूके,

बदलते मौसम से परेशान, हर तरफ मौत का सामान ।

 

मंदिर के दरवाजे बंद, न घंटियों की झंकार,

ना अगरबत्ती की खुशबू  फलती, हर तरफ मौत का सामान ।

 

ना चाकू, ना पिस्तौल है, ना रन है

जीव जंतु औजार हैं, करते बेहाल हैं, हर तरफ मौत का सामान।

 

©  डॉ निधि जैन, पुणे

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ लॉकडाउन विशेष – खुली खिड़की से ☆ श्री दिवयांशु शेखर

श्री दिव्यांशु शेखर 

(युवा साहित्यकार श्री दिव्यांशु शेखर जी ने बिहार के सुपौल में अपनी प्रारम्भिक शिक्षा पूर्ण की।  आप  मैकेनिकल इंजीनियरिंग में स्नातक हैं। जब आप ग्यारहवीं कक्षा में थे, तब से  ही आपने साहित्य सृजन प्रारम्भ कर दिया था। आपका प्रथम काव्य संग्रह “जिंदगी – एक चलचित्र” मई 2017 में प्रकाशित हुआ एवं प्रथम अङ्ग्रेज़ी उपन्यास  “Too Close – Too Far” दिसंबर 2018 में प्रकाशित हुआ। ये पुस्तकें सभी प्रमुख ई-कॉमर्स वेबसाइटों पर उपलब्ध हैं। आज प्रस्तुत है  आपकी एक समसामयिक सार्थक कविता  “लॉकडाउन विशेष – खुली खिड़की से  )

☆ लॉकडाउन विशेष – खुली खिड़की से 

 

मैं देखता हूँ जब आज खुली खिड़की से,

कई नज़ारे अब बंद दिखते हैं,

बेबाक कदमें अब चंद दिखते हैं,

सड़कों पे फैला हुआ लबों के हँसी की मायूसी,

बीते कल के शोर की एक अजीब सी ख़ामोशी।

 

मैं सुनता हूँ जब आज खुली खिड़की से,

ना होती वाहनों के शोर की वो घबराहट,

ना पाता किसी अपने ख़ास के कदमों की आहट,

रँगीन गली में अब पदचिन्हों की दुःखभरी कथा,

किनारे खड़े खंभे से आती प्रकाश की अपनी व्यथा।

 

मैं बोलता हूँ जब आज खुली खिड़की से,

कई चीजों के मायनें कैसे बदल रहे,

तो कई रिश्ते बंद कमरों में कैसे मचल रहे,

कोई खुद के प्यार में पड़ वर्तमान में कैसे खो रहा,

तो आज भी भविष्य तो कोई बीते कल की मूर्खता में रो रहा।

 

मैं सोचता हूँ जब आज खुली खिड़की से,

क्या होगा जब वापस सब पहले जैसा शुरू होगा,

कैसा लगेगा जब दिल आजादी से पुनः रूबरू होगा,

सूरज की चमक से तन कैसे पसीने से भींगेगा,

हवा के थपेड़ों से मन कैसे दीवानों की तरह झूमेगा।

 

मैं लिखता हूँ जब आज खुली खिड़की से,

कई लोग कल दोबारा हाथों को कसकर थामे कैसे खुशी से गायेंगे,

तो कैसे मतलब के कुछ रिश्ते आँखों में आँसू छोड़ जायेंगे,

जब खिड़कियों के जगह दरवाजें खुलेंगे तो वो कितना सच्चा होगा,

जब वापस कई बिछड़े दिल मिलेंगे तो वाकई कितना अच्छा होगा।

 

©  दिव्यांशु  शेखर

कोलकाता

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – प्रतीक्षा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – प्रतीक्षा ☆

 

अंजुरि में भरकर बूँदें

उछाल दी अंबर की ओर,

बूँदें जानती थीं

अस्तित्व का छोर,

लौट पड़ी नदी

की ओर..,

मुट्ठी में धरकर दाने

उछाल दिए आकाश की ओर,

दाने जानते थे

उगने का ठौर

लौट पड़े धरती की ओर..,

पद, धन, प्रशंसा, बाहुबल के

पंख लगाकर

उड़ा दिया मनुष्य को

ऊँचाई की ओर..,

……….,………..,

….तुम कब लौटोगे मनुज..?

# घर में रहें, स्वस्थ रहें।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

श्रीविजयादशमी 2019, अपराह्न 4.27 बजे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 31 – हाँ! मैं टेढ़ी हूँ ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  स्त्री -शक्ति पर आधारित एक सार्थक एवं भावपूर्ण रचना  ‘हाँ! मैं टेढ़ी हूँ । आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़  सकते हैं । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 31– विशाखा की नज़र से

☆ हाँ ! मैं टेढ़ी हूँ  ☆

 

तुम सूर्य रहे, पुरुष रहे

जलते और जलाते रहे

मैं स्त्री रही, जुगत लगाती रही

मैं पृथ्वी हो रही

अपने को बचाने के जतन में

मैं ज़रा सी टेढ़ी हो गई

 

मैं दिखती रही भ्रमण करते हुए

तेरे वर्चस्व के इर्दगिर्द

बरस भर में लगा फेरा

अपना समर्पण भी सिद्ध करती रही

पर स्त्री रही तो मनमानी में

घूमती भी रही अपनी धुरी पर

 

टेढ़ी रही तो फ़ायदे में रही

देखे मैंने कई मौसम

इकलौती रही पनपा मुझमें ही जीवन

तेरे वितान के बाकी ग्रह

हुए क्षुब्ध , वक्र दृष्टि डाले रहे

पर उनकी बातों को धत्ता बता

मैं टेढ़ी रही ! रही आई वक्र !

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 34 ☆ सुन ऐ जिंदगी! ☆ सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है  सौ. सुजाता काळे जी  द्वारा  प्रकृति के आँचल में लिखी हुई एक अतिसुन्दर भावप्रवण  कविता  “ सुन ऐ जिंदगी! ”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 34 ☆

 ☆ सुन ऐ जिंदगी! ☆

सुन ऐ जिंदगी!

तुम चाहती थी ना

कि मैं डूब जाऊँ

यह लो आज मैं

समंदर की गहराई में हूँ ।

 

तुम चाहती थी ना

कि मैं छुप जाऊँ

यह लो आज मैं

समंदर की भँवर में हूँ ।

 

तुम चाहती थी ना

कि मैं बिखर जाऊँ

यह लो आज मैं

रेगिस्तान में बिखर गई हूँ ।

 

तुम चाहती थी ना

कि मैं बिसर जाऊँ

यह लो आज दुनिया ने

मुझे बिसरा दिया है ।

 

सुन ऐ जिंदगी!

अब तो तुम खुश हो ना??

 

© सुजाता काळे

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोबाईल 9975577684

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – परिचय ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – परिचय ☆

अपना

विस्तृत परिचय भेजो,

उन्होंने कहा..,

मैंने लिख भेजा

केवल एक शब्द-

कविता…,

सुना है

‘डिस्क ओवरलोडेड’ कहकर

सिस्टम हैंग हो गया है।

 

# घर में रहें, सुरक्षित रहें।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

20.9.2018,  प्रात: 11.19 बजे

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 43 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है  “भावना के दोहे ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 43 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे 

 

हमने तो अब कर लिया, जीवन का अनुवाद।

पृष्ठ – पृष्ठ पर लिख दिया, दुख,पीड़ा, अवसाद।।

 

तेरा-मेरा हो गया, जन्मों का अनुबंध।

मिटा नहीं सकता कभी, कोई यह संबंध।।

 

रात चाँदनी कर रही, अपने प्रिय से बात।

अंधियारी रातें सदा, करतीं बज्राघात।।

 

दर्शन बिन व्याकुल नयन, खोलो चितवन-द्वार।

बाट पिया की देखती, विरहिन बारंबार।।

 

रात चाँद को देखकर, होता मगन चकोर।

नैन निहारे रात भर, निर्निमेष चितचोर।।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष # 34 ☆ कोरोना वायरस !! ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  श्री संतोष नेमा जी  की एक समसामयिक भावप्रवण कविता  “कोरोना वायरस !!”। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार  आत्मसात कर  सकते हैं . ) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 34 ☆

☆ कोरोना वायरस !! ☆

वो सब को

एक नजर से

देखता है..!

जाति-पांति

धर्म को नहीं

लेखता है.!!

 

उसकी नजर में

सब एक समान हैं.!

सब का ही करता

वो सम्मान है.!!

 

उसके शरण में

जो भी आता है.!!

वो भव सागर से

मुक्ति पा जाता है.!!

 

वो मान-अपमान

सुख-दुख,

लाभ-हानि से परे है.!

उसकी झोली में

बड़े-बड़े नत मस्तक

हाथ जोड़ खड़े हैं.!!

 

वो रिश्ते-नाते

दोस्ती-यारी

सभी पर भारी है.!

उसकी छवि

इस दुनिया से

बिल्कुल न्यारी है.!!

 

बड़ी बड़ी

शक्तियाँ

उसके आगे

महज एक

खिलौना हैं.!

 

उसकी

मर्जी से ही

यहाँ सब कुछ

होना है.!!

 

वो सर्व व्यापी

काल दृष्टा है.!

उससे पंगा

समझो

भिनिष्टा है..!!

 

वो मन्दिर, मस्ज़िद

चर्चों और गुरुद्वारों में.!

वो शहर शहर

हर देश,गाँव

गलियारों में.!!

 

उसकी महिमा

बड़ी निराली है.!

वो आम नही

बड़ा बलशाली है.!!

 

यह सुनते ही

सामने खड़ा

दोस्त बोला.!

सीधा क्यों नहीं

कहता ये

भगवन हैं भोला..!!

 

हमने ज्यूँ सुनी

दोस्त की वाणी.!

झट अपनी

भृकुटि तानी.!!

 

और कहा सुन.!

अपना माथा धुन.!!

ये भगवन नहीं

कोरोना वायरस है

ज्यूँ  होता लोहा सोना

छूता जब पारस है..!!

 

यूँ ही जब कोई

संक्रमित को

छूता है.!

फिर वो भी

बन जाता

अछूता है.!!

 

ये बड़ी वैश्विक

बीमारी है.!!

जिसने

सारी दुनिया की

हालत बिगाड़ी है..!!

 

इसलिए दोस्त

जरा दूर से बात

करना.!

और “संतोष” को

हाथ जोड़

नमस्कार करना..!!

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मो 9300101799

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ अंतरराष्ट्रीय पुस्तक दिवस विशेष  – काव्य धारा ☆ श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

( आज प्रस्तुत है श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित  अंतरराष्ट्रीय पुस्तक दिवस के अवसर पर  उनकी विशेष रचना  “ काव्यधारा ”। ) 

 

आत्म परिचय 

चित्रकार नहीं फनकार है हम, शब्दों से चित्र बनाते हैं।

रंग, तूलिका को छुआ नहीं,  कलमों से कला दिखाते हैं।

रचना में शब्द हैं रंग भरते, इस कला को नित आजमाते हैं

अपना परिचय क्या दूं सबको,  कुछ भी कहते शरमाते हैं।

पढ़ना लिखना  है शौक मेरा, हम आत्मानंद कहाते हैं।

 

☆ अंतरराष्ट्रीय पुस्तक दिवस विशेष  – काव्य धारा ☆

 

कल्पना के लोक से, शब्द का  लेकर सहारा।

रसासिक्त होकर भाव से, बन प्रकट हो काव्यधारा।

 

गुदगुदाती हो हृदय को, या कभी दिल चीर जाती।

या कभी बन वेदनायें अश्क आंखों से है बहाती।

 

कविता ग़ज़ल या गीत बन, नित नये नगमे सुनाती।

लेखनी से तुम निकल कर, पुस्तकों में आ समाती।

 

नित नयी महफ़िल सजाती,  श्रोताओं के मन लुभाती।

काव्यधारा काव्यधारा,  अनवरत तुम बहती जाती।

 

देख कर तेरी रवानी,  कितने ही दिवाने हो गये।

बांह में तेरी लिपट, ना जाने कितने सो गये।

 

काव्यधारा याद  तेरी, कुछ को महीनों तक रही।

चाह में तुमसे मिलन की, आस दिल में पल रही।

 

इक आस का नन्हा दिया, इस दिल में अब तक जल रहा।

खुद डूबने की चाह ले कर, तेरे ही किनारे पर चल रहा।।

 

-सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

सर्वाधिकार सुरक्षित

22-4-2020

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208 मोबा—6387407266

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