हिन्दी साहित्य – कविता ☆ नाखून…  ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ ☆

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

(डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी  बेंगलुरु के नोबल कॉलेज में प्राध्यापिका के पद पर कार्यरत हैं एवं  साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में मन्नू भंडारी के कथा साहित्य में मनोवैज्ञानिकता, दो कविता संग्रह, पाँच कहानी संग्रह,  एक उपन्यास (फिर एक नयी सुबह) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त आपकी एक लम्बी कविता को इंडियन बुक ऑफ़ रिकार्ड्स 2020 में स्थान दिया गया है। आपका उपन्यास “औरत तेरी यही कहानी” शीघ्र प्रकाश्य। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता नाखून… ।)  

☆ कविता ☆ नाखून… ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ ☆

नुकीले नाखूनों की कथा निराली,

अपनाया नाखून को अपनी खातिर,

स्वार्थी बना इन्सान…

ईश्वर ने इसे बनाया जीवों की पहचान,

यह बना मतलबी दुनिया का हिस्सा,

कभी राजनीति तो कभी सामाजिक चेतना,

दर असल नाखून तो करता,

समाज की प्रगति का इशारा,

यह तो प्रतीक है सूरज-चांद के पथ का,

कभी तो ज्योतिष शास्त्र को करता इंगित,

अनेक गुणों से भरा पड़ा है,

करता इशारा स्वास्थ्य का,

युगबोध कराता है यह,

निश्चेतना में चेतना जगाने का प्रयास,

चेतन जगत का मात्र आभास,

जीव को निर्जीव से अलग करता यह,

हर जीव की पहचान है नाखून,

प्राचीन में दाँत से पहले…

नाखून से काटने की प्रथा चली,

आज व्यक्ति हुआ ’स्व’ से मोहित,

किया लोहे का इस्तेमाल नाखून की जगह,

मात्र रह गया बनकर सौंदर्य का सामान,

काटकर कभी बनाया सौंदर्य का हिस्सा,

कभी बना खंजर तो कभी शमशीर,

भूगोल की दुनिया से परे…

इन्सान ने इसे आजमाया,

जब चाहा किया इसका प्रयोग,

जब नहीं चाहा किया तिरस्कार,

यह तो है चैतन्य मन का शृंगार,

हे मानव! दुरूपयोग इसका मत कर,

सही अर्थों में यह पहचान है चेतन जगत की,

इस पर मत कर अत्याचार,

दर्द होता इसे भी …

मत हावी होने देना अचेतन जगत पर कभी,

ज़रुरत पर काम आयेगा,

यह विज्ञान है परवरदीगार का!

शून्य की खोज की आर्यभट्ट ने,

तो खुदा ने बनाया नाखून।

© डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

संपर्क: प्राध्यापिका, लेखिका व कवयित्री, हिन्दी विभाग, नोबल कॉलेज, जेपी नगर, बेंगलूरू।

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 214 ☆ बाल गीत – मौसम करता अपनी बात ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 214 ☆

बाल गीत – मौसम करता अपनी बात ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

बिजली कड़की , बादल गरजे

होती बेमौसम बरसात।

तेज हवाएँ शीतल – शीतल

मौसम करता अपनी बात।।

गुजर रहा बैसाख महीना

लू की होती अब छूट्टी

वायु प्रदूषण भू में सोया

धूल हो गई अब मिट्टी।।

 *

खूब नहाए पेड़ और पौधे

चुपके – चुपके पूरी रात।।

 *

एसी –  कूलर बंद हो गए

पंखा फर – फर हैं चलते

मच्छरदानी लगा पलंग पर

सैर सपन में सब करते।।

 *

कहीं – कहीं ओलों से आफत

बाग – बगीचों पर आघात।।

 *

नीम निबोली , तुलसी चमकीं

चढ़ी बेल तोरई लौकी

उपवन में पंछी हैं चहके

वर्षा ने लूएं रोकीं।।

 *

हर्बल चाय सुहाई सबको

देती है सेहत का साथ।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #240 – कविता – ☆ बाहर वे गा रहे, ज्ञानेश्वरी अभंग…… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता बाहर वे गा रहे, ज्ञानेश्वरी अभंग…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #240 ☆

☆ बाहर वे गा रहे, ज्ञानेश्वरी अभंग… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

जीवन को जीने के

सुख-दुख को पीने के

सब के होते अपने अलग-अलग ढंग

जिये कोई बाहर, तो कोई अंतरंग।

 

नंगे भूखे रहकर भी कोई गा लेते

खुशियों को पा लेते

ऐशो-आराम जिन्हें

नहीं कोई काम जिन्हें

फिर भी बेचैन रहे

क्षण भर न चैन रहे

धेला-आना, पाई

रेत में खोजे रांई

जीवन पर्यंत लड़े, जीवन की जंग

जिए कोई बाहर, तो कोई अंतरंग।

 

ए.सी.कारों में बीमारों से, कर रहे भ्रमण

चालक इनके सरवण

बंद कांच सारे हैं

शंकित बेचारे हैं

ठाठ-बाट भारी है

फिर भी लाचारी है

है फरेब की फसलें

बिगड़ रही है नस्लें

बाहर वे गा रहे, ज्ञानेश्वरी अभंग

जिए कोई बाहर तो कोई अंतरंग।

 

भुनसारे उठकर जो, देर रात सोते हैं

सपनों को ढोते हैं

खुशमिजाज वे भी हैं

खाने को जो भी है

खा लेते चाव से

सहज हैं स्वभाव से

ज्यादा का लोभ नहीं

खोने का क्षोभ नहीं

चेहरों पर मस्ती का दिखे अलग रंग

जिये कोई बाहर तो कोई अंतरंग।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 64 ☆ भोर का संदेश… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “भोर का संदेश…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 64 ☆ भोर का संदेश… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

एक जलती अँगीठी सा

सूर्य धरकर भेष

ले खड़ा पूरब दिशा में

भोर का संदेश ।

*

कुनकुनी सी धूप

पत्ते पेड़ के उजले

जागकर पंछी

दाना खोजने निकले

*

नदी धोकर मुँह खड़ी

तट पर बिखेरे केश।

*

पर्वतों के बीच

घाटी धुंध में लिपटी

रात चुपके से

कोने में जा सिमटी

*

सितारे लौटे घरों को

चाँद अपने देश।

*

मंदिरों की ध्वजा

फूँके शंख पुरवाई

पाँखुरी पर फूल की

इक बूँद अलसाई

*

लिख रही दिन के लिए

है नियति के आदेश ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 68 ☆ लोग नेक कहते हैं… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “लोग नेक कहते हैं…“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 68 ☆

✍ लोग नेक कहते हैं… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

ढंग जब नहीं तुमको,मयकदे में आने का

कुर्बतों के क्या मानी, लुत्फ क्या पिलाने का

 *

ज़ोम दिल में है मेरे,आशियाँ बनाने का

शौक़ वो करें पूरा,बिजलियाँ गिराने का

 *

मयकदे मैं आने की, दोस्त है ये मजबूरी

रस्ता एक मिलता है, उनको भूल जाने का

 *

लोग नेक कहते हैं सब दुआएं देते हैं

काम नेक होता है, बिछड़े दिल मिलने का

 *

देखिए कहाँ तक हम कामयाब होते हैं

हौसला तो है दिल में, कुछ तो कर दिखाने का

 *

बनके एक दीवाना, उनकी राह में पहुँचा

रास्ता न जब पाया,उनके पास आने का

 *

माँ के पैर छूते हैं उठ के हम अरुण हर दिन

रास्ता सुरल है ये, स्वर्ग को कमाने का

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 65 – हैं बाण विषबुझे सब, उनकी जुबान के… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – हैं बाण विषबुझे सब, उनकी जुबान के।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 65 – हैं बाण विषबुझे सब, उनकी जुबान के… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

कमरे खुशी से खाली दिल के मकान के

आने से भर गये हैं इक मेहमान के

*

बाँकी वो उनकी चितवन, कितनों की जान लेगी 

पैने हैं तीर, उनकी भ्रू की कमान के

*

जिनने सबक सिखाया, इन्सानियत का हमको 

बदले हैं अर्थ हमने, गीता-कुरान के

*

नफरत, घृणा, अदावत, आतंकवाद जैसे 

सामान मजहबी हैं, उनकी दुकान के

*

लाशों के ढेर जिनकी आवाज पर लगे हैं 

हैं बाण विषबुझे सब, उनकी जुबान के

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 138 – बूढ़ी आजी माँ और मैं☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “बूढ़ी आजी माँ और मैं। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 138 – बूढ़ी आजी माँ और मैं ☆

मैं

टकटकी लगाए

देख रहा हॅूं ,

उन हाथों को

जो कर्मठता के

प्रतीक थे ।

माटी के लौंदो में

सने वे हाथ

अपने व अपने-

जिगर के टुकड़ों के लिए

घरौंदा बनाने

कितने उतावले थे ।

संग्रह की प्रवृत्ति ने

उन्हें कहीं का न छोड़ा था ,

तन तार-तार कर दिया था –

और सम्पूर्ण जीवन

लगा दिया था, दाँव पर ।

तब कहीं जा कर

एक घर बना था ।

ऐसा घर, जहाँ पूरा

कुनबा का कुनबा

रह रहा था-बड़े ठाट से,

बड़े आराम से ।

आज वही हाथ

झुर्रियों से भऱे थे –

और काँप रहे थे ,

किसी सहारे की आस में ।

इस कोने से उस कोने

घिसट- घिसट कर

लोगों के दिलों में

बैठने भर के लिये

स्थान ढूँढ़ रही थी ।

पर जगह तो

बिल्कुल सिमट कर

रह गयी थी ।

अब तो वह मात्र

पूजा गृह से बुहारे गये

बासे फूलों

और शेष बचे हवन के

कचरे जैसी थी ,

जिसे यूँ ही झाड़ कर

कहीं भी नहीं डालते

क्योंकि ऐसा करने से

लगता है -पाप ।

फिर तो उसे अभी कुछ दिन और

एक कोने में पड़े रहना है ।

जब तक वह ढेर न हो जाये,

ऐसा करने से किसी को भी

पाप नहीं लगेगा ।

और साथ ही सब पुण्य के

भागीदार बनेंगे ।

बस सभी को इंतजार है,

उनकी मृत्यु और उनसे मुक्ति का ।

जीवन का यह अंतिम सत्य

इसी तरह बार-बार दुहराया जाता है ।

इसीलिए कभी -कभी

मुझे अपना शरीर भी

झुर्रियों के आवरण से ढॅंका,

कमानी सा झुका,

खाँसता खखारता-

और हड्डियों के ढाँचे सा

किसी डॉक्टर की डिस्पेंसरी में टंगा

कैडलॉक सा नजर आता है।

बूढ़ी आजी के

काँपते तन के समान

स्वयं को पाता हूँ ।

और लगता है- मैं भी

उस कचरे के समान पड़ा हूँ ,

एक किनारे

ढेर होने के लिए ।

कोई आए और मुझे भी

विसर्जित कर आए ।

शायद इसी को

प्रत्येक के जीवन की

नियति कहते हैं ।

या कृतघ्नता की

पराकाष्ठा ।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – चुप्पी – 33 ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  चुप्पी – 33 ? ?

(लघु कविता संग्रह – चुप्पियाँ से)

-कुछ कहो

तुम्हारी चुप्पी

बरदाश्त नहीं होती,

मैंने कोरा कागज़

मोड़कर थमा दिया,

-पढ़ लो, सारा कुछ

इस पर लिख दिया है,

ज़िंदगी भी

एक करवट ले चुकी

उसका बाँचना

बदस्तूर जारी है,

सोचता हूँ

इतना ज़्यादा तो

नहीं लिखा था मैंने!

© संजय भारद्वाज  

12:25 बजे

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ श्रवण मास साधना में जपमाला, रुद्राष्टकम्, आत्मपरिष्कार मूल्याकंन एवं ध्यानसाधना करना है 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 200 – कथा क्रम (स्वगत)… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 200 – कथा क्रम (स्वगत)… ✍

(नारी, नदी या पाषाणी हो माधवी (कथा काव्य) से )

क्रमशः आगे…

यह गंधर्व विद्या की ज्ञाता  है

देव दुर्लभ रूप है

अवश्य ही यह

अनेक तेजस्वी संतानों को

जना देने में

समर्थ है।

काम मोहित

हर्यश्व ने

दीन स्वरों में

कहा

‘ऋषिवर

मैं दे सकूँगा

केवल

दो सौ श्यामकर्ण अश्व ।

और

यह सौन्दर्य प्रतिमा

बनेगी

मेरे एक पुत्र की

”जननी।’

और फिर

माधवी बनी

हर्यश्व की

अंकशायिनी,

जन्म दिया

पुत्र

वसुमना को ।

फिर

पीछे छूटा

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 200 – “मुरझा गया गुलाब रोप…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत मुरझा गया गुलाब रोप...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 200 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “मुरझा गया गुलाब रोप...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी 

टिका दी गई कोने में

वह छड़ी और चश्मा

जिसे टेक कर चला किये

थी इस घर की अम्मा

 

सोचा करती भ्रमणहीन

वह फटी हुई  छतरी

जो अम्मा के बिना पौर में

ऐसे ही पसरी

 

आले में रोया करता है

कलईदार लोटा

जो बिसूरता लगता है

वह बिर्रा का रोटा

 

कहीं कैरिया* पड़ी

साथ में चूने की डिब्बी

तैरतैर जाती आँखों मै

जैसे पनडुब्बी

 

वहीं तख्त पर रखा

पवित्तर रामायण गुटका

जिसके नीचे सन्दुकिया में

अलीगढी लटका

 

संचित रही सम्पदा कुल

अम्मा की थी जिसमें

जिसे देख गृहवधु सोचती

कब हों सब रस्में

 

रिश्तेदारो की आमद

पर रोती घूँघट में

अम्मा जैसी सास

नहीं देखी जीवन घट में

 

मुरझा गया गुलाब रोप

अम्मा जिसको गुजरी

मन की फुलबगियाँ सब

लगती जैसे हों उजरीं

 

श्यामा अपनी थान

खड़ी है भूली पगुराना

घर की ज्यों खपरैल

चुकाती घर का हरजाना

 

गौरैया चुपचाप घोंसले

में बैठी स्थिर

वह मुडेर का कौआ भी

है भूला अपना स्वर

 

नहीं बजा करती अब

साँकल घर की चौखट पर

सारी दरजें खिन्नमना हैं

दिखतीं फाटक पर

 

अब पड़ौस भूलने लगा है

लाठी की ठक ठक

और मोहल्ले की सुहागिने

देख रहीं एकटक

 

लेकिन अम्मा दूर गगन में

बन करके चिड़िया

उड़कर गई वहाँ जो भी घर

उनको था बढ़िया

 * कैरिया = तम्बाकू रखने की कपड़े की थैली

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

26-07-2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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