हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – सदानीरा ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – सदानीरा  

 

देख रहा हूँ

गैजेट्स के स्क्रिन पर गड़ी

‘ड्राई आई सिंड्रोम’

से ग्रसित पुतलियाँ,

आँख का पानी उतरना

जीवन में उतर आया है,

अब कोई मृत्यु

उतना विचलित नहीं करती,

काम पर आते-जाते

अंत्येष्टि-बैठक में

सम्मिलित होना

एक और काम भर रह गया है,

पास-पड़ोस

नगर-ग्राम

सड़क-फुटपाथ पर

घटती घटनाएँ

केवल उत्सुकता जगाती हैं

जुगाली का

सामान भर जुटाती हैं,

आर्द्रता के अभाव में

दरक गई है

रिश्तों की माटी,

आत्ममोह और

अपने इर्द-गिर्द

अपने ही घेरे में

बंदी हो गया है आदमी,

कैसी विडंबना है मित्रो!

घनघोर सूखे का

समय है मित्रो!

नमी के लुप्त होने के

कारणों की

मीमांसा-विश्लेषण

आरोप-प्रत्यारोप

सिद्धांत-नारेबाजी

सब होते रहेंगे

पर एक सत्य याद रहे-

पाषाण युग हो

या जेट एज

ईसा पूर्व हो

या अधुनातन,

आदमियत संवेदना की

मांग रखती है,

अनपढ़ हों

या ‘टेकसेवी’

आँखें सदानीरा ही

अच्छी लगती हैं।

©  संजय भारद्वाज, पुणे

( 8.2.18, प्रात: 9:47 बजे)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ कालजयी कविता ☆ दे जाना उजास वसंत ☆ – सुश्री निर्देश निधि

सुश्री निर्देश निधि

आज प्रस्तुत है हिंदी साहित्य की सशक्त युवा हस्ताक्षर सुश्री निर्देश निधि  जी की एक और कालजयी रचना  “दे जाना उजास वसंत”।  मैं निःशब्द हूँ और स्तब्ध भी हूँ। गांव की मिटटी की सौंधी खुशबू से सराबोर हैं एक एक शब्द । संभवतः इसी लिए निःशब्द हूँ  । सुश्री निर्देश निधि जी की रचनाओं के सन्दर्भ में कुछ लिखना सूर्य को दीपक दिखाने के समान है। उनके एक-एक शब्द इतना कुछ कह जाते हैं कि मेरी लेखनी थम जाती है। आदरणीया की लेखनी को सादर नमन।

ऐसी कालजयी रचना को हमारे विश्वभर के पाठकों  तक पहुंचाने के लिए हम आदरणीय  कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी के सहयोग के लिए ह्रदय से आभारी हैं। कैप्टन प्रवीण रघुवंशी न केवल हिंदी और अंग्रेज़ी में प्रवीण हैं, बल्कि उर्दू और संस्कृत में भी अच्छा-खासा दखल रखते हैं. उन्होंने हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए इस कालजयी रचना का अंग्रेजी अनुवाद उपलब्ध कराया है जिसे आज के अंक में आप निम्न लिंक पर भी पढ़ सकते हैं। )

आप सुश्री निर्देश निधि जी की अन्य  कालजयी रचनाएँ निम्न लिंक पर पढ़ सकते हैं :

  1. सुनो स्त्रियों
  2. महानगर की काया पर चाँद
  3. शेष विहार 
  4. नदी नीलकंठ नहीं होती 
  5. झांनवाद्दन

☆ दे जाना उजास वसंत ☆

 

तुम्हें देखा है कई बार वसंत

फूलों वाली बगिया में टहलते हुए

सूनी टहनियों पर चुपचाप

मासूम पत्तियाँ सिलते हुए

अनमने हो गए जी को आशा की ऊर्जा पिलाते हुए

बड़े प्यारे लगे मुझे तुम

 

जोहड़ की ढाँग पर तैरती गुनगुनी धूप में

घास के पोरुए सहलाते हुए

मेहमान परिन्दों के कंठ से फूटते हो सुर सम्राट से

 

पर सुनो वसंत

इस बरस तुम संवर जाना हमारे खेतों में बालियों का गहना बनकर

वरना खाली रह जाएंगे कुठले अनाज के

और माँ को लगभग हर साँझ ही भूख नहीं होगी

और नहीं दे पाएगी एक चिंदिया भी मेरी धौली बछिया को

 

तुम झूल जाना इस बरस आम के पेड़ों की फुनगियों पर ज़रूर

जीजी के तय पड़े ब्याह की तारीख पक्की कर जाना अगेती सी

उसकी आँखों के इंतज़ार को हराकर,

तुम उनमें खिल उठना वसंत

मेरे भैया के खाली बस्ते में ज़रूर कुलबुलाना

नई – नई पोथियां बन

 

सुनो बसंत,

सूखी धूप पी रही है कई बरसों से

मेरे बाबू जी की पगड़ी का रंग

तुम खिले – खिले रंगों की एक पिचकारी

उस पर ज़रूर मार जाना वसंत

 

पिछले बरस तुम नहीं फिरे थे हमारे खेतों में

मेरी दादी की खुली एड़ियों में

चुभ गए थे कितने ही निर्मम गोखरू

 

कितनी ही बार कसमसा दी थी चाची

पड़ौसन की लटकती झुमकियों में उलझकर

हो गया था चकनाचूर सपना चाचा का

मशीन वाली साइकिल पर फर्राटा भरने का

इस बरस मेरे दादा जी की

बुझी – बुझी आँखों में दे जाना पली भर उजास

वरना बेमाने होगा तुम्हारा धरती पर आना

निर्मम होगा हमारे आँगन से बतियाये बगैर ही

हमारे गलियारे से गुज़र जाना

 

मैं थकने लगती हूँ साँझ पड़े

महसूस कर चुपचाप अपने घर की थकन

पर तुम किसी से कहना मत वसंत

वरना माँ जल उठेगी चिंता में

जीजी की तरह मेरे भी सयानी हो जाने की ।

 

संपर्क – निर्देश निधि , द्वारा – डॉ प्रमोद निधि , विद्या भवन , कचहरी रोड , बुलंदशहर , (उप्र) पिन – 203001

ईमेल – [email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 21 – चाहत /हसरत  ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  जीवन दर्शन पर आधारित एक अतिसुन्दर दार्शनिक / आध्यात्मिक  रचना ‘चाहत /हसरत  ‘।  आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 21  – विशाखा की नज़र से

☆ चाहत /हसरत   ☆

 

कुछ जद थी

कुछ ज़िद थी

कुछ तुझ तक  पहुँचने की हूक थी

मैं नंगे पांव चला आया

 

खाली था कुम्भ

मन बावरा सा मीन

नैनों में अश्रु

रीता / भरा

कुछ मध्य सा मैं बन आया

 

कुछ घटता रहा भीतर

कुछ मरता रहा जीकर

साँसों को छोड़, रूह को ओढ़

मै कफ़न साथ ले आया

 

तेरी चाहत का दिया जला है

ये जिस्म क्या तुझे पुकारती एक सदा है

जो गूँजती है मेरी देह के गलियारों में

अब गिनती है मेरी आवारों में

 

बस छूकर तुझे मै ठहर जाऊँ

मोम सा सांचे में ढल जाऊँ

गर तेरे इज़हार की बाती मिले

मै अखंड दीप बन जल जाऊँ

 

आत्मा पाऊँ ,

शरीर उधार लाऊं ,

प्यार बन जाऊँ,

प्रीत जग जाऊँ ।

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – धरती  ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – धरती 

 

औरत की लाज-सी

खींचकर धरती की हरी चुनर

उतार दिया जाता है,

पिघलता लोहा

उसकी कोख में,

सरियों के दम पर

खड़ी कर दी जाती हैं

विशाल अट्टालिकाएँ,

धरती के सीने पर

बिछा दिया जाता है

काँक्रीट, सीमेंट, रेत ऐसे

किसी नराधम ने मासूमों को

चुनवा दिया हो जैसे,

विवश धरती अपनी कोख में

पथरीली आशंका के साथ

छिपा लेती है

हरी संभावनाएँ भी,

समय बीतता है

साल दर साल इमारत

थोड़ी-थोड़ी खंडहर होती है,

धरती की चुनर

शनैः-शनैः हरी होती है,

इमारत की बुनियाद

झर जाती है

धरती की कोख

भर आती है,

खंडहर ढक जाता है

उन्हीं पेड़-पौधों,

घास-फूल-पत्तियों से

जिनके बीज

कभी पेट में छिपा लिये थे

धरती ने…!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं… ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं… ☆

 

उहापोह में बीत चला समय

पाप-पुण्य की परिभाषाएँ

जीवन भर मन मथती रहीं

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं…

 

इक पग की दूरी पर था जो

आजीवन हम पा न सके वो

पग-पग सांकल कसती रही

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं…

 

जाने कितनी उत्कंठाएँ

जाने कितनी जिज्ञासाएँ

अबूझ जन्मीं-मरती गईं

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं…

 

सीमित जीवन,असीम इच्छाएँ

पूर्वजन्म,पुनर्जन्म की गाथाएँ

जीवन का हरण  करती रहीं

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं…

 

साँसों पर  है जीवन टिका

हर साँस में इक जीवन बसा

साँस-साँस पर घुटती रही

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं…

 

अवांछित ठुकरा कर देखो

अपनी तरह जीकर तो देखो

चकमक में आग छुपी रही

वर्जनाएँ द्वार बंद करती रहीं.!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 33 ☆ होना नहीं उदास ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है उनकी  एक अतिसुन्दर प्रेरणास्पद रचना ‘होना नहीं उदास ‘।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 33 – साहित्य निकुंज ☆

☆ होना नहीं उदास 

 

पथ पर थक कर नहीं बैठना, होना नहीं उदास।

मंजिल चल कर खुद आएगी, पथिक तुम्हारे पास।

पहले पहल कदम रखने पर

गिरते हैं इंसान ।

धीरे-धीरे होती जाती

हिम्मत से पहचान ।।

हिम्मतवाले पांव मचलते, चलता रहे प्रयास।

पांव चूमकर कंकर कांटे

मांगेंगे वरदान।

वैष्णवता की लाज बचाने

कर देना एहसान ।।

आज सभी कुछ मिल सकता है, मिले नहीं विश्वास।

उल्टे सीधे बढ़ते जाना

जिनको नहीं कुबूल।

जाहिर है उनके होते हैं

अपने सिद्ध उसूल ।।

किसी तरह कुछ पा जाने को कहते नहीं विकास।

 

पथ पर थक कर नहीं बैठना, होना नहीं उदास।

मंजिल चल कर खुद आएगी पथिक तुम्हारे पास।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ हमतुम ****    हम        तुम    ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी”  जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है। आज प्रस्तुत है श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी की  एक भावप्रवण कविता  हमतुम ****    हम        तुम    )

 

हमतुम ****    हम        तुम   

हम तुम—

क्या सिर्फ एक “संज्ञा” बन गये हैं

व्याकरण की सीमा से बंधा

एक परिचय मात्र?

नहीं – – – सुनों बहुत मेहनत की है

साथ साथ चलने—चलते रहने के लिए

बहुत सहनशीलता लगती है

मिले जुले– एक मंजिल पर पहुंचकर

सच होने वाले सपनों को

पाने में।

बहती सदानीरा सी जिंदगी को निर्मल

बनाए रखने में

सुनों – – हम तुम लगे रहे बरसों बरस

जिंदगी को जिंदगी बनाने में

फिर कैसे मान लें कि हम तुम

एक संज्ञा मात्र हैं—जीवन के व्याकरणों में

क्या सिर्फ इसलिए कि

जिंदगी कम पड़ रही है

रिश्तों को निभाने में

या—थक गये हैं रिश्तों को बनाए रखने

की जद्दोजहद में

चलो–बदल दें समीकरण

सौंप दें दायित्व

रिश्तों का रिश्तों पर

भूल जाएं आत्मांश की परिभाषा

भूल जाएं दुनियावी रिश्तों से भी

पूर्व रूहानी रिश्तों की आशा

बस – – बन जाएं “हम   तुम”

-सिर्फ सिर्फ – –

” हमतुम”

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 24 ☆ संसार ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  श्री संतोष नेमा जी के मौलिक मुक्तक / दोहे   “संसार”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़  सकते हैं . ) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 24 ☆

☆ संसार ☆

 

संवाद

द्योतक रहे विचार के ,अपने यह संवाद

हों अक्सर संवाद बिन,जग से रोज विवाद

 

पेट

दौलत से धनवान का,कभी न भरता पेट

देते किंतु गरीब को,प्रतिदिन ही अलसेट

 

संसार

हम सब को प्यारा लगे,मायाबी संसार

धन दौलत में लिप्त हो,भूल गए आचार

 

उजियार

लड़ें तिमिर से सदा हम,मन में रख उजियार

तभी सफलता मिलेगी,समझो मेरे यार

 

नेपथ्य

जीवन के इस मंच पर,दिखे न पूरा सत्य

झूठ संवरता ही रहा,सत्य गया नेपथ्य

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – डी एन ए ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – डी एन ए

 

ये कलम से निकले

कागज़ पर उतरे

शब्द भर हो सकते हैं

तुम्हारे लिए…,

पर

मन, प्राण और देह का

डी एन ए हैं

मेरे लिए..!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र # 11 ☆ कविता/गीत – वीर सुभाष कहाँ खो गए ☆ डॉ. राकेश ‘चक्र’

डॉ. राकेश ‘चक्र’

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक शताधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  जिनमें 70 के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत।  इनमें प्रमुख हैं ‘बाल साहित्य श्री सम्मान 2018′ (भारत सरकार के दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड, संस्कृति मंत्रालय द्वारा  डेढ़ लाख के पुरस्कार सहित ) एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा ‘अमृतलाल नागर बालकथा सम्मान 2019’। अब आप डॉ राकेश ‘चक्र’ जी  का साहित्य प्रत्येक गुरुवार को  उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  आत्मसात कर सकेंगे । इस कड़ी में आज प्रस्तुत हैं  महान सेनानी वीर सुभाष चन्द बोस जी की स्मृति में एक एक भावप्रवण गीत  “वीर सुभाष कहाँ खो गए.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 11 ☆

☆ वीर सुभाष कहाँ खो गए ☆ 

 

वीर सुभाष कहाँ खो गए

वंदेमातरम गा जाओ

वतन कर याद आपको

सरगम एक सुना जाओ

 

कतरा-कतरा लहू आपका

काम देश के आया था

इसीलिए ये आजादी का

झण्डा भी फहराया था

गोरों को भी छका-छका कर

जोश नया दिलवाया था

ऊँचा रखकर शीश धरा का

शान मान करवाया था

 

सत्ता के भुखियारों को अब

कुछ तो सीख सिखा जाओ

वतन कर याद आपको

सरगम एक सुना जाओ

 

नेताजी उपनाम तुम्हारा

कितनी श्रद्धा से लेते

आज तो नेता कहने से ही

बीज घृणा के बो देते

वतन की नैया डूबे चाहे

अपनी नैया खे लेते

बने हुए सोने की मुर्गी

अंडे भी वैसे देते

 

नेता जैसे शब्द की आकर

अब तो लाज बचा जाओ

वतन कर रहा याद आपको

सरगम एक सुना जाओ

 

जंग कहीं है काश्मीर की

और जला पूरा बंगाल

आतंकी सिर उठा रहे हैं

कुछ कहते जिनको बलिदान

कैसे न्याय यहाँ हो पाए

सबने छेड़ी अपनी तान

ऐक्य नहीं जब तक यहां होगा

नहीं हो सकें मीठे गान

 

जन्मों-जन्मों वीर सुभाष

सबमें ऐक्य करा जाओ

वतन कर याद आपको

सरगम एक सुना जाओ

 

लिखते-लिखते ये आँखें भी

शबनम यूँ हो जाती हैं

आजादी है अभी अधूरी

भय के दृश्य दिखातीं हैं

अभी यहाँ कितनी अबलाएँ

रोज हवन हो जाती हैं

दफन हो रहा न्याय यहाँ पर

चीखें मर-मर जाती हैं

 

देखो इस तसवीर को आकर

कुछ तो पाठ पढ़ा जाओ

वतन कर रहा याद आपको

सरगम एक सुना जाओ

 

डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी,  शिवपुरी, मुरादाबाद 244001, उ.प्र .

मोबाईल –9456201857

e-mail –  [email protected]

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