हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 6 ☆ कविता – दत्त-चित्त बनकर तो देखो ☆ श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि‘

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’  

श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी  एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू,  हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है  एक कविता  दत्त-चित्त बनकर तो देखो।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य  # 6 ☆

☆ दत्त-चित्त बनकर तो देखो ☆

 

तन्मयता हर लेती है जब,विकल दृगों का नीर

संयम, धैर्यशीलता हरती दुखी हृदय की पीर

 

सिहरन, ठिठुरन ठंडी साँसों को करती श्रमहीन

किन्तु उठाकर जोखिम सेवन करते नित्य समीर

 

वेणी गोरी बालों में, पड़ रही सुनहरी धूप

चपल सुन्दरी चली झूमती बनकर राँझा-हीर

 

चली रसोई से माँ लेकर पकवानों का थाल

खोज रही थी नजर चितेरी वहाँ प्यार की खीर

 

निर्भयता धारण करने से बन जाते हर काम

दत्त-चित्त बनकर तो देखो होगा हृदय कबीर।

 

सोच समझकर सदा बोलिए अंकुश हो वाणी पर

पिंजरे की बुलबुल को कोई मार न जाए तीर

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ बूँदें ओस की ☆ – श्री दिवयांशु शेखर

श्री दिवयांशु शेखर 

 

(युवा साहित्यकार श्री दिवयांशु शेखर जी ने बिहार के सुपौल में अपनी प्रारम्भिक शिक्षा पूर्ण की।  आप  मैकेनिकल इंजीनियरिंग में स्नातक हैं। जब आप ग्यारहवीं कक्षा में थे, तब से  ही आपने साहित्य सृजन प्रारम्भ कर दिया था। आपका प्रथम काव्य संग्रह “जिंदगी – एक चलचित्र” मई 2017 में प्रकाशित हुआ एवं प्रथम अङ्ग्रेज़ी उपन्यास “Too Close – Too Far” दिसंबर 2018 में प्रकाशित हुआ। ये पुस्तकें सभी प्रमुख ई-कॉमर्स वेबसाइटों पर उपलब्ध हैं। )

 

☆ बूँदें ओस की

 

पत्तियों के सतह पे टूटे काँच सा बिखरा हुआ,

हरी चादर को सफ़ेद रत्न सा जकड़ा हुआ,

चमकती, सिहरती रवि के तपन से,

थिरकती, मचलती पवन के कंपन से,

छूने से ही एक नाजुक एहसास करा दे,

महसूस करने पे जो सोये ख़्वाब जगा दे,

रात में शुरू होकर दिन में खत्म होती कहानी एक निर्दोष की,

चँद लम्हों में ही खुद को जीकर, ज़िन्दगी जीना सिखाती बूँदें ओस की।

 

© दिवयांशु  शेखर

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अंतिम सत्य ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  –  अंतिम सत्य 

 

कुछ राजपथ

कुछ स्वर्णपथ

मद-भोग के मार्ग

विलास के कुछ पथ,

चमचमाती कुछ सड़कें

विकास के ‘एलेवेटेड रास्ते’,

चमचमाहट की भीड़ में

शेष बची संकरी पगडंडी-

जिससे बची हुई हैं

माटी की आकांक्षाएँ

और जिससे बनी हुई हैं

घास उगने की संभावनाएँ,

बार-बार, हर बार

मन की सुनी मैंने

हर बार, हर मोड़ पर

पगडंडी चुनी मैंने,

मेरी एकाकी यात्रा पर

अहर्निश हँसनेवालो!

राजपथ, स्वर्णपथ

विलासपथ चुननेवालो!

तुम्हें एक रोज

लौटना होगा मेरे पास

जैसे ऊँचा उड़ता पंछी

दाना चुगने, प्यास बुझाने

लौटता है धरती के पास,

कितना ही उड़ लो,

कितना ही बढ़ लो

रहो कितना ही मदमस्त,

माटी में पार्थिव का क्षरण

और घास की शरण

है अंतिम सत्य!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – कवितायेँ ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  कवितायेँ 

 

आजकल

कविताएँ लिखने पढ़ने का

दौर खत्म हो गया क्या..?

नहीं तो ;

पर तुम्हें ऐसा क्यों लगा..?

फिर रोजाना ये अनगिनत

विकृत, नृशंस कांड

कैसे हो रहे हैं..!!!

 

बाँचना, गुनना नियमित रहे, मनुष्यता टिकी रहे।

( कविता संग्रह ‘मैं नहीं लिखता कविता’ से।)
©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 15 – कल, आज और कल ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है उनकी एक  भावप्रवण रचना कल, आज और कल अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 15 – विशाखा की नज़र से

☆ कल, आज और कल  ☆

 

रखते हैं तानों भरा तरकश हम अपनी पीठ पर

देते हैं उलाहनों भरा ताना अपने अतीत को

जो, आ लगता है वर्तमान में,

हो जाते हैं हम लहूलुहान ..

 

भविष्य को तकते, रखते है

उम्मीदों की रंग- बिरंगी थाल दहलीज़ पर

निगरानी में खुली रखतें हैं आँखे,

पर रंगों की उड़ती किरचों से हो जाती है आँखें रक्तिम …

 

कल और कल के बीच क्षणिक से “आज” में

झूलते हैं  दोलक की तरह

बजते, टकराते है अपनी ही चार दिवारी में

और,

काल बदल जाता है

इसी अंतराल में ।

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य ☆ दीपिका साहित्य # 5 ☆ सहेली ☆ सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

सुश्री दीपिका गहलोत “मुस्कान”

( हम आभारीसुश्री दीपिका गहलोत ” मुस्कान “ जी  के जिन्होंने ई- अभिव्यक्ति में अपना” साप्ताहिक स्तम्भ – दीपिका साहित्य” प्रारम्भ करने का हमारा आगरा स्वीकार किया।  आप मानव संसाधन में वरिष्ठ प्रबंधक हैं। आपने बचपन में ही स्कूली शिक्षा के समय से लिखना प्रारम्भ किया था। आपकी रचनाएँ सकाळ एवं अन्य प्रतिष्ठित समाचार पत्रों / पत्रिकाओं तथा मानव संसाधन की पत्रिकाओं  में  भी समय समय पर प्रकाशित होते रहते हैं। हाल ही में आपकी कविता पुणे के प्रतिष्ठित काव्य संग्रह  “Sahyadri Echoes” में प्रकाशित हुई है। आज प्रस्तुत है आपकी  पुरानी स्मृतियों को संजोती अतिसुन्दर कविता  सहेली । आप प्रत्येक रविवार को सुश्री दीपिका जी का साहित्य पढ़ सकेंगे।

☆ दीपिका साहित्य #5 ☆ सहेली ☆ 

 

आज तुम सयानी हो गयी ,

सब की आंखों की प्यारी हो गयी ,

बचपन बिताया साथ हमनें ,

अब वो बीते जमाने की कहानी हो गयी ,

खेले कूदे संग गली गलियारों में ,

अब वो सब परायी हो गयी,

कूदा-फांदी मस्ती-झगड़े के किस्से अपने ,

अब समझदारी में तब्दील हो गयी ,

पकड़म-पकड़ाई आधी नींद की जम्हाई,

सब अब यादों के पिटारा हो गयी ,

नए दोस्त बना लेने पर रूठना मनाना ,

वो छोटी नादानियाँ हंसी का पात्र हो गयी ,

खुश हैं आज बीते सुनहरे किस्से सोच कर  ,

खुश रहों सदा यही हमारी जुबानी हो गयी ,

आज तुम सयानी हो गयी ,

सब की आंखों की प्यारी हो गयी .

 

© सुश्री दीपिका गहलोत  “मुस्कान ”  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 21 ☆ तब पता चला ☆ सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

((सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की पर्यावरण और मानवीय संवेदनाओं पर आधारित एक भावप्रवण कविता  “तब पता चला”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 21 ☆

☆ तब पता चला

 

बड़ी सम्हाल से रखे हैं

अजीब से रिश्तें,

रेत से जब छूटने लगे,

तब पता चला।

 

जख्म किसी ने न देखा

कितना गहरा था ।

मरहम लगाने चले,

तब पता चला ।

 

दास्ताँ किसी ने न सुनी,

कितनी दर्दभरी थी।

कहते रात बीती,

तब पता चला ।

 

वजूद ही खो गया,

तनहा रहते रहते।

खत उसका आया,

तब पता चला ।

 

मंज़र जो मैंने देखा,

वह किसी ने न देखा।

दिल में छेद पाया,

तब पता चला ।

 

हसरतें तब न सुनी,

गुजर गए राह से ।

लोगों में चर्चा हुई,

तब पता चला ।

 

आहों में रात काटी,

नमी कम न हुई ।

हस्ती डूब गई,

तब पता चला ।

 

हसीन ख़्वाब टूटे,

रुख़सत जब हुए।

फारकत जब मिली

तब पता चला ।

 

© सुजाता काळे

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोब – 9975577684

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ भीड़ ☆– श्री माधव राव माण्डोले “दिनेश”

श्री माधव राव माण्डोले “दिनेश”

 

☆ भीड़ ☆

 

शोर है बाहर सड़कों पर……………….शायद।

कोई जुलूस निकल रहा है…….अरे यह क्या..?

सभी किसी को मार रहे है…………….शायद ।

भीड़………न्यायाधीश बन फैसला कर रही है।

हुजूम है सड़को पर………………………..शायद।

किसी सत्य को….गलत साबित करना है आज।

जन सैलाब है सड़को पर…………………शायद।

गुमराह लोग…….लोगों को गुमराह कर रहे हैं।

कुछ हरे से…..कुछ नीले से…..कुछ भगवा से।

एक नज़र से देखो तो इंद्रधनुषी से दिखते हैं।

सब कोहराम मचाकर कुछ…… सिखा रहे हैं।

कुछ नादान से….मगर मुँह पर कपड़ा बांधकर।

ये देश कि संपत्ति को….नुकसान पहुँचा रहे हैं।

शायद युवा हैं….रोज़गार की मांग कर रहे है।

कुछ नहाये-धोये……सफेद कपड़े पहने से हैं।

एक……दूसरे की ओर…… इशारा कर रहे हैं।

शायद…

ये देश के कर्ता-धर्ता हैं तो नहीं, पर लग रहे हैं।

कुछ सहमे से..कुछ उलझे…मगर असंमजस में।

शायद…

कुछ अच्छे की आस में  केन्डिल जला रहे है।

यह “भीड़”  की ताकत का दुरूपयोग तो नही है।

 

© माधव राव माण्डोले “दिनेश”, भोपाल 

(श्री माधव राव माण्डोले “दिनेश”, दि न्यू इंडिया एश्योरंस कंपनी, भोपाल में उप-प्रबन्धक हैं।)

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हिन्दी साहित्य – साहित्य निकुंज # 27 ☆ ☆ स्व डॉ गायत्री तिवारी जन्मदिवस विशेष ☆ माँ तुम याद बहुत आती हो ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है उनकी  ममतामयी माँ  (कथाकार एवं कवयित्री  स्मृतिशेष डॉ गायत्री तिवारी जी ) के चतुर्थ जन्म स्मृति  के अवसर पर एक अविस्मरणीय कविता  ‘माँ तुम याद बहुत आती हो।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 27 साहित्य निकुंज ☆

☆ माँ तुम याद बहुत आती हो

 

माँ तुम याद बहुत आती हो

बस सपने में दिख जाती हो .

पूछा है तुमसे, एक सवाल

छोड़ गई क्यों हमें इस हाल

जीवन हो गया अब वीराना

तेरे बिना सब है बेहाल

कुछ मन की तो कह जाती तुम

मन ही मन क्यों मुस्काती हो ।

 

माँ तुम याद बहुत आती हो

बस सपने में दिख जाती हो .

मुझमे बसती तेरी धड़कन

पढ़ लेती हो तुम अंतर्मन

 

तुमको खोकर सब है खोया

एक झलक तुम दिखला जाती .

जाने की इतनी क्यों थी जल्दी

हम सबसे क्यों नहीं कहती हो ।

 

माँ तुम याद बहुत आती हो

हम सबको तुम तरसाती हो ।

 

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 18 ☆ लुप्त हुआ अब सदाचरण है ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष”  की अगली कड़ी में प्रस्तुत है उनकी एक अतिसुन्दर भावप्रवण  कविता  “लुप्त हुआ अब सदाचरण है”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़  सकते हैं . ) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 18 ☆

☆ लुप्त हुआ अब सदाचरण है ☆

लुप्त हुआ अब सदाचरण है

बढ़ता हर क्षण कदाचरण है

 

आशाओं की लुटिया डूबी

स्वार्थ सिद्धि में नर हर क्षण है

 

निशदिन बढ़ते पाप करम अब

कलियुग का ये प्रथम चरण है

 

अपनों की पहचान कठिन है

चेहरों पर भी आवरण हैं

 

झूठ हुआ है हावी सब पर

सच का करता कौन वरण है

 

कब तक लाज बचायें बेटी

गली गली में चीर हरण है

 

देख देख कर दुनियादारी

“संतोष” दुखी अंतःकरण है

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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