हिन्दी साहित्य – श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष – कविता – ☆ दो गीत/भजन ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आज प्रस्तुत है श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के शुभ अवसर पर आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  द्वारा रचित दो गीत/भजन  “आज जन्मे कृष्ण कन्हाई” तथा “मोरे मन में बस गए श्याम”)

 

☆ गीत/भजन – “आज जन्मे कृष्ण कन्हाई” तथा “मोरे मन में बस गए श्याम”☆ 

एक

☆ आज जन्मे कृष्ण कन्हाई☆

 

आज जन्मे कृष्ण कन्हाई

नंदबाबा के बजत बधैया,घर घर खुशियां छाई

नगर नगर में धूम मची है,देते सभी बधाई

यमुना गद गद पांव पखारे,शेषनाग परछाई

धन्य धन्य ब्रज भूमि सारी,गायें देत दुहाई

नंद भी नाचे,नाचीं मैया,खूबै धूम मचाई

संग संग “संतोष” भी नाचे,मन में हर्ष समाई

 

 

दो

मोरे मन में बस गए श्याम

 

मोरे मन में बस गए श्याम

सबसे पावन नाम तिहारो,तेरे चरण सब धाम

तू ही बिगड़े काज संवारे,दुनिया से क्या काम

पीर द्रोपदी पल में हर ली,बनाये बिगड़े काम

मोर मुकुट मुरलीधर मोहन,मधुसूदन घनश्याम

भव सागर से पार लगाते,हरें सब पाप तमाम

“संतोष” भजे नाम तिहारा,रोज ही सुबहो शाम

© संतोष नेमा “संतोष” ✍

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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हिन्दी साहित्य – श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष – कविता – ☆ कान्हा ! एक दिन तु्मको आना ही होगा ☆ – डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष 

डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

 

(डॉ. प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी की एक  भावप्रवण कविता।)

 

☆ कान्हा ! एक दिन तु्मको आना ही होगा ☆

 

कान्हा ! एक दिन तु्मको आना ही होगा,

अनंत प्रतीक्षा राधा की अंत करना होगा।

नियति का चक्र भी तुम्हे बदलना होगा,

तन मन प्राणों की पीड़ा हरना ही होगा।।

कान्हा ! एक दिन तुमको आना ही होगा।

 

कोटि-कोटि सावन बीते, कलियुग बीते,

मधु यौवन बीते, विरह ताप हरना होगा।

विरहणी मृगनयनी के चछु रो रोकर रीते,

प्रीति घट हुए रीते, प्रेम रस भरना होगा।।

कान्हा ! एक दिन तुमको आना ही होगा।

 

कान्हा ! निज प्रथम प्रेम कैसे तुम भूल गए,

गोकुल वृंदावन भूले, मधुवन हर्षाना होगा।

नियति कोई हो, प्रेमांजलि चख के चले गए !!

राधेय यौवन लौटा, मदन रस वर्षाना होगा।।

कान्हा ! एक दिन तुमको आना ही होगा।

 

अगर नहीं आओगे, गीता का मान घटाओगे,

नियंता तुम ही जग के अब दिखलाना होगा।

प्रथम प्रेम भुलाओगे, नारी सम्मान मिटाओगे,

मान दिला हर्षाओगे, प्रेम अमर कर जाओगे।।

कान्हा ! एक दिन तुमको आना ही होगा,

 

अनंत प्रतीक्षा राधा की अंत करना होगा।

नियति का चक्र भी तुम्हे बदलना होगा,

तन मन प्राणों की पीड़ा हरना ही होगा।।

कान्हा ! एक दिन तुमको आना ही होगा।

 

डा0.प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य – श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष – कविता ☆ गोपाला-गोपाला ☆ – श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष

श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

(श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के विशेष पर्व पर प्रस्तुत है  श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी की कविता  “गोपाला – गोपाला“। 

 

एकता का जश्न हो,
मानवता ही श्रीकृष्ण हो,
नाम भले अनेक हो,
हम सब भारतीय बनेंगे,
हृदय हम सबका एक हो.

 

? गोपाला-गोपाला  ?

देवकी का लाल भी तू,
यशोदा का गोपाल भी तू,
वासुदेव का प्यारा भी तू,
नंद का दुलारा भी तू,
गोपियों का मतवाला तू,
सृष्टी का रखवाला,
गोपाला, गोपाला,
सबके प्यारे-प्यारे गोपाला.

कंस का भाँजा भी तू,
बना उसका काल भी तू,
बलराम का भ्राता भी तू,
सबका बना दाता भी तू,
द्रौपदी की लाज भी तू,
अर्जुन का सरताज भी तू,
रामायण का राम भी तू,
महाभारत का कृष्ण भी तू,
सबमें तू और तुझमें है सब,
कैसा यह खेल  निराला?
गोपाला, गोपाला,
सबके प्यारे-प्यारे गोपाला.

आज….
राम का रामचंद्र भी तू,
रहीम का रहमान भी तू,
मंदिर का भजन भी तू,
मस्जिद की अजान भी तू,
गीता का वचन भी तू,
पाक कुरान का कहन भी तू,
गुरूग्रंथ का नानकदेव भी तू,
बाइबिल का ईसा-मसीह भी तू,
न तेरा धर्म कोई,
न किसी को माना है निराला,
गोपाला, गोपाला,
सबके प्यारे-प्यारे गोपाला.

 

© मच्छिंद्र बापू भिसे

भिराडाचीवाडी, डाक भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा – ४१५ ५१५ (महाराष्ट्र)

मोबाईल नं.:9730491952 / 9545840063

ई-मेल[email protected] , [email protected]

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हिन्दी साहित्य – श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष – कविता – ☆ दो कवितायें ☆ – श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  का  e-abhivyakti में हार्दिक स्वागत है।  आप कविताएँ, गीत, लघुकथाएं लिखती हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रही हैं। आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। हम आशा करते हैं कि हम भविष्य में उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के शुभ अवसर पर दो कवितायें  निरागस जिज्ञासा तथा एकात्मकता )

संक्षिप्त परिचय 

  • कविताओं को कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में स्थान मिला है जैसे अहा! जिंदगी, दुनिया इन दिनों, समहुत, कृति ओर, व्यंजना (काव्य केंद्रित पत्रिका) सर्वोत्तम मासिक, प्रतिमान, काव्यकुण्ड, साहित्य सृजन आदि।
  • आपकी रचनाओं को कई ई-पत्रिकाओं/ई-संस्करणों में भी स्थान मिला है जैसे सुबह सवेरे (भोपाल), युवा प्रवर्तक, स्टोरी मिरर (होली विशेषांक ई पत्रिका), पोषम पा, हिन्दीनामा आदि।
  • राजधानी समाचार भोपाल के ई न्यूज पेपर में ‘विशाखा की कलम से’ खंड में अनेक कविताओं का प्रकाशन
  • कनाडा से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘पंजाब टुडे’ में भाषांतर के अंतर्गत एक कविता अमरजीत कुंके जी ने पंजाबी में अनुदित
  • आपकी कविता का ‘सर्वोत्तम मासिक’ एवं ‘काव्यकुण्ड’ पत्रिका के लिए वरिष्ठ कवयित्री अलकनंदा साने जी द्वारा मराठी में अनुवाद व आशीष
  • कई कवितायें तीन साझा काव्य संकलनों में प्रकाशित

 

☆ दो कवितायें – निरागस जिज्ञासा तथा एकात्मकता  ☆

1.

निरागस जिज्ञासा

 

मुझे तो तेरे मुकुट पर फूल गोकर्ण का

मोरपंख सा लगता है,

कृष्ण बता, तुझे ये कैसा लगता है?

 

मुझे तो तेरी मुरली की धुन

अब भी सुनाई देती है,

कृष्ण बता अब भी तू क्या

ग्वाला बन के फिरता है?

 

तुझे तो मैं कई सदियों से

माखन मिश्री खिलाती हूँ,

कृष्ण बता अब भी तू क्या

माखनचोरी करता है?

 

मुझे तो अब भी यमुना में

अक्स तेरा दिखता है,

कृष्ण बता अब भी तू क्या

कालियामर्दन करता है?

 

मुझे तो हर एक माँ

यशोदा सी लगती है,

कृष्ण बता अब भी तू क्या

जन्म धरा पर लेता है?

 

2. 

एकात्मता 

तू मुझे प्यार करे या मैं तुझे प्यार करूँ

बात एक है ना, प्यार है ना!

तू मेरे साथ चले या मैं तेरे साथ चलूँ,

बात एक है ना ,साथ है ना!

 

कि दोनों  ही ऊर्जा बड़ी सकारात्मक है,

“प्यार” संग “साथ “हो तो पंथ ही दूजा है

 

वो आत्मा हो जाती है कृष्णपंथी

फिर मुरली हो या पाँचजन्य, बात एक है ना!

 

कि कृष्ण कहाँ सबके साथ था,

सबमे उनकी अनंत ऊर्जा का निवास था

फिर वो राधा हो या मीरा,

देवकी हो या यशोदा,

बात एक ही है ना!

 

© विशाखा मुलमुले  ✍

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 11 ☆ अनुरागी ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की  एक भावप्रवण कविता   “अनुरागी ”। 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 11  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ अनुरागी

 

प्रीत की रीत  है न्यारी

देख उसे वो लगती प्यारी

कैसे कहूं इच्छा मन की

है बरसों जीवन की

अब तो

हो गए हम विरागी

वाणी हो गई तपस्वी

भाव जगते तेजस्वी

हो गये भक्ति में लीन

साथ लिए फिरते सारंगी बीन।

देख तुझे मन तरसे

झर-झर नैना बरसे

अब नजरे है फेरी

मन की इच्छा है घनेरी

मन तो हुआ उदासी

लौट पड़ा वनवासी।

देख तेरी ये कंचन काया

कितना रस इसमें है समाया

अधरों की  लाली है फूटे

दृष्टि मेरी ये देख न हटे

बार -बार मन को समझाया

जीवन की हर इच्छा त्यागी

हो गए हम विरागी

भाव प्रेम के बने पुजारी

शब्द न उपजते श्रृंगारी

पर

मन तो है अविकारी

कैसे कहूं इच्छा मन की

मन तो है बड़भागी

हुआ अनुरागी।

छूट गया विरागी

जीत गया प्रेमानुरागी

प्रीत की रीत है न्यारी…

 

© डॉ भावना शुक्ल
सहसंपादक…प्राची

 

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हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 13 ☆ ईज़ाद ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है  डॉ मुक्ता जी की  कविता  “घरौंदा ”।) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 13 ☆

 

☆ ईज़ाद ☆

 

वर्षों से गरीबी का दंश झेल रहे

माता-पिता ने विवश होकर कहा

हम नहीं कर पा रहे रोटी का जुगाड़

न ही करवा पा रहे हैं

तुम्हारी बहन का इलाज

 

बालक दौड़ा-दौड़ा

डाक्टर के पास गया

और उनसे किया सवाल

‘ क्या तुमने की है ऐसी दवा ईज़ाद

जो भूख पर पा सके नियंत्रण ‘

 

डॉक्टर साहब का माथा चकराया

आखिर उस मासूम बच्चे के ज़ेहन में

सहसा यह प्रश्न क्यों आया

 

वह बालक बेबाक़ बोला

‘तुमने चांद पर विजय पा ली

मंगल ग्रह पर सृष्टि रचना के स्वप्न संजोते हो

पूरी दुनिया पर आसीन होने का दम भरते हो’

 

ज़रा! हमारी ओर देखो…सोचो

कितने दिन हम जी पाएंगे पेट पकड़

भूख से बिलबिलाते

पेट की क्षुधा को शांत करने को प्रयासरत

शायद हम करेंगे लूटपाट,डकैती

व देंगे हत्या को अंजाम

और पहुंच जाएंगे सीखचों के पीछे

जहां सुविधा से स्वत:प्राप्त होगी

रोटी,कपड़ा और सिर छिपाने को छत

 

साहब! संविधान में संशोधन कराओ

सबको समानता का ह़क दिलवाओ

ताकि भूख से तड़प कर

कर्ज़ के नीचे दबकर

किसी को न करनी पड़े आत्महत्या

और देने पड़ें प्राण।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – सोचो जरा….! ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

?✍ संजय दृष्टि  – सोचो ज़रा..! ✍?

 

सोचने लगा

तो यों ही सोचा,

चाहे तो जला देना

मेरे साथ

मेरा पसंदीदा

कुर्ता-पायजामा,

जीन्स, हाफ कुर्ता,

मेरा चश्मा और..

पसंदीदा की

इससे लम्बी फेहरिस्त

नहीं है मेरी..,

खैर! जो-जो तुम चाहो

कर देना आग के हवाले

पर सुनो,

हाथ मत लगाना

मेरे प्रसूत शब्दों को..,

 

फिर आगे सोचा

तो यों ही सोचा

आखिर क्यों मानोगे

तुम मेरी बात..,

चलो, जला भी दिये मेरे शब्द

सोचो, कागज़ ही जलेगा न!

तुम्हारे ज़ेहन में तो

चाहे-अनचाहे

बसे ही रहेंगे मेरे शब्द,

भला उनको कैसे जलाओगे?

 

फिर आगे सोचा

तो यों ही सोचा

मान लो कर दिया जाये

तुम्हारा ब्रेन वॉश,

जैसा आतंकियों का

किया जाता है,

फिर तुम्हारे ज़ेहन में

नहीं बसेंगे मेरे शब्द,

पर सुनो, तब भी

नष्ट नहीं होंगे मेरे शब्द..!

 

चलो तुम्हारी झुंझलाहट

सुलझा दूँ

इस पहेली का

हल समझा दूँ,

अब मैंने जो सोचा

तो यह सोचा,

जो मैंने लिखा

वह पहला नहीं था

और आखिरी भी नहीं होगा..!

 

मुझसे पहले

हज़ारों, लाखों ने

यही सोचा, लिखा होगा,

मेरे बाद भी

हज़ारों, लाखों

यही सोचेंगे, यही लिखेंगे!

 

सो मेरे मित्रो!

सो मेरे शत्रुओ!

मिट जाता है शरीर

मिट जाते हैं कपड़े,

जूते, चश्मा, परफ्यूम

बेंत आदि-आदि..,

पर अमरपट्टा लिए

बैठे रहते हैं शब्द

जच्चा वॉर्ड से श्मशान तक,

अतीत हो जाते हैं व्यक्ति

व्यतीत नहीं होते विचार,

विश्वास न हो तो

सोच कर देखो बार!

 

तुम सोचोगे तो

तुम भी यही लिखोगे,

सोचने लगा तो

यों ही सोचा,

फिर आगे सोचा तो

वही सोचा

जो तुमने था सोचा,

जो उसने था सोचा,

जो वे सोचेंगे,

सोचो, ज़रा सोचो

सोचो तो सही ज़रा..!

 

आज और सदा अपनी नश्वरता और अपने अमर्त्य होने का भान रहे।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ काव्य कुञ्ज – # 2 – मिट जाएगा …. ☆ – श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

(श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी की अभिरुचिअध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ साहित्य वाचन, लेखन एवं समकालीन साहित्यकारों से सुसंवाद करना- कराना है। यह निश्चित ही एक उत्कृष्ट  एवं सर्वप्रिय व्याख्याता तथा एक विशिष्ट साहित्यकार की छवि है। आप विभिन्न विधाओं जैसे कविता, हाइकु, गीत, क्षणिकाएँ, आलेख, एकांकी, कहानी, समीक्षा आदि के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं एवं ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं।  आप महाराष्ट्र राज्य हिंदी शिक्षक महामंडल द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी अध्यापक मित्र’ त्रैमासिक पत्रिका के सहसंपादक हैं। अब आप प्रत्येक बुधवार उनका साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज पढ़ सकेंगे । आज प्रस्तुत है उनकी नवसृजित कविता “मिट जाएगा…. ”

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज – # 2 ☆

 

☆ मिट जाएगा….

 

खुशियों के चंद लमहों के लिए,

आस्था-परंपरा को पैरों तले रौंदने वाले,

मृग-मरीचिका के पीछे क्यों कर भागे,

खुद अस्तित्व भूल औरों को जहर पिलाने वाले,

मिट जाएगा क्षण भर में तू,

खुदगर्ज बन औरों की राह मिटाने वाले.

 

अपनों को तोड़कर लोलुपता के पकड़े जो रास्ते,

रोएगा वह फिर बिखरे रिश्ते जोड़ने के वास्ते,

फिर रिश्तों को सी पाया है भला कोई कभी,

ऐ रिश्तों को कच्ची-टुच्ची ड़ोर समझने वाले,

मिट जाएगा…….

 

संसार मोह, भरम का भंडार है यहाँ,

ईमान, सच्चाई, करम से छुटकारा भी कहाँ,

इन्हें छोड़ पथ तू सँवर पाएगा कभी,

द्वेष, दंभ को अपनाकर खुद को नोचने वाले,

मिट जाएगा…….

 

सपने सच होंगे सच्चाई जब साथ हो

स्वार्थ नहीं अब परोपकार  की बात हो,

उनको भला भूल पाया है संसार कभी,

खुद करने भला औरों के सिर काटने वाले,

मिट जाएगा…….

 

खाली हाथ आया था खाली हाथ ही जाएगा,

जो करम तुम्हारा था वही साथ ले जाएगा,

सत्कर्म नहीं झुके हैं जमाने के आगे कभी,

फूल ही बिखेरना औरों के पथ काँटे बिछाने वाले,

मिट जाएगा………

 

वक्त नहीं गुजरा अभी तू सिर को उठाए जा,

मत सोच खुद का पर काज हित बीज बोए जा,

फसल लहलहाएगी जिंदगी की कभी न कभी,

समझदार होकर ना समझी की नौटंकी वाले,

मिट जाएगा……..

-०-

१९ अगस्त २०१९

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 5 ☆ छोटी ज़िंदगी ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा ☆

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “छोटी ज़िंदगी”। )

 

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 5   

☆ छोटी ज़िंदगी ☆

 

कभी देखा है ध्यान से तुमने

मस्ताने गुलों को पेड़ों की डालियों पर

मुस्कुराते हुए?

 

शर्माती सी कली

जब एक गुल में परिवर्तित होती है,

उसका चेहरा ही बदल जाता है

और लबों पर उसके लाली छा जाती है!

 

हवाएँ इन इठलाते गुलों को

कभी चूमती हैं,

कभी मुहब्बत से गले लगा लेती हैं;

सूरज इनमें रौशनी भर

इनमें नया जोश पैदा करता है;

तितलियाँ और भँवरे

इनसे इश्क कर बैठते हैं;

पर यह गुल

इन सभी बातों से अनजान,

सिर्फ ख़ुशी से झूलते रहते हैं!

 

कभी-कभी इनको देखकर

बड़ा आश्चर्य होता है…

क्या यह गुल नहीं जानते

कि इनकी ज़िन्दगी इतनी छोटी है?

 

सुनो,

शायद यह बात गुल

अच्छे से जानते हैं,

और शायद यह भी समझते हैं

कि जितनी भी ज़िन्दगी हो

उसमें हर पल का लुत्फ़ लेना चाहिए;

तभी तो यह इतना खुश रहते हैं…

 

आज

अपने बगीचे में

जब एक बार फिर एक शोख गुलाबी गुलाब को

ख़ुशी से सारोबार देखा,

मेरे भी सीने में बसा हुआ डर

कहीं उड़ गया!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – सृजन ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

We present an English Version of this poem with the title ?✍ Creativity ✍? published today. We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi ji for this beautiful translation.)

 

?✍ संजय दृष्टि  – सृजन ✍?

 

कोई धन से अड़ा रहा

सम्पर्कों पर कोई खड़ा रहा,

प्राचीन से अर्वाचीन तक

बार्टर का सिलसिला चला रहा,

मैं निपट बावरा अकिंचन

केवल सृजन के बल पर टिका रहा।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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