हिन्दी साहित्य- कविता – ☆ मुखौटा ☆ – सुश्री रक्षा गीता

सुश्री रक्षा गीता 

 

(सुश्री रक्षा गीता जी का e-abhivyakti में स्वागत है।  आपने हिन्दी विषय में स्नातकोत्तर किया है एवं वर्तमान में कालिंदी महाविद्यालय में तदर्थ प्रवक्ता हैं । आज  प्रस्तुत है उनकी कविता  “मुखौटा”।)

संक्षिप्त साहित्यिक परिचय 

  • एम फिल हिंदी- ‘कमलेश्वर के लघु उपन्यासों का शिल्प विधान
  • पीएचडी-‘धर्मवीर भारती के साहित्य में परिवेश बोध
  • धर्मवीर भारती का गद्य साहित्य’ नामक पुस्तक प्रकाशित

 

☆ मुखौटा 

 

मेरे चेहरे पर

स्वयं

मुखौटा चढ़

जाता है,

मन घबरा जाता है,

पूरी आत्मीयता से

जब मुस्कुराता है,

उसे देख कर ,

नफरत तो नहीं जिससे,

मगर प्रेम भी तो नहीं ।

मुखौटा हंसता है !

मन कहीं रोता है ,

ऐसा कहीं होता है!

मगर सोच कर

जरा भी-

हैरान नहीं होता है।

जबकि सब ओर चढ़े हैं

मुखौटे !!

पल-पल बदलते हैं

सामने  मुख़ौटे के हिसाब से रंग रूप रंग लेते हैं

मुखौटा

पर ये मुखौटा ?

सच्चा है ?

रंग रूप में कच्चा है।

चेहरों को देख ,

डर से घबरा जाता है

बदल लेता है राह

कभी रंग रूप पककर

सख्त हो जाएंगें

इस चेहरे पर भी कई मुखौटे

चढ़ जाएंगे

फिर

ना डरेगा

ना घबराएगा

ना

बदलेगा राह।

 

© रक्षा गीता ’✍️

दिल्ली

 

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हिन्दी साहित्य- कविता – ☆ सवाल ☆ – सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’

सुश्री मालती मिश्रा ‘मयंती’

 

(प्रस्तुत है सुश्री मालती मिश्रा  जी  की  एक अतिसुन्दर भावप्रवण कविता।)

 

☆ सवाल

 

ये दिल मेरा कितना खाली है

पर इसमें सवाल बेहिसाब हैं

मैं जवाब की तलाश में

दर-दर भटक रही हूँ

पर मेरे दिल की तरह

मेरे जवाबों की झोली भी

खाली है।

ये दिल मेरा….

भरा है माता-पिता के प्रति

कृतज्ञता से

भाई-बहनों के प्रति

प्यार और दुलार से

माँ की दी हुई सीख से

पिता के दिए हुए ज्ञान से

दादा-दादी के दुलार से

सबने सिखाया तरह-तरह से

अलग-अलग ढंग से

बस एक ही सीख

औरों के लिए जीना

औरों की खुशी में खुश रहना

बहुत सा ज्ञान भरा है मेरे उर में

पर फिर भी

ये दिल मेरा..कितना खाली है

वो दिल…

जिसमे परिवार के लिए

प्यार भरा है

पत्नी का त्याग भरा है

माँ की ममता का सागर

हिलोरें लेता है

बहू के कर्तव्यों से भरा है

अहर्निश की अनवरत

खुशियाँ बाँटने का

प्रयास भरा है

फिर भी….

ये मेरा दिल.. कितना खाली है…

इस खाली दिल में

बच्चों के टिफिन की

खुशबू

उनकी पुस्तकों के हरफ

भरे हैं

पति की फाइलों को करीने से

रखने की फिक्र

ससुर जी की दवाइयों की

उड़ती गंध और

सासू माँ के घुटनों की मालिश

के तेल की चिकनाहट

भरी है

देवर ननद के

इस्त्री के लिए

दिए गए कपड़ों की

सिलवटें भरी हैं

जिम्मेदारियों को सिससिलेवार

पूरा करने की ख्वाहिशों में

कितनी सफल और

कितनी असफल हुई

ऐसे भी अनगिनत

सवालों का अंबार भरा है

फिर भी….

ये दिल.. कितना खाली है…

एक खाली टीन के डब्बे सा

जो रिश्तों की थाप से

भरे होने का भ्रम पैदा करता है

किन्तु भीतर शून्यता का

बोध कराता है

इस संसार में मैं क्या हूँ

कौन हूँ मैं

ये आज तक जाना ही नहीं

मेरी पहचान जो औरों से

परिचय कराती है मेरा

उसमें भी मेरा अपना क्या है?

पहले पिता

फिर पति का नाम

जुड़ा हुआ यूँ लगता है

मानों मैं परछाई हूँ

बिना किसी अस्तित्व के,

मेरा अस्तित्व तो मेरे पिता या पति हैं

वह परछाई जो

उजाले में प्रत्यक्ष होती है

अँधेरे में विलुप्त हो जाती है

रैन-दिवा मैं कर्मरत

पर मेरा कोई कर्म

स्वतंत्र रूप से मेरा नही

मेरा ये दिल….

कितना खाली है..

पर इसमें सवालों की

कभी न खत्म होने वाली

वो पूँजी है

जो कभी समाप्त ही नहीं होती।

ये दिल मेरा….कितना खाली है?????

 

©मालती मिश्रा ‘मयंती’✍️
दिल्ली
मो. नं०- 9891616087

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ बस देखते देखते …. ☆ – डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

 

☆ बस देखते देखते ….  

 

न तुमने मुझको धोखा दिया

न मैंने तुमको धोखा दिया

बस देखते देखते हम फ़ना हो गए।

 

न तुमने मुझसे कोई वादा किया

न मैंने तुमसे कोई वादा किया

बस रफ्ता रफ्ता हम जुदा हो गए।

 

न तुमने मुझको खोजा कभी

न मैंने तुमको खोजा कभी

बस देखते ही देखते हम खो गए।

 

न तुमने मुझको बुलाया कभी

न मैंने तुमको बुलाया कभी

बस देखते देखते अलविदा हो गए।

 

© डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #2 ☆ औरत की ज़िन्दगी ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।   साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी कविता  “औरत की ज़िन्दगी ”। 

 

☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – #2 ☆

 

☆ औरत की ज़िन्दगी ☆

 

औरत की ज़िन्दगी

कोल्हू के बैल की मानिंद

खूंटे से बंधी गुज़रती

उसके चारों ओर

चक्कर लगाती

वह युवा से

वृद्ध हो जाती

 

बच्चों की

किलकारियों से

घर-आंगन गूंजता

परन्तु वह सबके बीच

अजनबी-सम रहती

और उसके रुख्सत

हो जाने के पश्चात्

एकसूत्रता की डोर टूट जाती

 

घर मरघट-सम भासता

जहां उल्लू

और चमगादड़ मंडराते

वहां बिल्ली,कुत्तों

व अबाबीलों के

रोने की आवाज़ें

मन को उद्वेलित कर

सवालों और संशयों के

घेरे में खड़ा कर जातीं

 

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ तुम्हारे चिर चले जाने का मातम मैं मनाऊं ☆ – डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

 

☆ तुम्हारे चिर चले जाने का मातम मैं मनाऊं 

 

तुम्हें अपना न बना पाने का दुख मैं मनाऊं,

या किसी अन्य संग रहने का सुख मनाऊं।

तुम्हारे चिर चले जाने का मातम मैं मनाऊं,

या तुम्हारे उर में बसे रहने का सुख मनाऊं।।

तुम्हारे – – – – – – – – – – – – – – – – – – – – मनाऊं।

 

तुम्हारे संग बिताई मैं स्मृतियों जीवंत कर लूँ,

या तुम्हारे बिन बिताए पलों को भूल जाऊं।

तुम्हारे रूप का पान मैं जीवन पर्यंत कर लूँ,

या तुम्हारे नेह सुरा की विस्मृति में डूब जाऊँ।।

तुम्हारे – – – – – – – – – – – – – – – – – – – – मनाऊं।

 

तुम्हारे मृगनयनों की वारूणी में मैं डूब जाऊं,

या तुम्हारी मोह माया से बाहर निकल आऊं।

मैं तुम्हारे प्रणय जाल में फंस तिलमिला जाऊं,

या कनखियों से देखती तेरी आंखें भूल जाऊं।।

तुम्हारे – – – – – – – – – – – – – – – – – – – – मनाऊं।

 

तेरे सुरमई आगोश की भंवर यादों में डूब जांऊ,

या सदा के लिए भूलने का मैं एहतराम कर लूं।

तू ही बता भूल खुद को तेरे वजूद में डूब जाऊं,

या फिर तुझे भूल मैं कोई और इंतजाम कर लूं।।

तुम्हारे – – – – – – – – – – – – – – – – – – – – मनाऊं।

 

डा0.प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

 

 

© डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य #1 – तुम्हें सलाम ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । उन्होने यह साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य” प्रारम्भ करने का आग्रह स्वीकार किए इसके लिए हम हृदय से आभारी हैं। प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की प्रथम कड़ी में उनकी एक कविता  “तुम्हें सलाम”। अब आप प्रत्येक सोमवार उनकी साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य #1 ☆

 

☆ तुम्हें सलाम ☆

 

दुखते कांधे पर

भोतरी कुल्हाड़ी लेकर  ,

 

पसीने से तर बतर

फटा ब्लाऊज पहिनकर ,

 

बेतरतीब बहते

हुए आंसुओं को पीकर,

 

भूख से कराहते

बच्चों को छोड़कर ,

 

जब एक आदिवासी

महिला निकल पड़ती है

जंगल की तरफ ,

 

कांधे में कुल्हाड़ी लेकर

अंधे पति को अतृप्त छोड़कर,

 

लिपटे चिपटे धूल भरे

कैशों को फ़ैलाकर,

 

अधजले भूखे चूल्हे

को लात मारकर ,

 

और इस हाल में भी

खूब पानी पीकर,

 

जब निकल पड़ती है

जंगल की तरफ,

 

फटी साड़ी की

कांच लगाकर,

 

दुनियादारी को

हाशिये में रखकर,

 

जीवन के अबूझ

रहस्यों को छूकर,

 

जंगल के कानून

कायदों को साथ  लेकर,

 

अनमनी वह

आदिवासी महिला,

 

दौड़ पड़ती है

जंगल की तरफ ,

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ तू चल, चल लक्ष्य की ओर…..!! ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी  की  एक  प्रेरक कविता । ) 

 

तू चल, चल लक्ष्य की ओर…..!!  

 

तू कर प्रयास और पा सफलता

न मिले सफलता तो तू कर प्रयास

अर्जुन बन कर तू भेद चक्षु को

मत्स्य की ओर समर्पण कर जा

तू चल, चल लक्ष्य की ओर…..!!

 

तू भेद बाणों की वर्षा से

और खींच प्रंत्यचा साहस से

एकलव्य बन तू भेद आकाश

जब तक लगे ना घाव वहाँ

कोई मिले ना गुरू यहाँ

तू चल, चल लक्ष्य की ओर…..!!

 

©  सौ. सुजाता काळे 
पंचगनी, महाराष्ट्रा।
9975577684

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ हे मातृ भूमि ! ☆– श्री माधव राव माण्डोले “दिनेश”

श्री माधव राव माण्डोले “दिनेश”

 

☆ हे मातृ भूमि! ☆ 

 

है क्यों घमासान?

तेरे आँचल में,

सभी तेरे लाल हैं,

फिर क्यों है,

कोई हरा, कोई नीला, कोई भगवे रूप में,

कभी,  सभी….,

तेरे लिए लड़ते थे, अब,

सभी आपस में लड़ते हैं,

बदनाम तेरे आँचल को करते हैं,

तेरे पुत्र नहीं,

कुछ पराये से लगते हैं,

पैदा कर कुछ ऐसा भूचाल,

हो जायें सारे आडम्बरी बेहाल,

दुनिया सारी अचंभित हो जाये,

पड़ोसी भी थर्रा जाये,

वीरों का खून भी,

अब खौलता है,

सफेदपोश भी,

बे-तुका सा बोलता है,

हे मातृ भूमि,

क्युं अब कोई…… महात्मा जैसा,

क्युं अब कोई……. अम्बेडकर जैसा,

क्युं अब कोई…….. टैगौर जैसा,

क्युं अब कोई………. पटेल जैसा,

जन्म नही लेता,

तेरी कोख से,

हे मातृ भूमि,

कर दे कुछ ऐसा,

सभी में हो,

देश भक्ति भाव,

एक जैसा……वंदे मातरम…..!

 

© माधव राव माण्डोले “दिनेश”, भोपाल 

(श्री माधव राव माण्डोले “दिनेश”, दि न्यू इंडिया एश्योरंस कंपनी, भोपाल में सहायक प्रबन्धक हैं।)

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #1 ☆ अनचीन्हे रास्ते ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  हम डॉ.  मुक्ता जी  के  हृदय से आभारी हैं , जिन्होंने  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के लिए हमारे आग्रह को स्वीकार किया।  अब आप प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनों से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी कविता  “अनचीन्हे रास्ते”। डॉ मुक्ता जी के बारे में कुछ  लिखना ,मेरी लेखनी की  क्षमता से परे है।  )  

डॉ. मुक्ता जी का संक्षिप्त साहित्यिक परिचय –

  • राजकीय महिला महाविद्यालय गुरुग्राम की संस्थापक और पूर्व प्राचार्य
  • “हरियाणा साहित्य अकादमी” द्वारा श्रेष्ठ महिला रचनाकार के सम्मान से सम्मानित
  • “हरियाणा साहित्य अकादमी “की पहली महिला निदेशक
  • “हरियाणा ग्रंथ अकादमी” की संस्थापक निदेशक
  • पूर्व राष्ट्रपति महामहिम श्री प्रणव मुखर्जी जी द्वारा ¨हिन्दी  साहित्य में उल्लेखनीय योगदान के लिए सुब्रह्मण्यम भारती पुरस्कार” से सम्मानित ।  डा. मुक्ता जी इस सम्मान से सम्मानित होने वाली हरियाणा की पहली महिला हैं।
  • साहित्य की लगभग सभी विधाओं में आपकी 20 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। कविता संग्रह, कहानी, लघु कथा, निबंध और आलोचना पर लिखी गई आपकी पुस्तकों पर कई छात्रों ने शोध कार्य किए हैं। कई छात्रों ने आपकी रचनाओं पर शोध के लिए एम फिल और पीएचडी की डिग्री प्राप्त की हैं।
  • कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संगठनों द्वारा सम्मानित
  • सेवानिवृत्ति के बाद भी आपका लेखन कार्य जारी है और कई पुस्तकें प्रकाशन प्रक्रिया में हैं।

☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – #1 ☆

☆ अनचीन्हे रास्ते ☆

मैं जीना चाहती हूं

अनचीन्हे रास्तों पर चल

मील का पत्थर बनना चाहती हूं

क्योंकि लीक पर चलना

मेरी फ़ितरत नहीं

मुझे पहुंचना है,उस मुक़ाम पर

जो अभी तक अनदेखा है

अनजाना है

जहां तक पहुंचने का साहस

नहीं जुटा पाया कोई

 

मैं वह नदी हूं

जो राह में आने वाले

अवरोधकों को तोड़

सबको एक साथ लिए चलती

विषम परिस्थितियों में जीना

संघर्ष की राह पर चलना

पर्वतों से टकराना

सागर की लहरों से

अठखेलियां करना

आगामी आपदाओं की

परवाह न करते हुए

तटस्थ भाव से बढ़ते जाना

 

‘एकला चलो रे’

मेरे जीवन का मूल-मंत्र

आत्मविश्वास मेरी धरोहर

सृष्टि-नियंता में आस्था

मेरे जीवन का सबब

उसी का आश्रय लिए

उसी का हाथ थामे

निरंतर आगे बढ़ी हूँ

 

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ लेकर हर विरही की अंतर ज्वाला ☆ – डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव 

 

☆ लेकर हर विरही की अंतर ज्वाला

 

लेकर हर विरही की अंतर ज्वाला,

मैं जन-तन-मन सुलगाने आया हूं।

मैं खुद ही विरही प्यासा मतवाला,

प्रणयी-उर-प्यास मिटाने आया हूं।।

लेकर हर——————-आया हूं।।

 

मैं ज्वालामुखी की हूं अंतर ज्वाला,

निज उर अंगारे बरसाने आया हूं।

मैं व्योम की हूं प्यासी बादल शाला,

धरती की प्यास मिटाने आया हूं।।

लेकर हर——————–आया हूं।।

 

मैं तो पवन हूं पतझड़ का मतवाला,

वृक्षों की हर पात गिराने आया हूं।

मैं बसंत का विरही प्यासा मदवाला,

वन-उपवन-नगर महकाने आया हूं।।

लेकर हर———————-आया हूं।।

 

प्रिय मैं यौवन की अक्षत मधुशाला,

उर की मधु प्यास जगाने आया हूं।

मैं हूं खुद प्यासा खाली मधु प्याला,

विरही को मधुपान कराने आया हूं।।

लेकर हर———————-आया हूं।।

 

मैं शलभ दीपशिखा पे जलने वाला,

प्रियतम् पर  प्राण चढ़ाने आया हूं।

मैं हूं मधुप अलि मधुर गुंजन वाला,

शूलों से विध मधु चुराने आया हूं।।

लेकर हर———————-आया हूं।।

 

मैं हूं चातक चिर तृष्णा है मैंने पाला,

पी स्वाती वर्षा प्यास मिटाने आया हूं।

मैं अनंत अतल सागर खारे जल वाला,

घन बन वन उपवन महकाने आया हूं।।

लेकर हर————————आया हूं।।

 

मैं ही हूं शिव प्रलयंकारी तांडववाला,

सती-वियोग-संताप बुझाने आया हूं।

मैं ही हूं नीलकंठ विषपान करनें वाला,

भूमण्डल सकल गरल मिटाने आया हूं।।

लेकर हर———————–आया हूं।।

© डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव

 

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