हिंदी साहित्य – कविता / Poetry – ☆ विजय अवतरित सज्जनता ☆ – कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

(हम कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी द्वारा ई-अभिव्यक्ति के साथ उनकी साहित्यिक और कला कृतियों को साझा करने के लिए उनके बेहद आभारी हैं। आईआईएम अहमदाबाद के पूर्व छात्र कैप्टन प्रवीण जी ने विभिन्न मोर्चों पर अंतरराष्ट्रीय स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर देश की सेवा की है। वर्तमान में सी-डैक के आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और एचपीसी ग्रुप में वरिष्ठ के सलाहकार के रूप में कार्यरत हैं साथ ही विभिन्न राष्ट्र स्तरीय परियोजनाओं में शामिल हैं।)

 

आज हम डॉ इन्दु प्रकाश पाण्डेय जी के सम्मान में कैप्टन प्रवीण जी के मित्र श्री सुमीत आनंद जी द्वारा रचित अङ्ग्रेज़ी कविता “The gentleman down the street” का हिन्दी भावानुवाद “विजय अवतरित सज्जनता…” प्रस्तुत कर रहे हैं।

 

संक्षिप्त परिचय: 

डॉ इन्दु प्रकाश पाण्डेय जी का जन्म 4 अगस्त, 1924 को हुआ था। आप  हिन्दी के समकालीन वरिष्ठ साहित्यकार हैं। आप जर्मनी के फ्रैंकफुर्त शहर  में स्थित जॉन वौल्‍फ़गॉग गोएटे विश्‍वविद्यालय के भारतीय भाषा विभाग से 1989 में अवकाश प्राप्‍त प्राध्‍यापक हैं। 

श्री सुमीत आनंद जी के ही शब्दों में

4 अगस्त 2019 को फ्रैंकफोर्ट (जर्मनी) में आदरणीय डॉ इन्दु इंदु प्रकाश पाण्डेय जी के 95 वें जन्मोत्सव पर उनके स्वस्थ, सक्रिय और सार्थक जीवन के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ देते हुए मैंने  “The gentleman down the street” शीर्षक से पाण्डेय जी के व्यक्तित्व की प्रच्छन्न विशेषताओं को उजागर करते हुए एक कविता लिखी थी. मेरे अनन्य मित्र और हिंदी, अंग्रेज़ी, संस्कृत और उर्दू के मर्मज्ञ विद्वान् कैप्टन प्रवीण रघुवंशी ने मेरे अनुरोध करने पर इस कविता का हिंदी में अनुवाद किया है.

प्रसंगवश बताना चाहूँगा कि कैप्टन प्रवीण रघुवंशी ने हिंदी की कालजयी रचनाओं का अंग्रेज़ी में अनुवाद करने का बीड़ा उठाया है.

मुझे विश्वास है कि पाण्डेय जी के असंख्य हिंदी पाठक, प्रशंसक, इष्ट-मित्र और विद्यार्थी इसे पढ़कर एक बार फिर से उनके लिए शुभकामनाएँ अर्पित करेंगे.

      – सुमीत आनंद

 

☆ विजय अवतरित सज्जनता… ☆

 

बस जैसे ही मैंने सोचा

कि अब शिष्टता मर चुकी है

वाक्पटुता भी मृतप्राय है

मौलिक भद्रता मरणासन्न है

तभी जीवन में सज्जनता स्वरूप

आपका आगमन हुआ…

 

आपका अपनी

जीवन की अनूठी कहानियों का,

अपने दीर्घ अनुभवों के

खज़ाने का द्वार मेरे लिए खोलना

और मुझे सिखाना

जीवन के छोटे-बड़े आनंद

का नित्य लुत्फ उठाना…

 

आपका

एक ज्योतिपुंज होना

प्रेमभाव से परिपूरित होना

और हम सभी को

इन्हीं ईश्वरीय भावों से ओतप्रोत करना…

जीवन को सम्पूर्णता से प्रेम करना

फिर भी हमेशा निर्लिप्त भाव में रहना

 

एक श्वेत कपोत की भांति अल्हड़, मस्त और पवित्र…

प्रत्येक दिन एक अपरिमित

उन्मुक्तता के साथ जीना

जीवन के तूफानों का

एक मुस्कान के साथ

एक फ़क़ीराना अंदाज़ में,

शांत व साहसी भाव से

निरंतर सामना करना…

 

जबसे जीवन में सज्जनता स्वरूप

आपका प्रादुर्भाव हुआ…

हर गुज़रता पल

हर गुज़रता वर्ष

ये अहसास दिलाता रहा कि

आपका शाश्वत सामीप्य

हमे प्रेम-विभोर कर रहा है…

निरंतर आशीष दे रहा है…

 

हिंदी अनुवादः प्रवीण रघुवंशी 

 

The  Original  poem – ☆  The gentleman down the street ☆

 

Just when I thought

Chivalry is dead

Eloquence is dead

The basic goodness, is dead

Along came you

The gentleman down the street.

Opening your chest of treasure

Of all the life´s stories

Of all your experiences

And teaching me

To rejoice life´s little pleasures.

Carrying so much light and love

And infecting all with the same

Loving life to the fullest

Yet be so detached

Carefree and pure as a dove.

Living each day with a careless abandon

Braving through life´s storms

With a smile

With an audacity

alongside your brave but calm compassion.

With each passing year

Realising that you are there

To love us to bless us

You remain ever so dear

The gentleman down my street

 

 – Sumeet Aanand

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – # 12 – स्वयं से सदा लड़े हैं…..☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  गीत – कविता   “स्वयं से सदा लड़े हैं…..। )

(अग्रज डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी की फेसबुक से साभार)

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 12 ☆

 

☆ स्वयं से सदा लड़े हैं….. ☆  

 

जग में रह कर भी,

जग से हम अलग खड़े हैं

हम दूजों से नहीं

स्वयं से सदा लड़े हैं।

 

राम-राम, सत श्री अकाल

प्रभु ईश, सलाम

चर्च, गुरु द्वारा, मस्जिद

सह चारों धाम,

नहीं कहीं सद्भाव परस्पर

ही झगड़े हैं।

हम दूजों से नहीं स्वयं से सदा…….

 

चाह बड़े होने की मन में

सदा रही है

कब सोचा यह सही और

यह सही नहीं है

श्रेय-प्रेय के संशय में

खुद से बिछड़े हैं

हम दूजों से नहीं, स्वयं से सदा…….

 

खण्ड-खंड कर अपने को

हम रहे बांटते

दिखी दरार जहां भी

उसको रहे पाटते,

नहीं रहे दुर्भाव, कौन

अगड़े पिछड़े हैं

हम दूजों से नहीं, स्वयं से सदा…….

 

है मन में संतोष, सुखद

जो लिया-दिया है

सम्यक भावों से जीवन को

सही जिया है,

मेरे-तेरे के घेरों से

अलग खड़े हैं

हम दूजों से नहीं, स्वयं से सदा…….

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ काव्य कुञ्ज – # 3 – सवाल अभी बाकी हैं… ☆ – श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

श्री मच्छिंद्र बापू भिसे

(श्री मच्छिंद्र बापू भिसे जी की अभिरुचिअध्ययन-अध्यापन के साथ-साथ साहित्य वाचन, लेखन एवं समकालीन साहित्यकारों से सुसंवाद करना- कराना है। यह निश्चित ही एक उत्कृष्ट  एवं सर्वप्रिय व्याख्याता तथा एक विशिष्ट साहित्यकार की छवि है। आप विभिन्न विधाओं जैसे कविता, हाइकु, गीत, क्षणिकाएँ, आलेख, एकांकी, कहानी, समीक्षा आदि के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ प्रसिद्ध पत्र पत्रिकाओं एवं ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं।  आप महाराष्ट्र राज्य हिंदी शिक्षक महामंडल द्वारा प्रकाशित ‘हिंदी अध्यापक मित्र’ त्रैमासिक पत्रिका के सहसंपादक हैं। अब आप प्रत्येक बुधवार उनका साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज पढ़ सकेंगे । आज प्रस्तुत है उनकी नवसृजित कविता “सवाल अभी बाकी हैं…”

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य कुञ्ज – # 3☆

 

☆ सवाल अभी बाकी हैं…

 

कहीं धूप तो कहीं छाँव,

कहीं सुख तो कहीं दुःख,

कहीं जन्म तो कहीं मृत्यु,

कहीं अपना और कहीं दूजा भी है,

कभी मेरा है कभी तेरा है,

कभी मैं-मैं और कभी तू-तू है,

न जाने कितना कहीं

और कितना क्या-क्या है.

 

इस पहेली को सुलझाने के पीछे हर एक है,

शायद कहीं की हाँ और ना,

भविष्य की सोच में,

है और था में,

खुद को भूल गया,

आज हर एक है,

सँभालो मेरे प्यारों!

अभी का वक्त अपना-अपना,

इसे बनाए शाश्वत जीवन सपना.

 

न जाने कब साँस छूटे एक पल में,

और तमाशा देखनेवाले खुदा करें,

अपना ही तमाशा बना न करें,

चलो आज के पल में कुछ ऐसा करें,

हर दिल में अपना एहसास भरें,

फिर चाहे साँस का साथ लूटे,

चाहे अपनों का हाथ छूटे.

 

फिर देखना तमाशबीन और चिता की लौ को,

और भी धधकेगी कि वह,

आक्रोश और क्रंदन से,

नफरत के बदले प्यार में,

हर आँसू टपकेगा तुम्हारी याद में,

देखकर तेरे जीवन का शाश्वत तमाशा,

ऊपरवाला तमाशबीन रो पड़ेगा इस द्वंद्व में,

क्यों बनी मेरी हाथ से यह सूरत,

जिसकी बनेगी मेरे कारण धरती पर मूरत,

क्या हक है उसके अधीन विश्वास को तोड़ने का ?

हर एक रिश्ते को बिखरने का ?

 

वह ईश भी सोच में पड़े,

ऐसा चलो एक काम करें,

उस ईश पर हम हँस पड़े,

होकर उसके सामने खड़े,

करें एक सवाल उसे,

क्यों यह दुनियावाले फिर

क्षणिक सुख के पीछे है पड़े?

कई सवाल करेंगे,

कई बवाल करेंगे,

पर क्या मानव अपने रास्ते,

खुद ही चुनेंगे?

सवाल अभी बाकी हैं……….

 

© मच्छिंद्र बापू भिसे

भिराडाचीवाडी, डाक भुईंज, तहसील वाई, जिला सातारा – ४१५ ५१५ (महाराष्ट्र)

मोबाईल नं.:9730491952 / 9545840063

ई-मेल[email protected] , [email protected]

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हिन्दी साहित्य – श्री गणेश चतुर्थी विशेष – कविता – ☆ जय जय जय हे गणपति देवा ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री गणेश चतुर्थी विशेष

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आज प्रस्तुत है श्री गणेश चतुर्थी के शुभ अवसर पर आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  द्वारा रचित  श्री गणेश वंदना  “जय जय जय हे गणपति देवा”.)

 

☆ जय जय जय हे गणपति देवा☆ 

 

रहकर शरण करें नित सेवा

जय जय जय हे गणपति देवा

 

मात-पितृ  गौरी-महादेवा

प्रभु मोदक का करें कलेवा

ऋद्धि-सिद्धि,नौ निधि के देवा

जय जय जय हे गणपति देवा

 

प्रथम पूज्य प्रभु आप कहाते

बिगड़े सबके काम बनाते

अर्पण तुमको मोदक, मेवा

जय जय जय हे गणपति देवा

 

अंतर्मन से जो भी ध्यावे

बाधा कोई निकट न आवे

मन से प्रभु की करते सेवा

जय जय जय हे गणपति देवा

 

कोढ़ी हो या कोई अंधा

बाँझ, बधिर अथवा बिन-धंधा

शुभ करते हैं गजमुख देवा

जय जय जय हे गणपति देवा

 

शरण आपकी जो भी आता

सुख, “संतोष”  सुमंगल पाता

कष्ट सभी के हरते देवा

जय जय जय हे गणपति देवा

 

रहकर शरण करें नित सेवा

जय जय जय हे गणपति देवा

 

© संतोष नेमा “संतोष” ✍

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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हिन्दी साहित्य – कविता/गीत – ☆ शांति दे माँ नर्मदे ! ☆ – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

 

(प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  रचित गीत  ‘शांति दे माँ नर्मदे !‘

(इस गीत को स्वर/जीवन्त बना दिया है सुश्री दिव्या सेठ भाई सोहन सलिल परोहा जी ने. कृपया निम्न लिंक पर क्लिक कर इस गीत को तन्मयता से देखें-सुनें.)

 

यूट्यूब लिंक:  शांति दे माँ नर्मदे को!

 

☆  शांति दे माँ नर्मदे ! ☆

सदा नीरा मधुर तोया पुण्य सलिले सुखप्रदे

सतत वाहिनी तीव्र धाविनि मनो हारिणि हर्षदे

सुरम्या वनवासिनी सन्यासिनी मेकलसुते

कलकलनिनादिनि दुखनिवारिणि शांति दे माँ नर्मदे ! शांति दे माँ नर्मदे !

 

हुआ रेवाखण्ड पावन माँ तुम्हारी धार से

जहाँ की महिमा अमित अनुपम सकल संसार से

सीचतीं इसको तुम्ही माँ स्नेहमय रसधार से

जी रहे हैं लोग लाखों बस तुम्हारे प्यार से ! शांति दे माँ नर्मदे !

 

पर्वतो की घाटियो से सघन वन स्थान से

काले कड़े पाषाण की अधिकांशतः चट्टान से

तुम बनाती मार्ग अपना सुगम विविध प्रकार से

संकीर्ण या विस्तीर्ण या कि प्रपात या बहुधार से ! शांति दे माँ नर्मदे !

 

तट तुम्हारे वन सघन सागौन के या साल के

जो कि हैं भण्डार वन सम्पत्ति विविध विशाल के

वन्य कोल किरात पशु पक्षी तपस्वी संयमी

सभी रहते साथ हिलमिल ऋषि मुनि व परिश्रमी  ! शांति दे माँ नर्मदे !

 

हरे खेत कछार वन माँ तुम्हारे वरदान से

यह तपस्या भूमि चर्चित फलद गुणप्रद ज्ञान से

पूज्य शिव सा तट तुम्हारे पड़ा हर पाषाण है

माँ तुम्हारी तरंगो में तरंगित कल्याण है  ! शांति दे माँ नर्मदे !

 

सतपुड़ा की शक्ति तुम माँ विन्ध्य की तुम स्वामिनी

प्राण इस भूभाग की अन्नपूर्णा सन्मानिनी

पापहर दर्शन तुम्हारे पुण्य तव जलपान से

पावनी गंगा भी पावन माँ तेरे स्नान से  ! शांति दे माँ नर्मदे !

 

हर व्रती जो करे मन से माँ तुम्हारी आरती

संरक्षिका उसकी तुम्ही तुम उसे पार उतारती

तुम हो एक वरदान रेवाखण्ड को हे शर्मदे

शुभदायिनी पथदर्शिके युग वंदिते माँ नर्मदे  ! शांति दे माँ नर्मदे !

 

तुम हो सनातन माँ पुरातन तुम्हारी पावन कथा

जिसने दिया युगबोध जीवन को नया एक सर्वथा

सतत पूज्या हरितसलिले मकरवाहिनी नर्मदे

कल्याणदायिनि वत्सले ! माँ नर्मदे ! माँ नर्मदे !  ! शांति दे माँ नर्मदे !

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 6 ☆ दो लफ़्ज़ों की कहानी ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा ☆

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “दो लफ़्ज़ों की कहानी”। )

 

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 6  

☆ दो लफ़्ज़ों की कहानी 

 

दो लफ़्ज़ों की ही ये कहानी होती

कितनी आसान ये जिंदगानी होती

 

न ही कोई ग़म, न ज़ख्म होता

कितनी खूबसूरत ये रवानी होती

 

यूँ ही ख़ुशी गले से लिपट जाती

मासूम सी ज़िंदगी की कहानी होती

 

ये सितारे हरदम झिलमिलाते रहते

रात कितनी हसीं और सुहानी होती

 

हाँ, मुहब्बत भी अमर हो जाती

शाम की कहकशां आशिकानी होती

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति  के किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ क्यों लिखता हूँ मैं….? ☆– श्री माधव राव माण्डोले “दिनेश”

श्री माधव राव माण्डोले “दिनेश”

 

☆ क्यों लिखता हूँ मैं….? ☆ 

 

क्यों लिखता हूँ मैं….?

किसके लिए लिखता हूँ मैं….?

क्या समाज के बारे में लिखता हूँ मैं….?

क्या समाज अच्छा या खराब है इसलिए लिखता हूँ मैं….?

क्या समाज सुधार के लिए लिखता हूँ मैं….?

क्या सिर्फ समाज की कमियाँ ही लिखता हूँ मैं….?

क्या देश के लिए लिखता हूँ मैं….?

क्या मेरा देश महान है, इसलिए लिखता हूँ मैं….?

क्या देश कि वास्तविकता दिखाने के लिए लिखता हूँ मैं….?

क्या किसी की महानता के लिए लिखता हूँ मैं….?

क्या मुझे किसी से प्रेम है….इसलिए लिखता हूँ मैं….?

क्या सिर्फ प्रेम का श्रृंगार के लिए लिखता हूँ मैं….?

क्या प्रेम वियोग में लिखता हूँ मैं….?

क्या  प्रेम ईश्वर की देन है…इसलिए लिखता हूँ मैं….?

क्या ईश्वर की आराधना के लिए लिखता हूँ मैं….?

क्या किसी पुरस्कार की चाह में लिखता हूँ मैं….?

क्या लोग मुझे याद रखें, इसलिए लिखता हूँ मैं….?

क्या सामान्य से अलग हूँ इसलिए लिखता हूँ मैं….?

क्या वजह है….क्यों लिखता हूँ मैं….?

शायद कवि हूँ मैं….?

इसलिए सिर्फ मन की बात लिखता हूँ मैं….

 

© माधव राव माण्डोले “दिनेश”, भोपाल 

(श्री माधव राव माण्डोले “दिनेश”, दि न्यू इंडिया एश्योरंस कंपनी, भोपाल में सहायक प्रबन्धक हैं।)

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हिन्दी साहित्य – श्री गणेश चतुर्थी विशेष – कविता – ☆ सिध्दिदायक गजवदन ☆ – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्री गणेश चतुर्थी विशेष

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

 

((आज )प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा  श्री गणेश चतुर्थी पर्व पर रचित कविता सिध्दिदायक गजवदन । ) 

 

☆ सिध्दिदायक गजवदन ☆

 

जय गणेश गणाधिपति प्रभु, सिध्दिदायक, गजवदन

विघ्ननाशक कष्टहारी हे परम आनन्दधन ।।

 

दुखो से संतप्त अतिशय त्रस्त यह संसार है

धरा पर नित बढ़ रहा दुखदायियो का भार है ।

हर हृदय में वेदना, आतंक का अंधियार है

उठ गया दुनिया से जैसे मन का ममता प्यार है ।।

दीजिये सदबुद्धि का वरदान हे करूणा अयन ।।१।।

 

प्रकृति ने करके कृपा जो दिये सबको दान थे

आदमी ने नष्ट कर ड़ाले हैं वे अज्ञान से।

प्रगति तो की बहुत अब तक विश्व में विज्ञान से

प्रदूषित जल थल गगन पर हो गए अभियान से ।।

फंस गया है उलझनो के बीच मन हे सुख सदन ।।२।।

 

प्रेरणा देते हृदय को प्रभु तुमही सद्भाव की

दूर करके भ्रांतियां सब व्यर्थ के टकराव की।

बढ़ रही जो सब तरफ हैं वृत्तियां अपराध की

रौंद डाली है उन्होंने फसल सात्विक साध की ।।

चेतना दो प्रभु की उन्माद से उधरे नयन ।।३।।

 

जय गणेश गणाधिपति प्रभु, सिध्दिदायक, गजवदन

विघ्ननाशक कष्टहारी हे परम आनन्दधन ।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी , रामपुर , जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 11 – बेचारा प्यारा बिझूका ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की   ग्यारहवीं कड़ी में उनकी कविता  “बेचारा प्यारा बिझूका” । आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 11 ☆

 

☆ बेचारा प्यारा बिझूका ☆ 

 

बेचारा प्यारा बिझूका

मुफ्त में ड्यूटी करता

करता कारनामे गजब

फटे शर्ट में मुस्कराता

चिलचिली धूप में नाचता

पूस की रातों में कुकरता

कुत्ते जैसा कूं कूं करता

खेत मे फुल मस्त दिखता

मुफ्त का चौकीदार बनता

हरदम अविश्वास करता

न खुद खाता न खाने देता

क्यों मोती की माला गिनता

 

……………….

 

बेचारा हमारा बिझूका

हितैषी कहता किसान का

देशहित में हरदम बात करता।

वोट मांगता और झटके देता

पशु पक्षियों को झूठ में डराता

और हर दम हाथ भी मटकाता

 

…………………..

 

बेचारा उनका बिझूका

सिनेमा में बंदूक चलाता

व्यंग्य में चौकीदारी करता

कविता में बेवजह घुस जाता

और

भूत की अपवाह फैलाता

योगी और किसान को डराता

रात को मोती माला जपता

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – मनुष्य जाति में ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

??? मनुष्य जाति में ???

 

होता है एकल प्रसव,
कभी-कभार जुड़वाँ
और दुर्लभ से दुर्लभतम
तीन या चार,
डरता हूँ
ये निरंतर
प्रसूत होती लेखनी
और जन्मती रचनाएँ
कोई अनहोनी न करा दें,
मुझे जाति बहिष्कृत न करा दें।

 

हर दिन निर्भीक जियें।

 

(प्रकाशनाधीन कविता संग्रह से )

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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