हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ भीड़ ☆ डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन ।  वर्तमान में संरक्षक ‘दजेयोर्ग अंतर्राष्ट्रीय भाषा संस्थान’, सूरत. अपने मस्तमौला एवं बेबाक अभिव्यक्ति के लिए  प्रसिद्ध. 

 

कविता – भीड़ ☆

 

इन दिनों

जहाँ भी जाता हूँ

मेरे पीछे भीड़ ही भीड़ होती है

घर में, विद्यालय में

अस्पताल में, मुर्दाघर में

गाँव -घर के गलियारों में

बाज़ारों में, मेलों-ठेलों में

जहाँ पुलिस नहीं है उन चौराहों पर तो

और भी अगड़म-बगड़म तरीके से

पैदल भागती,

आँख मूँद सरपट्टा मार सड़क पार जाती

या फिर जाम में फँसी

कारों, बसों, टैंपो, रिक्शों में

भरी हुई यह भीड़

अनावश्यक रूप से पों-पों करते हुए

ठेलती चलती है अजनबीपन को

मुंडन-सुंडन में

शादी-ब्याह में,

बजबजाती वर्षगांठों में

एक अजीब तरह की

कास्मेटिक्स की दुर्गंध छोड़ती हुई भीड़

हमसे सही नहीं जा रही है इन दिनों

जहाँ भी जाता हूँ न जाने क्यों

इंसान तो इंसान मुर्दे तक

भीड़ की शक्ल में घेर कर खड़े हो जाते हैं हमें

कभी-कभी मुझे शक होता है कि-

यह भीड़ सिर्फ मुझे ही दिखती है

या खुद भीड़ को भी

इत्मीनान के लिए लिए पीछे मुड़-मुड़कर भी देखता हूँ

फिर खुद पर ही शर्मिंदा होता हूँ कि कहीं भीड़

कुछ समय के लिए पागल न समझ बैठे

या फिर मुझे पागल घोषित ही न कर दे

हमेशा-हमेशा के लिए

और अचानक बेवजह बात-बेबात मुझपर

ज़ोर-ज़ोर से पत्थर फेंकने लगे यह भीड़

इसी से

बाहर निकलने के नाम भर से चक्कर आते हैं

इन दिनों

जी मिचलाता है

उबकाई आती है

कुछ लार-सी ही

बाहर निकल जाए तो भी

शुकून मिल जाता है मन को

एक दिन पत्नी ने  मुझे बेसिन के पास ओ-ओ करते देखा तो

मज़ाक कर बैठी,

‘लो बहू तुम्हारी ओर से न सही तो

तुम्हारे बाबू जी की ओर से ही सही

खुशखबरी तो सुन रही हूँ कहीं से।’

उसके बाद से तो घर  में ज़ोर से खाँसता तक नहीं हूँ

किसी  के सामने

किसी को भी नहीं बताता

अपनी यह समस्या

कानी चिड़िया को भी नहीं

न ही किसी के पास

इन आलतू-फालतू बातों को सुनने के लिए समय ही है

इतनी गंभीर गोपनीयता के बावजूद

कई महीनों से

बच्चों को लगता है कि

मुझे कुछ मानसिक  समस्या है

लेकिन दिखाने कोई नहीं ले जाता कहीं

अभी कुछ दिनों से मुझे भी लगता है

किसी मनोचिकित्सक को दिखा ही लूँ

पोती को ले जाऊँगा साथ

अभी छोटी है तो क्या

कम से कम इससे

मज़ाक तो नहीं बनूँगा किसी के सामने

मन करता है कि जल्दी  ही चला जाऊँ

‘उपचार से बचाव अच्छा है’

पर,

वहाँ की भीड़ से भी डर रहा हूँ

सोचता हूँ घर से ही न निकलूँ तो ही बेहतर  है

लेकिन यह भी कोई स्थायी समाधान तो नहीं

आखिर करूँ तो करूँ क्या

अपना इलाज़ कराऊँ या उस भीड़ का

जो मुझको

मेरे साथ मेरे अपनों को भी

अपने में विलीन कर लेने के लिए

मेरे पीछे पड़ी है

घर से डॉक्टर के यहाँ तक

चार-पाँच अन्धे मोड़ हैं

बिना हॉर्न दिए भटभटाते हुए

अचानक घुस आते हैं लड़के

मुन्नी भी

भाग लेती है किसी ओर भी

अभी बहुत छोटी है

तो भी उठाई जा सकती है

कितने बड़े-बड़े मॉल हैं

जिनमें भी खो सकती है मेरी मुन्नी

मैं पागल ऐसे  ही नहीं हो रहा हूँ

भीड़ के पिछले इतिहास भी तो हैं

जिनमें खोए लोग

अभी तक खोज-खोज के थक गई हैं

हमारी सरकारें

यह भीड़ भी किसी समुद्र से कम नहीं

जिसमें अपना कोई डूब  जाए तो –

फिर खोजे  ही न मिले ।

 

©  डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

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हिन्दी साहित्य – शरद पूर्णिमा विशेष – कविता – ☆ शरद पूनो संग – शारदीय दोहे ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

शरद पूर्णिमा विशेष 

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी”  जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है। शरद पूर्णिमा के अवसर पर आज प्रस्तुत है  श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी  की एक सामयिक रचना शरद पूनो संग – शारदीय दोहे.)

 

शरद पूनो संग – शारदीय दोहे ☆

 

शरद पूनम की चंद्रिका, महकी तन मन माँह।

जुग जुग चमके चंद्रिमा, वन चंदन की छाँह।।

 

सोलह रुचि श्रृंगार की, रति सी सजी सजाय।

शरद पूनम की चांदनी, शीतल दाह लगाय।।

 

अमरित रस से है भरी, ऐ चंदा यह रात।

सौगातें सौभाग्य की, चाँदनिया से बात।।

 

शरद पूनम की यह निशा, बन असीस है साथ।

हर सिद्धि गुरुता मिले, चढ़े नहीं पर माथ।।

 

शरद जुन्हाई हे सखि, तन मन प्रीत जगाय।

जब लों घर में पी नहीं, बैरन मोहे न सुहाय।।

 

कान्हा राधा रास रंग, गोपी ग्वाल सुहाय।

शरद पूर्णिमा रात मन, राधाश्याम हो जाय।।

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – शरद पूर्णिमा विशेष – कविता – ☆ बिना चाँद के बने न कहानी ☆ – श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

शरद पूर्णिमा विशेष 

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

 

(आज प्रस्तुत है संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की  शरद पूर्णिमा के अवसर पर एक विशेष कविता  बिना चांद के बने न कहानी.)

 

☆  कविता –  बिना चांद के बने न कहानी ☆

 

सदियों की यह रीत पुरानी।

बिना चांद के बने न कहानी।।

 

हमको छोड़ चली वर्षा रानी।

ठंड ले आई शरद सुहानी।।

 

चांद चमके संग संग चांदनी।

रात पूनम की सुंदर  सुहानी।।

 

पेड़े दूध चावल की खीर।

रात पड़े जब अमृत नीर।।

 

अमृत बन जाए औषधि खीर

खा कर दूर हो सबकी पीर।।

 

करके दूध खीर का सेवन।

स्वस्थ सुखी हो सबका जीवन।।

 

शरद पूर्णिमा की बात निराली।

दूध सी चमके नदिया सारी।।

 

टिमटिम तारे चमके निखरे।

प्रकृति ने नभ में फूल बिखेरे।।

 

श्रंगार रस की सुंदर कल्पना।

प्रेमी मन में जगाती सपना।।

 

चांद चांदनी मिले हैं जैसे।

हमें भी मिले जीवन में वैसे।।

 

हाथ जोड़ मांगे वरदान।

हमें अमर करना भगवान।

 

जब हो जाये चांद के दर्शन।

हर्षित हो जाये सबका मन।।

 

कहे चांद से सुंदर नारी।

चमके सदैव सुहाग हमारी।

 

कन्या की तो बात निराली।

चांद में देखी प्रिय सूरत प्यारी।।

 

ना तरसाओ हमें दूर से ऐसे।

पास आ जाएंगे हम भी उड़ के।।

 

चांद पर घर बनाएंगे अपना।

छोटा सा टुकड़ा हमें दे देना।।

 

नभ में तुम तो ऐसे छाए।

अनेक चांदनी संग तुम भाये।।

 

दादुर मोर पपीहा गाये।

बिना चांद के कुछ न सुहाये।।

 

हर बच्चे की बोली में तुम।

मां से बढ़कर मामा हो तुम।।

 

सदियों की यह रीत पुरानी।

बिना चांद के बने न कहानी।।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ # 4 – विशाखा की नज़र से ☆ गौरैया और बिटिया  ☆ – श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

(हम श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  के  ह्रदय से आभारी हैं  जिन्होंने  ई-अभिव्यक्ति  के लिए  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” लिखने हेतु अपनी सहमति प्रदान की. आप कविताएँ, गीत, लघुकथाएं लिखती हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है।  आज प्रस्तुत है उनकी रचना गौरैया और बिटिया .  अब आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 4  – विशाखा की नज़र से

 

☆  गौरैया और बिटिया  ☆

 

बहुत से बहुत कितना दूर तक देख पाती होगी गौरैया,

प्रयोजन से बिखराये दानों और उसके पीछे

शिकारी की मंशा

क्या देख पाती होगी ?

 

कितनी दूर तक जा पाती होगी चहक,

उस नन्हीं सी गौरैया की

बहुत से बहुत आस – पास के अपने साथी समूह तक

केवल वे ही समझ पाते होंगे

जाल में फँसने पर उसकी फड़फड़ाहट

और पुकार को ।

 

हमारी जात की भी नन्हीं गौरैया,

कहाँ देख पाती है,

पहचाने, अनजाने, रिश्तेदारी शिकारी को

और कुछ लुभावने / डरावने जाल में फंस  जाती है ।

आश्चर्य यह कि,

इंद्रियों से परिपूर्ण हमारी देह

समझ नहीं पाती,

शिकार होने पर सहसा बदली सी उसकी

चहचहाहट , फड़फड़ाहट और मौन प्रश्न को !

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – अक्स – ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – अक्स

कैसे चलती है कलम

कैसे रच लेते हो रोज?

खुद से अनजान हूँ

पता पूछता हूँ रोज,

भीतर खुदको हेरता हूँ

दर्पण देखता हूँ रोज,

बस अपने ही अक्स

यों ही लिखता हूँ रोज।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 10 ☆ पतझड़ ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की  एक भावप्रवण कविता  ‘पतझड़ ‘।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 10 ☆

☆ पतझड़

मैंने देखा,
पतझड़ में
झड़ते हैं पत्ते,
और
फल – फूल भी
छोड़ देते हैं साथ।
बचा रहता है
सिर्फ ठूँस
किसलय की
बाँट जोहते हुए।

मैंने देखा
उसी ठूँठ पर
एक घोंसला
गौरेय्ये का,
और सुनी
उसके बच्चों की
चहचहाट साँझ की।
ठूँठ पर भी
बसेरा और
जीवन बहरते
मैंने देखा
पतझड़ में ।

© सुजाता काले
पंचगनी, महाराष्ट्रा।
9975577684

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 19 ☆ तेरे दर्शन पाऊं ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी  की  एक आध्यात्मिक  कविता/गीत   “तेरे दर्शन पाऊं”.  डॉ  मुक्ता जी के इस  रचना में  गीत का सार भी  कहीं न  कहीं इस पंक्ति “मन मंदिर की  बंद किवरिया, कैसे बाहर आऊं “ में निहित है.) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 19 ☆

 

☆ तेरे दर्शन पाऊं ☆

 

मनमंदिर की जोत जगा कर तेरे दर्शन पाऊं

तुम ही बता दो मेरे भगवान कैसे तुझे रिझाऊं

मन मंदिर……

 

पूजा-विधि मैं नहीं जानती, मन-मन तुझे मनाऊं

जनम-जनम की  दासी  हूं  मैं, तेरे ही गुण गाऊं

मन मंदिर……

 

मेरी अखियां रिमझिम बरसें, कैसे दर्शन पाऊं

कब रे  मिलोगे, गुरुवर नाम की  महिमा गाऊं

मन मंदिर……

 

जीवन नैया ले हिचकोले, पल-पल डरती जाऊं

बन जाओ तुम  ही खिवैया, बार-बार यही चाहूं

मन मंदिर…….

 

घोर अंधेरा राह न  सूझे, मन-मन  मैं घबराऊं

मन ही मन डरूं बापुरी, नाम की टेर  लगाऊं

मन मंदिर…….

 

सुबह से  सांझ हो  चली,  तुझे पुकार लगाऊं

मन मंदिर की  बंद किवरिया, कैसे बाहर आऊं

मन मंदिर…….

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 5 ☆ साल दर साल पुतले जलते गये ☆ – श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष”  की अगली कड़ी में प्रस्तुत है उनकी रचना  “साल दर साल पुतले जलते गये ” . अब आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़ सकेंगे . ) 

 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 5 ☆

☆  साल दर साल पुतले जलते गये ☆

साल दर साल पुतले जलते गये ।

फिर भी रावण नये पलते गये ।।

साल दर साल पुतले जलते गये ।

 

कद पुतलों का भी बढ़ाया गया ।

बिस्फोटक भी खूब मिलाया गया ।।

तमासा देख लोग मचलते गए ।

साल दर साल पुतले जलते गये ।।

 

धन दौलत का यहां अब जोर है ।

यहां हर तरफ कलियुगी शोर है ।।

आदमी सच्चे हाथ मलते गये ।

साल दर साल पुतले जलते गये ।।

 

बुराई पर अच्छाई की विजय ।

हो असत्य पर सदा सत्य की जय ।।

सोच यह लेकर हम चलते गये ।

साल दर साल पुतले जलते गये ।।

 

क्रोध,कपट,कटुता का है प्रतीक ।

विकार सब रावण पर हैं सटीक ।।

ये अवगुण सारे अब बढ़ते गये ।

साल दर साल पुतले जलते गये ।।

 

तम अंदर का जब तक न मिटेगा ।

तब तलक अब न “संतोष”मिलेगा ।।

हम पुतले जला के बहलते गये ।

साल दर साल पुतले जलते गये ।।

 

जो इस दौर में  भी संभलते गए ।

बेधड़क राह सच की चलते गए ।।

ऐसे भी हमें लोग मिलते गये ।

साल दर साल पुतले जलते गये ।।

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य # 16 – तोल मोल कर बोल जमूरे ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर रचना  “तोल मोल कर बोल जमूरे। )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 16 ☆

 

☆ तोल मोल कर बोल जमूरे ☆  

 

किसमें कितनी पोल जमूरे

तोल  मोल कर बोल  जमूरे।

 

कर ले बन्द बाहरी आँखें

अन्तर्चक्षु   खोल    जमूरे।

 

प्यास बुझाना है पनघट से

पकड़ो रस्सी – डोल जमूरे।

 

अंतरिक्ष  में   वे    पहुंचे

तू बांच रहा भूगोल जमूरे।

 

पेट पकड़कर अभिनय कर ले

मत कर टाल मटोल जमूरे।

 

टूटे हुए  आदमी से  मत

करना कभी मख़ौल जमूरे।

 

संस्कृति गंगा जमुनी में विष

नहीं वोट का, घोल  जमूरे।

 

कोयल तो गुमसुम बैठी है

कौवे करे,  मख़ौल  जमूरे।

 

है तैयार, सभी बिकने को

सब के अपने मोल, जमूरे।

 

फिर से वापस वहीं वहीं पर

यह दुनिया है  गोल  जमूरे।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – सिक्का – ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  – सिक्का ☆

मेरा शून्य
मेरा संतृप्त
समांतर चलते हैं,
शून्य संभावनाओं को
खंगालता है..,
संतृप्त आशंकाओं को
नकारता है..,
सिक्के की विपरीत सतहें
किसने निर्धारित की ?
संभावना और आशंका
किसने परिभाषित की?
शिकारी की संभावना
शिकार के लिए आशंका है,
संतृप्त की आशंका
शून्य के लिए संभावना है,
जीवन परिस्थिति सापेक्ष होता है
बस काल है जो निरपेक्ष होता है!

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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