हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ पत्र पेटिका ☆ – श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”

(श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी की कवितायें हमें मानवीय संवेदनाओं का आभास कराती हैं। प्रत्येक कविता के नेपथ्य में कोई न कोई  कहानी होती है। मैं कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी का हृदय से आभारी हूँ जिन्होने इस कविता के सम्पादन में सहयोग दिया। आज प्रस्तुत है कविता “पत्र पेटिका”। इस पत्र पेटिका का महत्व मेरी समवयस्क पीढ़ी अथवा मेरे वरिष्ठ जन ही जान सकते हैं।  इस पत्र पेटिका से हमारी मधुर स्मृतियाँ जुड़ी हुई हैं जिन्हें श्री सूबेदार पाण्डेय जी ने अपनी कविता के माध्यम से पुनः जीवित कर दिया है। )

 ☆ पत्र पेटिका ☆

 

मै पत्र-पेटिका वहीं खडी़,

युगों से जहां खडी़ रही मै

सर्दी-गर्मी-वर्षा सहती,

सदियों से मौन पडी़  हूँ मै…

 

लाल  रंग की चूनर ओढ़े,

सबको पास बुलाती थी।

अहर्निश सेवा महे का

सबको पाठ पढ़ाती  थी…

 

कोई आता था पास मेरे,

प्यार का इक पैगाम लिये

कोई आता था पास मेरे

प्यार का इक तूफां लिए…

 

कोई सजनी प्रेम-विरह की

पाती रोज इक छोड़ जाती थी

कोई बहना भाई के खातिर

राखी भी दे जाती थी…

 

कोई रोजगार पाने का

इक आवेदन दे जाता था

मैं इन सबका संग्रह कर

मन ही मन इठलाती थी…

 

सुबह-शाम दो बार हर

रोज डाकिया आता था

खोल चाभी से बंद ताले को

सब पत्रों को ले जाता था…

 

हाय, विधाता! आज हुआ क्या

कैसा ये उल्टा दिन आया

बदनज़र लगी मुझको या

घोर अनिष्ट का है साया…

 

टूटे पेंदे, जर्जर काया, बिन ताले,

अपनी किस्मत को रोती हूँ

खामोश खड़ी चौराहे पर खुद

ही अपनी अर्थी ढोती हूँ…

 

 

-सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ होशोहवास ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

(आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की  एक भावप्रवण कविता  ‘होशोहवास ’।)

☆ होशोहवास
मेरे शहर में हज़ारों लोग हैं जो
दूसरों के गिरहबान में झाँक रहे हैं
अपने गिरहबान में झाँकने का
उन्हें होशोहवास नहीं है।
मेरे शहर में अनगिनत लोग हैं जो
दूसरों की गलतियों पर ताना देते हैं
अपनी गलतियों पर पछताने का
उन्हें होशोहवास नहीं है।
मेरे शहर में हजारों लोग हैं जो
दूसरों के दुखों पर खुश होते हैं
अपने सुख से परे देखने का
उन्हें होशोहवास नहीं है।
मेरे शहर में लाखों लोग हैं जो
दूसरों के हार पर खुश होते हैं
अपनी जीत के आगे देखने का
उन्हें होशोहवास नहीं है।

© सुजाता काले ✍

पंचगनी, महाराष्ट्र।

9975577684

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ याद रखना ☆ – श्री दिवयांशु शेखर

श्री दिवयांशु शेखर 

 

(युवा साहित्यकार श्री दिवयांशु शेखर जी  के अनुसार – “मैं हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में कविताएँ, कहानियाँ, नाटक और स्क्रिप्ट लिखता हूँ। एक लेखक के रूप में स्वयं को संतुष्ट करना अत्यंत कठिन है किन्तु, मैं पाठकों को संतुष्ट करने के लिए अपने स्तर पर पूरा प्रयत्न करता हूँ। मुझे लगता है कि एक लेखक कुछ भी नहीं लिखता है, वह / वह सिर्फ एक दिलचस्प तरीके से शब्दों को व्यवस्थित करता है, वास्तव में पाठक अपनी समझ के अनुसार अपने मस्तिष्क में वास्तविक आकार देते हैं। “कला” हमें अनुभव एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देती है और मैं जीवन भर कला की सेवा करने का प्रयत्न करूंगा।”)

 

☆ क्षितिज ☆

याद रखना

बदलते वक़्त में क्या न बदला,

लाख कोशिशों से कौन न पिघला,

याद रखना।

 

तुम्हारे मौजूदगी में कौन था खिन्न,

तुम्हारे जिक्र से ही कौन था प्रसन्न,

याद रखना।

 

तुम्हारे कहानियों में कौन था साथ,

बद से बदतर होते हालत में किसने छोड़ा हाथ,

याद रखना।

 

तुम्हारे आंसुओ पे किसने जताया अपना हक़,

तुम्हारे अच्छे इरादों पे भी किसने किया शक,

याद रखना।

 

एक चेहरे के पीछे कई चेहरों की परतें,

सामने गुणगान पीछे घमासान जो करते,

याद रखना।

 

तुम्हारे प्रयासों का किसने रखा मान,

भरोसे पर किसने छोड़े तीखे बाण,

याद रखना।

 

हर वक़्त किसे थी तुम्हारी तलब,

पीठ दिखाया किसने साधकर अपना मतलब,

याद रखना।

 

तेरे अरमानों को किसने जगाया,

कुछ प्राप्ति के बिना किसने रिश्तों को निभाया,

याद रखना।

 

तुम्हारे लबों की हसीं पे किसने किया काम,

तुम्हारे प्रेम का किसने लगाया दाम,

याद रखना।

 

ज़िन्दगी वृत्त की परिक्रमा काटती,

जाती वापस वहीं लौट के आती,

भले समय लगे लेकिन अच्छे और बुरे का फर्क समझाती,

याद रखना।

 

रास्तों के सफर में न किसी से गिले न कोई शिकवे रखना,

जो मिले उन अनुभवों से सीखना,

बढ़ते रहना,

पर याद रखना।

 

© दिवयांशु  शेखर, कोलकाता 

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हिन्दी साहित्य – कविता – ☆ मैं लौट आऊंगा ☆ – डा. मुक्ता

कारगिल विजय दिवस पर विशेष 

डा. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। प्रस्तुत है  एक सामयिक एवं मार्मिक रचना जिसकी पंक्तियां निश्चित ही आपके नेत्र नम कर देंगी और आपके नेत्रों के समक्ष सजीव चलचित्र का आभास देंगे। यह कविता e-abhivyakti में  24 मार्च 2019 को प्रकाशित हो चुकी है। किन्तु, हम इसे पुनः प्रकाशित कर गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं एवं सभी वीर जवानों को श्रद्धांजलि अर्पित करात हैं , साथ ही उनके परिवारों के प्रति हार्दिक संवेदनाएं  प्रकट करते हैं। डॉ मुक्ता जी का आभार।)

☆  मैं लौट आऊंगा ☆
वह ग़बरू जवान
जिसे बुला लिया गया था
मोर्चे पर आपात काल में
जो चार दिन पहले ही
बंधा था विवाह-बंधन में
जिसकी पत्नी ने उसे
आंख-भर देखा भी नहीं था
और ना ही छूटा था
उसकी मेहंदी का रंग
उसके जज़्बात
मन में हिलोरे ले रहे थे
बरसों से संजोए स्वप्न
साकार होने से पहले
वह अपनी पत्नी से
शीघ्रता से लौटने का वादा कर
भारी मन से
लौट गया था सरहद पर
परंतु,सोचो!क्या गुज़री होगी
उस नवयौवना पर
जब उसका प्रिययम
तिरंगे में लिपटा पहुंचा होगा घर
मच गया होगा चीत्कार
रो उठी होंगी दसों दिशाएं
पल-भर में राख हो गए होंगे
उस अभागिन के अनगिनत स्वप्न
उसके सीने से लिपट
सुधबुध खो बैठी होगी वह
और बह निकला होगा
उसके नेत्रों से
अजस्र आंसुओं का सैलाब
क्या गुज़री होगी उस मां पर
जिस का इकलौता बेटा
उसे आश्वस्त कर
शीघ्र लौटने का वादा कर
रुख्सत हुआ होगा
और उसकी छोटी बहन
बाट जोह रही होगी
भाई की सूनी कलाई पर
राखी बांधने को आतुर
प्यारा-सा उपहार पाने की
आस लगाए बैठी होगी
उसका बूढ़ा पिता
प्रतीक्षा-रत होगा
आंखों के ऑपरेशन के लिये
सोचता होगा अब
लौट आएगी
उसके नेत्रों की रोशनी
परंतु उसकी रज़ा के सामने
सब नत-मस्तक
मां, निढाल, निष्प्राण-सी
गठरी बनी पड़ी होगी—
नि:स्पंद,चेतनहीन
कैसे जी पाएगी वह
उस विषम परिस्थिति में
जब उसके आत्मज ने
प्राणोत्सर्ग कर दिए हों
देश-रक्षा के हित
सैनिक कई-कई दिन तक
भूख-प्यास से जूझते
साहस की डोर थामे
नहीं छोड़ते आशा का दामन
ताकि देश के लोग अमनो-चैन से
जीवन-यापन कर सकें
और सुक़ून से जी सकें

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 9 ☆ कैसे कायदे-कानून ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है  उनकी  विचारणीय  कविता  “कैसे कायदे-कानून”।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 9 ☆

 

☆ कैसे कायदे-कानून ☆

 

औरत!

तेरी अजब कहानी

जन्म से मृत्यु-पर्यन्त

दूसरों की दया पर आश्रित

पिता के घर-आंगन की कली

हंसती-खेलती,कूदती-फलांगती

स्वतंत्र भाव से,मान-मनुहार करती

बात-बात पर उलझती

अपने कथन पर दृढ़ रहती

 

परंतु, कुछ वर्ष

गुज़र जाने के पश्चात्

लगा दिए जाते हैं

उस पर अंकुश

‘मत करो ऐसा…

ऊंचा मत बोलो

सलीके से अपनी हद में रहो

देर शाम बाहर मत जाओ

किसी से बात मत करो

ज़माना बहुत खराब है’

और उसकी आबो-हवा

व लोगों की नकारात्मक सोच…

उसे तन्हाई के आलम में छोड़ जाती

वह स्वयं को

चक्रव्यूह में फंसा पाती

इतने सारे बंधनों में

वह खुद को गुलाम महसूसती

अनगिनत बवंडर उसके मन में उठते

यह सब अंकुश

उस पर ही क्यों?

‘भाई के लिए

नहीं कोई मंत्रणा

ना ही ऐसे फरमॉन’

उत्तर सामान्य है…

‘तुम्हें दूसरे घर जाना है

अपनी इच्छाओं,अरमानों

आकांक्षाओं का गला घोंट

स्वयं को होम करना है

उनकी इच्छानुसार

हर कार्य को अंजाम देना है

अपने स्वर्णिम सपनों की

समिधा अर्पित कर

पति के घर को स्वर्ग बनाना है

जानती हो

‘जिस घर से डोली उठती

उस घर की दहलीज़

पार करने के पश्चात्

तुम्हें अकेले लौट कर

वहां कभी नहीं आना है’

शायद! तुम नहीं जानती

अर्थी उसी चौखट से उठती

जहां डोली प्रवेश पाती

हां! मरने के पश्चात्

मायके से तुम्हें प्राप्त होगा कफ़न

और उनके द्वारा ही किया जाएगा

मृत्यु-भोज का आयोजन

वाह! क्या अजब दस्तूर है

इस ज़माने का

जहां वह जन्मी, पली-बढ़ी

वह घर उसके लिये पराया

माता-पिता, भाई-बहनों का

प्यार-दुलार मात्र दिखावा

असत्य, मिथ्या या ढकोसला

पति का घर

जिसे अपना समझ

उसने सहेजा, संवारा, सजाया

तिनका-तिनका संजोकर

मकान से घर बनाया

उस घर के लिये भी

वह सदैव रहती अजनबी

सब की खुशी के लिए

उसने खुद को मिटा डाला

सपनों को कर डाला दफ़न

कैसी नियति औरत की

क्या पति-पुत्र नहीं समर्थ

जुटा पाने को दो गज़ कफ़न

मृत्यु-भोज की व्यवस्था

कर पाने में पूर्णत: अक्षम, असमर्थ

हां! वे रसूखदार लोग

चौथे दिन करते

शोक सभा का आयोजन

आमंत्रित होते हैं

जिसमें सगे-संबंधी

और रूठे हुए परिजन

शिरक़त करते

बरसों पुराने

ग़िले-शिक़वे मिटाने का

शायद यह सर्वोत्तम अवसर

वहां सब ज़ायकेदार

स्वादिष्ट भोजन ग्रहण कर

अपने दिलों का हाल कहते

और उनकी नज़रें एक-दूसरे की

वेशभूषा पर टिकी रहतीं

जैसे वे मातमपुर्सी में नहीं

फैशन-परेड में आये हों

रसम-पगड़ी से पहले

औपचारिकतावश

उसका गुणगान होता

अच्छी थी बेचारी

कर्त्तव्यनिष्ठ, त्याग की मूर्ति

मरती-खपती, तप करती रही

सपनों को रौंद, तिल-तिल कर

स्वयं को गलाती रही

पुत्र के कंधों पर

पूरे परिवार का दायित्व डाल

सब चल देते हैं

अपने-अपने आशियां की ओर

परन्तु, एक प्रश्न

कुलबुलाता है मन में

वे करोड़ों की

सम्पत्ति के मालिक

पिता-पुत्र, क्यों नहीं कर सकते

भोज की व्यवस्था

और उस औरत को क्यों नहीं

दो गज़ कफ़न पाने का अधिकार

उस घर से

जिसे सहेजने-संजोने में उसने

होम कर दिया अपना जीवन

क्या यह भीख नहीं…

जो विवाह में दहेज

और निधन के पश्चात्

भोज के रूप में वसूली जाती

काश! समाज के

हर बाशिंदे की सोच

दशरथ जैसी होती

जिसने अपने बेटों के

विवाह के अवसर पर

जनक के पांव छुए

और उसे विश्वास दिलाया

कि वह दाता है

क्योंकि उसने अपनी बेटियों को

दान रूप में सौंपा है

जिसके लिये वे आजीवन

रहेंगे उसके कर्ज़दार

काश! हमारी सोच बदल पाती

और हम सामाजिक कुप्रथाओं के

उन्मूलन में सहयोग दे पाते

बेटी के माता-पिता से

उसके मरने के पश्चात्

टैक्स वसूली न करते

और मृत्यु कर का

शब्दकोश में स्थान न रहता

हमें ऐसी प्रतिस्पर्धा

पर अंकुश लगाना होगा

ताकि गरीब माता-पिता को

रस्मो-रिवाज़ के नाम पर

दुनियादारी के निमित्त

विवशता से न पड़े हाथ पसारना

और वे सुक़ून से

अपना जीवन बसर कर सकें

 

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ तन्मय साहित्य – # 8 – एक गीत ☆ – डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

(अग्रज  एवं वरिष्ठ साहित्यकार  डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी  जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से  लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं।  आज के साप्ताहिक स्तम्भ  “तन्मय साहित्य ”  में  प्रस्तुत है  “गुएक गीत। )

 

☆  साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य – # 7 ☆

 

☆ एक गीत   ☆  

 

देह का भटकाव मन के गाँव में

दिग्भ्रमित परछाईयों में खो गए

प्रीत के पगचिह्न धुँधले हो गए।

 

शाख पर बैठे, उसी को

काटने पर हैं तुले

क्लांत है, मन भ्रांत फिर भी

उम्मीदें झूला झुले

विषभरी बेलें हरित सी

झूमती झकझोरती

बीज, वासुकी वासना के बो गए

प्रीत के पगचिह्न धुँधले हो गए।।

 

ढाई आखर के भरम में

बस उलझते ही रहे

नहर को नदिया समझ

संकुचित भावों में बहे

राह में पग-पग हुए टुकड़े

अपाहिज से हुए

देहरी पर मीत पंछी रो गए

प्रीत के पगचिह्न धुँधले हो गए।।

 

समझकर एहसान यूँ

मेहमान बन सहते गए

छोर अंतिम जिंदगी का

स्वप्न फिर भी हैं नए

खेल स्वांस-प्रश्वांस का

निर्णय घड़ी है आ गई

समय प्रहरी उम्मीदों को धो गए

प्रीत के पगचिह्न धुँधले हो गए।।

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

जबलपुर, मध्यप्रदेश

मो. 9893266014

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार #1 ☆ अकेला ☆ – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा ☆

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

 

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी  सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एक्जिक्यूटिव डायरेक्टर (सिस्टम्स) महामेट्रो, पुणे हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “अकेला”। )

 

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार #1

 

☆ अकेला ☆

 

उस गुज़रे ज़माने में,

गर्मियों की दोपहरी में,

राहों पर चलते हुए दो मुसाफ़िर

अक्सर एक ही बरगद की ठंडी छाँव में

कुछ पल को रुक जाते थे,

कुछ बातें कर लिया करते थे,

साथ लाई रोटियाँ और अचार

मिल-बांटकर खा लिया करते थे

और फिर तनिक सुस्ताकर,

निकल पड़ते थे

अपने-अपने रास्तों पर

अपनी-अपनी मंजिलों की खोज में!

 

उन पलों को

जब वो साथ बैठे थे,

बड़ा ही खूबसूरत मानते थे

और इन्हीं मीठी यादों के सहारे

ज़िंदगी काट लिया करते थे!

 

शायद

इस एयर-कंडीशनर के युग में

दरख्तों के नीचे बैठने का सुकून

तो मिल ही नहीं सकता,

हर कोई

अपने-अपने हिस्से की ठंडी

अपने-अपने एयर-कंडीशनर से लेता है,

न कोई दर्द बांटता है, न ख़ुशी,

बस यही एक विचार

मन में मकाँ बना लेता है

कि कैसे मंजिलों को पाया जाए

और इसी डर के मारे

वो रह जाता है

अकेला भी और बेचारा भी!

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

आपकी सभी रचनाएँ सर्वाधिकार सुरक्षित हैं एवं बिनाअनुमति किसी भी माध्यम में प्रकाशन वर्जित है।

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य #6 – बेनाम होने का सुख ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  छठवीं  कड़ी में उनकी  एक सार्थक कविता  “बेनाम होने का सुख ”। अब आप प्रत्येक सोमवार उनकी साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य #6 ☆

 

☆ बेनाम होने का सुख ☆

 

देखते ही देखते

ये  क्या हो गया ,

जब तुम घर में थे

घर के मुन्ना लाल थे ,

 

देखते ही देखते

ये क्या हो गया

राह में तुम्हें राहगीर

भी कह दिया गया

आफिस पहुँचे तो

कर्मचारी बन गए।

 

देखते ही  देखते

ये क्या हो गया

बस में सवार हुए

तो यात्री बन गए

प्रेम जैसे ही  किया

प्रेमी का खिताब मिला।

 

देखते देखते ये क्या हुआ

जब खेत खलिहान पहुँचे

सबने किसान का दर्जा दिया

बेटे के स्कूल दाखिले में

अचानक पिता बना दिया

 

देखते देखते ये क्या हुआ

पत्नी ने धीरे से पति कह दिया

मंदिर में घंटा बजाते हुए

पुजारी ने भक्त  कह दिया

 

देखते देखते इतना सब हुआ

बेनाम होने का भी सुख मिला

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – कवितायें ☆ दो कवितायें 1. आसमां 2. जमीन ☆ सुश्री बलजीत कौर ‘अमहर्ष’    

सुश्री बलजीत कौर ‘अमहर्ष’    

 

(आज प्रस्तुत हैं सुश्री बलजीत कौर ‘अमहर्ष’ जी  को  दो कवितायें  ‘आसमां ‘ और ‘जमीन’ ।)

 

एक 

? आसमां ?

 

बहती पवन  का यह शोर

खींच ले गया मुझे उस ओर

बीते हुए पल, बीते हुए क्षण

बीती हुई यादें,बीते हुए वादे

मानों कल की ही हो बात

वो हँसी-ठट्ठे,वो अठ्खेलियाँ

वो खेल-खिलौने,वो सखी-सहेलियाँ

ना थी आज की चिन्ता,

ना था कल का डर

जीते थे,जीते थे केवल उसी पल

छोटे-छोटे पलों में ही

छुपी थीं बड़ी-बड़ी खुशियाँ

दुःख-दर्द,कलह-क्लेश का

ना था कुछ एहसास

समय ने ली करवट

हुआ दूर वो सपना

ज़िंदगी की हकीकत से

हुआ जब सामना

लगा उड़ता हुआ कोई परिंदा

गिरा हो आकर ज़मीन पर धड़ाम

बनाना था पंखों को सक्षम

बनाने थे अभी कई मुकाम

नापने थे अभी कई नये आसमां !

 

दो 

? जमीन  ?

 

भूले हुए पंछी,

    भटके हुए परिंदो,

फिर लौट आओ,

    अपने बसेरों की ओर!

नई उड़ान,नये मुक़ाम,

     पाना तो है बहुत ख़ूब!

पर रुक कर साँस लेने,

     ज़िंदा रहने को,

धरती पर टिके रहना भी है ज़रूरी!

 

भूले हुए पंछी,

    भटके हुए परिंदो,

फिर लौट आओ,

    अपने बसेरों की ओर……!           

 

© बलजीत कौर ‘अमहर्ष’    

सहायक आचार्या, हिन्दी विभाग, कालिन्दी महाविद्यालय, दिल्ली

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 6 ☆ स्त्री क्या है? ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। उनके  “साप्ताहिक स्तम्भ  -साहित्य निकुंज”के  माध्यम से अब आप प्रत्येक शुक्रवार को डॉ भावना जी के साहित्य से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ. भावना शुक्ल जी की  एक भावप्रवण कविता   “स्त्री क्या है ?”। ) 

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 6  साहित्य निकुंज ☆

 

☆ स्त्री क्या है ? 

 

क्या तुम बता सकते हो

एक स्त्री का एकांत

स्त्री

जो है बेचैन

नहीं है उसे चैन

स्वयं की जमीन

तलाशती एक स्त्री

क्या तुम जानते हो

स्त्री का प्रेम

स्त्री का धर्म

सदियों से

वह स्वयं के बारे में

जानना चाहती है

क्या है तुम्हारी नजर

मन बहुत व्याकुल है

सोचती है

स्त्री को किसी ने नहीं पहचाना

कभी तुमने

एक स्त्री के मन को है  जाना

पहचाना

कभी तुमने उसे रिश्तों के उधेड़बुन में

जूझते देखा है..

कभी उसके मन के अंदर झांका है

कभी पढ़ा है

उसके भीतर का अंतर्मन.

उसका दर्पण.

कभी उसके चेहरे को पढ़ा है

चेहरा कहना क्या चाहता है

क्या तुमने कभी महसूस किया है

उसके अंदर निकलते लावा को

क्या तुम जानते हो

एक स्त्री के रिश्ते का समीकरण

क्या बता सकते हो

उसकी स्त्रीत्व की आभा

उसका अस्तित्व

उसका कर्तव्य

क्या जानते हो तुम ?

नहीं जानते तुम कुछ भी..

बस

तुम्हारी दृष्टि में

स्त्री की परिभाषा यही है ..

पुरुष की सेविका ……

 

© डॉ भावना शुक्ल

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