हिन्दी साहित्य – कविता – * रसोई * – सुश्री मीनाक्षी भालेराव 

सुश्री मीनाक्षी भालेराव 

रसोई

(कवयित्री सुश्री मीनाक्षी भालेराव जी का e-abhivyakti में स्वागत है।)

 

जब हर रोज़ रसोई घर में
कैद हो जाती है सांसें
कुछ बदल नहीं सकती हूँ
अपनी सीमाओं को तब
कभी कभी खाने में परोस
दिया करती हूँ ।

अपना भरोसे से भरा परांठा
अपनी खुशी, नाराजगी, उदासी की मिक्स सब्जी
टुटे, बिखरे, सहमे ख्यालों का पुलाव
कभी तीखे, खट्टे, रूखे स्वभाव को
ढेर सारा उंडेल कर
बेस्वाद, बदहजमी वाला खाना
कभी-कभी खाने में परोस देती हूँ ।

खाने की टेबल पर बिछा देतीं हूँ
अपनी अधुरी महत्वाकांक्षाएं से बुना
टेबल क्लोथ
खाली ग्लास में भर देती हूँ
उम्मीदों का पानी ।

थाली, कटोरी, चम्मच जब सब को
भर देती हूँ
अपनी आंखों की नमीं से
मुंह में कैद हुऐ अलफाजों से
कुछ गीले लम्हों से
और थोड़ी सी खामोशी से

तब अस्तित्व टूट कर टेबिल के
नीचे बिखर जाता है
जूठन सा और
आत्मविश्वास सहम जाता है
खरखट सा हो जाता है ।

© मीनाक्षी भालेराव, पुणे 

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हिन्दी साहित्य – कविता – * गीत * – सुश्री गुंजन गुप्ता

सुश्री गुंजन गुप्ता

(युवा  कवयित्री  सुश्री गुंजन गुप्ता जी का e-abhivyakti में स्वागत है।)

गीत 

मैं चन्दा की  धवल चांदनी,
तू सिन्दूरी शाम पिया।
मन्द-मन्द अधरों में पुलकित,
तू मेरी मुस्कान पिया॥

जैसे ब्रज की विकल गोपियाँ,
उलझ गयी हों सवालों में।
जैसे तम के दिव्य सितारे,
गुम हो जाएँ  उजालों में।
बेसुध हो जाऊँ जिस मधुर-मिलन में,
तू ऐसी मुलाक़ात पिया॥

संदली स्वप्न की मिट्टी में,
बोकर अपने जीवन मुक्ता को।
भावों की नयी कोपलों को,
सींचा नित नयनों के जल से।
भीग जाऊँ जिस प्रेम सुधा से,
तू ऐसी बरसात पिया॥

मैं चन्दा की धवल चांदनी
तू सिन्दूरी शाम पिया।
मन्द-मन्द अधरों में पुलकित
तू मेरी मुस्कान पिया॥

 

© सुश्री गुंजन गुप्ता

गढ़ी मानिकपुर,  प्रतापगढ़़ (उ प्र)

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हिन्दी साहित्य – कविता – * पेंसिल की नोक * – सुश्री नूतन गुप्ता

सुश्री नूतन गुप्ता 

 

पेंसिल की नोक

(संयोग से  इसी जमीन  पर इसी  दौरान एक और कविता  की रचना श्री  विवेक चतुर्वेदी जी द्वारा पेंसिल की तरह बरती गई घरेलू स्त्रियां के शीर्षक से रची गई। मुझे आज  ये  दोनों कवितायें  जिनकी अपनी अलग  पहचान है, आपसे साझा करने में अत्यन्त प्रसन्नता हो रही है। 

प्रस्तुत है  सुश्री  नूतन गुप्ता  जी की भावप्रवण कविता ।)

 

छिलते छिलते घायल हो गई ये पेंसिल की नोक
लिखने के अब क़ाबिल हो गई ये पेंसिल की नोक।
मीठा लिखते रहना इस पेंसिल की आदत था
आज अचानक क़ातिल हो गई ये पेंसिल की नोक
हरदम इसके लफ़्ज़ों से बस लहू टपकता था
पायल जैसी पागल हो गई ये पेंसिल की नोक।
कभी मनाती फिरती थी नाराज़ समंदर को
अब कितनों का साहिल हो गई ये पेंसिल की नोक
नूतन’ क्या मालूम नहीं था फटे मुक़द्दर की है तू
खुशियों में क्यूँ गाफ़िल हो गई ये पेंसिल की नोक।

©  नूतन गुप्ता

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हिन्दी साहित्य – कविता – * पेंसिल की तरह बरती गई घरेलू स्त्रियां * – श्री विवेक चतुर्वेदी

श्री विवेक चतुर्वेदी 

पेंसिल की तरह बरती गई घरेलू स्त्रियां

(संयोग से  इसी जमीन  पर इसी  दौरान एक और कविता  की रचना सुश्री नूतन गुप्ता जी द्वारा “पेंसिल की नोक “ के शीर्षक से रची गई। मुझे आज  ये  दोनों कवितायें  जिनकी अपनी अलग  पहचान है, आपसे साझा करने में अत्यन्त प्रसन्नता हो रही है। 

प्रस्तुत है जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी की भावप्रवण कविता ।)

 

पेंसिल की तरह बरती गई घरेलू स्त्रियां”
फेंकी गईं खीज और ऊब से…
मेज और सोच से गिराई गईं
गिर कर भी बची रह गई उनकी नोक
पर भीतर भरोसे का सीसा टूट गया
उठा कर फिर फिर चलाया गया उन्हें
वे छिलती रहीं बार-बार
उनकी अस्मिता बिखरती रही
घिट के कद बौना होता गया
उन्हें घर से बाहर नहीं किया गया
वे जरूरत पर मिल जाने वाले
सामान की तरह रखी गईं
रैक के धूल भरे कोनों में
सीलन भरे चौकों और पिछले कमरों में
उन्हें जगह मिली
बच्चे भी उन्हें अनसुना करते रहे…
पेन और पिता से कमतर देखा.. जो दफ्तर जाते थे
हमेशा गलत बताई गई उनकी लिखत.. अनंतिम रही..
जो मिटने को अभिशप्त थी
वे साथ रह रहीं नई और पुरानी पेंसिलों
और स्त्रियों से झगड़ती रहीं
यही सुख था.. जो उन्हें हासिल था
बरस बरस कम्पास बॉक्स और तंग घरों में
पुरुषों और पैनों के नीचे दबकर
चोटिल आत्मा लिए
अपनी देह से प्रेम लिखती रहीं
पर चूड़ीदार ढक्कनों  में बंद रहे पुरुष
उनकी तरलता स्याही की तरह
बस सूखे कागजों में दर्ज हुई
पेंसिल की तरह बरती गईं घरेलू स्त्रियां।।
© विवेक चतुर्वेदी, जबलपुर 

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हिन्दी साहित्य- कविता – * …. तो ज़िंदगी मिले * – डॉ उमेश चन्द्र शुक्ल

डॉ उमेश चन्द्र शुक्ल  

…. तो ज़िंदगी मिले 

(प्रस्तुत है  डॉ उमेश चंद्र शुक्ल जी  की एक बेहतरीन गजल)

 

जी डी पी उछल रही हमें फक्र है खुदा,
तू खैरात बाँटना  छोड़ दे तो जिंदगी मिले॥1॥

खेतों में सपने बोये फसल काटे जहर का,
रब को अगर तू बख्श दे तो ज़िंदगी मिले॥2॥

ऊपर औ नीचे बीच में मध्यम है पिस रहा,
नज़रें इनायत हो तो इधर ज़िंदगी मिले ॥3॥

जय जवान, जय किसान, विज्ञान की है जय,
तू धर्म बेचना  छोड़ दे तो जिंदगी मिले ॥4॥

मजबूर नहीं था कभी, अब मजलूम हो गया,
मज़लूमों को अगर बख्श दे तो जिंदगी मिले ॥5॥

हमने खून-पसीने से सींचा है हिंदुस्तान ‘उमेश’
तू खून पीना छोड़ दे अगर तो जिंदगी मिले ॥6॥

©  डॉ उमेश चन्द्र शुक्ल

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हिन्दी साहित्य – कविता – * चलो बुहारें….. * – डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

चलो बुहारें…..

 

चलो जरा कुछ देर स्वयं के

अंतर में मुखरित हो जाएं

अपने मन को मौन सिखाएं।

 

जीवन को अभिव्यक्ति देना

शुष्क रेत में नौका खेना

दूर क्षितिज के स्वप्न सजाए

पंखहीन पिंजरे की मैना,

बधिर शब्द बौने से अक्षर

वाणी की होती सीमाएं। अपने मन को…..

 

बिन जाने सर्वज्ञ हो गए

बिन अध्ययन, मर्मज्ञ हो गए

भावशून्य, धुंधुआते अक्षर

बिन आहुति के यज्ञ हो गए,

समिधा बने, शब्द अंतस के

गीत समर्पण के तब गायें। अपने मन को…..

 

तर्क वितर्क किये आजीवन

करता रहा जुगाली ये मन

रहे सदा अनभिज्ञ स्वयं से

पतझड़ सा यह है मन उपवन,

महक उठें महकाएं जग को

क्यों न हम बसन्त बन जाएं। अपने मन को…..

 

कब तक भटकेंगे दर-दर को

पहचानें सांसों के स्वर को

खाली हों कल्मष कषाय से

चलो बुहारें अपने घर को

करें किवाड़ बन्द, बाहर के

फिर भीतर, एक दीप जलाएं। अपने मन को….

 

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

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हिन्दी साहित्य – कविता – * दुनिया भर के बेटों की ओर से… * – श्री विवेक चतुर्वेदी

श्री विवेक चतुर्वेदी 

दुनिया भर के बेटों की ओर से…

(प्रस्तुत है जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी की एक भावप्रवण कविता  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय)

 

एक दिन सुबह सोकर

तुम नहीं उठोगे बाबू…

बीड़ी न जलाओगे

खूँटी पर ही टंगा रह जाएगा

अंगौछा…

उतार न पाओगे

 

देर तक सोने पर

हमको नहीं गरिआओगे

कसरत नहीं करोगे ओसारे

गाय की पूँछ ना उमेठेगो

न करोगे सानी

दूध न लगाओगे

 

सपरोगे नहीं बाबू

बटैया पर चंदन न लगाओगे

नहीं चाबोगे कलेवा में बासी रोटी

गुड़ की ढेली न मंगवाओगे

सर चढ़ेगा सूरज

पर खेत ना जाओगे

 

ओंधे पड़े होंगे

तुम्हारे जूते बाबू…

पर उस दिन

अम्मा नहीं खिजयाऐगी

जिज्जी तुम्हारी धोती

नहीं सुखाएगी

बेचने जमीन

भैया नहीं जिदयाएंगे

 

उस दिन किसी को भी

ना डांटोगे बाबू

जमीन पर पड़े अपलक

आसमान ताकोगे

पूरे घर से समेट लोगे डेरा बाबू … तुम

दीवार पर टंगे चित्र

में रहने चले जाओगे

फिर पुकारेंगे तो हम रोज़

पर कभी लौटकर ना आओगे ।।

 

© विवेक चतुर्वेदी

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हिन्दी साहित्य – कविता – * रौशनाई * – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

रौशनाई

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी की  एक  भावप्रवण कविता।)

 

ये क्या हुआ, कहाँ बह चली ये गुलाबी पुरवाई?

क्या किसी भटके मुसाफिर को तेरी याद आई?

 

बहकी-बहकी सी लग रही है ये पीली चांदनी भी,

बादलों की परतों के पीछे छुप गयी है तनहाई!

 

क्या एक पल की रौशनी है,अंधेरा छोड़ जायेगी?

या फिर वो बज उठेगी जैसे हो कोई शहनाई?

 

डर सा लगता है दिल को सीली सी इन शामों में,

कहीं भँवरे सा डोलता हुआ वो उड़ न जाए हरजाई!

 

ज़ख्म और सह ना पायेगा यह सिसकता लम्हा,

जाना ही है तो चली जाए, पास न आये रौशनाई!

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – * पुरानी दोस्त * – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

पुरानी दोस्त

(जीवन के कटु सत्य को उजागर करती सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी की  एक  भावप्रवण कविता।)

कभी

वो तुम्हारी पक्की सहेली हुआ करती होगी,

एक दूसरे का हाथ थामे हुए

तुम दोनों साथ चला करते होगे,

ढलती शामों में तो

अक्सर तुम उसके कंधों पर अपना सर रख

उससे घंटों बातें किया करते होगे,

और सीली रातों में

उसकी साँसों में तुम्हारी साँस

घुल जाया करती होगी…

 

तब तुम्हें यूँ लगता होगा

तुम जन्मों के बिछुड़े दीवाने हो

और बिलकुल ऐसे

जैसे तुम दोनों बरसों बाद मिले हो

तुम उसे अपने गले लगा लिया करते होगे…

 

तुम उसे दोस्त समझा करते थे,

पर वो तुम्हारी सबसे बड़ी दुश्मन थी!

 

यह तो अब

तुमने बरसों बाद जाना है

कि तनहाई का

कोई अस्तित्व था ही नहीं,

ये तो तुम्हारे अन्दर में बसी थी

और तुम्हारे कहने पर ही निकलती थी…

 

सुनो,

एक दिन तुम उठा लेना एक तलवार

और उसके तब तक टुकड़े करते रहना

जब तक वो पूरी तरह ख़त्म नहीं हो जाए…

 

उसके मरते ही

तुम्हारे ज़हन में

जुस्तजू जनम लेगी

और तब तुम्हें

तनहाई नामक उस पुरानी सहेली की

याद भी नहीं आएगी…

 

© नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की साहित्यकार हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। वर्तमान में  आप जनरल मैनेजर (विद्युत) पद पर पुणे मेट्रो में कार्यरत हैं।)

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हिन्दी साहित्य – ग़ज़ल – डॉ हनीफ

डॉ हनीफ

 

(डॉ हनीफ का e-abhivyakti में स्वागत है। डॉ हनीफ स प महिला  महाविद्यालय, दुमका, झारखण्ड में प्राध्यापक (अंग्रेजी विभाग) हैं । आपके उपन्यास, काव्य संग्रह (हिन्दी/अंग्रेजी) एवं कथा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।)

गजल 

देख तस्वीर उनकी, उनकी याद आ गई

छुपी थी जो तहरीर उनकी,उनकी याद आ गई।

 

कहते हैं शीशे में कैद है उनकी जुल्फें

दफ़न हुए कफ़न कल की,उनकी याद आ गई।

 

क़मर छुप गया देख तसव्वुर महक की

खिली धूप में खिली हुई,उनकी याद आ गई।

 

लम्हें खता कर हो गई गाफिल फिर

आरजू आंखों में लिपटी रही,फ़क़त उनकी याद आ गई।

 

तन्हाइयों में भी तन्हा साये में खोई सी

दर्द जब इंतहा से गुजरी,उनकी याद आ गई।

 

खार चुभी जब जिगर में उनके गुजरने की,उनकी याद आ गई।

उनकी यादों के आंचल में हुई परवरिश,क़ज़ा हुई तो उनकी याद आ गई।

 

© डॉ हनीफ 

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