हिन्दी साहित्य – कविता – ‘नदी रुकती नहीं ’ – डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’
डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’
(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन)
नदी रुकती नहीं
पहाड़ से गिरकर भी
घुटने नहीं टेकती
उछलती,उफनती हुई
आगे बढ़ती है
शिलाखण्डों को दोनों हाथों से
ढकेलती है
यह नदी है
नदी रुकती नहीं
कहीं ठहरकर
उसे झील नहीं बनना है
कोई पोखर नहीं होना है
काई-कुंभी नहीं ढोना है
उसे बस बहना है
बहना ही है
नदी की असली पहचान
अपनी पहचान उसे नहीं खोना है
यही तो नदी का नदी होना है.
© डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’
हिन्दी साहित्य – कविता – धूप-छांव……. – डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
धूप-छांव…….
जीवन में दिन हैं तो, फिर रातें भी है
है मनमोहक फूल तो फिर कांटे भी है।
कुछ खोया तो, बदले में कुछ पाना है
कहीं रूठना है तो, कहीं मनाना है,
हुए मौन तो, मन में कुछ बातें भी है
जीवन में दिन————–
मिलन जुदाई का, आपस में नाता है
सम्बन्धों का मूल्य, समझ तब आता है
टूटे रिश्ते तो, नवीन नाते भी हैं
जीवन में दिन————-
है विश्वास अगर तो, शंकाएं भी है
मन में है यदि अवध तो,लंकायें भी है
प्रेम समन्वय भी, अन्तरघातें भी हैं
जीवन में दिन…………….
है पूनम प्रकाश तो, फिर मावस भी है
शुष्क मरुस्थल कहीं,कहीं पावस भी है
तृषित कभी तो, तृप्त कभी पाते भी हैं
जीवन में दिन………………
है पतझड़ आंगन में तो, बसन्त भी है
जन्में हैं तो, इस जीवन का अंत भी है
रुदन अगर दुख में, सुख में गाते भी हैं
जीवन में दिन————–
टूट टूट जो, जुड़ते और संवरते हैं
पीड़ाओं में गीत, मधुरतम गढ़ते हैं
व्यथित हृदय, दर्दों को सहलाते भी हैं
जीवन में दिन है तो फिर रातें भी है
है मनमोहक फूल तो फिर कांटे भी हैं।
© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
हिन्दी साहित्य – कविता – ‘कोई बताएं हमें’ – डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’
डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’
(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन)
कोई बताएं हमें
कोई बताए हमें
कि क्यों न लिखी जाए यह ख़बर
कि हर ख़बर
आंख में तिनके की तरह
चुभती है
हर अख़बार
डरावना लगता है
और,
गर्दन रेतता हुआ
दिल चाक- चाक कर जाता है
सोशल मीडिया भी
अखबार पलटते हुए
लगता है कि पन्ने -पन्ने से
बलात्कारी बाहर आ रहे हैं
टीवी का बटन दबाने से पहले
मन में खटका होता है कि कहीं
क्रूर और बर्बर हत्यारे
स्क्रीन से बाहर
न आ जाएं
अपने-अपने तमंचे और बंदूके ताने हुए
कहीं निकल न पड़ें झुंड के झुंड जंगली कुत्ते
भूखे भेड़िए, लकड़बग्घे
कहीं स्क्रीन के आकाश से उतरने न लगें
उल्लू, चील, बाज और कव्वे
कर दें आक्रमण एक साथ
उस गौरैया पर
जो उड़ना चाहती है जी भर कर!
© डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’
हिन्दी साहित्य- कविता – गैस त्रासदी – हेमन्त बावनकर
हेमन्त बावनकर
गैस त्रासदी
(आज से 34 वर्ष पूर्व 2-3 दिसंबर 1984 की रात यूनियन कार्बाइड, भोपाल से मिक गैस रिसने से कई लोगों की मृत्यु हो गई थी । मेरे काव्य -संग्रह ‘शब्द …. और कविता’ से उद्धृत गैस त्रासदी पर श्रद्धांजलि स्वरूप।)
हम
गैस त्रासदी की बरसियां मना रहे हैं।
बन्द
हड़ताल और प्रदर्शन कर रहे हैं।
यूका और एण्डर्सन के पुतले जला रहे हैं।
जलाओ
शौक से जलाओ
आखिर
ये सब
प्रजातंत्र के प्रतीक जो ठहरे।
बरसों पहले
हिटलर के गैस चैम्बर में
कुछ इंसान
तिल तिल मरे थे।
हिरोशिमा नागासाकी में
कुछ इंसान
विकिरण में जले थे।
तब से
हमारी इंसानियत
खोई हुई है।
अनन्त आकाश में
सोई हुई है।
याद करो वे क्षण
जब गैस रिसी थी।
यूका प्रशासन तंत्र के साथ
सारा संसार सो रहा था।
और …. दूर
गैस के दायरे में
एक अबोध बच्चा रो रहा था।
ज्योतिषी ने
जिस युवा को
दीर्घजीवी बताया था।
वह सड़क पर गिरकर
चिर निद्रा में सो रहा था।
अफसोस!
अबोध बच्चे….. कथित दीर्घजीवी
हजारों मृतकों के प्रतीक हैं।
उस रात
हिन्दू मुस्लिम
सिक्ख ईसाई
अमीर गरीब नहीं
इंसान भाग रहा था।
जिस ने मिक पी ली
उसे मौत नें सुला दिया।
जिसे मौत नहीं आई
उसे मौत ने रुला दिया।
धीमा जहर असर कर रहा है।
मिकग्रस्त
तिल तिल मौत मर रहा है।
सबको श्रद्धांजलि!
गैस त्रासदी की बरसी पर स्मृतिवश!
© हेमन्त बावनकर
हिन्दी साहित्य- कविता – ‘दिल्ली’ – डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’
डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’
(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन)
दिल्ली
किसे समझते हैं आप दिल्ली!
जगमगाती ज्योति से नहाए
लोकतंत्र की पालकी उठाए खड़े लकदक
संसद,राष्ट्रपति और शास्त्रीभवन
व्य्यापारिक व कूटनीतिक बाँहैं फैलाए
युद्धिष्ठिर को गले लगाने को आतुर
लोहे के धृतराष्ट्र-से बेचैन
दुनिया भर के राष्ट्रों के दूतावास,
विश्वस्वास्थ्य संगठन,बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मुख्यालय
सर्वोच्च न्यायालय,एम्स और
जवाहर लाल नेहरू विश्वद्यालय
यानी न्याय,स्वास्थ्य,अर्थ और शिक्षा के
नित नए सांचे-ढाँचे, गढ़ते -तोड़ते संस्थान
इतिहास,धर्म,संस्कृति,साहित्य और कला को
छाती पेटे लगाए
लालकिला, कुतुबमीनार, शीशमहल
अक्षरधाम, ज़ामामस्ज़िद, इंडियागेट, चाँदनी चौक
रामलीला मैदान, प्रगति मैदान, ललित कला अकादमी, हिंदी अकादमी, ज्ञानपीठ,
वाणी, राजकमल, किताबघर जैसे
अद्भुत विरासत साधे
स्थापत्य, स्थान और प्रतिष्ठान
आखिर किसे समझते हैं आप दिल्ली !
कल-कारखानों का विष पीती-पिलाती
काँखती,कराहती बहती
काली-कलूटी कुब्जा यमुना
दिल्ली और एन सी आर के बीचोबीच
अपने पशुओं के लिए घास ढोती
उपले थापती आधी दुनिया
माने औरत जाति
आखिर किसे कहते हैं आप दिल्ली!
मिरांडा हॉउस, लेडी श्रीराम कॉलेज में
किताबों में सर गाड़े
या किसी पब्लिक स्कूल के पीछे वाले भूभाग में
बड़े पेड़ या झाड़ की आड़ में स्मैक के आगोश में
छिपके बैठी होनहार पीढ़ी
रेडलाइट इलाके में छापे मारती हाँफती भागती पुलिस
पंचतारों में बिकने को आतुर किशोरियाँ
और उनको ढोते दलाल
बोलो! किसे पुकारेंगे आप दिल्ली?
ओला, ऊबर को चलते-चलते बुक करती
मालों में काम को सरपट जाती लड़कियाँ
मेट्रो, बस या बाज़ार में
पर्स और मोबाइल मारते जेबकतरे
चिचिलाती धूप और शीत लहर में
पानी की लाइन में खड़े बच्चे-बूढ़े और अधेड़
क्या ये भी नहीं है दिल्ली?
संघ लोक सेवा आयोग की अग्नि परीक्षा में
घर-बार की होलिका जलाए
ककड़ी-से फटे होठों को चाटते
कोचिंगों की परिक्रमा करते तरुण
क़र्ज़ में डूबे किसान-से
चिंताओं के पहाड़ के साथ
अपना स्ववृत्त लादे रोज़गार खोजते युवा
चौराहों पर बाबू जी !बाबू जी !
चिल्लाते सहमे हुए पास आते
झिड़कियां खाकर भी हाथ बाँधे
आशा में खड़े मज़दूर
इनमें सबके सब दिल्ली के भले न हों
पर इन में भी खोज सकते हैं आप दिल्ली।
दिल्ली सिर्फ जन प्रतिनिधियों की आबादी नहीं है
बीमारी से बचे पैसों से साग सब्जी लाते
आम आदमियों के हिस्से में भी है
कुछ दिल्ली
इसे धृतराष्ट्र के हवाले किया तो
हस्तिनापुर के झगड़े में
निर्वस्त्र हुई द्रोपदी -सी
हाहाकारी हो सकती है दिल्ली
बारबाला भी नहीं है दिल्ली
जो सुरा परोसे और मुस्काए
और, किसी नगर सेठ की जंघा पर बैठ जाए
दिल्ली सिर्फ और सिर्फ़ सफ़ेद खादी नहीं है
दिल्ली बहुत कुछ स्याह भी है
उसके बरक्स
मलमली रंगीनियाँ भी हैं दिल्ली में।
दिल्ली में कुछ के ही होते हैं हफ्ते में पाँच दिन
बाक़ी के हिस्से में चौबीस घंटों वाला
सात दिन का ही है सप्ताह
क्या सोचते हैं दिल्ली के बारे में आप!
धक्कामुक्की हो सकती है मेट्रो और बसों में
पर केवल भीड़ भी नहीं है दिल्ली
दिल्ली में कोई पूछ भी सकता है
परिवार के हाल-चाल और नहीं भी
एकांत में थाम सकता है कोई हाथ
अपना सकता है जीवन भर के लिए
पल में छूट सकता है कोई हाथ
पुकारने पर दूर -दूर तक नहीं दिख सकती है
कोई आदम की छाया भी
लेकिन दिल्ली निर्जन भी नहीं है
डियरपार्क में बतकही हो सकती है
विश्वनाथ त्रिपाठी से
किसी आयोजन में मिल सकते हैं
नामवर सिंह और मैनेजर पाण्डे
हरनोट और दिविक रमेश
‘काला पहाड़’ लादे रेगिस्तान की रेत
फाँकते आए मोरवाल
या उसे धकेलते
देश के कोने-कोने से आए
कई साहित्यकार छोटे-बड़े गुट में
यानी निर्गुट भी नहीं है दिल्ली
दिल्ली में दल हैं दलों के कीचकांदो से उपजे
जानलेवा दलदल भी हैं दिल्ली में
नेता,अभिनेता,व्यापारी,चोर,दिवालिया,साहित्यकार
नाटककार,साहूकार हो या फिर चोर छिनार,
दिल्ली में बसना सब चाहते हैं
लेकिन बसाना कोई नहीं चाहता है दिल से
किसी को अपनी -अपनी दिल्ली में
बसाने को बसाते भी हैं जो नई दिल्ली
वे बस संख्या लाते हैं दिल्ली में
इनमें केवल साहित्यकार ही नहीं हैं
जो बनाने को मठ
उदारतावश ढोते रहे हैं यह संज्ञाविहीन संख्या
ला-ला के भरते रहे हैं
अपना गाँव,देश-जवार बाहर-बाहर से
गुडगांवा,गाज़ियाबाद,फरीदाबाद वाली दिल्ली में
शकूर और दयाबस्ती में
नेता भी कुछ कम नहीं हैं इनमें अग्रणी
कौन पूछे कि किस वजह से
आधे से ज़्यादा नेता और साहित्यकर ही
बसते हैं हमारी दिल्ली में?
आपको भी बनना है कुछ तो आ जाओ दिल्ली
छानो ख़ाक
किसी का लंगोट छाँटो या पेटीकोट
शर्माओ मत
कविता हो या राजनीति
सब गड्डमड्ड कर डालो
बढ़ो आगे
गढ़ो नए प्रतिमान
जिसमें कुछ न हो उसमें ही सबकुछ दिखाओ
और सबकुछ वाली पांडुलिपि को कूड़ा बताओ
तभी तो तुम्हारा प्रातिभ दरसेगा
सर्जक यदि कुबेर हुआ तो धन यश सब बरसेगा
और जब कुछ हो जाओ तो फिर देर मत लगाओ
गुट बनाओ जैसे बनाया था तुम्हारे गुरु ने
सबसे पहले उसी को पटखनी दो
जिसका छांटा है दिन-रात लंगोट
फिर क्या है
मज़े से शराब पी-पीकर जिस-तिस को गरियाओ
पगुराओ गंधाती आत्म कथा
यह भी इसी दिल्ली की एक हृष्ट-पुष्ट यानी
स्वस्थ ,साहित्यिक और सांस्कृतिक परंपरा है।
खैर छोड़ो!यह तो रही हमारी अपनी बताओ
आखिर आप किसे मानते हैं दिल्ली!
© डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’
हिन्दी साहित्य- कविता – (गंगा) माँ से संवाद – श्री सदानंद आंबेकर
श्री सदानंद आंबेकर
(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है। गायत्री तीर्थ शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से निरंतर प्रवास।
हम श्री सदानंद आंबेकर जी के आभारी हैं इस अत्यंत मार्मिक काव्यात्मक संवाद के लिए जो हमें ही नहीं हमारी अगली पीढ़ी के लिए भी एक संदेश है। )
© सदानंद आंबेकर
हिन्दी साहित्य- कविता – यह जो विधान भवन है न – डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’
डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’
(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन)
यह जो विधान भवन है न
एक दिन मेरी माँ
आँगन में बने मिट्टी के चूल्हे से
इकलौती बची लकड़ी
खींचते हुए कह रही थी
‘यह जो विधानभवन है न
अपने प्रदेश का
यहाँ बहुत बड़ा जंगल था कभी
शेर,बाघ,भालू ,भेड़िए और लोमड़ी तक
निर्द्वंद्व रहते थे इनमें
पेड़ों पर छोटी चिड़ियों से लेकर
तोतों और कबूतरों के
झुंड के झुंड बसा करते थे उसमें
बाजों और गिद्धों के डेरे रहते थे
जंगल कटा तो
सब जानवर उसी भवन में छिप गए ‘
और चिड़ियां?
आँगन में एक रोटी के इंतज़ार में बैठे-बैठे
मैंने पूछ ही लिया तपाक से
बोली ,’देखो न
आँगन में कौन मंडरा रही हैं
चोंच भर आटे की फिराक में
और तोते ,कबूतर आदि?
इस पर माँ बोली
‘इन्हें बाज और गिद्ध खा गए’
और गिद्धों को कौन खा गया माँ ?
इतना सुनते ही माँ बिफर पड़ी
‘इंसान और कौन बेटा ?’
© डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’
हिन्दी साहित्य – कविता – जब मैं छोटा बच्चा था – डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
जब मैं छोटा बच्चा था
जब मैं छोटा बच्चा था
तब सब कुछ अच्छा था
दादाजी कहते हैं, मेरे
तब मैं सच्चा था ।
तब न खिलोने थे ऐसे
मंहंगे रिमोट वाले
नहीं कभी बचपन ने
ऊंच नीच के भ्रम पाले
टी.वी.फ्रिज, कम्प्यूटर
ए. सी.नहीं जानते थे
आदर करना, एक-दूजे का
सभी मानते थे।
तब न स्कूटर कार कहीं थे
घर भी कच्चा था………
चाचा,मामा, मौसी,दादा
रिश्ते खुशबू के
अंकल,आंटी, माम् डेड,ब्रा
नाम न थे, रूखे
गिल्ली-डंडे, कौड़ी-कंचे
खेल, कबड्डी कुश्ती
खूब तैरना, नदी-बावड़ी
तन-मन रहती चुस्ती।
बड़े बुजुर्ग, मान रखते
बच्चों की इच्छा का……….
दहीं-महीं और दूध-मलाई
जी भर खाते थे
शक्तिवर्धक देशी व्यंजन
सब को भाते थे
सेन्डविच,पिज्जा-बर्गर का
नाम निशान न था
रोगों को न्योता दे
ऐसा खान-पान नहीं था।
बुड्ढी के वे बाल
शकर का मीठा लच्छा था………
हमें बताते, दादाजी
तब की सारी बातें
सुन कर खुश तो होते
पर, संशय में पड़ जाते
अचरज तो होता, सुनकर
जो भी वे, बतलाते
सहज,सरल शिक्षा
नीति की ज्ञान भरी बातें।
पर जब भी, जो कहा
उन्होंने बिल्कुल सच्चा था…..
© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
हिन्दी साहित्य – कविता – वे अद्भुत क्षण! – श्री हेमन्त बावनकर
हेमन्त बावनकर
वे अद्भुत क्षण!
याद करें
वे अद्भुत क्षण?
जिन्हें आपने बरसों सँजो रखे हैं
सबसे छुपाकर
बचपन के जादुई बक्से में,
डायरी के किसी पन्ने में,
मन के किसी कोने में,
एक बंद तिजोरी में।
जब कभी
याद आते हैं,
वे अद्भुत क्षण?
तब कहीं खो जाता है।
वो बचपन का जादुई बक्सा,
वो डायरी का पन्ना,
वो बंद तिजोरी की चाबी
होने लगती है बेताबी।
साथ ही
खोने लगता है
वो मासूम बचपना
वो अल्हड़ जवानी
और लगने लगती है
सारी दुनिया सयानी।
भीग जाता है
वो मन का कोना
वो आँखों का कोना।
बरबस ही
याद आ जाते हैं
वे अद्भुत क्षण!
जब थी रची
सबसे प्रिय कृति
कविता, संस्मरण,
व्यंग्य, लेख, कहानी
और
खो गई है उनकी प्रति।
जब था उकेरा
साफ सुथरे केनवास पर,
विविध रंगों से सराबोर,
मनोभावों का बसेरा।
जब था रखा
मंच/रंगमंच पर प्रथम कदम
और
साथ कोई भी नहीं था सखा।
तालियाँ सभी ने थी बजायीं
किन्तु,
स्वयं को स्वयं ने ही था परखा।
यह मेरी प्रथम
अन्योन्यक्रियात्मक (Interactive) कविता है
जो
आपसे सीधा संवाद करती है।
मनोभावों की शब्द सरिता है
किन्तु,
आपसे बहुत कुछ कहती है।
ई-अभिव्यक्ति के मंच पर
आपसे उपहार स्वरूप
आपकी सबसे प्रिय कृति लानी है।
जो मुझे
आपकी जुबानी
सारी दुनिया को सुनानी है।
© हेमन्त बावनकर