हिन्दी साहित्य – कविता – भारत का भाषा गीत – आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल जी की हिन्दी एवं भारत की समस्त भाषाओं तथा देशप्रेम से ओत प्रोत कविता।

भारत का भाषा गीत 

*
हिंद और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
भाषा सहोदरा होती है, हर प्राणी की
अक्षर-शब्द बसी छवि, शारद कल्याणी की
नाद-ताल, रस-छंद, व्याकरण शुद्ध सरलतम
जो बोले वह लिखें-पढ़ें, विधि जगवाणी की
संस्कृत सुरवाणी अपना, गलहार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
असमी, उड़िया, कश्मीरी, डोगरी, कोंकणी,
कन्नड़, तमिल, तेलुगु, गुजराती, नेपाली,
मलयालम, मणिपुरी, मैथिली, बोडो, उर्दू
पंजाबी, बांगला, मराठी सह संथाली
‘सलिल’ पचेली, सिंधी व्यवहार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
ब्राम्ही, प्राकृत, पाली, बृज, अपभ्रंश, बघेली,
अवधी, कैथी, गढ़वाली, गोंडी, बुन्देली,
राजस्थानी, हल्बी, छत्तीसगढ़ी, मालवी,
भोजपुरी, मारिया, कोरकू, मुड़िया, नहली,
परजा, गड़वा, कोलमी से सत्कार करें हम
हिंद और हिंदी की, जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
शेखावाटी, डिंगल, हाड़ौती, मेवाड़ी
कन्नौजी, मागधी, खोंड, सादरी, निमाड़ी,
सरायकी, डिंगल, खासी, अंगिका, बज्जिका,
जटकी, हरयाणवी, बैंसवाड़ी, मारवाड़ी,
मीज़ो, मुंडारी, गारो मनुहार करें हम
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम
*
देवनागरी लिपि, स्वर-व्यंजन, अलंकार पढ़
शब्द-शक्तियाँ, तत्सम-तद्भव, संधि, बिंब गढ़
गीत, कहानी, लेख, समीक्षा, नाटक रचकर
समय, समाज, मूल्य मानव के नए सकें मढ़
‘सलिल’ विश्व, मानव, प्रकृति-उद्धार करें हम
हिन्द और हिंदी की जय-जयकार करें हम
भारत की माटी, हिंदी से प्यार करें हम

विश्ववाणी हिंदी संस्थान

 २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१.
चलभाष: ९४२५१८३२४४, ईमेल: [email protected]

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ग़ज़ल – डॉ हनीफ

डॉ हनीफ

 

(डॉ हनीफ का e-abhivyakti में स्वागत है। डॉ हनीफ स प महिला  महाविद्यालय, दुमका, झारखण्ड में प्राध्यापक (अंग्रेजी विभाग) हैं । आपके उपन्यास, काव्य संग्रह (हिन्दी/अंग्रेजी) एवं कथा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।)

ग़ज़ल

श्वासें रुकी -रुकी सी चेहरा मुरझा गया है

आंखों से टपकती शबनम दिल आज खो गया है

दागे हसरत रो पड़ी है कलियों को याद करके

पंखुड़ियां भी सिसक उठी है,परिंदा जो कुचल गया है

आती तो होगी याद समंदर को भी तूफां

साहिल के नशेमन वीरान जो बन गया है

बादल थम-थम के रोने क्यों लगा है

जमीं तो बदल चुकी है फसलों से भर गया है

‘अकेला’ सोच सोच के न कर सेहत खराब अपना

वो दुनियां उजड़ चुकी है तेरे दिल में जो बस गया है।

 

         2.

देख लूं जो तुझको हम नजरों से बुला लेंगे

खता क्या हुई मेरी अश्कों से बता देंगे

कहाँ मिले थे कहाँ बिछुड़े थे ये मुझे याद नहीं

दिल की धड़कनें चलेगी जो रास्ता बता देंगे

जुस्तजू है मुझको कब से ये तुझे क्या पता

कूचों में लगे गुलशन तुझको गवाह देंगे

मौत भी अगर आये सो बार मर लूंगा मैं

मुस्कुराती नजरों से दामन जो थमा देंगे

‘अकेला’ दिन रात करता फरियाद खुदा से

जन्नत के बागों में दोनों को मिला देंगे ।

 

© डॉ हनीफ 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता – शेष कुशल है – श्री हेमन्त बावनकर

श्री हेमन्त बावनकर

 

शेष कुशल है

ये तीन शब्द

“शेष कुशल है”

काफी कुछ समेटे हैं

अपने आप में।

 

एक पुस्तक गढ़ दी है

इन तीन शब्दों नें।

मेरी चिट्ठी पढ़ी आपने

मैंने आपकी चिट्ठी पढ़ी

अपने आप में।

 

सच ही तो है

मन बड़ा चंचल है।

जाने क्या-क्या है सोचता?

जाने क्या-क्या है सुनता?

जैसे

हरि अनन्त

हरि कथा अनन्ता।

 

कुछ बातें चिट्ठी में

नहीं लिखी हैं जाती

अन्तर्मन की

पीड़ाएँ खुलकर के

मुखरित नहीं हैं होती।

 

वैसे तो आज

चिट्ठी कौन लिखता है?

सोशल मीडिया पर

नकली मुस्कराहट लिए चेहरा

और बेमन मन

दोनों ही दिखता है?

चिट्ठी उसे वही है लिखता

जिसका जमीर

कहीं नहीं है बिकता

या फिर

ऐसा हो मजमून

ताकि सनद रहे

वक्त जरूरत पर काम आवे।

 

गाँव की मिट्टी की सौंधी खुशबू

जाने कहाँ खो जाती है?

भैया भाभी की याद

सदा एकान्त में

सदा रुलाती है।

 

अलमारी सिरहाने में

चिट्ठी के एक-एक शब्द में

आपका अथाह प्रेम झलकता है।

एक-एक लिखी घटना से

सारा हृदय धड़कता है।

 

कितने भोले हो भैया

सारे गाँव की बात बताते हो।

अपना मर्म अपनी तकलीफ़ें

संकेतों में समझाते हो।

खुद आंबाहल्दी – चूना

गुड़ का लेप लगाते हो

और

भाभी के इलाज के खर्चे की

चिन्ता बहुत जताते हो।

 

आपका छोटे हूँ

ऐसी बहुत सी बाते हैं

लिखना मुश्किल है

अब क्या लिखूँ

बस

यही सोच सोच

अपना मन बहलाते हैं।

 

यह सच है कि

साठ सत्तर के बाद

हम सब

बोनस जीवन ही जीते हैं

और

अपने आपको

मुक्तिधाम की कतार में पाते हैं।

 

अब तो

मन साझा करने

चिट्ठियाँ लिखें भी तो

लिखें किसे?

 

आपकी लाड़ी भी छूट गईं!

 

बस

अब तो

खुद को ही लिखना है

और

खुद को ही पढ़ना है।

 

शेष कुशल है।

शेष कुशल है।

 

© हेमन्त बावनकर  

(वरिष्ठ साहित्यकार अग्रज  डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी की कृति  ‘शेष कुशल है’ से प्रेरित कविता।)

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य-कविता – पिता की याद – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

 

 

 

 

पिता की याद

 

पिता बैठते हैं कभी

कभी इधर कभी उधर,

कभी अमरूद के नीचे

कभी परछी के किनारे

कभी खोलते हैं कुण्डी

कभी बंद करते हैं किवाड़

गाय को डालते हैं चारा

बछिया को पिलाते दूध

लौकी की बेल पकड़ लेते

फिर खीरा तोड़ ले आते

अम्मा पर चिल्लाने लगते

आंगन के कचरे से चिढ़ते

चिड़ियों को दाना डाल देते

कभी चिड़चिड़े रोने लगते

बरसते पानी में भीगने लगते

पिता हर जगह मौजूद रहते

सूरज की रोशनी के साथ

पिता जब भी याद आते

तन मन में भूकंप भी लाते

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जय प्रकाश पाण्डेय, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा हिन्दी व्यंग्य है। )

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता – दुआ/प्रश्न  – डॉ भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(1)

दुआ
वे करते हैं दुआ
दीन दुनिया के लिए
और
मर जाते हैं बिना दवा के
वे
काटते हैं चक्कर
ओझा,पंडित और गुनिया के
ताने सहते हैं
दुनिया के।
जाहिल का खिताब पाते हैं
सहारा खोजते हैं
जादू-टोना या मंत्र का
दरअसल
वे शिकार है षड्यंत्र का
उन्हें न रोटी मिलती है
न दवा फिर भी वे देते हैं दुआ ।
संतोषी मन सोचता है
जो हुआ सो हुआ ।
जो हुआ सो हुआ ।
(2)
प्रश्न 
भजन से भूख
और
प्रार्थना से
युद्ध का अंत नहीं होता
ज्वालामुखिओं की चर्चा से
चूल्हे नहीं सुलग सकते
और
जुगनुओं के प्रकाश से
नहीं मर सकते अंधेरे ।
घेरे है
प्रश्न ।
हो सकता है
भेड़िए आदमी न बने
किंतु
कैसे रुक सकेगा
आदमियों का
वीडियो में तब्दील होना
तब
बच्चे
बचे आदमी सोचेंगे
कि वे
 क्या करें
कहां रहे
और कैसे मरे ?
© डॉ भावना शुक्ल

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता – ‘नदी रुकती नहीं ’ – डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन)

 

नदी रुकती नहीं 

 

पहाड़ से गिरकर भी

घुटने नहीं टेकती

उछलती,उफनती हुई

आगे बढ़ती है

शिलाखण्डों को दोनों हाथों से

ढकेलती है

यह नदी है

नदी रुकती नहीं

कहीं ठहरकर

उसे झील नहीं बनना है

कोई पोखर नहीं होना है

काई-कुंभी नहीं ढोना है

उसे बस बहना है

बहना ही है

नदी की असली पहचान

अपनी पहचान उसे नहीं खोना है

यही तो नदी का नदी होना है.

© डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता – धूप-छांव……. – डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

डॉ  सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

 

धूप-छांव…….

 

जीवन में दिन हैं तो, फिर रातें भी है

है मनमोहक फूल तो फिर कांटे भी है।

 

कुछ खोया तो, बदले में कुछ पाना है

कहीं रूठना है तो, कहीं मनाना है,

हुए मौन तो, मन में कुछ बातें भी है

जीवन में दिन————–

 

मिलन जुदाई का, आपस में नाता है

सम्बन्धों का मूल्य, समझ तब आता है

टूटे रिश्ते तो, नवीन नाते भी हैं

जीवन में दिन————-

 

है विश्वास अगर तो, शंकाएं भी है

मन में है यदि अवध तो,लंकायें भी है

प्रेम समन्वय भी, अन्तरघातें भी हैं

जीवन में दिन…………….

 

है पूनम प्रकाश तो, फिर मावस भी है

शुष्क मरुस्थल कहीं,कहीं पावस भी है

तृषित कभी तो, तृप्त कभी पाते भी हैं

जीवन में दिन………………

 

है पतझड़ आंगन में तो, बसन्त भी है

जन्में हैं तो, इस जीवन का अंत भी है

रुदन अगर दुख में, सुख में गाते भी हैं

जीवन में दिन————–

 

टूट टूट जो, जुड़ते और संवरते हैं

पीड़ाओं में गीत, मधुरतम गढ़ते हैं

व्यथित हृदय, दर्दों को सहलाते भी हैं

जीवन में दिन है तो फिर रातें भी है

है मनमोहक फूल तो फिर कांटे भी हैं।

© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता – ‘कोई बताएं हमें’ – डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन)

 

कोई बताएं हमें

कोई बताए  हमें

कि क्यों न लिखी जाए यह ख़बर

कि हर  ख़बर

आंख में तिनके की तरह

चुभती है

हर अख़बार

डरावना लगता है

और,

गर्दन रेतता हुआ

दिल चाक- चाक कर जाता है

सोशल मीडिया भी

अखबार पलटते हुए

लगता है कि पन्ने -पन्ने से

बलात्कारी बाहर आ रहे हैं

टीवी का बटन दबाने से पहले

मन में खटका होता है कि कहीं

क्रूर और बर्बर हत्यारे

स्क्रीन से  बाहर

न आ जाएं

अपने-अपने तमंचे और  बंदूके ताने हुए

कहीं निकल न पड़ें झुंड के झुंड जंगली कुत्ते

भूखे  भेड़िए, लकड़बग्घे

कहीं स्क्रीन के आकाश से उतरने न लगें

उल्लू, चील, बाज  और  कव्वे

कर दें आक्रमण एक साथ

उस  गौरैया पर

जो उड़ना चाहती है जी भर कर!

© डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य- कविता – गैस त्रासदी – हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

गैस त्रासदी

(आज से  34 वर्ष पूर्व  2-3 दिसंबर 1984 की रात  यूनियन कार्बाइड, भोपाल से मिक गैस  रिसने  से कई  लोगों  की मृत्यु हो गई थी ।  मेरे काव्य -संग्रह  ‘शब्द …. और कविता’ से  उद्धृत  गैस त्रासदी पर श्रद्धांजलि स्वरूप।)

हम
गैस त्रासदी की बरसियां मना रहे हैं।
बन्द
हड़ताल और प्रदर्शन कर रहे हैं।
यूका और एण्डर्सन के पुतले जला रहे हैं।

जलाओ
शौक से जलाओ
आखिर
ये सब
प्रजातंत्र के प्रतीक जो ठहरे।

बरसों पहले
हिटलर के गैस चैम्बर में
कुछ इंसान
तिल तिल मरे थे।
हिरोशिमा नागासाकी में
कुछ इंसान
विकिरण में जले थे।

तब से
हमारी इंसानियत
खोई हुई है।
अनन्त आकाश में
सोई हुई है।

याद करो वे क्षण
जब गैस रिसी थी।

यूका प्रशासन तंत्र के साथ
सारा संसार सो रहा था।

और …. दूर
गैस के दायरे में
एक अबोध बच्चा रो रहा था।

ज्योतिषी ने
जिस युवा को
दीर्घजीवी बताया था।
वह सड़क पर गिरकर
चिर निद्रा में सो रहा था।

अफसोस!
अबोध बच्चे….. कथित दीर्घजीवी
हजारों मृतकों के प्रतीक हैं।

उस रात
हिन्दू मुस्लिम
सिक्ख ईसाई
अमीर गरीब नहीं
इंसान भाग रहा था।

जिस ने मिक पी ली
उसे मौत नें सुला दिया।
जिसे मौत नहीं आई
उसे मौत ने रुला दिया।

धीमा जहर असर कर रहा है।
मिकग्रस्त
तिल तिल मौत मर रहा है।

सबको श्रद्धांजलि!
गैस त्रासदी की बरसी पर स्मृतिवश!

© हेमन्त बावनकर

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य- कविता – ‘दिल्ली’ – डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन)

दिल्ली

किसे समझते हैं आप दिल्ली!

जगमगाती ज्योति से नहाए

लोकतंत्र की पालकी उठाए खड़े लकदक

संसद,राष्ट्रपति और शास्त्रीभवन

व्य्यापारिक व कूटनीतिक बाँहैं फैलाए

युद्धिष्ठिर को गले लगाने को आतुर

लोहे के धृतराष्ट्र-से बेचैन

दुनिया भर के राष्ट्रों के दूतावास,

विश्वस्वास्थ्य संगठन,बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मुख्यालय

सर्वोच्च न्यायालय,एम्स और

जवाहर लाल नेहरू विश्वद्यालय

यानी न्याय,स्वास्थ्य,अर्थ और शिक्षा के

नित नए सांचे-ढाँचे, गढ़ते -तोड़ते संस्थान

इतिहास,धर्म,संस्कृति,साहित्य और कला को

छाती पेटे लगाए

लालकिला, कुतुबमीनार, शीशमहल

अक्षरधाम, ज़ामामस्ज़िद, इंडियागेट, चाँदनी चौक

रामलीला मैदान, प्रगति मैदान, ललित कला अकादमी, हिंदी अकादमी, ज्ञानपीठ,

वाणी, राजकमल, किताबघर जैसे

अद्भुत विरासत साधे

स्थापत्य, स्थान और प्रतिष्ठान

आखिर किसे समझते हैं आप दिल्ली !

 

कल-कारखानों का विष पीती-पिलाती

काँखती,कराहती बहती

काली-कलूटी कुब्जा यमुना

दिल्ली और एन सी आर के बीचोबीच

अपने पशुओं के लिए घास ढोती

उपले थापती आधी दुनिया

माने औरत जाति

आखिर किसे कहते हैं आप दिल्ली!

 

मिरांडा हॉउस, लेडी श्रीराम कॉलेज में

किताबों में सर गाड़े

या किसी पब्लिक स्कूल के पीछे वाले भूभाग में

बड़े पेड़ या झाड़ की आड़ में स्मैक के आगोश में

छिपके बैठी होनहार पीढ़ी

रेडलाइट इलाके में छापे मारती हाँफती भागती पुलिस

पंचतारों में बिकने को आतुर किशोरियाँ

और उनको ढोते दलाल

बोलो! किसे पुकारेंगे आप  दिल्ली?

 

ओला, ऊबर को चलते-चलते बुक करती

मालों में काम को सरपट जाती लड़कियाँ

मेट्रो, बस या बाज़ार में

पर्स और मोबाइल मारते  जेबकतरे

चिचिलाती धूप और शीत लहर में

पानी की लाइन में खड़े बच्चे-बूढ़े और अधेड़

क्या ये भी नहीं है दिल्ली?

 

संघ लोक सेवा आयोग की अग्नि परीक्षा में

घर-बार की होलिका जलाए

ककड़ी-से फटे होठों को चाटते

कोचिंगों की परिक्रमा करते तरुण

क़र्ज़ में डूबे किसान-से

चिंताओं के पहाड़ के साथ

अपना स्ववृत्त लादे रोज़गार खोजते युवा

चौराहों पर बाबू जी !बाबू जी !

चिल्लाते सहमे हुए पास आते

झिड़कियां खाकर भी हाथ बाँधे

आशा में खड़े मज़दूर

इनमें सबके सब दिल्ली  के भले न हों

पर इन में भी  खोज  सकते हैं आप दिल्ली।

 

दिल्ली सिर्फ जन प्रतिनिधियों की आबादी नहीं है

बीमारी से बचे पैसों से साग सब्जी लाते

आम आदमियों के हिस्से में भी है

कुछ दिल्ली

इसे धृतराष्ट्र के हवाले किया तो

हस्तिनापुर के झगड़े में

निर्वस्त्र हुई द्रोपदी -सी

हाहाकारी हो सकती है दिल्ली

बारबाला भी नहीं है दिल्ली

जो सुरा परोसे और मुस्काए

और, किसी नगर सेठ की जंघा पर बैठ जाए

दिल्ली सिर्फ और सिर्फ़ सफ़ेद खादी नहीं है

दिल्ली बहुत कुछ स्याह भी है

उसके बरक्स

मलमली रंगीनियाँ भी हैं दिल्ली में।

दिल्ली में कुछ के ही होते हैं हफ्ते में पाँच दिन

बाक़ी के हिस्से में चौबीस घंटों वाला

सात दिन का ही है सप्ताह

क्या सोचते हैं दिल्ली के बारे में आप!

 

धक्कामुक्की हो सकती है मेट्रो और बसों में

पर केवल भीड़ भी नहीं है दिल्ली

दिल्ली में कोई पूछ भी सकता है

परिवार के हाल-चाल और नहीं भी

एकांत में थाम सकता है कोई हाथ

अपना सकता है जीवन भर के लिए

पल में छूट  सकता है कोई हाथ

पुकारने पर दूर -दूर तक नहीं दिख सकती है

कोई आदम की छाया भी

लेकिन दिल्ली निर्जन भी  नहीं है

डियरपार्क में बतकही हो सकती है

विश्वनाथ त्रिपाठी से

किसी आयोजन में मिल सकते हैं

नामवर सिंह और मैनेजर पाण्डे

हरनोट और दिविक रमेश

‘काला पहाड़’ लादे रेगिस्तान की रेत

फाँकते आए मोरवाल

या उसे धकेलते

देश के कोने-कोने से आए

कई साहित्यकार छोटे-बड़े  गुट में

यानी निर्गुट भी नहीं है दिल्ली

दिल्ली में दल हैं दलों के कीचकांदो से उपजे

जानलेवा दलदल भी हैं दिल्ली में

नेता,अभिनेता,व्यापारी,चोर,दिवालिया,साहित्यकार

नाटककार,साहूकार हो या फिर चोर छिनार,

दिल्ली में बसना सब  चाहते हैं

लेकिन बसाना कोई नहीं चाहता है दिल से

किसी को अपनी -अपनी दिल्ली में

बसाने को बसाते भी हैं जो नई दिल्ली

वे बस संख्या लाते हैं दिल्ली में

इनमें केवल साहित्यकार ही नहीं हैं

जो बनाने को मठ

उदारतावश ढोते रहे हैं यह संज्ञाविहीन संख्या

ला-ला के भरते रहे हैं

अपना गाँव,देश-जवार बाहर-बाहर से

गुडगांवा,गाज़ियाबाद,फरीदाबाद वाली दिल्ली में

शकूर और दयाबस्ती में

नेता भी कुछ कम नहीं हैं इनमें अग्रणी

कौन पूछे कि किस वजह से

आधे से ज़्यादा नेता और साहित्यकर ही

बसते हैं हमारी दिल्ली में?

आपको भी बनना है कुछ तो आ जाओ दिल्ली

छानो ख़ाक

किसी का लंगोट छाँटो या पेटीकोट

शर्माओ मत

कविता हो या राजनीति

सब गड्डमड्ड कर डालो

बढ़ो आगे

गढ़ो नए प्रतिमान

जिसमें कुछ न हो उसमें ही सबकुछ दिखाओ

और सबकुछ वाली पांडुलिपि को कूड़ा बताओ

तभी तो तुम्हारा प्रातिभ दरसेगा

सर्जक यदि कुबेर हुआ तो धन यश सब बरसेगा

और जब कुछ हो जाओ तो फिर देर मत लगाओ

गुट बनाओ जैसे बनाया था तुम्हारे गुरु ने

सबसे पहले उसी को पटखनी दो

जिसका छांटा है दिन-रात लंगोट

फिर क्या है

मज़े से शराब पी-पीकर जिस-तिस को गरियाओ

पगुराओ गंधाती आत्म कथा

यह भी इसी दिल्ली की एक हृष्ट-पुष्ट यानी

स्वस्थ ,साहित्यिक और सांस्कृतिक परंपरा है।

खैर छोड़ो!यह तो रही हमारी अपनी बताओ

आखिर आप किसे मानते हैं दिल्ली!

© डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

Please share your Post !

Shares
image_print