हिन्दी साहित्य-कविता – जीवन-प्रवाह – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

 

 

 

 

जीवन-प्रवाह  

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की  विश्व कविता दिवस पर जीवन की कविता –जीवन –प्रवाह” )

 

सबसे बड़ी होती है आग,

और सबसे बड़ा होता है पानी,

तुम आग पानी से बच गए,

तो तुम्हारे काम की चीज़ है धरती,

धरती से पहचान कर लोगे,

तो हवा भी मिल सकती है,

धरती के आंचल से लिपट लोगे,

तो रोशनी में पहचान बन सकती है,

तुम चाहो तो धरती की गोद में,

पांव फैलाकर सो भी सकते हो,

धरती को नाखूनों से खोदकर,

अमूल्य रत्नों भी पा सकते हो,

या धरती में खड़े होकर,

अथाह समुद्र नाप भी सकते हो,

तुम मन भर जी भी सकते हो,

धरती पकडे यूं मर भी सकतेहो,

कोई फर्क नहीं पड़ता,

यदि जीवन खतम होने लगे,

असली बात तो ये है कि,

         धरती पर जीवन प्रवाह चलता रहे। 

 

© जय प्रकाश पाण्डेय, जबलपुर

(श्री जय प्रकाश पाण्डेय, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा हिन्दी व्यंग्य है। )

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – * अबकी होली …. बेरंग होली  * – श्रीमति सखी सिंह 

श्रीमति सखी सिंह 

 

अबकी होली …. बेरंग होली 

(श्रीमति सखी सिंह जी का e-abhivyakti में स्वागत है। 

प्रस्तुत कर रहा हूँ  प्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमति सखी सिंह जी की कविता बिना किसी भूमिका के  उन्हीं के शब्दों के साथ – एक ख्याल आया रात कि जो शहीद हुए हैं पिछले कुछ दिनों में उनके घर का आलम क्या होगा इस वक़्त। मन उदासी से भर गया। आंखें नम हो गयी। )

उन सभी लोगों को समर्पित जो कहीं न कहीं इस दर्द से जुड़े हैं।
अबकी होली बेरंग होली
सैयां न अब घर आएंगे,
नयन हमारे अश्क़ बहाते
चौखट पे जा टिक जाएंगे।
राह हो गयी सूनी कबसे
पिया गए किस देश हमारे
भारत माँ की चुनर रंग दी
सुर्ख लहूँ के बहा के धारे
माटी को मस्तक धारूँगी
माटी में पिया दिख जाएंगे।
अबकी होली बेरंग होली….
गहनों की झंकार तुम्ही थे
मेरा सब श्रृंगार तुम्हीं थे
मात पिता के तुम थे सहारा
सपनों का आधार तुम्ही थे
सपने बिखरे साथ तुम्हारे
बिन सपनों के कित जाएंगे।
अबकी होली….

© सखी सिंह, पुणे 

 

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हिन्दी साहित्य – कविता – * आग * – डा. मुक्ता

डा. मुक्ता

आग

 

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। प्रस्तुत है  विचारणीय एवं सार्थक कविता ‘आग ’)

 

आग!माचिस की तीली से

लगाई जाए या शॉर्ट सर्किट से लगे

विनाश के कग़ार पर पहुंचाती

दीया हो या शमा…काम है जलना

पथ को आलोकित कर

भटके राही को मंज़िल तक पहुंचाना

 

यज्ञ की समिधा

प्रज्जवलित अग्नि लोक-मंगल करती

प्रदूषण मिटा

पर्यावरण को स्वच्छ बनाती

क्योंकि जलने में निहित है

त्याग,प्यार व समर्पण का भाव…

और जलाना…

सदैव स्वार्थ व विनाश से प्रेरित

 

भेद है,लक्ष्य का…सोच का

क्योंकि परार्थ

व परोपकार की सर्वोपरि भावना

सदैव प्रशंनीय व अनुकरणीय होती

 

आग केवल जलाती नहीं

मंदिर की देहरी का दीया बन

निराश मन में उजास भरती

ऊर्जस्वित करती

सपनों को पंख लगा

नयी उड़ान भरती

आकाश की बुलंदियों को छू

एक नया इतिहास रचती

 

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

 

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मराठी साहित्य – मराठी कविता – * फोन नंबर…! * – कवी श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

फोन नंबर…!

श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं।

कविता “फोन नंबर ….!” एक अत्यन्त मार्मिक कविता है जिसने 12.03.2019 को  महाराष्ट्र साहित्य परिषद, पुणे की काव्य गोष्ठी में सबके नेत्र नम कर दिये थे।

श्री सुजित कदम जी के शब्दों में – “सामाजिक बांधिलकी जोपासताना समाजाच हे वास्तव याकडे मी दुर्लक्ष करू शकत नाही.”  

त्या दिवशी
पहाटेच हाँस्पिटल मधून
मी मुलाला
तिन चार वेळा
फोन लावल्यानंतर
मुलाने फोन उचलला.
मी म्हटलं
”पोरा आज तरी आईला भेटायला येशील ना”
एका क्षणाचाही विलंब न लावता
त्यांन उत्तर दिलं..,
बाबा आजचा दिवस ही आईला व्हेंटिलेटरवर
नाही का ठेवता येणार…?
आज माझी महत्वाची
मिंटिग ठरलीय..,
आणि.. . . .
आजच्या मिटिंग साठी मी
खूप वर्षे वाट पाहिलीय….,
किंवा तसं काही झालंच तर…,
तुम्ही सर्व क्रिया करून घ्या
मला वेळ मिळेल तेव्हा
मी येऊन
अस्थी विसर्जन करेन..,!
मी काही बोलायच्या आतच
त्याने फोन

कट केला..!

आज तीन वर्षे झाली…
तिला जाऊन.
तो काही आला नाही..
आणि त्याचा फोनही..,!
कदाचित..,
कदाचित त्याने
फोन नंबर बदलला असावा…,
मी गेल्या नंतर त्याला
पुन्हा फोन येईल
ह्या भितीने…!!

© सुजित कदम, पुणे

मोबाइल 7276282626.

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हिन्दी साहित्य – कविता – * नव कोंपलें * – डा. मुक्ता

डा. मुक्ता

नव कोंपलें

 

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। प्रस्तुत है  नारी हृदय  की संवेदनाओं को उकेरती एक विचारणीय एवं सार्थक कविता ‘नव कोपलें ’)

 

काश!वह समझ पाता

अपनी पत्नी को शरीक़े-हयात

जीवन-संगिनी सुख-दु:ख की

अनुभव कर पाता

उसके जज़्बातों को

अहसासों,आकांक्षाओं

तमन्नाओं व दिवा-स्वप्नों को

 

वह मासूम

जिस घर को अपना समझ

सहेजती-संजोती,संवारती

रिश्तों को अहमियत दे

स्नेह व अपनत्व की डोर में पिरोती

परिवारजनों की आशाओं पर खरा

उतरने के निमित्त

पल-पल जीती,पल-पल मरती

कभी उफ़् नहीं करती

अपमान व तिरस्कार के घूंटों का

नीलकंठ सम विषपान करती

 

परन्तु सब द्वारा

उपयोगिता की वस्तु-मात्र

व अस्तित्वहीन समझ

नकार दी जाती

 

कटघरे में खड़ा कर सब

उस पर निशाना साधते

व्यंग्य-बाणों के प्रहार करते

उसकी विवशता का उपहास उड़ाते

वह हृदय में उठते ज्वार पर

कब नियंत्रण रख पाती

 

एक दिन अंतर्मन में

दहकता लावा फूट निकलता

सुनामी जीवन में दस्तक देता

वह आंसुओं के सैलाब में

बहती चली जाती

और कल्पना करती

बहुत शीघ्र प्रलय आयेगा सृष्टि में

और सागर की गगनचुंबी लहरों में

सब फ़नाह हो जायेगा

अंत हो जायेगा असीम वेदना

असहनीय पीड़ा व अनन्त दु:खों का

उथल-पुथल मच जायेगी धरा पर

सब अथाह जल में समा जायेगा

 

फिर होगी स्वर्णिम सुबह

सूर्य की रश्मियों से

सिंदूरी हो जायेगी धरा

नव कोंपलें फूटेंगी

अंत हो जायेगा स्व-पर

राग-द्वेष व वैमनस्य का

समता,समन्वय

सामंजस्य और समरसता

का साम्राज्य हो जायेगा

नव जीवन मुस्करायेगा

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मराठी साहित्य – मराठी कविता – * कुटुंब * – कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  द्वारा  चारोळी लेखन  विधा  में  “कुटुंब ” शीर्षक से एक प्रयोग ) 

 

*कुटुंब*

(चारोळी लेखन)

चार माणसे, चार स्वभाव

चार कोनात जोडलेली.

कुटुंबातील नाती सारी

जीवापाड जपलेली.

 * * * * * * * * * *

घर असते आकर्षण

कुटुंब असते संरक्षण

माणसांच्या घरकुलात

कुटुंबांचे आरक्षण. . . . !

 * * * * * * * * * *

घर म्हणजे फुलबाग

माणसांनी भरलेली

कुटुंब म्हणजे फळबाग

नात्यांनी लगडलेली. . . . !

 * * * * * * * * * *

दार, खिडक्या, भिंती मध्ये

घर जात खपून

एकेक नात जपताना

अंतर येत फुलून. . . . !

© विजय यशवंत सातपुते, यशश्री पुणे. 

मोबाईल  9371319798

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हिन्दी साहित्य – कविता – * हे राम! * – डा. मुक्ता

डा. मुक्ता

हे राम!

 

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं सार्थक कविता ‘हे राम!’)

 

हे राम!

तुम सूर्यवंशी,आदर्शवादी

मर्यादा-पुरुषोत्तम राजा कहलाए

सारा जग करता है तुम्हारा

वंदन-अभिनन्दन,तुम्हारा ही अनुसरण

 

तुम करुणा-सागर

एक पत्नीव्रती कहलाते

हैरान हूं….

किसी ने क्यों नहीं पूछा,तुमसे यह प्रश्न

क्यों किया तुमने धोबी के कहने पर

अपनी जीवनसंगिनी सीता

को महल से निष्कासित

 

क्या अपराध था उसका

जिसकी एवज़ में तुमने

उसे धोखे से वन में छुड़वाया

इसे लक्ष्मण का भ्रातृ- प्रेम कहें,

या तुम्हारे प्रति अंध-भक्ति स्वीकारें

क्या यह था भाभी अर्थात्

माता के प्रति प्रगाढ़-प्रेम व अगाध-श्रद्धा

क्यों नहीं उसने तुम्हारा आदेश

ठुकराने का साहस जुटाया

 

इसमें दोष किसका था

या राजा राम की गलत सोच का

या सीता की नियति का

जिसे अग्नि-परीक्षा देने के पश्चात् भी

राज-महल में रहना नसीब नहीं हो पाया

 

विश्वामित्र के आश्रम में

वह गर्भावस्था में

वन की आपदाएं झेलती रही

विभीषिकाओं और विषम परिस्थितियों

का सामना करती रही

पल-पल जीती,पल-पल मरती रही

 

कौन अनुभव कर पाया

पत्नी की मर्मांतक पीड़ा

बेबस मां का असहनीय दर्द

जो अंतिम सांस तक

अपना वजूद तलाशती रही

 

परन्तु किसी ने तुम्हें

न बुरा बोला,न ग़लत समझा

न ही आक्षेप लगा

अपराधी करार किया

क्योंकि पुरुष सर्वश्रेष्ठ

व सदैव दूध का धुला होता

उसका हर ग़ुनाह क्षम्य

और औरत निरपराधी

होने पर भी अक्षम्य

 

वह अभागिन स्वयं को

हर पल कटघरे में खड़ा पाती

और अपना पक्ष रखने का

एक भी अवसर

कभी नहीं जुटा पाती

युगों-युगों से चली

आ रही यह परंपरा

सतयुग में अहिल्या

त्रेता में सीता

द्वापर में गांधारी और द्रौपदी का

सटीक उदाहरण है सबके समक्ष

जो आज भी धरोहर रूप में सुरक्षित

अनुकरणीय है,अनुसरणीय है।

 

© डा. मुक्ता

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

 

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हिन्दी साहित्य-कविता – तुम्हें सलाम – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

 

 

 

 

“तुम्हें सलाम “
(अंतर राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की महिलाओं को समर्पित एक कविता)
दुखते कांधे पर
भोतरी कुल्हाड़ी लेकर  ,
पसीने से तर बतर
फटा ब्लाऊज पहिनकर ,
बेतरतीब बहते
हुए आंसुओं को पीकर,
भूख से कराहते
बच्चों को छोड़कर ,
जब एक आदिवासी
महिला निकल पड़ती है
जंगल की तरफ,
कांधे में कुल्हाड़ी लेकर
अंधे पति को अतृप्त छोड़कर,
लिपटे चिपटे धूल भरे
कैशों को फ़ैलाकर,
अधजले भूखे चूल्हे
को लात मारकर ,
और इस हाल में भी
खूब पानी पीकर,
जब निकल पड़ती है
जंगल की तरफ,
फटी साड़ी की
कांच लगाकर,
दुनियादारी को
हाशिये में रखकर,
जीवन के अबूझ
रहस्यों को छूकर,
जंगल के कानून
कायदों को साथ  लेकर,
अनमनी वह
आदिवासी महिला,
दौड़ पड़ती है
जंगल की तरफ ,

© जय प्रकाश पाण्डेय, जबलपुर

(श्री जय प्रकाश पाण्डेय, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा हिन्दी व्यंग्य है। )

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हिन्दी साहित्य – कविता – * बेटी * – सुश्री ऋतु गुप्ता

सुश्री ऋतु गुप्ता

बेटी 

(सुश्री ऋतु गुप्ता जी  रचित अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर का एक सार्थक कविता ‘बेटी’।) 

 

बेटी शब्द का आगाज होते ही
हृदय में सम्पूर्ण माँ बनाने की अद्वितीय अनुभूति होती है
बगैर बेटी जन्मे मानो नारी अधूरी होती है।

 

उसका पहली बार माँ बोलना
हृदय को मुदित ममतामयी कर जाता है
हर उदित उमंग उल्लासित कर
गरिमामयी पद अतुल्य अभिनंदन पाता है।

 

कदम पहला उसका उठते ही बेचैन
मन मुद्रा मुसकुराती छवि हो जाती है
उसकी इक-इक भाव भंगिमा
एकटक निहारते नैनों की चमक अद्भुत हो जाती है

 

विस्मय से भरता जाता उसका बड़ा होना
घर पूरा गूँजता मानों चिड़िया चहचहाती है
पग घूम-घूम जहाँ-जहाँ रखती
धरा धन्य हो अपार आभार प्रकट कर जाती है।

 

बेटी कभी नहीं होती पराई
जिस्म से कभी नहीं अलग होती परछाई
बड़ी होने पर भी वही आँचल आगोश सदैव लालायित रहते हैं ।
बोझ नहीं आन वह कलेजे का टुकड़ा गौरवान्वित हो कहते हैं।

© ऋतु गुप्ता

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हिन्दी साहित्य – कविता – * पहले क्या खोया जाए * – डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन)

 

पहले क्या खोया जाए  
पशमीना की शाल-से
पिता जी भी थे तो बेशकीमती
पर खो दिए मुफ्त में
माँ है
अभी भी खोने के लिए
कितना भी कुछ कर लो
खोती  ही नहीं
कुछ समझती भी नहीं
ऊपर से गाती रहती है
‘खोने से ही पता चलती है कीमत
बेटे!
पिता जी तो समझदार थे
समय पर
खोकर  बता गए कीमत
खो जाऊँगी मैं भी
किसी समय, एक दिन
तब पता चलेगी कीमत मेरी भी
पर पता नहीं
यह क्यों  नहीं चाहती
बतानी कीमत अपनी भी
समय पर
देर क्यों कर रही है
निरर्थक ही
हम  भरसक कोशिश में रहते हैं
खो जाए किसी मंदिर की भीड़ में
छोड़ भी देते हैं
यहाँ-वहाँ मेले-ठेले में
कभी तेज़-तेज़ चलकर
कभी बेज़रूरत ठिठक कर
और
जानना चाहते हैं कीमत
माँ  की भी
सोचता हूँ
होने  की कीमत जान न पाया  तो
खोने की ही जान-समझ लूँ
कुछ तो कर लूँ  समय पर
कीमत समझने का ।
यही कामयाब तरीका चल रहा है
इन दिनों
इसी तरीके से  तो एक-एक कर
खोते रहे  हैं रिश्ते दर रिश्ते
दादा-दादी,नाना-नानी
ताऊ,ताई,मामा-मामी
और पिताजी भी
अब तो
‘एंजेल’ या ‘मार्क्स’ भी तो नहीं  बचे हैं
इस गरीब के पास
या तो एक अदद माँ बची है
या फिर  एक अदद फटा कंबल
कीमत दोनों  की जानना ज़रूरी है
अब इतने छोटे  भी नहीं रहे जो,
माँ के सीने से चिपक कर
बिताई जा सकें  सर्द रातें
फिर कोई तो बताए
आखिर पहले क्या खोया जाए ?
अधफटा कंबल या
अस्थि शेष माँ?
© डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

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