हिन्दी साहित्य – कविता – मैं दीपक था – डॉ.राजकुमार “सुमित्र”
डॉ.राजकुमार “सुमित्र”
मैं दीपक था
मैं दीपक था किंतु जलाया
चिंगारी की तरह मुझे
इतना बहकाया है तुमने
छल लगती है सुबह मुझे ।
तुमने समझा हृदय खिलौना
खेल समझ कर छोड़ दिया
कभी देवता सा पूजा तो
कभी स्वप्न-सा तोड़ दिया ।
जन्म मृत्यु की आंख मिचौनी
और ना अब मुझसे खेलो
बहुत बहुत पीड़ा तन मन की
कुछ मैं ले लूं कुछ तुम झेलो।
© डॉ.राजकुमार “सुमित्र”
हिन्दी साहित्य- कविता -मैं काली नहीं हूँ माँ! – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा
नीलम सक्सेना चंद्रा
मैं काली नहीं हूँ माँ!
माँ,
सुना है माँ,
कल किसी ने एक बार फ़िर
यह कहकर मुझसे रिश्ता ठुकरा दिया
कि मैं काली हूँ!
माँ, मैं काली नहीं हूँ माँ!
कल जब मैं
बाज़ार जा रही थी,
चौक पर जो मवाली खड़े रहते हैं,
उन्होंने मुझे देखकर सीटी बजाई थी
और बहुत कुछ गन्दा-गन्दा बोला था,
जिसे मैंने हरदम की तरह नज़रंदाज़ कर दिया था;
काले तो वो लोग हैं माँ!
माँ, मैं काली नहीं हूँ माँ!
उस दिन जब मेरे बॉस ने
चश्मे के नीचे से घूरकर कहा था,
प्रमोशन के लिए
और कुछ भी करना होता है,
मैं तो डर ही गयी थी माँ!
काला तो वो मेरा बॉस था माँ!
माँ, मैं काली नहीं हूँ माँ!
अभी कल टेलीविज़न पर ख़बर सुनी,
एक औरत के साथ कुकर्म कर
उसे जला दिया गया!
माँ, यह कैसा न्याय है माँ?
काले तो वो लोग थे माँ!
माँ, मैं काली नहीं हूँ माँ!
यह कैसा देश है माँ
जहाँ बुरे काम करने से कुछ नहीं होता
और चमड़ी के रंग पर
लड़की को काली कहा जाता है?
माँ, मैं काली नहीं हूँ माँ!
माँ, मैं काली नहीं हूँ माँ!
© नीलम सक्सेना चंद्रा
(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की साहित्यकार हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। वर्तमान में आप जनरल मैनेजर (विद्युत) पद पर पुणे मेट्रो में कार्यरत हैं।)
हिन्दी साहित्य-कविता – पहाड़ पर कविता – श्री जय प्रकाश पाण्डेय
जय प्रकाश पाण्डेय
पहाड़ पर कविता
जंगल को बचाने के लिए,
पहाड़ पर कविता जाएगी,
कुल्हाड़ी की धार के लिए,
कमरे में दुआ मांगी जाएगी,
पहाड़ पर बोली लगेगी,
कविता भी नीलाम होगी,
कवियों के रुकने के लिए,
कटे पेड़ के घरौंदे बनेंगे,
उनके ब्रेकफास्ट के लिए,
सागौन के पेड़ बेचे जाएंगे,
उनके मूड बनाने के लिए,
महुआ रानी चली आयेगी,
कविता याद करने के लिए,
रात रानी बुलायी जाएगी,
कविता के प्रचार के लिए,
नगरों के टीवी खोले जाएंगे,
कवि लोग कविता में,
जंगल बचाने की बात करेंगे,
टी वी में कविता के साथ,
पेड़ रोने की आवाजें आयेंगी,
दूसरे दिन मीडिया से,
जांच कमेटी खबर बनेगी,
और पहाड़ पर कविता,
बेवजह बिलखती मिलेगी,
© जय प्रकाश पाण्डेय
(श्री जय प्रकाश पाण्डेय, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा हिन्दी व्यंग्य है। )
हिन्दी साहित्य- कविता – आँखें – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा
नीलम सक्सेना चंद्रा
आँखें
मंज़र बदल जाते हैं
और उनके बदलते ही,
आँखों के रंग-रूप भी
बदलने लगते हैं…
ख़्वाबों को बुनती हुई आँखें
सबसे खूबसूरत होती हैं,
न जाने क्यों
बहुत बोलती हैं वो,
और बात-बात पर
यूँ आसमान को देखती हैं,
जैसे वही उनकी मंजिल हो…
अक्सर बच्चों की आँखें
ऐसी ही होती हैं, है ना?
यौवन में भी
इन आँखों का मचलना
बंद नहीं होता;
बस, अब तक इन्हें
हार का थोड़ा-थोड़ा एहसास होने लगता है,
और कहीं न कहीं
इनकी उड़ान कुछ कम होने लगती है…
पचास के पास पहुँचने तक,
इन आँखों ने
बहुत दुनिया देख ली होती है,
और इनका मचलनापन
बिलकुल ख़त्म हो जाता है
और होने लगती हैं वो
स्थिर सी!
और फिर
कुछ साल बाद
यही आँखें
एकदम पत्थर सी होने लगती हैं,
जैसे यह आँखें नहीं,
एक कब्रिस्तान हों
और सारी ख्वाहिशों की लाश
उनमें गाड़ दी गयी हो…
सुनो,
तुम अपनी आँखों को
कभी कब्रिस्तान मत बनने देना,
तुम अपने जिगर में
जला लेना एक अलाव
जो तुम्हारे ख़्वाबों को
धीरे-धीरे सुलगाता रहेगा
और तुम्हारी आँखें भी हरदम रहेंगी
रौशनी से भरपूर!
© नीलम सक्सेना चंद्रा
(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की साहित्यकार हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। वर्तमान में आप जनरल मैनेजर (विद्युत) पद पर पुणे मेट्रो में कार्यरत हैं।)