हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 11 – नवगीत – जीवन को वसंत करो… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत – जीवन को वसंत करो

? रचना संसार # 11 – नवगीत – जीवन को वसंत करो…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

पतझड़ से इस जीवन को तुम,

आकर कंत वसंत करो।

साहित्यिक संप्रेषण को अब,

सदृश निराला ,पंत करो।।

 *

शब्द -शब्द  माणिक कर  दो तुम,

भरो प्रेम की गागर तुम।

गुंजित सारा जग हो जाए,

वंशी तुम नटनागर तुम।।

भाव  सुपावन गंगाजल कर,

लेखन को जीवंत करो।

 *

साहित्यिक संप्रेषण को अब,

सदृश निराला,पंत करो।।

 *

श्वेता की वीणा बजती हो,

सात सुरों की सरगम हो।

अलंकार रस छंद  निराले,

नवल सृजन का उद्गम हो,

नव रस की रसधारा में तुम,

पीडाओं का अंत करो।

साहित्यिक संप्रेषण को अब,

सदृश निराला,पंत करो।।

 *

निष्ठाओं की डोर पकड़कर ,

तन -मन अर्पण करना है।

दिनकर -सा उजियारा करने ,

सार्थक चिंतन  करना है।।

जग -कल्याण भावना रखकर,

मन को सज्जन संत करो ।

जीवन को वसंत करो

 *

साहित्यिक संप्रेषण को अब,

सदृश निराला ,पंत करो।।

 *

शब्द -शब्द  माणिक कर  दो तुम,

भरो प्रेम की गागर तुम।

गुंजित सारा जग हो जाए,

वंशी तुम नटनागर तुम।।

भाव  सुपावन गंगाजल कर,

लेखन को जीवंत करो।

 *

साहित्यिक संप्रेषण को अब,

सदृश निराला,पंत करो।।

श्वेता की वीणा बजती हो,

सात सुरों की सरगम हो।

अलंकार रस छंद  निराले,

नवल सृजन का उद्गम हो,

नव रस की रसधारा में तुम,

पीडाओं का अंत करो।।

 *

साहित्यिक संप्रेषण को अब,

सदृश निराला,पंत करो।।

निष्ठाओं की डोर पकड़कर ,

तन -मन अर्पण करना है।

दिनकर -सा उजियारा करने ,

सार्थक चिंतन  करना है।।

जग -कल्याण भावना रखकर,

मन को सज्जन संत करो ।

 *

साहित्यिक संप्रेषण को अब,

सदृश निराला,पंत करो।।

 

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected][email protected]

≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #237 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 237 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

तपती है कैसे धरा, बादल सुनो पुकार।

पंछी व्याकुल हो रहे,पानी की दरकार।।

*

खेतों में हम गा रहे,सुनो मेघ मल्हार।

ईश्वर सुनिए आप अब, मेघ करो बौछार।।

*

जगह जगह पर बाढ़ है, यहां नहीं बरसात।

कब आओगे मेघ तुम,  नहीं बीतती   रात।।

*

आज हमें तो लग रहा,आएगी बरसात।

विनती सुन ली ईश ने, बदरा छाए रात।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #219 ☆ पूर्णिका – खूब परखते औरों को… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है पूर्णिका – खूब परखते औरों को आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 219 ☆

☆ पूर्णिका – खूब परखते औरों को… ☆ श्री संतोष नेमा ☆

राज  दिल  के  खोल दो जी

आज खुल कर बोल दो  जी

*

छोड़  कर  नफ़रत  जहन से

प्यार  दिल  में  घोल  दो  जी

*

रहो    झूठ    से    दूर   सदा

सच्चाई   का   मोल   दो  जी

*

खूब    परखते    औरों    को

खुद  को  भी  टटोल  लो जी

*

प्यार    चाहें    बेपनाह    गर

स्वयं  को  भी  तोल  लो  जी

*

हम   भी   हैँ    प्रेम    पुजारी

हमें   भी  कुछ  रोल  दो   जी

*

मिलेगा    “संतोष”   प्रेम    में

राग  प्रेम   का  बोल  दो   जी

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पात्र ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  पात्र  ? ?

(लघु कविता संग्रह – चुप्पियाँ से)

मेरे शब्द

चुराने आये थे वे

चुप्पी की मेरी

अकूत संपदा देखकर

मुँह खुला का खुला

रह गया,

मेरी चुप्पी के

वे भी पात्र हो गए!

© संजय भारद्वाज  

प्रातः 8:07 बजे

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ 💥 श्री हनुमान साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी। 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 209 ☆ बाल गीत – चंदा मामा मित्र हमारे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 209 ☆

☆ बाल गीत – चंदा मामा मित्र हमारे ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

भरें उड़ानें चंद्रयान से

चंदा मामा मित्र हमारे।

शीतल छाया मनमोहक है

लाएँ आसमान से तारे।।

जय भारत की , जय इसरो की

विजय ज्ञान – विज्ञान की।

विजयी विश्व तिरंगा ऊँचा

है मानव कल्याण की।

 *

हर्ष – विमर्श जगत उजियारा

झूम उठे खुशियों से सारे।

चंदा मामा मित्र हमारे।।

 *

बना लिए निज ठाँव चंद्र पर

विक्रम लैंडर साथ गया है।

गौरवान्वित है राष्ट्र हमारा

ध्रुव दक्षिणी नया – नया है।

 *

घर अपना चंदा पर होगा

मजे करेंगे बच्चो प्यारे।

चंदा मामा मित्र हमारे।।

 *

नई – नई धातुएँ वहाँ पर

धरा और चट्टानें हैं।

खोज रहा है चंद्रयान सब

कौन खनिज की खानें हैं।

 *

टूर करेंगे चंद्रयान से

खेल करेंगे तारे न्यारे ।

चंदा मामा मित्र हमारे।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #234 – कविता – ☆ एक पाती वृक्ष की, मानव के नाम… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता एक पाती वृक्ष की, मानव के नाम…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #234 ☆

☆ एक पाती वृक्ष की, मानव के नाम… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

(पर्यावरण विषयक)

आदरणीय मानव जी,

तुम को नमस्कार है

लिखने वाला वृक्षों का प्रतिनिधि मैं

जिसका जल जंगल से सरोकार है।

खूब तरक्की की है तुमने

अंतरिक्ष तक पहुँच रहे हो

चाँद और मंगल ग्रह से संपर्क बनाए

पहुँचे जहाँ,

वहाँकी मिट्टी लेकर आए

होना तो यह था

धरती की मिट्टी और कुछ बीज

हमारे लेकर जाते

और वहाँ की मिट्टी में यदि हमें उगाते

तो शायद हो जाती परिवर्तित जलवायु

और वहाँ भी तुम उन्मुक्त साँस ले पाते।

लगता है वृक्षों का वंश मिटाने का

संकल्प लिया मानव जाति ने

जब कि हमने उपकारी भावों से

मानव जाति के हित

आरी और कुल्हाड़ी के

सब वार सहे हँस कर छाती में।

अपने सुख स्वारथ के खातिर

हे मनुष्य! तुम अपनी आबादी तो

निशदिन बढ़ा रहे हो

और जंगलों वृक्षों की बलि

आँख बंद कर चढ़ा रहे हो,

नई तकनीकों से विशाल वृक्षों को

बौने बना-बना कर

फलदाई उपकारी वृक्षों को घर पर

अपने गमलों में लगा रहे हो।

भला बताओ बोनसाई पेड़ों से

मनचाहे फल तुम कैसे पाओगे

क्या इन गमलों के पेड़ों से

सावन के झूलों का वह आनंद

कभी भी ले पाओगे,

सोचा है तुमने वृक्षों से वनस्पति से

कितना कुछ तुमको मिलता है

औषधि जड़ी बूटियाँ

पौष्टिक द्रव्य रसायन

विविध सुगंधित फूलों से

सुरभित वातायन।

अमरुद, अंगूर आम

आँवले केले जामुन

सेब, संतरे, सीताफल

और नीम की दातुन

सबसे बड़ी बात

हम पर्यावरण बचाएँ

और प्रदूषण से होने वाले

रोगों को दूर भगाएँ।

हम हैं तो,

संतुलित सभी मौसम हैं सारे

सर्दी गर्मी वर्षा से संबंध हमारे

इस चिट्ठी को पढ़कर मानव!

सोच समझकर कदम बढ़ाना

नहीं रहेंगे हम तो निश्चित ही

तुमको भी है मिट जाना।

पानी बोतल बंद लगे हो पीने

रोगों से बचने को,

आगे शुद्ध हवा भी

बिकने यदि लगेगी

तब साँसें कैसे ले पाओगे

मानव! जीवन जीने को।

सोचो! जल जंगल वृक्षों की

रक्षा करके

तुम अपने

मानव समाज की रक्षा भी

तब कर पाओगे

और प्रकृति के प्रकोप से

विपदाओं से

खुद को तभी बचा पाओगे।

आबादी के अतिक्रमणों से हमें बचाओ

बदले में हमसे जितना भी चाहो

तुम उतना सुख पाओ

नमस्कार जंगल का

सब मानव जाति को

जरा ध्यान से पढ़ना

लेना गंभीरता से इस पाती को

चिट्ठी पढ़ना,

पढ़कर तुम सब को समझाना

और शीघ्र संदेश

सुखद हमको पहुँचाना।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 58 ☆ नाराज़ हुआ मौसम… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “नाराज़ हुआ मौसम…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 58 ☆ नाराज़ हुआ मौसम… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

चिंगारी और ये हवाएँ

शायद नाराज़ हुआ मौसम।

 

शब्द-शब्द दोपहर हुई

अर्थ-अर्थ धूप से गला

किरण-किरण पीर आँच सी

गीत-गीत दर्द से जला

 

भाषायी चुप्पियाँ डराएँ

घुटती आवाज हुआ मौसम।

 

फूलों में गंध की चुभन

पंखुड़ियाँ गड़ता अहसास

पत्तों पर बूँद ओस की

कलियों का मरता उच्छवास

 

क्या गाएँ और क्या सुनाएँ

टूटे अल्फ़ाज़ हुआ मौसम।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ काश बचपन लौट के अपना मिले… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “काश बचपन लौट के अपना मिले“)

✍ काश बचपन लौट के अपना मिले… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

ज़ख़्म-ए-दिल जाऊँ दिखाने अब कहाँ

दोस्त वो मेरे पुराने अब कहाँ

 *

आपके जो साथ गुजरे थे कभी

फिर मिलेगें वो जमाने अब कहाँ

 *

जो ग़ज़ल उसको सुनज़नी थी मुझे

ये ग़ज़ल जाऊँ सुनाने अब कहाँ

 *

काट डाले पेड़ घर पक्के हुए

इन परिंदों को ठिकाने अब कहाँ

 *

काटे पर्वत आशिक़ों ने प्यार में

आजकल उनसे दीवाने अब कहाँ

 *

गीध तक रावण से सीता को लड़ा

कोई अबला को बचाने अब कहाँ

 *

काश बचपन लौट के अपना मिले

खेल वो छुपने छुपाने अब कहाँ

 *

साथ चाचा ताऊ दादी सब रहें

इस सदी में वो घराने अब कहाँ

 *

क्रांति ये उद्योग की सब खा गई

छोटे छोटे कारखाने अब कहाँ

 *

राम केवट में न समता थी मगर

उन सरीखे दोस्ताने अब कहाँ

 *

पाक कर दे दिल की जो फ़ितरत मेरी

ढूढें ऐसे आस्ताने अब कहाँ

 *

वक़्त घरवाले न दें तन्हा पड़े

बृद्ध जाएं दिन बिताने अब कहाँ

 *

अय अरुण उलझन मेरी सुलझे नहीं

रहनुमा मिलते सयाने अब कहाँ

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 59 – खुद को मैंने पा लिया… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – खुद को मैंने पा लिया।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 59 – खुद को मैंने पा लिया… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

आज मैंने फिर, भुजाओं में तुम्हें लिपटा लिया

अपने दिल को ख्वाब में ही, इस तरह बहला लिया

*

मैं तो, तुमको देख करके झूम खुशियों से उठा 

जाने क्यों तुमने मगर मिलते ही मुँह लटका लिया

*

आज खाने में, तुम्हारे हाथ की खुशबू न थी 

याद यूँ आयी, निवाला हलक में अटका लिया

*

अपने घर वालों की यादों का करिश्मा देखिये 

बूट पालिश करने वाले बच्चे को सहला लिया

*

संस्कृति से कट गया है, ओहदा पाकर बड़ा 

प्यार की हल्दी का छापा, शहर में धुलवा लिया

*

जिस्म था मेरा, मगर इसमें न मेरी जान थी 

तुमको क्या पाया कि जैसे, खुद को मैंने पा लिया

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 133 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है  “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 133 – मनोज के दोहे ☆

बना सिकंदर है वही, जिसने किया प्रयास।

कुआँ किनारे बैठकर, किसकी बुझती प्यास।।

*

अखबारों में छप रहे, बहुत मतलबी लोग।

कर्म साधना में जुटे, पाते मक्खन भोग।।

*

उत्पादक उपभोक्ता, बीचों-बीच दलाल।

किल्लत कर बाजार में, कमा रहा है माल।।

*

बहुत पढ़े सद्ग्रंथ हैं, पर हैं कोसों दूर।

प्रवचन में ही दीखते, खुद को माने शूर।।

*

दौंदा बड़ा लबार का, राजनीति में योग।

भक्त बने बगुला सभी, लुका-छिपी का भोग।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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