हिन्दी साहित्य – कविता ☆ काश बचपन लौट के अपना मिले… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “काश बचपन लौट के अपना मिले“)

✍ काश बचपन लौट के अपना मिले… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

ज़ख़्म-ए-दिल जाऊँ दिखाने अब कहाँ

दोस्त वो मेरे पुराने अब कहाँ

 *

आपके जो साथ गुजरे थे कभी

फिर मिलेगें वो जमाने अब कहाँ

 *

जो ग़ज़ल उसको सुनज़नी थी मुझे

ये ग़ज़ल जाऊँ सुनाने अब कहाँ

 *

काट डाले पेड़ घर पक्के हुए

इन परिंदों को ठिकाने अब कहाँ

 *

काटे पर्वत आशिक़ों ने प्यार में

आजकल उनसे दीवाने अब कहाँ

 *

गीध तक रावण से सीता को लड़ा

कोई अबला को बचाने अब कहाँ

 *

काश बचपन लौट के अपना मिले

खेल वो छुपने छुपाने अब कहाँ

 *

साथ चाचा ताऊ दादी सब रहें

इस सदी में वो घराने अब कहाँ

 *

क्रांति ये उद्योग की सब खा गई

छोटे छोटे कारखाने अब कहाँ

 *

राम केवट में न समता थी मगर

उन सरीखे दोस्ताने अब कहाँ

 *

पाक कर दे दिल की जो फ़ितरत मेरी

ढूढें ऐसे आस्ताने अब कहाँ

 *

वक़्त घरवाले न दें तन्हा पड़े

बृद्ध जाएं दिन बिताने अब कहाँ

 *

अय अरुण उलझन मेरी सुलझे नहीं

रहनुमा मिलते सयाने अब कहाँ

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 59 – खुद को मैंने पा लिया… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – खुद को मैंने पा लिया।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 59 – खुद को मैंने पा लिया… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

आज मैंने फिर, भुजाओं में तुम्हें लिपटा लिया

अपने दिल को ख्वाब में ही, इस तरह बहला लिया

*

मैं तो, तुमको देख करके झूम खुशियों से उठा 

जाने क्यों तुमने मगर मिलते ही मुँह लटका लिया

*

आज खाने में, तुम्हारे हाथ की खुशबू न थी 

याद यूँ आयी, निवाला हलक में अटका लिया

*

अपने घर वालों की यादों का करिश्मा देखिये 

बूट पालिश करने वाले बच्चे को सहला लिया

*

संस्कृति से कट गया है, ओहदा पाकर बड़ा 

प्यार की हल्दी का छापा, शहर में धुलवा लिया

*

जिस्म था मेरा, मगर इसमें न मेरी जान थी 

तुमको क्या पाया कि जैसे, खुद को मैंने पा लिया

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 133 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है  “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 133 – मनोज के दोहे ☆

बना सिकंदर है वही, जिसने किया प्रयास।

कुआँ किनारे बैठकर, किसकी बुझती प्यास।।

*

अखबारों में छप रहे, बहुत मतलबी लोग।

कर्म साधना में जुटे, पाते मक्खन भोग।।

*

उत्पादक उपभोक्ता, बीचों-बीच दलाल।

किल्लत कर बाजार में, कमा रहा है माल।।

*

बहुत पढ़े सद्ग्रंथ हैं, पर हैं कोसों दूर।

प्रवचन में ही दीखते, खुद को माने शूर।।

*

दौंदा बड़ा लबार का, राजनीति में योग।

भक्त बने बगुला सभी, लुका-छिपी का भोग।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – पूर्ण ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – पूर्ण ? ?

(लघु कविता संग्रह – चुप्पियाँ से)

पूर्ण से

पूर्ण चले जाने पर भी

पूर्ण ही शेष रहता है..,

चैनलों पर सुनता हूँ

प्रायोजित प्रवचन

चुप हो जाता हूँ..,

सारी चुप्पियाँ

समाप्त होने के बाद भी

बची रहती है चुप्पी,

पूर्णमिदं……

……..पूर्णमेवावशिष्यते!

© संजय भारद्वाज  

प्रातः 7:49 बजे

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ 💥 श्री हनुमान साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी। 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ ‘आवेग’ श्री संजय भारद्वाज (भावानुवाद) – ‘Impulse…’ ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi poem “आवेग.  We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)

श्री संजय भारद्वाज जी की मूल रचना

? संजय दृष्टि – आवेग ? ?

(लघु कविता संग्रह – चुप्पियाँ से)

‘चुप रहो’

क्रोध का पारावार

ज्यों-ज्यों बढ़ता है

अपने सिवा

हरेक से

चुप्पी की आशा करता है,

आवेग की

इकाई होती है चुप्पी!

© संजय भारद्वाज  

(2.9.18, प्रातः 6:51 बजे)

मोबाइल– 9890122603, संजयउवाच@डाटामेल.भारत, [email protected]

☆☆☆☆☆

English Version by – Captain Pravin Raghuvanshi

?~ Reticence ~??

?

As the mercury

of anger shoots up,

One expects silence

from everyone

except himself,

Unit of impulse

is the ‘Silence’..!

?

~ Pravin Raghuvanshi

 

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ संसार ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ ☆

डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

(डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ जी  बेंगलुरु के नोबल कॉलेज में प्राध्यापिका के पद पर कार्यरत हैं एवं  साहित्य की विभिन्न विधाओं की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में मन्नू भंडारी के कथा साहित्य में मनोवैज्ञानिकता, दो कविता संग्रह, पाँच कहानी संग्रह,  एक उपन्यास (फिर एक नयी सुबह) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त आपकी एक लम्बी कविता को इंडियन बुक ऑफ़ रिकार्ड्स 2020 में स्थान दिया गया है। आपका उपन्यास “औरत तेरी यही कहानी” शीघ्र प्रकाश्य। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता संसार।)  

☆ कविता ☆ संसार ☆ डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’ ☆

अहा! कितना रमणीय,

कितना मनमोहक,

कितना आकर्षक,

फिर भी क्यों दुखी लोग,

ईश्‍वर ने बनाई दुनिया,

बसते है लोग यहाँ पर,

हँसते रहना है,

ध्यान रखना है,

जन्म से मरण तक,

बस एक ही बात,

मुस्कुराते रहना है,

दर्द को भी झेलना है,

मुस्कुराते हुए…

                मत कर भरोसा किसी पर भी,

       अवलंबित नहीं होना किसी पर भी,

       उन्मुक्त पंछी की तरह,

उड़ना है आसमान रुपी संसार में,

रात- दिन करना है संघर्ष,

मत डाल हथियार,

मात्र जूझना है परिस्थितियों से,

लड़नी खुद की लड़ाई,

न कोई किसीका दुनिया में,

ईश्वर ने भेजा है……

उसी का एक मात्र…

अधिकार तुम पर,

जब चाहे वह…

अपने पास बुलाएगा,

तब तक जीना है…

मुस्कुराते जीओ,

सच को कर स्वीकार

जब भी ज़रुरत पडेगी,

न करेगा इंतज़ार वह,

जब तक चाहेगा,

तब तक ही रहेगा,

इन्सान धरती पर,

फिर क्यों रोना?

हंमेशा खुश रहना,

बनो सूरज की किरणॆं,

बनो चांद की चांदनी,

फैला दो प्रकाश जीवन में,

शांति के दूत बनो,

सलाम करेगी दुनिया,

संघर्ष करता चल,

बन मुसाफिर-मानव,

यह मात्र संसार,

ईश्वर ने रचा है,

यह खेल है ईश्वर का,

हम तो सिर्फ है मोहरे,

हम तो है मात्र खिलौने,

बना अपनी किस्मत,

मत दोषी ठहरा किसीको भी,

स्वयं तुम्हें आगे बढ़ना है,

ख्वाइशो को मत कुचलो,

पाने की कोशिश करो,

मत कर काम गलत कोई,

यह संसार बनाया ईश्वर ने,

दायाँ- बायाँ भरोसा मत कर,

विश्वास रखो खुद पर,

रब भी देगा साथ,

परदीगार साथ है,

संघर्ष मात्र करो…

मंजिल चूमेंगे कदम,

मुकद्दर को लिखो तुम,

कर लो दोस्ती किताबों संग,

संकल्प कर लो जीने का,

राह मिलेगी स्वयं ही,

मुट्ठी में होगा संसार,

वाकीफ है सच से सभी,

परदा लगा है मन पर,

धूल हटा मन पर से,

तुम हो शक्तिशाली,

कर सकते हो हर कार्य,

दिखा दो ईश्वर को भी,

हो तुम सशक्त बलशाली,

श्मशान की राख को भी,

लगायेंगे माथे पर यहाँ,

याद रखे तुम्हें संसार,

करना तुम्हें काम ऐसा,

ईश्वर ने बनाया संसार ।

© डॉ. अनिता एस. कर्पूर ’अनु’

संपर्क: प्राध्यापिका, लेखिका व कवयित्री, हिन्दी विभाग, नोबल कॉलेज, जेपी नगर, बेंगलूरू।

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 195 – कथा क्रम (स्वगत)… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 196 – कथा क्रम (स्वगत)✍

(नारी, नदी या पाषाणी हो माधवी (कथा काव्य) से )

☆ 

इच्छित कार्य का सम्पादन

ययाति की

विनीत और अबूझ

वचनावली से आश्चर्य आहत थे

गालव और गरुड़।

आश्चर्य भेदन किया

ययाति ने –

मैं आपको सौंपता हूँ।

अपनी

देवकन्यासी कांतिवाली

अक्षत योनि कन्या

माधवी

जो करेगी

चार कुलों की स्थापना

और वृद्धि करेगी

सम्पूर्ण धर्म की।”

“हे। ऋषिवर

इस रूपवती गुणवती

को पाने

सुर, असुर, और मनुष्य

सभी लालायित है

आतुर हैं।”

ग्रहण करें

मेरी पुत्री

और

सिद्ध करें

अपना अभीष्ट।

जो

इससे करना चाहे

हो—

 क्रमशः आगे —

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 195 – “कड़ियों शहतीरों में…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत “कड़ियों शहतीरों में...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 195 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “कड़ियों शहतीरों में...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

पूछे मेहराब से

डरे अनाथ कंगूरे

राजपाट चलागया

हम रहेअधूरे

 

कड़ियों शहतीरों में

चिह्न राजवंशो के

टूटकर बिखर गये

बचे अंश ध्वंशों के

 

अर्दली दरवान सभी

वक्त रहे निकल गये

जो थे विश्वास पात्र

आधे अधूरे

 

रेगरेंग चलते थे

ड्योढ़ी के जो आगे

वे सब बौने सेवक

फेरफेर मुँह भागे

 

दारोगा प्रहरी सब

या फिर दीवान सभी

लगा यहाँ करते थे

कभी कनखजूरे

 

तुर्कीटोपी और हेट

लगाये तिरछे

भागते रहे आये

जो घोड़ों के पीछे

 

इनकी अपनी बिसात

वैसे तो कुछ न थी

ऐंठ चला करते थे

राजसी जमूरे

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

16-06-2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अति ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  अति  ? ?

(लघु कविता संग्रह – चुप्पियाँ से)

किसी बात की

अति अच्छी नहीं होती

माँ कहती हैं..,

सोचता हूँ

क्रोध की अति

अपने साथ

दूसरे के लिए भी

घातक होती  है,

चुप्पी की अति

मारकेश का

कारक होती है!

© संजय भारद्वाज  

( प्रातः 7:28 बजे)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ 💥 श्री हनुमान साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी। 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 182 ☆ # “घरौंदा” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता घरौंदा

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 182 ☆

☆ # “घरौंदा” #

जीवन भर की

मेहनत से

लगन से

बचत से

हम एक घरौंदा बनाते हैं  

अपनी आशाएं

इच्छाएं

संभावनाएं

लगाकर

उसे सजाते हैं

हमारी सिर्फ

यही कोशिश होती है

कि  पूरा परिवार

साथ रह सके

खुशी हो या गम

कांटे हो या फूल

दुःख हो या सुख

साथ-साथ सह सकें

जब घरौंदा बनता है

प्यार और स्नेह

आपस में छनता है

हर पल खिलखिलाहट

घर में जगमगाहट

रिश्तों की नई पहचान होती है

घर की आन और शान होती है

हम आत्मविभोर हो जाते हैं

सुन्दर सपनों में खो जाते हैं

मीठी मीठी नींद गुदगुदाती है

ठंडी ठंडी हवा

आगोश में सुलाती है

 

तभी आसमान से

एक परी उतरती है

घर में सज धज कर आती है

सारा घर उसके स्वागत में

पलकें बिछाता है

छोटा हो या बड़ा

हर कोई गले लगाता है

वो सबके आंखों

का नूर होती है

अपनी प्रशंसा से

मगरूर होती है

धीरे धीरे वो अपना

रंग दिखाती है

दूसरे देश से आई है

यह अपने व्यवहार से दर्शाती है

घर की खुशियां

बिखर जाती है

अपने तानों से

सबका दिल दुखाती है

अपने प्राणाधार के साथ

दूसरी दुनिया में

चली जाती है

घरौंदा टूटता है

राख बच जाती है

 

पति-पत्नी जीवन भर

एक खुशगवार फूलों सा

घरौंदा बनाने का

सपना देखते हैं

ऐसी परियां

उनके सपने तोड़ कर

कौड़ी के दाम

बेचते हैं

जीवन के आखिरी पड़ाव पर

क्या यही उनके जीवन भर के

त्याग, परिश्रम का मोल है ?

टूटते घरौंदे, बिखरते परिवार

बिलखते मां-बाप

असहाय, निर्बल

क्यों

घर और बाहर

दोनों जगह बेमोल हैं ? /

*

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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