हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 206 ☆ यहाँ कदमताल मिलते हैं ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 206 ☆

यहाँ कदमताल मिलते हैं ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

(मित्रो 1983 में यह गीत पीटीसी – 2 में बड़ा मशहूर हुआ था सांस्कृतिक कार्यक्रमों में। आप लौट आइए पुरानी स्मृतियों में)

नित परेड में कदम – कदम पर

कदमताल मिलते हैं। 28

भीनी – भीनी खुशबू के यहाँ

अमलतास खिलते हैं।।

होती भोर सभी जग जाते।

दिनचर्या में रत हो जाते।

शौचालय में लाइन लगाते।

स्नानगृह – शौचालय भी

तीनों – तीन में मिलते हैं।।

भीनी – भीनी खुशबू के यहाँ

अमलतास खिलते हैं।।

 *

सीटी बजती फोलिन होते।

सिक वाले के उड़ते तोते।

देर जो करते मुख हैं रोते।

यहाँ तीनों  – तीन में

लाइन बनाकर चलते हैं।।

 *

पीटी होती हर्ष मनाते।

आईटी में सब गुम हो जाते।

फायरिंग में प्यासे रह जाते।

यहाँ प्रेमी , कर्मठ एडुजेंट

टेकचंद जी मिलते हैं।

भीनी – भीनी खुशबू के यहाँ

अमलतास खिलते हैं।।

 *

सम्मेलन में हर्ष मनाते।

हम परेड से सब बच जाते।

प्रश्नों का निदान भी पाते।

सिंघल साहब व डॉक्टर साहब

से योग्य प्रिंसिपल मिलते हैं।

भीनी – भीनी खुशबू के यहाँ

अमलतास खिलते हैं।।

 *

पौने दस बजे कॉलेज जाते।

राघब जी बखूब पढ़ाते।

तीनों गुप्ता जी विधि पढ़ाते।

यहाँ शर्मा जी , अग्निहोत्री जैसे

प्रेमी दिल भी मिलते हैं।

भीनी – भीनी खुशबू के यहाँ

अमलतास खिलते हैं।।

 *

भोजन करते कुत्ते आते।

सदा प्यार से भोजन खाते।

कुछ तो संग परेड में जाते।

यहाँ हर कर्मचारी में

अलग ही नक्शे मिलते हैं।

भीनी – भीनी खुशबू के यहाँ

अमलतास खिलते हैं।।

 *

सोशल होती मौज मनाते।

बातों में सारे रम जाते।

पिक्चर के दिन मन हर्षाते।

यहाँ विश्वविद्यालय में पढ़े युवा

अनुशासन में ढलते हैं।

भीनी – भीनी खुशबू के यहाँ

अमलतास खिलते हैं।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #231 ☆ बाल कविता – गोलू को पानी की सीख… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक बाल कविता – गोलू को पानी की सीख…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #231 ☆

☆ बाल कविता – गोलू को पानी की सीख… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

पानी के संकट को लेकर

गोलू को कितना समझाएँ

ध्यान नहीं देता है बिल्कुल

कैसे उसको सीख सिखाएँ।

*

गर्मी का आतंक मचा है

रोज-रोज फिर घटना पानी

जल को लेकर तू-तू मै-मैं

हुई रोज की नई कहानी,

उस पर गोलू की शैतानी

जब तब पानी व्यर्थ बहाए

गोलू को कितना समझाएँ।

*

सुबह-सुबह जब शौच को जाए

मुँह धोए ब्रश करे नहाए

पानी सतत बहता रहता

टोंटी खुली छोड़ आ जाए,

नहीं भुलक्कड़ है इतना वह

जान बूझ कर हमें चिढ़ाए

गोलू को कितना समझाएँ।

*

सूझा एक उपाय आज अब

गया नहाने बाथरूम जब

साबुन मला बदन में सिर में

पानी आना बंद हुआ तब,

रोया चिल्लाया तड़पा वह

पानी दे कोई मुझे बचाए

गोलू को कितना समझाएँ।

*

पहले तो कबूल करवाया

गलती का एहसास कराया

फिर टंकी का वाल्व खोलकर

पानी का महत्व समझाया,

सीख मिली गोलू जी को

अब बूँद-बूँद जल रोज बचाए

गोलू को कितना समझाएँ।।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 55 ☆ मुहताज हुए लोग… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “मुहताज हुए लोग…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 55 ☆ मुहताज हुए लोग… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

रीति रिवाजों के

मुहताज हुए लोग

कटे हुए पर के

परवाज़ हुए लोग ।

*

गर्भवती माँ की

अनदेखी लाज

बूढ़े की लाठी

टूटता समाज

*

बटन बिना कुर्ते के

बस काज हुए लोग ।

*

टेढ़ी पगडंडी

गाँवों का ख़्वाब

शहरों ने ओढ़ा

झूठ का रुआब

*

सच के मुँह तोतले

अल्फ़ाज़ हुए लोग ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – औरत ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  औरत  ? ?

जैसे शैवाली लकड़ी

ऊपर से एकदम हरी,

कुरेदते जाओ तो

भीतर निबिड़ सूखापन,

कुरेदना औरत का मन कभी,

औरत और शैवाली लकड़ी

एक ही प्रजाति की होती हैं..!

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ 💥 श्री हनुमान साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी। 💥 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ नहीं हम मांगते है खून तुमसे देश की ख़ातिर… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “नहीं हम मांगते है खून तुमसे देश की ख़ातिर“)

✍ नहीं हम मांगते है खून तुमसे देश की ख़ातिर… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

जो बंधन रस्मों के रोकें ज़रा उनको हटाओ तो

सभी अवरोध तोडूंगा मुहब्बत से बुलाओ तो

 *

जला के क्या मिला तुमको ये बस्ती और कुछ इंसा

कहूँगा मर्द जो मुफ़लिस के घर चूल्हा जलाओ तो

 *

रगों में दूध मीरा का अभी बहता लहू बनकर

ख़ुशी से ज़ह्र पी लूगाँ महब्बत से पिलाओ तो

 *

जड़ें निकली है जिनकी तख्त पर बरगद बने छाए

पनपने हिन्द को अपने इन्हें पहले गिराओ तो

 *

हो नादिर शाह कोई जीतना उसको नहीं मुश्किल

जो छाया ख़ौफ़ है दिल पर उसे पहले मिटाओ तो

 *

नहीं हम मांगते है खून तुमसे देश की ख़ातिर

सिदक दिल से जो अपना फ़र्ज़ है केवल निभाओ तो

 *

अदावत बुग्ज़  का करना नहीं गाँधी ने सिखलाया

गले से हम लगा लें हाथ जो अपना बढ़ाओ तो

 *

अगर है नाम तेरा पाक तो पाकीज़गी दिखला

हटाकर खाल बकरे की सही सूरत दिखाओ तो

 *

अरुण ये शायरी तेरी रिवायत की हुई हामी

ग़ज़ल कोई जदीद अपनी कभी हमको सुनाओ तो

 * 

अरे जो चल रहा चलने दो छोड़ो भी हटाओ तो

नहीं ऐसे बदलना कुछ ये सब बातें भुलाओ तो

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 55 – कद्रदां, कोई बुलाये न गये… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – कद्रदां, कोई बुलाये न गये।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 55 – कद्रदां, कोई बुलाये न गये… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

अपने हालात, दिखाये न गये 

दिल के जज्बात, बताये न गये

*

रोज लिखते हैं खत मुझे लेकिन

फाड़ देते हैं, पठाये न गये

*

दस्तकें देकर लौट आया हूँ 

आप सोते थे, जगाये न गये

*

होंठ तो, बंद कर लिए हमने 

अश्रु आँखों के, दबाये न गये

*

आज महफिल सजाई है उनने 

कद्रदां कोई बुलाये न गये

*

मेरे मरने का गम उन्हें कैसे 

जिनसे, दो अश्रु गिराये न गये

 

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 130 – कलयुग में न्यारी है यारी ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “कलयुग में न्यारी है यारी। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 130 – कलयुग में न्यारी है यारी… ☆

 

कलयुग में न्यारी है यारी।

अंदर से है चले कटारी।।

 *

त्रेतायुग के राम राज्य पर,

कलयुग की जनता बलिहारी।

 *

राजनीति में चोर-सिपाही,

खेलम-खेला बारी-बारी।

 *

विश्वासों पर घात लगाकर,

चला रहे यारी पर आरी।

 *

जनता ही राजा को चुनती,

नहीं समझती जुम्मेदारी।।

 *

मतदाता मतदान न करते,

जीतें-हारें, खद्दर-धारी।

 *

मतदानों का प्रतिशत गिरता,

यह विडंबना सब पर भारी ।

 

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

15/5/24

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – वह ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  वह  ? ?

(21)

वह मथती है दही,

नवनीत निकालती है,

समुद्र मंथन का विचार

समाहित था

उसकी मथानी में!

 

(22)

वह पढ़ती है,

सुनते हैं पढ़ना

बाघिन का दूध पीना है,

उसका पढ़ना

खुद बाघिन का पढ़ना है!

 

(23)

वह होती है

दहलीज़ के भीतर

उसकी चर्चा होती है

दहलीज़ के बाहर,

भीतर-बाहर को निरखती है

वह खुद अपनी दहलीज़ बनती है!

 

(24)

वह जाना चाहती है

उसके काँधे

पर उससे आँच

नहीं लेती वह,

अखंड ज्योति

बनी रहती है वह!

 

(25)

वह जानती है

उससे कुछ ही

बेहतर जियेगी

उसकी बेटी,

फिर भी

बेटी जनती है वह,

सृष्टि को

टिकाये रखने की

ज़िम्मेदारी

नहीं भूलती वह!

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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🕉️ 💥 श्री हनुमान साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की जानकारी आपको शीघ्र ही दी जाएगी। 💥 🕉️

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 192 – कथा क्रम (स्वगत)… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 192 – कथा क्रम (स्वगत)✍

(नारी, नदी या पाषाणी हो माधवी (कथा काव्य) से )

मित्र,

नेत्रपटल पर उभरा

मित्र गरुड़ का चित्र ।

गरुड़ का स्मरणः

एकाएक

मुख पर

खिल गई मुस्कान् ।

मानो मिल गया –

समाधान ।

गरुड़ बोले-

चलो

चलकर मिलते हैं

महाराज ययाति से

जो कर चुके हैं

सहस्त्रों यज्ञों का

अनुष्ठान ।

निश्चय ही

वे

पूर्ण करेंगे

मनो कामना ।

मित्र गरुड़

और

ऋषि गालव को

राजसभा में

उपस्थित पाकर,

आदर से

उठ खड़े हुए

ययाति महाराज ।

बोले

शुभ दिन है आज।

मैं

कृतार्थ हुआ

आप दोनों के दर्शन पाकर।

क्रमशः आगे —

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 192 – “धूपमे सूखे दिखे हैं…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत धूपमे सूखे दिखे हैं...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 192 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “धूपमे सूखे दिखे हैं...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

शब्द तेरे प्रेमरासो के

चित्र जैसे हों पिकासो के

 

मुस्कराहट जहाँ

इसमें टँकी दिखती है

जो यहाँ पर एक कविता

सहज लिखती है

 

क्या बतायें प्रेम की

देते परीक्षा

धूपमे सूखे दिखे हैं

दिन ” प्रकासो ” के

 

डुबकियाँ लेती

नदी में दिखाई देती

जो किनारे पर खड़ी

जमुहाइयाँ लेती

 

फिर प्रयत्नो मे जुटी

जैसे निरंतर

लगा होंगे पूर्ण सब

सपने ” प्रयासो”  के

 

बहुत है विस्तृत

सुनो परछाई इसकी

कौनसा आकार इसमें

ले रहा सिसकी

 

कौन दिखता

जूझता रेखांकनों से

रंग में डूबी हुई

लड़की  “हुलासो ” के

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

19-5-2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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