हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #231 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  प्रदत्त शब्दों पर भावना के दोहे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 232 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

(प्रदत्त शब्दों पर दोहे)

परिमल

मोहक परिमल गंध का, लेते हम आनंद।

रसिक राधिका ने कहा,लिख दो प्यारे छंद।।

*

कोकिल

 मोहक कंठी कोकिला,प्यारी सी आवाज।

चहक -चहक खग कह रहे, आए हैं ऋतुराज।।

*

किसलय

किसलय फूटा शाख पर,हुआ नवल शृंगार।

सुंदर शाखें सज रही,दिखता प्यार अपार।।

*

कस्तुरी

कस्तूरी की गंध ने,मृग को किया विभोर।

इधर – उधर मृग ढूँढता,कहीं न दिखता छोर।।

*

पुष्प

पुष्प चढ़ाते प्रेम का,प्रभु देते आशीष।

याचक ने की  याचना, झुके द्वार पर शीश।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #214 ☆ एक पूर्णिका – खूब चाहा छिपाना दर्द को… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक पूर्णिका – खूब चाहा छिपाना दर्द को आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 214 ☆

☆ एक पूर्णिका – खूब चाहा छिपाना दर्द को ☆ श्री संतोष नेमा ☆

जख्म दिल के दिखाये न गये

राज  दिल  के  बताये  न गये

*

गीत  लिक्खे  प्यार  के  हमने

अफसोस   पर  सुनाये न  गये

*

इस  तरह मगरूर  थी  खुद में

रिश्ते  प्यार  के निभाए  न गये

*

खूब  चाहा  छिपाना  दर्द  को

चाह  कर  भी  छिपाये  न गये

*

सोचा मिटा  दें निशां  प्यार  के

पर  मुश्किल  है मिटाए न  गये

*

है  खुदा  की  नेमत   प्यार  भी

लब्ज़  ये  उनसे  जताये न  गये

*

दिल में “संतोष” आस आँखों में

कभी   हमसे   भुलाये   न  गये

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 7000361983, 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – रेप ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – रेप ? ?

रेप क्या होता है पापा?…

चैनलों के चीखते शब्दों

और बहस के कोलाहल के बीच

पाँच साल की बिटिया के

सवाल से सिहर उठा वह!

 

टीवी वाली चिंकी

एकदम बुद्धू है पापा

उसके पेट से तीन मोमबत्तियाँ निकलीं

पर उसने मोमबती खाई कैसे?

उसकी मम्मा ने रोका क्यों नहीं?

 

मैंने उस दिन थोड़ी-सी

मिट्टी खाई थी,

आपने मुझे डाँटा था न पापा!

फिर उसने तेल की शीशी

पेट में डाल ली

तो उसके पापा ने

डाँटा क्यों नहीं?

और पापा,

इतनी बड़ी शीशी

उसके पेट में कैसे गई?

सवाल-पर-सवाल

मूक निरुपाय जवाब

शरीर जड़ होता गया।

सांय-सांय करते कान

पथराती आँखें

भीतर सुन्न होता गया।

 

टीवी निरंतर चीखता रहा

वह मन ही मन दरिंदों को कोसता रहा,

उत्तर जानते हुए भी

चुप रहने की विवशता

वह लगातार भोगता रहा..!

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 श्री हनुमान साधना – अवधि- मंगलवार दि. 23 अप्रैल से गुरुवार 23 मई तक 💥

🕉️ श्री हनुमान साधना में हनुमान चालीसा के पाठ होंगे। संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही। मंगल भव 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #170 – कविता – शुभ… ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम कविता शुभ…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 170 ☆

☆ कविता – शुभ… ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

गोधूलि बेला~

घंटी की धुन संग

उड़ती धूल।

धुन= ध्वनि हो सकता हैं।

 *

शुभप्रभात~

डालियों की आकृति

करबद्ध-सी।

 *

शुभ प्रार्थना~

सूर्य को अर्घ्य देती

नवयौवना।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 204 ☆ बाल कविता – आगे फिर पछताना होगा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 204 ☆

☆ बाल कविता – आगे फिर पछताना होगा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

नित्य सवेरे पक्षी आकर

मीठे गीत सुनाते हैं।

सोए रहते अंशी, वीरा

कभी नहीं सुन पाते हैं।।

नन्नू ,सोनम, कुश भी सोएँ

नया जमाना है आया ?

बुलबुल , तोता, मैना सोचें

इन्हें न कलरव है भाया?

 *

शाला जाते बच्चे पैदल,

हास्य व्यंग्य भी करते थे।

कंधे पर बस्ता लटकाए,

हर मौसम में चलते थे।।

 *

नहीं रही वह चहल – पहल भी

जिसमें बचपन चहके था।

बाग बगीचे मधु वसंत में

आम-बौर भी महके था।।

 *

अब तो बदल रहा सब कुछ ही

रहना , खाना , पीना सब।

देर रात तक जगते रहना

मोबाइल सँग जीना अब।।

 *

मात – पिता से बच्चे सीखें,

संस्कृति और संस्कार ।

बचपन होता उनके हाथों,

जीवन है नींव का सार।।

 *

भविष्य सँभालो मात – पिताओ

आगे फिर पछताओगे।

धन होगा पर स्वास्थ्य न होगा

जीते जी मर जाओगे।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ तेरी मुहब्बत हूं मैं ☆ सौ. वृंदा गंभीर ☆

सौ. वृंदा गंभीर

कविता – तेरी मुहब्बत हूं मैं ☆ सौ. वृंदा गंभीर ☆

तेरा एहसास हूं मैं

तेरी सांस हूं मैं

‘तेरी जिंदगी हूं मैं

क्या हुआ थोडी दूर हूं मैं

फिर भी तेरी हर एक सांस

में हूं मैं

सिर्फ मुझे दिल से याद करना

तेरे पास खडी हो जाऊंगी मैं

इतना तो भरोसा रखो

तेरी हर कदम में साथ हूं मैं

क्या करे तेरी मुहब्बत ने

पागल कर दिया हमें 

तेरे प्यार में डूब चुकी हूं मैं

अब मैं मेरी रही नहीं

दिलोजान से ‘तेरी हुई हूं मैं

अब जिंदगी भी ‘तेरी मौत भी ‘तेरी

जो कुछ भी हो तुम्हारी हूं मैं

हर पल तुमको याद करती हूं

हर एक दिन तुम्हारी राह देखती

हूं मैं

अब तुम्हारे सिवा जीना गवारा नहीं

तेरे प्यार में अंधी हुई हूं मैं

तुम सिर्फ याद रखना

कोई तुम्हारा इंतजार करता है

तुम नहीं आये तो जान दे दूंगी मैं

तुम सिर्फ मेरे हो किसी और के नहीं

तुम्हारे लिए पागल हो गई हूं मैं

अब दौड के आ जाना

नहीं तो मर जाऊंगी मैं

 – दत्तकन्या

© सौ. वृंदा गंभीर

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #229 – कविता – अब गुलाब में केवल काँटे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता “अब गुलाब में केवल काँटे…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #229 ☆

☆ अब गुलाब में केवल काँटे… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

बातें अपनी

कुछ जन-मन की

किससे कहें, सुनें

विचलन की।।

 

नित नूतन आडंबर लादे

घूम रहे राजा के प्यादे

गुटर गुटर गू करे कबूतर

गिद्ध अभय के करते वादे,

बात शहर में

बीहड़ वन की।…

 

सपनों में रेशम सी बातें

करते हैं छिपकर फिर घातें

ये बेचैन, विवश है रोटी

वे खा-खा कर, नहीं अघाते,

बातें भूले

अपनेपन की।……

 

अब गुलाब में केवल काँटे

फूल, परस्पर खुद में बाँटे

गेंदा, चंपा, जूही, मोगरा

इनको है मौसम के चाँटे,

 रौनक नहीं रही

 उपवन की।……,

 

है,अपनों के बीच दीवारें

सद्भावों के नकली नारे

कानों में मिश्री रस घोले

मिले स्वाद किंतु बस खारे

कब्रों से हुँकार

गगन की।….

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 53 ☆ रामलखन… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “रामलखन…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 53 ☆ रामलखन… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

भरी जवानी में बूढ़ा

दिखता है रामलखन।

 

पौ फटते ही

मज़दूरी के लिए निकल जाता

साँझ ढले पर

लुटा-पिटा सा घर को आ पाता

 

आते घरवाली कहती

अब बचा नहीं राशन।

 

बिना फ्राक के

मुनिया कैसे जायेगी स्कूल

छप्पर टूटा

कहता मुझको न जाना तुम भूल

 

अब की बारिश के पहले

कर लेना कोई जतन।

 

पिछड़ों में भी

नाम लिखाया था पटवारी को

बहन लाड़ली

में भी जोड़ा था घरवारी को

 

नहीं कहीं है सुनवाई

विपदा भोगे निर्धन।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ टूट गई पतवार भँवर में… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “टूट गई पतवार भँवर में“)

✍ टूट गई पतवार भँवर में… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

मन दर्पण में सुधियों का अंबार लगा

खुशियों में भी मेरे मन पर भार लगा

नूर नहीं चहरे पर दुख की छाया है

जिसको देखो आज वही बीमार लगा

 *

जो देता वो उसमें ही खुश रहना है

सब उपदेशों का यह मुझको सार लगा

 *

सच को सच कहने से मुखिया डरता है

कुर्सी पाकर वो कितना लाचार लगा

 *

टूट गई पतवार भँवर में नाँव फसी

ईश्वर मेरे तू ही मुझको पार लगा

 *

इक दिन जाना तय है जो भी आया है

चार दिनों का मेला यह संसार लगा

 *

मरघट सा सन्नाटा घर में फैला था

तुम आये तो भीड़ भरा बाजार लगा

 *

हाथ रखा जबसे तुमने सर पर मेरे

अपना हर सपना होता साकार लगा

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 53 – खुद ही उंगली जला ली आपने… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – खुद ही उंगली जला ली आपने।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 53 – खुद ही उंगली जला ली आपने… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

बात मेरी न टाली आपने 

लाज सबकी बचा ली आपने

*

बंद, मुंह, कर दिया जमाने का 

माँग भर दी जो खाली आपने

*

तोड, जंजीर रूढ़ियों की सब 

हथकड़ी धागे की, डाली आपने

*

काटकर कुप्रथाओं के पर्वत 

राह उससे निकाली आपने

*

शत्रु लाचार को, शरण देकर 

कितनी जोखिम उठा ली आपने

*

शांति के यज्ञ में, हवन करके 

खुद ही, उंगली जला ली आपने

*

आग मजहब की तो, बुझा आये 

दुश्मनी, कितनों से पाली आपने

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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