हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – क्षितिज ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  क्षितिज ? ?

छोटेे-छोटे कैनवास हैं

मेरी कविताओं के

आलोचक कहते हैं,

और वह बावरी

सोचती है

मैं ढालता हूँ

उसे ही अपनी

कविताओं में,

काश!

उसे लिख पाता

तो मेरी कविताओं का

कैनवास

क्षितिज हो जाता!

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 श्री हनुमान साधना – अवधि- मंगलवार दि. 23 अप्रैल से गुरुवार 23 मई तक 💥

🕉️ श्री हनुमान साधना में हनुमान चालीसा के पाठ होंगे। संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही। मंगल भव 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ प्रेमा के प्रेमिल सृजन… परशुराम जयंती विशेष  – भगवान परशुराम ☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆

श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ 

(साहित्यकार श्रीमति योगिता चौरसिया जी की रचनाएँ प्रतिष्ठित समाचार पत्रों/पत्र पत्रिकाओं में विभिन्न विधाओं में सतत प्रकाशित। कई साझा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित। दोहा संग्रह दोहा कलश प्रकाशित, विविध छंद कलश प्रकाशनाधीन ।राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय मंच / संस्थाओं से 200 से अधिक सम्मानों से सम्मानित। साहित्य के साथ ही समाजसेवा में भी सेवारत। हम समय समय पर आपकी रचनाएँ अपने प्रबुद्ध पाठकों से साझा करते रहेंगे।)  

☆ कविता ☆ प्रेमा के प्रेमिल सृजन… परशुराम जयंती विशेष  भगवान परशुराम ☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆

(परशुराम जयंती विशेष – 2 मई)

अमर जयंती शुभ दिवस ,शुक्ल पक्ष तिथि आज।

परशुराम वह नाम है, शूर वीर के काज।।

शूर वीर के काज,विष्णु के जो अवतारी ।

पुत्र हुए मिल पाँच, पिता यह आज्ञाकारी।।

करे योगिता जाप,प्रगट है पूजें संती।

अक्षय मिले वरदान,मनातें अमर जयंती ।।1।।

मात रेणुका हर्ष में , चहुँदिशि देख प्रकाश।

परशुराम जमदग्नि सुत,करते दूर निराश।।

करते दूर निराश, बढ़ी खुशियांँ जग भारी।

ओज शौर्य में पूर्ण, कहें सब फरसाधारी।।

कुल द्रोही बन आप,हुए भू अनालुंबुका।

पाप मिटाते पुत्र,नमन कर मात रेणुका।‌।2।।

 *

वंदन बारंबार है, योद्धा जन्में वीर।।

अस्त्र-शस्त्र संज्ञान से, कहलाते रणधीर।।

कहलाते रणधीर,तभी सब काँपे रिपु दल।

छटे विष्णु अवतार, कष्ट का देते सब हल।।

प्रेमा करें प्रणाम, तिलक कर माथे चंदन।

शुभ अक्षय शुचि प्राप्त, करें जो इनको वंदन।।3।।

 

© श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’

मंडला, मध्यप्रदेश

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 188 – मन का केनवास… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – मन का केनवास।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 188 – मन का केनवास✍

(नारी, नदी या पाषाणी हो माधवी (कथा काव्य))

मन के

कैनवास पर

चित्रित हो तुम

मौनमुखी माधवी।

मोनालिसा की

अबूझ

मुस्कान

की तरह।

आखिर

कौन सा रहस्य है।

तुम्हारे अंतः में

माधवी ।

कौन सी विवशता थी

तुम्हारी?

क्या थे

तुम्हारे

इच्छा

आकांक्षा

महत्वाकांक्षा?

क्या है

ऋषि द्वारा

तुम्हें दिये गये

अक्षत कौमार्य

के वरदान का

रहस्य?

वरदान

सत्य था

या भ्रम?

या प्रतिष्ठा का कवच !

यातत्कालीन सामाजिक संरचना का

तथ्य ?

जो भी हो

मुझे लगता है

अब तक चल रहा है

वरदानों

और विवशताओं का क्रम !

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 189 – “और शाम घिर आई अब…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत  और शाम घिर आई अब...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 189 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “और शाम घिर आई अब...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

देख रही आँगन ठिठकी

विस्थापित संयुक्ता

अपभ्रंश रहगया गाँव

होता था लिपा पुता

 *

कभी बाढ हो जाती थी

अभिशप्त जानलेवा

सिमरन करते सब वर्षा में

देवा हे देवा

 *

उसी नदी पर बाढ़ रोकने

बाँध बना भारी

हटा दी गई गाँव संग

जिससे वह ग्राम सुता

 *

उसी गाँव का ग्रीष्म

खिल खिलाकर हँसता रहता

वृक्षों की नवजात कोंपलों

में कोई कहता –

 *

यह प्रसन्नता नकली दिखती

पोल खुली इसकी

आखिर हुई शील मर्यादा

सारी अनावृता

 *

सिमट रही है बहू सरीखी

धरती  कोने में

अपना हर्ष विषाद समेटे

छोटे दोने में

 *

और शाम घिर आई अब

पश्चिमी किनारे पर

जबकि झरोखों में प्रतीक्षा

बैठी अलंकृता

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

03-05-2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अनौपचारिक ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि –  अनौपचारिक ? ?

मन विदीर्ण हो जाता है

जब कोई ऊपरी

कह-बोल कर

आदर, अपनत्व

बताता-जताता है,

भीतर कुछ दरक जाता है,

जब कोई रिश्तों को

औपचारिकता का

लिबास पहनाता है,

जानता हूँ-

नेह की छटाओं में

होती नहीं एकरसता है

पर मेरी माँ ने कभी नहीं कहा

‘तू मेरे प्राणों में बसता है।’

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

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💥 श्री हनुमान साधना – अवधि- मंगलवार दि. 23 अप्रैल से गुरुवार 23 मई तक 💥

🕉️ श्री हनुमान साधना में हनुमान चालीसा के पाठ होंगे। संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही। मंगल भव 🕉️

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 176 ☆ # “गर्मी” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता गर्मी 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 176 ☆

☆ # “गर्मी” #

गर्मी से बुरा हाल है

हर शख्स बेहाल है

तपती प्रचंड धूप से

झुलसी हुई चाल है

 

कहीं कहीं लू चल रही है

धरती ज्वाला सी जल रही है

नंगे पांव चलना मुश्किल है

हवायें आग उगल रही है

 

मजदूर पसीने से तरबतर है

उन्हें ना धूप ना लू से डर है

पेट की आग उनपर भारी है

भूख के आगे सब बेअसर है

 

गर्म गर्म हवाओं के झोंके हैं 

पेड़ों की छांव उनको रोके है

जिनका ना कोई रैन बसेरा हो

उनके नसीब मे तो बस धोके हैं 

 

चौराहे पर ठंडे पानी के प्याऊ है

व्यवस्था अच्छी पर काम चलाऊ है

समाज सेवा का दंभ भरते हैं 

वर्ष भर जिनका आचरण बस खाऊ है

 

आजकल सियासत के अलग रंग है

देखकर हर कोई दंग है

सब कुछ दांव पर लगाकर

लड़ रहे जैसे जंग है

 

हर क्षेत्र मे नया मोड़ है

गुटबाजी और तोड़फोड़ है

तानाशाही चरम पर है

सौदेबाजी जी तोड़ है

 

कहीं सूरज की गर्मी

तो कहीं सियासत की गर्मी है

मतदाता चुप है

उसके व्यवहार मे नर्मी है

झूठी कसमें, खोखले वादों मे

शुरू से अंत तक छुपी बेशर्मी है

 

कहीं यह गर्मी व्यवस्था को जला ना दे  ?

पिघलता हुआ लावा है

नींव को गला ना दे  ?

शीतल जल की

फुहारों की बहुत जरूरत है

वर्ना यह गर्मी सब कुछ

राख में मिला ना दे ? /

*

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – राम जाने… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता ‘राम जाने…’।)

☆ कविता – राम जाने… ☆

चांद तारों से मिलकर,

सज कर संवर कर,

 किससे मिलने चला,

 ये तो राम जाने,,

 

 फूल डाली पर खिलकर,

 कलियों से मिलकर,

 किससे मिलने खिला,

 ये तो राम जाने,,

 

 नदी पर्वत से चलकर,

 झरनों में ढलकर,

 किसको रही है बुला,

 ये तो राम जाने,

 

 यूं ही जीवन है,

 चलता है मगर,

 जाना है किधर,

 ये तो राम जाने,

 

 न कुसूर,न फितूर,

 प्यार में डूब गए,

 आगे क्या होगा अब,

 ये तो राम जाने,

 

 राज की बात है,

 राज ही रहने दो,

 खुलने पर क्या होगा,

 ये तो राम जाने,

 

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 185 ☆ गीत – अभिन्न ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है गीत – अभिन्न…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 185 ☆

एक गीत – अभिन्न ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

 

हो अभिन्न तुम

निकट रहो

या दूर

*

धरा-गगन में नहीं निकटता

शिखर-पवन में नहीं मित्रता

मेघ-दामिनी संग न रहते-

सूर्य-चन्द्र में नहीं विलयता

अविच्छिन्न हम

किन्तु नहीं

हैं सूर

*

देना-पाना बेहिसाब है

आत्म-प्राण-मन बेनक़ाब है

तन का द्वैत, अद्वैत हो गया

काया-छाया सत्य-ख्वाब है

नयन न हों नम

मिले नूर

या धूर

*

विरह पराया, मिलन सगा है

अपना नाता नेह पगा है

अंतर साथ श्वास के सोया

अंतर होकर आस जगा है.

हो न अधिक-कम

नेह पले

भरपूर

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

९.४.२०१६

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – विभाजन ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)

? संजय दृष्टि – विभाजन ? ?

यथा-तथा

किंतु-परंतु

अगर-मगर

ओह-पर

फ़सादी ़ज़बान

उन्मादी माहौल

सर्वदा जन्म देते हैं

विभाजन को..,

 

रेल ढोती है लाशें

छतों पर होती हैं जच्चा

सीमाओं की जंग में

जनती हैं बच्चा..,

मुझे लगता है,

विभाजन के दंश

सबसे ज्यादा

भोगती-सोखती है औरत,

घर,परिवार, बच्चों और

बारबार अपनी देह पर..,

 

इस ओर का बीज उस ओर,

उस ओर का बीज इस ओर,

लाशों से भरी रेलों में

प्राण का संवाहक होती है औरत..!

 

औरत की कोख में दबा

यहाँ का बीज पनपता है वहाँ,

वहाँ का बीज पनपता है यहाँ..,

 

भविष्य में यही बीज

उठ खड़े होते हैं

एक-दूसरे के विरुद्ध

और अपने नये खेमे से

फूँकते हैं शंख

अपनी ही धरोहर के विरुद्ध..,

 

धरती पर खड़े कर

कँटीले तार

शासक बाँट लेता है सीमाएँ

पर माँ बच्चों को बाँट नहीं पाती..,

 

सुनो विभाजन के पक्षधरो!

गुरुत्वाकर्षण केवल

धरती में होता है

इसके अभाव में

अंतरिक्ष में पैर धरातल पर

टिक नहीं पाते,

औरत धरती होती है,

धरतीवासियो! सोचो

अगर धरती नहीं होती तो..?

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

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🕉️ श्री हनुमान साधना में हनुमान चालीसा के पाठ होंगे। संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही। मंगल भव 🕉️

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संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #235 – 122 – “कोई किसी का नहीं होता जहाँ में…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल कोई किसी का नहीं होता जहाँ में…” ।)

? ग़ज़ल # 120 – “कोई किसी का नहीं होता जहाँ में…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

मैं चाहूँ तुझे ये मेरी फ़ितरत है,

ना चाहे तू मुझे मेरी क़िस्मत है,

*

तेरे लिए मैं बेमतलब ही तो हूँ,

तुझ पे मरना तो मेरी सूरत है।

*

देखकर छुप जाना छुपकर देखना,

ये ऑंख मिचौली बेजा हरकत है।

*

कोई किसी का नहीं होता जहाँ में,

शायद वो मेरा हो जाए मुरव्वत है। 

*

है  मेरी  दौलत  तेरी  ही चाहत,

मेरे जीवन की यही बस हसरत है।

*

मुझे  तरसाना  खूब  उसे  आता है,

तग़ाफ़ुल में उसको हासिल महारत है।

*

तेरी फुरकत में आह भरता आतिश,

तेरी आह दिल में बसाना मुहब्बत है।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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