हिन्दी साहित्य – हास्य-व्यंग्य ☆ अस्सी किलो कविता के आलोचना सिद्धांत ☆ श्री धर्मपाल महेंद्र जैन ☆

श्री धर्मपाल महेंद्र जैन

संक्षिप्त परिचय

(सुप्रसिद्ध एवं वरिष्ठ साहित्यकार श्री धर्मपाल जी का जन्म रानापुर, झाबुआ में हुआ। वे अब कैनेडियन नागरिक हैं। प्रकाशन :  “गणतंत्र के तोते”, “चयनित व्यंग्य रचनाएँ”, “डॉलर का नोट”, “भीड़ और भेड़िए”, “इमोजी की मौज में” “दिमाग वालो सावधान” एवं “सर क्यों दाँत फाड़ रहा है?” (7 व्यंग्य संकलन) एवं Friday Evening, “अधलिखे पन्ने”, “कुछ सम कुछ विषम”, “इस समय तक” (4 कविता संकलन) प्रकाशित। तीस से अधिक साझा संकलनों में सहभागिता। स्तंभ लेखन : चाणक्य वार्ता (पाक्षिक), सेतु (मासिक), विश्वगाथा व विश्वा में स्तंभ लेखन। नवनीत, वागर्थ, दोआबा, पाखी, पक्षधर, पहल, व्यंग्य यात्रा, लहक, समकालीन भारतीय साहित्य, मधुमती आदि में रचनाएँ प्रकाशित। श्री धर्मपाल जी के ही शब्दों में अराजकता, अत्याचार, अनाचार, असमानताएँ, असत्य, अवसरवादिता का विरोध प्रकट करने का प्रभावी माध्यम है- व्यंग्य लेखन।” आज प्रस्तुत है आपका एक हास्य-व्यंग्य – अस्सी किलो कविता के आलोचना सिद्धांत।)

☆ हास्य-व्यंग्य – अस्सी किलो कविता के आलोचना सिद्धांत ☆ श्री धर्मपाल महेंद्र जैन ☆

 कवि असंतोषजी मेरे पास आए। सधे कदम, मुस्कुराते अधर, उन्नत मस्तक और मेरे नाक पर केंद्रित उनकी आँखें। कविताएँ अधकचरी हों, छरहरी हों, तो कवि में गजब का बाँकपन आ जाता है। वे बोले -आचार्यजी, इन कविताओं में से श्रेष्ठ छाँट दीजिए और अश्रेष्ठ फाड़ दीजिए। अप्रकाशित कविताओं का गठ्ठर चार किलो का था। भारतेंदु काल में कविताएँ सेर में तोली जाती थीं तो छँटाक भर ठीक निकल आती थीं। आधुनिक काल की किलोग्राम भर कविताओं में कवित्त मिलीग्राम में बैठता है। मैं ठहरा आचार्य कुल का। कवि असंतोषीजी को मना कर दूँ तो हिंदी साहित्य का निरादर हो जाए और कविताएँ छाँटने लगूँ तो मैं ही छँट जाऊँ। न केवल मेरी आँखें पढ़ने के तनाव से फट जाएँ पर दिमाग भी समझने के चक्कर में बठ्ठर हो जाए। इसलिए मैंने उनसे एक प्रसिद्ध आलोचक की तरह पूछा -आपका वजन कितना है? वे बोले, लगभग अस्सी किलो। तब मैंने गंभीर मुद्रा में कहा -कविवर कविताओं में वजन हो या न हो, कविताओं के समग्र पुलिदों का वजन भी लगभग अस्सी किलो होना चाहिए। कवि को अपने भार के बराबर कविताओं का भार ढोना आना चाहिए। इस सिद्धांत को हम कहते हैं समभार का सिद्धांत।

वे मुदित हो कर बोले -आप सही के आचार्य हैं। मैं पहली बार किसी विद्वान आलोचक से मिला हूँ, जो मुझे कविताएँ लिखने के लिए प्रोत्साहित कर रहा है और आलोचना के सिद्धांत समझा रहा है। आप मुझे एक महीना दीजिए, मैं अस्सी किलो कविताएँ लिखकर आपके श्रीचरणों में डाल दूँगा। इन दिनों अधिकांश साहित्यकार यही करते हैं, श्रीचरण खोजते हैं और उन पर अपनी रचनाएँ चढ़ा आते हैं। कविता ने तुलसी को राममय कर दिया था, अब कविता आधुनिक तुलसी को आराममय कर रही है। असंतोषजी अपना गठ्ठर उठा कर निकल लिए। कविवर गए तो मैं सोचता रहा कि आज बला टली। वे एक जीवंत प्रश्न छोड़ गए थे कि बला कौन। मैंने सारा भाषाविज्ञान ठिकाने लगा दिया और निष्कर्ष में पाया कि कविवर बला थे, कविता तो केवल अबला थी।

वे अब एक महीने बाद आएँगे। जब आएँगे तब तक आलोचना शास्त्र में मेरे नए सिद्धांत आ जाएँगे। आपसे क्या छुपाना, मैं खुद ही “आलोचना शास्त्र के आधुनिक सिद्धांत” विषय पर ग्रंथ लिख रहा हूँ। मेरी औकात ग्रंथावली लिखने की थी पर प्रकाशक एक ही ग्रंथ की सेंटिंग  कर पाए थे, इसलिए मुझे इतने पर ही संतुष्ट होना पड़ा। आलोचना के सिद्धांत विषय पर लिखना बहुत आवश्यक लग रहा था। मैंने अपने कई कविता संकलन आलोचकों को भारी अनुनय-विनय कर के भेजे थे, पर उन्हें समुचित लिखना नहीं आया। नब्बे प्रतिशत आलोचक बधाई के आगे नहीं लिख पाए, उन्हें शुभकामना तक लिखना नहीं आया। शेष आलोचकों ने इस तरह समीक्षा की जैसे किसी राजनीतिक दल के प्रवक्ता राष्ट्रीय टीवी पर दबाव के मारे घिसे-पिटे जुमले बोलते हैं। मैंने तभी तय कर लिया था कि मुझे आलोचना के क्षेत्र में कुछ नया करना पड़ेगा। मेरे बाद की पीढ़ी को उचित मूल्यांकन के अभाव का दर्द नहीं सहना पड़े इसलिए साहित्य समीक्षा के नए सिद्धांत मुझे घड़ने होंगे।

बिना सिद्धांत के आलोचना व्यर्थ है। इसलिए अपना पहला सिद्धांत, “समभार का सिद्धांत” बना कर मुझे संतुष्टि मिली। साहित्यकार अपने भार के बराबर साहित्य रच डाले तो उसका मूल्यांकन अवश्य हो। उस क्षण मुझे समझ आया कि सिद्धांत बनाए नहीं जाते, प्रतिपादित किए जाते हैं। तो मैंने दूसरा सिद्धांत प्रतिपादित किया, समलंब का सिद्धांत। अर्थात् यदि किसी रचनाकार के प्रकाशित संकलनों के ढेर की ऊँचाई, उसकी जूते रहित ऊँचाई से अधिक हो जाए तो साहित्य अकादमियों का कर्तव्य बनता है कि वे उसकी ओर भी देखें, और उसके अवसादग्रस्त चेहरे पर किसी पुरस्कार का क्रीम लगा दें।

अब मुझे सिद्धांत प्रतिपादित करने में आनंद आने लगा था। न्यूटन तीन सिद्धांत प्रतिपादित कर के अमर हुए थे, मैं उनसे एक कदम आगे निकलना चाहता था। मैंने तीसरा सिद्धांत प्रतिपादित किया सम-धन का सिद्धांत। जो भी प्रख्यात साहित्यकार सम-धन निवेश कर पाए उसे अवश्य पुरस्कृत किया जाए। प्रवासी साहित्यकारों के द्वारा डॉलर और पौंड के निवेश की तुलना में रुपया भी कम नहीं पड़ता है। भौतिक अर्थ जुड़ जाए तो आलोचना के आभासी प्रतिमान फटाफट बदल जाते हैं। आलोचना में अर्थशास्त्र का तड़का लग जाए तो निष्कर्ष चमक उठते हैं। आलोचना में सौंदर्यशास्त्र का अनुपम योगदान है। इससे मुझे चौथे सिद्धांत का विचार आया -समतन का सिद्धांत। मैं इसकी विवेचना करने लगा तो मुझे इसमें अभद्र और अश्लील रंग दिखाई दिए। साहित्यकार का जो रूप परोक्ष हो, वह आलोचना का विषय नहीं बनना चाहिए। इसलिए इस सिद्धांत को मैं शास्त्रसम्मत नहीं मानूँगा, और हर साहित्यकार को संदेह का लाभ दूँगा। अब मैं हर प्रकार की आलोचना करने के लिए तैयार हूँ। इन तीनों सिद्धांतों पर खरे उतरने वाले विभूति साहित्यकारों की मुझे प्रतीक्षा है। आप मेरा अता-पता उन तक जरूर पहुँचा दें। हिंदी के प्रति आपकी यह निस्वार्थ सेवा आलोच्य साहित्यकार याद रखेंगे।

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© श्री धर्मपाल महेंद्र जैन

संपर्क – 22 Farrell Avenue, North York, Toronto, ON – M2R1C8 – Canada

वेब पृष्ठ : www.dharmtoronto.com

फेसबुक : https://www.facebook.com/djain2017

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 49 – पेंशन, पकोड़े और पैंट में छेद ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं।

जीवन के कुछ अनमोल क्षण 

  1. तेलंगाना सरकार के पूर्व मुख्यमंत्री श्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से  ‘श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान’ से सम्मानित। 
  2. मुंबई में संपन्न साहित्य सुमन सम्मान के दौरान ऑस्कर, ग्रैमी, ज्ञानपीठ, साहित्य अकादमी, दादा साहब फाल्के, पद्म भूषण जैसे अनेकों सम्मानों से विभूषित, साहित्य और सिनेमा की दुनिया के प्रकाशस्तंभ, परम पूज्यनीय गुलज़ार साहब (संपूरण सिंह कालरा) के करकमलों से सम्मानित।
  3. ज्ञानपीठ सम्मान से अलंकृत प्रसिद्ध साहित्यकार श्री विनोद कुमार शुक्ल जी  से भेंट करते हुए। 
  4. बॉलीवुड के मिस्टर परफेक्शनिस्ट, अभिनेता आमिर खान से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
  5. विश्व कथा रंगमंच द्वारा सम्मानित होने के अवसर पर दमदार अभिनेता विक्की कौशल से भेंट करते हुए। 

आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना पेंशन, पकोड़े और पैंट में छेद)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 49 – पेंशन, पकोड़े और पैंट में छेद ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

 (तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

चौराहे पर बैठे रघुनाथ चाचा की जिंदगी अब अखबार के कोने में छपे राशिफल से ज्यादा भरोसेमंद नहीं रही थी। रिटायरमेंट के बाद जो पेंशन मिलने वाली थी, वो अब तक ‘प्रक्रिया में’ थी — मतलब कागज़ ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर जा रहा था, लेकिन चाचा वहीं के वहीं थे — हाफ पैंट में, जो अब फुल हो चुकी थी छेदों से। हर छेद एक सरकारी विभाग की आत्मकथा सुनाता था। चाचा कहा करते थे, “अब हमारे कपड़े भी मंत्रालयों की तरह हैं—सिलवटें ज़्यादा, जवाब कम।” मोहल्ले में सब उन्हें “पेंशन वाले चाचा” कहते थे, जैसे यह कोई सम्मानसूचक पद हो।

बेटा दिल्ली में था, पर माँगता हर बार यहीं से था — “पापा, ज़रा दस हज़ार भेज देना, EMI है।” चाचा मन ही मन बड़बड़ाते, “EMI का नाम सुनते ही मेरी धड़कन UPI की तरह फेल हो जाती है।” उन्हें लगता था, सरकार ने रिटायर किया, बेटा ने इस्तीफा। अब अकेली पत्नी और पेंशन की उम्मीद में जीते थे। पत्नी कहा करती थी, “तुम्हारे भरोसे नहीं, भगवान भरोसे चल रहा है घर।” चाचा बोलते, “भगवान भी शायद मेरी फाइल के साथ ही प्रक्रिया में है।”

हर सुबह चाचा दफ्तर जाते थे—जैसे जेल की बैरक में तारीख पर पेशी हो। बाबू लोग उन्हें देखकर चाय की चुस्की और मोबाइल की स्क्रॉलिंग दोनों तेज़ कर देते। चाचा मुस्कुराते हुए कहते, “पेंशन मांग रहा हूँ, जमानत नहीं।” बाबू बोलते, “अंकल जी, सिस्टम धीमा है।” चाचा जवाब देते, “सिस्टम नहीं बेटा, संवेदना स्लो है।” एक दिन बाबू ने कहा, “अब ऑनलाइन पोर्टल पर ट्रैक कीजिए।” चाचा बोले, “बेटा, हमारी उम्र ट्रैक्टर चलाने की थी, पोर्टल नहीं।” फिर भी रोज़ जाते रहे—मानो उम्मीद का एटीएम हो, कभी तो कुछ निकलेगा।

इसी चक्कर में उन्होंने एक पकोड़े वाला ठेला शुरू किया। नाम रखा—”पेंशन पकोड़ा पॉइंट”। स्लोगन लिखा—”यहाँ तली जाती है निराशा, परोसी जाती है आशा।” सरकारी बाबू भी वहीं पकोड़ा खाते थे, जिनसे चाचा पेंशन के लिए हर बार चाय पिलाकर विनती करते थे। पर जवाब वही—“अभी ऊपर फाइल है।” चाचा सोचते, “फाइल ऊपर है या ऊपरवाले के पास?” एक बार एक पत्रकार आया, बोला—“चाचा, बहुत प्रेरणादायक हो आप।” चाचा बोले—“प्रेरणा नहीं बेटा, ये पेंशन के इंतज़ार की तड़प है। तुम भी मत करना सरकारी नौकरी।”

सर्दियों में एक दिन चाचा का ठेला गायब मिला। पता चला, नगर निगम उठा ले गया। कारण—”अवैध अतिक्रमण”। चाचा ने कहा, “सरकारी सिस्टम तो मेरी जिंदगी पर कब का अतिक्रमण कर चुका है, अब ठेला भी चला गया।” मोहल्ले वालों ने कहा—“FIR कराओ।” चाचा बोले, “अरे बेटा, FIR तो मैंने खुद की किस्मत पर दर्ज करवा रखी है।” कुछ दिन भूखे-प्यासे रहने के बाद एक NGO ने चाचा के लिए राशन दिया। उसमें लिखा था—“सहयोग पेंशन से नहीं, संवेदना से।” चाचा की आँखें भर आईं। बोले—“काश, ये लाइन मेरी फाइल पर लिखी होती।”

और फिर एक सुबह, चाचा की लाश पकोड़े के ठेले के पीछे मिली। हाथ में वही फाइल थी, जिस पर “Pending” की मोहर थी। कोई आंसू बहा रहा था, कोई वीडियो बना रहा था। मोहल्ले की बहू बोली—“सरकार से तो नहीं मिली पेंशन, पर YouTube से मिल जाए कुछ।” रिपोर्टर बोला—“हम इसे ‘भ्रष्ट व्यवस्था की बलि’ कहकर चलाएंगे।” चाचा की पत्नी रोती हुई बोली—“अब पेंशन आएगी?” बाबू बोला—“मृत्यु प्रमाणपत्र लगाइए, प्रक्रिया शुरू करेंगे।” और फिर वही—फाइल ऊपर भेजी गई।

कुछ महीने बाद चाचा की फोटो अखबार में छपी—”पूर्व कर्मचारी, पेंशन की प्रतीक्षा में निधन”। नीचे टिप्पणी थी—”सरकारी दायित्वों का पालन किया गया।” मोहल्ले के बच्चों ने दीवार पर लिखा—”यहाँ पेंशन नहीं, पकोड़े बिकते हैं।” एक बूढ़ा आदमी बोला—“देशभक्ति कुर्सियों में है, पर चप्पलों में धूल है।” चाचा की आत्मा शायद मुस्करा रही थी—“अब कोई पूछेगा नहीं—फाइल कहाँ है?” और पीछे से हवा ने कहा—“फाइल वहीं है… प्रक्रिया में।”

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 662 ⇒ भाग कर शादी ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका व्यंग्य – “भाग कर शादी।)

?अभी अभी # 662 ⇒ भाग कर शादी ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

क्या कभी आपने भागकर शादी की है ? आदमी मुसीबत से बच सकता है, परिस्थितियों से लड़ सकता है, लेकिन शादी से नहीं बच सकता। देखिए, ये मोहतरमा क्या फरमाती हैं ;

कोई कह दे, कह दे, कह दे ज़माने से जा के,

कि हम घबरा के

मोहब्ब्त कर बैठे

हाय मोहब्ब्त कर बैठे …

यानी इसी तरह, कोई इश्क का मारा, जमाने से घबराकर, भागकर शादी भी कर सकता है। लेकिन क्या इसके लिए भागना जरूरी है। अगर आप कड़के नहीं हो, तो गाड़ी घोड़े से भी जा सकते हो।

हो सकता है, लड़की पैसे वाली हो, और आपके कहने पर, फिल्मी अंदाज़ में, अंधेरी रात में, घर वालों की आंख में धूल झोंककर नकदी और जेवर सहित आपके साथ भाग निकले।

लेकिन हम जानते हैं, आप ऐसे इंसान नहीं हो।

हमारे साथ तो कुछ उल्टा ही हुआ। हमें शादी नहीं करनी थी, और परिवार वाले हमारी जबरदस्ती शादी कर रहे थे, और वह भी उनकी पसंद की हुई लड़की से। हमारे पास भागने के अलावा कोई चारा नहीं था। यानी हमने भागकर शादी नहीं की, शादी के नाम से ही हम भाग खड़े हुए।।

शिवाजी महाराज के गुरु हुए हैं, समर्थ रामदास, जी हां वही दासबोध वाले। सुना है, शादी का शब्द सुनते ही वे सावधान हो गए थे, यानी भाग खड़े हुए थे। आज भी विवाह के शुभ प्रसंग पर कुर्यात सदा मंगलम् के साथ सावधान शब्द भी जोड़ा जाता है।

अगर भाग नहीं सकते, तो कम से कम सावधान, अर्थात् जाग तो सकते हो। आगे आपकी मर्जी।

कहीं कहीं जीवन में ऐसे नाजुक क्षण आते हैं कि जल्दबाजी में शादी करनी पड़ती है, कहीं दादा जी अंतिम सांसें गिन रहे होते हैं तो कहीं किसी श्रवणकुमार को कसम दिलवा दी जाती है, अगर तूने आठ रोज में इस लड़की से शादी नहीं की, तो तू मेरा मरा मुंह देखेगा। और वह बेचारा कसम का मारा, अपना सर कढ़ाई में दे मारता है और उधर किसी की पांचों उंगलियां घी में हो जाती है। जो लोग सिर्फ मजबूरी को जानते हैं, महात्मा गांधी को नहीं, वे जीवन भर ऐसे इंसान को सुनाया करते हैं, लड़कियां कहां भागी जा रही थी, जो तुमने उस लड़की से शादी कर ली, जिसे तुम पसंद ही नहीं करते थे।।

इसे क्या कहेंगे, पसंद किसी और की, और नसीब अपना। वैसे बात निकली है तो बता दूं, पूरे सम्मान और संजीदगी के साथ अगर विचार किया जाए तो सदाबहार गायक, अभिनेता, हास्य सम्राट कहे जाने वाले चार चार पत्नियों के पति किशोर कुमार जी भी यही कहते पाए गए हैं ;

कुंए में कूद के मर जाना

यार तुम शादी मत करना ..

हम भी जाते जाते युवा पीढ़ी को यह संदेश देकर जाना चाहते हैं ;

कुंए में कूद के मर जाना

यार तुम भाग कर शादी मर करना …

प्रेम से शादी करें। सबकी मर्जी से करें, अथवा मनमर्जी से। नहीं तो हमारी तरह आप भी कहते रहेंगे। शादी अरेंज्ड थी अथवा लव मैरेज? और हम सर झुकाकर जवाब देते हैं, जी लव मैरेज नहीं, अरेंज्ड ही थी।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ प्रतुल साहित्य # 3 – हास्य-व्यंग्य – “सर पर माथा पच्ची” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य  सर पर माथा पच्ची)

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ प्रतुल साहित्य # 3

☆ व्यंग्य ☆ “सर पर माथा पच्ची” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

वर्माजी बहुत देर से मेरे सामने “सिर झुकाए” बैठे थे। वे बीच – बीच में अपना “सिर खुजाते हुए” भाई साहब बोलते और फिर चुप हो जाते। उनके “भाई साहब, भाई साहब” कहने और फिर लंबी चुप्पी साध लेने की अदा से मेरा सिर चढ़ गया।

मैंने उन्हें “सिर से पैर तक देखते हुए” कहा, भाई जी किस बात ने आपको “सिर नीचा करने” पर मजबूर कर दिया, हमेशा “सिर ऊंचा करके, उठाकर चलना चाहिए। बड़ी से बड़ी बात भी सिर पर आ पड़े तब भी न तो सिर गरम होना चाहिए न ही सिर फटना चाहिए। देश के विपक्षी नेताओं से कुछ सीखो जिनके सिर का बोझ देश के मुखिया बने हुए हैं विपक्षियों के सिर से पैर तक आग लगी है लेकिन वे जानते हैं कि सिर पर पैर रख कर भागने, सिर पीटने, सिर धुनने, सिर फिरने, सिर भारी होने अथवा सिर पकड़ कर बैठने से समस्या हल नहीं होगी। समस्या के समाधान के लिए हमेशा सिर ठंडा रखना पड़ता है चाहे धीरज से रखो, चाहे गम खाकर या अमिताभ बच्चन के बताए ठंडे ठंडे कूल कूल तेल को लगाकर। अगर यह नहीं कर सकते तो उस चम्पी वाले को ढूंढो जो सड़कों पर गाता फिरता है, सर जो तेरा चकराये या दिल डूबा जाए, आज प्यारे पास हमारे काहे घबराये, कहे घबराये.. “

वर्मा जी मेरी बात सिर हिला हिला कर सुन रहे थे। मैंने कहा, वर्मा जी “मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना”। उन्होंने सिर के कुछ बालों को नोंचते हुए मासूमियत से पूछा- “क्या मतलब भाई साहब ?” वर्मा जी की बात सुनकर मेरा मन अपना सिर पत्थर से फोड़ने का हुआ लेकिन ईश्वर की कृपा से आसपास पत्थर नहीं था। मैने कहा “भाई जी तात्पर्य यह की प्रत्येक सिर में भिन्न विचार होते हैं। विपक्षियों के सिरों में भी पक्ष को हटाने भिन्न भिन्न विचार हैं। वे अपने अपने ढंग से पक्ष को जनता के सिर से उतारने की कोशिश में लगे हैं। किसी ने भारत जोड़ो यात्रा करके देश भर में मोहब्बत की दुकानें खोल डाली हैं तो कोई विपक्षी एकता के लिए प्रदेश प्रदेश भटक रहा है। कोई अपने बयान रूपी बाणों से पक्ष को घायल करने उतारू है। अब जब सब के सिर फिर गए हैं तो सब सिर जोड़कर बैठने उतावले हो रहे हैं।”

मेरी लंबी बात सुनकर वर्मा जी ने चुप्पी तोड़ी बोले “भाई साहब आपने इतनी सारी बातें कर दीं पर वह नहीं बताया जो मैं जानना चाहता हूं।” मैंने कहा, “वर्मा जी अब पानी सिर के ऊपर हो गया है आप बहुत देर से मेरे सामने बैठे भाई साहब, भाई साहब का राग अलाप कर न सिर्फ मेरा सिर खा रहे हैं बल्कि मेरे सिर को पचाने की जुर्रत भी कर रहे हैं या तो मुद्दे की बात पर आकर अपना और मेरा दोनों का सिर ठंडा करो या मेरा पीछा छोड़ो।” वे बोले “भाई साहब एक प्रश्न मुझे सुबह से परेशान करे है कि जब दुनिया में इतनी व्हेरायटी के तेल हैं तो छछूंदर अपने सिर में चमेली का तेल ही क्यों पसंद करती हैं ?” इसी समय मेरी श्रीमती जी ने चाय के प्यालों के साथ कमरे में प्रवेश किया और मेरी ओर बढ़ीं। मैंने कहा “पहले मुझे नहीं छछूंदर को दो।” पत्नी ने आश्चर्य से प्रश्न किया “छछूंदर कौन ?” मैंने कहा “मेरा मतलब वर्मा जी को दो।” पत्नी जोर से हंसने लगी। वर्मा जी नाराज होकर खड़े हो गए पर मुझे मालूम था कि वे नाराजगी में भी चाय पिये बिना नहीं जायेंगे। मैंने कहा “भाई जी सिर पर चढ़  गए क्रोध को थूक दो।” मेरी जुबान याने टंग देश के युवा नेता की तरह फिसल गई थी ओर वह वर्मा जी की जगह छछूंदर कह गई।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 285 ☆ एक सामाजिक प्राणी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम व्यंग्य  – ‘एक सामाजिक प्राणी ‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 285 ☆

☆ व्यंग्य ☆ एक सामाजिक प्राणी

चमन भाई पूरे सामाजिक प्राणी हैं। समाज पर उन्हें भारी भरोसा है। असामाजिक , आत्मसीमित लोगों से उन्हें  चिढ़ होती है। रामनाम की जगह वे बात बात में ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ जपते रहते हैं।

समाज की उपयोगिता पर चमन भाई घंटों भाषण दे सकते हैं। वे चीटियों का उदाहरण देते हैं जो मिलजुल कर पहाड़ उठा लेती हैं। वे भेड़िया-बालक जैसे आदम-समाज से बाहर पले प्राणियों की बात करते हैं जो आदमी होकर भी पशु बन गये ।आज के समाज में बढ़ती हिंसा और क्रूरता पर उनकी टिप्पणी है कि यह आदमी के समाज से कटते जाने और अपने में सिमटते जाने के कारण ही है।

चमन भाई इस हद तक सामाजिक हैं कि अपनी ज़्यादातर ज़रूरतों के लिए समाज पर ही निर्भर रहते हैं। उन्होंने न टेलीफोन का झंझट पाला, न फ्रिज का, न स्कूटर का। जब सब चीज़ें मुहल्ले में सहज उपलब्ध हैं तो फिर फ़िज़ूलखर्ची क्यों की जाए? तीन-चार साल पहले उन्होंने एक मोपेड खरीदी थी। वह रखे रखे जंग खा गयी क्योंकि चमन भाई उसे कभी चलाते ही नहीं थे। जब दूसरों की गाड़ियां दौड़ रही हों तो अपनी गाड़ी को दौड़ाने का क्या मतलब? दूसरों के स्कूटर की पिछली सीट खाली जाए तो वह भी एक तरह से फिज़ूलखर्ची हुई।

लैंडलाइन फोन के ज़माने में मुहल्ले के किसी भी घर में पहुंचकर चमन भाई टेलीफोन अपनी तरफ खींचकर डायल घुमाना शुरू कर देते। वार्ता कभी-कभी इतनी देर तक चलती कि गृहस्वामी का ब्लड-प्रेशर बढ़ने लगता। चमन भाई को इशारा किया जाता, ‘चमन भाई, टेलीफोन के रेट बढ़ गये हैं।’ जवाब में चमन भाई बढ़ती महंगाई पर आधे घंटे का भाषण दे मारते। सरकार को कोसते, कर्मचारियों-अधिकारियों को गाली देते और जनता पर पड़ने वाले बोझ की बात करते-करते दुखी हो जाते। लेकिन दुबारा ज़रूरत पड़ने पर फिर नि:संकोच उस घर में टेलीफोन करने हाज़िर हो जाते।

मुहल्ले में कई लोगों ने चमन भाई के आतंक से टेलीफोन ड्राइंग रूम से हटाकर भीतर छिपा दिया था। वे फोन करने पहुंचते तो सुनने को मिलता, ‘फोन खराब है, चमन भाई। माफ कीजिएगा।’ चमन भाई ‘अच्छा’ कह कर वापस आ जाते। गुस्सा नहीं होते। गुस्सा होने से सामाजिक संबंध टूटते हैं। गुस्सा सामाजिकता के लिए घातक होता है। आगे के लिए रास्ता बन्द होता है। इसलिए वे हमेशा परमहंस बने, गलती करने वालों को माफ करते रहते।

चमन भाई पिछले पंद्रह बीस साल से दूसरों के स्कूटर पर बैठकर दफ्तर जा रहे हैं। मुहल्ले में उनके दफ्तर के दो साथी रहते हैं। दोनों ने दुर्भाग्य से स्कूटर खरीद रखा है। चमन भाई बारी-बारी से उनको उपकृत करते रहते हैं। वे ठीक दस बजे उनमें से एक के घर पहुंच कर बाहर खड़े हो जाते हैं और स्कूटर स्टार्ट होने पर चुपचाप पिछली सीट पर बैठ जाते हैं। दो-चार बार उनके साथी चिढ़कर दस से पहले निकल गये, लेकिन चमन भाई ने बुरा नहीं माना। अगले दिन फिर वे दस बजे शान्त भाव से उसी ठिये पर पहुंच गये। उनके साथी भी आखिर कब तक भागते? इस तरह के मामूली झटके लगने के बाद फिर सब यथावत चलने लगता। चमन भाई धैर्य नहीं खोते। धीरज का फल मीठा होता है।

बाज़ार जाने के लिए चमन भाई दूसरा नुस्खा आज़माते हैं। चौराहे पर थैला लेकर खड़े हो जाते हैं और किसी भी भले दिखने वाले स्कूटर वाले को रोक लेते हैं। स्कूटर रुकते ही पीछे की सीट पर बैठ जाते हैं, कहते हैं, ‘थोड़ा बाजार तक छोड़ दीजिएगा।’ अगर वह कहता है कि उसे बीच में ही कहीं रुकना है तो वे  जवाब देते हैं, ‘हां हां, वहीं छोड़ दीजिएगा। वहां से चला जाऊंगा।’ उस स्थान से चमन भाई किसी दूसरे स्कूटर वाले को ढूंढ़ते हैं। नहीं मिलता तो गाते-गुनगुनाते पैदल बाकी रास्ता तय कर लेते हैं, लेकिन विचलित नहीं होते। रिक्शे-  विक्शे पर पैसा बर्बाद नहीं करते। जब पूरा समाज स्कूटरों पर दौड़ रहा हो तो एक व्यक्ति को अपनी चिन्ता करने की क्या ज़रूरत? एक आदमी तो कहीं भी अंट सकता है।

चमन भाई ने कॉरपोरेशन का नल नहीं लगवाया। जिस दिन उनके पड़ोसी के घर नल लगा उसके दूसरे दिन उन्होंने एक लंबी सटक खरीद ली। नल खाली दिखते ही सटक लगाकर ज़रूरत के हिसाब से पानी भर लेते। देर तक नल खाली न मिले तो पड़ोसी का बर्तन हटाकर सटक लगा देते। टिप्पणी भी कर देते, ‘दो-चार बाल्टी पानी के लिए कितना इन्तजार करें?’ पड़ोसी की शराफत की बदौलत चमन भाई का काम चलता रहता है।

पहले उन्होंने टीवी भी नहीं खरीदा था। पड़ोसी की बुद्धि भ्रष्ट हुई तो उसने खरीद लिया। चमन भाई महीनों सपरिवार हर शाम उसके घर की शोभा बढ़ाते रहे। रामायण और महाभारत की सारी कड़ियां उसी के घर देखीं। टीवी बन्द होता तो कहते, ‘चालू करो भाई।’ चमन परिवार देर तक जमा रहता तो पड़ोसी कहता, ‘चमन भाई, अब तो नींद आ रही है।’ चमन भाई टीवी पर निगाहें जमाये हुए कहते, ‘ हां हां, आप सोइए। आराम से सोइए। हम बैठे हैं। जाते टाइम आपको बता देंगे।’

बीच में पड़ोसी के मेहमान आ जाते, तब भी चमन परिवार अपनी जगह बैठा टीवी देखता रहता। कभी मेहमान के कारण टीवी बन्द करना पड़ता तो चमन परिवार उनके जाने का इन्तज़ार करता जमा रहता। मेहमान के लिए जो चाय-पानी आता उसमें हिस्सा भी बंटा लेते। हार कर पड़ोसी ने शाम को घर में ताला ठोकना शुरू कर दिया। शाम को निकल जाते और अपने एक रिश्तेदार के यहां टीवी देख लेते। यह नुस्खा काम कर गया और चमन भाई ने मायूस होकर टीवी खरीद लिया। लेकिन पड़ोसी की इस असामाजिकता पर वे हफ्तों घूम घूम कर दुख प्रकट करते रहे। गुस्सा उन्हें फिर भी नहीं आया।

उनका पड़ोसी एफ एम रेडियो सुनने का शौकीन है। चमन भाई मुफ्त में उसका आनन्द लेते रहते हैं। जब कुछ अच्छे गाने शुरू होते हैं तो खिड़की से झांक कर कहते हैं, ‘आचारिया जी, जरा तेज कर दीजिए। लाउड। बहुत बढ़िया भजन है। मजा आ गया।’

चमन भाई पड़ोस से मुक्त भाव से चाय, दूध, शक्कर, आटा मांग लेते हैं। पड़ोसियों के फ्रिज में आइसक्रीम जमा लेते हैं। पड़ोसी उतने सामाजिक नहीं हैं, इसलिए वे चमन भाई से चीज़ें नहीं मांगते।

मुहल्ले में पांच छः कारें हैं। ज़रूरत पड़ने पर चमन भाई वहां भी दस्तक दे देते हैं। मिल गयी तो ठीक, नहीं तो कोई बात नहीं। चमन भाई पर कोई असर नहीं होता। वे यह मानते हैं कि ‘उनसे पहले वे मरे जिन मुख निकसत नाहिं।’ इस दोहे की पहली पंक्ति उनके खिलाफ जाती है, इसलिए वे बस दूसरी पंक्ति ही दुहराते हैं।

मुहल्ले में सुविधाएं बढ़ने के साथ चमन भाई के लिए समाज की उपयोगिता के नये आयाम खुलते हैं। कई झटके लगने के बाद भी समाज और आदमी पर उनकी आस्था में निरन्तर वृद्धि ही होती है। उनका विश्वास है कि समाज में भले लोग भी हैं और बुरे भी। इसलिए जो मिल जाए उसे ग्रहण कर लेना चाहिए और जो न मिले उसे त्याज्य समझ कर छोड़ देना चाहिए। जीवन में सुख का इससे बेहतर नुस्खा कोई नहीं है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 48 – मंदिर ऑफलाइन, भक्ति ऑनलाइन ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना मंदिर ऑफलाइन, भक्ति ऑनलाइन)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 48 – मंदिर ऑफलाइन, भक्ति ऑनलाइन ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

आज का युग “डिजिटल भक्तों” का है। हर व्यक्ति के हाथ में स्मार्टफोन है और हर स्मार्टफोन में “भक्ति ऐप”। इन ऐप्स में भगवान की आरती, मंत्र और पूजा विधि उपलब्ध है। भक्त अब मंदिर जाने की बजाय वर्चुअल दर्शन करते हैं। भगवान भी डिजिटल हो गए हैं। यह युग तकनीक का है, जहां भक्ति भी इंटरनेट पर निर्भर हो गई है। भक्तों को अब घंटों लाइन में लगने की जरूरत नहीं, बस एक क्लिक और भगवान आपके सामने स्क्रीन पर प्रकट हो जाते हैं। यह सुविधा देखकर भगवान भी सोच में पड़ गए हैं कि आखिर उनकी भक्ति का स्वरूप इतना बदल कैसे गया।

एक दिन भगवान विष्णु ने नारद से कहा, “नारद, देखो तो, ये भक्त मेरे नाम पर क्या कर रहे हैं?” नारद ने हंसते हुए जवाब दिया, “प्रभु, ये तो डिजिटल भक्ति है। भक्त अब आपकी मूर्ति के सामने नहीं आते, बल्कि स्क्रीन पर आपका लाइव स्ट्रीमिंग देखते हैं।” यह सुनकर भगवान विष्णु को जिज्ञासा हुई और उन्होंने धरती पर जाकर स्थिति देखने का निश्चय किया। जब वे एक भक्त के घर पहुंचे तो देखा कि वह पूजा कर रहा था लेकिन उसकी नजर मोबाइल स्क्रीन पर थी। भगवान ने पूछा, “वत्स, मेरी मूर्ति कहां है?” भक्त ने उत्तर दिया, “प्रभु, मूर्ति की क्या जरूरत? आपके वर्चुअल दर्शन कर रहा हूं। यहां आपका 4के वीडियो है!”

भगवान विष्णु ने नारद से कहा, “नारद, यह तो अच्छा है। अब मुझे धरती पर जाने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। भक्तों को सिर्फ इंटरनेट चाहिए और मैं उनके पास हूं।” नारद ने मुस्कुराते हुए कहा, “प्रभु, यह तो तकनीक का चमत्कार है। अब आपकी भक्ति भी डिजिटल हो गई है। लेकिन सोचिए अगर इंटरनेट बंद हो जाए तो क्या होगा?” भगवान ने सोचा कि तकनीक ने भक्ति को सुविधाजनक बना दिया है लेकिन साथ ही इसे निर्भरता में बदल दिया है।

तभी एक दूसरा भक्त आया और बोला, “प्रभु, आपके दर्शन के लिए मेरा इंटरनेट पैक खत्म हो गया है। कृपा करके थोड़ा डेटा दे दीजिए!” यह सुनकर भगवान विष्णु चौंक गए। उन्होंने नारद से कहा, “नारद, अब मुझे ‘डिजिटल डेटा’ का अवतार लेना पड़ेगा!” नारद ने हंसते हुए कहा, “प्रभु, अब भक्तों की भक्ति आपके प्रति नहीं बल्कि डेटा पैक के प्रति अधिक हो गई है।”

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – व्यंग्य ☆ डंकोत्सव का आयोजन… ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ व्यंग्य ☆ डंकोत्सव का आयोजन ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

मैंने अपनी सगी सहेली “ख्याति” से कहा — यार मुझे “डंका ” शब्द बहुत भाता है। बहुत प्यार है इससे। उच्चारण करते ही लगता है कि इसकी गूँज ब्रह्माण्डव्यापी हो गई है और सारी ध्वनियां इसमें समा गई हैं। शब्द में भारी वज़न है।

अब देखो ना, इसमें से “आ” की मात्रा माइनस कर दो तो बन जाता है “डंक”। बिच्छू और ततैया ही नहीं डंक तो कोई भी मार सकता है।

“जो डंकीले हैं वो डंकियाते रहते हैं।” उन्हें इस पराक्रम से कौन रोक सकता है भला। और हां डंक शब्द का एक अर्थ “निब” भी तो होता है।

ख्याति छूटते ही बोली — ये प्यार व्यार सब फालतू बाते हैं। इससे कुछ हासिल नहीं होता। बस बजाना आना चाहिए।

— पर मुझे तो नहीं आता। डंकावादकों की तर्ज पर कोशिश तो की थी पर नतीजा सिफर। मेरे प्यार को तुम प्लेटोनिक लव जैसा कुछ कुछ कह सकती हो।

— सर्च करो रानी साहिबा — बजाना सिखानेवाली क्लासेस गली गली मिल जायेंगी। वह भी निःशुल्क।

— ऐसा क्यों ?

— क्योंकि यह राष्ट्रीय उद्यम है। जो देशभक्त है ,वही डंका बजाने की ट्रेनिंग लेता है। सारा मीडिया अहोरात्र डंका बजाने में मशगूल है। बात सिर्फ इतनी सी है कि डंका बजाओ या बजवाओ। दोनों ही सूरत में ध्वनि का प्रसारण होना है। किसी में तो महारत हो। एक तुम हो “जीरो बटा सन्नाटा।”

चलो मैं तुम्हें विकल्प देती हूं। डंका नहीं तो “ढोल ” बजाओ !

— ‘ख्याति मुझे ढोल शब्द से सख्त नफरत है। कितना बेडौल शब्द है। अव्वल तो पहला अक्षर “ढ “है। मराठी में, बोलचाल में ढ यानी गधा।

— ठीक है बाबा। ढोल नहीं तो डंका पीटो पर तबीयत से पीटो। फिर भी पीटना न आये तो पीटनेवाले या पिटवानेवाले की व्यवस्था करो। और रही बात डंके की कीमत तो इतनी ज्यादा भी नहीं है कि तुम अफोर्ड न कर सको।

लोकतंत्र में कुछ भी पीटने की आजादी सभी को है।

“डंका पीटोगी तभी तो औरों की लंका लगेगी ना।” 

देखो सखी अभी अभी मेरे दिमाग में एक धांसू आइडिया आया है। तुम “डंकोत्सव का आयोजन” क्यों नहीं करतीं। उसमें डंका शब्द की व्युत्पत्ति पर शोध पत्र का वाचन करो। उसमें डंके की चोट पर कुछ उपाधियों का वितरण करो यथा — “डंकेन्द्र”, “डंकाधिपति”, “डंकेश”, “डंकाधिराज”, “डंकेश्वर”, “डंका श्री”, “डंका वाचस्पति”, “डंका शिरोमणि”, “डंका रत्न”, आदि आदि।

सोचो सखी शिद्दत से सोचो। नेकी और पूछ पूछ जुट जाओ आयोजन में। डंके में शंका न करो।

— ‘इतना ताम झाम करके भी डंका ठीक से न बजा तो–‘

— ‘बेसुरा ही सही पर बजाओ — बजाते रहो — बजाते रहो। जब तक जां में जां है। डंका कभी निष्फल नहीं जाता।

डंकाधिपति की जय हो।

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ वी आर एस की रजत जयंती… ☆ श्री अ. ल. देशपांडे ☆

श्री अ. ल. देशपांडे

☆ व्यंग्य ☆ वी आर एस की रजत जयंती… ☆ श्री अ. ल. देशपांडे ☆

पच्चीस साल की बेदाग़ सेवाएँ देने के उपरांत बैंक ने हमारे उत्साहवर्धन एवं चुस्त दुरुस्त सेवाएँ देने की हमारी परम्परा को उज्जवल बनाए रखने हेतु चाँदी की तश्तरी से हमें सम्मानित करने का निर्णय लिया था। हालाँकि सराफ़े की अलग अलग 3 दुकानों से हमने ही तीन कोटेशन भरी धूप में तीन दिन में प्राप्त किए थे। हमारे मित्र श्रीवास्तव जी ने एक ही दुकान से अलग अलग लेटर हेड पर तीन कोटेशन तीन मिनट में प्राप्त कर के हमारे पहले ही प्रस्तुत कर हमें व्यवहार ज्ञान सीखने हेतु प्रेरित किया था। कोटेशन प्रस्तुत करने के बाद एक दुकान से चाँदी की तश्तरी ख़रीदने हेतु हमें स्वीकृति मिली थी।

सोने चाँदी की दुकान हमने इसके पहले कभी देखी नहीं थी ना सोना चाँदी। वैसे बचपन में मेरे कान में सोने की बाली तथा पैर में चाँदी का कड़ा था ऐसे घर के बुजुर्ग बताते हैं। हमारे ब्याह के समय पत्नी ने जो गहने मायके से लाए थे वही हमारी संपत्ति थी। इसमे हम रिटायर्ड होने तक कोई इज़ाफ़ा नहीं कर पाए। वास्तव में हमारी सोने जैसी बहुमूल्य पत्नी में ही मुझे अधिक विश्वास था तथा है अतः सोने चाँदी की दुकान की दहलीज़ हमने लांघी नहीं थी।

हमारी जेब मे एक दिन पूर्व, बैंक खाते से आहरित रुपये एक हज़ार मात्र जो रखे थे, का उपयोग कर एक चमचमाती हुई तश्तरी ख़रीदी थी एवं दूसरे दिन तश्तरी तथा रीएमबर्समेंट हेतु पक्की रसीद मैनेजर साहब को सौंप दी थी। उन्होने रसीद रख ली तथा बोले तश्तरी की क्या ज़रूरत है यह तो आप रख लो। मैं असमंजस में पड़ गया मुझे लगा की शाखा में सम्मान समारोह होगा, फूल मालाएँ पड़ेंगी गले में, समोसा रसगुल्ला रहेगा प्लेटों में। मैंने ज़िक्र किया तो मैनेजर साहब बोले “पंडितजी! कहाँ लगे हो? फूल मालाओं के पीछे! आपको समझता नहीं, एक टुकड़ा फेंक कर आपको मार्च के महीने में फूल बनाया जा रहा है।

मैंने मैनेजर सहाब का अधिक क़ीमती समय ज़ाया न करते हुए लाल रंग की पन्नी में लिपटी हुई तथा सुनहरे डिब्बे से सुसज्जित चाँदी की चमचमाती प्लेट को घर ले आया। श्रीमती तथा बच्चों को यह उपहार देखकर बेहद प्रसन्नता हुई। उन्हें अब बताया गया कि यह सब हमारी बेदाग़ पच्चीस वर्ष की बैंक सेवा का उपहार है। सब को इस बात पर प्रसन्नता हुई कि रोज़ रात्रि साढ़े आठ/ नौ बजे हमारे पति/पापा बैंक से लौटा करते थे तथा अवकाश के दिनों में दोपहर का खाना भी घर में चैन से नहीं खा पाते थे, को सम्मानित किया गया है। घर का वातावरण एकदम प्रसन्न हो गया। हमने उसी दिन तुरंत बच्चों के साथ बाज़ार जाकर एक अच्छी सी फ्रेम में तश्तरी मढवाने हेतु दुकान में दी। दूसरे दिन वह फ्रेम तथा भगवान बजरंग बली का एक और फ्रेम ख़रीद कर (जो हमें आज तक शक्ति प्रदान करते आ रहे थे) उसे अपने शयनकक्ष में स्थापित किया। सोते तथा जागते समय हमें तश्तरी एवं भगवान अंजनीसुत के दर्शन नियमित रूपसे होने लगे। पच्चीस वर्षों से तन मन तथा ईमानदारी से हम जो सेवाएं देते आ रहे थे उसमें चाँदी की तश्तरी देखकर और इज़ाफ़ा होता रहा। अब हमें विश्वास हो गया कि चाँदी, सोना तथा धन इसका मोह छोड़ने के लिए यह तश्तरी हमें प्रेरित कर रही है।

देखते देखते 31/03/01 को हम आज तक की बची हुई सर्विस बेदाग़ पूरी कर वीआरएस  के अंतर्गत सेवानिवृत्त हो गए। 1 अप्रैल को जब हम सुबह स्वास्थ्य लाभ हेतु टहल रहे थे तो मोहल्ले के एक बुजुर्ग ने हमें पास आकर धीरे से पूछा “कितने लाख मिले हैं?” हमने आख़िर तक हमारी कुल जमा प्राप्ति के बारे में मोहल्ले के बुजुर्गों को हवा नहीं लगने दी थी अतः वे हम से पूर्व में जितना स्नेह रखते थे उससे ज़्यादा दूरी रखने लगे। हिक़ारत की नज़र से देखने लगे। वीआरएस  की इस प्राप्ति से हमारे प्रगाढ़ संबंधों में दरार सी पढ़ने लगी। एक बुज़ुर्ग का ब्लड प्रेशर हमें प्राप्त राशि की सही जानकारी उन्हें न देने के कारण बढ़ गया था तथा नॉर्मल होने की संभावना दूर दूर नज़र नहीं आ रही थी।

हमने सोचा कि हमारी कुल जमा प्राप्ति के बारे में मोहल्ले के बुजुर्गों को बताना इतना आवश्यक हो गया है? इसके पहले प्रतिवर्ष बंद लिफ़ाफ़े में हमारी संपत्ति का विस्तृत ब्योरा बैंक को देने की परंपरा का निर्वाह हम बख़ूबी करते आए थे। लेकिन इन बुज़ुर्गों के समक्ष हमें अपने वीआरएस की प्राप्ति का लिफ़ाफ़ा खोलकर रखना आवश्यक हो गया था जिससे हमारे संबंधों में सुधार परिलक्षित हो।

हमने पेंशनर्स फ़ोरम में, (भोर में चहल कदमी करने वाला झुंड) उनके बहुत ज़ोर देने पर सही सही बताया कि 14.32 प्राप्त हो गए हैं। फ़ोरम के महानुभावों के चेहरे पर हमें प्रसन्नता की लकीर नहीं दिखाई दी उन्होंने अच्छा अच्छा कहकर हमें आगे बढ़ने दिया। मैं पेड़ की आड़ में खड़ा होकर बुजुर्ग वाणी की आहट पाने उत्सुकत था। आपस में वे बतिया रहे थे ‘फला दुबे जी कह रहे थे कि उन्हें 30, श्रीवास्तव जी को 50 और  पांडे जी को 40 लाख प्राप्त हुए हैं तथा उन सबने केवल बैंक एफ़डी में ही सब पैसा रखा है। अरे! यह पंडत झूठ बोल रहा है। निकम्मे थे सभी , तभी तो बैंक ने इन्हें वीआरएस में मुक्ति दिलायी है।

 

© श्री अ. ल. देशपांडे

संपर्क – “मथुरा”, मकान नंबर 4, विनोद स्टेट बैंक कॉलोनी, कैंप, अमरावती, महाराष्ट्र – 444602

मो. 92257 05884

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 47 – सत्यवाद का स्कूल  ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना सत्यवाद का स्कूल)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 47 – सत्यवाद का स्कूल ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

गांव के बीचों-बीच एक पुराना पीपल का पेड़ था। उसी के नीचे सत्यवाद का स्कूल खुला था। नाम था – “अखिल भारतीय झूठ सत्यापन संस्थान।” बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था – “यहां केवल सत्य की जांच होती है, कृपया झूठ लेकर आएं।” गांव के लोग इसे ‘झूठ स्कूल’ कहते थे। गांववालों की रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन चुका था।

गांव के प्रधान, रामभरोसे, उद्घाटन में बोले, “झूठ बोलना तो पुरानी कला है। मगर आजकल झूठ की गुणवत्ता गिर गई है। कोई ऐसा झूठ नहीं बोलता जिसे सुनकर दिल में कुछ हलचल हो। इसलिए यह स्कूल खुला है। यहाँ झूठ को परखकर ही उसे प्रामाणिक माना जाएगा।”

सत्यवाद का स्कूल जल्द ही लोकप्रिय हो गया। यहां गांव के हर व्यक्ति का कोई न कोई झूठ पहुंचता। मंगू काका सबसे ज्यादा चाव से आते थे। उनका एक मशहूर झूठ था, “मेरी गाय दूध देती है, मगर गोबर नहीं करती। उसे गंदगी पसंद नहीं।” हर बार जब मंगू काका यह बयान देते, स्कूल के सत्यापक ‘बूटी बाबू’ उनकी बात पर गहरी सोच में पड़ जाते। सत्यापन का झंडा लेकर वे काका की गाय के पीछे कई दिन तक दौड़ते, लेकिन फिर भी गोबर का एक निशान न मिलता।

गांव के साहूकार हरिराम का सबसे बड़ा झूठ था, “मैं गरीब हूं।” जब उन्होंने यह झूठ पेश किया, बूटी बाबू ने उनके घर की तलाशी ली। घर के अंदर सोने-चांदी के बर्तन, पैसे से भरे संदूक और गहनों का ढेर था। फिर भी हरिराम साहूकार रोते हुए कहता, “मेरे पास जो है, वो सब उधार का है। असली गरीब तो मैं हूं।” स्कूल ने इसे ‘ध्यान खींचने वाला झूठ’ की श्रेणी में डाल दिया।

फिर, गांव की चंडाल चौकड़ी आई। उनका झूठ था, “हम चोरी नहीं करते। हम ईमानदार लोग हैं।” बूटी बाबू ने उनकी गुप्त ‘सामान संग्रह कुटिया’ देखी, जहाँ उनके सारे चुराए हुए सामान सहेजे हुए थे। मगर सत्यापन के बाद यह तय हुआ कि चोरों का दावा सच था—वे चोरी को ‘सामाजिक सेवा’ मानते थे।

स्कूल के सबसे सम्मानित सदस्य थे पंडित जी, जो झूठ को सत्य की चादर में लपेटकर पेश करते। उनका एक बयान था, “मैं रोज चार घंटे पूजा करता हूं और आधे घंटे उपदेश देता हूं।” बूटी बाबू ने जांच की तो पाया कि पंडित जी पूजा के नाम पर मेवे खा रहे थे और उपदेश के नाम पर सपने देख रहे थे। सत्यवाद स्कूल ने इसे ‘सपनों की पूजा’ के तहत प्रमाणित किया।

फिर आई बारी सरकार की। तहसीलदार साहब ने एक झूठ भेजा, “हमारी योजनाएं लोगों की भलाई के लिए हैं।” सत्यवाद स्कूल के अध्यापक बूटी बाबू ने महीनों तक योजना के दस्तावेजों की जांच की। उन्होंने पाया कि योजना का फंड ‘लाल किले के रंगाई-पुताई’ में खर्च हो चुका था। मगर सत्यवाद स्कूल ने इसे ‘लाल झंडे वाला झूठ’ घोषित कर दिया।

झूठों की इस अद्भुत प्रदर्शनी ने सत्यवाद स्कूल को इतने प्रसिद्ध कर दिया कि अखबारों में खबरें छपने लगीं। एक दिन एक विदेशी पत्रकार गांव में आया और पूछा, “आपके गांव में झूठ बोलने की कला इतनी अद्भुत कैसे है?” बूटी बाबू ने उत्तर दिया, “हमारे गांव में झूठ बोलने को कला माना जाता है। सच तो हर कोई कहता है, मगर झूठ बोलना मेहनत का काम है। इसे रचने में कल्पनाशक्ति चाहिए, तर्क चाहिए और थोड़ा-सा पागलपन भी।”

पत्रकार ने यह सुनकर गांव को ‘झूठों का वैश्विक केंद्र’ का नाम दे दिया। सत्यवाद का स्कूल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मशहूर हो गया। लेकिन बूटी बाबू ने अंत में घोषणा की, “झूठ बोलना कला है, मगर सच सुनना साधना। झूठ की सीमाओं को समझना और सत्य के प्रकाश को ग्रहण करना ही हमारी अंतिम शिक्षा है।”

और इसी शिक्षा के साथ, सत्यवाद का स्कूल एक परंपरा बन गया। गांववालों ने झूठ को कला माना, मगर सच को जीवन का आधार। इस हास्य और व्यंग्य के बीच, हरिशंकर परसाई की शैली में यह कथा बताती है कि सत्य और झूठ के बीच का सफर, इंसान की आदतों और समाज की विडंबनाओं का खूबसूरत आईना है।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 49 ☆ व्यंग्य – “ब्लर्बसाज़ों को चिंतिंत करती एक ख़बर…” ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक अप्रतिम और विचारणीय व्यंग्य  ब्लर्बसाज़ों को चिंतिंत करती एक ख़बर…” ।)

☆ शेष कुशल # 49 ☆

☆ व्यंग्य – “ब्लर्बसाज़ों को चिंतिंत करती एक ख़बर…” – शांतिलाल जैन 

वे एक नामचीन ब्लर्बसाज़ हैं. इन दिनों कुछ डिस्टर्ब चल रहे हैं. जिस खबर से वे सशंकित हैं उसे बताने से पहले हम आपको उनके बारे में थोड़ा सा विस्तार से बताना चाहते हैं.

कभी वे हिंदी के नामचीन लेखक रहे हैं मगर इन दिनों वे सिर्फ नई किताबों के ब्लर्ब भर लिखते हैं. प्रति सप्ताह औसतन दो से तीन ब्लर्ब तो लिख ही मारते हैं. प्रकाशकों के स्टाल पर सजी हुई हर तीसरी किताब का ब्लर्ब आपको उन्ही का लिखा मिलेगा. जिसका कोई नहीं उसका तो खुदा है यारों. जिस लेखक को कोई ब्लर्ब लेखक नहीं मिलता उनके लिए वे भगवान हैं.  ब्लर्बसाज़ी एक नशा है और वे उसके एडिक्ट. जिस सप्ताह उनके पास ब्लर्ब लिखने के लिए कोई किताब नहीं होती वो अपनी ही किसी पुरानी किताब का ब्लर्ब लिख मारते है. मुझसे बोले – “सांतिबाबू, जितने ब्लर्ब तुमने पढ़े नहीं होंगे उससे ज्यादा तो मैं लिख चुका हूँ.”

समय का सदुपयोग करना कोई उनसे सीखे. किसी परिचित का फ्यूनरल चल रहा हो तो एक ओर साईड में जाकर गूगल पर वॉईस इनपुट से बोलकर ब्लर्ब सेंड कर देते हैं. तकनीक ने उनका काम आसान कर दिया है. ब्लर्ब लेखन की दुनिया में उन्होंने वो मकाम हासिल कर लिया है कि नए लेखक खुद अपनी किताब का ब्लर्ब लिखकर ले आते हैं, वे उस पर सिग्नेचर जड़ देते हैं. कभी कभी उन्हें लटकती तलवार के नीचे बैठकर मंत्री जी की पीए से लेकर थानेदार साब की जोरू-मेहरारू तक की  किताब के लिए भी ब्लर्ब लिखना पड़ता है. ‘ना’ कह कर मुसीबत मोल लेने से बेहतर है कुछ मीठे नफीसतारीफों से भरे जुमले लिख दिए जाएँ. एक बार उन्होंने थानेदार की वाईफ़ की किताब पर लिख दिया – “कहानियाँ इतनी रोमांचक है कि पाठक सांस रोक पढ़ने को विवश हो जाता है.” उनकी बीड़ के पाठक चालाक निकले, उन्होंने पुलिस की नज़र बचाकर बीच बीच में सांस ले ली और मरने से बच गए. वे स्वयं सीवियर अस्थमेटिक रहे हैं, सांस रुक जाने के डर से उन्होंने भी इसे नहीं पढ़ा, मगर लिखने में क्या जाता है. वे मनुहार के कच्चे हैं. आग्रह हसीन हो, वाईफ की छोटी सिस्टर की किताब हो, बॉस की अपनी लिखी कविताओं की किताब हो तो मधुर-झूठ बोलने का पाप माथे लेने में वे कोई हर्ज़ नहीं समझते.

कोई यूं ही ब्लर्बसाज़ नहीं बन जाता है. किताब  के बाबत ऐसा ज़ोरदार लिखना पड़ता है कि गंजा भी कंघी खरीद ले. कुनैन की गोली को स्वीट-कैंडी बताने की कला विकसित करनी पड़ती है. हालाँकि वे घोषित प्रगतिशील हैं मगर मन ही मन बैकुंठ की आस पाले रहते हैं सो हर दिन सुबह ब्रम्ह मुहूर्त में उठकर पिछले दिन ब्लर्ब पर लिखे गए झूठ की प्रभु से क्षमा मांग लेते हैं. कुछ लोग इसे झांसा देने की साहित्यिक कला मानते हैं. एक बार एक किताब के ब्लर्ब पर उन्होंने लिख दिया ‘लेखक नया है मगर उसमें स्पार्क है.’ नामचीन लेखक के कहे गए इस वाक्य को  पढ़कर पाठकों ने पुस्तक मेले के स्पेशल ट्वेंटी परसेंट डिस्काउंट में किताब खरीद तो ली मगर कुछ पन्ने पढ़ने के बाद ही उसमें स्पार्क ढूँढने लगे कि मिले तो उसी से जला दें इस किताब को.

वे किताबों की हसीन दुनिया के जॉन अब्राहम हैं. भोलाभाले पाठक ब्लर्ब पर उनका नाम, कभी कभी फोटो भी, देखकर ही क्यूआर कोड से यूपीआई पेमेंट कर डालते हैं. थोड़ा सा पढ़ने के बाद उन्हें वैसी ही निराशा हुआ करती है जैसी अमिताभ बच्चन के कहने पर आपको नवरतन तेल खरीद लेने पर हुआ करे है. मगर इससे न अमिताभ की सेहत पर कोई फर्क पड़ता है न ब्लर्बसाज़ की.

किताब के बकवास निकल जाने पर कंज्यूमर कोर्ट में क्षतिपूर्ति के दावे नहीं लगा करते. ऐसी ठगी से किताब के उपभोक्ता को बचाने के लिए पिछले दिनों एक सुखद खबर अमेरिका से आई है और वही हमारे ब्लर्बसाज़ जी के डिस्टर्ब होने का सबब बनी हुई है. खबर यह है कि साइमन और शूस्टर नामक एक अमेरिकी प्रकाशक ने तय किया है अब से वह किताबों पर ब्लर्ब नहीं छापा करेगा. न रहेगा बांस न बजेगी बाँसुरी. न ब्लर्ब रहेगा न उस पर ‘अद्भुत’ लिखे जाने के भ्रामक दावे. ‘जागो पाठक जागो’ आन्दोलन के प्रणेताओं के लिए भले ही यह खबर सुकून देनेवाली हो मगर उनके तो हाथों के तोते उड़ने के लिए रेडी हैं. गर-चे भारत के प्रकाशकों ने ब्लर्ब न छापने का फैसला कर लिया तो ‘हम जी कर क्या करेंगे’. मन में वे एक आस पाले हुए हैं कि अपने आप में विधा बन चुका उनका विपुल ब्लर्ब लेखन उन्हें एक दिन ज्ञानपीठ सम्मान दिलवाएगा. अब उन्हें अपने सपनों पर पानी फिरता नज़र आ रहा है. भगवान् अमेरिकी प्रकाशक के फैसले जैसा समय भारत में कभी न आने दे. आमीन.

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© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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