(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय व्यंग्य – “डिजिटल एनीमल”।)
☆ व्यंग्य – “डिजिटल एनीमल” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
इंसान के बारे में कहा जाता है कि वह सामाजिक प्राणी है। आप मानें या माने पर आज के इंसान को सामाजिक प्राणी की जगह डिजिटल एनीमल कहना ज्यादा उचित लग रहा है। अब इंसान को इंसान के साथ अच्छा नहीं लगता, इंसान का दिमाग विचित्र होता जा रहा है, हर कोई अपने मूड और मस्ती में रहना चाहता है। कान में आइपोड या प्लग्स लगाकर बैठे व्यक्ति से कुछ कहो तो वह चिढ़ जाता है, फिर आज के इंसान को कैसे कहें कि वह सामाजिक प्राणी है।
सभी के दोनों हाथों में मोबाइल है, मोबाइल के अलावा लेपटॉप या टेबलेट जैसा दूसरा कोई न कोई डिजिटल इंस्ट्रूमेंट भी साथ है, यार भाई… तू तो सामाजिक प्राणी है फिर एक घंटे मोबाइल से अलग रहने की बात से इतना तू अपसेट क्यूं होता है, यदि बैटरी लो हो रही हो तो तू डाउन क्यूं हो जाता है? आठ दस घंटे मोबाइल के चक्कर में तू असामाजिक होने जैसी हरकतें क्यूं करने लगता है? तू तो अपने आपको सामाजिक प्राणी कहता है फिर तुझे मोबाइल में वह अमुक चेहरा क्यूं अच्छा लगने लगता है, जिससे तू मिला भी नहीं है जिसे तू पहचानता भी नहीं है। फिर क्यूं दिनों रात उसी के बारे में सोचता रहता है? तेरे दिल दिमाग में वो अमुक हीरोइन छायी रहती है, ऐसा लगता है जैसे वो तुम्हारे साथ रहती है। यार भाई…तू जाग, तू तो सामाजिक प्राणी है तो तू हमेशा ख्यालों में क्यूं जीने लगा? ऐसा लग रहा है कि तू अपनी लवस्टोरी में अपने साथ एक वर्चुअल पार्टनर के संग जी रहा है, फेसबुक, वाट्स अप, इंस्टाग्राम में तुम्हारा प्यार और संबंध डिजिटल हो गए हैं। तुझे प्यार जैसा कुछ होता तो है पर वह लम्बे समय टिकता नहीं, ब्रेकअप के मामले में तू तो ज्यादा सामाजिक हो गया है।
प्राइवेसी का नाम तू और तेरा मोबाइल हो गया है, दिखावे की दुनिया का तू सरताज हो गया है। याद है जब माता-पिता ने तेरा जबरदस्ती विवाह किया था तो बारात बिदा होते ही कार में बैठे बैठे तू तुरंत नव परिणित युगल स्टेट्स अपलोड करने में लग गया था, फूफा और जीजा की तरफ तो देखा भी नहीं था, फूफा बहुत नाराज हो गए थे तो तुम्हारे माता-पिता उनके चरणों में लोट गये थे पर तुम अपलोड करने और रील बनाने में बिजी हो गए थे। सब बाराती हंस रहे थे और तू नयी पत्नी से कह रहा था कि जब मैं मोबाइल में होऊं तो मुझे डिस्टर्ब नहीं करना, मैं क्या देख रहा हूं…क्या कर रहा हूं इस बारे में कभी कोई सवाल नही करना क्योंकि मेरे पांच हजार फ्रेंड हैं, हालांकि वे जब सामने मिलेंगे तो भले न हम पहचाने पर वे डिजिटल फ्रेंड की श्रेणी में तो आते हैं, यही फ्रेंड हमें दिन-रात लाइक और कमेंट देते हैं, ये हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है। नात- रिश्तेदार तो स्वार्थवश जुड़े होते हैं हमारी पोस्ट देखकर भी अनजान बन जाते हैं, आज के युग में नात रिश्तेदार सब असामाजिक प्राणी हो गए हैं पर लाइक और कमेंट देने वाले सच में सामाजिक प्राणी कहलाने लायक होते हैं। तुम्हें याद है शादी के दूसरे दिन तुम्हारा हनीमून था तो उस रात आकाश में पूरा मून तो निकला था पर उस रात को भी तुमने डिजिटल हनीमून मनाने का फैसला कर लिया था, और वह बेचारी रात भर तड़फती रह गई थी…
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय व्यंग्य – ‘ख़ुदगर्ज़ लोग‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 229 ☆
☆ व्यंग्य – ख़ुदगर्ज़ लोग ☆
वह आदमी सहमता, सकुचता मंत्री जी के बंगले में घुसा। भीतर पहुँचा तो देखा, लंबे चौड़े लॉन में बीस पच्चीस लोग इधर उधर आँखें मूँदे या आँखों पर बाँह धरे पड़े हैं। लगता था जैसे बीस पच्चीस लाशें बिछी हों। पास ही दो एंबुलेंस खड़ी थीं। उनमें से एक में दो लोगों को डंगाडोली बनाकर धरा जा रहा था।
आदमी उन ज़िन्दा लाशों के बगल से गुज़रा तो उनमें से एक ने आँखों पर से बाँह हटाकर उसे घूरा, फिर पूछा, ‘कौन हो भैया? कहाँ जा रहे हो?’
आदमी बहुत नम्रता से बोला, ‘मंत्री जी से मिलना था। वे हमें जानते हैं।’
ज़मीन पर लेटा आदमी बोला, ‘ज़रुर जानते होंगे, लेकिन अभी वे किसी से नहीं मिलेंगे। अभी वे शोककक्ष में हैं। ब्लड प्रेशर चेक करने के लिए डॉक्टर को चुप्पे-चुप्पे बुलाया है। विरोधी पार्टी वालों को मंत्री जी की तबियत पता नहीं लगना चाहिए।’
आगन्तुक वहीं रुक गया। पूछा, ‘क्या हो गया मंत्री जी को?’
लेटा हुआ आदमी उठ कर बैठ गया। बोला, ‘वही राजरोग है। जो पार्टी हमें सपोर्ट कर रही थी उसने समर्थन वापस ले लिया है। राज्यपाल जी को लिखकर दे दिया है। बेईमानों से और क्या उम्मीद करेंगे? अब हमारी सरकार गिरी ही समझो। इसीलिए हम सब मंत्री जी के समर्थक ग़म में डूबे यहाँ बेसुध पड़े हैं। जब मंत्री जी पद पर नहीं रहेंगे तो हमारा क्या होगा? हमें कौन पूछेगा? अँधेरे के सिवा कुछ नहीं दिखता है। आप किस लिए आये थे?’
आगन्तुक बोला, ‘बेटे ने साल भर पहले पटवारी की परीक्षा पास की थी। अभी तक नियुक्ति पत्र नहीं मिला।’
बैठा हुआ आदमी व्यंग्य से बोला, ‘आप लोग, भैया, बड़े स्वार्थी हो। आपको अपना अपना दिखता है, हमारी परेशानी नहीं दिखती। वही नौकरी और मँहगाई का रोना। जरा सोचो, भैया जी मंत्री नहीं रहे तो हमारा क्या होगा? हमारे पास भैया जी की सेवा के सिवा कौन सा रोजगार है? कौन सा मुँह लेकर घर जाएँ?’
आगन्तुक दुखी स्वर में बोला, ‘बड़ी परेशानी है। बेटा चौबीस घंटे टेंशन में रहता है। क्या करें?’
बैठा हुआ आदमी क्रोधित हो गया, बोला, ‘बस अपनी ढपली, अपना राग। हम यहाँ इतनी बड़ी परेशानी में पड़े हैं और आप अपना बेसुरा राग अलापे जा रहे हैं। गज़ब की खुदगर्ज़ी है,भई। क्या आपका दुख हमारे दुख से बड़ा है? ये जो इतने लोग यहाँ बेहाल पड़े हैं इनका दुख आपको दिखाई नहीं देता? अब आप यहांँ से तशरीफ ले जाएँ। आप जैसे खुदगर्ज़ लोगों के कारण ही हमारे देश की जगहँसाई होती है। शर्म आनी चाहिए आपको। ‘
आगन्तुक, सोच में डूबा, धीरे-धीरे बंगले से बाहर हो गया
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य – घर की सरकार का बजट।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 259 ☆
व्यंग्य – घर की सरकार का बजट
बतंगड़ जी मेरे पड़ोसी हैं। उनके घर में वे हैं, उनकी एकमेव सुंदर सुशील पत्नी है, बच्चे हैं। मैं उनके घर के रहन सहन परिवार जनो के परस्पर प्यार, व्यवहार का प्रशंसक हूं। जितनी चादर उतने पैर पसारने की नीति के कारण इस मंहगाई के जमाने में भी बतंगड़ जी के घर में बचत का ही बजट रहता है। परिवार में सदा सादा जीवन उच्च विचार वाली आदर्श आचार संहिता का सा वातावरण होता है। देश, प्रदेश में हर साल प्रस्तुत होते बजट, बजट के पूर्व एवं पश्चात टी वी डिबेट डिस्कशन का असर बतंगड़ जी के घर पर भी हुआ। बतंगड़ जी की पत्नी, और बच्चो के अवचेतन मस्तिष्क में लोकतांत्रिक भावनाये संपूर्ण परिपक्वता के साथ घर कर गई। उन्हे लगने लगा कि घर में जो बतंगड़ जी का राष्ट्रपति शासन चल रहा है जो नितांत अलोकतांत्रिक है। बच्चो को लगा उनके खर्चों में कटौती होती है। पत्नी को अपनी किटी पार्टी में बजट बढ़ोतरी की आवश्यकता याद आई।
बतंगड़ जी को अमेरिका से कंम्पेयर किया जाने लगा, जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लोकतांत्रिक सिद्धांतो की सबसे ज्यादा बात तो करता है पर करता वही है जो उसे करना होता है। बच्चो के सिनेमा जाने की मांग को उनकी ही पढ़ाई के भले के लिये रोकने की विटो पावर को चैलेंज किया जाने लगा, पत्नी की मायके जाने की मंहगी डिमांड बलवती हो गई। मुझे लगने लगा कि एंटी इनकंम्बेंसी फैक्टर बतंगड़ जी को कही का नही छोड़ेगा। अस्तु, एक दिन चाय पर घर की सरकार के लोकतांत्रिक स्वरूप को लेकर खुली बहस हई। महिला आरक्षण का मुद्दा गरमाया। संयोग वश मै भी तब बतंगड़ जी के घर पर ही था, मैने अपना तर्क रखते हुये भारतीय संस्कृति की दुहाई दी और बच्चो को बताया कि हमारे संस्कारो में विवाह के बाद पत्नी स्वतः ही घर की स्वामिनी होती है, बतंगड़ जी जो कुछ करते, कहते है उसमे उनकी मम्मी की भी सहमति होती है। पर मेरी बातें संसद में विपक्ष के व्यक्तव्य की तरह अनसुनी कर दी गई।
तय हुआ कि घर के सुचारु संचालन के लिये बजट बनाया जाए जिसे सभी सदस्यों की सहमति से पारित किया जाए। बजट प्रस्तुती हेतु बतंगड़ जी मुझसे सलाह कर रहे थे, तो आय से ज्यादा व्यय अनुमान देख मैने उन्हें बताया कि जब खर्च के लिये देश चिंता नही करता तो फिर आप क्यों कर रहे हैं ? देश विश्व बैंक से लोन लेता है, डेफिशिट का बजट बनाता है, आप भी लोन लेने के लिये बैंक से फार्म ले आयें। बतंगड़ जी के घर के बजट में बच्चो के मामा और बुआ जी के परिवार अपना प्रभाव स्थापित करने के पूरे प्रयास करते दिख रहे है, जैसे हमारे देश के बजट में विदेशी सरकारे प्रगट या अप्रगट हस्तक्षेप करती है। स्वतंत्र व निष्पक्ष आब्जरवर की हैसियत से बतंगड़ जी के दूसरे पड़ोसियो को भी बजट के डिस्कशन के दौरान उपस्थिति का बुलावा भेजा गया है।
बजट पर बहस के नाम पर ही बतंगड़ जी के घर में रंगीनियो का सुमधुर वातावरण है, और हम सब उसका लुत्फ ले रहे हैं।
यूं भी बजट आश्वासनों का पुलिंदा ही तो होता है। घर की सरकार चलानी है तो बजट बनेगा। तय है कि विपक्ष अच्छे से अच्छे बजट को भी पटल पर रखे जाते ही बिना पढ़े ही उसे आम आदमी के लिये बोझ बढ़ाने वाला निरूपित करेगा। वोटर भी जानता है कि चुनावो वाले साल में बजट ऐसा होगा जिससे भले ही देश को लाभ न हो पर बजट बनाने वाली पार्टी को वोट जरूर मिलें।
शब्दो, परिभाषाओ में उलझा वोटर प्रतिक्रिया में कुछ न कुछ अच्छा बुरा कहेगा, ध्वनिमत से बजट पास भी हो जायेगा। पता नही कितना आबंटन उसी मद में खर्च होगा जिस के लिये निर्धारित किया जायेगा। पता नही कब कैसी विपदा आयेगी और सारा बजट धरा रह जायेगा, खर्च की कुछ नई ही प्राथमिकतायें बन जायेंगी, पर हर हाल में बजट की चर्चा और उम्मीद के सपने संजोये बजट हमेशा प्रतिक्षित रहेगा। बजट में योजना का प्रावधान ही जनता को आनंदित करने में सक्षम है। बजट प्रस्तुत होने के बाद भी जब जीवन में कोई क्रांतिकारी बदलाव नही ला पायेगा तो हम सब पागल अगले साल के बजट से उम्मींदें करने की गलतफहमियां पाल लेंगे। फिलहाल बतंगड़ जी के घर की सरकार के बजट की आहट से उन के दिल में शेयर बाजार के केंचुए की चाल की तरह धड़कने ऊपर नीचे होती दिख रही हैं, और उनकी पत्नी, बच्चो सहित कुछ आबंटन की आशा में प्रसन्न दिखती हैं।
☆ व्यंग्य – “बेगुनाही की सजा“📚 सुश्री इन्दिरा किसलय ☆
‘—- ज़ाहिर सी बात है जो अंधेरे में देख सकता है उसे ज्ञानी कहते हैं। ज्ञान के आलोक में तीसरी आँख खुल जाती है। ऐसे में उल्लू की खूबियों के मद्देनज़र उसे उल्लू (मूर्ख) उलूक या घुबड़ कहना सरासर अपमान है। लक्ष्मीजी के पर्यटन मंत्री की ऐसी अवमानना। ऐसी तौहीन !
मुंबई एअरपोर्ट पर जेट एअरवेज़ के बोइंग 777 के काॅकपिट में उल्लू घुस गया। खबर बन गई।खबर तो उल्लुओं (परंपरागत अर्थ में) की ही बनती है। उल्लुओं को पेड़ों पर होना चाहिए पर 21 वीं सदी में विकास चरम पर है। अतः उसका सोचना भी स्वाभाविक है। शहर की चकाचौंध और पाँच सितारा सुविधाओं पर उल्लुओं का भी हक है। यूं कहें कि उल्लुओं का ही हक है।
समझ में नहीं आता आखिर उल्लू जेट से क्यों उतारा गया।शायद उसने हवाई चप्पल नहीं पहनी थी। कहते हैं देश में ऐसा समाजवाद आएगा कि हवाई चप्पल वाले हवाई यात्रा कर सकेंगे। वे हवाई किले भी बना पायेंगे। श्रीदेवी वाला मिस्टर इंडिया का हवा हवाई गाना भी गा सकेंगे।
जेट से निकाल बाहर करनेवाले कर्मचारी के हाथों में उल्लू बेहद भोलीभाली सवालिया मुद्रा में नज़र आया। बस हैरान परेशान सा अपनी गोल गोल आँखों से मटर मटर देखता रहा। वह अभी तक समझ नहीं पाया है कि सारे गुनहगार देश से बेखौफ बेखटके उड़ जाते हैं । फिर लौटकर नहीं आते। उसने तो कोई गुनाह नहीं किया। वक्त बुरा हो तो बेगुनाही भी गुनाहों में शुमार की जाती है। नसीब कि उसे जेल में नहीं डाला। ई डी नहीं छुलाई।
उल्लू सोचने लगा अच्छा हुआ वह दिन में ढंग से देख नहीं पाता वर्ना उसे जाने क्या क्या देखना पड़ता। ये आदमजात भी इतनी बेढंगी और दोगली है कि क्या कहने। मूर्ति बनाकर घर में रखती है, दीवाली पर पूजा करती है, और जिन्दा उल्लुओं को दुत्कारती है। उन्हें गाली बतौर इस्तेमाल करती है। तांत्रिक भी उल्लुओं के जरिए अपना उल्लू सीधा करते हैं।
उल्लू मन में सोच रहा था – मैं काॅकपिट में ही घुसा था ना। किसी की कुर्सी पर तो नहीं बैठा था। अजीब लोग हैं एक तरफ तो कहते हैं मेरे रहने से किसी की बुरी नज़र नहीं लगती। मैं जेट में रहता तो सभी सुरक्षित और बेफिक्र रहते पर नहीं—आदमी की बुद्धि कब कौन सा रंग बदल ले कहना मुश्किल है। गिरगिट भी आदमी से चिढ़े हुये हैं। वे भी मानहानि का दावा दायर करने की सोच रहे हैं।
काश मुझे मनुष्य की भाषा आती ! टी वी के बेहूदे बेसुरे अभद्र डिबेट में सभी की पोल खोलकर रख देता। “पैचान कोन” वाले काॅमेडियन की तर्ज पर जरूर पूछता “बोलो बोलो उल्लू कौन!”
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य – सुपारी लाखों की।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 258 ☆
व्यंग्य – सुपारी लाखों की
बिदा होते हुये सहज ही किसी भी मेहमान को सुपारी प्रस्तुत किये जाने की परंपरा हमारी संस्कृति में है। बड़े प्रेम से सरौते से काट कर हाथ की गदेली में सुपारी दी ली जाती रही है। कच्ची सुपारी, सिकी सुपारी, खाने से लेकर पूजा अनुष्ठान तक, सुपारी के कई तरह के प्रयोग होते हैं। सुपारी को तांबूल फल की श्रेणी में गिना जाता है। पूजा पाठ में पंडित जी सहंगी सुपारियों से नवग्रह बनाने की क्षमता रखते हैं। विवाह में सोने, चांदी जड़ित सुपारी वर को देने की परंपरा भी हैं। आयुर्वेद में भी सुपारी से कई तरह के रोगों के उपचार किये जाते है। वास्तु विशेषज्ञ भी सुपारी का इस्तेमाल कई सारे उपाय के लिए करते हैं। सुपारी से पान पराग माउथ फ्रेशनर और गुटखा बनाकर करोड़ो के वारे न्यारे हो रहे हैं। सुप्रसिद्ध फिल्मी हीरो इन गुटखों के विज्ञापन करते नजर आते हैं। हर शहर में किसी चौराहे का कोई न कोई पान कार्नर दुनियां भर की चर्चाओ का प्रमुख सेंटर होता है। यहां कान खोलकर खड़ा संवाददाता सरलता से अखबार के सिटी पेज का अगले दिन का पन्ना तैयार कर सकता है। खासकर बोल्ड लेटर में छपने वाले बाक्स न्यूज में तो निश्चित ही किसी न किसी पान सेंटर का ही योगदान होता है। साहित्यिक अभिरुचि के लेखको, कवियों को पान सेंटर कई कहानियों प्लाट मुफ्त ही प्रदान कर देते हैं। कुछ जीवंत प्रेम कथायें भी नुक्कड़ के इन्ही ठेलों के गिर्द रच जाती हैं। सुपारी का पौधा आकर्षक होता है इसकी खेती से वर्षों तक मुनाफा होता है। रींवा में तो सुपारी पर कार्विंग कर तरह तरह की कलाकृतियां बनाई जाती हैं। अस्तु, सुपारी का कारोबार कईयों को रोजगार देता है।
इस तरह की सारी आम लोगों की सुपारी हजारों की ही होती है। किन्तु भाई लोगों की सुपारी लाखों की होती है। जिसमें वास्तविक सुपारी नदारत होती है। वर्चुएल रूप से भाई लोगों के गैंग किसी को उठा लेने के लिये, किसी को उड़ा देने के लिये लाखों की सुपरी लेते हैं। आधी रकम लेकर भाई के हेडक्वार्टर पर डील फाइनल कर दी जाती है। फिर भाई वारंट निकाल देता है। वर्क किसी गुर्गे को एसाईन हो जाता है। और काम निपटते ही सुपारी की तय शुदा कीमत अदा कर दी जाती है। पोलिस के सायरन बजाती गाड़ियों के चक्कर लगते हैं। घटना स्थल की फोरेंसिक जांच की जाती है। साक्ष्य जुटाने के लिये घटना का पुनः नाट्य रुपांतर किया जाता है। टी वी चैनलों, अखबार के क्राईम रिपोर्टरों को फिर पान सुपारी की गुमटियों, खोंखों पर हो रही सुगबुगाहट से क्लू मिलते हैं। पोलिस के मुखबिर सुपारी चबाते खबरें तलाशते हैं। चंद सिक्कों की फिजिकल सुपारी लाखों की वर्चुएल सुपारी के अपराधों के राज खोलने में बड़ी भूमिका निभाती है।
“हिन्साप”! कैसा विचित्र शब्द है; है न? मेरा दावा है की आपको यह शब्द हिन्दी के किसी भी शब्दकोश में नहीं मिलेगा। आखिर मिले भी कैसे? ऐसा कोई शब्द हो तब न। खैर छोड़िए, अब आपको अधिक सस्पेंस में नहीं रखना चाहिये। वैसे भी अपने-आपको परत-दर-परत उघाड़ना जितना अद्भुत होता है, उतना ही शर्मनाक भी होता है। आप पूछेंगे कि- “हिन्साप की चर्चा के बीच में अपने-आपको उघाड़ने का क्या तुक है? मैं कहता हूँ तुक है भाई साहब, “हिन्साप” जैसे शब्द के साथ तुक होना सर्वथा अनिवार्य है। आखिर हो भी क्यों न;“हिन्साप” की नींव जो “हमने” रखी है? आप सोचेंगे कि “हिन्साप” की नींव हमने क्यों रखी? चलिये आपको सविस्तार बता ही दें।
कार्यालय में राजभाषा के प्रचार-प्रसार के लिये विभागीय स्तर पर प्रतियोगिताओं का आयोजन किया गया था। साहित्य में रुचि के कारण मैंने भी प्रतियोगिता में भाग लिया। पुरस्कार भी प्राप्त किया। किन्तु, साथ ही ग्लानि भी। ग्लानि होना स्वाभाविक था क्योंकि प्रतियोगिता, प्रतियोगिता के तौर पर आयोजित ही नहीं हुई थी। क्योंकि प्रतियोगिता विभागीय स्तर की थी तो निर्णायक का किसी विभाग का अधिकारी होना भी स्वाभाविक था, बेशक निर्णायक को साहित्य का ज्ञान हो या न हो। फिर, जब निर्णायक अधिकारी हो तो स्वाभाविक है कि पुरस्कार भी किसी परिचित या किसी को स्वार्थवश ही मिले, चाहे वह ‘हिन्दी’ शब्द का उच्चारण “इंदी” या “इंडी” ही क्यों न करे। अब आप सोच रहे होंगे कि मुझे पुरस्कार इसलिए मिला होगा क्योंकि मैं परिचित हूँ? आप क्या कोई भी यही सोचेगा। किन्तु, मैं आपको स्पष्ट कर दूँ कि मैं कोई परिचित भी नहीं हूँ। अब मुझे यह भी स्पष्ट करना पड़ेगा कि- फिर मुझे पुरस्कार क्यों मिला? इसका एक संक्षिप्त उत्तर है ‘स्वार्थ’। वैसे तो यह उत्तर है किन्तु आप इसका उपयोग प्रश्न के रूप में भी कर सकते हैं। फिर मेरा नैतिक कर्तव्य हो जाता है कि मैं इस प्रश्न का उत्तर दूँ।
चलिये आप को पूरा किस्सा ही सुना दूँ। हुआ यूँ कि- प्रतियोगिता के आयोजन के लगभग छह-सात माह पूर्व वर्तमान निर्णायक महोदय जो किसी विभाग के विभागीय अधिकारी थे उनके सन्देशवाहक ने बुलावा भेजा कि- साहब आपको याद कर रहे हैं। मेरे मस्तिष्क में विचार आया कि भला अधिकारी जी को मुझसे क्या कार्य हो सकता है? क्योंकि न तो वे मेरे विभागीय अधिकारी थे और न ही मेरा उनसे दूर-दूर तक कोई व्यक्तिगत या विभागीय सम्बंध था। खैर, जब याद किया तो मिलना अनिवार्य लगा।
अधिकारी जी बड़ी ही प्रसन्न मुद्रा में थे। अपनी सामने रखी फाइल को आउट ट्रे में रख मेरी ओर मुखातिब हुए “सुना है, आप कुछ लिखते-विखते हैं? मैंने झेंपते हुए कहा- “जी सर, बस ऐसे ही कभी-कभार कुछ पंक्तियाँ लिख लेता हूँ।”
शायद वार्तालाप अधिक न खिंचे इस आशय से वे मुख्य मुद्दे पर आते हुए बोले- “बात यह है कि इस वर्ष रामनवमी के उपलक्ष में हम लोग एक सोवनियर (स्मारिका) पब्लिश कर रहे हैं। मेरी इच्छा है कि आप भी कोई आर्टिकल कंट्रिब्यूट करें।”
उनकी बातचीत में अचानक आए अङ्ग्रेज़ी के पुट से कुछ अटपटा सा लगा। मैंने कहा- “मुझे खुशी होगी। वैसे स्मारिका अङ्ग्रेज़ी में प्रकाशित करवा रहे हैं या हिन्दी में?” वे कुछ समझते हुए संक्षिप्त में बोले – “हिन्दी में।”
कुछ देर हम दोनों के बीच चुप्पी छाई रही। फिर मैं जैसे ही जाने को उद्यत हुआ, उन्होने आगे कहा- “आर्टिकल हिन्दी में हो तो अच्छा होगा। वैसे उर्मिला से रिलेटेड बहुत कम आर्टिकल्स अवेलेबल है। मैंने उठते हुए कहा- “ठीक है सर, मैं कोशिश करूंगा।”
फिर मैंने कई ग्रन्थ* एकत्रित कर एक सारगर्भित लेख तैयार किया “उर्मिला – एक उपेक्षित नारी”।
(* 80 के दशक में इंटरनेट नहीं हुआ करता था)
कुछ दिनों के पश्चात मुझे स्मारिका के अवलोकन का सुअवसर मिला। लेख काफी अच्छे गेटअप के प्रकाशित किया गया था। आप पूछेंगे कि फिर मुझे अधिकारी जी से क्या शिकायत है? है भाई, मेरे जैसे कई लेखकों को शिकायत है कि अधिकारी जी जैसे लोग दूसरों की रचनाएँ अपने नाम से कैसे प्रकाशित करवा लेते हैं? अब आप इस प्रक्रिया को क्या कहेंगे? बुद्धिजीवी होने का स्वाँग रचकर वाह-वाही लूटने की भूख या शोषण की प्रारम्भिक प्रक्रिया! थोड़ी देर के लिए मुझे लगा कि ‘उर्मिला’ ही नहीं मेरे जैसे कई लेखक उपेक्षित हैं। यह अलग बात है कि हमारी उपेक्षाओं का अपना अलग दायरा है। अब यदि आप चाहेंगे कि ‘स्वार्थ’ और ‘उपेक्षित’ को और अधिक विश्लेषित करूँ तो क्षमा कीजिये, मैं असमर्थ हूँ।
शायद अब आपको “हिन्साप” के बारे में कुछ-कुछ समझ में आ रहा होगा। यदि न आ रहा हो तो तनिक और धैर्य रखें। हाँ, तो मैं आपको बता रहा था कि- मैंने और शर्मा जी ने “हिन्साप” की नींव रखी। वैसे मैं शर्मा जी से पूर्व परिचित नहीं था। मेरा उनसे परिचय उस प्रतियोगिता में हुआ था जो वास्तव में प्रतियोगिता ही नहीं थी। मैंने अनुभव किया कि उनके पास प्रतिभा भी है और अनुभव भी। यह भी अनुभव किया कि हमारे विचारों में काफी हद तक सामंजस्य भी है। हम दोनों मिलकर एक ऐसे मंच की नींव रख सकते हैं जो “हिन्साप” के उद्देश्यों को पूर्ण कर सके। अब आप मुझ पर वाकई झुँझला रहे होंगे कि- आखिर “हिन्साप” है क्या बला? जब “हिन्साप” के बारे में ही कुछ नहीं मालूम तो उद्देश्य क्या खाक समझ में आएंगे? आपका झुँझला जाना स्वाभाविक है। मैं समझ रहा हूँ कि अब आपको और अधिक सस्पेंस में रखना उचित नहीं। चलिये, अब मैं आपको बता दूँ कि “हिन्साप” एक संस्था है। अब तनिक धैर्य रखिए ताकि मैं आपको “हिन्साप” का विश्लेषित स्वरूप बता सकूँ। फिलहाल आप कल्पना कीजिये कि- हमने “हिन्साप” संस्था की नींव रखी। उद्देश्य था नवोदित प्रतिभाओं को उनके अनुरूप एक मंच पर अवसर प्रदान करना और स्वस्थ वातावरण में प्रतियोगिताओं का आयोजन करना जिसमें किसी पक्षपात का अस्तित्व ही न हो।
कई गोष्ठियाँ आयोजित कर प्रतिभाओं को उत्प्रेरित किया। उन्हें “हिन्साप” के उद्देश्यों से अवगत कराया। सबने समर्पित भाव से सहयोग की आकांक्षा प्रकट की। हमने विश्वास दिलाया कि हम एक स्वतंत्र विचारधारा की विशुद्ध साहित्यिक पत्रिका भी प्रकाशित करना चाहते हैं, जो निष्पक्ष और बेबाक हो तथा जिसमें नवोदितों को भी उचित स्थान मिले। सब अत्यन्त प्रसन्न हुए। सबने वचन दिया कि वे तन-मन से सहयोग देंगे। किन्तु, धन के नाम पर सब चुप्पी साध गए। भला बिना अर्थ-व्यवस्था के कोई संस्था चल सकती है? खैर, “हिन्साप” की नींव तो हमने रख ही दी थी और आगे कदम बढ़ाकर पीछे खींचना हमें नागवार लग रहा था।
“हिन्साप” की अर्थ व्यवस्था के लिए शासकीय सहायता की आवश्यकता अनुभव की गई। संस्थागत हितों का हनन न हो अतः यह निश्चय किया गया कि विभागीय सर्वोच्च अधिकारी को ‘संरक्षक’ पद स्वीकारने हेतु अनुरोध किया जाए। इस सन्दर्भ में प्रशासनिक अधिकारियों के माध्यम से विभागीय सर्वोच्च अधिकारी को अपने विचारों से अवगत कराया गया। विज्ञापन व्यवस्था के तहत आर्थिक स्वीकृति तो मिल गई किन्तु, “हिन्साप” को इस आर्थिक स्वीकृति की भारी कीमत चुकानी पड़ी। पवित्र उद्देश्यों पर आधारित संस्था में शासकीय तंत्र की घुसपैठ प्रारम्भ हो गई और विशुद्ध साहित्यक पत्रिका की कल्पना मात्र कल्पना रह गई जिसका स्वरूप एक विभागीय गृह पत्रिका तक सीमित रह गया। फिर किसी भी गृह पत्रिका के स्वरूप से तो आप भी परिचित हैं। इस गृह पत्रिका में अधिकारी जी जैसे लेखकों की रचनाएँ अच्छे गेट अप में सचित्र और स्वचित्र अब भी प्रकाशित होती रहती हैं।
इस प्रकार धीरे धीरे अधिकारी जी ने “हिन्साप” की गतिविधियों में सक्रिय भाग लेकर अन्य परिचितों, परिचित संस्थाओं के सदस्यों आदि आदि के प्रवेश के लिए द्वार खोल दिये। फिर उन्हें महत्वपूर्ण पदों पर बैठा कर “हिन्साप” की गतिविधियों में हस्तक्षेप करने का सर्वाधिकार सुरक्षित करा लिया। हम इसलिए चुप रहे क्योंकि वे विज्ञापन-व्यवस्था के प्रमुख स्रोत थे।
जब अर्थव्यवस्था सुदृढ़ हो गई तो कई मौकापरस्त लोगों की घुसपैठ प्रारम्भ हो गई। पहले जो लोग तन-मन के साथ धन सहयोग पर चुप्पी साध लेते थे आज वे ही सक्रिय कार्यकर्ताओं का स्वाँग रचा कर आर्थिक सहयोग की ऊँची-ऊँची बातें करने लगे। अध्यक्ष और अन्य विशेष पदों पर अधिकारियों ने शिकंजा कस लिया। और शेष पदों के लिए कार्यकर्ताओं को मोहरा बना दिया गया। फिर, वास्तव में शुरू हुआ शतरंज का खेल।
हमें बड़ा आश्चर्य हुआ कि- शासकीय तंत्र के घुसपैठ के साथ ही “हिन्साप” अतिसक्रिय कैसे हो गई? लोगों में इतना उत्साह कहाँ से आ गया कि वे “हिन्साप” में अपना भविष्य देखने लगे। कर्मचारियों को उनकी परिभाषा तक सीमित रखा गया और अधिकारियों को उनके अधिकारों से परे अधिकार मिल गए या दे दिये गए। इस तरह “हिन्साप” साहित्यिक और संस्कृतिक युद्ध का एक जीता-जागता अखाड़ा बन गया।
सच मानिए, हमने “हिन्साप” की नींव इसलिए नहीं रखी थी कि- संस्थागत अधिकारों का हनन हो; प्रतिभाओं का हनन हो? उनकी परिश्रम से तैयार रचनाओं का कोई स्वार्थी अपने नाम से दुरुपायोग करे? विश्वास करिए, हमने “हिन्साप” का नामकरण काफी सोच विचार कर किया था। अब आप ही देखिये न “हिन्साप” का उच्चारण “इन्साफ” से कितना मिलता जुलता है? अब जिन प्रतिभाओं के लिए “हिन्साप” की नींव रखी थी उन्हें “इन्साफ” नहीं मिला, इसके लिए क्या वास्तव में हम ही दोषी हैं? खैर, अब समय आ गया है कि मैं “हिन्साप” को विश्लेषित कर ही दूँ।
परत-दर-परत सब तो उघाड़ चुका हूँ। लीजिये अब आखिरी परत भी उघाड़ ही दूँ कि- “हिन्साप” का विश्लेषित स्वरूप है “हिन्दी साहित्य परिषद”। किन्तु, क्या आपको “हिन्साप” में “हिंसा” की बू नहीं आती? आखिर, किसी प्रतिभा की हत्या भी तो हिंसा ही हुई न? अब चूंकि, हमने “हिन्साप” को खून पसीने से सींचा है अतः हमारा अस्तित्व उससे कहीं न कहीं, किसी न किसी आत्मीय रूप से जुड़ा रहना स्वाभाविक है। किन्तु, विश्वास मानिए अब हमें “हिन्साप”, “हिन्दी साहित्य परिषद” नहीं अपितु, “हिंसा परिषद” लगने लगी है।
अब हमें यह कहानी मात्र “हिन्दी साहित्य परिषद” की ही नहीं अपितु कई साहित्य और कला अकादमियों की भी लगने लगी है। आपका क्या विचार है? शायद, आपका कोई सुझाव “हिं. सा. प.” को “हिंसा. प.” के “हिसाब” से बचा सके?
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य – ‘सुरक्षित सम्मान की गारंटी‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 226 ☆
☆ व्यंग्य – सुरक्षित सम्मान की गारंटी ☆
नगर के जाने-माने लेखक छोटेलाल ‘नादान’ इस वक्त अपने सम्मान के लिए सम्मान- समारोह में बैठे हैं। सम्मान नगर की जानी मानी संस्था ‘अभिशोक’ के द्वारा हो रहा है। ‘अभिशोक’ लेखकों के लिए दो ही काम करती है –अभिनन्दन और शोकसभा। इसीलिए संस्था का नाम ‘अभिशोक’। फिलहाल अभिनन्दन और सम्मान का कार्यक्रम चल रहा है।
‘अभिशोक’ संस्था प्रतिवर्ष इक्कीस लेखकों का सम्मान करती है। इस बार के इक्कीस में ‘नादान’ जी भी शामिल हैं। साल में कई बार संस्था के पदाधिकारियों के घुटने और ठुड्डी छू कर उन्होंने इस साल के इक्कीस में अपनी जगह सुनिश्चित की। अब वे अपनी पुलक दबाये स्टेज पर प्रतीक्षारत बैठे हैं।
सम्मान कार्यक्रम शुरू हो गया है लेकिन ‘नादान’ जी का नंबर सत्रहवाँ है। एक-एक सम्मानित के सम्मान में समय लग रहा है क्योंकि कई सम्मानित अपने परिवार को साथ लाये हैं जो सम्मान बँटाने और फोटो खिंचाने के लिए स्टेज पर पहुँच जाते हैं। कई सम्मानित भावुक होकर परिवार के लोगों से लिपटकर रोने लगते हैं। इसीलिए कार्यक्रम मंथर गति से चल रहा है।
‘नादान’ जी अपनी जगह क्समसा रहे हैं। सम्मान में होते विलम्ब के साथ धीरज छूट रहा है। बार-बार माथे का पसीना पोंछते हैं। दिल की धड़कन असामान्य हो रही है।
अन्ततः ‘नादान’ जी का नंबर आया और वे हड़बड़ा कर उठे। आगे बढ़ने से पहले अचानक सीने में दर्द उठा और वे वापस कुर्सी में ढह गये। अचेत हो गये। लोग उन्हें उठाकर अस्पताल ले गये। दो घंटे की कोशिशों के बाद डाक्टरों ने उन्हें स्वर्गवासी घोषित कर दिया।
‘नादान’ जी की चेतना लौटी तो देखा सामने एक छोटे से सिंहासन पर एक सयाने सज्जन बैठे हैं और उनके आजू-बाजू चार छः लोग अदब से खड़े हैं। पता चला सिंहासन पर बैठे सज्जन चित्रगुप्त थे।
चित्रगुप्त जी थोड़ी देर तक अपने बही खाते के पन्ने पलट कर बोले, ‘आपके नाम का पन्ना मिल गया है। अभी आप एक-दो दिन विश्राम करेंगे। तब तक हम आपकी जिन्दगी का जमाखर्च देख लेंगे। उसी हिसाब से आपके भविष्य का फैसला होगा।’
‘नादान’ जी दुख और गुस्से से भरे बैठे थे। क्रोध में बोले, ‘वह सब ठीक है। हमें पता है कि एक दिन सबको यहाँ आना है, लेकिन यह क्या बात हुई कि आपने सम्मान से पहले यहाँ उठा लिया? क्या आपके दूत सम्मान का कार्यक्रम खत्म होने तक रुक नहीं सकते थे? आपको शायद पता नहीं कि पृथ्वी पर लेखक को सम्मान कितनी मुश्किल से मिलता है, कितने तार जोड़ने पड़ते हैं।’
चित्रगुप्त जी नरम स्वर में बोले, ‘वह सब माया है। यहाँ आने का समय सबके लिए नियत है। उसमें फेरबदल नहीं हो सकता।’
‘नादान’ जी ने तुर्की-ब-तुर्की जवाब दिया, ‘सब कहने की बातें हैं। आपके यहाँ रसूखदार लोगों के लिए सब एडजस्टमेंट हो जाते हैं। मनचाहा एक्सटेंशन भी मिल जाता है। सिर्फ हमीं जैसे लोगों के लिए ‘राई घटै, ना तिल बढ़ै’ की बात की जाती है।’
चित्रगुप्त जी ने अपनी पोथी से सिर उठाकर पूछा, ‘कौन सा पक्षपात किया हमने?’
‘नादान’ जी बोले, ‘एक हो तो बताऊँ। भीष्म पितामह को इच्छा-मृत्यु का वरदान कैसे मिला? उन्होंने अपने पिता का विवाह सत्यवती से कराने के लिए आजीवन अविवाहित रहने का प्रण लिया ताकि सत्यवती की सन्तान ही उनके पिता के बाद सिंहासन पर बैठे। इसी से प्रसन्न होकर राजा ने भीष्म को इच्छा-मृत्यु का वरदान दिया और भीष्म ने 58 दिन तक शर-शैया पर लेटे रहने के बाद शरीर छोड़ा। क्या यह आपकी सहमति के बिना हो सकता था?
‘दूसरा केस राजा ययाति का है। यमराज कई बार उनके प्राण लेने के लिए पहुँचे और उन्होंने कई बार उनकी खुशामद करके मृत्यु टाल दी। उन्होंने अपने पुत्र की जवानी माँग ली और फिर हजारों साल तक सांसारिक सुखों को भोगा। यह सब क्या आपकी सहमति के बिना संभव था?’
चित्रगुप्त असमंजस में अपना सिर खुजाने लगे। फिर बोले, ‘अब ये सब बातें मत उठाओ। तुम्हारा शरीर तो जल गया, इसलिए तुम्हें उस शरीर में वापस नहीं भेज सकते। अब क्या चाहते हो?’
‘नादान’ जी बोले, ‘अब यह नीति बनाइए कि किसी लेखक को सम्मान के बीच में नहीं उठाया जाएगा। आपके दूतों को हिदायत दी जाए कि जब सम्मानित अपने घर पहुँच कर परिवार और इष्ट-मित्रों को सम्मान-पत्र दिखाकर खुश और गर्वित कर दे उसके बाद ही आपकी कार्यवाही हो।’
चित्रगुप्त जी बोले, ‘ठीक है, मैं ऊपर बात करूँगा, लेकिन ये पुरानी बातें उठाना बन्द करो।’
दो दिन बाद मुनादी हो गयी कि मर्त्यलोक में किसी भी लेखक को सम्मान के कार्यक्रम के बीच में नहीं उठाया जाएगा।
यह सूचना पृथ्वी पर पहुँचने पर समस्त लेखक समुदाय हर्षित हुआ। यह इत्मीनान हुआ कि लेखक के सम्मान के दौरान दैवी शक्तियों के द्वारा कोई विघ्न-बाधा उपस्थित नहीं की जाएगी। किसी सम्मानित का ऊपर से बुलावा आएगा तो यमदूत सम्मान-कार्यक्रम खत्म होने तक कहीं बैठकर इन्तज़ार कर लेंगे।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक समसामयिक विषय पर आधारित त्वरित व्यंग्य – करवट बदल राजनीति।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 257 ☆
त्वरित व्यंग्य – करवट बदल राजनीति
(रचना में उल्लेखित विचार व्यंग्यकर के व्यक्तिगत विचार हैं।)
पलट पलट कर पलटूराम जो कुछ भी करते हैं जनता के लिये करते हैं। सोते जनता के हित के लिये हैं, जागते जनता के भले के लिये हैं। करवट भी जनता के हितार्थ ही बदलते हैं। एक करवट लेते हैं तो लालटेन की रोशनी में लालू दिखते हैं। उन्हें सुनाई देता है, “जब तक रहेगा समोसे में आलू तब तक रहेगा बिहार में लालू”। कोई उनके कान में कहता है, अरे ये तो चारा खाते हैं। वे उसे समझाते हुये कहते हैं ये बोलो कि, “चारा तक खाते हैं, हवालात जाने को तैयार रहते हैं, पक्के समाजवादी जो हैं “। वे गठबंधन कर डालते हैं। जनता यह सोचकर खुशियां मनाती है कि अब दो धुर्र समाजवादी जुड़े हैं अब समाजवाद आयेगा।
वे जगती आंखों सपना देखते हैं। उन्हें लगता है बिस्तर कुछ छोटा है, गद्दा आरामदेह नहीं है। मखमली गद्दे, गुदगुदी रजाई में बिना चूं चर्र किये बड़े पलंग पर बिना करवट बदले चैन की नींद लेने का ख्वाब हकीकत में बदलने के लिये जनता को जगाना होगा। समझ आता है यह अकेले तो न हो पायेगा। वे अपनी कुर्सी पर बैठे बैठे ही अगली बड़ी कुर्सी की लड़ाई लड़ने के लिये अपने जैसे कई छोटे छोटे जनता के सेवको को जोड़ने के लिये बुलौआ करते हैं। सबको बात जंचती है। गठबंधन हो भी जाता है। पर गठबंधन में सभी खुद को बाकी से बड़ा समझते हैं। कोई इनकी अगुवाई मानने को तैयार नहीं होता इसलिये यह सारी मशक्कत बेअसर रह जाती है।
इससे पहले कि जनता के भले का कुछ हो पाता उन्हें भान होता है कि लालू तो अपने बेटे को ओढ़ाने के लिये उनकी ही रजाई खींच रहा है। वे चेत जाते हैं। करवट बदलते हैं। वे पक्के समाजवादी हैं, उन्हें बंद दरवाजे खोलने की कला आती है। उन्हें जनता की सेवा से मतलब है, किसके साथ रहकर यह हो सकता है यह उनके लिये गौंण है। आलाकमान, विधायक दल, कोर कमेटी, आत्मा की आवाज, आम आदमी की आकांक्षा वगैरह वगैरह उनके निर्णय को अमली जामा पहनाने के शगल बन जाते हैं। लिए कचौड़ी का नया आफर लिये वे मजे से आलू वाला समोसा प्लेट से अलग कर देते हैं। रबड़ी जलेबी का मजा मार के पलट गये पलटूराम के ताने सहते, मुख्यमंत्री रहते हुये मुख्यमंत्री बनने के लिये, मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देकर उसी दिन फिर मुख्यमंत्री बन जाते हैं। जनता अलट पलट की खुशियों में खो जाती है।
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक रोचक एवं अतिसुन्दर व्यंग्य – “तौलिया सम्मान”।)
☆ व्यंग्य – “तौलिया सम्मान” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
वे सम्मान के भूखे थे, पेट भर सम्मान होता तब भी पेट भूख लगी …भूख लगी चिल्लाता रहता। शाल श्रीफल से घर भर जाता तो घरवाली सम्मान करने वालों को गाली बकती कहती – कैसे हैं ये सम्मान करने वाली संस्थाएं…. इनको शाल और श्रीफल के अलावा कुछ नहीं मिलता। एक दिन पति पत्नी में शाल के लगे ढेर पर झगड़ा हो गया, पत्नी गुस्से से लाल होकर बोली – सम्मान में शाल श्रीफल के साथ लिफाफा भी मिलता होगा, तो लिफाफा जाता कहां है? ध्यान रखना अगली बार से लिफाफा नहीं दिया तो सबके सामने ऐसा अपमान करूंगी कि सब सम्मान भूल जाओगे। पत्नी की डांट खाकर जब वो अगला सम्मान लेने पहुंचे तो डरे डरे से थे डर लग रहा था कि सम्मान मिलते समय पत्नी सार्वजनिक अपमान न कर दे, ले देकर जल्दबाजी में उन्होंने सम्मान कराया और जब माइक से बोलने की बारी आई तो कहने लगे दुनिया बहुत बदल गई है इसलिए अब सम्मान के तौर-तरीकों में भी बदलाव किया जाना चाहिए, हर बार शाल श्रीफल के सम्मान से अब जी भर गया है शाल श्रीफल के ढेर से घर भर गया है। अधिकतर पत्नियां चिड़चिड़ाने लगीं हैं, डांटती हैं, दुकान वाले दो सौ रुपए की शाल पचास रुपए में वापस लेते हैं, श्रीफल खरीदने वाले एक श्रीफल का अठन्नी देते हैं वैसे भी शाल का कोई व्यवहारिक उपयोग नहीं है, जिस शाल से सम्मान होता है उसी शाल को दुकान वाले को बेचने जाओ तो वे अपमान भी करते हैं और दो सौ रुपए की शाल के सिर्फ पचास रुपए देते हैं, इसलिए जरूरी है कि अब शाल बेचने वालों का धंधा मंदा किया जाना चाहिए और हर साहित्यकार का सम्मान कंधे में तौलिया डालकर किया जाना चाहिए, तौलिया हर किसी के काम की चीज है, अच्छी नरम तौलिया पत्नियां भी पसंद करतीं हैं, तौलिया बहुउपयोगी होता है, हमाम में जब सब नंगे हो जाते हैं तो तौलिया ही एक सहारा होती है, गुसलखाने में नहाने के बाद नरम तौलिया से शरीर पोंछने का अलग सुख होता है, जब आप घर में पट्टे की चड्डी पहने हों और अचानक दूध वाला घंटी बजा दे तो इज्जत बचाने के लिए आपको तौलिया लपेट कर ही बाहर से दूध लेना पड़ता है। तौलिया में गुण बहुत हैं सदा राखिए संग…
नई नई शादी में तो तौलिया बहुत काम आता है, कई लोग तौलिया लेकर सोते हैं। यदि तौलिए से सम्मान होने लगे तो संस्थाओं को भी सुविधा होने लगेगी, तौलिया आसानी से कहीं भी मिल जाता है, आपकी पत्नी ने कितना भी लड़ाई झगड़ा किया हो और बाथरूम में आप बिना तौलिया के चले गए हों तो आपके चिल्लाने पर पत्नी ही तौलिया लाकर देती है भले तौलिया लेते समय अधखुले दरवाजे से आपका खुला शरीर उसे दिख जाए तो उसे भी वह सहन कर लेती है। खास बात ये भी है कि तौलिया हर दिन हर वक्त काम आता है जबकि शाल तो सिर्फ ठंड के समय काम आती है और यदि ठंड नहीं पड़ी तो सम्मान वाली शाल कोई काम की नहीं, इसीलिए किसी ने कहा है….
दिल के आंगन में
कहीं धूप नहीं,
फ्रिक्र आईना ही सही
लेकिन आईने पे है
याद की गर्द …
अब क्या करिएगा, आईने की गर्द को तो तौलिया ही साफ करेगा न….शाल से तो आप गर्द साफ नहीं कर पाएंगे, और जब…
‘रोएंगे हम हजार बार,
कोई हमें रुलाए क्यों….’
तब भी आंसू पोंछने के लिए तौलिया ही साथ देगा, उस समय शाल से थोड़ी न आंसू पोंछ पाएंगे….तो सम्मान करने वालो शाल का मोह अब छोड़ो, अब तौलिया ओढ़ा कर सम्मान करने की आदत डालो, तौलिया सस्ता भी पड़ेगा और बाथरूम में तौलिया से पोंछने वाला रोज आपको याद करके एहसान भी मानेगा।
(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी के स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल में आज प्रस्तुत है उनका एक विचारणीय व्यंग्य “नेपो किड्स के दौर में…”।)
☆ शेष कुशल # 37 ☆
☆ व्यंग्य – “नेपो किड्स के दौर में…”– शांतिलाल जैन ☆
‘आप राहा को जानते हैं शांतिबाबू ?’ दादू के पूछने पर मैंने ‘नहीं’ में उत्तर दिया. दादू सिरे से उखड़ गया. बोला – कमाल करते हैं आप!!. या तो आप पढ़े-लिखे नहीं हैं और हैं भी तो आपका जीके वेरी पुअर है. आलिया और रणबीर की डॉटर को नहीं जानते! पता नहीं किस दुनिया में रहते हैं आप, अलिया के पेट में थी मिडिया तब से कवर कर रहा है. सच में कमाल है!!’
‘नहीं नहीं दादू, ध्यान आ गया. आप राहा कपूर की बात कर रहे हो. नॅशनल न्यूज पेपर में छपी थी उसकी फोटो, आधे पेज पर. पास में नीचे दस प्रतिशत खाद्य महंगाई की छोटी सी खबर पढ़ने के बाद इस खबर पर मेरा ध्यान वैसा नहीं गया.’
‘शांतिबाबू हर समय महँगाई को मत रोया कीजिए’ – दादू ने कहा – ‘क्या पोज़ मारा एक साल की क्यूट बेबी ने! खबरों में हॉट. कहाँ स्पॉट हुई ? हुडी पहनी थी कि डंग्रीज़ ? रणबीर ने शोल्डर पर बैठा रखा था कि बगल में ? सेलेब्रिटी मदर कहाँ स्पॉट हुई ? रात में डायपर आलिया बदलती है कि रणबीर ? एक बार बदला था रणबीर ने मगर साबुन से हाथ नहीं धोए तब से आलिया ही करती है यह सब. आलिया ने इंटरव्यू में बताया. पूरे तीस जोड़ स्नीकर्स खरीदे हैं रणबीर ने उसके लिए, बताईए मिडिया आपको इतनी महत्वपूर्ण जानकारी दे रहा है और आप हैं कि बार बार इन्फ्लेशन का स्यापा लेकर बैठ जाते हो.’
‘दादू, इस समय देश की एक और बड़ी समस्या बेरोज़गारी है’ – मैंने कहा.
वे बोले – ‘माय डियर फ्रेंड, अनएम्पलॉयमेंट बड़ी समस्या होती तो देश में राहा की गोल गोल बड़ी बड़ी आँखें ट्रेंड नहीं कर रही होती. जेन-झेड से लेकर मार्निंग वॉकर अंकिलों तक में डिस्कशन चल रहा है. कैसी दिखती है राहा ? न तो रणबीर जैसी दिखती हैं और न आलिया जैसी. उसमें कपूर खानदान के जीन्स हैं मगर राज कपूर जैसी दिखती नहीं है. अलबत्ता करीना कपूर खान जैसी दिखती है.’
‘दादू, बिलकिस बानो की उस तीन साल की लड़की की बात करें, जिसे उसकी माँ के सामने ही पटक पटक के मार डाला था ?’ – मैंने पूछा.
‘भोत सिड़ी आदमी हो यार आप, छांट के मूड खराब करनेवाली खबर लाते हो. हॉलीडेज के बाद एयरपोर्ट पे पिंक हुडीज में स्पॉट हुई है क्यूटी और तुम बिलकिस रोना लेकर बैठ गए हो. बात राहा की चल रही है. सो क्यूट बेबी!! उसकी खूबसूरत नीली आँखें अगर मिलती हैं तो बस करिश्मा कपूर से. नाक, कान, होंठ और गोल-मटोल गाल आलिया की बचपन की तस्वीरों से मिलते-जुलते हैं. फैन्स खुश हैं, पूरे एक साल बाद जो स्पॉट हुई है.’
जब मैंने दादू से मणिपुर का जिक्र करना चाहा तो वो मुझे पेज-थ्री पर लगी तैमूर, वियान और वमिका की तस्वीरें दिखाने लगा जो अब नेपो किड्स बनने की राह पर अग्रसर हैं. कन्फ्यूज हो जाते हैं आप ज्यादा पॉपुलर विराट है कि वमिका. डैड से अधिक वायरल डॉटर की फोटूएँ. वो क्रिकेटर बनेगी या हिरोईन इस पर जितनी प्लानिंग अनुष्का ने नहीं की होगी उससे ज्यादा चैट तो इंस्टाग्राम पर हो ली है.
बहरहाल, दादू मेरे हर जिक्र से खिन्न था, बोला – ‘वे लोग एक नंबर के झक्की होते हैं जो इस दौर में ज्वलंत मुद्दों पर बात करने के नाम पर निगेटिविटी फ़ैलाने की कोशिश करते हैं. मिडियावाले बेचारे जमीन और जनता से जुड़ी कितनी खबरें छोटी से छोटी करके भी स्टार किड्स के बड़े से बड़े फोटू, उनके पेरेंट्स के इंटरव्यू छापते हैं. आप जैसे लोग हैं कि ठीक से पढ़ते भी नहीं. ये सेलेब्रिटी किड्स से नेपो किड्स की ओर चलने का का दौर है शांतिबाबू, जिंदगी को एन्जॉय करना सीखिए.’
जब गाँव में पानी की समस्या से लेकर यमन में हो रहे प्रदर्शनों तक हर आक्रोश को शांत करने का नायाब नुस्खा सेलेब किड्स के कवरेज़ में छुपा हो तब अपन की तो हिम्मत ही नहीं होती है कि हसदेव के जंगलों में दो लाख पेड़ काटे जाने का जिक्र भी किया जाए. बहरहाल, आप स्टार किड्स को देखते रहिए, रील्स बनाईये, इन्स्टाग्राम पर अपलोड करते रहिए और जिंदगी की दुश्वारियों को भूल जाईए, हमारे दादू की तरह.