हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 203 ☆ हरिशंकर परसाई जन्मशती विशेष – गर्दिश के दिन  – हरिशंकर परसाई☆ प्रस्तुति – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है हरिशंकर परसाई जन्मशती के अवसर पर उनका सुप्रसिद्ध व्यंग्य – गर्दिश के दिन )

☆ हरिशंकर परसाई जन्मशती विशेष – गर्दिश के दिन  – हरिशंकर परसाई ☆ प्रस्तुति – श्री जय प्रकाश पाण्डेय  

लिखने बैठ गया हूँ पर नहीं जानता संपादक की मंशा क्या है और पाठक क्या चाहते हैं, क्यों आखिर वे उन गर्दिश के दिनों में झांकना चाहते हैं, जो लेखक के अपने हैं और जिन पर वह शायद परदा डाल चुका है। अपने गर्दिश के दिनों को, जो मेरे नामधारी एक आदमी के थे, मैं किस हैसियत से फिर से जीऊँ?-उस आदमी की हैसियत से या लेखक की हैसियत से ? लेखक की हैसियत से गर्दिश को फिर से जी लेने और अभिव्यक्ति कर देने में मनुष्य और लेखक, दोनों की मुक्ति है। इसमें मैं कोई ‘भोक्ता’ और ‘सर्जक’ की नि:संगता की बात नहीं दुहरा रहा हूँ। पर गर्दिश को फिर याद करने, उसे जीने में दारुण कष्ट है। समय के सींगों को मैंने मोड़ दिया। अब फिर उन सींगों को सीधा करके कहूँ -आ बैल मुझे मार!

गर्दिश कभी थी, अब नहीं है, आगे नहीं होगी-यह गलत है। गर्दिश का सिलसिला बदस्तूर है, मैं निहायत बेचैन मन का संवेदनशील आदमी हूँ। मुझे चैन कभी मिल ही नहीं सकता, इस लिये गर्दिश नियति है।

हाँ, यादें बहुत हैं। पाठक को शायद इसमें दिलचस्पी हो कि यह जो हरिशंकर परसाई नाम का आदमी है, जो हँसता है, जिसमें मस्ती है, जो ऐसा तीखा है, कटु है-इसकी अपनी जिंदगी कैसी रही? यह कब गिरा, फिर कब उठा ?कैसे टूटा? यह निहायत कटु, निर्मम और धोबी पछाड़ आदमी है।

संयोग कि बचपन की सबसे तीखी याद ‘प्लेग’ की है। १९३६ या ३७ होगा। मैं शायद आठवीं का छात्र था। कस्बे में प्लेग पड़ी थी। आबादी घर छोड़ जंगल में टपरे बनाकर रहने चली गयी थी। हम नहीं गये थे। माँ सख्त बीमार थीं। उन्हें लेकर जंगल नहीं जाया जा सकता था। भाँय-भाँय करते पूरे आस-पास में हमारे घर में ही चहल-पहल थी। काली रातें। इनमें हमारे घर जलने वाले कंदील। मुझे इन कंदीलों से डर लगता था। कुत्ते तक बस्ती छोड़ गये थे, रात के सन्नाटे में हमारी आवाजें हमें ही डरावनी लगतीं थीं। रात को मरणासन्न माँ के सामने हम लोग आरती गाते- 

ओम जय जगदीश हरे,

भक्त जनों के संकट पल में दूर करें।

गाते-गाते पिताजी सिसकने लगते, माँ बिलखकर हम बच्चों को हृदय से चिपटा लेतीं और हम भी रोने लगते। रोज का यह नियम था। फिर रात को पिताजी, चाचा और दो -एक रिश्तेदार लाठी-बल्लम लेकर घर के चारों तरफ घूम-घूमकर पहरा देते। ऐसे भयानक और त्रासदायक वातावरण में एक रात तीसरे पहर माँ की मृत्यु हो गयी। कोलाहल और विलाप शुरू हो गया। कुछ कुत्ते भी सिमटकर आ गये और योग देने लगे।

पाँच भाई-बहनों में माँ की मृत्यु का अर्थ मैं ही समझता था-सबसे बड़ा था।

प्लेग की वे रातें मेरे मन में गहरे उतरी हैं। जिस आतंक, अनिश्चय, निराशा और भय के बीच हम जी रहे थे, उसके सही अंकन के लिये बहुत पन्ने चाहिये। यह भी कि पिता के सिवा हम कोई टूटे नहीं थे। वह टूट गये थे। वह इसके बाद भी ५-६ साल जिये, लेकिन लगातार बीमार, हताश, निष्क्रिय और अपने से ही डरते हुये। धंधा ठप्प। जमा-पूँजी खाने लगे। मेरे मैट्रिक पास होने की राह देखी जाने लगी। समझने लगा था कि पिताजी भी अब जाते ही हैं। बीमारी की हालत में उन्होंने एक भाई की शादी कर ही दी थी-बहुत मनहूस उत्सव था वह। मैं बराबर समझ रहा था कि मेरा बोझ कम किया जा रहा है। पर अभी दो छोटी बहनें और एक भाई थे।

मैं तैयार होने लगा । खूब पढ़ने वाला, खूब खेलने वाला और खूब खाने वाला मैं शुरू से था। पढ़ने और खेलने में मैं सब कुछ भूल जाता था। मैट्रिक हुआ, जंगल विभाग में नौकरी मिली। जंगल में सरकारी टपरे में रहता। ईंटे रखकर, उन पर पटिया जमाकर बिस्तर लगाता, नीचे जमीन चूहों ने पोली कर दी थी। रात भर नीचे चूहे धमाचौकड़ी करते रहते और मैं सोता रहता। कभी चूहे ऊपर आ जाते तो नींद टूट जाती पर मैं फिर सो जाता। छह महीने धमाचौकड़ी करते चूहों पर मैं सोया।

बेचारा परसाई?

नहीं, नहीं, मैं खूब मस्त था। दिन-भर काम। शाम को जंगल में घुमाई। फिर हाथ से बनाकर खाया गया भरपेट भोजन शुद्ध घी और दूध!

पर चूहों ने बड़ा उपकार किया। ऐसी आदत डाली कि आगे की जिन्दगी में भी तरह-तरह के चूहों मेरे नीचे ऊधम करते रहे, साँप तक सर्राते रहे, मगर मैं पटिये बिछा कर पटिये पर सोता रहा हूँ। चूहों ने ही नहीं मनुष्यनुमा बिच्छुओं और सापों ने भी मुझे बहुत काटा- पर ‘जहरमोहरा’मुझे शुरू में ही मिल गया। इसलिये ‘बेचारा परसाई’ का मौका ही नहीं आने दिया। उसी उम्र से दिखाऊ सहानुभूति से मुझे बेहद नफरत है। अभी भी दिखाऊ सहाननुभूति वाले को चाँटा मार देने की इच्छा होती है। जब्त कर जाता हूँ, वरना कई शुभचिन्तक पिट जाते।

फिर स्कूल मास्टरी। फिर टीचर्स ट्रनिंग और नौकरी की तलाश -उधर पिताजी मृत्यु के नजदीक। भाई पढ़ाई रोककर उनकी सेवा में। बहनें बड़ी बहन के साथ, हम शिक्षण की शिक्षा ले रहे थे।

फिर नौकरी की तलाश। एक विद्या मुझे और आ गयी थी-बिना टिकट सफर करना। जबलपुर से इटारसी, टिमरनी, खंडवा, देवास बार-बार चक्कर लगाने पड़ते। पैसे थे नहीं। मैं बिना टिकट बेखटके गाड़ी में बैठ जाता। तरकीबें बचने की बहुत आ गयीं थीं। पकड़ा जाता तो अच्छी अंग्रेजी में अपनी मुसीबत का बखान करता। अंग्रेजी के माध्यम से मुसीबत बाबुओं को प्रभावित कर देती और वे कहते-लेट्‌स हेल्प दि पुअर ब्वाय।

दूसरी विद्या सीखी उधार माँगने की। मैं बिल्कुल नि:संकोच भाव से किसी से भी उधार मांग लेता। अभी भी इस विद्या में सिद्ध हूँ।

तीसरी चीज सीखी -बेफिक्री। जो होना होगा, होगा, क्या होगा? ठीक ही होगा। मेरी एक बुआ थी। गरीब, जिंदगी गर्दिश -भरी, मगर अपार जीव शक्ति थी उसमें। खाना बनने लगता तो उनकी बहू कहती-बाई, न दाल ही है न तरकारी। बुआ कहती-चल चिंता नहीं। राह-मोहल्ले में निकलती और जहाँ उसे छप्पर पर सब्जी दिख जाती, वहीं अपनी हमउम्र मालकिन से कहती- ए कौशल्या, तेरी तोरई अच्छी आ गयी है। जरा दो मुझे तोड़ के दे। और खुद तोड़ लेती। बहू से कहती-ले बना डाल, जरा पानी जादा डाल देना। मैं यहाँ-वहाँ से मारा हुआ उसके पास जाता तो वह कहती-चल, चिंता नहीं, कुछ खा ले।

उसका यह वाक्य मेरा आदर्श वाक्य बना-कोई चिन्ता नहीं। गर्दिश, फिर गर्दिश!

होशंगाबाद शिक्षा अधिकारी से नौकरी माँगने गये। निराश हुये। स्टेशन पर इटारसी के लिये गाड़ी पकड़ने के लिये बैठा था, पास में एक रुपया था, जो कहीं गिर गया था। इटारसी तो बिना टिकट चला जाता। पर खाऊँ क्या? दूसरे महायुद्ध का जमाना। गाड़ियाँ बहुत लेट होतीं थीं। पेट खाली। पानी से बार-बार भरता। आखिर बेंच पर लेट गया।चौदह घंटे हो गये । एक किसान परिवार पास आकर बैठ गया। टोकरे में अपने खेत के खरबूजे थे। मैं उस वक्त चोरी भी कर सकता था। किसान खरबूजा काटने लगे। मैंने कहा- तुम्हारे ही खेत के होंगे। बडे़ अच्छे हैं। किसान ने कहा- सब नर्मदा मैया की किरपा है भैया! शक्कर की तरह हैं। लो खाके देखो। उसने दो बड़ी फांके दीं। मैंने कम-से-कम छिलका छोड़कर खा लिया। पानी पिया। तभी गाड़ी आयी और हम खिड़की में घुस गये।

नौकरी मिली जबलपुर से सरकारी स्कूल में। किराये तक के पैसे नहीं। अध्यापक महोदय ने दरी में कपडे़ बाँधे और बिना टिकट चढ़ गये गाड़ी में। पास में कलेक्टर का खानसामा बैठा था। बातचीत चलने लगी। आदमी मुझे अच्छा लगा। जबलपुर आने लगा तो मैंने उसे अपनी समस्या बताई। उसने कहा -चिन्ता मत करो। सामान मुझे दो। मैं बाहर राह देखूँगा। तुम कहीं पानी पीने के बहाने सींखचों के पास पहुँच जाना। नल सींखचों के पास ही है। वहाँ सींखचों को उखाड़कर निकलने की जगह बनी हुई है। खिसक लेना। मैंने वैसा ही किया। बाहर खानसामा मेरा सामान लिये खड़ा था। मैंने सामान लिया और चल दिया शहर की तरफ। कोई मिल ही जायेगा, जो कुछ दिन पनाह देगा, अनिश्चय में जी लेना मुझे तभी आ गया था।

पहले दिन जब बाकायदा ‘मास्साब’ बने तो बहुत अच्छा लगा। पहली तनख्वाह मिली ही थी कि पिताजी की मृत्यु की खबर आ गयी। माँ के बचे जेवर बेचकर पिता का श्राद्ध किया और अध्यापकी के भरोसे बड़ी जिम्मेदारियाँ लेकर जिंदगी के सफर पर निकल पड़े। 

उस अवस्था की इन गर्दिशों के जिक्र मैं आखिर क्यों इस विस्तार से कर गया? गर्दिशें बाद में भी आयीं, अब भी आतीं हैं, आगे भी आयेंगी, पर उस उम्र की गर्दिशों की अपनी अहमियत है। लेखक की मानसिकता और व्यक्तित्व निर्माण से इनका गहरा सम्बन्ध है।

मैंने कहा है- मैं बहुत भावुक, संवेदनशील और बेचैन तबीयत का आदमी हूँ। सामान्य स्वभाव का आदमी ठंडे-ठंडे जिम्मेदारियाँ भी निभा लेता, रोते-गाते दुनिया से तालमेल भी बिठा लेता और एक व्यक्तित्वहीन नौकरीपेशा आदमी की तरह जिंदगी साधारण सन्तोष से गुजार लेता।

मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ, जिम्मेदारियाँ, दुखों की वैसी पृष्ठभूमि और अब चारों तरफ से दुनिया के हमले -इस सब सबके बीच सबसे बड़ा सवाल था अपने व्यक्तित्व और चेतना की रक्षा । तब सोचा नहीं था कि लेखक बनूँगा। पर मैं अपने विशिष्ट व्यक्तित्व की रक्षा तब भी करना चाहता था।

जिम्मेदारी को गैर-जुम्मेदारी की तरह निभाओ।

मैंने तय किया-परसाई, डरो मत किसी से। डरे कि मरे। सीने को ऊपर-ऊपर कड़ा कर लो। भीतर तुम जो भी हो। जिम्मेदारी को गैर-जुम्मेदारी की तरह निभाओ। जिम्मेदारी को अगर जिम्मेदारी के साथ निभाओगे तो नष्ट हो जाओगे। और अपने से बाहर निकलकर सब में मिल जाने से व्यक्तित्व और विशिष्टता की हानि नहीं होती। लाभ ही होता है। अपने से बाहर निकलो। देखो, समझो और हँसो।

मैं डरा नहीं । बेईमानी करने में भी नहीं डरा। लोगों से नहीं डरा तो नौकरियाँ गयीं। लाभ गये, पद गये, इनाम गये। गैर-जिम्मदार इतना कि बहन की शादी करने जा रहा हूँ। रेल में जेब कट गयी, मगर अगले स्टेशन पर पूड़ी-साग खाकर मजे में बैठा हूँ कि चिन्ता नहीं। कुछ हो ही जायेगा। मेहनत और परेशानी जरूर पड़ी यों कि बेहद बिजली-पानी के बीच एक पुजारी के साथ बिजली की चमक से रास्ता खोजते हुये रात-भर में अपनी बड़ी बहन के गाँव पहुँचना और कुछ घंटे रहकर फिर वापसी यात्रा। फिर दौड़-धूप! मगर मदद आ गयी और शादी भी हो गयी।

इन्हीं परिस्थितियों के बीच मेरे भीतर लेखक कैसे जन्मा, यह सोचता हूँ। पहले अपने दु:खों के प्रति सम्मोहन था। अपने को दुखी मानकर और मनवाकर आदमी राहत पा लेता है। बहुत लोग अपने लिये बेचारा सुनकर सन्तोष का अनुभव करते हैं। मुझे भी पहले ऐसा लगा। पर मैंने देखा, इतने ज्यादा बेचारों में मैं क्या बेचारा! इतने विकट संघर्षों में मेरा क्या संघर्ष!

मेरा अनुमान है कि मैंने लेखन को दुनिया से लड़ने के लिये एक हथियार के रूप में अपनाया होगा। दूसरे, इसी में मैंने अपने व्यक्तित्व की रक्षा का रास्ता देखा। तीसरे, अपने को अवशिष्ट होने से बचाने के लिये मैंने लिखना शुरू कर दिया। यह तब की बात है, मेरा ख्याल है, तब ऐसी ही बात होगी।

पर जल्दी ही मैं व्यक्तिगत दु:ख के इस सम्मोहन-जाल से निकल गया। मैंने अपने को विस्तार दे दिया।दु:खी और भी हैं। अन्याय पीड़ित और भी हैं। अनगिनत शोषित हैं। मैं उनमें से एक हूँ। पर मेरे हाथ में कलम है और मैं चेतना सम्पन्न हूँ। 

यहीं कहीं व्यंग्य – लेखक का जन्म हुआ । मैंने सोचा होगा- रोना नहीं है, लड़ना है। जो हथियार हाथ में है, उसी से लड़ना है। मैंने तब ढंग से इतिहास, समाज, राजनीति और संस्कृति का अध्ययन शुरू किया। साथ ही एक औघड़ व्यक्तित्व बनाया। और बहुत गम्भीरता से व्यंग्य लिखना शुरू कर दिया।

मुक्ति अकेले की नहीं होती। अलग से अपना भला नहीं हो सकता। मनुष्य की छटपटाहट मुक्ति के लिये, सुख के लिये, न्याय के लिये।पर यह बड़ी अकेले नहीं लड़ी जा सकती। अकेले वही सुखी हैं, जिन्हें कोई लड़ाई नहीं लड़नी। उनकी बात अलग है। अनगिनत लोगों को सुखी देखता हूँ और अचरज करता हूँ कि ये सुखी कैसे हैं! न उनके मन में सवाल उठते हैं न शंका उठती है। ये जब-तब सिर्फ शिकायत कर लेते हैं। शिकायत भी सुख देती है। और वे ज्यादा सुखी हो जाते हैं।

कबीर ने कहा है-

सुखिया सब संसार है, खावै अरु सोवे।

दुखिया दास कबीर है, जागे अरु रोवे।

जागने वाले का रोना कभी खत्म नहीं । व्यंग्य-लेखक की गर्दिश भी खत्म नहीं होगी।

ताजा गर्दिश यह है कि पिछले दिनों राजनीतिक पद के लिये पापड़ बेलते रहे। कहीं से उम्मीद दिला दी गई कि राज्यसभा में हो जायेगा। एक महीना बड़ी गर्दिश में बीता। घुसपैठ की आदत नहीं है, चिट भीतर भेजकर बाहर बैठे रहने में हर क्षण मृत्यु-पीडा़ होती है। बहादुर लोग तो महीनों चिट भेजकर बाहर बैठे रहते हैं, मगर मरते नहीं। अपने से नहीं बनता। पिछले कुछ महीने ऐसी गर्दिश के थे। कोई लाभ खुद चलकर दरवाजे पर नहीं आता। चिरौरी करनी पड़ती है। लाभ थूकता है तो उसे हथेली पर लेना पड़ता है, इस कोशिश में बड़ी तकलीफ हुई। बड़ी गर्दिश भोगी।

मेरे जैसे लेखक की एक गर्दिश और है। भीतर जितना बवंडर महसूस कर रहे हैं, उतना शब्दों में नहीं आ रहा है, तो दिन-रात बेचैन हैं। यह बड़ी गर्दिश का वक्त होता है, जिसे सर्जक ही समझ सकता है।

यों गर्दिशों की एक याद है। पर सही बात यह है कि कोई दिन गर्दिश से खाली नहीं है। और न कभी गर्दिश का अन्त होना है। यह और बात है कि शोभा के लिये कुछ अच्छे किस्म की गर्दिशें चुन लीं जाएं। उनका मेकअप कर दिया जाये, उन्हें अदायें सिखा दी जायें- थोडी़ चुलबुली गर्दिश हो तो और अच्छा-और पाठक से कहा जाए-ले भाई, देख मेरी गर्दिश!

प्रस्तुति – जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #206 ☆ व्यंग्य – बंडू के शुभचिन्तक ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक सार्थक व्यंग्य बंडू के शुभचिन्तक। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 206 ☆
☆ व्यंग्य – बंडू के शुभचिन्तक

बंडू ने बड़े उसूलों के साथ शादी की— कोई लेन-देन नहीं, कोई तड़क-भड़क, कोई दिखावा नहीं। सादगी से शादी कर ली। दोस्तों, परिचितों को आमंत्रित करके मिठाई खिला दी, चाय पिला दी। बस।

बंडू ने कुछ और भी क्रांतिकारिता की। शादी के बाद यह व्रत लिया कि कम से कम तीन साल तक देश की जनसंख्या में कोई योगदान नहीं देना है। पत्नी गुणवंती को उसके माँ-बाप ने आशीर्वाद दिया था—‘दूधों नहाओ,पूतों फलो।’ दूधों नहाना तो अच्छे अच्छों के बस का नहीं रहा, पूतों फलने में कोई हर्रा-फिटकरी नहीं लगता। आशीर्वाद का यह हिस्सा आसानी से फलीभूत हो सकता था। लेकिन बंडू ने उस पर भी पानी फेर दिया। गुणवंती भी मन मारकर रह गयी। सोचा, अभी मान लो, फिर धीरे-धीरे पतिदेव को समझाएंगे।

लेकिन पड़ोसी, रिश्तेदार नहीं माने। इस देश में साल भर में बच्चा न हो तो अड़ोसी-पड़ोसी पूछने लगते हैं—‘ कहो भई, क्या देर है? कब मिठाई खिलाने वाले हो?’ बच्चा न होने की चिन्ता पति-पत्नी को कम, पड़ोसियों को ज़्यादा होने लगती है।

बंडू का एक साल खूब आनन्द और मस्ती से गुज़रा। मर्जी से घूमे, मर्जी से खाया, मर्जी से सोये, मर्जी से उठे। कोई चें पें नहीं। पति के प्रेम का हिस्सेदार कोई नहीं। बंडू का एकाधिकार।

लेकिन एक साल बाद परिचित और पड़ोसी अपनी शुभचिन्ता से उनके आनन्द में सुई टुच्चने लगे। कोई देवी बड़े गर्व से कहती, ‘भई, हमारे पेट में तो पहले ही साल में लट्टू आ गया था, दूसरे साल में नट्टू आया और तीसरे साल में टुन्नी आयी। फिर दो साल का गैप रहा। उसके बाद गट्टू और फिर चट्टू।’

अफसोस यही है कि ऐसी माताएँ भारत में जन्म लेती और देती हैं। रूस में होतीं तो राष्ट्रमाता के खिताब से विभूषित होतीं।

दूसरी महिलाएँ गुणवंती की सास को सुनाकर कहतीं, ‘भई, हमारी बहू भली निकली कि पहले साल में ही हमें नाती दे दिया। अब हम नाती खिलाने में मगन रहते हैं।’

जिन महिलाओं ने अपना सारा जीवन क्रिकेट या हॉकी की एक टीम को जन्म देने में गला दिया था और बच्चों को जन्म देते देते जिनका शरीर खाल और हड्डी भर रह गया था, वे भी गुणवंती के सामने श्रेष्ठता-बोध से भर जातीं।

दो साल होते न होते गुणवंती को देखकर महिलाओं में खुसुर-फुसुर होने लगी। वृद्ध महिलाएँ उसकी सास का दिमाग चाटती रहतीं— ‘क्या बात है? यह कैसी फेमिली प्लानिंग है? क्या बुढ़ापे में बच्चा पैदा करेंगे? बंडू की शादी करने से क्या फायदा जब अभी तक नाती का मुँह देखने को नहीं मिला।’

गुणवंती की सास परेशान। वह यह सब सुनकर दुखी और उम्मीद भरी निगाहों से बहू की तरफ देखती, जैसे कहती हो— ‘बहू, सन्तानवती बनो और मुझे इन शुभचिन्तकों से निजात दिलाओ।’

गुणवंती के आसपास हमेशा एक सवाल लटका रहता। महिलाएँ तरह-तरह की नज़रों से उसे देखतीं— कोई उपहास से, कोई सहानुभूति से, तो कोई दया से।

बीच में परेशान होकर गुणवंती बंडू से कहती, ‘अब यह व्रत बहुत कठिन हो रहा है। अब इन शुभचिन्तकों पर दया करो और अधिक नहीं तो एक सन्तान को धरती पर अवतरित होने की अनुमति दो।’

लेकिन बंडू एक नंबर का ज़िद्दी। लोग जितना टिप्पणी करते उतना ही वह अपनी ज़िद में और तनता जाता।

तीसरा साल पूरा होते-होते पड़ोस की वृद्धाएँ पैंतरा बदलने लगीं। अब वे सिर हिला हिला कर गुणवंती की सास से कहतीं, ‘बहू की डॉक्टरी जाँच कराओ। हमें तो कुछ दाल में काला नजर आता है।’

यह बातें सुनकर अब गुणवंती का जी भी घबराने लगा। वह बंडू से कहती, ‘देखो जी, ये लोग मेरे बारे में क्या-क्या कहती हैं। अब तो अपना व्रत छोड़ दो।’

लेकिन बंडू कहता, ‘मुझे दुनिया से कोई मतलब नहीं। हम इन सब को खुश करने के लिए अपनी योजना खत्म नहीं करेंगे।’

और कुछ वक्त गुज़रा तो और नये सुझाव आने लगे— ‘भई, हमारे खयाल से तो बहू बच्चा पैदा करने लायक नहीं है। जाँच वाँच करवा लो। जरूरत पड़े तो तलाक दिलवा कर बंडू की दूसरी शादी करवा दो। बिना सन्तान के मोक्ष कैसे मिलेगा?’ मसान जगाने और कनफटे नकफटे बाबा के पास जाने के सुझाव भी आये।

हमारे देश में अभी तक बच्चा न होने पर उसके लिए पत्नी को ही दोषी समझा जाता है। डॉक्टरी जाँच भी अक्सर पत्नी की ही होती है। पतिदेव की जाँच पड़ताल किये बिना ही उनकी दूसरी शादी की तैयारियाँ होने लगती हैं।

ये सब बातें सुनकर गुणवंती के प्राण चोटी तक चढ़ने लगे। वह पति की चिरौरी करती— ‘नाथ, मुझ दुखिया के जीवन का खयाल करके द्रवित हूजिए और एक सन्तान को आने की अनुमति प्रदान कीजिए।’

अब स्थितियाँ  बंडू के लिए भी असह्य होने लगी थीं। उसकी माँ बेचारी दो पाटों के बीच फँसी थी— इधर बेटा बहू, उधर शुभचिन्तकों की फौज।

अन्ततः एक दिन गुणवंती ने वे लक्षण प्रकट कर दिए जो किसी स्त्री के गर्भवती होने का प्रमाण देते हैं। उसकी सास ने चैन की साँस ली। बात एक मुँह से दूसरे मुँह तक चलते हुए पूरे मुहल्ले में फैल गयी। गुणवंती के दुख में दुखी सब महिलाओं ने सिर हिलाकर संतोष प्रकट किया।

लेकिन दुख की बात यह हुई कि उनके मनोरंजन और उनकी दिलचस्पी का एक विषय खत्म हो गया। अब किसे सलाह दें और किसकी तरफ झाँकें? अब उनकी नज़रें किसी दूसरे बंडू और दूसरी गुणवंती की तलाश में इधर-उधर घूमने लगीं।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 163 ☆ जनु बरसा ऋतु प्रगट बुढ़ाई… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना जनु बरसा ऋतु प्रगट बुढ़ाई। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 163 ☆

☆ जनु बरसा ऋतु प्रगट बुढ़ाई… ☆

दोषारोपण करते हुए आगे बढ़ने की चाहत आपको बढ़ने नहीं दे रही है। पत्थरों को चीर कर नदियाँ राह बनाती हैं, यहाँ तक कि थोड़ी सी संधि में से बीज भी अंकुरित होकर कि वृक्ष का रूप धारण कर लेते हैं। जो लगातार कुछ सार्थक करेगा वो तो मंजिल तक पहुँचेगा। परन्तु क्या कारण है? कि कोई चलना चाहता है किंतु कागजों में, कल्पनाओं में या फिर मीडिया की पोस्ट में। जाहिर सी बात है जब कागज़ कोरा रहेगा तो परिणाम कोरे रहते हुए केवल हास्य प्रस्तुत करने के काम आएंगे। आश्चर्य की बात है कि आज के समय में जब हर व्यक्ति समय का सदुपयोग कर रहा है तो कुछ लोग कैसे हवाई घोड़े दौड़ा कर उसके पीछे – पीछे भागने की तस्वीरों को प्रायोजित ढंग से सजा रहे हैं।

खैर सावन के अंधे को हरियाली ही हरियाली दिखती है, कितनी बढ़िया कहावत है, इसका अर्थ तो अलग रूप में प्रयोग किया जाता है किन्तु इस दृश्य को देखकर मुझे यही अनायास याद आया कि ऐसा ही कुछ रहा होगा जब इस कहावत का पहली बार प्रयोग हुआ होगा।

क्या आप ने ऐसे प्राकृतिक स्थलों की सैर की है जो जन मानस की छेड़ – छाड़ से अभी अछूते हैं और हरियाली व सावन के सुखद मिलन को बयां करते हैं।

पोखर में भरा हुआ जल, आस – पास लगी हुई बड़ी- बड़ी घास, वृक्षों की झुकी हुई डालियाँ मानो जल को स्पर्श करने आतुर हो रहीं हैं।हरे रंग के कितने प्रकार हो सकतें हैं ये आपको ऐसे ही स्थानों में जाकर पता चलेगा, गहरा हरा, मूंगिया या काई हरा, तोता हरा, हल्का हरा व जो आपकी कल्पनाशक्ति महसूस कर सके वो सब दिखाई दे रहा है।यहाँ की ताज़गी, ठंडक व शुद्ध वायु तो आकर ही महसूस की जा सकती है।

मानसून के मौसम में ही खुद को ऊर्जा से भरपूर करें, आसपास की प्रकृति से जुड़ें, लोगों को जोड़ें व हरियाली बचाएँ।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 162 ☆ संगी साथी राह निहारे… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना संगी साथी राह निहारे। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 162 ☆

☆ संगी साथी राह निहारे… ☆

गुरु जी सत्संग के दौरान अपने शिष्यों से कह रहे थे, स्नेह की दौलत आपको कमानी पड़ती है, इस दौलत को पाने हेतु सच्चे हृदय से कार्य करें, मैं का परित्याग कर बसुधैव कुटुम्बकम के अनुयायी बनें।

धन की देवी लक्ष्मी की आराधना कर दौलतमंद बन सकते हैं, बल बुद्धि आप गौरी सुत की कृपा से पा सकते हैं, विद्या व सप्तसुरों का ज्ञान आप माँ शारदे की कृपा से पा सकते हैं किन्तु…स्नेह रूपी दौलत बिना परिश्रम व त्याग के नहीं मिलेगी। नश्वर जगत में सब कुछ यहीं रह जायेगा, जायेंगे तो केवल सत्कर्म, ऐसा प्रवचन करते हुए गुरुजी भाव विभोर हो भक्तों को देखने लगे।

एक शिष्य ने कहा कई बार अति स्नेह में हम दूसरा पक्ष नहीं सोचते। मैं तो आप लोगों की वजह से आश्वस्त रहता हूँ। क्लीन चिट दी थी आपके प्रमुख शिष्य ने अपने कार्यकाल की। बस बेलगाम का घोड़ा मन है जो भागता रहता है।

आर्थिक अभाव दिमाग़ घुमा देता है, सारे सच धरे के धरे रह जाते हैं एक भक्त सत्संग में बोल उठा।

किसे… नहीं …नहीं कहीं मेरी ओर इशारा तो नहीं एक शिष्य ने कहा।

मुझे एक सीध में सोचना आता है, गुरुदेव भक्तों व शिष्यों की ओर देखते हुए गम्भीर मुद्रा बना कर कहने लगे। जो दायित्व है उसे साम दाम दंड भेद कैसे भी पूरा करना मानव का उद्देश्य बनता जा रहा है। अब इसके लिए कोई भी कुर्बानी क्यों न देनी पड़े।

इतने दिनों में सभी एक दूसरे के स्वभाव से परिचित हो चुके हैं, सब सही है – प्रमुख शिष्य ने कहा।

अभी समय के अनुसार, रेस्ट लेना तो सही है पर पद त्याग नहीं, ये रिश्ते नाते यहीं धरे रह जाएँगे, पुण्य कर्मों के क्षेत्र में संगम जैसा जीवन हो, जो भी आये समाहित करते चलो, भगवान का अस्तित्व कायम कर देते हैं तो सारी दुनिया रिश्ते जोड़ने के लिए लालायित दिखेगी।

आज ही आदरणीय सोमेश जी के कितने रिश्तेदार दिखे सोशल मीडिया पर।

हम व्यवस्थित हो सकते हैं, यदि योजना अच्छे से बनाकर फिर उसे विभिन्न लोगो को सौंप कर लागू करें गुरुदेव ने कहा। मैं कई दफा हतोत्साहित हुआ इस साल, जब भक्त कम होने लगते हैं तो सारा ज्ञान धरा का धरा रह जाता है।

प्रिय शिष्य ने कहा क्योंकि समय के साथ -साथ हमें नीति व योजना निर्माण में व्यवस्था बनानी होगी। कीजिए कुछ, बड़ा हौच-पौच हो रहा है। विज्ञापन में पचासों हजार खर्च हुए थे, बंद होने की कगार पर है अपना धंधा। समाचार पत्र बंद हो गया।

एक चेली की ओर मुख़ातिब होते हुए गुरुदेव ने कहा आप के दर्शन तो अब होते ही नहीं किसी नए भगवान की तलाश में तो नहीं हैं।

जी…मैं अधिकतर समय पढ़ती रहती हूँ या तो फेसबुक पर अच्छी पोस्ट या पुस्तक।

आर्थिक उन्नति बहुत हो चुकी, अब दर्शन से जुड़ने की वज़ह, जीवन को अधिक से अधिक जानना व समझना।

दरबार की रोज हाजिरी लगाइए चारो धाम यहीं हैं, कोई प्रश्न नहीं जिसका उत्तर न मिले प्रिय शिष्य ने कहा।

यही तो घर में सुनने मिलता है दिनभर करती क्या हूँ ???? इसी प्रश्न का उत्तर खोजने में व्यस्त हूँ कि कुछ ऐसा करूँ जिससे देर से ही सही ये लगे कि मैंने समय बर्बाद नहीं किया।

मुझे ऐसा लगने लगा है कि ये पद बाद में विवादित हो सकता है इसलिए मुक्त होकर अपना एक आश्रम खोलना चाहती हूँ।

व्यंग्य के लिए विषय मिल गया जिस प्रश्न को लेकर आध्यात्म के रथ पर सवार हुई आज भी वही प्रश्न, वर्ष और जगह बदल रही है पर प्रश्न वही करती क्या हूँ ??

सही कहते हैं… हठहठहठह…ये तो मैंने भी पकड़ लिया।

वो ऐसा करने वाला काम गुरु सेवा ही है। अब क्या खोज़ रही हैं ? एक बात ध्यान रखनी है कि भगवानौ आकर प्रवचन देगें तो भी कोई नहीं सुनेगें।

प्रजातंत्र का समय है, जब तक आप दूसरों को रिकोग्नाइज नहीं करेंगी तब तक आपको कोई पूछने वाला नहीं। यहाँ बड़े-बड़े लोग घूम रहे हैं कि कोई तो ध्यान दे। लाखों रुपए की धार्मिक किताबें छपवाकर दीमको को खिलाने को मज़बूर हैं लोग। आप कितना भी अच्छा लिख लें या कितना भी अच्छा पढ़ लें। आप अन्यों को प्रोत्साहित करें तभी अन्य आपको पढ़ने सुनने को तैयार होंगे।

सही है गंभीर होते हुए सभी ने सिर हिलाया।

गुरु माँ आप अवश्य सफल होंगी। और इस प्रश्न का जवाब संपूर्ण विश्व को मिलेगा कि आप करती क्या हैं। एक भक्त ने दीदी माँ की ओर हाथ जोड़ कहा – फिर वही प्रश्न कौन हूँ मैं

शब्द मूर्छित हैं मौन हूँ मैं ?

आज के सत्संग से जीवन के विभिन्न पहलुओं को समझने का साक्षात्कार हुआ हहहहहहहह…।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

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हिंदी साहित्य – व्यंग्य ☆ “ड्रैक्यूला टमाटर…” ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

सुश्री इन्दिरा किसलय

व्यंग्य 🍅 “ड्रैक्यूला टमाटर…” 🍅 सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

बेटी ने पूछा–लाल मणि कहाँ छुपा रखे हैं माॅम ?

मैंने भी नहले पे दहला मारा–“तिजोरी में”

–हां अब तिजोरी के अलावा रखोगी भी कहाँ !

कभी कभी परिहास से अनछुआ सच झाँकने लगता है। लगता है ईश्वर ने टमाटर की तकदीर बड़ी फुर्सत में लिखी है। भूतकाल में प्याज ने मयूरासन डुला दिया था। पता नहीं टमाटर के मन में क्या खदबदा रहा है।

अखबार छाप रहे हैं-लाल सिलेंडर,लाल डायरी,लाल टमाटर और झंडी भी लाल लाल ! बात जंतर मंतर जैसी लगी।

ऐसे तो आदमी का लहू भी लाल है। पर वह तो बहुत सस्ता है। कोई कहीं भी बहा देता है।

लाल मणि कैसे और क्योंकर आसमान छूने लगे।

टमाटरों के सरदार ने अपना नाम घमंडीलाल रख लिया है। सुनते हैं।उसे z+ सुरक्षा मिली हुई है। है किसी की मजाल जो उसके आसपास भी फटके। सुरक्षा के सात घेरे तोड़ने पड़ेंगे। हवा तक बगैर अनुमति के छू नहीं पाती।

पिछली बार इन्दौर में बंदूकों के साये तले महफूज रहे बेचारे। जिनके घर टनों टमाटर उन्हें रतजगा करना ही होगा। टमाटरपतियों का बी पी बढ़ रहा है। स्वयं टमाटर डरे हुये हैं पर उन्हें पता है–डर के आगे जीत है। खबरपतियों को खबर ही नहीं।

सबसे ज्यादा बेचैन हैं किचन क्वीन यानी महिलाएं। वे धन्यताभाव से भर जायें अगर उनके सिरीमान(श्रीमान) कर्णफूल , बिन्दी, कंगन, बाजूबंद करधनी, पाजेब, मुद्रिका, चन्द्रहार, टमाटराकृति ले आयें। पानी की प्यास कोल्ड्रिंक से बुझानी पड़ती है कभी कभी। टमाटर का रुतबा है ही ऐसा।

लाल डायरी से ज्यादा रहस्यमय है टमाटरों की दुनिया।

टमाटरों के बगैर सब्जियां स्वाद छुपाने लगी हैं। मैंने उन्हें मना लिया है। वे टमाटर की फोटू देखकर मान जाती हैं। काम चल रहा है।

चुड़ैल सब्जियां बाजार में आम आदमी को देखकर खींसे निपोरती हैं।टमाटर की फोटू धड़ल्ले से बिक रही है।

अकड़ू टमाटर का भी अपना इतिहास है। है कोई माई का लाल जो उसका इतिहास बदलने की जुर्रत करे। वामपंथियों पर तोहमत लगा दे कि तुम्हीं ने उसे स्पेनिश कहा।भारत में तो आदि मानव टमाटरों पर जिन्दा रहता था। इतिहास ,किसका भला नहीं होता। हर वर्तमान का इतिहास होता है।

सच तो ये है कि टमाटर स्पेन से चला।चलते चलते यूरोप पहुँचा और फिर सारी दुनिया में छा गया। उसने ठान लिया था कि वो 192 देश घूमकर रहेगा। सो घूमा।स्पेनिश लोगों ने कह तो दिया लव एप्पल पर ला टोमेटिना उत्सव पर खूब लातें घूसे मारे। जमकर कुटाई की।कचूमर निकाल दिया।

इस दुनिया में कुछ भी होता है। प्यादे से फर्जी होने में टाइम कितना लगता है। कल तक जो छुट्टा यानी चिल्लर था आज उसे डाॅलर बना दिया।विकास के मानी क्या खाक समझेंगे जो पेट्रोल,  बिजली, सब्जी ,भाजी, और जीरे, के मन की बात नहीं समझते।उन्हें तो चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए।

स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी का आकलन है कि नाम में बहुत कुछ नहीं, सब कुछ रखा है।सब्जियों के नाम धाकड़ हों तो जज़्बात पैदा होते हैं।आजमाने में क्या हर्ज है।नाम बदलना नहीं है ,सिर्फ नाम के आगे विशेषण लगाने हैं –जैसे “घमंडी समोसा” “सिजलिंग बीन्स” डायनामाइट चिली”(भूत जोलोकिया)—-इसी क्रम में “ड्रैक्यूला टमाटर” कैसा रहेगा ?

♡♡♡♡♡

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #204 ☆ व्यंग्य – सुदामा के तन्दुल ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक सार्थक एवं विचारणीय व्यंग्य सुदामा के तन्दुल। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 204 ☆
☆ व्यंग्य ☆ सुदामा के तन्दुल

चुनाव के बादल गहरा रहे थे। पता नहीं कब बरस पड़ें। मंत्री जी ने अपने चुनाव क्षेत्र का ‘टूर’ निकाला। अब अपनी जनता की सुध लेना बहुत ज़रूरी हो गया था। यह बंगला, ये कारें, यह रुतबा सब जनता की मेहरबानी से है। दुबारा जनता की खोज-खबर लेने के दिन आ गये। 

मंत्री जी अपने फौज-फाँटे के साथ जमालपुर के डाक बंगले में रुके। उनके पहुँचते ही डाक-बंगला तीर्थ स्थल बन गया। लोगों की भीड़ बढ़ने लगी। कुछ उनके परिचय के आदमी, कुछ अपने परिचय को भुनाने के इच्छुक, कुछ ऐसे ही कि ‘जगदीश भैया आये हैं, चलो मिल आते हैं’ वाले। बहुत से सयाने यह देखने आये कि ‘जगदिसवा अब हमें पहचानता है कि मिनिस्टर बन के भूल गया।’

बड़ी रात तक मंत्री जी अपने ‘आदमियों’ से घिरे, अपनी घटती लोकप्रियता को फिर से ऊपर ढकेलने की तरकीबें सोचते रहे। बहुत उधेड़बुन हुई, लेकिन साफ-साफ कुछ बात बनी नहीं। तरकीब ऐसी हो कि सब विरोधी चारों खाने चित्त गिरें।

सबेरे मंत्री जी उठे तो मन परेशान था। कौन सा दाँव लगायें कि दंगल जीत लें? मंत्री जी नाश्ता करते जाते थे और सोचते जाते थे। सामने गांधी जी का चित्र टँगा था। वही, घुटने तक धोती और हाथ में लाठी। मंत्री जी के दिमाग में कुछ कौंधा। लो, समाधान सामने है और ढुँढ़ाई दुनिया भर में हो रही है। जनता का मन जीतने के लिए अपने को गरीब जनता जैसा ही बनाना होगा। शान-शौकत दिखाने से वोट नहीं मिलने वाले।

निजी सचिव को बुलाया, कहा, ‘अस्थाना साहब, आज हम किसी गाँव के गरीब की झोपड़ी में विश्राम करेंगे। यह कूलर, यह पंखा सब बेकार। दोपहर का भोजन भी वहीं करेंगे। जो गरीब खाएगा वही खाएँगे। हमारे और गरीब के बीच भेद रहेगा तो हम उसका दिल कैसे जीतेंगे?’

अस्थाना साहब की सिट्टी-पिट्टी गुम। यह कहाँ की मुसीबत आ गयी। भीतर से गुस्सा उठा— कहाँ कहाँ के खब्त इन पर सवार होते रहते हैं।

ऊपर से विनम्रता से बोले, ‘मैं कोई माकूल घर देख कर आपको सूचित करता हूँ सर।’

अस्थाना साहब सुरक्षा अधिकारी को लेकर निकले। सोचा, कस्बे का कोई घर चुनना ठीक नहीं। कस्बे के लोग बदमाश होते हैं। विरोधी लोग खामखाँ कोई तूल खड़ा कर देंगे। कस्बे से तीन चार मील दूर एक गाँव में गये। सरपंच से मुलाकात की, और सुखलाल का घर चुन लिया।

सुखलाल के घर में यह फायदा कि वह एक तो इतना गरीब घर नहीं की घुसते ही घिन आये। यानी कि ज़रा कायदे का गरीब। दूसरे, उसका घर सरपंच के घर के एकदम पास, करीब करीब सरपंच साहब की छत्रछाया में था। तीसरी बात यह कि सुखलाल के घर के पीछे एक दरवाज़ा था,कि कुछ चुपके से घर के भीतर  ‘स्मगल’ करना हो तो पीछे से चुपचाप लाया जा सके। यह बड़ी भारी सुविधा थी।

सरपंच साहब से कहकर सुखलाल के घर के आसपास सफाई करा दी गयी। घर की भी सफाई हुई, लेकिन इस तरह कि सब स्वाभाविक लगे। सालों से पल रहे जाले-जंगल साफ हो गये। मुद्दत से स्थायी आश्रय पाये कीड़ों- मकोड़ों को खदेड़ दिया गया। बहुत सा अंगड़-  खंगड़ दूर फेंक दिया गया। कुछ गैर-ज़रूरी सामान दूसरे घरों में स्थानांतरित कर दिया गया। सुखलाल को एक सलीके का गरीब बना दिया गया।

सुखलाल साफ-सुथरा कुर्ता धोती पहने यह सब भागदौड़ देखता घूमता था। कुर्ता सरपंच साहब का था, धोती नयी-नयी अस्थाना साहब ने बनिये के यहाँ से उठवा दी थी। घर की सफाई हो गयी। सामने की ऊँची नीची जमीन भी ठीक हो गयी। रास्ते में उगे आलतू फालतू झाड़ साफ हो गये। मिट्टी से सारा घर पोत दिया गया। टूट-फूट सुधर गयी। एक तरफ तुलसी का बिरवा कहीं से लाकर लगा दिया गया। नया घड़ा पानी से भर कर रख दिया गया। उस पर सब तरफ ‘साँतिये’ बना दिए गये। दरवाज़े पर आम के पत्तों की झालर लटका दी गयी।

सुखलाल कमर पर हाथ धरे दूल्हे के बाप की तरह घूमता था। कोई उसे कुछ करने ही नहीं देता था। सब काम अपने आप हो रहा था। पूरे गाँव के लोग उसे और उसके घर को ईर्ष्या से देखते थे।

सुखलाल के घर में दो झिलंगी खाटें थीं, ऐसी कि कोई अच्छा पाला-पोसा शरीर उन पर रख दिया जाए तो मूँज का दम टूट जाए। उन दोनों खाटों को घर से बाहर कर दिया गया। सरपंच साहब के घर से दो मजबूत, कसी हुई खाटें आयीं कि गरीबी का भ्रम भी बना रहे और मंत्री जी के शरीर को तकलीफ भी न हो।

आसपास के घरों में मंत्री जी के सहायकों और पुलिस वालों के विश्राम की व्यवस्था कर दी गयी। मंत्री जी का हुकुम था कि उन्हें छोड़कर बाकी लोग अपने अपने भोजन की व्यवस्था करके लायेंगे, लेकिन ऐसा कैसे होता? सरपंच को इशारा मिल गया था कि सबके लिए व्यवस्था करनी है। इशारा नहीं भी होता तो सरपंच साहब इतना गलत काम कैसे होने देते?

इसलिए सुखलाल के घर के पीछे भट्टी बनाई गयी। उस पर गाँव की पाक कला में कुशल महिलाओं को लगाया गया। सुखलाल की बीवी को उसके पास भी फटकने नहीं दिया गया। उसके बच्चे सकते की हालत में दूर खड़े सारा तमाशा देखते रहे। सुखलाल के घर के सामने तो थोड़े से ही लोग थे, लेकिन घर के पीछे मेला लग गया था। वही से सारा सामान ‘सप्लाई’ होना था। करीब बारह बजे मंत्री जी लाव-लश्कर के साथ पधारे। दरवाज़े पर उनकी आरती हुई। सुखलाल को उनके सामने पेश किया गया। मंत्री जी बोले, ‘भाई सुखलाल, आज हम तुम्हारे ही घर भोजन और विसराम करेंगे।’

सुखलाल बोला, ‘हमारे बड़े भाग हजूर।’

मंत्री जी हाथ उठाकर बोले, ‘हजूर वजूर मत कहो। प्रजातंत्र में सब बराबर हैं। न कोई छोटा, न कोई बड़ा। समझे?’

‘ऐसा न कहें हजूर।’

‘फिर वही हजूर? यह हजूर हजूर बन्द करो।’

सुखलाल बोला, ‘आप बड़े हैं मालिक। हम आप की बराबरी के कैसे हो सकते हैं? आपको हजूर न कहें तो क्या कहें?’

मंत्री जी हार गये। बोले, अच्छा चलो, तुम्हारे घर में चलते हैं।’

भीतर गये तो देखा मूँज की खाट पर नया दरी-चादर और उस पर गुदगुदा तकिया। मंत्री जी समझ गये, लेकिन अनदेखा कर दिया। तकिये के सहारे उठंग गये। गाँव के लोग खाट के पास सिमट आये। दुनिया भर की फरियादें, रोना-धोना। अस्थाना साहब हाथ में नोटबुक लिये सब के नाम और शिकायतें नोट करते थे। गाँव वालों को लगता था आज सारे संकट टल गये। दो घंटे तक यह कचहरी चलती रही।

घंटे बाद अस्थाना साहब आकर फुसफुसाये, ‘सर, खाना तैयार है।’

मंत्री जी मुड़कर सुखलाल से बोले, ‘कहो सुखलाल जी, हमें क्या खिलाओगे?’

सुखलाल हड़बड़ा गया। उसे पता नहीं था कि भट्टी पर क्या पक रहा है। उसने अस्थाना साहब की तरफ देखा। अस्थाना साहब बोले, ‘बताओ भई।’

सुखलाल क्या कहे? कुछ मालूम हो तो बताये।

मंत्री जी फिर मिठास के साथ बोले, ‘बताओ सुखलाल।’

सुखलाल ने पीछे आटे का बोरा देख लिया था। बोला, ‘हजूर, रोटी खिलाएंगे, और फिर जो सरपंच साहब की मरजी।’

अस्थाना साहब उसे घुड़क कर बोले, ‘सरपंच साहब की मरजी का क्या मतलब? खिलाना तो तुम्हें है।’

मंत्री जी भाँप कर बोले, ‘अच्छा, जो भी हो ले आओ।’

सरपंच साहब की पत्नी लंबा घूँघट खींचकर काँसे की चमकती थाली में भोजन रख गयी— दाल, सब्जियाँ, चटनी, रायता, रोटी, चावल। चावल बहुत बढ़िया तो नहीं, लेकिन मामूली भी नहीं। रोटियों में लगे घी का स्पष्टीकरण अस्थाना साहब ने दिया, ‘सर, इसके भाई के घर में गाय है। वहीं से घी और दही माँग लाया। हमने मना किया था, लेकिन नहीं माना।’

मंत्री जी मुस्कराये, पूछा, ‘किसने पकाया है?’

सुखलाल फिर चक्कर में। अस्थाना जी ने उसका उद्धार किया, कहा, ‘इसकी घरवाली ने, सर।’

मंत्री जी बोले, ‘वाह! बड़े भाग्यवान हो, सुखलाल।’

बड़े प्रेम से भोजन हुआ। पीछे पड़ी हुई मंत्री जी की बारात ने भी भोजन किया।

फिर मंत्री जी बोले, ‘भई, अब हम थोड़ा आराम करेंगे।’

थोड़ी देर में वे सो गये। नाक बजने लगी। सुखलाल खड़ा उन्हें पंखा झलता रहा।

तीन घंटे बाद मंत्री जी की नींद टूटी। अँगड़ाई लेकर उठे। बोले, ‘आज जैसी सुख की नींद बहुत दिन बाद आयी। गरीब के घर जैसा चैन और शांति कहीं नहीं। सच कहा है कि गरीब आदमी भगवान का रूप होता है।’

अस्थाना जी से बोले, ‘अस्थाना जी,आज भोजन में जो स्वाद मिला वह अपने बंगले के भोजन में कभी नहीं मिला। आत्मा तृप्त हो गयी। रोटी चटनी से ज्यादा स्वादिष्ट भोजन संसार में नहीं।’

फिर सुखलाल से बोले, ‘सुखलाल भाई, अब हम जाएँगे। आपके घर में और आपके भोजन में हमें बहुत आनन्द मिला। हम आपके हैं। हमें अपना समझिए। ऊपरी टीम- टाम देखकर हमें अपने से अलग मत समझिए।’

इसके बाद मंत्री जी सब को हाथ जोड़कर अपने काफिले के साथ चले गये। थोड़ी देर पहले का गुलज़ार वीरान हो गया। पीछे रह गये सामान को सहेजते सरपंच साहब और गाँव वाले। जैसे बारात की विदा हो जाने के बाद लड़की वाले रह जाते हैं।

मंत्री जी के जाने के बाद सुखलाल सरपंच से बोला, ‘हजूर, हमें भी भोजन दिलवा दो। हम तो रह ही गये।’

सरपंच जी ज़ोर से हँसे, बोले, ‘वाह! तुम्हारे नाम से दुनिया भोजन कर गयी और तुम्हीं रह गये?’

सुखलाल सपरिवार भोजन करने बैठा। सरपंच जी सामान समिटवाने में लगे थे। खाते-खाते सुखलाल कुछ सोच कर सरपंच से बोला, ‘हजूर, एक अरज है। अगली बार जब मंतरी जी आएँ तो हमारे घर में ही रहवास और भोजन होवे।’

सरपंच जी उसकी बात सुनकर हँसते-हँसते लोटपोट हो गये और सुखलाल झेंप कर सिर खुजाने लगा।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 161 ☆ रहिमन फाटे दूध को मथे, न माखन होय… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “रहिमन फाटे दूध को मथे, न माखन होय…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 161 ☆

रहिमन फाटे दूध को मथे, न माखन होय

जन्मोत्सव से लेकर नामकरण संस्कार तक अनेको आयोजन हुए। ये बात अलग है कि सारी डफलियों को जोड़कर एकरूपता देने की कोशिश की गयी किन्तु सभी ने अपने – अपने राग अलापने की आदत को नहीं छोड़ा। बेसुरे राग से हैरान होकर नाम को खंडित रूप में प्रस्तुत किया गया। जब पहला कदम लड़खड़ाता है तो बच्चे को उसके माता – पिता सम्हाल लेते हैं लेकिन यहाँ तो कौन क्या है ये समझना मुश्किल है।

सब एकजुटता तो चाहते हैं किन्तु स्वयं को बदले बिना। कहते हैं परिवर्तन प्रकृति का मूलाधार है, पर नासमझ व्यक्ति या जो जानबूझकर कर अंजान बन रहे हों उन्हें कोई कैसे जाग्रत करें। लंबी रेस का घोड़ा बनना कभी आसान नहीं होता है उसके लिए पर्याप्त अभ्यास की आवश्यकता होती है। कोई क्या करेगा जब घोड़े अस्तबल में रहकर ही रेस का हिस्सा बनने का दिवा स्वप्न देख रहे हों ?

खैर दौड़- भाग करते रहिए, जो सामने दिखेगा वही बिकेगा, घूरे के भी भाग्य बदलते हैं सो कभी आपका भी नंबर लग सकता है। किसी बहाने सही पर एकजुटता का विचार तो आया। एक- एक करके ग्यारह बन सकते हैं बस सच्चे मन से कोशिश करते रहिए। जनता सबका मूल्यांकन करती है सो कथनी- करनी के भेद से बचना चाहिए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #203 ☆ व्यंग्य – एक इज़्ज़तदार आदमी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक सार्थक व्यंग्य ‘एक इज़्ज़तदार आदमी’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 203 ☆
☆ व्यंग्य ☆ एक इज़्ज़तदार आदमी
अंग्रेजी भाषा कई लोगों का कल्याण करती है। अंग्रेजी भाषा की बदौलत ही धनीराम वर्मा मिस्टर डी.आर. वर्मा बन जाते हैं। डी.आर. धनीराम, देशराज, डल्लाराम, धृतराष्ट्र सबको बराबर कर देता है। हिन्दी ज़्यादा से ज़्यादा धनीराम वर्मा को ध.रा. वर्मा बना सकती है, लेकिन डी.आर. में जो रोब है वह भला ध.रा. में कहाँ?

धनीराम वर्मा मेरे ऑफिस में छोटा अधिकारी है। अपनी पोज़ीशन और पहनावे के बारे में वह बेहद सजग है। बिना टाई लगाये वह दफ्तर में पाँव नहीं रखता। गर्मी के दिनों में टाई उसके गले की फाँस बन जाती है, लेकिन वह टाई ज़रूर बाँधता है।

टाइयों के मामले में उसकी रुचि घटिया है। उसकी सारी टाइयाँ भद्दे आकार और रंग वाली, मामूली कपड़ों के टुकड़ों जैसी हैं, लेकिन वह मरी छिपकली की तरह उन्हें छाती पर बैठाये रहता है।

बात होने पर वह अपनी स्थिति समझाता है। कहता है, ‘भई, बात यह है कि मैं तो मामूली खानदान का हूँ, लेकिन मेरी वाइफ ऊँचे खानदान की है। चार साले हैं। तीन क्लास वन पोस्ट पर हैं, चौथा बड़ा बिज़नेसमैन है। मेरे फादर- इन-लॉ भी सिंडिकेट बैंक के मैनेजर से रिटायर हुए। आइ मीन हाई कनेक्शंस। इसीलिए मेरी वाइफ मेरे कपड़े-लत्तों के मामले में कांशस है।’

उसे अपने फादर-इन लॉ और ब्रदर्स-इन-लॉ के बारे में बताने में बहुत गर्व होता है। चेहरा गर्व से फूल जाता है। किसी से परिचय होने पर वह अपने फादर-इन-लॉ और ब्रदर्स-इन-लॉ का हवाला ज़रूर देता है। दफ्तर के लोग उसकी इस आदत से परिचित हैं, इसलिए जैसे ही वह अपनी ससुराल का पंचांग खोलता है, लोग दाहिने बायें छिटक जाते हैं।

लेकिन इस रुख का कोई असर वर्मा पर नहीं होता। कोई मकान देखने पर वह टिप्पणी करता है— ‘मेरे फादर-इन-लॉ के मकान का दरवाजा भी इसी डिज़ाइन का है।’ कोई कार देखकर कहता है— ‘मेरे बड़े ब्रदर-इन-लॉ ने भी अभी अभी नई इन्नोवा खरीदी है।’ बेचारा ससुराल के ‘परावर्तित गौरव’ में नहाता-धोता रहता है।

बेहतर खानदान वाली बीवी का शिकंजा उस पर ज़बरदस्त है। जब हम लोग आपस में बैठकर भद्र-अभद्र मज़ाक से जी हल्का करते हैं तब वह मुँह बनाये, फाइलों में नज़र गड़ाये रहता है। बाद में कहता है, ‘भई, बात यह है कि माइ वाइफ डज़ंट लाइक चीप जोक्स। वह बहुत कल्चर्ड खानदान की है। यू सी, शी इज़ वेल कनेक्टेड। उसके घर में कोई हल्के मज़ाक नहीं करता।’

दफ्तर में वह आन्दोलन, विरोध वगैरह में हिस्सा नहीं लेता। कहता है, ‘यह सब कल्चर्ड आदमी के लिए ठीक नहीं है।वी शुड बिहेव लाइक कल्चर्ड पीपुल। हम बात करें, लिख कर दें, लेकिन यह शोर मचाना, नारेबाज़ी करना मुझे पसन्द नहीं है। मेरी वाइफ भी इसको पसन्द नहीं करती। यू सी, शी बिलांग्स टु अ वेरी कल्चर्ड फेमिली।’
दफ्तर में लोग इस नक्कूपन पर उससे बहुत उलझते हैं, उससे बहस करते हैं, लेकिन उस पर कोई असर नहीं होता। वह अपनी टाई सँभालते हुए कहता है, ‘भई देखिए, दिस इज़ अ मैटर आफ प्रिंसिपिल्स। मैं अपने प्रिंसिपिल्स से हटकर कोई काम नहीं कर सकता।’

एक बार उसने हम तीन चार लोगों को अपने घर खाने पर बुलाया था। उसकी बीवी से साक्षात्कार हुआ। ऐसी ठंडी शालीनता और ऐसा रोबदार व्यवहार कि हम बगलें झाँकने लगे। लगा जैसे हम महारानी एलिज़ाबेथ की उपस्थिति में हों। उसके मुँह से एक एक शब्द ऐसे निकलता था जैसे हम पर कृपा-बिन्दु टपका रही हो।

वर्मा का ड्राइंग रूम अंग्रेजी फैशन से सजा था। नीचे गलीचा था। बीवी के साथ उसके दो फोटो थे। बाकी फादर-इन-लॉ और ब्रदर्स-इन-लॉ के थे। उसके खुद के बाप का कोई फोटो वहाँ नहीं था।

खाने का इन्तज़ाम भी बिलकुल अंग्रेजी नमूने का था। काँटा, छुरी,नेपकिन सब हाज़िर। हमसे ज्यादा आतंकित वर्मा था। हमारे हाथ से काँटा छूट कर प्लेट से टकराता तो वह आतंकित होकर बीवी की तरफ देखने लगता। हम ज़ोर से बोलते तो वह कान खड़े कर के भीतर की टोह लेने लगता। उस पर उसकी बीवी का भयंकर खौफ था। हम भी ऐसे सहमे थे कि खाना चबाते वक्त मुँह से आवाज़ निकल जाती तो हमारे मुँह की हरकत रुक जाती और हम वर्मा का मुँह देखने लगते। हमने ऐसे भोजन किया जैसे किसी की मौत की दावत खा रहे हों।

वर्मा का घर उसके लिए काफी था, लेकिन वह उसके ‘इन लॉज़’ के हिसाब से स्टैंडर्ड का नहीं था। इसलिए उसने पिछले साल मकान बनाने का निश्चय किया। दफ्तर से उसने ऋण लिया और मकान बनना शुरू हो गया।

हमने वर्मा को सलाह दी कि वह अपनी हैसियत के हिसाब से छोटा मकान बनाये, लेकिन उसे अपने ‘इन लॉज़’ की चिन्ता ज़्यादा थी। इसलिए वह बंगला बनाने की जुगत में लग गया। जल्दी ही नतीजा सामने आया। पैसे सब खत्म हो गये और मकान आधा भी न बना।

वर्मा की हालत खराब हो गयी। अब वह दफ्तर में सारा समय कागज़ पर कुछ गुणा-भाग लगाता रहता। बीच बीच में माथा, आँखें, नाक और गर्दन पोंछता रहता। मकान उसकी गर्दन पर सवार हो गया था। उसे दीन- दुनिया की कुछ खबर नहीं थी।

कई बार उसने मुझसे कहा, ‘यार, मकान में बहुत पैसा लग गया। वाइफ के सारे जे़वर गिरवी रखने पड़े। बाज़ार का भी काफी कर्ज़ चढ़ गया। क्या करें? मकान तो ज़िन्दगी में एक बार ही बनता है। नाते-रिश्तेदार महसूस तो करें कि मकान बनाया है।

अंत़तः मकान बन गया। एकदम शानदार। सिर्फ चारदीवारी और गेट नहीं बन पाया क्योंकि पैसे खत्म हो गये और अब कर्ज़ देने वाला कोई नहीं बचा। लेकिन फिर भी वर्मा खुश था क्योंकि अब वह अपने ‘इन लॉज़’ को बिना शर्मिंदा हुए बुला सकता था।

मकान पूरा होने के बाद उसके ‘इन लॉज़’ का आना शुरू हो गया। एक के बाद एक उसके तीन साले पधारे। जब भी आते, वर्मा किराये की एक कार का इन्तज़ाम करता, उन्हें संगमरमर की चट्टानें दिखाता, सिनेमा दिखाता। गाड़ी चौबीस घंटे सेवा में खड़ी रहती। खाने पीने की ढेर सारी चीजें आतीं। उस वक्त वर्मा दफ्तर से छुट्टी लेकर पूरा शाहंशाह बन जाता। बाद में मुझे बताता— ‘तीसरे ब्रदर-इन-लॉ आये थे। मकान देखकर हैरत में आ गये। मान गये कि हम भी कोई चीज़ हैं।’

लेकिन अब कुछ और भी बातें होने लगीं। अब दफ्तर में कुछ लोग उसे ढूंढते आने लगे। उन्हें देखकर उसका मुँह उतर जाता। वह जल्दी से उठ कर उन्हें कहीं अलग ले जाता। उनकी बातें तो सुनायी नहीं देती थीं, लेकिन उनके हाव-भाव देख कर पता चल जाता था कि क्या बातें हो रही हैं। उन आदमियों के चले जाने पर वर्मा देर तक बैठा पसीना पोंछता रहता।

ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती गयी। अंत में ऐसे लोग बड़े साहब के पास अपने ऋण का तकाज़ा लेकर पहुँचने लगे। बड़े साहब ने वर्मा को बुलाकर हिदायत दी कि अगर भविष्य में उसका कोई ऋणदाता दफ्तर में आया तो वर्मा के खिलाफ कार्रवाई होगी। वर्मा दो पाटों के बीच में फँस गया। सुना कि बहुत से लोग उसके नवनिर्मित महल के चक्कर लगाते थे और वह उनसे भागा फिरता था। उसकी अनुपस्थिति में ऋणदाताओं के सारे श्रद्धा-सुमन उसकी बीवी के हिस्से में आते थे। सुना कि अब उसका आभिजात्य कई डिग्री कम हो गया था।

एक रात वर्मा हड़बड़ाया हुआ मेरे घर में घुस आया। घुसते ही उसने पानी माँगा। बैठकर उसने पसीना पोंछा, बोला, ‘यह चौधरी भी एकदम गुंडा है। बाजार में तीन चार आदमियों के साथ मुझे घेर लिया। कहता था बीच बाजार में मेरे कपड़े उतारेगा। जस्ट सी हाउ अनकल्चर्ड। सिर्फ बीस हज़ार रुपयों के लिए मेरी बेइज्ज़ती करेगा। दिस मैन हैज़ नो मैनर्स। मैं किसी तरह स्कूटर स्टार्ट करके यहाँ भाग आया। घर नहीं गया। सोचा वे पीछा करते शायद घर पहुँच जाएँ।’

वह घंटे भर तक मेरे यहाँ बैठा रहा। उसके बाद उसने विदा ली। चलते वक्त बोला— ‘यार शर्मा, इन पैसे वालों ने तो ज़िन्दगी हैल बना दी। एकदम नरक। ज़िन्दगी का सारा मज़ा खत्म हो गया। साले एकदम खून चूसने वाले हैं।’

फिर कुछ याद करके बोला, ‘हाँ याद आया। इस संडे को मेरे चौथे ब्रदर-इन-लॉ आ रहे हैं। मेरे खयाल से वे भी मेरे ठाठ देख कर इंप्रेस्ड होंगे। व्हाट डू यू थिंक?’
फिर मेरी सहमति पाकर वह स्कूटर स्टार्ट करके कोई गीत गुनगुनाता हुआ चला गया।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 160 ☆ अब तो दादुर बोलिहैं, हमै पूछिहै कौन?… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “अब तो दादुर बोलिहैं, हमै पूछिहै कौन?…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 160 ☆

अब तो दादुर बोलिहैं, हमै पूछिहै कौन?

भीड़ का हिस्सा बनने की कला सबको नहीं आती, भेड़चाल में शामिल होने के लिए बिना दिमाग़ का होना बहुत जरूरी होता है। इसे पहली शर्त माने तो भी सही होगा। इस समय प्रकृति सावनी रंग से सराबोर है।

हरियाली और सावन दोनों ही पूरक हैं। सावन हो और झूला न झूला जाय ऐसा कभी हो सकता है भला ? …. पर झूला तो तभी डल सकता है जब हरा- भरा मजबूत वृक्ष हो, जैसे ही ऐसा सुंदर पेड़ दिखता है उसी डाल में बैठ हम उसे काट देते हैं हमेशा से ही हमारे आस- पास ऐसे बहुत से लोग हैं जो हरियाली देख ही नहीं सकते, पर प्रश्न ये उठता है कि इस कहावत का क्या होगा ? …. कि सावन के अंधे को हरियाली ही दिखती है।

एक बहुत पुरानी कहानी है – एक राजा बीमार हो गए बहुत इलाज़ हुआ पर वे ठीक ही नहीं हो रहे थे तो हिमालय से महात्मा जी को बुलाया गया उन्होंने राजा को देखते ही कहा आपके राज्य में हरियाली की कमी है, आप अपने चारों ओर वृक्ष लगवाइए और जब वे हरे – भरे होगें तो उससे वायु शुद्ध मिलेगी जिससे आप ठीक हो जायेंगे। मंत्री बहुत बुद्धिमान था उसने कहा बाबा इसमें तो बहुत दिन लगेंगे तब तक के लिए कोई और उपाय बता दें जिससे महाराज जल्दी ठीक हो जाएँ।

वैसे तो जल्दी का काम शैतान का होता है किंतु यहाँ गुरु जी अनुभवी थे सो उन्होंने कहा एक उपाय है, महाराज जो कुछ भी देखें वो हरा होना चाहिए। अब पूरे शहर में घोषणा कर दी गयी कि सभी लोग हरे वस्त्र ही पहनें, पूरा महल व राज्य हरे रंग से रंगवा दिया गया।

कुछ दिनों बाद राजा से मिलने एक संत आये उन्होंने भगवा वस्त्र पहने हुए थे, उनसे मंत्री ने कहा आपको हरा वस्त्र पहनना होगा तभी महाराज से मिल सकेंगे, पूरा कारण भी समझाया । संत ने मंत्री से कहा मुझे महाराज से मिलवाओ तो सही, उनको कक्ष में ले जाया गया तो उन्होंने पहला ही प्रश्न राजा से किया कि आप ने पूरे राज्य को हरा कर दिया आप को अपने चारों ओर जैसा देखना है वैसा अपनी दृष्टि को करना होगा, संत ने मंत्री से हरे रंग का चश्मा मँगवाया और महाराज को दिया महाराज को अब चारो ओर हरा ही हरा दिखने लगा ।

तब सबको समझ में आ गया कि आस -पास का परिवेश बदलने से अच्छा है अपनी दृष्टि को बदलो जिससे सब कुछ बदल जाता है।

अब तो सब खुश सबको फिर से आजादी मिल गयी मनमानी रगों के प्रयोग की।ये तो हुई रंगों की बात, पर हम तो हरियाली के ही गुण ढूंढ रहे हैं हरियाली हो तो वर्षा हो, पर्यावरण में संतुलन रहे,भूमि का क्षरण न हो, शाकाहारी जीवों को भरपूर भोजन मिले पर यही तो विवाद खड़ा हो जाता है कि यदि सब कुछ व्यवस्थित हो गया तो ये वैज्ञानिक क्या करेंगे ?कैसे ग्रीन हाउस प्रभाव पर बड़ी- बड़ी संगोष्ठियाँ होगी, कैसे वृक्षारोपण का कार्यक्रम होगा और तो और करोड़ों का बजट कैसे पास होगा? हरियाली अगर फैल गयी तो पर्यावरण का क्या होगा, 5 जून को हम कौन सा दिवस मनायेंगे? हरियाली के आते ही समस्त समस्त समस्याएँ निपट जाएँगी, महाराज का काम तो हरे चश्मे से चल गया परन्तु हमें तो बिना हरियाली न झूले का आनन्द आएगा न ही वर्षा का न ही नदियों में उफान आएगा न ही सागर भरेगा।

हमारे त्योहारों ने सदा ही प्रकृति से हमें जोड़ा है, हरियाली अमावस्या, हरियाली तीज इत्यादि। अब तो हरियाली फैलाएँगे यही प्रण लेते हैं तभी इन सारे दिवस और पूजन की सार्थकता है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 105 ⇒ दो सांडों की लड़ाई… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “दो सांडों की लड़ाई।)  

? अभी अभी # 105 ⇒ दो सांडों की लड़ाई? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

|| Bull fight ||

हमें अंग्रेजी के अक्षर ज्ञान में पहले B फॉर Bat और C फॉर Cat पढ़ाया जाता था। बाद में C फॉर Cat का स्थान C फॉर Cow ने ले लिया। इंसान के बच्चे होते हैं, गाय के बछड़े होते हैं। लड़का लड़की की तरह गाय के भी बछड़ा बछड़ी होते हैं, जो बड़े होकर गाय या बैल बनते हैं। गाय तो खैर हमारी माता है और दुधारू है, लेकिन बैल को, या तो खेत में हल जोतना है अथवा कोल्हू का बैल बनना है।

बैल को अंग्रेजी में ox कहते हैं, जिसका बहुवचन oxen होता है। यही बैल जब बैलगाड़ी में जोता जाता है तो वह bullock बुलॉक कहलाता है। अंग्रेज नहीं चाहते थे कि उनकी फोर्ड गाड़ी के रहते भारत की कच्ची पक्की सड़कों पर कोई स्वदेशी oxford नजर आए, इसलिए बैलगाड़ी को bullock cart यानी बैलगाड़ी कहा जाने लगा। ।

हमारे समाज में गाय दूध देती है इसलिए उसे पूजा जाता है, लेकिन लड़कियां दहेज की शिकार होती थी, इसलिए उन्हें जन्मते ही मार दिया जाता था, जिसे मेडिकल टर्मिनोलॉजी में भ्रूण हत्या कहते हैं। आजकल गौ वंश के साथ ही बेटियों को भी बचाया जा रहा है, पढ़ाया जा रहा है, यह एक शुभ संकेत है।

लेकिन जरा हमारा पशु प्रेम तो देखिए ! हमें हल जोतने वाला, बोझा ढोने वाला, चुपचाप दिन भर मेहनत करने वाला बैल पसंद है, इसलिए हम बचपन में ही उसके पुरुषार्थ को कुचल देते हैं, और गौ वंश फलने फूलने के लिए उसी बछड़े को छुट्टा सांड बना देते हैं, जो बड़ा शक्तिशाली होता है। वह मदमस्त, अपनी मर्जी का मालिक होता है, कोई उसकी नाक में नकेल नहीं डाल सकता। ।

बाजारों में अक्सर ये सांड आपस में लड़ते देखे जा सकते हैं। इनका युद्ध रूस यूक्रेन जैसा नीरस नहीं होता। ये जब आपस में लड़ते हैं, तो इनकी आंखों में खून उतर आता है। बाजार में अफरा तफरी और तोड़फोड़ शुरू हो जाती है। लोग इन पर डंडे बरसाना शुरू करते हैं, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है, मानो इन पर डंडे बरसाना, आग में घी का काम कर रहा हो।

बड़ी मुश्किल से जन धन की हानि और बर्बादी के पश्चात् ही इनका युद्ध विराम हो पाता है। कौन जीता कौन हारा, आपस में बातें करती हैं, चम्पा और तारा। ।

इंसान खुद तो आपस में लड़ता ही है, लेकिन वह जानवरों को भी आपस में लड़ाने से बाज नहीं आता। स्पेन का प्रिय खूनी खेल बुल फाइट ही है। इन कथित बैलों को खूब खिला पिलाकर मैदान में उतारा जाता है, इन्हें लाल कपड़ों से भड़काया जाता है। उसके बाद जो हिंसा का तांडव शुरू होता है, वह दर्शकों को आनंद विभोर कर देता है। इसे ही पुरुषों का पैशाचिक सुख कहा जाता है।

लड़ना, लड़ाना और लड़कर सामने वाले पर अपना वर्चस्व स्थापित करना आजकल हमारे सामाजिक जीवन का महत्वपूर्ण अंग हो गया है। कहीं fight को संघर्ष की परिभाषा में बांधा गया है तो कहीं युद्ध की त्रासदी में। होगा शेर जंगल का राजा, उसे पिजरे में बंद कर इतना पालतू बना देना, कि वह सर्कस के मैदान में करतब दिखाने लग जाए, यही पुरुष की फितरत है। ।

स्वार्थ और खुदगर्जी कोई इंसान से सीखे ! दूर क्यों जाएं, हमारी भैंस को ही देख लीजिए। भले ही वह पानी में चले जाए, हमें तो उसके दूध से मतलब है। भले ही भैंस के आगे बीन बजाने से कुछ नहीं होता हो, आजकल दुधारू पशुओं को भी संगीत सुनाया जाने लगा है। What a music therapy !

किसान बहुत निराश होता है जब भैंस किसी पाड़ी को

नहीं, पाड़े को जन्म दे देती है। कभी कभी शहरों में पाड़ा गाड़ी के भी दर्शन हो जाते थे, जो पानी के टैंकर का काम करती थी। ।

सभी शक्तिशाली पशु और हिंसक जानवर, आज के इस इंसान से अधिक शक्तिशाली और खूंखार नहीं हो सकते। यह खुद डरता है और डराता है, लड़ता है और लड़ाता है और बातें बड़ी बड़ी करता है।

आज भी हम बुल फाइट और सांडों की लड़ाई देख रहे हैं, आनंदित हो रहे हैं। हमारी लड़ाई के आगे सांड भी शर्मिंदा है। क्योंकि हमारे पास दिमाग और जबान है। हम जानवर नहीं इंसान जो हैं।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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