हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 159 ☆ संस्कार के बहाने नामकरण… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “संस्कार के बहाने नामकरण…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 159 ☆

☆ संस्कार के बहाने नामकरण

टालामटोली करते हुए; आखिरी दिनों तक; अपने साथियों संग वार्तालाप के लिए समय न निकाल सके ऐसे हैं, कीमती लाल जी। हर चीजों का मोल-भाव करते हुए वे अधूरे मन से उदास होकर कोई निर्णय नहीं ले पाते हैं। कभी किसी को तो कभी किसी को अपना गुरु मानकर जीवन चला रहे हैं। कहते हैं, भीड़तंत्र के आगे जनतंत्र भी कोई मंत्र सिद्ध नहीं कर सकता है। स्वार्थ सिद्धि हेतु जुड़ने का दिखावा करना एक बात है और वास्तव में जुड़े रहना दूसरी बात है,बातों क्या ? ये तो बतंगड़ पर निर्भर है। कान के कच्चे और हृदय के सच्चे आसानी से बहकावे में आ जाते हैं। रेल के डिब्बों की तरह इंजन के पीछे चलते जाइये। जहाँ स्टेशन आएगा वहाँ रूकिए, नाश्ता- पानी लेकर आगे बढ़ निकलिए।

ऐसी विचारधारा के साथ चलते रहने के कारण उनकी कीमत अब होने लगी है। किसी भी कार्य की शुरूआत  भले ही उनके कर कमलों से होती हो किन्तु  बाद में उन्हें कोई नहीं पूछता। अवसरवादी के रूप में वे कब पलट जाएँ इसको वो स्वयं नहीं बता सकते हैं। जंग लगे लोहे की भाँति उनको दरकिनार करते हुए पीतल, ब्रॉन्ज, स्टेनलेस स्टील, ताँवा, सिल्वर सभी एकजुटता का पहाड़ा पढ़ते जा रहे हैं। कितने लोग परीक्षा तक इसे याद कर सकेंगे ये तो वक्त बताएगा। असली सोने की चमक  के आगे सभी धातुएँ फीकी लगतीं हैं। 24 कैरेट गोल्ड, वो भी हॉलमार्क के साथ, भला कोई अन्य को क्यों पूछेगा ?

फैशन के मारे ही ब्लैक, रफ, आभूषण पहनने की इच्छा लोगों द्वारा होती रही है किंतु जब सहेजने की बात आती है तो लॉकर की शोभा खरा सोना ही बढ़ाता है। जरूरत के समय इसका प्रयोग करें, समय के साथ मूल्यवान होना इसका विशेष गुण होता है।

हम भले ही नए- नए नामों से अपनी पहचान बनाने की  कोशिशें करते रहें किन्तु जब तक गुणों का विकास नहीं करते तब तक पिछड़ते जाएंगे। नाम को सार्थक करने हेतु काम भी करना पड़ता है? आज कुछ कल कुछ ,ऐसे तो विलुप्त प्राणी बनकर अपनी रही सही पहचान खोकर डायनासोरों की भांति चित्रों में शोभायमान होना पड़ेगा।

मुखिया मुख सो चाहिए , खान पान सो एक।

पाले पोसे सकल अंग, तुलसी सहित विवेक।।

तुलसीदास जी के इस दोहे  याद करते हुए मुखिया का चयन कीजिए।

विवेक पूर्ण व्यक्तित्व के मालिक को, सलाहकार बनाते हुए अनुकरण करें, केवल नामकरण करते रहने से, कार्य सिद्ध होते तो रावण ने भी अपना नाम राम रख लिया होता।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 197 ☆ बैठे ठाले – सोशल मीडिया पर जन्मदिन ☆ प्रस्तुति – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक अति सुंदर व्यंग्य – “सोशल मीडिया पर जन्मदिन)

☆ व्यंग्य ☆ बैठे ठाले – सोशल मीडिया पर जन्मदिन ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय 

अच्छे दिन आने वाले हैं ऐसा सोचकर कितना अच्छा लगता है। दुःख, परेशानियां, मुसीबतों के बीच जब खूब सारे लोग बधाईयां और शुभकामनाएं देने लगते हैं तो अच्छा तो लगता है, वो दिन अच्छा लगता है ये दिन झूठ मूठ का भले हो। साल भर में दो चार बार अच्छे दिन लाने को लिए आजकल सोशल मीडिया बड़ा साथ दे रहा है। आजकल अच्छे दिन का अहसास कराने के लिए अपन झूठ-मूठ के लिए फोटो लगाकर अपना अवतरण दिवस या जन्मदिन की घोषणा कर देते हैं ये बात अलग है कि लोग इस झटके को हैप्पी बनाने के लिए हैप्पी बर्डे का नाम दे देते हैं, जैसे आज मेरा सरकारी जन्मदिन है और अगर इस दुनिया में किसी नकली चीज़ पर भी सरकारी मुहर लग जाए तो वही असली हो जाती है।

मेरा जन्मदिन मेरे बच्चों के अलावा किसी को याद नहीं रहता। घरवाली अक्सर इग्नोर करती है,पर बच्चे मुझे याद दिला देते हैं, फिर भी मै भी भूलने की कोशिश करता हूं। मोबाइल में खामखां केक और लड्डुओं का इतना ढेर लग जाता है कि अगर सब सजा दूं तो लोग घर को मिष्ठान भंडार समझ लें। मुश्किल ये कि आप इन्हें न खा सकते हैं और न पड़ोसी के यहां भिजवा सकते हैं। सबके सब मोबाइल से बाहर निकलते ही नहीं है। जब बहुत दिन हो जाते हैं तो फिर मन में कुलबुलाहट होने लगती है और अचानक दादी असली वाले जन्मदिन की याद दिला देती है मैं सोचता हूं अभी चार महीने पहले तो झूठ मूठ की इतनी बधाई और शुभकामनाएं बटोरीं थीं फिर पोल न खुल जाए पर मौसी उधर देहरादून से फेसबुक में हैप्पी बर्डे की पोस्ट डाल देती है फिर दिन भर बधाई और शुभकामनाओं का तांता लग जाता है हालांकि कि कुछ लोग फोन पर कटाक्ष करने लगते हैं कि यार बताओ कि तुम साल में कितने बार पैदा हुए हो…. अब आप ही बताओ कि बहुत लोगों को यदि अलग माह में मेरा हैप्पी बर्डे मनाने को इच्छा है तो किसी को मैं रोक सकता हूं कई बार तो ऐसा भी होता है कि मगरमच्छ जैसे निष्क्रिय रहने वाले समूह सदस्य भी जन्मदिन का मैसेज पढ़कर तुरंत  तैयार शुदा बधाई प्रेषित करने में देरी नहीं करते, तुरंत फारवर्ड वाला रेडीमेड मैसेज भेज देते हैं, फिर मुझे एक एक सदस्य को अलग अलग धन्यवाद प्रेषित करना ही पड़ता है,डर लगता है कि यदि धन्यवाद नहीं दिया तो सामने वाला नाराज होकर अगली बार  बधाई और शुभकामनाएं न भेजे। समूह के कुछ सदस्य तो समूह के अलावा अलग से भी बधाई का मैसेज भेज देते हैं,अब आप ही बताओ कि मैं अपनी इज्जत कैसे बचाऊं।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #201 ☆ व्यंग्य – ‘योगासन और स्वास्थ्य’ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘योगासन और स्वास्थ्य’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 201 ☆

☆ व्यंग्य ☆ ‘योगासन और स्वास्थ्य’

भाइयो, आज आपसे योगासनों से स्वास्थ्य को होने वाले लाभों पर चर्चा करूँगा। कुछ लोग मुझसे पूछेंगे कि मैं स्वास्थ्य पर किस अधिकार से बोलता हूँ और मैं हमेशा की तरह दोहराता हूँ कि मैं स्वास्थ्य-चर्चा का अधिकारी इसलिए हूँ क्योंकि मैं बचपन से ही अनेक रोगों से ग्रस्त हूँ। ‘पुराना रोगी आधा डॉक्टर’ की उक्ति पर चलते हुए मैं आपको स्वास्थ्य संबंधी उपदेश दूँगा और आप पूरे मनोयोग से मेरी बात सुनेंगे, ऐसी आशा करता हूँ।

रीढ़ की लचक का महत्व- योगासनों में रीढ़ की लचक को बहुत महत्व दिया जाता है। जिसकी रीढ़ जितनी अधिक लचकदार होती है उसका स्वास्थ्य उतना ही बढ़िया होता है और उसकी आयु उतनी ही अधिक लंबी होती है। इसीलिए समझदार लोग अपनी रीढ़ को इतना लचकदार बना लेते हैं कि मौके के हिसाब से जिधर झुकना होता है, झुक जाते हैं। कई लोगों के लिए कहा जाता है कि उनके रीढ़ नहीं होती। यह सही नहीं है। वस्तुतः उनके रीढ़ होती तो है, लेकिन वे अभ्यास से उसे इतनी लचकदार बना लेते हैं कि वह न होने का भ्रम पैदा करने लगती है।

रीढ़ को लचकदार रखने वाला आदमी हमेशा सुखी, स्वस्थ और संपन्न रहता है। संसार की कोई बाधा उसके आड़े नहीं आती क्योंकि वह अपनी रीढ़ लचका कर हर बाधा में से निकल जाता है। ज़िन्दगी में दिक्कत उन्हीं को आती है जो अपनी रीढ़ को लचकदार नहीं बना पाते।

रीढ़ की लचक के महत्व को बताने के बाद अब आपसे स्वास्थ्य को बढ़ाने वाले कुछ खास खास आसनों की बात करूँगा।

शीर्षासन- शीर्षासन में आदमी का सिर नीचे और पैर ऊपर होते हैं। आज अधिकांश लोग अपने आप यह आसन कर रहे हैं। यह आसन ज़्यादा करने से दिमाग में खून इकट्ठा हो जाता है और चक्कर आने लगते हैं। लेकिन इस आसन से बचने का आपके पास कोई उपाय नहीं है।

कुक्कुटासन- इस आसन में आदमी को मुर्गा बनना पड़ता है। यह आसन भी आज आदमी को शीर्षासन की तरह चाहे-अनचाहे करना ही पड़ता है। हर सीनियर अपने जूनियर को यह आसन करने के लिए विवश करता है।

जो साधक इस आसन को कर सकता है उसका सीनियर उससे हमेशा खुश रहता है। जो नहीं कर पाते उनका स्वास्थ्य सदैव खतरे में रहता है।

मकरासन- मकर का अर्थ होता है मगरमच्छ। यह आसन समझदार लोग करते हैं। इस आसन में समय-समय पर झूठे आँसू बहाने पड़ते हैं, इसीलिए इस आसन को सब लोग साध नहीं पाते। लेकिन जो साध लेते हैं वे जीवन में सुख और स्वास्थ्य को प्राप्त करते हैं।

नौकासन- इस आसन में साधक नौका के समान अपनी स्थिति बना लेता है। नौका का स्वभाव होता है कि जिधर पानी का वेग होता है उसी दिशा में वह बहती है। समझदार साधक अपने को नौका के समान बनाकर छोड़ देता है जिस तरफ भी समय उसे ढकेले वह उसी तरफ चला जाता है, प्रतिरोध नहीं करता।

कुक्कुटासन के समान नौकासन भी सभी विपदाओं को हरने वाला और सुख-स्वास्थ्य में वृद्धि करने वाला है। रोग उन्हीं को सताते हैं जो समय के प्रवाह को काटते हैं, नौकावत रहने वालों को कोई रोग नहीं सताते।

वृश्चिकासन- वृश्चिक का अर्थ बिच्छू होता है। यह आसन बड़े और शक्ति-संपन्न लोगों के द्वारा साधा जाता है। वे हमेशा अपने से छोटे लोगों को डंक मारते रहते हैं। यह आसन दफ्तर में अफसर लोग खूब साधते हैं। कई बार बराबरी के लोग भी एक दूसरे को डंक मारने के लिए इस आसन को सिद्ध करते हैं।

वकासन- वक का अर्थ बगुला होता है। आप जानते हैं कि बगुला एक पैर उठाकर पानी में ध्यान की मुद्रा बना कर खड़ा हो जाता है और फिर मछलियों को पकड़ता है। यह आसन भी चतुर लोगों के द्वारा लगाया जाता है। वे साधु की मुद्रा बनाकर रहते हैं और शिकार को धोखे में डालकर हड़पते रहते हैं। शिकार को उदरस्थ करने के बाद वे पुनः साधु की मुद्रा धारण कर लेते हैं।

शवासन- यह आसन अत्यंत महत्वपूर्ण और स्वास्थ्यदायक है। शवासन का अर्थ है मुर्दे की मानिंद पड़े रहना। सब चीज़ों से तटस्थ रहो, जो होता है होने दो। जैसे शव की कोई प्रतिक्रिया नहीं होती वैसे ही सब तरफ से अपने को समेटकर कछुए की भाँति रहो। अपने को पूरी तरह संवेदनहीन बनाने का अभ्यास करो।

जो लोग शवासन को सिद्ध कर लेते हैं वे सब कष्टों से मुक्त हो जाते हैं। जब अपने को शववत बना लिया तब फिर कष्ट किस बात का? यह आसन सुख और स्वास्थ्य की कुंजी है। समझदार लोग इसी आसन को सिद्ध करते हैं।

सूर्य नमस्कार- यह आसन आज के युग में बहुत महत्वपूर्ण है। इस आसन में चढ़ते सूरज को नमस्कार किया जाता है। योगासनों की पुस्तक में स्वयं परमहंस सत्यानन्द सरस्वती कहते हैं, ‘प्रत्येक साधक को प्रतिदिन उगते हुए सूर्य को नमस्कार करना चाहिए।’ वे यह भी कहते हैं कि इन अभ्यासों को करते समय आँखों को खुला या बन्द रख सकते हैं।

इस आसन में चढ़ते सूरज को पहले खड़े होकर नमस्कार किया जाता है, फिर दंडवत लेट कर और उसके बाद पुनः खड़े होकर।

यह आसन सुख और स्वास्थ्य की दृष्टि से बेजोड़ है। समझदार साधक इस आसन से बहुत लाभ उठाते हैं। कुछ नासमझ साधक ढलते सूरज को नमस्कार करने लगते हैं।

इस आसन के साथ कुछ मंत्रों का उच्चारण भी किया जाता है। साधक चढ़ते सूर्य को नमस्कार करने के साथ उसकी प्रशस्ति में मंत्रों का उच्चार भी करता रहता है।

अन्त में – तो भाइयो, मैंने आज आपसे योगासनों के लाभों पर चर्चा की। यदि आप इन्हें सिद्ध कर सकें तो आप निश्चय ही सुख और समृद्धि को प्राप्त होंगे।

इन आसनों के संबंध में एक सावधानी ज़रूर रखें, इन्हें धीरे-धीरे ही सिद्ध करें, हड़बड़ी न करें। जो लोग इनके लाभों को प्राप्त करने के लिए जल्दबाजी करते हैं वे लाभ के स्थान पर हानि उठाते हैं। इसीलिए धीरज से काम लें, आप ज़रूर कामयाबी प्राप्त करेंगे।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 158 ☆ बारे उजियारा करे, बढ़े अंधेरा होय… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना बारे उजियारा करे, बढ़े अंधेरा होय। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 158 ☆

बारे उजियारा करे, बढ़े अंधेरा होय

भरी हुई गगरी से जल न छलका तो क्या छलका, छल, बल की तो रीत ही निराली है, एक से बढ़कर एक तजुर्बेकार भी रोते हुए देखे जा रहे हैं, अरे भई तकनीकी का युग है। गूगल महागुरु का ताज पहन शीर्ष पर और उसके अनुयायी उससे सीख कर ज्ञान बाटने लगते हैं, चेले तो पहले से ही तैयार बैठे हैं, जैसे ही उन्होंने कुछ अर्जित किया तुरन्त, लेना एक न देना दो खुद गुरु बन गए और एक नया समूह बना लिया सत्संग शाला का, शिष्यों को खुद ही जोड़ लिया, कुछ जुड़े रहे कुछ भाग निकले खूँटा तोड़कर।

जिसने ज्ञान की कुछ बूंदे पायीं उसने गागर में सागर को भी झुठलाते हुए अपनी गगरी लेकर चल पड़ा, औरों की ज्ञानरूपी प्यास बुझाने को, अब ये बात अलग है कि गगरी छलकती जा रही है, क्यों न छलके आधी जो भरी है।

इतना ही कम था क्या? कि यहाँ एक और महाशय भी आन टपके नाँच न जाने आँगन टेढ़ा को चरितार्थ करने। इस श्रेणी में तो बहुत मारा- मारी है बिल्कुल उसी तरह जैसे एक अनार सौ बीमार ।

खैर ये दुनिया बहुत भली है सबको समाहित कर लेती है कभी उफ तक नहीं करती। छुटभइये लोगों की तो बात ही न करें, यही तो असली विस्तारक होते हैं सभी योजनाओं के।

ऐसे में कोई रिश्तों की दुहाई देता हुआ कह उठता है –

रिश्ते पैसों की तरह होते हैं, गँवाना आसान है और कमाना मुश्किल है

गलती को सुधारना है तो नम्र बने।

मुझे दे दीजिए सँभालकर रखूँगा मैं पूँजी पर ज्यादा विश्वास करता हूँ, अब ये बात अलग है कि पूँजी न सही रिश्ते ही सही नए- नए बने गुरु ने अपनी खीस निपोरते हुए कहा ।

तभी रोनी सूरत बना कर रिपोर्टर महोदय हाजिर हुए और कहने लगे मेरा प्रेस कार्ड का बैक भी डिजाइन करवा दें, एवं कहीं सिग्नेचर भी हों, अपॉइंटिंग अथॉरिटी के, वरना किस काम का ???

कुछ काम निकल आये, अपने मुंह से क्या परिचय दूँ। लोग मुझे सिरियसली कम लेते हैं, कुछ गुर और सीखने होगें’ जिन्दगानी के।

गहरी आह भरते हुए कुछ दिन पुराने गुरू ने कहा आज तो हद ही हो गयी, उन्हें लगता है कि इस विधा में मेरे से काबिल कोई और हो ही नहीं सकता। जैसे गुरु वैसे चेला सब एक दूसरे को चने के झाड़ पर चढ़ाते जा रहे हैं। ज्ञानी महोदय जी ने उन्हें बहका रखा है।

शाला के प्रचारक सह प्रायोजक कहने लगे वो बच्चा है पर है मेहनती उसे माफ़ कर दीजिए मैंने भी कई बार माफ़ किया है। आप भी बड़े हैं, बड़ा दिल रखते हैं, बच्चों का काम है, शैतानी करना।

बड़ो का काम है माफ़ करना पर क्या करें ? कभी कभी दिल बहुत दुखी हो जाता है।

नए गुरू जी कह उठे हम तो रेतमार लेकर माँजते ही रहते हैं दिमाग को। पर ये ठस लोहे का बना है, ऊपर से बरसात का मौसम जंग लग जाती है।

सबसे ज्यादा पूछ- ताछ आम लोगों की होती है । अरे भई फल का राजा भी तो आम ही है इस समय तो सीजन चल रहा है।

खास हो जाईये ….

उसी के लिए तो दिनभर पढ़ते हैं फेसबुक पर और रात में ज्ञान बाट दिए, खास तो बाद में होंगे, अभी मैं भी प्रैक्टिस कर रहा हूँ। वहाँ से एवार्ड भी मिला है।

लड़ने में या गलती निकालने में …. ??

मुस्कुराते हुए अच्छा काम करने में।

प्रचारक महोदय ने गम्भीर होते हुए कहा समीक्षक की भी समीक्षा होती है, इसका भी ध्यान होना चाहिए। बीछी का मंत्र न जाने साँप के बिल में हाथ डाले वाली बात है। ये अथाह सागर है- इसमें हम एक बूँद भी नहीं हैं।

चलिए जाने दीजिए, यही सब तो जरूरी है इसी बहाने कुछ सीखने तो मिल रहा है, ज्ञान के अमृत की कुछ बूंदे ही सही… यही बूंदे एक दिन विशाल सागर बना सकतीं हैं।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 196 ☆ धनिया जैसे संगी साथी ☆ प्रस्तुति – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक अति सुंदर व्यंग्य – “धनिया जैसे संगी साथी)

☆ व्यंग्य – धनिया जैसे संगी साथी ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय 

हमारे साथ एक भैया जी काम करते थे सब लोग उन्हें ‘हरी  धनिया’ कहते थे, उन्हें  पता ही नहीं होता है कि शाखा में क्या चल रहा है।  हर काम को टालने की आदत,और जब काम सफलतापूर्वक सम्पन्न हो जाता तो उनके अंदर श्रेय लेने की हड़बड़ी मच जाती। बाॅस के केबिन जाकर मक्खन लगाते हुए कहते इतनी आसानी से सब काम बढ़िया निपट गया। साथ वाले मंद मंद मुस्कुराते, और कहते ‘हरी धनिया’ में यही तो खासियत होती है कि सब्जी बन जाने के बाद उसे परोसने के समय डाला जाता है,और फिर सब्जी के सारे स्वाद का श्रेय उसे मिल जाता है। एक दिन बाॅस ने हमसे पूछ लिया कि तुम्हारे साथी को ‘हरी धनिया’ कहकर सब लोग क्यों चिढ़ाते हैं, तो हमने बाॅस को सब्जी बनने के बाद हरी धनिया  का रोल समझाया तो साहब ने जोरदार ठहाका लगाया, और बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़े। फिर धनिया महराज ने उन्हें जूता सुंघा कर कुर्सी में बैठाया। 

एक दूसरी शाखा में एक चतुरा मिला। केवल नाम के लिए  चुटकी भर काम में हाथ डालता था और साहब के हाथ में चाटुकारिता की हींग लगाकर गोपनीय रिपोर्ट में सबसे ज्यादा अंक प्राप्त कर लेता था।

अपन तो हर शाखा में अदरक की तरह कूटे जाते थे और जब शाखा की रेटिंग सुधर जाती या बाॅस का प्रमोशन हो जाता तो अपन को चाय जैसे छानकर बाहर ट्रान्सफर कर दिया जाता। अपनी ईमानदारी के कारण हम न हरी धनिया बन पाए, न हींग बने, न टमाटर…

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #200 ☆ व्यंग्य – ‘गाँव का दामाद’ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘गाँव का दामाद’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 199 ☆

☆ व्यंग्य ☆ ‘गाँव का दामाद’

जनार्दन को हम लोग ‘जनार्दन द ग्रेट’ कहते हैं। एकदम व्यवहारिक आदमी है, ‘मैटर ऑफ फैक्ट’। जनार्दन उन लोगों में से हैं जो गुलाब की कद्र उसकी खूबसूरती के कारण नहीं, बल्कि गुलकंद या गुलाबजल की वजह से करते हैं। ऐसे ही लोग इस असार संसार में धन-धान्य का संग्रह कर सुख की स्थिति को प्राप्त प्राप्त होते हैं।

जनार्दन मुझे पसन्द करता है। शायद इसका कारण यह है कि मैं सांसारिक मामलों में उतना ही बोदा हूँ जितना वह सिद्ध है। विज्ञान के हिसाब से विपरीत ध्रुव एक दूसरे को आकर्षित करते हैं। मैं जनार्दन के साथ प्रतियोगिता में खड़ा नहीं होता, इसीलिए वह मेरा साथ पसन्द करता है। मेरे साथ वह बहुत ‘रिलैक्स्ड’ महसूस करता है।

जनार्दन अभी कुँवारा है और बड़ी बोली लगाने वालों की तलाश में है। उसकी नज़र में धन जीवन में सबसे अहम चीज़ है। धन होने पर अन्य विभूतियाँ अपने आप खिंची चली आती हैं। उसकी नज़र साध्यों पर रहती है, साधनों के औचित्य को लेकर मगजपच्ची करना उसकी फितरत में नहीं है।

जनार्दन यारबाश आदमी है। अकेले कहीं आना जाना या तनहाई में वक्त गुज़ारना उसे पसन्द नहीं। एक दिन मुझसे बोला, ‘तुम्हें अपने भाई की ससुराल घुमा लाता हूँ। सिर्फ चार घंटे का सफर है। दो दिन रह कर लौट आएंगे। बहुत दिन से जाने की सोच रहा हूँ।’

उसकी नज़र में ससुराल एक ऐसा स्थान था जहाँ दामाद और दामाद के रिश्तेदारों को हमेशा उत्तम सेवा पाने का अधिकार था। उसका मत था कि ससुराल को जितना दुहा जा सके, निश्चिंत होकर कर दुहना चाहिए।

मेरे लाख मना करने पर भी वह मुझे पकड़ कर ले गया। जहांँ हम उतरे वह एक गाँव था, सड़क से दो तीन फर्लांग दूर। सड़क पर तीन चार दूकानें थीं। हमारे पास हैंडबैग थे। मैं अपना हैंडबैग लेकर बढ़ने लगा तो जनार्दन ने मुझे रोका, कहा, ‘हैंडबैग यहीं दूकान पर छोड़ देते हैं।’

मैंने विरोध किया,कहा, ‘ज़रा सा तो वज़न है।’

जनार्दन ने हाथ उठाकर घोषणा की, ‘इज्जत का सवाल है। यह हमारे समाज का शाश्वत नियम है कि दामाद को कोई भी बोझ नहीं उठाना चाहिए।’

मैंने उसे समझाने की कोशिश की तो उसने कुछ नाराज़ होकर कहा, ‘भैया, यह ‘डिग्निटी ऑफ लेबर’ का सिद्धांत थोड़ी देर के लिए छोड़ दो। मैं इन थोथे सिद्धांतों के चक्कर में अपनी पुरानी परंपराओं को नहीं छोड़ सकता।’

हम हैंडबैग दूकान पर छोड़ कर गाँव में दाखिल हुए। वह एक बड़े से खपरैल वाले मकान के सामने मुझे ले गया। सामने मचिया पर एक वृद्ध बैठे थे। जनार्दन को देखकर वे हड़बड़ा गये। दौड़कर घर के भीतर आवाजें देने लगे,’अरे देखो, छोटे कुँवर साहब आये हैं।’

घर में भगदड़ मच गयी। वृद्ध जनार्दन के भैया के ससुर थे। जल्दी उनके दो पुत्र निकले। राम-रहीम हुई।दो तीन लड़कियाँ निकलीं। सलज्ज मुस्कान फेंक कर खड़ी हो गयीं। दूर कई घूँघट और बिना घूँघट वाले चेहरे हमारी तरफ ताक-झाँक करते दिखने लगे। जनार्दन ने ससुर साहब के घुटने छूकर आदर देने की रस्म पूरी की।

जल्दी ही बाल्टी में पानी और लोटा लिये एक सेवक आया। ससुर साहब बोले, ‘हाथ पाँव धो लीजिए।’

सेवक अपने हाथों से जनार्दन के चरण धोने लगा और जनार्दन निर्विकार भाव से धुलवाते रहे। मेरी बारी आयी तो मैंने सेवक के हाथ से लोटा ले लिया। जनार्दन की कुपित दृष्टि और ससुर साहब के इसरार के बावजूद मैंने सेवक की सेवा नहीं ली।

लड़कियाँ पानी शर्बत ले आयीं। फिर थोड़ी देर में चाय, मिठाई, नमकीन का दौर हुआ। जनार्दन बहुत महत्वपूर्ण होने का ‘पोज़’ मार रहा था। उसके ‘पोज़’ से मुझे असुविधा हो रही थी।

तब तक शाम हो गयी थी। दोनों साले जनार्दन से घुल घुल कर बात कर रहे थे। लड़कियाँ भी वहीं  भिनभिना रही थीं। मैं इस सब में फिट नहीं हो पा रहा था, लेकिन जनार्दन आकंठ आनन्द में डूबा हुआ था।

रात को भोजन का बुलावा हुआ। सास जी सामने भोजन कराने के लिए बैठी थीं। सेवक पंखा लिये तैनात था। मनुहार करके ज़बरदस्ती खाना खिलाया गया। लड़कियाँ टिप्पणी करतीं– ‘शरमाइए मत। भूखे रह जाएंगे। फिर हमारी बदनामी करेंगे।’ इस चक्कर में पेट पर खासा अत्याचार हो गया।

बिस्तर पर आकर मैंने पेट बजाकर जनार्दन से कहा, ‘आवभगत इसी रफ्तार से होती रही तो सही सलामत वापस होना मुश्किल है।’

जनार्दन विजय भाव से बोला, ‘सब पच जाएगा। ससुराल का माल है। समझदार लोग कह गये हैं कि पराया अन्न संसार में दुर्लभ है।’

सबेरे से फिर पेट पर आक्रमण शुरू हो गया। नाश्ता इतना ज़बरदस्त हुआ कि भोजन की ज़रूरत खत्म हो गयी। लेकिन भोजन से बचना मुश्किल था।

मैंने जनार्दन से कहा, ‘भाई, मैं मंदाग्नि का स्थापित रोगी हूँ। तुम्हारी ससुराल का यह प्रेम भाव मुझे बहुत मँहगा पड़ेगा।’

जनार्दन ने सिर झटक कर मेरी बात को उड़ा दिया।

वहाँ वह लड़कियों से ऐसे मज़ाक करता था जो शालीनता की परिधि को लाँघ जाते थे। मैंने उसे मना किया तो वह बोला, ‘तुम अनोखे हो। अपने यहाँ सालों सालियों से अश्लील मज़ाक करने का रिवाज है। यह दामादों का सनातन अधिकार है। तुम्हें क्यों बुरा लगता है?’

पूरा परिवार हमारी सेवा में इस तरह लगा था जैसे हम लोग कहीं के फरिश्ते हों। ससुर साहब हम लोगों को देखकर उठ पर खड़े हो जाते। मुझे संकोच लगता, लेकिन जनार्दन उसे सहज भाव से ले रहा था।

उस दिन शाम तक आतिथ्य की मार से मेरी हालत खराब हो गयी। मैंने शाम को जनार्दन से कहा, ‘चलो, थोड़ा टहल कर आते हैं। खाना पचेगा।’

वह पलंग पर पसरता हुआ बोला, ‘पागल हो क्या? यहाँ घर में पलंग है, बिस्तर है, सालियों की मधुर बातें हैं। यह सब छोड़कर सड़क की खाक छानने की तुम्हें क्या सूझ रही है?’

मैंने कहा, ‘चलो गाँव के कुछ लोगों से मिल आते हैं। मन बहलेगा।’

वह बोला, ‘क्या गजब करते हो? हम गाँव के दामाद हैं। हर ऐरे-गैरे के घर नहीं जा सकते। यहीं बैठो।’

वह अपनी जगह से नहीं हिला।

थोड़ी देर में शिष्टाचार प्रदर्शन के लिए गाँव के सात आठ लोग हमारे पास आकर बैठ गये। उनके बीच में जनार्दन ऐसे मुँह बना कर बैठ गया जैसे कहीं का राजकुमार हो। उनसे बात करता जो एकदम सर्वज्ञ की मुद्रा में,जैसे वे मूढ़ जाहिल हों।

उनमें से एक कुछ हीनता के भाव से बोला, ‘कुँवर साहब, हमारा मुन्ना बारहवीं में फैल कर गया है। उसकी नौकरी आपको लगवाना है। आप कहो तो साथ भिजवा दें।’

जनार्दन ठसक से बोला, ‘हाँ हाँ जरूर। मेरी पहचान के कई लोग हैं शहर में। लेकिन अभी साथ भेजने की जरूरत नहीं है। मैं वहाँ से फोन करूँगा, तब भेज देना।’

लड़के के बाप ने गद्गद होकर हाथ जोड़े।

बाद में मैंने जनार्दन से कहा, ‘क्यों झूठी शेखी बघारता है?’

वह कुटिल हँसी हँसकर बोला, ‘अपनी गाँठ से क्या जाता है? वह भी खुश, हम भी खुश।’

छोटे साले से वह बोला, ‘इस साल मटर वटर कैसी आयी है?’

थोड़ी देर में मटर से भरी बड़ी थाली आ गयी। मैंने उससे पूछा, ‘इतना तो ठूँस रहे हो। अब इसे कहाँ रखोगे?’

वह हँसकर बोला, ‘मटर की थैली में। सब पदार्थों के लिए अलग अलग थैलियाँ होती हैं। चिन्ता मत करो। जिसने खाने के लिए मुँह दिया है वह पचाने की व्यवस्था भी करेगा।’

एक दिन वहाँ और ठहर कर और पेट का पूरा सत्यानाश कर के हमने लौटने की तैयारी की। चलते वक्त सास जी ने हमें पाँच पाँच सौ रुपये दिये। जनार्दन ने निश्चिंत भाव से जेब में रख लिये। मैंने पूछा, ‘यह किस लिए?’ सास जी ने जवाब दिया, ‘मिठाई खाने के लिए।’ जनार्दन ने मेरी तरफ देख कर आँख दबायी। बाद में बोला, ‘आती हुई लक्ष्मी का हमेशा स्वागत करना चाहिए। और फिर ससुराल में जो मिल जाए उसे थोड़ा समझ कर रख लेना चाहिए।’

हमारे बैग सेवक के हाथ में थे। मटर की एक बोरी भी थी। बस अड्डे के रास्ते में देखा, जनार्दन के चेहरे पर कुछ कष्ट का भाव था। पूछा, ‘क्या बात है?’

वह बोला, ‘पेट में तकलीफ है।’

बस अड्डे पर बैठा हुआ वह बार-बार पहलू बदलता रहा, पेट को दबाता रहा। दूर खेतों के पास गड्ढों में भरे पानी को हसरत की निगाह से देखता। मैंने कहा, ‘प्यारे भाई, सीधे बैठे रहो। यहाँ तुम गाँव के कुँवर साहब हो। कोई ऐसी हरकत मत करना कि तुम्हारी इज्जत में बट्टा लग जाए।’

बस में भी उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। बस चलने के साथ उसकी कुँवर साहबी के छिलके एक-एक कर उतर रहे थे और वह तेजी से वापस जनार्दन बन रहा था। मैंने कहा, ‘भाई, यह जो तुम्हें पाँच सौ रुपये ससुराली धन के रूप में मिले हैं, लगता है वे किसी डॉक्टर के खाते में चढ़ जाएँगे।’

वह चुप बैठा था। थोड़ी देर में मैंने कहा, ‘कहो कुँवर साहब! क्या हाल है?’

वह कुढ़ कर बोला, ‘चूल्हे में गयी कुँवर साहबी। तुम शहर पहुँचकर मेरी दवा- दारू का इंतजाम करो। कुँवारा आदमी हूँ। बीमार पड़ जाऊँगा तो कोई दो रोटी भी नहीं देगा।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 157 ☆ मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 157 ☆

☆ मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः

मन ही मानव के बंधन और मोक्ष का कारण है। ये पंक्तियाँ जब सत्संग में सुनी तो बरबस आगे की चर्चा को मन आतुर हो उठा, सही कहा गया है कि मौसम के अनुसार रंग रूप बदलने की क्षमता केवल गिरगिट में ही नहीं महत्वाकांक्षी व्यक्तियों में भी पायी जाती है। ये आवश्यकता अनुसार परिवर्तन करते जाते हैं। अपनी गोटी किसी भी तरह जीत की ओर ले जानी है। इस समय सावन का महीना है। बारिश गर्मी की तपन को दूर करती है साथ ही साथ सूखे हुए वृक्ष व झाड़ियों में प्राण भर देती है। जीवंत हरियाली इसी की देन है। ग्रीष्म और शीत के बीच सेतु का कार्य ये बूंदे बखूबी कर रहीं हैं। जून, जुलाई, अगस्त, सितंबर ये चार माह धरती की प्यास को बुझा कर पूरे वर्ष भर का पानी एकत्र कर लेते हैं। शायद यही कारण है कि चौमासे में सारे कार्य तो बंद हो जाते हैं पर तीज त्योहार बहुत मनाये जाते हैं। मन है कि मानता नहीं वो अपनी चाहत को पाने हेतु कभी भी जोड़- तोड़ करने से नहीं चूकता।

समय के साथ -साथ प्रकृति ने भी अपने स्वरूप को बदलते हुए बारिश को कहीं बहुत अधिक तो कहीं बहुत कम कर दिया है। और ये अब केवल तीन महीनों में सिमट कर रह गयी है। वर्षा का चक्र भी अपनी बूंदों को सुरक्षित रखने की कोशिश करने लगा है।

चौमासे का अस्तित्व संकट में दिखना कहीं न कहीं संकेत है कि अगर वर्षा का मान नहीं रखा तो जल्दी ही बूंदों की संख्या कम होगी जिससे जीवन की गति अनछुई नहीं रह सकती।

मेरा तेरा के चक्कर में व्यक्ति इस तरह उलझा हुआ है कि क्या- क्या न बटोर ले, ये समझ ही नहीं पा रहा और लगा हुआ है लालच की जद्दोजहद में।

क्या आपने कभी गौर किया कि जिस चीज पर आपकी आसक्ति सबसे ज्यादा होती है वही चली जाती है, बात साफ है कि लगाव ही दुःख का कारण होता है इसलिए ईश्वर अपने भक्तों को वो नहीं देना चाहते जो उनके मोक्ष में बाधक बनें।

अतः हर स्थितियों में समभाव रखते हुए प्रसन्नता पूर्वक जिएँ और जीने दें।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 195 ☆ हरिशंकर परसाई जन्मशती विशेष – विकलांग श्रद्धा का दौर ☆ प्रस्तुति – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है हरिशंकर परसाई जन्मशती के अवसर पर उनका सुप्रसिद्ध व्यंग्य – “विकलांग श्रद्धा का दौर)

☆ हरिशंकर परसाई जन्मशती विशेष – विकलांग श्रद्धा का दौर ☆ प्रस्तुति – श्री जय प्रकाश पाण्डेय  

परसाई जन्मशती पर उनका एक महत्वपूर्ण व्यंग्य  –  “विकलांग श्रद्धा का दौर”

अभी-अभी एक आदमी मेरे चरण छूकर गया है। मैं बड़ी तेजी से श्रद्धेय हो रहा हूं, जैसे कोई चालू औरत शादी के बाद बड़ी फुर्ती से पतिव्रता होने लगती है। यह हरकत मेरेसाथ पिछले कुछ महीनों से हो रही है कि जब तब कोई मेरे चरण छू लेता है। पहले ऐसानहीं होता था। हों, एक बार हुआ था, पर वह मामला वहीं रफा-दफा हो गया। कई साल पहले एक साहित्यिक समारोह में मेरी ही उम्र के एक सज्जन ने सबके सामने मेरे चरणछू लिए। वैसे चरण छूना अश्लील कृत्य की तरह अकेले में ही किया जाता है। पर वह सज्जन सार्वजनिक रूप से कर बैठे, तो मैंने आसपास खड़े लोगों की तरफ गर्व से देखा तिलचट्टों देखो मैं श्रद्धेय हो गया। तुम घिसते रहो कलम पर तभी उस श्रद्धालु ने मेरापानी उतार दिया। उसने कहा, “अपना तो यह नियम है कि गौ, ब्राह्मण, कन्या के चरण जरूर छूते हैं। यानी उसने मुझे बड़ा लेखक नहीं माना था। बम्हन माना था। श्रद्धेय बनने की मेरी इच्छा तभी मर गई थी। फिर मैंने श्रद्धेयों की दुर्गति भीदेखी। मेरा एक साथी पी-एच.डी. के लिए रिसर्च कर रहा था। डॉक्टरेट अध्ययन औरज्ञान से नहीं,  आचार्य-कृपा से मिलती है। आचार्यों की कृपा से इतने डॉक्टर हो गए हैं किबच्चे खेल-खेल में पत्थर फेंकते हैं तो किसी डॉक्टर को लगता है। एक बार चौराहे परयहाँ पथराव हो गया। पाँच घायल अस्पताल में भर्ती हुए और वे पाँचों हिंदी के डॉक्टर थे। नर्स अपने अस्पताल के डॉक्टर को पुकारती ‘डॉक्टर साहब’ तो बोल पड़ते थे ये हिंदी के डॉक्टर|

मैंने खुद कुछ लोगों के चरण छूने के बहाने उनकी टांग खींची है। लंगोटी धोने के बहाने लँगोटी चुराई है। श्रद्धेय बनने की भयावहता मैं समझ गया था। वरना मैं समर्थ हूं।अपने आपको कभी का श्रद्धेय बना लेता। मेरे ही शहर में कॉलेज में एक अध्यापक थे।उन्होंने अपने नेम प्लेट पर खुद ही ‘आचार्य’ लिखवा लिया था। मैं तभी समझ गया था कि इस फूहड़पन में महानता के लक्षण हैं। आचार्य बंबईवासी हुए और वहाँ उन्होंने अपनेको ‘भगवान रजनीश’ बना डाला। आजकल वह फूहड़ से शुरू करके मान्यता प्राप्त भगवान हैं। मैं भी अगर नेम प्लेट में नाम के आगे ‘पंडित’ लिखवा लेता तो कभी का ‘पंडितजी’ कहलाने लगता। सोचता हूं, लोग मेरे चरण अब क्यों छूने लगे हैं? यह श्रद्धा एकाएक कैसे पैदा होगई? पिछले महीनों में मैंने ऐसा क्या कर डाला? कोई खास लिखा नहीं है। कोई साधना नहीं की। समाज का कोई कल्याण भी नहीं किया। दाड़ी नहीं बढ़ाई। भगवा भी नहीं पहना। बुजुर्गी भी कोई नहीं आई। लोग कहते हैं, ये वयोवृद्ध हैं। और चरण छू लेते हैं। वे अगर कमीने हुए तो उनके कमीनेपन की उम्र भी 60-70 साल हुई। लोग वयोवृद्ध कमीनेपन के भी चरण छू लेते हैं। मेरा कमीनापन अभी श्रद्धा के लायक नहीं हुआ है।

इस एक साल में मेरी एक ही तपस्या है टांग तोड़कर अस्पताल में पड़ा रहा हूं। हड्डी जुडने के बाद भी दर्द के कारण टांग फुर्ती से समेट नहीं सकता। लोग मेरी इस मजबूरी का नाजायज फायदा उठाकर झट मेरे चरण छू लेते हैं। फिर आराम के लिए मैं तख्त परलेटा ही ज्यादा मिलता हूं। तख्त ऐसा पवित्र आसन है कि उस पर लेटे दुरात्मा के भी चरण छूने की प्रेरणा होती है। क्या मेरी टांग में से दर्द की तरह श्रद्धा पैदा हो गई है? तो यह विकलांग श्रद्धा है।

जानता हूं, देश में जो मौसम चल रहा है, उसमें श्रद्धा की टांग टूट चुकी है। तभी मुझे भी यह विकलांग श्रद्धा दी जा रही है। लोग सोचते होंगे इसकी टांग टूट गई है। यह असमर्थ हो गया। दयनीय है। आओ, इसे हम श्रद्धा दे दें।हां, बीमारी में से श्रद्धा कभी-कभी निकलती है। साहित्य और समाज के एक सेवक से मिलने में एक मित्र के साथ गया था। जब वह उठे तब उस मित्र ने उनके चरण छू लिए। बाहर आकर मैंने मित्र से कहा- “यार तुम उनके चरण क्यों छूने लगे?” मित्र ने कहा- “तुम्हें पता नहीं है, उन्हें डायबटीज हो गया है?” अब डायबटीज श्रद्धा पैदा करे तो टूटी टांग भी कर सकती है। इसमें कुछ अटपटा नहीं है। लोग बीमारी से कौन फायदे नहींउठाते। मेरे एक मित्र बीमार पड़े थे। जैसे ही कोई स्त्री उन्हें देखने आती, वह सिर पकड़ कर कराहने लगते । स्त्री पूछती “क्या सिर में दर्द है?” वे कहते “हां, सिर फटा पड़ता है।” स्त्री सहज ही उनका सिर दबा देती। उनकी पत्नी ने ताड़ लिया। कहने लगी- “क्यों जी, जब कोई स्त्री तुम्हें देखने आती है तभी तुम्हारा सिर क्यों दुखने लगता है?”

उसने जवाब भी माकूल दिया। कहा “तुम्हारे प्रति मेरी इतनी निष्ठा है कि परस्त्री को देखकर मेरा सिर दुखने लगता है। जान प्रीत रस इतनेहु माहीं ।”

श्रद्धा ग्रहण करने की भी एक विधि होती है। मुझसे सहज ढंग से अभी श्रद्धा ग्रहण नहीं होती। अटपटा जाता हूं। अभी ‘पार्ट टाइम’ श्रद्धेय ही हूं। कल दो आदमीआए। वे बात करके जब उठे तब एक ने मेरे चरण छूने को हाथ बढ़ाया। हम दोनों ही नौसिखुए। उसे चरण छूने का अभ्यास नहीं था, मुझे छुआने का। जैसा भी बना उसने चरण छू लिए। पर दूसरा आदमी दुविधा में था। वह तय नहीं कर पा रहा था कि मेरे चरण छुए या नहीं। मैं भिखारी की तरह से देख रहा था। वह थोड़ा सा झुका। मेरी आशा उठी। पर वह फिर सीधा हो गया। मैं बुझ गया। उसने फिर जी कड़ा करके कोशिश की।

थोड़ा झुका। मेरे पांवों में फड़कन उठी। फिर वह असफल रहा। वह नमस्ते करके ही चला गया। उसने अपने साथी से कहा होगा- तुम भी यार कैसे टुच्चों के चरण छूते हो। मेरे श्रद्धालु ने जवाब दिया होगा काम निकालने को उल्लुओं से ऐसा ही किया जाता है। इधरमुझे दिन-भर ग्लानि रही। मैं हीनता से पीडित रहा। उसने मुझे श्रद्धा के लायक नहीं समझा | ग्लानि शाम को मिटी जब एक कवि ने मेरे चरण छुए। उस समय मेरे एक मित्र बैठे थे। चरण छूने के बाद उसने मित्र से कहा, “मैंने साहित्य में जो कुछ सीखा है,परसाईजी से।” मुझे मालूम है, वह कवि सम्मेलनों में छूट होता है। मेरी सीख का क्या यही नतीजा है? मुझे शर्म से अपने आपको जूता मार लेना था। पर मैं खुश था। उसने मेरे चरण छू लिए थे। 

अभी कच्चा हूं। पीछे पड़ने वाले तो पतिव्रता को भी छिनाल बना देते हैं। मेरे ये श्रद्धालु मुझे पक्का श्रद्धेय बनाने पर तुले हैं। पक्के सिद्ध श्रद्धेय मैंने देखे हैं। सिद्ध मकरध्वज होते हैं। उनकी बनावट ही अलग होती है। चेहरा, आंखे खींचने वाली पांव ऐसे कि बरबस आदमी झुक जाए। पूरे व्यक्तित्व पर श्रद्धेय लिखा होता है। मुझे ये बड़े बौड़म लगते हैं। पर ये पक्के श्रद्धेय होते हैं। ऐसे एक के पास मैं अपने मित्र के साथ गया था। मित्र ने उनके चरण छुए जो उन्होंने विकट ठंड में भी श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए चादरसे बाहर निकाल रखे थे। मैंने उनके चरण नहीं हुए। नमस्ते करके बैठ गया। अब एकचमत्कार हुआ। होना यह था कि उन्हें हीनता का बोध होता कि मैंने उन्हें श्रद्धा के योग्य नहीं समझा। हुआ उल्टा। उन्होंने मुझे देखा और हीनता का बोध मुझे होने लगा- हायमैं इतना अधम कि अपने को इनके पवित्र चरणों को छूने के लायक नहीं समझता। सोचता हूं, ऐसा बाध्य करने वाला रोब मुझ ओछे श्रद्धेय में कब आयेगा। 

श्रद्धेय बन जाने की इस हल्की सी इच्छा के साथ ही मेरा डर बरकरार है। श्रद्धेय बनने का मतलब है ‘नान परसन’ अव्यक्ति हो जाना। श्रद्धेय वह होता है जो चीजों को हो जाने दे। किसी चीज का विरोध न करे जबकि व्यक्ति की, चरित्र की पहचान ही यहहै कि वह किन चीजों का विरोध करता है। मुझे लगता है, लोग मुझसे कह रहे हैं तुमअब कोने में बैठो। तुम दयनीय हो। तुम्हारे लिए सब कुछ हो जाया करेगा। तुम कारण नहीं बनोगे। मक्खी भी हम उड़ाएंगे। और फिर श्रद्धा का यह कोई दौर है देश में? जैसा वातावरण है, उसमें किसी को भी श्रद्धा रखने में संकोच होगा। श्रद्धा पुराने अखबार की तरह रद्दी में बिक रही है।

विश्वास की फसल को तुषार मार गया । इतिहास में शायद कभी किसी जाति को इस तरह श्रद्धा और विश्वास से हीन नहीं किया गया होगा। जिस नेतृत्व पर श्रद्धा थी, उसे नंगा किया जा रहा है। जो नया नेतृत्व आया है, वह उतावली में अपने कपड़े खुद उतार रहा है। कुछ नेता तो अंडरवियर में ही हैं। कानून से विश्वास गया। अदालत से विश्वास छीन लिया गया। बुद्धिजीवियों की नस्ल पर ही शंका की जा रही है। डॉक्टरों को बीमारी पैदा करने वाला सिद्ध किया जा रहा है। कहीं कोई श्रद्धा नहीं विश्वास नहीं ।अपने श्रद्धालुओं से कहना चाहता हूं- “यह चरण छूने का मौसम नहीं, लात मारने का मौसम है। मारो एक लात और क्रांतिकारी बन जाओ।”

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #199 ☆ व्यंग्य – ‘स्वर्ग में कुपात्र’ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘स्वर्ग में कुपात्र’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 199 ☆

☆ व्यंग्य ☆ ‘स्वर्ग में कुपात्र’

उस रात मल्लू मेरे सपने में आ गया। मैंने उसे देखकर पूछा, ‘कैसा है भैया? नरक में मज़े में तो है?

मेरा सवाल सुनकर वह तरह तरह के मुँह बनाने लगा। लगा, अभी रो देगा। थोड़ा सँभल कर बोला, ‘भैया, मैं तो बुरा फँस गया। मेरे साथ धोखा हो गया। मुझे पक्का भरोसा था कि मुझे मौत के बाद नरक में जगह मिलेगी, वहाँ अपने जैसे लोगों के साथ अच्छी कटेगी, लेकिन यहाँ आने पर पता चला कि मुझे स्वर्ग भेज दिया गया। अब मैं बहुत परेशान हूँ।’

मल्लू दो महीने पहले सड़क पर एक्सीडेंट में चोट खाकर दुनिया से रवाना हुआ था। उसकी फितरत को देखकर हम समझ गए थे कि वह सड़क पर अपने आसपास चलती महिलाओं को घूरने के चक्कर में किसी गाड़ी से टकराया होगा। हम जब तक अस्पताल पहुँचे तब तक वह रुखसत हो चुका था। हमने ज़िन्दगी भर उसे नरक का ‘मटीरियल’ ही समझा था। इसीलिए अभी उसके स्वर्ग पहुँचने की जानकारी पाकर ताज्जुब हुआ।

उसकी बात सुनकर मैंने कहा, ‘यह तो अच्छा ही हुआ कि सारे दुर्गुणों के बावजूद तू स्वर्ग में प्रवेश पा गया। इसमें दुखी होने की क्या बात है? तुझे तो खुश होना चाहिए।’

वह बोला, ‘नहीं भैया, ये स्वर्ग अपने को जमता नहीं। यहाँ कोई अपने जैसा आदमी नहीं, जिससे मन की बात हो सके। सब तरफ साधु- सन्त टाइप लोग, पेड़ों के नीचे आँखें मूँदे बैठे, माला जपते रहते हैं। कुछ देवता-टाइप लोग, मुकुट पहने, रथों पर दौड़ते फिरते हैं। कहीं पढ़ा था कि यहाँ अप्सराओं के दर्शन होंगे, लेकिन यहाँ तो सैकड़ों साल की वृद्धाओं के ही दर्शन होते हैं, जिन्हें देखते ही चरण छूने की इच्छा होती है। यह भी पढ़ा था कि यहाँ दूध, शहद और सोमरस की  नहरें बहती हैं, लेकिन अभी तक कुछ दिखायी नहीं पड़ा। दूध और शहद से तो हमें कुछ लेना- देना नहीं, सोमरस की नहर मिल जाती तो उसी के किनारे पड़े रहते। वक्त अच्छा कट जाता। अभी तो कष्ट ही कष्ट है।’

मैंने कहा, ‘वहाँ कुछ बखेड़ा कर ले तो शायद नरक का नंबर लग जाए।’

वह लंबी साँस लेकर बोला, ‘कोई फायदा नहीं है। मैंने यहाँ एक दो लोगों से बात की तो बताया गया कि मुझे पुण्य क्षय होने तक यहीं रहना पड़ेगा। अब मैंने कोई पुण्य किया ही नहीं है तो क्षय क्या होगा?’

दो दिन बाद वह फिर मेरे सपने में प्रकट हो गया। बोला, ‘भैया, मुझे पता चल गया है कि मुझे स्वर्ग क्यों भेजा गया। दरअसल मैं एक्सीडेंट के बाद बड़ी देर तक ‘मरा मरा’ चिल्लाता रहा। उसी में स्वर्ग-नरक के प्रबंधकों को कुछ ‘कनफ्यूज़न’ हो गया और मुझे राम-भक्त समझकर स्वर्ग भेज दिया गया। मुझे लगता है कि जैसे धरती पर हमारे देश में बड़े बॉस का नाम जपते जपते लोग परम पद प्राप्त कर लेते हैं, वैसे ही यहाँ भी बॉस का नाम सुनते ही स्वर्ग का टिकट पक्का हो जाता है, भले ही उसमें गलतफहमी हो। मैंने कभी अजामिल की कथा पढ़ी थी जो सिर्फ इसलिए स्वर्ग का अधिकारी हो गया था कि वह अपने बेटे को बुलाता रहता था। बेटे का नाम नारायण था। कुछ वैसा ही मेरे साथ हुआ। अब जो हुआ सो हुआ। पुण्य क्षय होने तक इंतज़ार करने के सिवा कोई रास्ता नहीं है।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 155 ☆ क्षणे नष्टे कुतो विद्या, कणे नष्टे कुतो धनम्… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “कहत धतूरे सों कनक, गहनों गढ़ो न जाए…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 155 ☆

☆ क्षणे नष्टे कुतो विद्या, कणे नष्टे कुतो धनम्

गणित का एक सूत्र है (माइनस + माइनस) = 2 माइनस अर्थात वे जुड़ जाते हैं। इसे कहावत के रूप में समझें तो चोर-चोर मौसेरे भाई। जोड़ तोड़ का बंधन हमेशा ही लुभावना होता है। सच्चे मोती अपनी माला में कोई लोक लुभावन लटकन नहीं रखते क्योंकि उनकी सच्चाई उनकी चमक से पता चल जाती है। जबकि अस्त व्यस्त नकली मोती सफेद परत चढ़ाकर रंगीन काँच के टुकड़ों को भी साथ में जोड़ते हुए आकर्षक बनने की पुरजोर कोशिश करते हैं। कहीं बड़ा, कहीं छोटा, कोई भी मेल न होते हुए भी एक धागे से जुड़कर मला का स्वरूप पाना चाहते हैं।

सच्चाई भी यही है कि बिखरे हुए फूलों को कोई नहीं पूछता जबकि गुँथी हुई माला ईश के गले में स्थान पाती है। इससे वंदनवार भी बनाया जा सकता है, घर की शोभा बढ़ाने के साथ मंगलकामना का  भी प्रतीक बन जाते हैं। इस सबमें समय का सदुपयोग करना बहुत जरूरी है, हर पल कीमती है, जब सही समय पर माला बनेगी तभी तो पूजन के काम में आएगी अन्यथा इंतजार का क्षण भारी होना तय है। एक – एक पैसे का हिसाब रखने वाले भले ही कंजूस की श्रेणी में क्यों न आते हों किन्तु समय पर उन्हें किसी के आगे झोली नहीं फैलानी पड़ती है।

सब धान बाइस पसेरी भले हो जाए किन्तु हर किस्म के  मोतियों को जुड़ना चाहिए, ये बात अलग है कि कमजोर धागा मोतियों के भार को सहन करने में अक्षम हुआ तो अबकी बार सारे मोती बिखर कर दूर – दूर हो जायेंगे। वैसे भी मजबूत धागा बनाने के लिए अच्छा सूत होना चाहिए। जब सब कुछ अच्छा होगा तो टिकाऊपन बढ़ेगा। लोग भी कमजोर को धकिया देते हैं। कमतर विचारों को कोई भाव नहीं देता। अच्छा बनें, सच्चा बनें।

अपने उसूलों को तय करते हुए अपनी वास्तविक पहचान के लिए कार्य करना चाहिए। जबरदस्ती में कमजोर के साथ।गठबंधन आपकी कीमत को और कम कर देगा। निर्णय सोच समझकर कर श्रेष्ठ गुरु के नेतृत्व में होना चाहिए। आखिरकार सुंदर और सच्चा मोती सभी को चाहिए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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