हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #191 ☆ व्यंग्य – मुहल्ले का सूरमा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘मुहल्ले का सूरमा ’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 191 ☆

☆ व्यंग्य ☆ मुहल्ले का सूरमा

बल्लू को हमारे मुहल्ले का दादा कह सकते हैं। काम-धंधा कुछ नहीं। दो चार उसी जैसे दोस्त मिल गए हैं, उन्हीं के साथ सारे दिन इधर- उधर डोलता रहता है। अक्सर चौराहे पर हा हा हू हू करता नज़र आता है। कभी सड़क के किनारे दोस्तों के साथ बैठा ताश खेलता है। शाम के बाद आप देखें तो बल्लू और उसके साथी आपको नशे में सड़क के किनारे किसी गिट्टी के ढेर पर पड़े भी मिल सकते हैं।

पता नहीं क्यों मेरे प्रति बल्लू की बड़ी भक्ति है। वह अक्सर मुझे अपने आचरण की सफाई देता रहता है— ‘बड़े भैया, पुरखों ने खूब कमा कर रखा है। दो तीन मकान हैं, जमीन जायदाद है। बाप कमा रहा है, भाई कमा रहे हैं। तो कोई इस कमाई को बराबर करने वाला भी चाहिए। यह काम हम कर रहे हैं। सभी कमाने लगें तो कैसे काम चलेगा?’

और वह खी खी कर हँसने लगता है।

वह इधर-उधर छीन-झपट भी करता है। मुहल्ले के दुकानदारों को आंँखें दिखा कर नशा-पानी के लिए पच्चीस पचास रुपये झटक लेता है। दुकान वाले उसके और उसके साथियों के रंग-ढंग देखकर ज़्यादा झंझट नहीं करते। मुहल्ले में आने वाले सब्जी वालों से भी वह जब तब दस बीस रुपये ऐंठ लेता है।

बल्लू मुझे हँसकर बताता है, ‘क्या करें बड़े भैया, घरवालों पर ज्यादा बोझ डालना ठीक नहीं। थोड़ा बहुत अपने बूते से भी पैदा करना चाहिए। यह दुकानदार सब को लूटते हैं। अगर हम इन्हें थोड़ा सा लूट लेते हैं तो क्या बुरा है?’

बल्लू अक्सर चौराहे पर किसी से उलझता रहता है। दो-चार दिन में उसके साथियों की किसी न किसी से झंझट या थोड़ी बहुत मारपीट होती रहती है। अक्सर चौराहे पर मजमा लग जाता है। बल्लू ऐसे मौकों पर अपनी पूरी शूरवीरता दिखाता है। लाठियाँ, साइकिल की चेनें और चाकू हवा में लहराते हैं, लेकिन अक्सर वे चलते नहीं।

बल्लू में एक और खराब आदत है, आते जाते लोगों को परेशान करने की। चौराहे पर वह किसी को भी रोक कर उसे तंग करता है। कोई धोती वाला देहाती हुआ तो उसकी धोती की लाँग खींच देता है। कभी किसी की बुश्शर्ट उतरवा कर अपने पास रख लेता है। किसी को रोककर उससे घंटों ऊलजलूल सवाल करना और फिर ताली पीट-पीटकर ठहाका लगाना उसका प्रिय खेल है। आसपास रहने वाले उसकी इस हरकत पर भौंहें चढ़ाते हैं, लेकिन उनकी सफेदपोशी उन्हें बल्लू और उसके साथियों से उलझने नहीं देती।

मैं समझाता हूँ तो बल्लू कहता है, ‘अरे बड़े भैया, थोड़ा सा मनोरंजन ही तो करते हैं, वह भी आप लोगों को बुरा लगता है। कौन किसी की जान लेते हैं। आप लोगों से हमारा थोड़ा सा भी सुख देखा नहीं जाता।’

एक दिन दुर्भाग्य से बल्लू ने मनोहर को पकड़ लिया। मनोहर दिमाग से कुछ कमज़ोर है। बगल की डेरी में वह दूध लेने जाता  है। एक शाम बल्लू ने उसे रोक लिया और घंटे भर तक उसे बहुत परेशान किया। मनोहर चीखता- चिल्लाता रहा, लेकिन बल्लू ने उसे घंटे भर तक नहीं छोड़ा। उसके थोड़ी देर बाद ही चौराहे पर मजमा लग गया। पता चला कि मनोहर का बड़ा भाई झगड़ा करने आया था। काफी देर तक गरम बातचीत होती रही, लेकिन बल्लू के साथियों की उपस्थिति के कारण उसी का पलड़ा भारी रहा। मनोहर का भाई स्थिति को अपने पक्ष में न देख कर लौट गया।

इस घटना के दो दिन बाद ही रात को बल्लू के घर पर आक्रमण हुआ। पन्द्रह बीस लोग थे, लाठियों और दूसरे हथियारों से लैस। बड़ी देर तक लाठियाँ पटकने की और गन्दी गालियों की आवाज़ें आती रहीं। सौभाग्य से बल्लू बाबू उस वक्त अपने दोस्तों के साथ कहीं मटरगश्ती कर रहे थे, इसलिए उस वक्त वे हमलावरों के हाथ नहीं पड़े। लगभग आधे घंटे तक लाठियाँ पटक कर वे लौट गये।

दूसरे दिन सबेरे मैंने देखा कि बल्लू पागलों की तरह अपने घर के सामने घूम रहा था। उसके साथी भी व्यस्तता से उसके आसपास चल- फिर रहे थे। थोड़ी देर बाद वह मेरे घर आ गया। सोफे पर बैठ कर वह उसके हत्थे पर बार-बार मुट्ठियाँ पटकने लगा। दाँत पीसकर बोला, ‘बड़े भैया, हमारी बड़ी इंसल्ट हो गई। अरे, हमारे घर कोई हमें मारने आये और बिना हाथ-पाँव तुड़ाये वापस चला जाए? अरे, हम उस वक्त घर में क्यों न हुए! हमारी बड़ी किरकिरी हो गयी, बड़े भैया।’

वह मिसमिसा मिसमिसा कर अपने बाल नोचता था और सोफे के हत्थे पर बार-बार मुट्ठियाँ पटकता था। फिर बोला, ‘अब आप हमारा भी जोर देखना, बड़े भैया। मैंने भी उनके हाथ पाँव न तोड़ दिये तो मेरा नाम बल्लू उस्ताद नहीं।’ कहते हुए उसने अपनी छोटी सी मूँछ पर हाथ फेरा।

बल्लू तो अपनी योजना ही बनाते रह गये और दो-तीन दिन बाद रात को फिर उनके घर पर जोरदार हमला हुआ। उस रात बल्लू बाबू अपने तीन चार साथियों के साथ घर पर ही थे। उनके पास भी कुछ अस्त्र-शस्त्र थे, लेकिन जब उन्होंने हमलावरों की संख्या और उनके तेवर देखे तब वे जान बचाने के लिए पीछे की दीवार फाँद कर भागे। बल्लू बाबू भी भागे, लेकिन भागते भागते भी हमलावरों ने उनके पृष्ठ भाग पर एक लाठी समर्पित कर दी ताकि सनद रहे और सावन- भादों कसकती रहे। भागते हुए बल्लू बाबू को सुनाई पड़ा— ‘बेटा, भाग कर कहाँ जाओगे? हम तुम्हें छोड़ेंगे नहीं।’

अगले सबेरे बल्लू के घर के सामने सन्नाटा था। दो दिन तक बल्लू मुझे कहीं नहीं दिखा। तीसरे सबेरे देखा वह बगल में एक दरी लपेटे आ रहा था, जैसे कहीं से सो कर आ रहा हो। उसके बाद वह मुहल्ले में घूमता दिखा, लेकिन वह एक अलवान सिर पर ओढ़े, बिलकुल चुपचाप चलता था। उसकी दाढ़ी बढ़ी हुई थी। सिर पर चादर का घूँघट सा डाले वह सिर झुकाए सड़क के किनारे-किनारे एक शान्तिप्रिय नागरिक की तरह चलता था। उसके सारे दोस्त गायब हो गये थे।

एक दिन वह उसी तरह चादर ओढ़े  धीरे-धीरे चलता हुआ मेरे कमरे में आकर बैठ गया। बढ़ी हुई दाढ़ी और चादर में वह पहचान में नहीं आता था।

बैठकर वह थोड़ी देर सिर झुकाये सोचता रहा, फिर धीरे-धीरे बोला, ‘बड़े भैया, सुना है वे लोग फिर कुछ गड़बड़ करने की योजना बना रहे हैं। लेकिन अपन ने सोच लिया है कि अपन को कुछ नहीं करना। अपन हमेशा शान्ति से रहते आये हैं, अपन शान्ति से ही रहेंगे।’

फिर थोड़ा रुक कर बोला, ‘बड़े भैया, आप तो जानते ही हैं मैं शुरू से बहुत सीधा-सादा लड़का रहा हूँ। वह तो संगत खराब मिल गयी, इसलिए थोड़ा बहक गया था। लेकिन अब अपन ने सोच लिया, खराब लड़कों को पास भी नहीं फटकने देना। बस आप लोगों की संगत करूँगा और आराम से रहूँगा।’

वह रुक कर फिर बोला, ‘बड़े भैया, अपन को झंझट बिल्कुल पसन्द नहीं, इसलिए हमने रात को घर में सोना ही छोड़ दिया। कहीं भी इधर उधर सो जाते हैं। अरे, जब हमीं नहीं मिलेंगे तब किस से मारपीट होगी? झगड़े की जड़ ही खतम कर दो।’

फिर वह मेरे मुँह की तरफ देख कर बोला, ‘बड़े भैया, हम आपके पास इसलिए आये हैं कि आप मनोहर के भाई से मिलकर मेरी सुलह- सफाई करा दो। वह आपकी बात मान लेगा। अब जो हो गया सो हो गया। थोड़ी बहुत गलती तो इंसान से हो ही जाती है। आप अभी जाकर बात कर लो तो बड़ी कृपा हो। उस दिन से अपना मन किसी काम में नहीं लगता। मैं यहीं आपका इन्तजार करूँगा।’

मैं मध्यस्थता करने के लिए राजी हो गया। कपड़े बदल कर जब मैं सीढ़ियाँ उतरा तब वह ऊपर से लगातार मुझसे बोले जा रहा था—‘बड़े भैया, यह काम जरूर होना चाहिए। वह माफी माँगने को कहेंगे तो अपन माफी भी माँग लेंगे। मुहल्ले वालों से माफी माँगने में अपनी कोई इज्जत नहीं जाती। लेकिन यह काम जरूर होना चाहिए। आपका ही आसरा है।’

वह ऊपर से टकटकी लगाये मुझे देखता रहा और मैं हाथ हिला कर आगे बढ़ गया।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ सारी रिसर्च एक तरफ… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका व्यंग्य – “सारी रिसर्च एक तरफ।)  

? अभी अभी ⇒ सारी रिसर्च एक तरफ? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

राग दरबारी का मुख्य पात्र रंगनाथ रिसर्च करने को घास खोदना कहता है ! मैं उससे इत्तेफ़ाक नहीं रखता। एक शहरी बुद्धिजीवी होने के नाते, रिसर्च के लिए मेरे मन में बहुत श्रद्धा है। अब चेहरे पर दाढ़ी-मूँछ आने के साथ ही 15-20 लाख का पैकेज पाने वालों से तो आप रिसर्च करने की उम्मीद नहीं ही लगा सकते। कुछ न करने से रिसर्च भली।

रिसर्च वैज्ञानिक भी करते हैं !

अनुसंधान और खोज भी रिसर्च के ही अंग हैं। हम अगर विज्ञान से अपना ध्यान हटाएँ, तो खोज ही रिसर्च प्रतीत होती है। वैसे खोजने और खोदने में ज़्यादा फ़र्क नहीं ! लेकिन खोदने में घास खोदने जितना परिश्रम लगता है। खोजने में तुलनात्मक रूप से कम मेहनत लगती है। ।

रिसर्च के लिए पहले गाइड तलाशा जाता है, या विषय ! यह रिसर्च का विषय नहीं। गाइड ही विषय, और विषय संबंधी सहित्य उपलब्ध कराता है। कितनी लाइब्रेरियों की ख़ाक छाननी पड़ती है, गाइड महोदय की न केवल पर्सनल लाइब्रेरी करीने से जमानी पड़ती है, सब्जी लाने से लेकर, कई तरह के पापड़ भी बेलने पड़ते हैं।

रिसर्च करने को साहित्यिक भाषा में पीएचडी करना कहते हैं। इस दौरान गाइड गुरु द्रोणाचार्य हो जाते हैं, और रिसर्च स्कॉलर एकलव्य ! गाइड द्रोणाचार्य शिष्य एकलव्य का सिर्फ अँगूठा ही छोड़ देते हैं गुरु-दक्षिणा में। ।

आजकल के शिष्य भी कम नहीं ! एक बार डॉक्टरेट हासिल हुई, फिर उनके तेवर बदल जाते हैं। काहे के गाइड ! गरज़ थी, इसलिए गधे को गाइड बना लिया। उसको आता-जाता क्या है। सिर्फ़ साइन करने के पैसे लेते हैं। ऐसे खुदगर्ज़ शिष्यों के प्रति मेरे मन में कतई श्रद्धा नहीं ! गाइड बिन पीएचडी कहाँ से पावै।

एक बार रिसर्च पूरी होने पर वह स्कॉलर डॉक्टर कहलाने का लाइसेंस प्राप्त कर लेता है। विभागों में उसकी पदोन्नति के रास्ते खुल जाते हैं। पत्नी भी उन्हें डॉक साहब कहने में गर्व महसूस करती है। ।

आजकल की पीढ़ी की लत अध्ययन की नहीं है। उसका ज्ञान रोजगारोन्मुखी है। एक बार अच्छे पैकेज मिलने के बाद उसके ज्ञान-चक्षु खुलने का नाम ही नहीं लेते। पढ़ने-पढ़ाने और रिसर्च की सारी जिम्मेदारी गूगल सर्च ने जो ले ली है।

कौन रात भर बल्ब की रोशनी में बैठकर किताबों के पन्ने पलटता है आजकल ! सबकी मुट्ठी में एंड्राइड का चिराग जो आ गया है। उसे तो घिसने की भी ज़रूरत नहीं। जो हुक्म आका की तरह आदेश दें, और गूगल ज्ञान हाज़िर। हर गूगल सर्च करने वाला किसी रिसर्च स्कॉलर से कम नहीं। एक चलता-फिरता महा विद्यालय, विश्व- विद्यालय, कैंब्रिज, हार्वर्ड और ऑक्सफ़ोर्ड जब आसानी से उपलब्ध हो, तो किसी गाइड की भी दरकार क्यों। ।

सारी रिसर्च एक तरफ,

गूगल सर्च एक तरफ़ …!!!

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ माइक्रो व्यंग्य # 186 ☆ “खामोशी की आवाज…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक माइक्रो व्यंग्य  – खामोशी की आवाज”।)

☆ माइक्रो व्यंग्य # 186 ☆ “खामोशी की आवाज…” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

चूहा – प्रिये, देख लिया न मेरा जलवा,मेरे जीते-जी किसी की हिम्मत नहीं है कि कोई मेरे बिल में हाथ डाले, एक मेहमान आये थे तो कुछ बिल्ले चिल्ला रहे थे कि इस चूहे के बिल को हेडक्वार्टर बनाने की घोषणा कर दो, यहां ‘जे’ कर दो यहां ‘वो’ कर दो। प्रिये, तुम देख तो रही हो, बहुत आये और गए, हम अपने बिल के क्षेत्र को सबसे पिछड़ा क्षेत्र बनाना चाहते हैं, जहां कोई घुस न सके, विकास से कोसों दूर रखना चाहते हैं, ताकि लोग हजारों साल बाद भी याद रखेंगे कि चूहों को ऐसा भी सरदार मिला था, जो सबको खामोशी से कुतर देता था। भूल जाओ विकास। विकास का मतलब जानते नहीं और विकास -विकास का पहाड़ा पढ़ते हो।

चुहिया – मुझे प्रिये मत बोलना समझे। तुमने हम लोगों को ठगा है जीवन भर से तुम जिस थाली में खाते रहे उसी में छेद करते रहे, क्रीम लगाकर गोरे बनने का कितना भी प्रयास करो मन काला है तुम्हारा। हमारी खामोशी का मजाक मत उड़ाओ…

‘कभी-कभी खामोशी की आवाज

खंजर से भी खतरनाक होती है..!’

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #190 ☆ व्यंग्य – पुराना दोस्त  ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  पुराना दोस्त  । इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 190 ☆

☆ व्यंग्य ☆ पुराना दोस्त 

‘हेलो, गुल्लू बोलता का?’

‘यहाँ कोई गुल्लू नहीं है। रांग नंबर।’

‘थम्मा, थम्मा। क्या तुम मिस्टर जी सी वर्मा के मकान से नईं बोलते?’

‘हाँ, वहीं से बोलता हूँ।’

‘तो मेरे को मिस्टर गुलाबचंद से बात कराओ न।’

‘मैं गुलाबचंद बोल रहा हूं।’

‘अर्रे गुल्लू, कैसा है भाई?’

‘आप कौन?’

‘सोच तो। मैं कौन?’

‘नहीं समझा।’

‘अर्रे मैं गुप्पी, गोपीनाथ। हम 1968 में साथ साथ धन्नालाल स्कूल में पढ़ते थे। तू मेरे को भूल गया, लेकिन मैं तेरे को नहीं भूला। मैं पुराने दोस्तों को कब्भी नईं भूलता।’

‘सॉरी, मुझे कुछ याद नहीं। अभी क्या कर रहे हो?’

‘नाप-तौल इंस्पेक्टर हूँ। दुकानदारों से वसूली करता हूँ। मज़े में हूँ’।’

‘इस शहर में कब से है?’

‘पन्द्रह साल से।’

‘इत्ते साल में कभी फोन नहीं किया?’

‘क्या बताऊँ! कई बार सोचा, लेकिन हो नहीं पाया। चलो, अब भूल सुधार लेते हैं। डिनर पर घर आ जाओ। कब आ सकते हो?’

‘ऑफिस आ जाओ। बैठ के बात कर लेते हैं।’

‘ठीक है। बाई द वे, अखबार में तुम्हारे ऑफिस का विज्ञापन देखा था, ऑफिस असिस्टेंट के लिए।’

‘निकला था।’

‘मेरे तीसरे बेटे, यानी तुम्हारे भतीजे लट्टू ने बताया। उसकी बड़ी इच्छा है तुम्हारे अंडर में काम करने की। कह रहा था जब चाचाजी हैं तो होइ जाएगा।’

‘अभी क्या करता है?’

‘समाज सेवा। मुहल्ले में बहुत पापुलर है। पुलिसवाले उसके बारे में उल्टा-सीधा बोलते हैं, लेकिन वह बहुत अच्छा लड़का है।’

‘नहीं हो पाएगा। एक आदमी पहले से काम कर रहा है। उसी को रेगुलर करने के लिए विज्ञापन निकाला है।’

‘उसे लटका रहने दो। पहले भतीजे को ले लो। आपकी सेवा करेगा।’

‘आई एम सॉरी। नहीं हो पाएगा।’

‘अरे, क्या सॉरी! आप चाहो तो सब हो सकता है। न करना हो तो बात अलग है। फालतू तुमको बोला।’

‘इसे छोड़ो। यह बताओ कि ऑफिस कब आ रहे हो?’

‘काए को?’

‘वो तुम डिनर विनर की बात कर रहे थे।’

‘उसके बारे में बताऊँगा। वाइफ से पूछना पड़ेगा।’

‘तो वैसेइ आ जाओ। पुराने दिनों की बातें करेंगे।

‘अरे गोली मारो पुराने दिनों को। अभी तो दम लेने की फुरसत नहीं है। अच्छा तो गुडबाय।’

‘गुडबाय।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ व्यंग्य – समाजवादी इत्र… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका व्यंग्य – “समाजवादी इत्र”।)  

? अभी अभी ⇒ व्यंग्य – समाजवादी इत्र? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

नशे से इंसान बहकता है, और इत्र से महकता है ।धर्म और राजनीति दोनों नशे हैं, छलके तेरी बातों से, ज्ञान और ज्यादा, कसमों, वादों का व्योपार और ज्यादा ।

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और सबै भूमि गोपाल की है । सबको बराबर बराबर उनका हक मिले, बस यही समाजवाद है । समाजवाद में घोड़ा गधा एक ही चाल चलता है, और एक ही भाव बिकता भी है ।।

मेरा शहर एक समय पूरा समाजवादी हो गया था ।

देश में तब नेहरू के खिलाफ सिर्फ एक ही आवाज थी, समाजवादी लोहिया की । जब वे कांग्रेस को नहीं हटा सके तो उन्होंने अंग्रेजी हटाओ का नारा दे दिया । सभी व्यवसायिक प्रतिष्ठानों के अंग्रेजी विज्ञापन पत्थरों और तोड़फोड़ के शिकार हुए । लेकिन अंग्रेजी टस से मस नहीं हुई ।

लोहिया कांग्रेस हटाने की बात करते थे और कांग्रेस गरीबी हटाने की । समाजवाद से आचार्य से ओशो बने भगवान रजनीश को भी शिकायत थी । कुएं में भांग की तरह, भोग से समाधि लगवाने वाले ओशो ने भी लोगों को समाजवाद से सावधान रहने का मंत्र दिया । विदेशी घड़ियों और आयातित कारों के शौकीन आचार्य रजनीश आज भी अपने भक्तों में वही स्थान रखते हैं, जो हमारे प्रधान सेवक देश के प्यारे भाइयों और बहनों के दिल में ।।

तब इंदौर का राजवाड़ा, राजवाड़ा जनता चौक कहलाता था । भाइयों और बहनों के लिए यहां अक्सर, शाम को ठीक आठ बजे, आम सभाएं हुआ करती थी, जिनमें अटलबिहारी, और जगन्नाथ राव  जोशी के अलावा कभी जॉर्ज तो कभी मधु लिमये और कभी लाड़ली मोहन निगम जैसे समाजवादी नेताओं के भाषण होते थे । जनता जनार्दन इनके भाषणों से तृप्त होकर ही घर जाती थी ।

तब लोगों ने न तो मोदी जी का नाम सुना था, और ना ही किसी चाय वाले का । राजवाड़े के पास ही एक चाय की दुकान थी जहां की समाजवादी, जनवादी, क्रांतिवादी और जनता चाय मशहूर थी ।हमारे देश में जितनी क्रांति चाय और कॉफी के प्याले में हुई हैं, उतनी अगर यथार्थ में हो जाती, तो, मत पूछिए, देश अब तक कहां से कहां पहुंच जाता।।

गुलाब का फूल हो, या कन्नौज के खस के इत्र की एक शीशी, समाजवाद का इससे बेहतर आज भी  कोई विकल्प नहीं । बारातियों को अगवानी के वक्त खिलते गुलाब की कली पेश कर दी गई और सबके कंधों पर इत्र की वर्षा । मैरिज गार्डन के सजे धजे वेटर्स हाथों में भुने हुए काजू बादाम से आपका स्वागत करते हुए । एक बार अंदर प्रवेश कर जाएं, फिर कोई नहीं पूछने वाला । मन्नू भंडारी का महाभोज हो अथवा शादियों का गिद्ध भोज ।

वैसे भी पिछले दो वर्षों से हमने लोगों से गले मिलना ही छोड़ दिया है, इत्रपान का स्थान हैण्ड वॉश और सैनिटाइजर ने ले ही लिया है । बाकी भी इसी तरह, गुजर जाए तो अच्छा ।।

जो खुशबू समाज में खुशबू और खुशियां  बांटती हो, जो ऊंचे लोगों की ऊंची पसंद हो, यह छापा उनकी खुशियों पर पड़ रहा है । क्या देश बदल रहा है, या कहीं चुनाव हो रहे हैं । शीघ्र ही मिल जुलकर देखेंगे तमाशा हम लोग ।।

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 146 ☆ श्रद्धा लभते ज्ञानम्… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका कीhttps://www.e-abhivyakti.com/wp-admin/post.php?post=53412&action=edit# प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “श्रद्धा लभते ज्ञानम्…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 146 ☆

☆ श्रद्धा लभते ज्ञानम्

जब कोई वस्तु या व्यक्ति हमारी कल्पना के अनुरूप होता है, तो अनायास ही उसकी हम उसकी ओर आकर्षित होने लगते हैं। मानव की यह प्रवृत्ति तब घातक सिद्ध होने लगती है,जब यह एक तरफा होकर, जुनून की हद तक बढ़ जाए, इस समय मनुष्य, विवेक से अंधा होकर सही गलत का फर्क भूल जाता है और मन में वांछित पाने की चाहत और बलवती हो जाती है।

वनवास के दौरान माता सीता भी स्वर्ण मृग के प्रति आकर्षित हुईं जबकि वो ये जानती थीं कि ऐसा होना संभव नहीं है और तो और भगवान श्री राम भी उनकी इच्छा पूरी करने के लिए चल दिये। ये सब आकर्षण का माया जाल है जिसके प्रभाव से बड़े – बड़े संत महात्मा भी नहीं बच सके।

लगभग सभी जीव जंतु स्नेह की भाषा समझते हैं। खासकर मनुष्य जो ईश्वर की अनुपम कृति है वो हमेशा सुखद वातावरण ही चाहता है। ये बात अलग है कुछ लोग परिस्थितियों के आगे घुटने टेक देते हैं तो वहीं कुछ संघर्ष कर विजेता के रूप में सबके प्रेरक बनते हैं। कहा जाता है- श्रद्धा लभते ज्ञानम्। सही है जब हमारी  सोच विकसित होगी तभी श्रद्धा, विश्वास और धैर्य पनपेंगे। क्या आपने कभी सोचा कि हममें से अधिकांश लोग सकारात्मक पोस्ट ही क्यों पढ़ते हैं व शेयर करते हैं ?

 कारण साफ है, हर व्यक्ति मानसिक सुकून चाहता है। जैसी संगत होगी वैसा ही हमारा स्वभाव बनने लगता है अतः केवल अच्छाई से जुड़ते हुए आगे बढ़ते चलें, परिणाम सुखद होगा।

अधिकतर लोग पैसे के लिए हाय- हाय करते दिखते हैं, पूरी उम्र बीत जाने के बाद भी वही ढाक के तीन पात। कारण साफ है कि आप ने अपने कार्यों का मूल्यांकन कभी नहीं किया अन्यथा आपको पैसे की तलाश में भटकना नहीं पड़ता।

यहाँ पर भी श्रद्धा आपकी सहेली बन आत्मविश्वास बढ़ाने का कार्य खूबसूरती से करेगी। अपने अंदर हुनर पैदा करें और उसे तराशने में पूरे मनोयोग से जुट जाएँ। देखते ही देखते कई राहें आपके सामने होगीं और कार्य से अधिक का परिणाम अवश्य मिलेगा। बस बोले नहीं कार्य करें क्योंकि कार्य जब बोलेंगे तभी शुभ फल मिलेंगे और कर्म ,धर्म व मर्म सभी आप के अनुसार चलने लग जायेंगे।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 145 ☆ जीवन परिक्रमा पथ… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “जीवन परिक्रमा पथ…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 145 ☆

☆ जीवन परिक्रमा पथ

बला या बलाएँ जो टाले नहीं टल रहीं हैं। बिना दिमाग के जब कोई कार्य किए जाते हैं तो उनके परिणाम न केवल करने वाले को वरन उनसे जुड़े लोगों को भी परेशान कर देते हैं। हैरानी की बात तो तब होती है जब बातचीत  के मुद्दे ढूंढने के चक्कर में हम गलतियों पर गलती करते जाते हैं। कहते हैं समय का पहिया गतिमान रहता है, जो इसके साथ कदमताल मिलाते हुए स्वयं को विकसित करता जाता है वो अपना दबदबा बना लेता है। जो भी कार्य करें उसमें आपकी पहचान सबसे अलग तभी होगी जब उसमें शतप्रतिशत परिश्रम लगाया जाएगा। जैसी करनी वैसी भरनी के अनेकों उदाहरण जगत में मिलते हैं किंतु हम सब इन बातों से बेखबर अपने पूर्वाग्रह को ही प्राथमिकता देते हैं। सही गलत को एक ही तराजू में रखने की गलती करने वालों को भगवान कभी माफ नहीं करते। सच के साथ स्वयं की शक्ति अपने आप जुड़ने लगती है जिससे राह और राही उसके साथ खड़े नजर आते हैं।

जीवन पथ पर चलते हुए हमें केंद्र बिंदु की ओर निहारने के साथ ही ये भी ध्यान रखना होगा कि जिस बिन्दु से हमने चलना प्रारंभ किया है, एक निर्धारित समय बाद पुनः यहीं आना होगा। बस हम कुछ कर सकते हैं तो वो यही होगा कि स्वयं को पहले की तुलना में श्रेष्ठ बना लें। हर दिन जब नया सीखते चलेंगे तो आने वाले पलों को सुखद होने से कोई नहीं रोक पायेगा।

दिमागी उथल- पुथल से कुछ नहीं होगा, कार्यों को शुरू कीजिए और तब तक करते रहें जब तक मंजिल आपके कदमों में न आ जाए। लक्ष्य को साधना कोई साधारण कार्य नहीं होता है। जो तय करें उसे पूर्णता तक पहुँचाना ही सच्चे साधक का कार्य होता है।

पटाखे की लड़ी को फूटते हुए देखकर एक बात समझ में आती है कि एक साथ जुड़े हुए लोग एक जैसे परिणाम भोगते है। इसीलिए तो कहा गया है कि संगत सोच समझ के करें, आप जिनके संपर्क में रहेंगे वैसे बनते  चले जायेंगे।

आइए सकारात्मक विचारों के पोषक बनें, सर्वे भवन्तु सुखिनः की ओर अग्रसर होकर अच्छे लोगों का सानिध्य प्राप्त करें।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ चिंतन शिविर… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका व्यंग्य- “चिंतन शिविर।)  

? अभी अभी ⇒ चिंतन शिविर? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

शिविर के वैसे तो कई अर्थ होते हैं, अस्थायी कैंप, डेरा, पड़ाव टैंट, छावनी, और अड्डा। कालांतर में छावनी, डेरा और अड्डा स्थायी हो जाते हैं। दिल्ली में डेरा काले खां भी स्थायी है और सराय रोहिल्ला भी। हमारे शहर में भी बहुत पुराना जूनी इंदौर गाड़ी अड्डा है। और छावनी की तो बस पूछिए ही मत ! अंग्रेज़ चले गए, छावनी छोड़ गए।

 जिस स्थान पर चिंतन किया जा सके, उसे चिंतन शिविर कहा जा सकता है। चिंतन हमारे नियमित जीवन का प्रमुख अंग है।  सुबह उठते ही सबसे पहले जो कर्म होता है, उसे नित्य कर्म कहते हैं। जो मुक्त चिंतन के आदी होते हैं, वे सदियों से खुले में शौच करते आ रहे हैं। युग बदलेगा, सोच बदलेगा।

युग भी बदला, शौच का तरीका भी बदला। शांतता, घर घर चिंतन शिविर, नई सोच, खुलकर शौच। बद्ध मल से कोई बुद्ध नहीं बनता।।

जो संबंध चिंतन का चिंतन शिविर से है, वही संबंध सोच का शौच से है। जिनका संकीर्ण सोच होता है, उन्हें कब्जियत होती है। उनके लिए दुनिया गोल नहीं, ईसबगोल है। जिन्हें अधिक फिक्र होती है, वे पहले फिक्र को धुएं में उड़ाते हैं, लेकिन फिर भी बात नहीं बनती। गुटका, चाय और डाबर का लाल मंजन, सब बेकार, महज मनोरंजन।

शौच, सोच का नहीं, कर्म का विषय है। सकारात्मक सोच का परिणाम भी सकारात्मक ही निकलता है। एक अच्छी शुरुआत से आधा काम हो जाता है।

A good start is half done. शेक्सपियर ने भी तो यही कहा है ; All is well that ends well.

अंत भला सो सब भला।।

कुछ लोगों के लिए यह चिंतन शिविर युद्ध शिविर से कम नहीं होता। हम तो जब भी शिविर में जाते थे, यही कहकर जाते थे, पाकिस्तान जा रहे हैं।

इधर सर्जिकल स्ट्राइक, उधर हमारी फतह। बड़ी कोफ़्त होती थी, जिस दिन युद्ध विराम की घोषणा हो जाती थी। सब करे कराए पर पानी फिर जाता था।

वाचनालय तो खैर वह पहले से ही था, जब अखबार घर में कहीं नज़र नहीं आता था, तो घर के सदस्य समझ जाते थे, जब तक कोई हल नहीं निकलेगा, अखबार बाहर नहीं आएगा। हमारा  चिंतन शिविर तो एक तरह का अध्ययन कक्ष ही बन गया था। घर पोच वाचनालय की तरह, जासूसी उपन्यास वहां आसानी से उपलब्ध हो जाते थे। बस सस्पेंस के बाद क्लाइमैक्स का इंतजार रहता था।।

आजकल चिंतन शिविर अत्यधिक आधुनिक हो गए हैं। सृजन और विसर्जन दोनों का कार्य यहां बड़ी कुशलतापूर्वक संपन्न होता है। लेकिन जितना शौच को सुलभ बनाने की कोशिश की जा रही है, उतनी ही लोगों की सोच बिगड़ती जा रही है।

चिंतन शिविर का मुख्य उद्देश्य निरोगी काया और निर्मल मन ही तो है। केवल शौचालय ही नहीं, अपनी सोच भी बदलें। आपके विचारों से आपके चिंतन शिविर की बू नहीं, खुशबू आना चाहिए।

चिंतक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय।।

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 208 ☆ व्यंग्य – चूं चूं का मुरब्बा… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक व्यंग्य – चूं चूं का मुरब्बा

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 208 ☆  

? व्यंग्य – चूं चूं का मुरब्बा ?

वे सारे लोग झूठे हैं जो सोचते हैं की चूं चूं का मुरब्बा वास्तविकता न होकर, सिर्फ एक मुहावरा है। अपनी उम्र सीनियर सिटीजन वाली हो चुकी है, पर वयस्क होते ही वोटिंग राइट्स के साथ उठा सवाल कि चूं चूं का मुरब्बा वाले मुहावरे का अर्थ, आखिर क्या होता है ? राज का राज ही रहा। बस यही लगा कि चूं चूं का मुरब्बा किसी बेहद भद्दे, बेमेल मिश्रण को कहते हैं . मसलन  कश्मीरी दम आलू में कोई कच्चा कद्दू मिला दे, या  रबड़ी-मलाई में प्याज-लहसुन का तड़का लगा दिया जाए, तो जो कुछ बनाता हो शायद वैसा होता होगा चूं चूं का मुरब्बा। शादी हुई तो जीवन का सारा भार रसोई शास्त्र ही नही हरफन मौला मैने तो पहले ही बता दिया था, या मैं तो जानती थी कि यही होगा जैसे जुमले जब तब उछालने में निपुण पत्नी से इस रहस्यमय रेसिपी के संदर्भ में पूछा। पत्नी जी ने भी मुस्कराते हुए पूरी व्यंजन विधि ही बता दी। उसने कहा कि सबसे पहले चूंचूं को धोकर एक सार टुकड़ो में काट ले,नमक लगाकर चांदनी रात में दो रात तक सूखा ले। चीनी की चाशनी एक तार की तैयार कर चांदनी में सूखे चूंचूं डाल कर ऊपर से जीरा पाउडर डालें। फिर अगली आठ रातों को पुनः आठ आठ घंटे चांदनी रात में रखे।

आठवें दिन चूंचूं का मुरब्बा खाने के लिए तैयार हो जाता है। रेसिपी मिल जाने के बाद से मेरी समस्या बदल गई अब मैं चूं चूं कहा से लाऊं, देश विदेश, भाषा विभाषा, धर्म जातियों, शास्त्रों उपशास्त्रों के अध्ययन, नौकरी की अफसरों के आदेशों, मातहतों  की फाइलों को पढ़ा समझा पर चूं चूं को समझ ही नही पाया।

थोड़े बहुत बाल सफेद भी हो गए हैं, मिली-जुली सरकारें देखी, चौदह के, उन्नीस के परिवर्तन देखे, अब पक्ष विपक्ष की चौबीस की तैयारी देख कर मन में संशय उभरता है कि जिस प्रकार उसूल की घरेलू गौरय्या सियासत के जंगल में गुम हो रही है। कहीं कभी इतिहास में इसी तरह  सत्ता का स्वाद चखने के लिए राजाओं, बादशाहों की लड़ाइयों में उन शौकीन सियासतदानों ने कही चूं चूं के मुरब्बे का इतना इस्तेमाल तो नहीं कर डाला कि चूं चूं की प्रजाति ही डायनासोर सी विलुप्त हो गई है। अस्तु अपनी खोज जारी है। आपको चूं चूं मिले तो जरूर बताइए, मेरे चूं चूं के मुरब्बे वाले यक्ष प्रश्न को अनुत्तर रहने से बचाने में मदद कीजिए।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी ⇒ व्यंग्य – जीवन बीमा पर जीएसटी… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका व्यंग्य – “जीवन बीमा पर जीएसटी”।)  

? अभी अभी ⇒ व्यंग्य – जीवन बीमा पर जीएसटी? श्री प्रदीप शर्मा  ? 

आय, बचत और कर, यही एक नौकरपेशा व्यक्ति का धर्म है, ईमान है। न वह अपनी आय बढ़ा सकता, न ही बचत बढ़ा सकता, और न ही करभार से मुक्त हो सकता। वह देश की व्यवस्था में जुता हुआ एक बैल है, जिसकी आँख पर पट्टी पड़ी है। वह फिर भी एक अच्छे भविष्य के सपने देखता है। हर माह अपनी आय में से कुछ पैसे जीवन बीमा के लिए सुरक्षित छोड़ देता है।

हर माह एक सीमित वेतन ले जाने वाला वेतनभोगी मार्च के पहले से ही एनएससी और इन्शुरन्स में निवेश करना शुरू कर देता था। कुछ कमीशन एनएससी वाला एजेंट तो कुछ जीवन बीमा का एजेंट दे देता था। बड़ी खुशी होती थी, जब हाथ में पाँच सौ, हज़ार के कड़क नोट आ जाते थे।।

मेरी नौकरी को जुम्मे जुम्मे कुछ ही माह हुए थे, कि एक मित्र के भाई घर तशरीफ़ लाये। उनके साथ जीवन बीमा का प्लान भी था। बोले आपने एलआईसी की पॉलिसी ली ? मैं कुछ समझा नहीं ! मैंने जवाब दिया, अभी तक तो किसी ने नहीं दी। वे और खुश हुए, कोई बात नहीं, अब ले लीजिए। वे मुझे ज़िन्दगी का छोड़, मरने का गणित समझाने लगे। मुझे लगा यह इन्शुरन्स एजेंट नहीं, चित्रगुप्त के एजेंट हैं। मुझे मरने के फायदे समझा रहे हैं।

वे थोड़े आहत हुए। देखिये ! हमें आपकी बीवी बच्चों की फिक्र है। ( तब मेरी शादी नहीं हुई थी ! ) उन्हें अपना टारगेट पूरा करना था। मैंने कहा, काम की बात कीजिये। कोई भी सस्ती सी पॉलिसी दे दीजिये, और वे बेचारे उस ज़माने में एक छोटी सी पॉलिसी मुझे देकर चले गए, जिसका प्रीमियम कुछ 18.29 पैसे मेरी तनख्वाह में से कटना शुरू हो गया।।

उम्र के इस आखरी पड़ाव में फिर मुझे एक जीवन बीमा की पॉलिसी लेनी पड़ी। मुझे घोर आश्चर्य हुआ जब एक लाख पॉलिसी पर मुझे 18% जीएसटी भी चुकाना पड़ा। जीते जी भरिए मरने का टैक्स, अगर आपको बचाना इनकम टैक्स।

एक राजा हरिश्चन्द्र हुए थे, जो अपनी पत्नी से कफ़न पर टैक्स लेते थे, और एक यह सतयुगी हरिश्चन्द्र की सरकार है जो जीवन बीमा पर भी जीएसटी लेती है। कुछ भी खरीदो, ज़िन्दगी या मौत !

दुनिया में हम आये हैं तो जीना ही पड़ेगा। जीवन बीमा  है अगर, जीएसटी तो देना ही पड़ेगा।।

    ♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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