हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ प्रतुल साहित्य # 2 – हास्य-व्यंग्य – “अब वर – वधू भी ढूंढेगी सरकार !” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य  ब वर – वधू भी ढूंढेगी सरकार !)

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ प्रतुल साहित्य # 2 ☆

☆ हास्य-व्यंग्य ☆ “अब वर – वधू भी ढूंढेगी सरकार !” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

मैं सुबह अपने कम्पाउन्ड में बैठा शेविंग कर रहा था तभी पड़ोसी वर्मा जी ने प्रवेश करते हुए कहा – भाई साहब कुछ सुना आपने। मैंने कहा हां भाई जी सुना है – “बटोगे तो कटोगे”।

वर्माजी हंसते हुए बोले – भाई साहब आप भी मजाक करते हैं, मैं उसकी बात नहीं कर रहा। मैंने कहा फिर तो आप ही सुना डालें। वर्मा जी जैसे ही अपना मुंह मेरे कान के पास लाए, मैंने कहा, बहुत गोपनीय बात है क्या ? उन्होंने दांत निपोरते हुए कहा – नहीं ऐसा तो नहीं। फिर कान में नहीं सामने बैठकर सुनाओ।

उन्होंने कुर्सी सम्हालते हुए कहा – भाई साहब गजब हो गया। मैंने कहा भाई आप हर बात गजब हो गया से शुरू क्यों करते हैं ? हो सकता है कि जो आपके लिए गजब हो वो मेरे लिए गजब न हो। जब तक आपकी बात न सुन लूं, कैसे मान लूं कि गजब हुआ है।

वे फिर हंसे और बोले – उत्तर प्रदेश के महोबा के बीजेपी विधायक ब्रजभूषण राजपूत एक पेट्रोल पंप पर तेल भरवाने पहुंचे। जैसे ही एक कर्मचारी ने विधायक जी को देखा तो तुरंत दौड़ कर उनके पास पहुंचा। उसने कहा कि मैंने आपको वोट दिया है। अब आप लड़की ढूंढ कर मेरी शादी करवा दो। विधायक जी ने हंसते हुए जल्द ही उसकी शादी करवाने का आश्वासन दिया। इसका वीडीयो भी सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है।

बात सुनकर मैंने कहा भाई जी इतनी मामूली बात को आप गजब हो गया कह कर प्रस्तुत कर रहे थे ! मेरा जवाब सुनकर वे मायूस हो गए। मैंने कहा भाई जी क्या आपको पता नहीं कि नेता भाजपा का हो या किसी और पार्टी का वो अपने मतदाता की प्रत्येक मांग को पूरा करने का आश्वासन विश्वास के साथ देता है। नेताओं का वश चले तो वे सरकारी खर्चे से अपने मतदाताओं को चंद्रमा और मंगल ग्रह की यात्रा करवा दें। वर्मा जी के मुंह पर बेचैनी झलक रही थी। मेरे चुप होते ही वे बोले – लेकिन भाई साहब क्या अब विधायक अपने क्षेत्र के अविवाहितों का विवाह करवाने लड़के/लड़कियां भी ढूंढेंगे ?

मैंने कहा भाई जी – राजनीति में लोग समाज सेवा की भावना से आते हैं। क्या आप अविवाहितों का विवाह करवाना समाज सेवा नहीं मानते ?

वर्मा जी ने कहा – लेकिन….। मैंने कहा काहे का लेकिन, संख्या बल के कारण मतदाता का जो वर्ग सरकार बनाने में सक्षम नहीं है उसे ठेंगा और जो सक्षम है उसे मुफ्त राशन, सस्ते आवास, लाडलियों, बेरोजगारों को मासिक धनराशि, मुफ्त शिक्षा, मुफ्त किताबें, साइकिल, स्कूटी, कन्या विवाह, गर्भवती महिलाओं को पौष्टिक खुराक, अस्पतालों में मुफ्त जजकी, मुफ्त तीर्थ यात्रा, फ्री बिजली – पानी, वृद्धावस्था पेंशन, पांच लाख तक का मुफ्त इलाज आदि आदि, , , अब क्या क्या गिनाऊं ! वर्मा जी जब सरकार गरीबों के हाथ – पैर जाम करने उनकी इतनी सारी सेवाएं मुफ्त कर रही है तो चुनाव जिताने में सक्षम मतदाताओं की मांग पर वह अविवाहितों के लिए योग्य लड़के लड़कियां भी खोजने लगेगी। जो वर्ग वोट बैंक कहलाते हैं उनकी मांग पर, उन्हें लुभाने, उनका हमदर्द बनने क्या नहीं किया जा रहा ? भविष्य में “विवाह मंत्रालय” बना कर किसी को मंत्री पद भी सौंपा जा सकता है। अब यह न पूछना कि विवाह के इच्छुकों से रिश्वत में क्या क्या मांगा जा सकता है?

अब आप गजब कर रहे हैं भाई साहब कहते हुए वर्मा जी उठ कर चल दिये।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 283 ☆ व्यंग्य – गुस्ताख़ हंसी ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम व्यंग्य – ‘गुस्ताख़ हंसी‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 283 ☆

☆ व्यंग्य ☆ गुस्ताख़ हंसी

भरोसेमन्द सूत्रों से जानकारी मिली है कि देश के बड़े कारोबारियों ने सरकार को एक पत्र भेजा है जिसमें अपनी कुछ तकलीफों का ज़िक्र किया गया है। पत्र में सरकार से दरख्वास्त की गयी है कि उनकी तकलीफों का मुनासिब इलाज जल्दी खोजा जाए।

पत्र भेजने वालों ने लिखा है वे इस बात से बहुत दुखी हैं कि उन्हें ज़िन्दगी में मुश्किल से हंसने का मौका मिलता है, जबकि मामूली हैसियत वाले खुलकर हंसते हैं, हंस हंस कर दुहरे होते रहते हैं।उन्होंने लिखा है कि वे खु़द कमाने-गंवाने, अपनी संपत्ति संभालने,अपनी पांच-छः पीढ़ियों का इन्तज़ाम करने, हिसाब-किताब रखने, झूठे आंकड़े बनाने, मुकदमेबाज़ी, पारिवारिक कलह वगैर: में इतना मसरूफ़ और परेशान रहते हैं कि हंसने की फुर्सत ही नहीं मिलती। कभी-कभी दूसरों को दिखाने के लिए झूठ-मूठ ओंठ फैला लेते हैं, लेकिन भीतर कुछ नहीं होता।

उन्होंने लिखा कि  उनमें से कई लोग मजबूरी में लाफ्टर-क्लब जैसे समूह में शामिल हो जाते हैं, लेकिन वह राहत थोड़ी देर की होती है। लिखा कि उनके एक साथी हिम्मतलाल चूनावाला लाफ्टर-क्लब में हंसते-हंसते हार्ट-अटैक का शिकार हो गये और पल भर में अपनी सारी ज़र- ज़मीन छोड़कर जन्नत की तरफ रवाना हो गये। तबसे ज़्यादातर रसूखदार लाफ्टर-क्लब में जाने से कतराने लगे हैं।

पत्र में यह भी लिखा गया कि दरख़्वास्त करने वाले सभी हैसियतदारों के घरों में काम करने वालों के लिए ज़ोर से हंसने की मुमानियत है। वजह यह कि ऊंची हंसी सुनकर घर के लोग डिप्रेशन में आ जाते हैं। वैसे भी ऊंची हैसियत वालों को ज़ोर से हंसना घटिया और स्तरहीन लगता है।  इसीलिए बंगलों में काम करने वालों के लिए हंसी का डेसिबेल तय कर दिया गया है। उससे ऊपर जाने पर तनख्वाह में कटौती की सज़ा दी जाती है।

पत्र में लिखा गया कि बड़े कारोबारियों पर धन और संपत्ति के वितरण में ग़ैरबराबरी की तोहमत लगायी जाती है। कहा जाता है कि उन्होंने देश का ज़्यादातर धन बटोर लिया है। इसके लिए उन्हें गालियां सुननी पड़ती हैं, लेकिन यह नहीं देखा जाता कि उनके हिस्से बहुत कम खुशियां आती हैं। ज़्यादातर खुशियां दो कौड़ी के लोग समेट ले जाते हैं। जब संपत्ति के बराबर वितरण की मांग की जाती है तो खुशियों के बराबर वितरण पर भी तवज्जो दी जानी चाहिए।

सरकार के पास इस दरख़्वास्त के पहुंचते ही धड़ाधड़ कार्यवाही शुरू हो गयी और आदेश निकल गया कि सामान्य लोग अपनी हंसी पर काबू रखें और हैसियतदारों के बंगलों के पास से गुज़रते हुए ज़ोर से हंसने की गुस्ताख़ी न करें। मतलब यह कि रसूखदारों के भवनों से गुज़रते हुए वैसा ही आचरण करें जैसा पीसा की झुकती हुई मीनार के आसपास निर्धारित है।आदेश में यह भी कहा गया कि इसके लिए जल्दी ही हंसी का डेसिबेल तय किया जाएगा और उल्लंघन करने वालों के लिए सज़ा मुकर्रर की जाएगी।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 647 ⇒ धोबी का कुत्ता ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका व्यंग्य – “धोबी का कुत्ता ।)

?अभी अभी # 646 ⇒  धोबी का कुत्ता ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

क्या आपने कभी किसी धोबी के कुत्ते को देखा है ? मैंने तो नहीं देखा। मैंने धोबी का घर भी देखा है, और घाट भी। लेकिन वह बहुत पुरानी बात है। तब शायद धोबी और कुत्ते का कुछ संबंध रहा हो।

धोबी को आज कुत्ते की ज़रूरत नहीं ! वह खुद ही आजकल घाट नहीं जाता तो कुत्ते को क्या ले जाएगा। वैसे धोबी कुत्ता क्यों रखता था, यह प्रश्न कभी न तो धोबी से पूछा गया, न कुत्ते से।।

पहले की तरह आज धोबी-घाट नहीं होते ! सुबह 5 बजे से ही कपड़ों के पटकने की आवाज़ें वातावरण में गूँजने लगती थीं। कपड़ों की दर्द भरी आवाज़ों के साथ ही धोबी के मुँह से भी एक सीटी जैसी आवाज़ निकलती थी, जो सामूहिक होने से संगीत जैसा स्वर पैदा करती थी। कपड़े चूँकि सूती होते थे, अतः उनकी तबीयत से धुलाई होती थी। बाद में उन्हें सुखाने का स्नेह सम्मेलन होता था। तब शायद कुत्ता उनकी रखवाली करता हो।

सूती कपड़ों की जगह टेरीकॉट और टेरिलीन ने ले ली ! घर घर महिलाओं के लिए वाशिंग मशीन और डिटेर्जेंट की बहार आ गई। कपड़े ड्रायर से ही सूखकर बाहर आने लगे। और तो और, घर की स्त्रियाँ घर पर ही कपडों की इस्त्री करने लगी। अब कुत्ते का धोबी खुद ही न घर का रहा न घाट का।।

मैं कपड़ों पर इस्त्री करवाने धोबी के घर जाता था, लेकिन उसके कुत्ते से मुझे डर लगता था। लकड़ी के कोयलों की बड़ी सारी इस्त्री होती थी, जो एक ही हाथ में कपड़ों की सलवटें दूर कर देती थी। कपड़ों की तह भी इतने सलीके से की जाती थी कि देखते ही बनता था। 25 और 50 पैसे प्रति कपड़े की इस्त्री आज कम से कम 6-7 रुपये में होती है। सब जगह बिजली की प्रेस जो आ गई है। ज़बरदस्त पॉवर खींचती है भाई।

बेचारे देसी लावारिस कुत्ते, निर्माणाधीन मकानों के चौकीदारों के परिवार के साथ सपरिवार अपने दिन काट रहे हैं। रात भर चौकीदारी करते हैं, दिन भर सड़कों पर घूमते हैं। विदेशी नस्ल के कुत्तों ने न कभी धोबी देखा न धोबी घाट। कभी मालिक अथवा मालकिन के साथ मॉर्निंग वॉक पर देसी कुत्तों से दुआ सलाम हो जाती है। एक दूसरे पर गुर्रा लेते हैं, और अपने अपने काम पर लग जाते हैं।।

आज की राजनीति में मतदाता की स्थिति भी धोबी के कुत्ते जैसी हो गई है। चुनाव सर पर आ रहे हैं, मानो लड़की की शादी करनी है, और अभी लड़का ही तय नहीं हुआ। ढंग के लड़के एक बार मिल जाएं, लेकिन मनमाफिक उम्मीदवार मिलना मुश्किल है।

उम्मीदवारों का बाज़ार सजा है। मन-लुभावन नारे हैं, वायदे हैं, संकल्प हैं। एक तरफ कुआं, एक तरफ खाई, मतदाता जाए तो किधर जाए ! फिर भी वह चौकन्ना रहेगा। आखिर वही तो सच्चा चौकीदार है भाई।।

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 46 – आम आदमी की खोज में ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना आम आदमी की खोज में)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 46 – आम आदमी की खोज में ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

सुबह-सुबह दरवाज़े पर दस्तक हुई। आँखें मलते हुए दरवाज़ा खोला, तो सामने एक आदमी खड़ा था। कुर्ता फटा हुआ, बाल बिखरे हुए और चेहरे पर ऐसा भाव, जैसे पूरी दुनिया का बोझ उसी के कंधों पर हो। मैंने पूछा, “कौन हो भाई?”

वह बोला, “मैं आम आदमी हूँ।”

मुझे झटका लगा। आम आदमी? यह तो वही प्राणी है, जिसका ज़िक्र नेता चुनावी भाषणों में करते हैं, लेकिन चुनाव खत्म होते ही उसे भूल जाते हैं। मैं चौंक कर बोला, “अरे वाह! तुम सच में आम आदमी हो? सुना है, अब तुम्हारा अस्तित्व ही नहीं बचा। तुम्हें तो सरकारों ने योजनाओं में उलझा दिया, नीतियों में घुमा दिया, और विकास में दबा दिया। फिर तुम यहाँ कैसे?”

वह लंबी साँस लेकर बोला, “बस, जैसे-तैसे ज़िंदा हूँ। कभी महँगाई मुझे मारती है, कभी बेरोज़गारी। कभी कोई योजना मेरे नाम पर बनती है और फिर फाइलों में गुम हो जाती है। कभी मुझे सब्सिडी का सपना दिखाकर लूट लिया जाता है। पर मैं फिर भी जी रहा हूँ।”

मैंने उसे अंदर बुलाया और कुर्सी पर बैठने को कहा। लेकिन उसने कुर्सी को घूरकर देखा और फर्श पर बैठ गया। मैंने कहा, “अरे भाई, कुर्सी पर बैठो।”

वह कड़वा हँसा और बोला, “कुर्सी मेरी किस्मत में नहीं है। मैं तो हमेशा ज़मीन पर ही बैठता आया हूँ। कुर्सी तो नेताओं और अफसरों के लिए बनी है। मैं जब भी कुर्सी की ओर बढ़ता हूँ, कोई न कोई मुझसे पहले उस पर बैठ जाता है।”

मैं उसकी व्यथा समझने लगा। मैंने पूछा, “खैर, बताओ, कैसे आना हुआ?”

वह बोला, “सुनो, मैं परेशान हूँ। मुझे समझ नहीं आता कि मैं आखिर जाऊँ तो जाऊँ कहाँ? सरकार कहती है कि सबके लिए रोज़गार है, लेकिन जब मैं नौकरी के लिए आवेदन करता हूँ, तो फॉर्म की फीस ही इतनी होती है कि नौकरी से पहले ही कंगाल हो जाता हूँ। इंटरव्यू तक पहुँचता हूँ, तो कोई न कोई मेरा हक़ मार लेता है। कहते हैं, आरक्षण की व्यवस्था है, लेकिन मेरी स्थिति ऐसी हो गई है कि मैं आरक्षित भी नहीं हूँ और सामान्य भी नहीं। मैं एक लावारिस जाति का आदमी हूँ, जिसका कोई माई-बाप नहीं।”

मैंने सिर हिलाया, “बात तो सही है, लेकिन सरकारें तो कहती हैं कि वे आम आदमी के लिए बहुत कुछ कर रही हैं। योजनाएँ बना रही हैं, मुफ्त अनाज बाँट रही हैं, डिजिटल इंडिया बना रही हैं।”

आम आदमी हँसा, “हाँ, यही तो विडंबना है। अनाज बाँटते हैं, लेकिन पहले टैक्स के नाम पर मेरी कमाई काट लेते हैं। कहते हैं, गैस सब्सिडी देंगे, लेकिन पहले दाम इतना बढ़ा देते हैं कि सब्सिडी भी मज़ाक लगती है। डिजिटल इंडिया बना रहे हैं, लेकिन नेटवर्क ऐसा है कि जब ज़रूरत होती है, तब ग़ायब हो जाता है। और फिर, मोबाइल तो खरीद लिया, लेकिन रीचार्ज के पैसे नहीं बचे।”

मैंने चाय बनाई और उसे दी। उसने कप को घूरकर देखा, जैसे उसमें कोई गूढ़ रहस्य छिपा हो। मैंने पूछा, “क्या हुआ?”

वह बोला, “चाय महँगी हो गई है। पहले पाँच रुपए में आती थी, अब बीस की हो गई है। ऐसा लगता है कि सरकार हमें चाय के बहाने आर्थिक सुधारों की चुस्कियाँ पिला रही है।”

मैं हँस पड़ा, “तुम्हारा कटाक्ष बड़ा तीखा है।”

वह गंभीर हो गया, “कटाक्ष ही तो कर सकता हूँ। हक़ की बात करूँ, तो कोई सुनता नहीं। कोर्ट जाऊँ, तो केस सालों तक चलता है। अफसरों के पास जाऊँ, तो फाइलों में उलझ जाता हूँ। और अगर गलती से नेता के पास चला जाऊँ, तो वह मुझे वोट बैंक समझने लगता है। मैं शिकायत नहीं कर सकता, क्योंकि शिकायत करने के लिए भी रिश्वत देनी पड़ती है।”

मैंने उसकी आँखों में देखा। वहाँ एक गहरी थकान थी। यह वही थकान थी, जो किसी भी आम आदमी के चेहरे पर दिखती है, जब वह सुबह ट्रेन में धक्के खाता है, दिनभर काम करता है और शाम को खाली जेब लेकर घर लौटता है।

मैंने कहा, “तो फिर अब क्या करोगे?”

वह उठ खड़ा हुआ और बोला, “फिर से कोशिश करूँगा। यही तो मेरी नियति है। मैं हर बार गिरता हूँ, लेकिन उठकर फिर से चल पड़ता हूँ। मुझे कोई नहीं पूछता, लेकिन पूरा देश मेरे नाम पर चलता है। बजट बनता है, तो कहा जाता है कि आम आदमी के लिए है। योजनाएँ बनती हैं, तो दावा किया जाता है कि आम आदमी को फायदा होगा। और चुनाव आते ही सब मुझे भगवान बना देते हैं, लेकिन जैसे ही चुनाव खत्म होते हैं, मैं फिर से सड़क पर आ जाता हूँ।”

मैंने उसे जाते हुए देखा। वह धीरे-धीरे भीड़ में गुम हो गया। मैंने सोचा, यह आम आदमी किसी एक का नहीं है। यह हम सबका चेहरा है, जो कभी किसी बस में धक्के खाता है, कभी राशन की लाइन में खड़ा होता है, कभी महँगाई से परेशान होता है और कभी अपने ही देश में खुद को बेगाना महसूस करता है। यह देश आम आदमी का नहीं, बल्कि आम आदमी के नाम पर चलने वालों का है।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ प्रतुल साहित्य # 1 – व्यंग्य – “यहां सभी भिखारी हैं” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

अब आप प्रत्येक सोमवार को श्री प्रतुल श्रीवास्तव जी के साहित्य को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य  “यहां सभी भिखारी हैं)

साप्ताहिक स्तम्भ ☆ प्रतुल साहित्य # 1

☆ व्यंग्य ☆ “यहां सभी भिखारी हैं” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

यों तो मनुष्यों और अन्य प्राणियों की शारीरिक संरचना, आवास, खानपान, बल आदि में बहुत से अंतर हैं किंतु मुख्य अंतर है बुद्धि का। मनुष्य को बुद्धिमान प्राणी माना जाता है जबकि अन्य प्राणियों को बुद्धिहीन अथवा अल्पबुद्धि वाला। हां, एक प्रमुख अंतर और है भिक्षा मांगने का। मनुष्य के अतिरिक्त संसार का अन्य कोई प्राणी भिक्षा नहीं मांगता। कुत्ता, गाय, घोड़ा, तोता आदि वे प्राणी जिन्हें मनुष्य का सत्संग या कुसंग प्राप्त हुआ वे अवश्य ही भोजन की मूक भीख मांगना सीख गए हैं।

भीख मांगने की प्रवृत्ति संभवतः तब शुरू हुई जब मनुष्य ने ईश्वर रूपी परम शक्ति को खोजा अथवा गढ़ा। भीख पाने के लिए या अच्छे शब्दों में कहें तो वरदान, उपहार, मदद पाने के लिए मनुष्य ने भक्ति या स्तुति का मार्ग अपनाया। चतुर-चालक लोग भक्ति और स्तुति के द्वारा सम्पन्न लोगों के कृपा पात्र बनकर उनसे भी तरह-तरह की भीख प्राप्त करने लगे। कटोरा लेकर भीख मांगने को समाज में  घृणित और शर्मनाक माना जाता है किंतु स्तुति करके मांगी गई भीख को वरदान अथवा कृपा कह कर सम्मान दिया जाता है यह बात अलग है कि कुछ लोग इसे चमचागिरी का प्रतिफल मानते हुए इसे हेय दृष्टि से देखते हैं, किंतु इसमें उनकी संख्या अधिक होती है जिनसे चमचागिरी नहीं बनती। आखिर चमचागिरी भी कठिन साधना है।

बात भीख की चल रही है तो बता दें कि किसी जमाने में नगरों की सीमा के बाहर रहकर जनकल्याण की भावना से ईश्वर की आराधना करने वाले और गुरुकुल वासी छात्र ही “भिक्षाम् देही” कहते हुए भीख मांगते थे। इन्हें लोग सहर्ष भिक्षा देते भी थे, किंतु भीख मांगना अब लाभ दायक व्यवसाय बन गया है। भिखारियों की गैंग/ यूनियन होती है इनका प्रमुख होता है। इनके कार्यक्षेत्रों का वितरण होता है। सफल भिखारियों के बैंक खातों में लाखों, करोड़ों रुपए जमा हैं। मंदिरों-मस्जिदों, नदी किनारों, बाजारों में बढ़ती भिखारियों की भीड़, बिना श्रम इनकी अच्छी आमदनी से ईर्ष्या और आमजन को होती तकलीफ के कारण मध्यप्रदेश के इंदौर और भोपाल शहर में भीख लेने-देने पर रोक लगा दी गई है। आश्चर्य है कि देश में अपनी मांग के लिए विरोध प्रदर्शन/आंदोलन करने की सुविधा होने के बाद भी इन शहरों के भिखारियों ने अब तक भिक्षावृत्ति बंद करने के खिलाफ कोई आंदोलन क्यों नहीं छेड़ा। हो सकता है कि राष्ट्रीय पार्टियों के प्रमुखों को उनके पार्टीजन इस मुद्दे को उनके संज्ञान में न  ला पाये हों अथवा वे हमारे प्रदेश की सीमा पर अवश्य ही भिखारियों का आंदोलन खड़ा करवा देते।

भिक्षावृत्ति चाहे किसी भी स्वरूप में हो डायरेक्ट कटोरा लेकर अथवा स्तुति/आराधना या चमचागिरी करके यह हमारे देश की परम्परा है, हमारा अधिकार है और अधिकारों का हनन नहीं किया जाना चाहिए। कौन भिखारी नहीं है? कोई ईश्वर से धन दौलत, प्रतिष्ठा, प्रेमिका – पत्नी, पुत्र, स्वास्थ्य, सुख-शांति, ट्रांसफर, प्रमोशन, मुकदमे में जीत की भीख मांगता है तो कुछ लोग ईश्वर, खुदा, यीशु का नाम लेते हुए नेता/मंत्री बनने के लिए जनता से वोटों की भीख मांगते हैं। सभी भिखारी हैं। अलग – अलग नामों से भिक्षा पूरी दुनिया में मांगी जा रही है । भीख मांगने से मना नहीं किया जा सकता, हां भीख देना ऐच्छिक हो सकता है । कोई भी हो चाहे ईश्वर अथवा व्यक्ति, याचक को भीख देने में विलम्ब कर सकता है, पूरी तरह से इन्कार भी कर सकता है किंतु मांगने के अधिकार पर प्रतिबंध नहीं लगा सकता । एक लोकप्रिय मंत्री ने भिन्न कामों को लेकर उनके पास अर्जी लगाने वालों को जो बोला उसका आशय भिखारी समझ कर लोगों ने बखेड़ा खड़ा कर दिया। कल जिन लोगों ने उनके करबद्ध आग्रह पर उन्हें अपना बहुमूल्य वोट दिया था वे उनके इस कथन से हतप्रभ हैं। विपक्षी उनके बयान के विरोध में जमीन आसमान एक कर रहे हैं। मंत्री जी को चाहिए कि वे मांगने वालों को मांगने दें। देना उनकी मर्जी पर है चाहें तो अन्य नेताओं/मंत्रियों की तरह चीन्ह – चीन्ह कर दें अथवा न दें। वैसे अब तो वोटों की भीख पाने चुनाव के पूर्व सरकार और सभी विपक्षी दल बिना भीख मांगे लोगों पर मोतियों की वर्षा करने लगे है। वोटरों को क्या-क्या फ्री मिल रहा है आप जानते ही हैं।

© श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 282 ☆ व्यंग्य – कवि की भार्या ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम व्यंग्य – ‘कवि की भार्या’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 282 ☆

☆ व्यंग्य ☆ कवि की भार्या

छोटेलाल ‘अनमने’  होलटाइम कवि हैं, 24 गुणा 7 वाले। वे सारे समय कविता में रसे-बसे रहते हैं। नींद में भी कविता उनके दिमाग में घुड़दौड़ मचाये रहती है। नींद खुलते ही सबसे पहले सपने में आयी कविताओं को रजिस्टर में उतारते हैं, उसके बाद ही बिस्तर छोड़ते हैं। सड़क पर चलते भी कविता में डूबे रहते हैं। कई बार एक्सीडेंट की चपेट में आ चुके हैं, लेकिन गनीमत रही कि कोई हड्डी नहीं टूटी।

‘अनमने’ जी कविता पढ़ते अपनी फोटू फेसबुक पर डालते रहते हैं— कभी नदी किनारे, कभी पहाड़ पर, कभी रेल की पटरी पर, कभी पुराने किलों और स्मारकों पर। कोई महत्वपूर्ण जगह उनके कविता-पाठ से अछूती नहीं रहती।

‘अनमने’ जी अपने झोले में अपने कविता-संग्रह की दो-तीन प्रतियां हमेशा रखते हैं। कोई परिचित मिलते ही उसके हाथ में अपनी किताब देकर फोटू खींच लेते हैं और फेसबुक पर डाल देते हैं। कैप्शन होता है— ‘अमुक जी मेरी कविताएं पढ़ते हुए।’ इस मामले में बच्चे भी नहीं बख्शे जाते। वे भी ‘अनमने’ जी के पाठक बन जाते हैं। ‘अनमने’ जी कई राजनीतिज्ञों को भी अपनी किताब पकड़ाकर फोटू डाल चुके हैं। राजनीतिज्ञ भी खुश हो जाते हैं क्योंकि मुफ्त में साहित्य-प्रेमी होने का प्रचार हो जाता है।

चौंतीस साल के ‘अनमने’ जी अभी तक कुंवारे हैं। लड़कियां तो कई देखीं, लेकिन सर्वगुण-संपन्न होने के बावजूद उनमें साहित्य-प्रेम का अभाव ‘अनमने’ जी को हर बार खटकता रहा। अन्ततः एक कन्या उन्हें भा गयी। हिन्दी में एम.ए.। ‘अनमने’ जी ने उससे पूछा, ‘कौन-कौन से कवि पढ़े हैं?’ कन्या  ने निराला, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल के नाम बताये तो ‘अनमने’ जी ने पूछा, ‘महाकवि अनमने को नहीं पढ़ा?’ कन्या ने भोलेपन से पूछा, ‘ये कौन हैं?’ ‘अनमने’ जी ने जवाब दिया, ‘पता चल जाएगा। इनको पढ़ोगी तो सब कवियों को भूल जाओगी।’

विवाह हो गया। पति-पत्नी के मिलन की पहली रात को नववधू पति की प्रतीक्षा में कमरे में बैठी थी। ‘अनमने’ जी ने कमरे में प्रवेश किया, हाथ में कविता की पोथी। थोड़ी देर की औपचारिक बातचीत के बाद पत्नी से बोले, ‘तुम भाग्यशाली हो कि तुम्हारी शादी एक बड़े कवि से हुई। अब तुम्हें मेरी हर कविता की पहली श्रोता बनने का मौका मिलेगा। आज मैं बहुत प्रसन्न हूं। इस अवसर पर कुछ बेहतरीन कविताएं तुम्हारे सामने पेश करता हूं। उन्हें सुनकर तुम समझोगी कि तुम्हारा पति कितना बड़ा कवि है।’

वे पोथी खोलकर शुरू हो गये। एक के बाद दूसरी कविता। हर रस की कविता। पत्नी  सुनते सुनते कब नींद में लुढ़क गयी कवि को पता ही नहीं चला।

भोर हो गयी। मुर्गे बांग देने लगे। घर में बातचीत और बर्तनों की खटर-पटर सुनायी देने लगी, लेकिन ‘अनमने’ जी की कविता बिना  रुके  प्रवाहित हो रही थी। अचानक नववधू उठी और तेज़ी से कमरे से बाहर हो गयी। ‘अनमने’ जी अकबकाये उसे देखते रह गये।

थोड़ी देर में पता चला कि नववधू सड़क से ऑटो पकड़कर कहीं चली गयी। उसका मायका लोकल था। घर में हल्ला मच गया। किसी की कुछ समझ में नहीं आया।

डेढ़ दो घंटे बाद वधू के बड़े भाई का फोन आया। बोले, ‘बहन यहां आ गयी है। उसकी तबीयत ठीक नहीं है। अनमने जी ने रात भर कविता सुना कर उसकी तबीयत बिगाड़ दी है। आगे के लिए उनसे बात करने के बाद ही बहन को भेजेंगे। हमने बहन को कविता सुनने के लिए नहीं ब्याहा है।’

तब से ‘अनमने’ जी बहुत दुखी हैं। पत्नी को अपनी कविता का स्थायी श्रोता बनाने का उनका प्लान खटाई में पड़ता नज़र आ रहा है।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 640 ⇒ – व्यंग्य – नोटों की गर्मी ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका व्यंग्य – “नोटों की गर्मी।)

?अभी अभी # 640 ⇒ व्यंग्य – नोटों की गर्मी ? श्री प्रदीप शर्मा  ?

जिस पैसे की हम अक्सर बात करते हैं, वह गांधी छाप नोट ही तो होता है। यानी गांधीजी की सादगी और ईमानदारी का प्रतीक ही तो हुई हमारी भारतीय मुद्रा। उसके पास पैसा है, इतना कहना ही काफी होता है किसी संपन्न व्यक्ति के बारे में, क्योंकि पैसे से सभी सुख सुविधा के साधन खरीदे जा सकते हैं।

किसी भी शासकीय काम के लिए चपरासी की मुट्ठी गर्म करना अथवा छोटी मोटी रिश्वत से किसी की जेब गर्म करना इतना आम है कि इसे सामान्य शिष्टाचार समझा जाने लगा है। बख्शीश और इनाम जैसे शब्द अब बहुत पुराने हो गए क्योंकि इनसे भीख मांगने जैसी बू आने लगी है आजकल।।

एक आम नौकरीशुदा आदमी तो सिर्फ पहली तारीख को ही कड़क कड़क नोटों के दर्शन कर पाता था। खुश है जमाना, आज पहली तारीख है। वेतन के पीछे, तन मन अर्पण कर देता था आम आदमी। जब तक जेब गर्म मिजाज नर्म, और इधर पैसा हजम, उधर खेल खत्म।

पेट की भूख तो रोटी से ही भरती है, लेकिन होते हैं कुछ पापी पेट, जिनकी भूख पैसे से ही भरती है।

सुना है, वह बाबू पैसा खाता है और उसका अफसर भी। और इसे ही व्यावहारिक भाषा में रिश्वत और भ्रष्टाचार कहते हैं।

रिश्वत खा, रिश्वत देकर छूट जा।।

इस तरह का पैसा ऊपर का पैसा कहलाता है, जो कभी टेबल के नीचे से लिया जाता था। अब तो सब कुछ खुल्लम खुल्ला, खेल फर्रुखाबादी चलने लगा है। पैसा भी एक नंबर और दो नंबर का होने लगा है।

लेकिन हमारे देश में देर है, अंधेर नहीं। पहले नोटबंदी हुई, फिर पेटीएम (paytm) का विज्ञापन आया और अचानक देश डिजिटल हो गया। अचानक पैसेवाला अमीर आदमी कैशलैस हो गया।

सब्जी और खोमचेवालों को भी पेटीएम से पैसा मिलने लगा। देश में डिजिटल क्रांति हो गई।।

तो क्या फिर नोट छपने बंद हो गए, या लोगों ने रिश्वत लेना देना ही बंद कर दिया ? इधर कुछ समझ नहीं आया और उधर ईडी भ्रष्ट व्यापारियों और अफसरों के घर छापे मार मारकर नोटों का जखीरा बरामद करने लगी।

करेंसी नोट का भी एक मनोविज्ञान होता है। जब तक वह एक हाथ से दूसरे हाथ का स्पर्श करता है, उसे कभी मेहनत और कभी ईमानदारी की गंध आती रहती है। ऐसे नोट बेचारे थोड़े तुड़े मुड़े और गंदे भी होते रहते हैं। नोटबंदी के वक्त तो महिलाओं की बिस्तर, आलमारी और मसाले के डिब्बों तक के नोट बाहर आ गए थे  आत्मसमर्पण के लिए।।

लेकिन जो नोट छपने के बाद सीधे भ्रष्ट तंत्र के हवाले हो जाते हैं, उन्हें तहखानों और बाथरूम के टाइल्स के नीचे तक अपना मुंह छुपाना पड़ता है। वे बेचारे अभिशप्त कभी बाजार का मुंह नहीं देख सकते।

यह तो जगजाहिर है, नोटों में गर्मी होती है। करेला और नीम चढ़ा, बेचारा कब तक गोदाम और किसी के आउटहाउस में पसीने पसीने होता रहेगा। वह अपनी ही आग में झुलस जाता है और जल मरता है और इधर हंगामा हो जाता है। आग आग, जाओ जाओ जाओ, किसी फायरब्रिगेड को बुलाओ।।

अभी आग बुझी नहीं है। गरीबों के मेहनत और पसीने की कमाई थी इन नोटों में। भले ही यह नोटों का आत्मदाह का मामला हो, गरीबों की हाय तो लगना ही है। सभी को विश्वास है कानून के रखवाले कानूनी कार्यवाही तो अवश्य करेंगे..!!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 45 – चाय की चुस्की में जिंदगी ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना चाय की चुस्की में जिंदगी)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 45 – चाय की चुस्की में जिंदगी ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

सुबह का सूरज अभी आंखें मल रहा था, और मैं, एक अदना-सा चायवाला, अपनी टपरी पर खड़ा था—हाथ में चूल्हा, मन में सपने, और आंखों में धुआं। “ए भैया, एक कटिंग चाय देना,” एक साहब बोले, सूट-बूट में लिपटे, गाड़ी से उतरते हुए जैसे कोई फिल्म का हीरो हो। मैंने चाय का गिलास थमाया, और वो बोले, “कितना हुआ?” मैंने कहा, “दस रुपये, साहब।” वो हंसे, जेब से सौ का नोट निकाला और बोला, “बाकी रख ले, मेहनत की कमाई है।” मैंने मन ही मन सोचा, “अरे, मेहनत तो मेरी है, पर कमाई आपकी जेब में क्यों?” फिर भी, चुप रहा—आखिर ग्राहक भगवान होता है, और भगवान को गाली कौन देता है? पास में कुत्ता भौंक रहा था, शायद मेरी किस्मत पर हंस रहा था। साहब चाय पीते हुए बोले, “बड़ा स्वाद है, बेटा। मेहनत का फल मीठा होता है।” मैंने सोचा, “तो फिर मेरे हिस्से का मीठा आपके गिलास में क्यों घुल गया?” पर मुस्कुरा दिया—जिंदगी का पहला सबक: हंसते हुए रोना। चाय की भाप उड़ रही थी, और मेरे सपने भी उसी भाप की तरह हवा में गायब हो रहे थे। साहब गाड़ी में बैठे, और मैं फिर चूल्हे के सामने—धुआं, पसीना, और एक टूटी चप्पल। “चलो, एक और दिन कट गया,” मैंने खुद से कहा, पर दिल से एक आह निकली—काश, मेरी चाय की तरह मेरी जिंदगी में भी कोई स्वाद डाल जाता। 

दोपहर ढल रही थी, और टपरी पर भीड़ बढ़ रही थी। एक बाबूजी आए, फटी कमीज़, झोला लटकाए, बोले, “भैया, चाय पिलाओ, पैसे कल दूंगा।” मैंने गिलास थमा दिया, सोचा, “कल तो सूरज भी नहीं देखता मेरी टपरी को, आपकी जेब क्या देखेगी?” वो चाय पीते हुए बोले, “बेटा, मैं क्लर्क था, रिटायर हो गया। पेंशन नहीं मिली, घर चलाना मुश्किल है।” मैंने कहा, “बाबूजी, मेरे पास भी तो कुछ नहीं, फिर भी चाय पिला रहा हूं।” वो हंसे, “हां, दुनिया ऐसी ही है—जो पास नहीं, वो पास रहता है।” उनकी आंखों में आंसू थे, मेरी आंखों में धुआं। पास में एक बच्चा गुटखा थूक रहा था, शायद मेरी जिंदगी का मजाक उड़ा रहा था। “अरे, बाबूजी, आपकी पेंशन कहां गई?” मैंने पूछा। बोले, “ऊपर वालों ने खा ली, बेटा।” मैंने सोचा, “और मेरी कमाई को नीचे वाले खा रहे हैं—क्या खूब इंसाफ है!” चाय खत्म हुई, बाबूजी चले गए, और मैंने गिलास धोया—उनकी कहानी मेरे हाथों में चिपक गई। “चलो, एक और ग्राहक का दुख सुन लिया,” मैंने खुद को तसल्ली दी, पर मन में सवाल उठा—क्या मेरी टपरी सिर्फ चाय बेचती है, या लोगों के आंसुओं का ठिकाना है? 

शाम का धुंधलका छा रहा था, और टपरी पर एक नया मेहमान आया—एक स्कूल का बच्चा, किताबें लिए, बोला, “चाचा, एक चाय देना, मम्मी ने पैसे नहीं दिए।” मैंने चाय बनाई, गिलास थमाया, और पूछा, “स्कूल में क्या सीखा आज?” वो बोला, “मैम ने कहा, मेहनत करो, बड़ा आदमी बनो।” मैं हंसा, “बेटा, मेहनत तो मैं भी करता हूं, पर बड़ा आदमी कहां बना?” वो चाय पीते हुए बोला, “चाचा, आपकी चाय अच्छी है, पर आप गरीब क्यों हैं?” मेरे सीने में कुछ चुभा, पर मैंने कहा, “बेटा, गरीबी मेरी दोस्त है, छोड़ती नहीं।” वो चुप रहा, चाय खत्म की, और चला गया। मैंने सोचा, “कितना सच बोला—स्कूल में मेहनत सिखाते हैं, पर जिंदगी में धोखा देते हैं।” पास में एक गाना बज रहा था, “सपने बिकते हैं बाजार में…” मैंने मन में कहा, “हां, और मेरे सपने इस चूल्हे में जल रहे हैं।” बच्चे की मासूमियत मुझे काटने लगी—उसकी आंखों में भविष्य था, और मेरी आंखों में सिर्फ धुआं। “चलो, एक और दिन बीत गया,” मैंने खुद को समझाया, पर दिल से चीख निकली—काश, मेरी मेहनत का फल कोई बच्चा न चुराए। 

रात गहरा रही थी, और टपरी पर एक आखिरी ग्राहक आया—एक औरत, साड़ी फटी हुई, बोली, “भैया, चाय दे दो, भूख लगी है।” मैंने चाय के साथ एक बिस्किट भी दे दिया। वो बोली, “पैसे नहीं हैं, माफ कर दो।” मैंने कहा, “कोई बात नहीं, दीदी, भूख को पैसे नहीं चाहिए।” वो चाय पीते हुए रोने लगी, “मेरा बेटा बीमार है, दवा के लिए पैसे नहीं।” मैंने पूछा, “काम क्यों नहीं करतीं?” बोली, “काम किया, पर मालिक ने पैसे नहीं दिए।” मैंने सोचा, “अरे, ये तो मेरी कहानी है—काम करो, और फिर भी खाली हाथ रहो।” उसकी आंखों में आंसू थे, मेरे मन में गम। पास में कौआ कांव-कांव कर रहा था, शायद मेरी बेबसी का गाना गा रहा था। “दीदी, सब ठीक हो जाएगा,” मैंने कहा, पर खुद पर हंसी आई—ठीक तो कुछ होता नहीं। वो चाय पीकर चली गई, और मैंने चूल्हा बुझाया। “चलो, एक और रात कट गई,” मैंने कहा, पर दिल से सिसकी निकली—क्या मेरी टपरी सिर्फ चाय नहीं, बल्कि दुखों का अड्डा बन गई है? 

सुबह फिर आई, और मैं फिर टपरी पर खड़ा था। एक साहब आए, बोले, “चाय दे, जल्दी।” मैंने चाय थमाई, वो बोले, “पांच रुपये में चाय मिलती थी, अब दस क्यों?” मैंने कहा, “साहब, महंगाई बढ़ी है, चूल्हा भी तो जलाना पड़ता है।” वो हंसे, “अरे, तू तो बड़ा बन गया, चायवाला!” मैंने सोचा, “हां, साहब, बड़ा तो बन गया, पर जेब अभी भी छोटी है।” वो चाय पीकर चले गए, और मैंने गिलास धोया। पास में एक भिखारी बैठा था, बोला, “भैया, मुझे भी चाय दे दो।” मैंने दे दी, वो बोला, “तू अच्छा आदमी है।” मैं हंसा, “हां, अच्छाई की सजा तो भुगत रहा हूं।” उसकी मुस्कान में मेरी हार दिखी। “चलो, एक और सुबह शुरू हुई,” मैंने कहा, पर मन में ठंडी हवा चली—क्या ये जिंदगी बस चाय के गिलासों में सिमट गई? हर ग्राहक एक कहानी छोड़ जाता था, और मैं हर कहानी में खुद को पाता था—हंसता हुआ, रोता हुआ, और फिर भी खड़ा हुआ। 

दोपहर का सूरज चढ़ रहा था, और टपरी पर एक नया तमाशा शुरू हुआ। एक नेता जी आए, बोले, “चाय पिलाओ, हम तुम्हें बड़ा बनाएंगे।” मैंने चाय दी, और पूछा, “कैसे, साहब?” बोले, “वोट दो, हम गरीबी हटाएंगे।” मैंने कहा, “साहब, वोट तो दिया, पर गरीबी मेरे साथ सोती है।” वो हंसे, “अरे, धैर्य रखो, बदलाव आ रहा है।” मैंने सोचा, “हां, बदलाव तो आया—पांच रुपये की चाय दस की हो गई।” वो चाय पीकर चले गए, और मैंने चूल्हे में लकड़ी डाली। पास में एक कुत्ता पूंछ हिला रहा था, शायद मेरी उम्मीदों का मजाक उड़ा रहा था। “चलो, एक और वादा सुन लिया,” मैंने खुद से कहा, पर मन में चुभन हुई—क्या ये नेता मेरी चाय से ज्यादा कड़वे नहीं? हर बार वही ढोल, वही गाना—और मैं वही चायवाला, उसी टपरी पर। जिंदगी एक फिल्म बन गई थी, और मैं उसका वो किरदार जो हर सीन में हार जाता है। 

शाम फिर ढली, और टपरी पर सन्नाटा छा गया। एक बूढ़ा आया, बोला, “बेटा, चाय दे, थक गया हूं।” मैंने चाय दी, वो बोला, “मैंने जिंदगी भर मेहनत की, पर कुछ नहीं बचा।” मैंने कहा, “बाबा, मेरे पास भी तो बस ये टपरी है।” वो रोने लगे, “बेटा, मेरे बेटे ने मुझे छोड़ दिया।” मेरे गले में कुछ अटक गया, मैंने कहा, “बाबा, मेरे पास भी कोई नहीं।” वो चाय पीते हुए बोले, “जिंदगी एक धोखा है।” मैंने सोचा, “हां, और मैं उस धोखे का चायवाला हूं।” वो चले गए, और मैंने टपरी समेटी। पास में हवा सनसना रही थी, शायद मेरी कहानी को सुन रही थी। “चलो, एक और दिन खत्म,” मैंने कहा, पर आंखों से आंसू टपके—क्या ये टपरी मेरी जिंदगी है, या मेरी जिंदगी की कब्र? हर गिलास में एक दर्द था, हर चुस्की में एक आह। 

रात फिर आई, और मैं टपरी बंद कर घर लौटा—एक कमरा, एक चटाई, और एक टूटा सपना। चूल्हे का धुआं मेरे पीछे आ गया था, मेरी सांसों में बस गया था। मैंने सोचा, “ये चाय की टपरी मेरी जिंदगी बन गई—हर दिन एक नया ग्राहक, हर ग्राहक एक नया दुख।” बाबूजी की पेंशन, बच्चे की मासूमियत, औरत की भूख, बूढ़े की थकान—सब मेरे गिलासों में घुल गए थे। “क्या मैं चाय बेचता हूं, या लोगों के आंसुओं को?” मैंने खुद से पूछा, पर जवाब नहीं मिला। बाहर बारिश शुरू हो गई थी, और मेरे कमरे की छत टपक रही थी। मैंने चटाई सरकाई, पर आंसू नहीं रुके। “चलो, एक और रात बीत गई,” मैंने कहा, और बिस्तर पर लेट गया। पर दिल से एक चीख निकली—काश, मेरी चाय की तरह मेरी जिंदगी में भी कोई गर्माहट होती। पर नहीं, ये चाय की चुस्की नहीं—ये जिंदगी का जहर था, जो हर घूंट में मुझे मार रहा था।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 124 – देश-परदेश – जब कोतवाल ही कातिल  हो ? ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख/व्यंग्य  की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ व्यंग्य # 124 ☆ देश-परदेश – जब कोतवाल ही कातिल  हो? ☆ श्री राकेश कुमार ☆

हमारे देश में उच्च न्यायालय के ज़ज का सम्मान ना सिर्फ पद पर रहते हुए होता है, वरन सेवानिवृति के पश्चात भी उनको मिलने वाली सुविधाएं और सम्मान उच्चतम स्तर का रहता हैं। कुछ दिन पूर्व किसी उच्चतम न्यायालय के एक जज के यहां आग लगने पर बहुत अधिक मात्रा में पांच सौ के नोटों का भंडार मिलना बताया जाता है।

हमारे देशवासियों को तो किसी भी मुद्दे की आवश्यकता होती है। पूरे सोशल मीडिया के साथ टीवी चैनल वालों को भी मौका मिल जाता हैं। चुटकले से लेकर वर्तमान के व्यंग कहे जाने वाले “मीम्स” भी इस विषय पर विगत दिनों से सक्रिय हैं।

चार दशक पूर्व हमारे एक मित्र, जिनका टिंबर का व्यवसाय था, के टाल में भीषण आग लग गई थी। हम कुछ मित्र उनके व्यवसाय स्थल पर सांत्वना व्यक्त करने भी गए थे। उनके टिंबर का स्टॉक, कोयले के ढेर में परिवर्तित हो चुका था।

हमारे एक ज्ञानी साथी ने उनसे कहा, इस कोयले को धोबियों को बेच कर कुछ भरपाई कर लेनी चाहिए। व्यवसायी मित्र ने कहा, अभी मुम्बई से बीमा विभाग के बड़े अधिकारी आयेंगे और कोयले की मात्रा के अनुपात में मुआवजा तय होने पर ही कोयले को बेचेंगे। ज्ञानी मित्र ने लपक कर कहा लकड़ी में जल की कुछ मात्रा भी रहती है, फिर कैसे सही मुआवजा तय होगा। व्यवसायी मित्र ने बताया वो लोग विशेषज्ञ होते है, किसी तयशुदा फार्मूले से मुआवजा तय करते हैं।

सुनने में आया है कि जज साहब के यहां भी बहुत सारे नोट जल गए हैं, और कुछ अधजले नोट भी हैं। हम तो ये सोच रहे है, कुल राशि का सही अनुमान लगाने के लिए भी कुछ सेवानिवृत बैंकर की सेवाएं लेनी चाहिए। अधजले नोटों और जले हुए नोटों की सॉर्टिंग कर कुल राशि का सही अनुमान निकाला जा सकता है। पुराने और खराब नोटों को जला कर नष्ट करने का एक लंबा तजुर्बा सिर्फ बैंकर्स के पास ही होता है।

हमारे यहां की कुछ महिलाएं तो तथाकथित जले हुए नोटों की राख क्रय कर बर्तन भी चमकाना चाहती हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 281 ☆ व्यंग्य – गंगा-स्नान और भ्रष्टाचार-मुक्ति का नुस्खा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य – ‘गंगा-स्नान और भ्रष्टाचार-मुक्ति का नुस्खा‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 281 ☆

☆ व्यंग्य ☆ गंगा-स्नान और भ्रष्टाचार-मुक्ति का नुस्खा

कुंभ की गहमा-गहमी है। सब तरफ आदमियों के ठठ्ठ दिखायी पड़ते हैं। जनता- जनार्दन और वीआईपीज़, वीवीआईपीज़ के घाट अलग-अलग हैं। जनता के घाटों पर भारी भीड़ है। वीआईपीज़ के घाटों पर भीड़ कम है, वहां गाड़ियां आराम से दौड़ रही हैं। वीआईपीज़ को कुछ लोग घेर कर सुरक्षित स्नान करा रहे हैं।  कुछ भगवाधारी भी वीआईपीज़ को घेर कर उन पर चुल्लू से पानी डाल रहे हैं। शायद ये वे महन्त होंगे जिनके अखाड़े में वीआईपीज़ जजमान हैं। इन वीआईपीज़ को धरती पर तो स्वर्ग हासिल हो चुका, अब सन्त महन्त उन्हें ऊपर वाले स्वर्ग में जगह दिलाने की कोशिश में लगे हैं। महन्तों के द्वारा अपने देशी-विदेशी चेलों की सुविधा का पूरा ख़याल रखा जा रहा है। वीआईपी- घाटों पर पुलिस की व्यवस्था चाक-चौबन्द है। मीडिया वाले सब तरफ पगलाये से दौड़ रहे हैं— कभी फोटो के लिए तो कभी श्रद्धालुओं के बयान के लिए।

अचानक घाटों से कुछ काले  काले थक्के तैरते हुए आने लगे। लोग कौतूहल से उन्हें देखने लगे। थक्कों ने श्रद्धालुओं को छुआ तो उनके शरीर में जलन होने लगी। उनसे अजीब बदबू भी निकल रही थी।

खबर फैली कि ये पाप के थक्के थे जो तैर कर आ रहे थे। अधिकारियों और पुलिस वालों में भगदड़ मच गयी। जल्दी ही पानी में रबर की चार-पांच नावें उतरीं और थक्कों को समेट कर जल्दी-जल्दी पॉलिथीन के थैलों में डाला जाने लगा। जनता-घाटों पर लोग ठगे से इन थक्कों को देख रहे थे।

थोड़ी देर में घाटों पर कुछ अधिकारी ध्वनि-विस्तारक लिये हुए पहुंच गये। घोषणा होने लगी कि  जनता भ्रम में न पड़े, ये थक्के पाप के नहीं, पुण्य के थे। यह भी कहा गया कि थक्कों से बदबू नहीं, ख़ुशबू निकल रही थी। शायद ठंडे पानी में स्नान के कारण लोगों पर ज़ुकाम का असर हो गया होगा, इसीलिए वे ख़ुशबू को बदबू समझ रहे थे।

एक युवक घाट के पास सिर लटकाये बैठा था। एक अधिकारी उसके पास पहुंचा, पूछा, ‘स्नान हो गया?’

युवक ने जवाब दिया, ‘हो गया।’

अधिकारी बोला, ‘तो अब आगे बढ़िए। यहां क्यों बैठे हैं?’

युवक कुछ सोचता सा बोला, ‘जाता हूं।’

अधिकारी ने फिर पूछा, ‘क्या बात है? कुछ परेशानी है?’

युवक बोला, ‘सर, हमें बताया जा रहा है कि यहां 60 करोड़ से ज्यादा लोग डुबकी लगा गये, पापमुक्त हो गये। लेकिन मैंने आज ही अखबार में पढ़ा है कि 2024 के भ्रष्टाचार सूचकांक में हमारा देश 180 देशों में 93 नंबर से खिसक कर 96 पर पहुंच गया, यानी तीन सीढ़ी नीचे खिसक गया। एक तरफ पाप धुल रहे हैं, दूसरी तरफ भ्रष्टाचार के मामले में हमारी जगहंसाई हो रही है।’    

अधिकारी हंसा, बोला, ‘वाह महाराज! काजी जी दुबले क्यों, शहर के अंदेशे से। आपके पाप तो धुल गये? चलिए, आगे बढ़िए।’

युवक चलते-चलते बोला, ‘सर, मैं यह सोचकर परेशान हो रहा हूं कि कहीं पाप धोने की सुविधा मिलने का गलत असर तो नहीं हो रहा है। अपराधी प्रवृत्ति के लोग सोचने लगें कि अपराध करके भी पाप-मुक्त हुआ जा सकता है। यानी पाप धोने की सुविधा से कहीं अपराधों को प्रोत्साहन तो नहीं मिल रहा है?

‘दूसरी बात यह कि अपराधी के पाप तो गंगा-स्नान से धुल जाएंगे, लेकिन इससे उनको क्या मिलेगा जिनके प्रति अपराध हुआ है? अपराधी तो कुंभ-स्नान करके पवित्र और स्वर्ग का अधिकारी हो जाएगा लेकिन जिसकी हत्या हुई है या जिसके साथ बलात्कार हुआ है या जिसके  घर चोरी-डकैती हुईं है उसे क्या मिलेगा? क्या यह न्याय-संगत है कि पाप करने वाला निर्दोष और पवित्र हो जाए और उसके सताये हुए लोग उसके दुष्कर्मों का परिणाम भोगते रहें?’
अधिकारी कानों को हाथ लगाकर बोला, ‘बाप रे, तुम्हारी बातें तो बड़ी खतरनाक हैं। मेरे पास इनका जवाब नहीं है।’

युवक बोला, ‘सर, मेरे खयाल से हमें ऐसी दवा की ज़रूरत ज़्यादा है जिसको लेने से हमारे दिमाग में पाप और अपराध की इच्छा पैदा ही न हो। पोलियो वैक्सीन की तरह बचपन में ही सभी को इस दवा की डोज़ दे दी जाए। तभी हम भ्रष्टाचार और अपराध की बीमारी से बच पाएंगे।’

अधिकारी हाथ जोड़कर बोला, ‘भैया, हम छोटे आदमी हैं। हमें ये सब बातें मत बताओ। किसी ने सुन लिया तो हमारी पेशी हो जाएगी।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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