(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक मज़ेदार व्यंग्य श्रंखला “प्रशिक्षण कार्यक्रम…“ की अगली कड़ी ।)
☆ व्यंग्य # 45 – प्रशिक्षण कार्यक्रम – भाग – 5 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
चमत्कारी प्रशिक्षु: किस्सा इंदौर प्रशिक्षण केंद्र का है. वाकया उस वक्त का जब हर सत्र के दौरान विषय से संबंधित “हेंड आउट्स” सभी पार्टिसिपेंट्स को वितरित किये जाते थे. यह चमत्कारी युवा बड़ी शिद्दत से एक-एक हेंड ऑउट से अपना फोल्डर सजाता था. मजाल है कि एक भी कम हो जाये. पर फिर भी अविश्वास इतना कि कांउटिंग रोज होती थी. आज तक कितने हो गये. कभी कोई मजा़क में कह दे कि अरे तुम्हारे पास एक कम कैसे है, कौन सा पेपर नहीं है. फिर भारी टेंशन कि कौन सा वाला मिस कर दिया. किसी सहयोग करने वाले बंदे की शरण ली जाती, फुरसत में एक एक हैंड ऑउट, करेंसी की तरह टैली किये फिर पता चलता कि ये तो प्रैंक था.
उस जमाने में इंदौर कपडों के लिये भी प्रसिद्ध था तो रविवार उपलब्ध होने पर कपड़े भी खरीदे जाते. चमत्कारी युवक ने भी कपड़े खरीदे और कुछ ज्यादा ही खरीद लिये, लेटेस्ट फैशन और किफायती होने के कारण. अंतिम दिन जब पैकिंग की बारी आई तो ट्रेनिंग नोट्स के कारण फोल्डर भी भारी हो गया था. सूटकेस के बगावती तेवर सिर्फ एक ही ऑप्शन प्रदान कर रहे थे या तो तंदुरुस्त फोल्डर जगह पायेगा या नये कपड़े. और कोई दूसरा रास्ता था नहीं. वापसी की ट्रेन या बस जो भी रही हो, पकड़ने के लिये समय बहुत कम बचा था. निर्णय जल्दबाजी में, कुशल ज्ञानी सहपाठियों के सिद्धांत के आधार पर लिया गया. कपड़े छोड़े नहीं जा सकते क्योंकि मनपसंद और कीमती हैं. ज्ञान तो व्यवहारिक है, गिरते पड़ते सीख ही जायेंगें. फिर भी मन नहीं माना तो मेस के ही एक सेवक के पास अमानत के तौर पर रखवा दिये कि बहुत जल्दी फिर प्रशिक्षण पर आना ही है, इतनी जल्दी हम न सीखते हैं न ही सुधरते हैं. सेवक भी, प्रशिक्षण केंद्र में काम-काम करते-करते कोर्स से इतर विषयों में प्रशिक्षित हो गया था तो उसने हल्की मुस्कान से इन साहब के आदेश का पालन किया और अमानत में खयानत की भावना के साथ फोल्डर को अपना संरक्षण प्रदान किया.
वैसे जो फोल्डर लेकर जाते हैं, वे भी कितना पढ़ पाते हैं ये शोध का विषय हो सकता है या फिर confession का.
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।आज प्रस्तुत है आपका एक मजेदार व्यंग्य – “झाड़ू पुराण”।)
☆ व्यंग्य # 151 ☆ “झाड़ू पुराण” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
(इस स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि प्रत्येक व्यंग्य को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें।)
इन दिनों झाड़ू वालों के दिन खराब चल रहे हैं। रह रहकर एजेंसियां और मीडिया झाड़ू वालों पर मेहरबान हैं। हर थोड़ी देर बाद कभी शिक्षा कभी स्वास्थ्य तो कभी शराब को लेकर दंगल पे दंगल देखने मिल रहे हैं। लोग बताते हैं कि स्वच्छता अभियान की सफलता में झाड़ू वालों ने और झाड़ू ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, जब झाड़ू की बात चलती है तो पता नहीं क्यों लोग पंजाब और दिल्ली को याद करने लगते हैं।
गंगू प्रतिदिन सुबह उठकर झाड़ू की पूजा करता है, गंगू ने बताया कि पौराणिक शास्त्रों में कहा गया है कि जिस घर में झाड़ू का अपमान होता है वहां धन हानि होती है, शेयर बाजार धड़ाम से गिर जाता है, रूपया के गिरने की आदत बन जाती है, मंहगाई आसमान छूने लगती है, क्योंकि झाड़ू में धन की देवी महालक्ष्मी का वास माना गया है।
विद्वानों के अनुसार झाड़ू पर पैर लगने से महालक्ष्मी का अनादर होता है। झाड़ू घर का कचरा बाहर करती है और कचरे को दरिद्रता का प्रतीक माना जाता है। जिस घर में पूरी साफ-सफाई रहती है वहां धन, संपत्ति और सुख-शांति रहती है, पर इधर कुछ दिनों से कुछ लोग हाथ धोकर, झाड़ू और झाड़ू वालों के पीछे पड़े हैं। परेशान होकर एक झाड़ूराम एक ज्योतिषी की शरण में गए और अपनी समस्या बताई। ज्योतिषी ने हाथ देखकर बताया कि आपकी असली समस्या 2024 है, कुछ लोग आपकी झाड़ू से डर गये हैं और आपके पीछे पड़ गए हैं, इसलिए कुछ उपाय हैं जिनसे थोड़ी राहत मिल सकती है। पहली बात तो यह है कि आप झाड़ू के प्रदर्शन में संयम बरतें, जब घर में झाड़ू का इस्तेमाल न हो, तब उसे नजरों के सामने से हटाकर रखना चाहिए। शाम के समय सूर्यास्त के बाद झाड़ू नहीं लगाना चाहिए इससे आप लोगों में परेशानी आती है।
झाड़ू को कभी भी खड़ा नहीं रखना चाहिए, इससे आपसी कलह होती है, और आप के लोग सब जानकारी लीक कर देते हैं। आपके अच्छे दिन कभी भी खत्म न हो, इसके लिए हमें चाहिए कि हम गलती से भी कभी झाड़ू को पैर नहीं लगाएं या लात ना लगने दें, अगर ऐसा होता है तो घर से कुर्सी चोरी हो जाती है। ज्यादा पुरानी झाड़ू और झाड़ू वालों को घर में न रखें। किसी एकांत जगह में छुपा दें या कि तत्काल सेवा में लगा दें।
झाड़ू की कभी भी घर से बाहर, या विदेश में प्रशंसा कराने से अशुभ होता है। कहा जाता है कि ऐसा करने से झाडू वालों के अनिष्ट योग बन जाते हैं, झाड़ू को हमेशा छिपाकर रखना चाहिए। ऐसी जगह पर रखना चाहिए जहां से झाड़ू हमें, घर या बाहर के किसी भी सदस्यों को दिखाई नहीं दे।
— वो तो ठीक है पर पंडित जी रात रात भर सपने में बार बार झाड़ू दिखाई दे रही है इसका क्या मतलब है?
ज्योतिषी- सपने मे झाड़ू देखने का मतलब है नुकसान और नुकसान, अपयश, आरोप प्रत्यारोप, कुर्सी चोरी होने का योग…..
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘उनकी अध्यक्षता में’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 155 ☆
☆ व्यंग्य – उनकी अध्यक्षता में ☆
मैं उस संस्था में नया-नया ही दाखिल हुआ था, इसलिए उसके सदस्यों, विशेषकर उसके दिग्गजों को, बहुत कम जानता था। सभाएँ भी बहुत कम हुई थीं।
एक दिन एक सभा बुलायी गयी। सचिव को तो मैं नहीं जानता था, लेकिन अध्यक्ष महोदय से वाकिफ था। वे खासे संपन्न आदमी हैं और नगर की पंद्रह बीस संस्थाओं के अध्यक्ष हैं। सचिव महोदय ने घोषणा की कि सरकार सामाजिक कार्यक्रमों के लिए काफी पैसा दे रही है, इसलिए संस्था को कोई सामाजिक कार्यक्रम करना चाहिए। प्रस्ताव आये। अंत में निश्चय हुआ कि नगर के कुछ मुहल्लों का सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण किया जाए और उसके आधार पर निष्कर्ष प्रस्तुत किये जाएँ। सर्वेक्षण-समिति के लिए अध्यक्ष की खोज होने लगी। तभी मुझसे थोड़ी दूर बैठे उन खादीधारी बुज़ुर्ग ने अपने मुँह से दाँत-खोदनी निकाली और लापरवाही से सचिव की ओर अपना हाथ बढ़ा कर कहा, ‘मेरा नाम लिख लीजिए।’
सभा में तालियाँ गूँज उठीं। सचिव के चेहरे पर प्रसन्नता छा गयी। वे बोले, ‘बंशी भाई ने एक बार फिर हमारी समस्या हल कर दी। बंशी भाई को तो ऐसे कार्यक्रमों का स्थायी अध्यक्ष बना देना चाहिए।’
नाम सुनकर मुझे याद आ गया। यह बंशी भाई थे। राजनैतिक उठापटक और गोटी बैठाने में अक्सर उनका नाम सुनने में आता था। वे नगर के पुराने खिलाड़ी थे। सचिव की बात सुनकर वे फिर निर्विकार भाव से दाँत खोदने में व्यस्त हो गये थे।
सचिव उनसे बोले, ‘बंशी भाई, आप खुद ही अपनी टीम चुन लीजिए।’
बंशी भाई धीरे-धीरे कुर्सी से उठ खड़े हुए। उपस्थित सदस्यों पर नज़र डालकर उन्होंने तीन नाम बोले, फिर पता नहीं कैसे उनकी नज़र मेरे चेहरे पर अटक गयी। मेरी तरफ उँगली उठा कर बोले, ‘चौथा नाम इनका लिख लीजिए।’ बंशी भाई ज़रूर आदमी के ग़ज़ब के पारखी थे क्योंकि जो चार आदमी उन्होंने चुने थे वे चारों ही सीधे-साधे, अनुभवहीन, और व्यवहारिक ज्ञान में कोरे थे।
सभा समाप्त होने पर बंशी भाई ने हमें रोक लिया, बोले, ‘शाम को अगर घर पर पधार सकें तो हम काम की रूपरेखा बना लेंगे।’
जब शाम को हम उनके बंगले पर पहुँचे तब वे लॉन में आराम कुर्सी पर पूरे आराम की मुद्रा में पसरे थे। उन्होंने हमें प्रेम से चाय पिलायी और हमारे बीच काम का वितरण कर दिया। काम करने का तरीका भी बतला दिया। फिर बोले, ‘जल्दी काम निपटा दीजिए। मुझे आप लोगों की योग्यता पर पूरा भरोसा है।’
हम चारों बोदे तो थे ही, प्राणपण से काम में जुट गये। मेरे साथ जो चोपड़ा और स्वर्णकार नाम के साथी थे वे तो इस मिशन के प्रति पूरी तरह से समर्पित हो गये। बार-बार गद्गद होकर कहते थे, ‘बहुत मीनिंगफुल काम है। इसके बहुत उपयोगी नतीजे निकलेंगे।’
वे बार-बार निर्देशन के लिए बंशी भाई के पास दौड़ते थे, लेकिन बंशी भाई ने पहले दिन के बाद कभी उन्हें दो मिनट से ज्यादा समय नहीं दिया। हर बार कह देते, ‘अरे यार, तुम लोग समझदार हो, बेफिक्री से जो ठीक समझो करो।’ एकाध मिनट बात करके वे ‘अच्छा तो फिर’ कह कर बेलिहाज उठ जाते।
चोपड़ा और स्वर्णकार भूत की तरह सवेरे से शाम तक लगे रहते। एक दिन वे निष्कर्ष निकालने के लिए एक फार्मूला ले आये थे। उसे लेकर वे फिर उत्साह में बंशी भाई के पास दौड़े गये। बंशी भाई उस दिन बड़ी रुखाई से पेश आये। बोले, ‘आप लोग समझते हैं कि मुझे एक यही काम है। मेरे जिम्मे पचासों काम हैं। आप जो ठीक समझें कीजिए। मुझे परेशान मत कीजिए।’
मर-खप कर हमने अपनी ही समझ से वह काम पूरा किया। रिपोर्ट की छपाई की अवस्था में पहुँचे तो हम फिर बंशी भाई की सेवा में पहुँचे। वे बाहर कार पर चढ़ते हुए मिले। लगता था उन्हें हम से एलर्जी हो गयी थी। माथा सिकोड़कर बोले, ‘अरे यार, तुम्हारी रिपोर्ट को पढ़ने वाला कौन है? अलमारियों में धूल खाएगी और रद्दी की टोकरी में फेंकी जाएगी। सचिव से मिलकर छपवा लो।’
रिपोर्ट छप-छपाकर तैयार हो गयी। उस पर बड़े अक्षरों में बंशी भाई का नाम छपा और छोटे अक्षरों में हम चारों का। रिपोर्ट की दो प्रतियाँ हम उन्हें दिखाने गये। अब की उन्होंने दिलचस्पी से रिपोर्ट देखी, लेकिन कवर देखते ही उनकी मुखमुद्रा बिगड़ गयी। बोले, ‘आपने मेरे नाम के नीचे भूतपूर्व विधायक और भूतपूर्व महापौर नहीं छपवाया। आपको मालूम नहीं था तो किसी से पूछ लेते। कवर फिर से छपवाइए।’ उन्होंने रिपोर्ट हमारी तरफ फेंक दी।
कवर दूसरा छपा। फिर जल्दी ही रिपोर्ट भेंट करने के लिए राज्य के एक मंत्री को आमंत्रित किया गया। बंशी भाई को मंत्री जी की बगल में स्थान मिला। मंत्री महोदय और अन्य वक्ताओं ने ऐसी महत्वपूर्ण रिपोर्ट के प्रस्तुतीकरण के लिए बंशी भाई की ज़बरदस्त प्रशंसा की। मंत्री जी ने कहा, ‘इस उम्र में बंशी भाई की निष्ठा, कार्यक्षमता और उत्साह देखकर मुझ जैसे कम उम्र लोगों को लज्जा का अनुभव होता है।’
बंशी भाई का मुख प्रसन्नता से लाल था और उनका सिर विनम्रता से झुका हुआ था। अंत में बंशी भाई का भाषण हुआ। उन्होंने कहा, ‘मेरा जीवन समाज के लिए है। समाज का मुझ पर ऋण है और उस ऋण को उतारने के लिए मैं आखरी साँस तक पीछे नहीं हटूँगा।’
उनके भाषण के बाद भयंकर तालियाँ पिटीं और हम चारों कार्यकर्ता मंच के पीछे इंतज़ाम में जुटे अवाक होकर देखते रहे।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक एक विचारणीय एवं समसामयिक ही नहीं कालजयी रचना “धक्का मुक्की ”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 113 ☆
☆ धक्का मुक्की ☆
अपने आपको श्रेष्ठ दिखाने की होड़ में जायज- नाजायज सभी कार्य अनायास ही होते जाते हैं। संख्या बल के बल पर लोग नए- पुराने रिश्ते बनाते हुए एक दूसरे को कब धता देकर भाग जायेंगे कहा नहीं जा सकता।
दीवार की सारी ईंट, कम सीमेंट की वजह से हिल डुल रहीं थीं, अब प्रश्न ये था कि सबसे पहले कौन सी ईंट गिरे, गिरना तो उसके ऊपर सभी चाहती थीं, बस शुरुआत कैसे करें ? यही प्रश्न सबके मन में था।
जब कोई उच्च पद पर हो तो थोड़ा मुश्किल होता है।
खैर जब मन में चाह लो तो रास्ता निकल ही आता है, वैसे ही मौका मिल गया हितेश को उसने थोड़ा सा मुख खोला, कुछ अधूरे शब्द ही आ पाए जो दूसरे ने पूरे किए, अब धीरे – धीरे सभी ईंटे बिखरने लगीं, देखते ही देखते ईंटो का ढेर लग गया, अन्ततः केवल दो ईंट बची जो एक दूसरे को देखकर पहले तो मुस्करायीं फिर अपनी आदत अनुसार एक दूसरे के सिर पर ईंट दे मारीं, देखते ही देखते विशाल भवन के निर्माण की परिकल्पना धाराशायी हो गयी।
प्रकृति बदलाव चाहती है, कई बार संकेत भी देती है। पर लोग आँख, नाक, कान सब बंद कर बैठ जाते हैं, ऐसा लगता है जैसे वे प्रतीक्षा करते हैं ऐसे ही पलों की।
बदलाव की आँधी किसको कब और कहाँ उड़ा ले जायेगी ये बड़े- बड़े राजनीतिक ज्योतिषी भी नहीं बता सकते हैं। उठा- पटक का किस्सा अब पाँच वर्षों का इंतजार नहीं कर पा रहा है। मध्य राह अर्थात ढाई वर्षों में ही धुर विरोधियों से जुड़कर नया राग अलापने का दौर हमको कहाँ ले जायेगा ये तो वक्त तय करेगा। किन्तु साहित्यकार दूरदर्शी होते हैं सो पहले से सारी भविष्यवाणी कर देते हैं। कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद या प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई जी इन्होंने जो भी लिखा वो उस काल में मात्र कल्पना थी पर आज का कड़वा सत्य है। जब इन्हें पढ़ो तो ऐसा लगता है मानो इन्होंने सारी खबरों को देखकर अपनी पुस्तकें लिखी थी।
खैर ये तो परम सत्य है कि पद की गरिमा को कायम रखना व पद पर बने रहना सरल नहीं होता है। जोड़ें या तोड़ें पर जनता की नब्ज़ को पहचाने तभी शासन कायम रह पायेगा। योग्यता का होना बहुत जरूरी है, सदैव कार्य करते रहें, कुछ सीखें कुछ सिखाएँ सभी को अपना बनाएँ।
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक मज़ेदार व्यंग्य श्रंखला “प्रशिक्षण कार्यक्रम…“ की अगली कड़ी ।)
☆ व्यंग्य # 44 – प्रशिक्षण कार्यक्रम – भाग – 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
मेरी स्वरचित सभी पोस्ट, तुरंत तैयार की जाती हैं गरमागरम जलेबियों की तरह. जब लिखना शुरू होता है तो उसका कलेवर और यात्रा फिर विराम निश्चित नहीं होता. पहले कथा के पात्र या विषय पर कल्पना से सृजन किया जाता है फिर कहानी आगे बढ़ती है. हो सकता है इस कारण भी कभी कभी पात्र शुरुआत में जैसे होते हैं, वैसे अंत तक नहीं रहते, बदल जाते हों. परम संतोषी जी भी प्रारंभ मे शायद अलग रंग के लगे पर बाद में उनमें रचनात्मकता डालते डालते और उनके परिवार के आने से वो सबके प्रिय होते चले गये. खलनायक पात्रों का सृजन भी लेखकीय कर्म है, और उतना ही महत्वपूर्ण भी है, नायक का किरदार गढ़ने जितना. गब्बर सिंह के किरदार को गढ़ना इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है कि दर्शकों का डर और गुस्सा उसे ज्यादा, और ज्यादा, ज्यादा से ज्यादा लोकप्रिय बनाता चला गया. फिर इस रोल में अमजद खान का अभिनय, उनके डॉयलाग और बोलने की शैली ने गब्बर सिंह को फिल्मों का ऐतिहासिक खलनायक बना दिया. क्रूरता और कुटिलता के इस संगम की अपार लोकप्रियता और जन जन तक पहुंच, फिल्मजगत के लिये ऐतिहासिक और मील का पत्थर बन गई.
प्रशिक्षण के ये अनुभव भी Trainee प्रशिक्षु की हैसियत से 1975 से 2011 के बीच अटैंड किये गये विभिन्न प्रशिक्षण कोर्स पर आधारित हैं जिनमें मनोरंजन को ही प्राथमिकता दी गई है.
जब प्रायः रविवार को लोग प्रशिक्षण केंद्र पहुंचते हैं तो वहां का केंटीन स्टाफ भी शाम से चैतन्य हो जाता है. पिछले बैच के विदा होने से उत्पन्न हुआ खालीपन, रविवार शाम से ही धीरे धीरे भरने लगता है और सोमवार सुबह से ही कैंटीन फुल फ्लेज्ड वर्किंग मोड में आ जाती है.
कुछ प्रशिक्षण कार्यक्रम अनूठे होते हैं, रोचक भी, जिनमें “बिहेवियर साईंस और परिवर्तन 1,2,3.प्रमुख थे. इनकी एप्रोच और कलेवर ही अलग था जो यह संदेश भी देने में सफल रहा कि “Elephant can also fly if there is vision and approach. It was attempted seriously as well as successfully and results have to come as expected which came rightfully.”
प्रशिक्षण का एक कार्यक्रम ऐसा भी था जिसके सभी प्रतिभागी नये नये फील्ड ऑफीसर थे और उनका कार्यक्षेत्र मुख्यतः शासन प्रायोजित ऋण योजनाएं और कृषि प्रखंड के ऋणों तक ही सीमित था, पर कार्यक्रम “हाई वेल्यू एडवांस इन SSI & C&I Segment ” था. जाहिर था जो प्रतिभागी पढ़ना और सीखना चाहते थे, प्रशिक्षण उससे अलग परिपक्वता के लिये उपयोगी था. समापन दिवस पर पधारे मुख्य अतिथि के सामने जब यह बात उठी तो बॉल क्षेत्रीय कार्यालय और शाखाओं के कोर्ट में डाल दी गई. पर मुख्य अतिथि ने ये अवश्य कहा कि पार्टीसिपेंट्स अगर कार्यक्रम के हिसाब से नहीं आये थे, तो जो आये थे, उनके हिसाब से उपयुक्त प्रशिक्षण कार्यक्रम दिया जा सकता था. यही इनोवेटिव भी होता और व्यवहारिक भी.
प्रशिक्षण जारी रहेगा, इसी उम्मीद के साथ कि तारीफ करना मुश्किल हो तो आलोचना ही कर दीजिए, वो भी चलेगी.😀
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘कल्चर करने वाले ’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 154 ☆
☆ व्यंग्य – कल्चर करने वाले ☆
अविनाश बाबू संपत्ति वाले आदमी हैं। दो तीन फैक्ट्रियां है। कई कंपनियों में शेयर हैं। उमर ज़्यादा नहीं है।आठ दस साल पहले शादी हुई थी। तीन-चार साल पत्नी के साथ प्यार-मुहब्बत में, घूमते घामते गुज़र गये। फिर दो बच्चे हो गये। उन्हें सँभालने के लिए आया, नौकरानियाँ हैं। मगर आठ दस साल में जीवन का रस सूख चला। सबसे बड़ी समस्या समय काटने की थी। धंधे में कुछ ज़्यादा देखने-सँभालने को नहीं था। मैनेजर, कर्मचारी सब कामकाज बड़ी कुशलता से सँभालते थे। अविनाश और श्रीमती अविनाश क्या करें? कितना सोयें, कितना खायें, कितना ताश खेलें? उबासियाँ लेते लेते जबड़े दुखने लगते। दिन पहाड़ सा लगता और रात अंतहीन अंधेरी गुफा सी। अविनाश जी की तोंद भी काफी बढ़ गयी थी।
अंत में एक दिन श्रीमती अविनाश ने अपनी समस्या श्रीमती दास के सामने रखी। श्रीमती दास उनकी पड़ोसिन थीं। उनके पति एक साधारण अधिकारी थे, लेकिन श्रीमती दास बड़ी सोशल और क्रियाशील महिला थीं। वे हमेशा किसी न किसी आयोजन में इधर से उधर भागती रहती थीं। शहर के सभी महत्वपूर्ण महिलाओं- पुरुषों से उनका परिचय था। सवेरे नौ बजे वे कंधे पर अपना बैग लटका कर निकल पड़तीं और अक्सर दोपहर के भोजन के लिए भी लौट कर न आतीं। उनके पति भी बेचारे बड़े धीरज से उनका साथ निबाहते थे, यह तो मानना ही होगा।
श्रीमती अविनाश की समस्या सुनकर श्रीमती दास ने ठुड्डी पर तर्जनी रखकर आश्चर्य व्यक्त किया, बोलीं, ‘हाय, ताज्जुब है कि आपको समय काटने की समस्या है। शहर में इतने प्रोग्राम होते रहते हैं, आप इनमें जाना तो शुरू करिए। लोग तो आपको सर-आँखों पर बिठाएंगे। समय काटने की प्रॉब्लम चुटकियों में हल हो जाएगी।’
दो दिन बाद ही श्रीमती दास अविनाश दंपति को एक संगीत कार्यक्रम में ले गयीं। वहाँ शहर के कई महत्वपूर्ण लोगों से उनका परिचय कराया। श्री और श्रीमती अविनाश को संगीत का सींग-पूँछ तो कुछ समझ में नहीं आया, लेकिन उन सब भले लोगों के बीच में बैठना उन्हें अच्छा लगा। कुल मिलाकर उनकी वह शाम अच्छी कटी।
उसके बाद गाड़ी चल पड़ी। आये दिन शहर में कोई न कोई कार्यक्रम होता और श्रीमती दास अविनाश दंपति को वहां ले जातीं। फिर तो अविनाश दंपति के पास खुद ही कई निमंत्रण-पत्र आने लगे। श्रीमती दास ने उन्हें कई संस्थाओं का सदस्य बनवा दिया। श्री अविनाश की हैसियत को देखते हुए वे कुछ ही समय में कई संस्थाओं के अध्यक्ष बन गये। अब उनकी व्यस्तता बहुत बढ़ गयी। जहाँ भी श्री अविनाश जाते श्रीमती अविनाश उनके साथ जातीं।
शोहरत कुछ और बढ़ी तो श्री अविनाश कई उत्सवों के अध्यक्ष बनाये जाने लगे। वे कई जगह उद्घाटन के लिए जाते और अच्छा-खासा भाषण झाड़ते। धीरे-धीरे वे शहर के जाने-माने उद्घाटनकर्ता बन गये।
शुरू शुरू में ऐसे मौकों पर उनका हौसला पस्त हो जाता था क्योंकि उद्घाटन के बाद भाषण देना पड़ता था, जो श्री अविनाश के लिए उन दिनों टेढ़ी खीर थी। ऐसे समय श्रीमती दास उनके काम आतीं। वे लच्छेदार भाषा में सुंदर-सुंदर भाषण तैयार कर देतीं और श्री अविनाश जेब से निकाल कर पढ़ देते। धीरे-धीरे वे समझ गये कि सभी भाषणों में खास-खास बातें वही होती हैं, सिर्फ अवसर के हिसाब से थोड़ी तब्दीली करनी पड़ती है। भगवान की कृपा से जल्दी ही उनमें इतनी योग्यता आ गयी कि अब किसी भी मौके पर बिना तैयारी के फटाफट भाषण देने लगे। एकाध बार तो ऐसा हुआ कि उन्होंने भाषण-मंच पर पहुँचकर ही पूछा कि आयोजन किस खुशी में है, और तुरंत भाषण दे डाला।
अविनाश दंपति के समय का अब पूरा सदुपयोग होने लगा। अब वे रात को देर से लौटते, व्हिस्की का छोटा सा ‘निप’ लेते, और सो जाते। बढ़िया नींद आती। उनका अनिद्रा का रोग जड़ से खत्म हो गया। सवेरे नौ बजे उठते जो मन प्रसन्न रहता। स्वभाव की चिड़चिड़ाहट खत्म हो गयी। नौकर-नौकरानियों पर मेहरबान रहते। नौकर नौकरानियाँ भी मनाते कि हे प्रभु, जैसे हमारे मालिक-मालकिन का स्वभाव सुधरा, ऐसइ सब नौकरों के मालिकों का सुधरे।
अब श्रीमती दास ने श्रीमती अविनाश को सुझाव दिया कि श्री अविनाश तो काम से लग गये, अब वे महिलाओं के कुछ आयोजन अपने घर पर किया करें। इससे महिलाओं में उनका अलग स्थान बनेगा। श्रीमती अविनाश को प्रस्ताव पसंद आ गया। इसके बाद महिलाओं की बैठक श्रीमती अविनाश के घर पर होने लगी। चाय और सुस्वादु नाश्ते के साथ महिलाओं के विभिन्न कार्यक्रम होते। कभी कवयित्री सम्मेलन होता, तो कभी नाटक अभिनय। और कुछ न होता तो गप ही लड़ती। ज़िंदगी बड़ी रंगीन हो गयी।
फिर श्रीमती दास की सलाह पर श्रीमती अविनाश कुछ समाजसेवा के कार्यक्रम भी करने लगीं। कभी सभी महिलाएँ गरीब मुहल्लों में निकल जातीं और वहाँ महिलाओं को सफाई की ज़रूरत और उसके तरीके सिखातीं। कभी गरीबों के बच्चों को बिस्कुट टॉफी बाँट आतीं। उस दिन सभी महिलाएँ बहुत सुख और संतोष का अनुभव करतीं। उन्हें लगता उन्होंने समाज के प्रति अपना कर्तव्य पूरा कर दिया है। ऐसे सब कर्तव्यों की खबर अखबार में ज़रूर भेजी जाती और वह मय फोटो के छपती। श्रीमती अविनाश ऐसे सब अखबारों की कटिंग सहेज कर रखतीं।
श्रीमती अविनाश कविताएँ सुनते सुनते खुद भी कविता करने लगीं। जब भी फुरसत मिलती, वे कुछ लिख डालतीं। कभी फूलों पर, कभी आकाश पर, गरीबों की ज़िंदगी पर। श्रीमती दास और अन्य महिलाएँ उनकी कविताओं को सुनकर सिर धुनतीं और गरीबों की हालत का मार्मिक चित्रण सुनकर आँखों में आँसू भर भर लातीं।
इस तरह अविनाश दंपति की ज़िंदगी की झोली खुशियों से भर गयी। कोई अभाव नहीं रह गया। समय पूरा-पूरा बँट गया, कुछ ‘कल्चरल’ कार्यक्रमों को, कुछ गरीब-दुखियों को। अब श्रीमती अविनाश हर नयी मिलने वाली को नेक सलाह बिन माँगे देती हैं, ‘भैनजी, ‘लाइफ’ को ‘हैप्पी’ बनाना है जो ‘कल्चर’ ज़रूर करना चाहिए। बिना ‘कल्चर’ किये ‘लाइफ’ का मज़ा नहीं है।’
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय व्यंग्य “आग बबूला होना”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 112 ☆
☆ आग बबूला होना ☆
आग और बबूल दोनों ही उपयोगी होने के साथ- साथ यदि असावधानी बरती तो घातक सिद्ध होते हैं। व्हाट्सएप समूहों में जोड़ने की परम्परा तो बढ़ती जा रही है। पहले स्वतः जोड़ना, फिर हट जाने पर जोड़ने वाले द्वारा इनबॉक्स में ज्ञान मिलना ये सब आम बात होती है। बिना अनुमति के समूह से जोड़ने पर एक मैडम ने कहा मैं लिखती नहीं लिखवाती हूँ। तो एडमिन को भी गुस्सा आ गया। क्या लिखतीं हैं? मैंने तो कभी कुछ पढ़ा ही नहीं।
यही तो मैं भी कह रही हूँ कि मैं एक प्रतिष्ठित पत्रिका की सम्पादक हूँ मुझे तो केवल अच्छा पढ़ने की जरूरत है जिससे लोगों का आँकलन कर उनसे टीम वर्क करवाया जा सके। लिखने का कार्य तो सहयोगी करते हैं।
अब बातकर्म पर आ टिकी थी। इसके महत्व तो ज्ञानी विज्ञानी सभी बताते हैं कोई ध्यान योग, कोई कर्म योग तो कोई भोग विलास के साधक बन जीवन जिये जा रहे हैं।
जो कर्मवान है उसकी उपयोगिता तभी तक है जब उसका कार्य पसंद आ रहा है जैसे ही वो अनुपयोगी हुआ उसमें तरह-तरह के दोष नज़र आने लगते हैं।
बातों ही बातों में एक कर्मवान व्यक्ति की कहानी याद आ गयी जो सबसे कार्य लेने में बहुत चतुर था परन्तु किसी का भी कार्य करना हो तो बिना लिहाज मना कर देता अब धीरे – धीरे सभी लोग दबी जबान से उसका विरोध करने लगे, जो स्वामिभक्त लोग थे वे भी उसके अवसरवादी प्रवृत्ति से नाख़ुश रहते ।
एक दिन बड़े जोरों की बरसात हुई कर्मयोगी का सब कुछ बाढ़ की चपेट में बर्बाद हो गया। अब वो जहाँ भी जाता उसे ज्ञानी ही मिल रहे थे, लोग सच ही कहते हैं जब वक्त बदलता है तो सबसे पहले वही बदलते हैं जिन पर सबसे ज्यादा विश्वास हो। किसी ने उसकी मदद नहीं कि वो वहीं उदास होकर अपने द्वारा किये आज तक के कार्यों को याद करने लगा कि किस तरह वो भी ऐसा ही करता था, इतनी चालाकी और सफाई से कि किसी को कानों कान खबर भी न होती।
पर कहते हैं न कि जब ऊपर वाले कि लाठी पड़ती है तो आवाज़ नहीं होती। दूध का दूध पानी का पानी अलग हो जाता है।
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक मज़ेदार व्यंग्य श्रंखला “प्रशिक्षण कार्यक्रम…“ की अगली कड़ी ।)
☆ व्यंग्य # 43 – प्रशिक्षण कार्यक्रम – भाग – 3 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
चाय पूरी दुनिया में पी जाती है, इंग्रेडिएंट्स अलग अलग हो सकते हैं, टाइमिंग और फ्रीक्वेंसी भी व्यक्ति दर व्यक्ति बदलती है, चाय के लिए इश्क और ज़ुनून भी कम या ज्यादा हो सकते हैं. अंग्रेजों को अंग्रेजी और चाय हमने वापस ले जाने नहीं दी, बिना चाय के विदाई दी0, स्वतंत्रता दिवस मनाया और फिर चाय पी. जो एक भाषा अंग्रेजी को अंग्रेजियत में बदलकर एक हाथ में पकड़े थे उन्होंने दूसरे हाथ से हाई टी इंज्वाय की, उन्होंने भी वीआईपी स्टेटस के साथ इंडिपेंडेंस डे सेलीब्रेट किया.
हम बैंकर भी, बैंक खुलने के एक घंटे के अंदर, चाय पीना अपरिहार्य मानते हैं. जब काउंटर पर कस्टमर से चेक लेकर टोकन पकड़ाते थे तो समझदार कस्टमर कहते थे, सर,चाय के एक दो घूंट ले लीजिए फिर हमारा चेक पोस्ट कर दीजिएगा. तब उस ग्राहक की आत्मा में छुपी हुई मानवीयता के दर्शन हो जाते थे. पर प्रशिक्षण काल में सबसे ज्यादा चाय की ज़रुरत, पोस्ट लंच के पहले सेशन के बाद होती थी .ये ऑक्सीजन की ज़रूरत से कम नहीं होती और इस चाय को पीने से, नींद को तरसते सुस्त प्रशिक्षुओं में भी चेतना आ जाती थी. इसका समय लगभग 3:30 सायंकाल होता था. ज्ञान से लबरेज या ज्ञान के प्रति अनास्थावान आत्मन भी सब कुछ भूलकर चाय और सिर्फ चाय की चर्चा, चाय पीते पीते करते थे. इस चाय जनित ऊर्जा से प्रशिक्षण सत्र का अंतिम सेशन बड़ी सरलता से निपट जाता था और प्रशिक्षण का पहला दिन अपना विराम पाता था. दिन की अंतिम सर्व की जाने वाली चाय के घूंटों के साथ प्रशिक्षु, अध्ययन के अनुशासन से मुक्त होते हैं और डिनर के पहले की एक्टिविटी, अपनी रुचि, शक्ति और सामर्थ्य के अनुसार तय कर तदनुसार व्यस्त हो जाते थे. भ्रमण प्रेमी नगर की तफरीह में, थके हुये, आराम करने, खिलाड़ी टेबल टेनिस और कैरम खेलने, चर्चा प्रेमी वर्तमान परिवेश पर चर्चाओं में मशगूल हो जाते थे. हरिवंश राय बच्चनजी की मधुशाला सामान्यतः पहले दिन बंद रहा करती थी क्योंकि समूह नहीं बन पाते थे, बाकी अपवाद तो हर सिद्धांत और नियम के होते हैं जो जिक्र से ज्यादा समझने की बात होती है.
रात्रिकालीन भोजन के पश्चात, सफर की थकान और नींद की कमी की तलाश, आरामदायक बिस्तर तलाशती थी जो हमारे प्रशिक्षण केंद्र सुचारू रूप से प्रदान करते थे. प्रशिक्षु अपनी नींद का कोटा पूरा करते थे, सपने जिनका कोई लक्ष्य होता नहीं, आते थे. मोबाइल उस जमाने में होता नहीं था तो परिजनों से बात भी होती नहीं थी, शायद सपने इस कमी को पूरा करते हों. प्रशिक्षण केंद्र की पहली रात में सपने फिल्म तारिकाओं के नहीं, अपनोँ के नाम ही होते हैं और यह वह मापदंड है जो हमारे जीवन में परिवार की महत्ता को प्रतिष्ठित करता है. सुबह, फिर बेड टी के साथ आती और इसके साथ ही दूसरे दिन की शुरुआत होती थी.
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है समसामयिक विषय पर आधारित आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य ‘किशनलाल की मौत’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 152 ☆
☆ व्यंग्य – किशनलाल की मौत ☆
किशनलाल एकदम मर गया, बिलकुल मर गया। इन छोटे लोगों के साथ यही तो मुश्किल है कि ये जीते तो एक एक कदम दूसरों की परमीशन से हैं, लेकिन मरते हैं तो बिना किसी से पूछे मर जाते हैं।
तो हुआ यह कि किशनलाल सड़क पार कर रहा था और उसकी दाहिनी तरफ से ट्रक आ रहा था। ट्रक वाले ने सोचा कि किशनलाल सड़क पार कर जाएगा। उसने स्पीड कम नहीं की। लेकिन किशनलाल किसी सोच में खोया था। एकाएक ही ट्रक को देखकर वह हड़बड़ाकर बीच सड़क में रुक गया और ट्रक रुकते रुकते उसे गिराकर उसके ऊपर से गुज़र गया।
हंगामा मच गया और लोग किशनलाल को पास ही एक डॉक्टर के यहाँ ले गये। होश-हवास में किशनलाल उस मँहगे डॉक्टर के दरवाज़े पर नहीं चढ़ पाता, लेकिन उस दिन उसके लिए उस दवाखाने के दोनों दरवाज़े खुल गये। थोड़ी देर में उसकी बीवी भी रोती पीटती आ गयी। उसे भी लोगों ने वीआईपी की तरह लिया और पकड़कर बेंच पर बैठा दिया, जहाँ बैठी वह पागलों की तरह हर किसी से किशनलाल का हाल पूछती रही। लोग उसे धीरज बँधाते रहे, यद्यपि जानते सब थे कि किशनलाल बचेगा नहीं। भीड़ इतनी बढ़ गयी थी कि सड़क पर ट्रैफिक रुक रुक जाता था। इतने में ही खादी के कुर्ते-पाजामे में स्थानीय विधायक जी वहाँ पहुँच गये। विधायक जी के साथ दो तीन आदमी अटैच्ड थे, जैसा कि ज़रूरी है। विधायक जी ने गेट से घुसते हुए लोगों के चेहरे पर नज़र डाली कि उनके प्रवेश का लोगों पर क्या असर होता है। असर तो होना ही था। सात आठ लोग तुरन्त भीड़ से टूट कर उनकी तरफ लपके।
‘अरे, विधायक जी आये हैं।’
‘वाह साहब, आपने तो कमाल कर दिया।’
‘क्यों न हो। यही तो बात है। सुना और दौड़े आये।’
परम गद्गद होकर उन्होंने हाथ जोड़े, ‘अरे भाई, यह तो हमारा कर्तव्य है। आपकी सेवा के लिए हमेशा तैयार रहता हूँ।’
‘वाह, जैसे गज ने पुकारा और भगवान दौड़े चले आये सुदरसन चक्र लिये।’
‘कमाल कर दिया साहब।’
एक सज्जन लपक कर एक कुर्सी उठा लाये और उसे रखकर अपने गमछे से झाड़ दिया।
‘पधारिए साहब।’
‘अरे भाई, बैठने थोड़इ आये हैं। यह बताइए एक्सीडेंट कैसे हुआ।’
‘साहब, हम बताते हैं। किशनलाल घर से कुछ सौदा लेने को निकला। सौदा लेकर लौट रहा था कि……’
‘तुम्हें कुछ पता नहीं है। हम बताते हैं साहब।’
‘हमें कैसे पता नहीं?’
‘तुम थे वहाँ जब एक्सीडेंट हुआ था?’
‘तुम थे?’
‘हाँ, थे। हम वहीं चौराहे पर खड़े थे।’
‘अच्छा तो तुम ही बता लो।’
‘साहब, किशनलाल सड़क पार कर रहा था। लगता है कुछ सोच रहा था। सोचते सोचते ट्रक को देखकर बीच में एकाएक रुक गया। ट्रक वाला रोक नहीं पाया।’
‘राम राम! चलिए, ज़रा उसकी पत्नी से मिल लें।’
‘आइए, आइए।’
दो लोगों ने भीड़ में से रास्ता निकाला। विधायक जी ने किशनलाल की बेहाल पत्नी के पास जाकर हाथ जोड़े। उसने अपने दुःख के कारण कोई ध्यान नहीं दिया।विधायक जी के साथ नत्थी एक साहब औरत से बोले, ‘विधायक जी आये हैं।’
औरत ने फिर भी कोई ध्यान नहीं दिया।
दूसरे साहब बड़बाये, ‘एकदम जाहिल है। विधायक जी नमस्ते कर रहे हैं, इसे होश ही नहीं है।’
विधायक जी ऊँचे स्वर में बोलने लगे। लोगों ने अपने कान बढ़ाये। ‘धीरज रखिए। होनी के आगे किसी का वश नहीं है। मेरे योग्य जो सेवा हो बताइए। मैं हमेशा तैयार हूँ।’
विधायक जी ने सबके चेहरों की ओर देखा। सब संतोष से मुस्कुराए। विधायक जी फिर एक बार नमस्कार करके चल दिये।
रास्ते में बोले, ‘क्या किया जाए? कुछ समझ में नहीं आता।’
‘हम बताते हैं साहब। इस सड़क पर ट्रक निकलना बन्द करवा दीजिए। नहीं तो कम से कम गाड़ी-ब्रेकर तो बनवा ही दीजिए।’
‘स्पीड-ब्रेकर बोलो जी।’
‘हाँ हाँ, वही।’
‘ठीक है’, विधायक जी बोले।
‘अरे साहब, इस मुहल्ले की एक समस्या थोड़े ही है। आप थोड़ी फुरसत से टाइम दीजिए। घर पर कब मिलते हैं?’
‘सेवा के लिए हमेशा हाजिर हूँ। वैसे सवेरे आठ से दस तक बैठता हूँ।’
‘किसी दिन आऊँगा, साहब। एक तो इस मुहल्ले में पानी की इतनी तवालत है कि क्या बताएँ। प्रेशर इतना कम रहता है कि बूँद बूँद टपकता है। दूसरे, आपसे अपने किरायेदार की बात करनी थी। उसके आजकल बहुत पर निकल रहे हैं। थोड़ा छाँटने पड़ेंगे।’
‘आप आइए। फुरसत से बात करेंगे।’
‘ज़रूर। मेहरबानी आपकी।’
इतने में पता चला कि किशनलाल मर गया। उसकी बीवी की चीखें ऊँची हो गयीं।
विधायक जी बोले, ‘बुरा हुआ। अब क्या होगा?’
‘शायद पोस्टमार्टम होगा।’
‘तो अब हम चलते हैं। मेरे योग्य कोई काम हो तो बताइएगा।’
‘कैसे जाएंगे साहब?’
‘ऑटो से निकल जाऊँगा।’
‘अरे वाह साहब, हमारा स्कूटर किस दिन के लिए है?’
‘देख लो, तुम्हारा स्कूटर ठीक न हो तो हम चले जाते हैं।’
‘अरे वाह! अपना स्कूटर एकदम फिट है। आइए साहब।’
‘नमस्ते साहब।’
विधायक जी ने दोनों हाथ जोड़कर पूरी भीड़ की तरफ घुमाये, जो उनकी तरफ देख रहे थे उनकी तरफ, और जो नहीं देख रहे थे उनकी तरफ भी।
इसके बाद स्कूटर पर बैठकर विधायक जी विदा हो गये। जब तक वे दिखायी देते रहे, आठ दस जोड़ी हाथ उनकी तरफ जुड़े रहे और आठ दस जोड़ी ओठ मुस्कान में खुले रहे। फिर हाथ नीचे गिर गये और ओठ सिकुड़ गये।
बहुत देर हो चुकी थी। लोग अपने अपने घरों को चल दिये। किशनलाल तो मर ही चुका था, अब वहाँ रुकना बेकार था।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ मधुकांत जीहरियाणा साहित्य अकादमी से बाबू बालमुकुंद गुप्त साहित्य सम्मान तथा महाकवि सूरदास आजीवन साहित्य साधना सम्मान (पांच लाख) महामहिम राज्यपाल तथा मुख्यमंत्री हरियाणा द्वारा पुरस्कृत। आपकी लगभग 175पुस्तकें प्रकाशित एवं रचनाओं पर शोध कार्य हो चूका है। एक नाटक ‘युवा क्रांति के शोले’महाराष्ट्र सरकार के 12वीं कक्षा की हिंदी पुस्तक युवक भारती में सम्मिलित। रचनाओं का 27 भाषाओं में अनुवाद।
संप्रति –सेवानिवृत्त अध्यापक, स्वतंत्र लेखन ,रक्तदान सेवा तथा हरियाणा साहित्य अकादमी की पत्रिका हरिगंथा के नाटक अंक का संपादन। प्रज्ञा साहित्यिक मंच के संरक्षक।
☆ व्यंग्य – शिक्षामंत्री ख्यालीराम ☆ डॉ मधुकांत ☆
वर्तमान सरकार से त्रस्त होकर जनता ने विपक्ष पर अपनी नजरें टिका दी। विपक्ष की कुछ ऐसे तेज हवा चली कि इस आंधी में ख्यालीराम भी एम.एल.ए. का चुनाव जीत गए। वैसे तो ख्यालीराम ग्राम प्रधान से लेकर विधायक बनने के सभी चुनाव हारता रहे परन्तु इस आंधी में तो उसके भाग्य का ताला खुल गया ।पहले ग्राम पंचायत में … फिर निर्दलीय विधायक के रुप में… उसके बाद पार्टी कार्यकर्ता… फिर पार्टी के चुनाव चिन्ह के लिए अपना भाग्य आजमाते रहे….। पार्टी में कितना भी संकट आया परंतु दलबदलू कहलाना ख्यालीराम को कभी पसंद नहीं आया एक बार अपनी मनपसंद पार्टी के साथ चिपक गया तो निरंतर उसी के साथ चिपके रहे इसलिए धीरे-धीरे उसका नाम वरिष्ठ कार्यकर्ताओं की सूची में अंकित हो गया।
वैसे ख्यालीराम कोई काम धंधा तो करता नहीं था, फिर भी गाड़ी, बंगला और हमेशा सफेद खद्दर के कपड़ों में चमकता रहता था। कुछ नजदीकी लोग बताते हैं कि ख्यालीराम के कई प्रकार की ठेकेदारी में उनका हिस्सा रहता है । समाज के लोगों में बैठकर, उनके काम करा देता है तो चुपचाप आमदनी हो जाती है। मंत्री जी का चहेता तो है तो काम करने- कराने का कमीशन स्वयं उसकी जेब में पहुंच जाता है ।
अब तक तो वह ग्राम पंच से लेकर सभी चुनाव हारता रहा और समुद्र के किनारे बैठा लहरों को ताकता रहता था परंतु इस बार लहरें स्वयं चलकर उसके पास आ गई। चुनाव जीत गया तो बड़े सपने भी लेने लगा। मंत्री, उपमुख्यमंत्री …. क्या मालूम मुख्यमंत्री की कुर्सी भी हाथ आ जाए।
जातीय समीकरण लगाए जाएं तो वह इकलौता विधायक चुनकर आया है अपनी जाति से ।इस हिसाब से तो उसका मंत्री बनना निश्चित है । प्रधानमंत्री का कोई भरोसा नहीं कब किसके लिए क्या चमत्कार कर दें, और फिर बड़े सपने लेने में हर्ज भी क्या है।
सपने सच होने की संभावना दिखाई देने लगी राजनीतिक गलियारों में उसके नाम की चर्चा होने लगी। ख्यालीराम ने भी भागदौड़ करने में दिन रात एक कर दिया।
रात को पार्टी अध्यक्ष ने ख्यालीराम को मिलने का समय दिया। बैठक में जाने से पूर्व वह पार्टी के लिए निष्ठा व सक्रियता की फाइल और अपने किए गए संघर्षों के चित्र फाइल में लगाकर अपनी बगल में दवाए पार्टी अध्यक्ष के कार्यालय में पहुंचा ।ख्यालीराम ने अपने सारी खूबियों का बखान किया तो अध्यक्ष महोदय ने कहा, ख्यालीराम जी मैं पक्का तो नहीं कह सकता परंतु यदि कोई संभावना बनती है तो आपको शिक्षा मंत्री बनाया जा सकता है…..।
क्या… शिक्षा मंत्री, क्यों उपहास करते हो? मैंने तो कभी कॉलेज का मुंह भी नहीं देखा….।
“फिर आप के बायोडाटा मैं तो स्नातक लिखा है “…।
“भाई साहब सब पर्दे में रहने दो। वह, बिना कॉलेज गए भी तो डिग्री मिल जाती हैं ..क्या कहते हैं उसे… ओपन यूनिवर्सिटी से..। यह पढ़ने- पढ़ाने का काम हमारे बस का नहीं है। पढ़ाई- वडाई से बचने के लिए तो हम राजनीति में आए थे । नहीं भाई जी… नहीं ,हमें तो कोई ऐसा काम दिलवा दो जिसमें पढ़ाई- लिखाई का काम ना हो। मेहनत- मजदूरी का काम हो ।जैसे उद्योग मंत्रालय, वित्त मंत्रालय आदि….।
ख्यालीराम ने सुन रखा था शिक्षा विभाग में कुछ खास आमदनी नहीं है । उद्योग मंत्रालय, वित्त मंत्रालय में घर बैठे ही कमाई होती है।
” खैर देखते हैं क्या होता है ख्यालीराम जी मैं तो आपके विचार मुख्यमंत्री जी के सामने रख दूंगा ।आगे उनकी मर्जी,” अपनी बात समाप्त कार अध्यक्ष महोदय तुरंत उठकर अंदर चले गए ।
ख्यालीराम जी कार्यालय से बाहर आए तो उनके चुनाव कार्यालय के मुखिया बाहर प्रतीक्षा कर रहे थे।
” क्या रहा नेताजी? उन्होंने तपाक से पूछा ।
“रहना क्या है मुखिया शिक्षा मंत्रालय की कह रहे थे तो हमने टालमटोल कर दिया।भैइया शिक्षा तो हमको बचपन से ही पसंद नहीं है इसलिए बचपन में एक दिन मास्टर को पत्थर मारकर घर भाग आए थे। फिर चुनाव में हमारा उतरना, इतना धन खर्च करना, कोई आमदनी का मंत्रालय तो हो…..। मास्टरों का क्या है ₹100 रुपयों का चंदा देंगे तो लाख रुपए की बदनामी करेंगे….।
“क्या गजब करते हो नेताजी। मंत्रालय कोई भी हो सब दुधारू गाय होते हैं । सभी मंत्रालय अच्छे हैं, बस नेताजी को कमाना आना चाहिए। आपको वह कहानी याद है ना कि राजा ने एक रिश्वतखोर मंत्री को समुद्र की लहरें गिरने का काम सौंप दिया था ताकि वह कोई कमाई ना कर सके परंतु उसने तो लहरों को गिनकर ही अपनी कमाई का जरिया निकाल लिया ।कमाई तो सब जगह बिखरी पड़ी है, मंत्री में कमाने का हुनर होना चाहिए …और कहीं बिना मंत्रालय के छूट गए तो मक्खियां भी नहीं भिन्न-भिन्नाएंगी।”
” ऐसा नहीं है मुखिया, हमारी जात में केवल मैंने ही चुनाव जीता है.. पार्टी अध्यक्ष हमारी उपेक्षा नहीं कर सकते । और सोचो शिक्षा मंत्रालय मे बेकार का काम भी बहुत होता है।” ” काम की खूब कही नेताजी! आपके पास तो शिक्षाबोर्ड है सभी छात्रों- अध्यापकों को बोर्ड से भयभीत करते रहना। कभी कक्षाओं की बोर्ड परीक्षा रखवा देना। कभी बोर्ड परीक्षा को समाप्त कर देना जब सारे प्रदेश की बोर्ड परीक्षा हमारे हाथ में होगी तो सब कुछ हमारे नियंत्रण में रहेगा। हम अच्छा बुरा कुछ भी परिणाम निकाले, हमारी मर्जी । वैसे तो अंग्रेजों ने हमारी शिक्षा व्यवस्था की बहुत सुदृढ़ बना रखा है फिर भी खबरों में बने रहने के लिए अपनी सक्रियता दिखाते हुए कुछ नए नियम बनाते रहना। चल जाए तो तीर नहीं तो तुक्का ।अधिक विरोध हो जाए तो नियम को वापस ले लेना ।
इसी प्रकार धीरे-धीरे समय बीता जाएगा। फिर अगले चुनाव की दौड़- धूप आरंभ कर देना।
“मुखिया क्या बोर्ड की बात करते हो। आए दिन पेपर आउट, परीक्षा में नकल ,परिणाम में गड़बड़ी, 134a के लफड़े ,रोज कोई ना कोई खबर आती रहती है….।”
” आने दो आपको क्या चिंता। आपका मास्टर तान कर सोता है तो फिर आप भी लंबी तान कर सोओ। शिक्षा तो भगवान की कृपा से चल रही है । फिर आपका अध्यापक नहीं पढाएगा तो उसके अभिभावक पढा लेंगे ,नहीं तो ट्यूशन रखवा देंगे। सच कहते हैं यदि वर्ष भर कक्षा में एक भी अध्यापक पढ़ाई न कराए और छात्रों की परीक्षा ले ली जाए तो भी आधे छात्र अपने आप पास हो जाएंगे।
वैसे भी कौन सा अच्छा परिणाम आता है ।वर्ष भर मारामारी करो तब 60-65 परसेंट रिजल्ट आता है।
जिसका डर था वही हुआ मुख्यमंत्री के साथ ख्यालीराम को भी शिक्षा मंत्री की शपथ दिलवा दी गई। शिक्षा मंत्री बनने के बाद अनेक जाने अनजाने मित्रों, अध्यापक- अध्यापिका की बधाई आने आरंभ हो गई। शपथ ग्रहण करने के बाद जैसे ही शिक्षामंत्री ख्यालीराम बाहर आए तो अनेक कजरारे नैन उनकी राह में मस्तक झुकाए खड़े थे जो उनको आश्वस्त कर रहे थे कि अब आपका कार्यालय सदैव सुगंध से महकता रहेगा।