हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #125 ☆ व्यंग्य – काम की चीज़ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘काम की चीज़ ’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 125 ☆

☆ व्यंग्य – काम की चीज़

नेताजी फिर से थैला भर लॉलीपॉप लेकर जनता के बीच पहुँचे।लॉलीपॉप के बल पर दो चुनाव जीत चुके थे, अब तीसरे की तैयारी थी। ‘जिन्दाबाद, जिन्दाबाद’ के नारे लगाने वाले समर्थकों और चमचों की फौज थी।चमचे दिन भर मेहनत करके सौ डेढ़-सौ आदमियों को हाँक लाये थे।नेताजी के लिए यह मुश्किल समय था।एक बार चुनाव फतह हो जाए, फिर पाँच साल आनन्द ही आनन्द है।फिर पाँच साल तक जनता की शक्ल देखने की ज़रूरत नहीं।

नेताजी धड़ाधड़ श्रोताओं की तरफ लॉलीपॉप उछाल रहे थे कि भीड़ में से कोई काली चीज़ उछली और नेताजी के कान के पास से गुज़रती हुई पीछे खड़े उनके एक चमचे शेरसिंह की छाती से टकरायी।नेताजी ने घूम कर देखा तो एक पुराना सा काला जूता शेरसिंह के पैरों के पास पड़ा था और शेरसिंह आँखें फाड़े उसे देख रहा था।देख कर नेताजी का मुँह उतर गया, लेकिन दूसरे ही क्षण वे सँभल गये।शेरसिंह को बुलाया, जूता जनता को दिखाने के लिए कहा, बोले, ‘देखिए भाइयो, ये मेरी बातों के लिए विरोधियों का जवाब है।यही तर्क है उनके पास और यही है उनकी सभ्यता।लेकिन मैं उनको इस भाषा में जवाब नहीं दूँगा।छमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात।इसका जवाब जनता देगी, आप देंगे।इस चुनाव में इन उपद्रवियों को भरपूर जवाब मिलेगा।मैं इसे आप पर छोड़ता हूँ।’

नेताजी भाषण समाप्त करके चले तो तो शेरसिंह गुस्से से कसमसाता हुआ बोला, ‘मैं जूते वाले को ढूँढ़ कर उसके सिर पर यही जूता दस बार बजाऊँगा,तभी मेरा कलेजा ठंडा होगा।’

नेताजी गुस्से से उसकी तरफ देखकर बोले, ‘नासमझ मत बनो।यह जूता हमारे बड़े काम आएगा।इसे सँभाल कर रखना।यह हमारे हजार दो हजार वोट बढ़ाएगा।हमारे देश के लोग बड़े जज़्बाती होते हैं।’

इसके बाद हर चुनाव-सभा के लिए चलते वक्त नेताजी शेरसिंह से पूछते, ‘वह रख लिया?’ और शेरसिंह द्वारा उन्हें आश्वस्त करने के बाद ही आगे बढ़ते।

फिर हर सभा में वे बीच में रुककर कहते, ‘एक ज़रूरी बात आपको बताना है जो विरोधियों के संस्कार और उनके अस्तर (नेताजी ‘स्तर’ को ‘अस्तर’ कहते थे)को दिखाता है।’ फिर वे शेरसिंह से हाथ ऊँचा कर जूता दिखाने को कहते। आगे कहते, ‘देखिए, पिछले महीने श्यामगंज की सभा में मुझ पर यह जूता फेंका गया।यह मेरे खिलाफ विरोधियों का तर्क है।लेकिन मुझे इसके बारे में उन्हें कोई जवाब नहीं देना है।अपना सिद्धान्त है, जो तोको काँटा बुवै ताहि बोउ तू फूल। मेरे बोये हुए फूल आपके हाथों में पहुँचकर विरोधियों के लिए तिरशूल बन जाएंगे।मैं इस घटिया हरकत का फैसला आप पर छोड़ता हूँ।मुझे कुछ नहीं करना है।’

वह जूता जतन से शेरसिंह के पास बना रहा और नेताजी की हर चुनाव-सभा में प्रस्तुत होता रहा।जूते के कारण नेताजी को भाषण लंबा करने की ज़रूरत नहीं होती थी।लोगों के जज़्बात को उकसाने का काम जूता कर देता था।जब कभी शेरसिंह उसे लेकर भुनभुनाने लगता तो नेताजी समझाते, ‘भैया, ज़रा जूते का मिजाज़ समझो।यह इज़्ज़त उतारता भी है और बढ़ाता भी है।यह आदमी के ऊपर है कि वह उसका कैसा इस्तेमाल करता है।पालिटिक्स में हर चीज़ के इस्तेमाल का गुर आना चाहिए।कुछ समझदार लोग तो अपनी सभा में खुद ही जूता फिंकवाते हैं।राजनीति में अपमान छिपाया नहीं, दिखाया और भुनाया जाता है।’

एक दिन नेताजी के मित्र और समर्थक त्यागी जी उनसे बोले, ‘भैया, पिछली मीटिंग में मुझे लगा कि आप जो जूता दिखा रहे थे वह पहले जैसा नहीं था।’

नेताजी हँसे, बोले, ‘आप ठीक कह रहे हैं।दरअसल वह ओरिजनल जूता एक सभा में शेरसिंह से खो गया था, तो मैंने अपने ड्राइवर का जूता मँगा लिया।उसे दूसरा खरिदवा दिया।यह जूता भी काले रंग का है।जनता को कहाँ समझ में आता है कि असली है या नकली।दिखाने के लिए जूता होना चाहिए,काम रुकना नहीं चाहिए।‘

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 142 ☆ व्यंग्य – जस्ट फारवर्ड ! ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी  द्वारा लिखित एक विचारणीय व्यंग्य कविता  ‘जस्ट फारवर्ड!’ । इस विचारणीय रचना के लिए श्री विवेक रंजन जी की लेखनी को नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 142☆

? व्यंग्य  – जस्ट फारवर्ड! ?

सुपर फास्ट इंटरनेट वाला युग है, रचना भेजो तो फटाफट पोर्टल का लिंक चला आता है, कि ये लीजीये छप गई आपकी रचना. हां, अधिकांश अखबार अब प्रकाशित प्रति नही भेजते,उनके पास कथित बुद्धिजीवी लेखक के लिये प्रतियां नही होती ।

मतलब ई मेल से रचना भेजो,vफिर खुद ही छपने का इंतजार करो और रोज अखबार पढ़ते हुये अपनी रचना तलाशते रहो. छप जाये तो फट उसकी इमेज फाईल, अपने फेसबुक और व्हाट्सअप पर चिपका दो, और जमाने को सोशल मीडीया नाद से जता दो कि लो हम भी छप गये.

अब फेसबुक, इंस्टाग्राम, टिकटाक, ट्वीटर और व्हाट्सअप में सुर्खियो में बने रहने का अलग ही नशा है.  इसके लिये लोग गलत सही कुछ भी पोस्ट करने को उद्यत हैं. आत्म अनुशासन की कमी फेक न्यूज की जन्मदाता है. हडबडी में गडबड़ी से उपजे फेक न्यूज सोशल मीडीया में वैसे ही फैल जाते हैं, जैसे कोरोना का वायरस फारवर्ड होता है. सस्ता डाटा फेकन्यूज प्रसारण के लिये रक्तबीज है. लिंक  फारवर्ड, रिपोस्ट ढ़ूंढ़ते हुये सर्च एंजिन को भी पसीने आ जाते हैं. हर हाथ में मोबाईल के चक्कर में फेकन्यूज देश विदेश, समुंदर पार का सफर भी मिनटों में कर लेती है, वह भी बिल्कुल हाथों हाथ, मोबाईल पर सवार.

धर्म पर कोई अच्छी बुरी टिप्पणी कहीं मिल भर जाये, सोते हुये लोग जाग जाते हैं, जो धर्म का मर्म  नहीं समझते, वे सबसे बड़े धार्मिक अनुयायी बन कर अपने संवैधानिक अधिकारो तक पहुंच जाते हैं.

आज धर्म, चंद कट्टरपंथी लोगो के पास कैद दिखता है. वह जमाना और था जब ” हमें भी प्यार हुआ अल्ला मियां ” गाने बने जो अब तक बज रहे हैं.

इन महान कट्टर लोगों को लगता है कि इस तरह के फेक न्यूज को भी फारवर्ड कर के वे कोई महान पूजा कर रहे हैं. उन्हें प्रतीत होता है कि यदि उन्होंने इसे फारवर्ड नही किया तो उसके परिचित को शायद वह पुण्य लाभ नहीं मिल पायेगा जो उन्हें मिल रहा है. जबकि सचाई यह होती है कि जिसके पास यह फारवर्डेड  न्यूज पहुंचता  है वह बहुत पहले ही उसे फारवर्ड कर अपना कर्तव्य निभा चुका होता है. सचाई यह होती है कि यदि आप का मित्र थोड़ा भी सोशल है तो उसके मोबाईल की मेमोरी चार छै अन्य ग्रुप्स से भी वह फेक न्यूज पाकर धन्य हो चुकी होती है, और डिलीट का आप्शन ही आपके फारवर्डेड मैसेज का हश्र होता है.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ #86 ☆ उम्मीद कायम है…  ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “उम्मीद कायम है… ”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 86 ☆ उम्मीद कायम है… 

कहते हैं हम ही उम्मीद का दामन छोड़ देते हैं, वो हमें कभी भी छोड़कर नहीं जाती। इसके वशीभूत होकर न जाने कितने उम्मीदवार टिकट मिलने के बाद ही अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता तय करते देखे जा सकते हैं। कौन किस दल का घोषणा पत्र पढ़ेगा ये भी सीट निर्धारण के बाद तय होता है। इन सबमें सुखी वे पत्रकार हैं, जो पुराने वीडियो क्लिप दिखा -दिखा कर शो की टी आर पी बढ़ा देते हैं। उन्हें प्रश्नों के लिए भी ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती। वही सवाल सबसे पूछते हुए पूरा चुनाव निपटा देते हैं।

मजे की बात इन सबमें नए – नए क्षेत्रीय गायकों ने भी अपनी भूमिका सुनिश्चित कर ली है। विकास का लेखा – जोखा अब गानों के द्वारा सुना और समझा जा रहा है। धुन और बोल लुभावने होने के कारण आसानी से जुबान पर चढ़ जाते हैं। मुद्दे से भटकते लोग मनोरंजन में ही सच्चा सुख ढूंढ कर पाँच वर्ष किसी को भी आसानी से देने को तैयार देते हुए दिखाई देते हैं। होगा क्या ये तो परिवार व समाज के लोग तय करते हैं पर मीडिया जरूर भ्रमित हो जाता है। जिसको देखो वही माइक और कैमरा लेकर छोटे – छोटे वीडियो बनाकर पोस्ट करता जा रहा है। 

इन सबसे बेखबर कुर्सी, अपने आगंतुकों के इंतजार में पलक पाँवड़े बिछाए हुए नेता जी को ढूंढ रही है। वो भी ये चाहती है कि जो भी आए वो स्थायी हो, मेरा मान रखे। गठबंधन को निभाने की क्षमता रखता हो। उसकी अपील जनमानस से यही है कि सोच समझ कर ही ये गद्दी किसी को सौंपना। यही नीतियों के निर्धारक हैं; यही तुम्हारे दुःख दर्द के हर्ता हैं; यही राष्ट्रभक्त हैं जो भारत माता के सच्चे सपूत बनकर अमृत महोत्सव को साकार कर सकते हैं।

कुर्सी के मौन स्वरों को जनमानस को ही सुनना व समझना होगा क्योंकि आम जनता सब कुछ समझने का माद्दा रखती है। किसे आगे बढ़ाना है, किसे वापस बुलाना है, ये जिम्मेदारी संविधान ने उन्हें  दी है। जाति धर्म का क्या है ? ये कुर्सी तो सबसे ऊपर केवल राष्ट्र की है, जो देश का, वही जनता का और वही सच्चा हकदार इस पर विराजित होकर जन सेवा करने का।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #124 ☆ व्यंग्य – देर आयद, दुरुस्त— ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘देर आयद, दुरुस्त—  ’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 124 ☆

☆ व्यंग्य – देर आयद, दुरुस्त—   

सबेरे सबेरे शीतल भाई का फोन बजा। देखा तो कोई नंबर था। पूछा, ‘हलो, कौन बोल रहा है?’

उधर कोई रो रहा था। शीतल भाई घबराये, पूछा, ‘कौन हो भाई? क्या बात है?’

रोने के बीच में जवाब मिला, ‘हम जबलपुर से प्रीतम लाल जी के बेटे बोल रहे हैं। पिताजी आज सबेरे शान्त हो गये। आपको बहुत याद करते थे। बताते थे कि आप उनके साथ पढ़े हैं। उनके मोबाइल में आपका नंबर मिला।’

शीतल भाई दुखी हुए। बेटे को सांत्वना दी। बोले, ‘बहुत अफसोस हुआ। हम स्कूल में साथ पढ़े थे। महीने दो महीने में उनका फोन आ जाता था। भले आदमी थे। मैं जल्दी आकर आप लोगों से मिलूँगा।’

शीतल भाई इन्दौर के रहने वाले। हिसाबी-किताबी आदमी थे, पक्के व्यापारी। भावुकता में पड़कर कहाँ जबलपुर जाएँ? दो चार हजार खर्च हो जाएँगे। बात आयी गयी हो गयी।

पाँच छः माह बाद संयोग से शीतल भाई का जबलपुर जाने का मुहूर्त बन गया। एक पार्टी के पास पैसा फँसा था, उसे निकालना था। सोचा, अच्छा है, गंगा की गंगा, सिराजपुर की हाट हो जाए।

एक सबेरे जबलपुर में प्रीतम लाल जी के परिवार के लोगों को दुआरे पर किसी के ज़ोर ज़ोर से रोने की आवाज़ सुनायी पड़ी। परिवार के सदस्य घबरा गये। देखा तो एक आदमी हाथ में पकड़े फोटो पर नज़र जमाये ज़ोर-ज़ोर से विलाप कर रहा था। पूछने पर पता चला कि ये स्वर्गीय प्रीतम लाल जी के सहपाठी शीतल भाई थे जो, देर से ही सही, मित्र के लिए अपना दुख प्रकट करने आये थे।

शीतल बाबू सादर घर में ले जाए गये। नाश्ता हुआ। फिर वे अपने हाथ का ग्रुप फोटो दिखा दिखा कर अपने और अपने दोस्त के किस्से सुनाते रहे।

नाश्ता करने के बाद बोले, ‘भैया, आप लोगों से मिल कर दिल को बड़ी शान्ति मिली। जब से प्रीतम के स्वर्गवास का सुना तभी से जी कलप रहा था। उनकी याद बराबर आती है। आप लोग मिले तो लगा प्रीतम मिल गये। अब आज आप लोगों के साथ ही रहूँगा। आपसे मिलने के लिए ही आया था।’

शीतल भाई मातमी मुद्रा में वहाँ बैठे रहे। दोपहर को वहीं भोजन किया, फिर वहीं चैन की नींद सो गये। शाम को उस पार्टी की खोज में निकल गये जिससे वसूली करनी थी। वहाँ से लौट कर रात को फिर दोस्त के बेटों के साथ बैठकर प्रीतम लाल जी के साथ अपनी यादों के पिटारे की तहें खोलने में लग गये। बेटे भी शिष्टतावश उनकी भावुकतापूर्ण बातों में रुचि दिखाते रहे।

दूसरे दिन सबेरे शीतल भाई ने अपने दिवंगत मित्र के बेटों को छाती से लगाया, फिर मित्र की पत्नी के सामने तौलिए से आँखें पोंछीं। रुँधे स्वर से बोले, ‘आज यहाँ आकर मन को कितनी शान्ति मिली, बता नहीं सकता। प्रीतम तो चौबीस घंटे यादों में बसे रहते हैं। कभी बिसरते नहीं। कभी मेरी जरूरत पड़े तो याद कीजिएगा। आधी रात को दौड़ा आऊँगा।’

दिवंगत दोस्त के प्रति मातमपुर्सी की औपचारिकता पूरी करके शीतल भाई,संतुष्ट, अपने शहर के लिए रवाना हो गये।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ #85 ☆ टीमों का गठन ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “टीमों का गठन”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 85 ☆ टीमों का गठन 

किसी भी आयोजन में दो टीमें गठित होती हैं, एक तो जी जान से आयोजन की सफलता हेतु परिश्रम करती है, और दूसरी उसे कैसे असफल किया जावे इसमें अपना दिन-रात लगा देती है। तरह-तरह की तैयारियों के बीच वाद-विवाद का दौर भी आता है, जो मुखिया के बीच बचाव के बाद ही रुकता है।

वैसे जब तक कोई झगड़ा न हो तो कार्यक्रम कुछ अधूरा सा लगता है। आरोप-प्रत्यारोप के बाद ही नए-नए मुद्दे सामने आते हैं, जो आगे बढ़ने का रास्ता दिखाते हैं। ऐसा ही कुछ एक कार्यक्रम में दिखाई दे रहा है। जो भी सही बात समझाने की कोशिश करता उसे फूफा की उपाधि देकर किनारे बैठा दिया जाता। अब समझाइश लाल जी भी इस सबसे दूरी बनाए हुए हैं। एक तरफा झुकाव लोगों के सोचने समझने की शक्ति को मिटा देता है। पहले से ही हवा का रुख समझकर वे आगे बढ़ चले थे। दरसल कोई भी मौका चूकने से बचने हेतु सजगता बहुत जरूरी होती है। अपना उल्लू सीधा करते ही साथ छोड़कर नजरें चुराने की कला के सभी कायल होते हैं। जिसे देखिए वही अपना दमखम दिखाने की होड़ में मूल विचारधारा से दूर होता जा रहा है। बस रैलियों की भीड़ से ही कोई परिणाम निकलना भी तो जायज नहीं है।

पहले ओपिनियन पोल निष्पक्ष होते थे किंतु आजकल वो भी गोदी मीडिया की भेंट चढ़ चुके हैं। मीडिया के बढ़ते प्रभाव व वर्चुअल रैली ने सबकी बैण्ड बजाकर रख दी है। सब कुछ प्रायोजित होने लगा है, लोगों के मनोमस्तिष्क को पढ़कर उसे अपने अनुसार ढालने में हर कोई जी जान से जुटा है। विकास का मुद्दा केवल घोषणा पत्र की शोभा बन कर रह गया है। असली जंग तो जाति, धर्म, अल्पसंख्यक वर्ग पर सिमट रही है। मानवता तो कहीं दूर-दूर तक भी नजर नहीं आती है।

लोगों को सारी जानकारी वायरल वीडियो द्वारा होती है। इसमें कितना सच है इसकी गारंटी लेने वाला कोई नहीं है। सभी सुरक्षित सीट से लड़कर ही अपनी ताकत दिखाना चाहते हैं। अचानक से किस सीट पर कौन खड़ा होगा पता चलता है, लोग अपना बोरिया बिस्तर समेट के दूसरे खेमे  के द्वारे पर पहुँच जाते हैं। वास्तव में अनिश्चितता का सही उदाहरण तो राजनीति में ही दिखाई देता है। यहाँ आखिरी समय तक अपने दल का पता नहीं चलता है। खैर कुछ भी हो टिकट टीम गठन का हिस्सा बनकर उसका किस्सा वाचना सचमुच दिलचस्प ही रहा है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #123 ☆ व्यंग्य – प्रोफेसर बृहस्पति और एक अदना क्लर्क ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  प्रोफेसर बृहस्पति और एक अदना क्लर्क। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 123 ☆

☆ व्यंग्य – प्रोफेसर बृहस्पति और एक अदना क्लर्क 

प्रोफेसर बृहस्पति, एम.ए.,डी.लिट.,की चरन धूल फिर शहर में पड़ने वाली है। प्रोफेसर गुनीराम,एम. ए.,पीएच.डी. ने फिर उन्हें बुलाया है। यह खेल ऐसे ही चलता रहता है। प्रोफेसर बृहस्पति प्रोफेसर गुनीराम को अपनी यूनिवर्सिटी में बुलाते रहते हैं और प्रोफेसर गुनीराम प्रोफेसर बृहस्पति को। अवसरों की कमी नहीं है। कभी रिसर्च कमिटी की मीटिंग में, कभी ‘वाइवा’ के लिए। एक बार में एक ही उम्मीदवार का ‘वाइवा’ होता है। एक बार क्लर्क ने दो उम्मीदवारों का ‘वाइवा’ एक साथ रख दिया तो प्रोफेसर बृहस्पति कुपित हो गये थे। एक बार में एक ही उम्मीदवार का ‘वाइवा’ होना चाहिए, अन्यथा टी.ए.,डी.ए. का नुकसान होता है।

‘वाइवा’ का सबसे ज़रूरी हिस्सा यह होता है कि उम्मीदवार जल्दी से जल्दी टी.ए. बिल पास कराके मुद्रा गुरूजी के चरणों में समर्पित करे। इसमें विलम्ब होने पर छात्र की प्रतिभा और उसके शोध की गुणवत्ता पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है। विश्वविद्यालय तो नियमानुसार फूल-पत्र भेंट करता है, बाकी रुकना-टिकना, स्वागत-सत्कार, पीना-खाना, घूमना-फिरना और वातानुकूलित दर्जे का आने-जाने का नकद किराया उम्मीदवार को विनम्रतापूर्वक वहन और सहन करना पड़ता है। गुरूजी अक्सर सपत्नीक आते हैं। ऐसी स्थिति में स्वभावतः ए.सी. का किराया दुगना हो जाता है। यह भी ज़रूरी है कि विदा होते वक्त उम्मीदवार गुरू-गुरुआइन के चरन-स्पर्श कर प्रसन्न भाव से विदा करे। व्यय का भार कितना भी पड़े, मुख पर सन्ताप न लावे।

हस्बमामूल ‘वाइवा’ के बाद शाम को उम्मीदवार की सफलता की खुशी में पार्टी होती है जिसमें बाहर वाले गुरूजी और उनके मित्र-परिचित, स्थानीय गुरूजी और उनके मित्र-परिचित और चार-छः ऐसे ठलुए शामिल होते हैं जो ऐसे ही मौकों की तलाश में रहते हैं। स्थानीय गुरूजी को उन्हें शामिल करने में एतराज़ नहीं होता क्योंकि द्रव्य उम्मीदवार की जेब से जाता है। जो लोग भोजन से पूर्व क्षुधावर्धक पेय में रुचि रखते हैं वे पार्टी से एकाध घंटा पूर्व एकत्रित होकर उम्मीदवार की सेहत का जाम उठाते हैं।
इस बार बलि का बकरा शोषित कुमार है जो पीएच.डी. की डिग्री प्राप्त कर प्रोफेसर गुनीराम की अनुकंपा से विश्वविद्यालय में व्याख्याता पद पाने की उम्मीद रखता है। उसने अपने शिक्षण काल में किताब की जगह गुरूजी को ही पढ़ा है और उनके श्रीचरणों में अपना जीवन समर्पित किया है। पूरे विश्वविद्यालय में वह प्रोफेसर गुनीराम के चमचे के रूप में विख्यात है और वह इस उपाधि पर पर्याप्त गर्व का अनुभव करता है। शोषित कुमार के बाप एक प्राइमरी स्कूल में मास्टर हैं, लेकिन उन्होंने प्रोफेसर बृहस्पति के स्वागत-सत्कार के लिए बीस हजार रुपये का जुगाड़ कर लिया है।

प्रोफेसर बृहस्पति पधारे। साथ में पत्नी भी आयीं। उन्होंने बहुत दिनों से भेड़ाघाट नहीं देखा था। बेटा शोषित कुमार दिखा देगा। अच्छे होटल में ठहरने का इंतज़ाम है। आदेश दे दिया गया है कि गुरूजी जब जो माँगें, प्रस्तुत किया जाए। गेट के पास टैक्सी तैनात है, गुरूजी जहाँ जाना चाहें ले जाए।

गुरूजी टैक्सी में विश्वविद्यालय पहुँचे। शोषित कुमार ड्राइवर की बगल में डटा है। प्रोफेसर गुनीराम विश्वविद्यालय में इन्तज़ार कर रहे हैं। पहुँचते ही प्रोफेसर बृहस्पति टी.ए. बिल भरकर शोषित कुमार को थमाते हैं—- ‘लो बेटा, इसे पास कराओ और सफलता की ओर कदम बढ़ाओ।’

शोषित कुमार बिल लेकर उड़ता है।  ‘च्यूइंग गम’ चबाते हुए उसे निश्चिंतता से संबंधित क्लर्क के सामने धर देता है। क्लर्क उसे उठाकर पढ़ता है, फिर वापस शोषित की तरफ धकेल देता है। कहता है, ‘टिकट नंबर लिखा कर लाओ।’

शोषित कुमार आसमान से धम से ज़मीन पर गिरता है। बेसुरी आवाज़ में पूछता है, ‘क्या?’

क्लर्क दुहराता है, ‘सेकंड ए.सी. का क्लेम है। टिकट नंबर लिखा कर लाओ।’

शोषित कुमार पाँव घसीटता लौटता है। प्रोफेसर गुनीराम के कान के पास मिनमिनाता है, ‘सर, क्लर्क टिकट नंबर माँगता है।’

प्रोफेसर गुनीराम की भवें चढ़ जाती हैं। यह कौन गुस्ताख़ लिपिक है? रोब से उठकर लेखा विभाग की ओर अग्रसर होते हैं। क्रोधित स्वर में क्लर्क से पूछते हैं, ‘यह टिकट नंबर की क्या बात है भई?’

क्लर्क निर्विकार भाव से कहता है, ‘रजिस्ट्रार साहब का आदेश है।’

प्रोफेसर गुनीराम कहते हैं, ‘अभी तक तो कभी टिकट नंबर नहीं माँगा गया।’

क्लर्क फाइल का पन्ना पलटते हुए जवाब देता है, ‘नया आदेश है।’

प्रोफेसर गुनीराम रोब मारते हैं, ‘तो रजिस्ट्रार साहब से पास करा लायें?’

क्लर्क मुँह फाड़कर जम्हाई लेता है, कहता है, ‘करा लाइए।’

प्रोफेसर गुनीराम ढीले पड़ जाते हैं। रजिस्ट्रार कायदे कानून वाले आदमी हैं। वहाँ जाना बेकार है।

वे तरकश से खुशामद-अस्त्र निकालते हैं। ताम्बूल-रचित दन्त-पंक्ति दिखा कर कहते हैं, ‘क्या बात है, पटेल जी, घर से झगड़ा करके आये हो क्या?’

क्लर्क किंचित मुस्कराता है, ‘नहीं सर, ऐसी कोई बात नहीं है।’

उसकी मुस्कान से प्रोत्साहित होकर प्रोफेसर गुनीराम कहते हैं, ‘निपटा दो,भैया। बाहर के प्रोफेसर हैं। बिल पास नहीं होगा तो बाहर से ‘वाइवा’ लेने कौन आएगा?’

क्लर्क फिर लक्ष्मण-रेखा में लौट जाता है, कहता है, ‘हम क्या करें? रजिस्ट्रार साहब से कहिए।’

प्रोफेसर गुनीराम समझ जाते हैं कि इन तिलों से तेल नहीं निकलेगा। लेकिन अब प्रोफेसर बृहस्पति को क्या मुँह दिखायें?इस पिद्दी से क्लर्क ने इज्जत का फलूदा बना दिया।
लौट कर प्रोफेसर बृहस्पति के सामने हाज़िर होते हैं। पस्त आवाज़ में कहते हैं, ‘डाक साब, यहाँ के क्लर्क बड़े बदतमीज़ हो गये हैं। कहते हैं ए.सी. का नंबर लेकर आइए।’

प्रोफेसर बृहस्पति का मुख-कमल क्रोध से लाल हो जाता है।  ऐसी अनुशासनहीनता!प्रोफेसर गुनीराम के हाथ से बिल लेकर उस पर लिख देते हैं, ‘टिकट सरेंडर्ड एट द गेट’, यानी टिकट रेलवे स्टेशन के गेट पर सौंप दिया।

प्रोफेसर गुनीराम फिर क्लर्क के पास उपस्थित होते हैं। क्लर्क प्रोफेसर बृहस्पति के कर कमलों से लिखी बहुमूल्य टीप को पढ़ता है और पुनः बिल प्रोफेसर गुनीराम की तरफ सरका देता है। कहता है, ‘हमें नंबर चाहिए। टिकट सौंपने से पहले नंबर क्यों नोट नहीं किया?अब तो मोबाइल पर टिकट आता है।’

प्रोफेसर गुनीराम को रोना आता है। इस दो कौड़ी के आदमी ने उनकी इज़्ज़त के भव्य भवन को कचरे का ढेर बना दिया।

लौट कर प्रोफेसर बृहस्पति से कहते हैं, ‘आप फिक्र न करें, डाक साब। मैं चेक बनवा कर भेज दूँगा।’

प्रोफेसर बृहस्पति का मूड बिगड़ जाता है। चेक बनने और मिलने में पता नहीं कितना समय लगेगा। इसके अलावा चेक का पैसा आयकर की पकड़ में आने का भय होता है।

‘वाइवा’ के कार्यक्रम का सारा मज़ा किरकिरा हो गया।

शाम को प्रोफेसर बृहस्पति सपत्नीक शोषित कुमार के द्वारा प्रस्तुत टैक्सी में बैठकर भेड़ाघाट की सैर के लिए रवाना होते हैं। प्रोफेसर बृहस्पति बेमन से जाते हैं। उनका सारा सौन्दर्यबोध और उत्साह लेखा विभाग के उस क्लर्क ने हर लिया है। उन्हें अब कहीं कोई सुन्दरता नज़र नहीं आती। पूरा शहर मनहूस लगता है।

भेड़ाघाट में पति-पत्नी नाव में बैठकर संगमरमरी चट्टानों को देखने जाते हैं। श्रीमती बृहस्पति मुग्धभाव से श्वेत धवल चट्टानों को निहारती हैं। एकाएक कहती हैं—‘कितनी खबसूरत चट्टानें हैं।’

प्रोफेसर बृहस्पति के भीतर खदबदाता गुस्सा फूट पड़ता है। मुँह बिगाड़ कर कहते हैं—‘खबसूरत नहीं, खूबसूरत। कितनी बार कहा कि शब्दों का सत्यानाश मत किया करो।’

श्रीमती बृहस्पति गुस्से में मुँह फेरकर बैठ जाती हैं और प्रोफेसर बृहस्पति लौटने पर होने वाली कलह की संभावना से भयभीत होकर बिल की बात भूलकर कातर नेत्रों से पत्नी का मुखमंडल निहारने लगते हैं।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ #84 ☆ आग्रह या दुराग्रह ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “आग्रह या दुराग्रह”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 84 ☆ आग्रह या दुराग्रह 

ग्रह शब्द जिसके भी साथ जुड़ता है उसके भाव बढ़ा देता है। आजकल सब लोग पूर्वाग्रह से ग्रसित हो निर्णय करते हैं। ऐसा चुनावी मौसम में ज्यादा देखने को मिलता है। एक दूसरे को प्रलोभन देते हुए   पूरे मनोयोग से आग्रह करते हैं। मन में भले ही दुराग्रह हो पर  शब्द चासनी में लपेट कर  परोसते हैं। मीडियाकर्मियों को तो मसाला चाहिए वे फटाफट प्रश्नों की श्रंखला तैयार कर दोनों खेमें में पहुँच जाते हैं। जनता की ओर से प्रश्नोत्तर शुरू हो जाते हैं। मजे की बात कोई भी विकास के मुद्दे पर चर्चा नहीं करते बस सबको खाना पूर्ति करनी होती है। वोटर चुनावी एजेंडे को समझने हेतु एड़ी- चोटी का जोर लगा देते हैं पर नतीजा वही ढाक के तीन पात। अपना सा मुख लेकर बिना कुछ समझे ही वोट देने को तैयार हो जाते हैं।

कोई बदलाव की बयार के साथ बहना चाहता है तो कोई और पाँच साल का मौका देने का विचार मन में रखता है। जोड़- तोड़ की उठा पटक के बीच कुछ लोग स्वामिभक्त  भी होते हैं वे सकारात्मकता ही देखते हुए जाति व धर्म की ओर मुड़ जाते हैं। जिसके ग्रह साथ दे गए वो जीत का ताज पहन कर इतराता हुआ पूर्णता की मनौती मनाने लगता है।

इन सबसे बेखबर जनता लोकतंत्र के पर्व को पूरे उत्साह के साथ मनाती है। उसे क्या ? कौउ नृप होय हमय का हानि के भाव को मन में भरे हुए, वोट देने जाने को आतुर रहती है। तभी गली  चौराहे में खड़े लोग आपसी परिचर्चा करके हवा का रुख निर्धारित कर देते हैं। जल्दी ही आग को हवा मिलती है और परिवार, मोहल्ला, समाज अपना वोट एक दिशा में मोड़ देता है। लाभ – हानि से ऊपर उठ व्यक्तिगत व्यवहार, देशहित, जीवन मूल्य, धर्म रक्षा हेतु सशक्त उम्मीदवारों को चुन कर कुर्सी पर विराजित कर दिया जाता है।

बस मजबूत सरकार देश को गौरवान्वित करने की शपथ लेकर लोककल्याण के कार्यों में जुट जाती है। ग्रहों से ऊपर एक दुनिया स्थापित हो सारे पूर्वाग्रहों को चकनाचूर करती जाती है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #122 ☆ व्यंग्य – वर्गभेद का टॉनिक ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  ‘वर्गभेद का टॉनिक’। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 122 ☆

☆ व्यंग्य – वर्गभेद का टॉनिक 

ईश्वर ने अच्छा काम किया जो चार वर्ण बनाये—-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इनमें जो अन्तर रखा गया वह सिर्फ कर्म का ही नहीं था, श्रेष्ठता और हीनता का भी था। यानी श्रेष्ठता में ब्राह्मण से शुरू कीजिए और उतरते हुए शूद्र तक आ जाइए। सौभाग्य से अपना चयन तथाकथित सवर्णों में हो गया, अन्यथा आज़ादी के सत्तर साल बाद भी न गाँव में घोड़ी पर बारात निकाल पाते, न ऊँची जाति के कुएँ से पानी ले पाते। अगर गलती से मन्दिर की सीढ़ियाँ चढ़ जाते तो मन्दिर का शुद्धीकरण होता और लगे हाथ शायद अपनी भी ‘धुलाई’ हो जाती। कहने का मतलब यह कि प्रभु ने बड़ी दुर्गति और फजीहत से बचा लिया। इस महती अनुकम्पा के लिए जनम जनम तक प्रभु का आभारी रहूँगा।
ईश्वर ने एक और अच्छा काम किया कि अमीर गरीब बनाये। गरीब न हो तो अमीरों को अमीरी का एहसास कैसे हो और अमीरी की अहमियत कैसे समझ में आये।  ‘हमीं जब न होंगे तो क्या रंगे महफ़िल, किसे देख कर आप इतराइएगा (या इठलाइएगा)।’ कहते हैं कि आदमी इस जन्म में जो कुछ भी भोगता है, सब पूर्वजन्म के कर्मों का फल होता है। लेकिन यह समझ में नहीं आता कि कैसे कुछ लोग राजा का जन्म पाकर भी रंक बन जाते हैं और कुछ लोग रंक से राजा। लगता है कुछ लोग असंख्य पापों के साथ एकाध पुण्य कर लेते होंगे और कुछ लोग अनेक पुण्यों के बावजूद एकाध पाप में फँस जाते होंगे, जैसे युधिष्ठिर को अश्वत्थामा की मृत्यु के बारे में मिथ्याभाषण के लिए कुछ देर तक नरकभ्रमण करना पड़ा था। जो हो, इन बातों में सर खपाने से कोई फायदा नहीं है। सब प्रारब्ध की बात है।

आजकल समाज को तीन वर्गों में बाँटा जाता है —-उच्च वर्ग, मध्यवर्ग और निम्नवर्ग। लेकिन यह ‘झाड़ूमार वर्गीकरण’ है जिसे ‘स्वीपिंग क्लासिफिकेशन’ कहते हैं। फत्तेलाल एंड संस की हैसियत पाँच दस करोड़ की है, लेकिन यदि मैं उन्हें टाटा जी के वर्ग में रखूँ तो यह मेरी मूढ़ता होगी। इसीलिए समझदार लोग इन तीन वर्गों में उपवर्ग ढूँढ़ने लगे हैं,जैसे मध्यवर्ग को अब उच्च मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग में बाँटा जाता है। इस हिसाब से तीनों वर्गों को बाँटें तो वर्गीकरण होगा ——उच्च उच्च वर्ग, मध्य उच्च वर्ग, निम्न उच्च वर्ग;उच्च मध्य वर्ग, मध्य मध्य वर्ग,निम्न मध्य वर्ग; उच्च निम्न वर्ग, मध्य निम्न वर्ग, निम्न निम्न वर्ग। थोड़ा और बारीकी में चले जाएं तो सबसे ऊपर ‘उच्च उच्च उच्च वर्ग’ और सबसे नीचे ‘निम्न निम्न निम्न वर्ग’ होगा। एक मित्र को मैंने यह वर्गीकरण सुनाया तो कहने लगा, ‘तुम्हारी यह हुच्च हुच्च सुनकर मैं पागल हो जाऊँगा।’ ईश्वर उसे ये बारीकियाँ समझने की काबिलियत दे।

हमारे देश ने अंगरेज़ी हुकूमत की जो चन्द अच्छाइयाँ बरकरार रखीं उनमें से एक यह है कि समाज को साहबों और बाबुओं में बाँट दो। साहब हाई क्लास और बाबू लो क्लास। बाबू से साहब हो जाना निर्वाण प्राप्त करने से कम नहीं है। इसीलिए साहबों और बाबुओं की कालोनियाँ अलग अलग बनायी जाती हैं। दोनों कालोनियों को पास पास रखने से साहब लोगों को प्रदूषण का डर रहता है।
अब कर्मचारी चार वर्गों में बँटे हैं —क्लास वन, क्लास टू,क्लास थ्री और क्लास फ़ोर। यहाँ भी भेद सिर्फ काम का नहीं, श्रेष्ठता का भी है। क्लास वन और क्लास फ़ोर के बीच राजा भोज और भुजवा तेली का फर्क हो जाता है। क्लास वन  में भी सुपर क्लास वन होते हैं जिनकी श्रेष्ठता कल्पना से परे होती है। वैसे केन्द्रीय क्लास वन और प्रान्तीय क्लास वन में केन्द्रीय श्रेष्ठ जाति का माना जाता है। एक और वर्गीकरण ‘सीधी नियुक्ति वाला अफसर’ और ‘प्रोमोशन से नियुक्त अफसर’ का होता है। इनमें सीधी नियुक्ति वाला उच्च जाति का होता है।

मेरे एक परिचित किसी अध्ययन के लिए न्यूज़ीलैंड गये थे। जब वे वहाँ से लौटने को हुए तो उनके दफ्तर के सफाई कर्मचारी (जैनिटर) ने उन्हें भोजन पर आमंत्रित किया और शाम को अपनी कार से उन्हें अपने घर ले गया। हमारे देश में यह अकल्पनीय है। हमारे यहाँ नेता फाइव स्टार होटल से उत्तम भोजन मँगाकर गरीब के घर में पालथी मारकर, गरीब को दिखा दिखा कर खाते हैं, क्योंकि उन्हें पता होता है कि गरीब के घर में खाने को कुछ नहीं मिलेगा। दुनिया में लोग होटल से बचा हुआ खाना लाकर गरीबों को खिलाते हैं, हमारे यहाँ होटल से भोजन लाकर गरीब के घर में बैठ कर खाने का रिवाज है। नेताओं को यह ख़ुशफहमी है कि गरीबों के घर में बैठकर पनीर, कोफ्ता और मशरूम खाने से वे उनके  हमदर्द साबित हो जाएंगे। हाल के लोकसभा चुनाव में एक नेताजी घर घर जाकर जीमने में इतने मसरूफ़ हो गये कि वोट माँगना भूल गये और चुनाव हार गये।

दरअसल मैं कहना यह चाहता हूँ कि समाज में ये जो भेद हैं ये समाज के स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद हैं क्योंकि आज का आदमी अपने से हीन आदमी को देखकर ही जीवित और स्वस्थ रहता है। अपने से श्रेष्ठ आदमी को देखकर मनोबल में जो गिरावट होती है वह अपने से निर्बल को देखकर सुधर जाती है।

अब आप ही सोचिए कि क्लास टू, थ्री या फ़ोर न हो तो क्लास वन किसे देखकर सन्तोष करे और किस पर शासन करे?vइसी तरह क्लास टू के स्वास्थ्य के लिए क्लास थ्री, और क्लास थ्री के सुकून के लिए क्लास फ़ोर का होना ज़रूरी है।  अब सरकार ने क्लास फ़ोर के सुख और सन्तोष का इंतज़ाम भी कर दिया है। उनके भी नीचे ‘डेली वेजेज़’ वाले या तदर्थ होते हैं। इनकी हालत देखकर ‘नियमित’ क्लास फ़ोर कर्मचारी अपने रक्त में कुछ वृद्धि कर सकते हैं। वैसे तो बेरोज़गारी की कृपा से अब इतने बेकार लोग दिखायी पड़ते हैं कि हर नौकरीशुदा आदमी अपने को सौभाग्यशाली समझकर अपना ख़ून और अपनी खुशी बढ़ा सकता है।

घर में जब मँहगाई की वजह से कद्दू की सब्ज़ी से सन्तोष करना पड़ता है तो गृहस्वामी को एकाएक याद आता है कि इस देश के करोड़ों लोगों को दो वक्त का भोजन नहीं मिलता। इस टिप्पणी से घर के लोगों को कद्दू का स्वाद कुछ बेहतर लगने लगता है। ऐसे ही जब घर के सामने कोई अट्टालिका उठती हुई दिखायी पड़ती है तो साधारण घर का स्वामी पत्नी से कहता है, ‘जानती हो?बंबई में आधी जनसंख्या झुग्गियों में रहती है।’ बंबई की झुग्गियों को याद करने से सामने खड़ी होती अट्टालिका के बावजूद अपना घर अच्छा लगने लगता है। बंबई की झुग्गियां हज़ारों मील दूर नगरों के गृहस्वामियों के लिए ‘टॉनिक’ भेजती हैं।

रेलों में सेकंड क्लास की मारामारी और दुर्गति देखकर ही ए.सी.के टापू में बैठने का पूरा आनन्द मिलता है। सड़क पर स्कूटर के बगल में साइकिल चले तो स्कूटर का आराम बढ़ता है, और  कार वाले के बगल में उसका उछाला हुआ कीचड़ झेलता स्कूटर वाला चले तो कार का सुख दुगना होता है। देश में मरे-गिरे,खस्ताहाल स्कूल न हों तो ठप्पेदार स्कूलों में पढ़ने का क्या मज़ा?और अपने सपूत की स्कूल यूनिफॉर्म तब ज़्यादा ‘स्मार्ट’ और ‘क्यूट’ लगती है जब सड़क पर, कंधे पर बस्ता लटकाये, स्याही के दाग वाली कमीज़ पहने, नाक पोंछता, रबर की चप्पलें सटसटाता,कोई ‘देसी’ स्कूल वाला बालक दिखता है।

इसलिए सज्जनो,अपनी साड़ी इसीलिए सफेद लगती है क्योंकि दूसरे की मैली होती है। फलसफाना अंदाज़ में कहूँ तो रात के कारण ही दिन का सुख है और धूप के कारण छाया का।

निष्कर्ष यह निकलता है कि समाज के स्वास्थ्य, सुख और सुकून के लिए वर्ग-भेद ज़रूरी है। यह अवश्य होना चाहिए कि जो सबसे नीची सीढ़ी पर हैं,उनसे भी नीचे कुछ सीढ़ियों की ईजाद हो ताकि अपने से नीचे देखकर उन्हें भी कुछ संतोष प्राप्त हो। धन का न हो सके तो कम से कम संतोष का बेहतर बँटवारा होना ही चाहिए।
अब वे दिन गये जब कहा जाता था ‘देख पराई चूपड़ी मत ललचावै जीव; रूखा सूखा खायके ठंडा पानी पीव।’ अब ठंडा पानी पीने से दूसरे की चूपड़ी देखकर उठी जलन शान्त नहीं होगी। अब यह जलन तभी मिटेगी जब हमारी रोटी भी आधी चूपड़ी हो और सामने कोई ऐसा आदमी हो जिसकी रोटी बिलकुल चूपड़ी न हो।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ #83 ☆ जो जस करहिं तो तस फल चाखा… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “जो जस करहिं तो तस फल चाखा…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 83 ☆ जो जस करहिं तो तस फल चाखा… 

फल का क्या? कर्म करने पर मिलता है। अब समस्या ये है कि जो देंगे वही मिलेगा, ये लेन- देन किसी को भी चैन से बैठने ही नहीं देता। कोई भी एप  से जुड़ो नहीं कि तुरंत मैसेज आना शुरू हो जाते हैं अब समस्या ये है कि सारा दिन नोटिफिकेशन ही देखते रहें या कोई जरूरी कार्य भी करें। खैर तकनीकी को समझना और जानना है तो कदम बढ़ाना ही होगा। हर वर्ष एक ही राह पर चलते रहने से कभी तरक्की मिली है। इस बार कुछ नया हो ऐसी सोच के साथ पूर्वाग्रहों से मुक्त होने का मंत्र मेरे मोटिवेशनल कोच द्वारा दिया गया।

सकारात्मक सोच के साथ जो भी चलेगा वो विजेता के रूप में उभरेगा ही। संघ की परिकल्पना को अमलीजामा पहनाते हुए सबके साथ सामंजस्य बैठाने में मशक्कत तो करनी पड़ती है किंतु जान- पहचान बढ़ने से कई समस्याओं का हल चुटकी बजाते ही मिल जाता है। व्हाट्सएप पर सार्थक चैटिंग हो तो बहुत से नए रास्ते खुलते हैं जहाँ न केवल कल्पनाओं की उड़ान को पंख मिलते हैं वरन अपनी सशक्त पहचान भी बन जाती है। जो लोग दूरगामी दृष्टि के मालिक होते हैं वही लीडर के रूप में प्रतिष्ठित होकर अपना परचम फैलाते हैं।

डर- डर कर कदम बढ़ाने से भला कभी किसी को मंजिल मिली है। सार्थक करते हुए लोगों को जोड़ते जाना कोई आसान कार्य नहीं होता। मन अगर सच्चा हो और केवल सबकी भलाई का लक्ष्य हो तो आगे  बढ़कर पूरे दमखम के साथ कार्य को पूरा करने हेतु जुट जाना चाहिए। पूर्णता तक पहुँचने वाले ही शिखर पर प्रतिस्थापित होते हैं। खाली दिमाग शैतान का घर न बनने पाए इसलिए सही नेतृत्व के साथ चलते रहने में ही भलाई है। जैसा करेंगे वही मिलेगा तो क्यों न सबका हित साधें और बढ़ें।

नया वर्ष ऐसे चिंतन हेतु एक नयी ऊर्जा लेकर आता है सो हम सब चिंतन- मनन करते हुए अपने लिए भी एक मुकाम तय करें और उसे पूरा करने के लिए जुट जाएँ।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 24 ☆ व्यंग्य ☆ लक्ष्मी नहीं, बेटी ही आई है ….. ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक अतिसुन्दर व्यंग्य  “लक्ष्मी नहीं, बेटी ही आई है…” । इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 24 ☆

☆ व्यंग्य – लक्ष्मी नहीं, बेटी ही आई है ☆ 

“बधाई हो, आपके घर लक्ष्मी आई है.”

एक बारगी तो मैं घबरा ही गया, बिटिया के न चार हाथ, न ऊपर के दो हाथों में कमल, न तीसरे से ढुलती गिन्नियों का घड़ा है, न आशीर्वाद की मुद्रा में एक हथेली ही है. एक अबोध प्यारी गुलाबी बिटिया है, धरती पर साफ कोरी स्लेट की मानिंद. उस पर कोई देवी होने की ईबारत क्यों लिखे. असमंजस में रहा, धन्यवाद दूँ कि नहीं दूँ. बेटी चाही थी, बेटी मिली भी, अभी तो इसी से सातवें आसमान पर हूँ. उस पर कोई लक्ष्मी होना निरूपित न करे तो भी आसानी से जमीन पर उतरनेवाला नहीं हूँ. उन्हें लगा होगा कि बेटी के जन्म से अपन प्रसन्न नहीं हैं, वे लक्ष्मीजी के आने की प्रत्याशा जगाकर अपन का दुःख कम कर देंगे. उनके इस भोलेपन पर तरस आता है. उन्हें लगता है लक्ष्मी आने की सूचना मात्र से अपन झूमने लगेंगे, तो सिरिमान अपन तो सिम्पल बिटिया के आने की खुशी में वैसेई झूम रहे हैं. थोड़ी भौत जित्ती पॉकेट में धरी थी उसे नर्सों वार्ड-ब्वायों में बाँट चुके हैं. थोड़ी लक्ष्मी बैंक अकाउंट में धरी है सो भी कुछ देर में अस्पताल के अकाउंट के लिए प्रस्थान करने वाली है. अस्पतालवालों ने थोड़ी मेहर न की तो ‘पूप-सी’ की बोतल खरीदने लायक भी ना बचेगी. यूं भी लक्ष्मीजी का अपन से आंकड़ा छत्तीस का रहा है. नॉर्मली वे बायपास से गुजर जातीं हैं अपन के कूचे में झाँकती भी नहीं. और फिर, बेटे की प्रत्याशा में जिनकी गोद में पाँच-छह लक्ष्मियाँ आ जाती हैं वे तो मुकेश अंबानी से आगे निकल जाते होंगे.

फोन पर बधाई देनेवाले मित्र ने संतान में लक्ष्मी कभी नहीं चाही. लक्ष्मीजी लक्ष्मीजी की तरह ही आयें संतान का रूप धरकर नहीं सो अतिरिक्त सावधानी बरतते रहे. रिजल्ट आने तक आदरणीया भाभीजी को ‘पुत्र जीवक वटी’ भी खिलाते रहे, ओटलों-मज़ारों-साक्षात स्थानों पर मन्नत भी मांगते रहे॰ कुछ दिनों पहले उन्होने बिन मांगे सलाह दी ही थी – टेंशन मत लेना सांतिभिया इस बार न भी तो अगली बार प्लान करके करना, लड़का ग्यारन्टीड. महोबावाली मौसी की दवा के रिजल्ट हंड्रेड परसेंट हैं. थोड़ी देर और बात करते तो वे फॉयटिसाइड व्हाया अल्ट्रा-साउंड पर उतर आते. वे उन लोगों में से हैं जो लक्ष्मी के थोड़ा बड़ा होते ही स्कूल छुड़वाकर कर झाड़ू हाथ में थमा देने में यकीन रखते हैं. दरअसल वे विषय को लक्ष्मीजी के उस वाहन की तरह बरत रहे थे जिसे रात में ही दिखाई देता है. उन्हें बेटी गोरी और लक्ष्मी काली पसंद है. उन्होने बेतुकी तुक मिलाई – “सांतिभिया, पहली बेटी धन की पेटी होती है.”

मैंने कहा – “बेटी के आने से जो भावनात्मक और पारिवारिक समृद्धि हुई है वो धन सम्पदा से कहीं ज्यादा है माय डियर. एनी-वे थैंक-यू.” कट.

सारा संवाद दादू सुन रहा था, बोला – “इसे सीरियसली मत लो सांतिभिया, ये तो मुहावरे भर हैं.”

“मुहावरे ‘सरस्वती आई है’ जैसे भी तो गढ़े जा सकते थे.”

“सरस्वती साधन है लक्ष्मी साध्य है. लक्ष्मीजी की पूजा भारत मंं होती है मगर वे विराजती न्यूयॉर्क में हैं. तभी तो सवा दो साल के बच्चे को भी लोग प्रि-प्रीपेरेटोरी स्कूल में भर्ती करा आते हैं. सपना डेस्टिनेशन यूएसए का. नौकरी लगते ही सरस्वती पूजन का दौर समाप्त. लक्ष्मीजी की चाहत में जिंदगी गुजार दी तो मुहावरा तो उन्ही का गढ़ा जाएगा ना. कभी किसी सरकार को लाड़ली सरस्वती योजना की शुरुआत करते पाया है?”

“बात तो तब बने जब लड़का हो और कोई कहे – बधाई हो राम, कृष्ण या महावीर आये हैं. लक्ष्मी की कामना सब करते हैं दादू – संतान में नहीं, खीसे में.”

इस बीच एक वाट्सअप मैसेज मिला – ‘कांग्रेट्स, मुलगी झाली – लक्ष्मी आली.’ भांग तो पूरे कुएं में घुली है, नी क्या?

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares
image_print