श्री रमेश सैनी
(हम सुप्रसिद्ध वरिष्ठ व्यंग्यकार, आलोचक व कहानीकार श्री रमेश सैनी जी के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने व्यंग्य पर आधारित नियमित साप्ताहिक स्तम्भ के हमारे अनुग्रह को स्वीकार किया। किसी भी पत्र/पत्रिका में ‘सुनहु रे संतो’ संभवतः प्रथम व्यंग्य आलोचना पर आधारित साप्ताहिक स्तम्भ होगा। व्यंग्य के क्षेत्र में आपके अभूतपूर्व योगदान को हमारी समवयस्क एवं आने वाली पीढ़ियां सदैव याद रखेंगी। इस कड़ी में व्यंग्यकार स्व रमेश निशिकर, श्री महेश शुक्ल और श्रीराम आयंगार द्वारा प्रारम्भ की गई ‘व्यंग्यम ‘ पत्रिका को पुनर्जीवन देने में आपकी सक्रिय भूमिकाअविस्मरणीय है।
आज प्रस्तुत है व्यंग्य आलोचना विमर्श पर ‘सुनहु रे संतो’ की अगली कड़ी में आलेख ‘व्यंग्य निबंध – साहित्य और समाज का संबंध: समय के संदर्भ में’ – भाग-2।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सुनहु रे संतो # 9 – व्यंग्य निबंध – साहित्य और समाज का संबंध: समय के संदर्भ में – भाग-2 ☆ श्री रमेश सैनी ☆
[प्रत्येक व्यंग्य रचना में वर्णित विचार व्यंग्यकार के व्यक्तिगत विचार होते हैं। हमारा प्रबुद्ध पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि वे हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए उन्हें सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ]
अभी हमने कबीर के समय की बात की है कबीर का समय मुगलकालीन समय था जो काफी उथल-पुथल का समय था उस समय मुगलकालीन साम्राज्य में उतार का समय आरंभ हो गया था. छोटे बड़े राज्यों की व्यवस्था चल रही थी.राजघरानों ने साहित्य और कला आश्रय दिया था. कला में संगीत और नृत्य विशेष रुप से राज्याश्रय में फल फूल रहे थे. इसमें आशातीत विकास और विस्तार भी हुआ.इससे राजा और राज्य की छबि बनाने का उद्देश्य भी छिपा रहता है. इस कारण इन कलाओ और कलाकारों पर विशेष ध्यान दिया जाता रहा है. इससे राज्य,कला और कलाकारों को विशेष लाभ दर्जा मिला रहता था.ऐसा नहीं है कि साहित्य को स्थान को नहीं था. था और अधिक था. पर उन्ही लोगों को था .जो राजा और राज्यों का गुणगान करने में माहिर थे. चारण प्रवृत्ति चरम अवस्था में थी.राजा चारण रखते थे जो राजा की प्रशंसा ही करते थे.वे राजकवि कहलाते थे.उसमें साहित्य से समाज के संबंध की सही छबि स्पष्ट नहीं हो पाती है .उस समय का इतिहास अलग है और उस समय का उपलब्ध साहित्य कुछ और ही बताता है .अगर इसको विपरीत दृष्टि से कहें तो बहुत सहजता से कहा जाता सकता है कि उस समय के साहित्यकारों ने समाज के प्रति अपने सामाजिक और लेखकीय दायित्व का निर्वाह ईमानदारी से नहीं किया. साहित्य के इतिहास के वर्गीकरण को ध्यान में बात करें तो बीसवीं शताब्दी के आरंभ में साहित्य के संबंध में समाज को भली भांति समझा जा सकता है. जिसे साहित्य के आधुनिक काल के आरंभ का समय कहा जा सकता है. इसमें साहित्य का महत्वपूर्ण काल कहा जाता है. उसमें भारतेंदु हरिश्चंद्र जी की रचनाओं से उस समय के काल और सामाजिक स्थिति को बहुत सरलता से समझा जा सकता है. उस समय की राजव्यवस्था, अराजकता, भ्रष्टाचार, न्याय व्यवस्था का पता चल जाता है.भारतेंदु जी का सम्पूर्ण साहित्य एक समयकाल और साहित्य का बेहतरीन उदाहरण है.उनकी चर्चित रचना है . “अंधेर नगरी और चौपट राजा”यह रचना अपने समय की सही तश्वीर खींचती है।
वे कहते हैं
अंधेर नगरी चौपट राजा
टके सेर भाजी, टके सेर खाजा
यह रचना नाट्य रुप समाज की अराजकता का बयान करती है. इसमें उसमें समय के बाजार का स्वरूप उभरकर सामने आता है. इसरचना में घासीराम का चूरन में बाजार के विज्ञापन का प्रारंभिक चरण कह सकते हैं जो आज भीषण रुप में अंदर तक पहुंच गया है. आज बाजार आपके घर अंदर तक पहुंच गया है. आज का बाजार हमारी जीवन शैली आदि पर पूरी तरह हाबी हो गया है वह आपको यह सिखाता है आपको क्या खाना है क्या पहनना हैं आपको कैसे रहना है. आपको यह सिखाता है कि अपने दामपत्य जीवन को सफल बनाने के लिए अपने साथी को क्या उपहार देना है.वह खुश हो जाएगा.और तो और वह यह बताता है कि आपको कब किस रंग के कपड़े पहनना है जिससे आपका भविष्य बढ़िया रहेगा.घासीराम का चूरन में वे कहते हैं
चना बनावे घासीराम, जिनकी छोली में दूकान
इस रचना में उस समय का भ्रष्टाचार उभरकर आया है
“चना हाकिम सब जो खाते, सबपर दूना टिकस लगाते
तबकी महाजन प्रणाली पर वे कहते
चूरन सभी महाजन खाते
जिससे सभी जमा हजम कर जाते
आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था पर वे कहते
चूरन पुलिस वाले खाते
सब कानून हजम कर जाते
लो चूरन का ढ़ेर, बेचा टका सेर
आज की व्यवस्था को ध्यान से देखें कुछ भी नही बदला है बस उसका स्वरूप बदल गया. तरीके बदल गए हैं पर बाजार की प्रवृत्ति और आचरण जस का तस वहीं हैं। आज यह रचना हमारे समक्ष न होती तो शायद हम उस समय को जान नहीं सकते हैं. यह यह बात स्पष्ट है कि साहित्य की अन्य विधा में समय कुछ कम उभर का आता है. पर व्यंग्य ही ऐसा माध्यम है कि जहां समय और स्थान प्रतिबिंब बन कर आता है. व्यंग्य ही ऐसा हैं समय का आकलन करने में सक्षम है.भले ही व्यंंग्य में अपने समय की विसंगतियां, विडम्बनाए़ असंतोष, भ्रष्ट आचरण, अंधविश्वास, पाखंड, प्रपंच अपने स्वरुप आ जाता है उससे साहित्य और समय के अतंर्संबंध को समक्षा जाता है.
क्रमशः….. ( शेष अगले अंको में.)
© श्री रमेश सैनी
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