हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 91 ☆ व्यंग्य – शोनार बांग्ला में अंतरात्मा का उपद्रव ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक  समसामयिक विषय पर विचारणीय व्यंग्य  ‘शोनार बांग्ला में अंतरात्मा का उपद्रव‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 91 ☆

☆ व्यंग्य – शोनार बांग्ला में अंतरात्मा का उपद्रव 

बंगाल में अफरातफरी का माहौल है। तू चल मैं आया की स्थिति है। जनता के चुने हुए प्रतिनिधि रोज़ पार्टी बदल रहे हैं। हर दूसरे चौथे दिन पार्टी-परिवर्तन के जलसे हो रहे हैं। गले में नयी पार्टी के दुपट्टे डाले जा रहे हैं, चरन-धूल बटोरी जा रही है। पता नहीं कभी माता- पिता के चरन भी छुए थे या नहीं। दल-बदलुओं के मुख पर चौड़ी मुस्कान है,  पुरानी पार्टी छोड़ने का कोई मलाल नहीं है। जैसे गंगा-स्नान को आये हों। जनता भकुआयी देख रही है। यह सब किसके लाभार्थ हो रहा है? यह हृदय-परिवर्तन क्यों और कैसे हुआ? जिन्हें कल तक गाली देते मुँह सूखता था, अब उन्हीं के लिए मुख से फूल झर रहे हैं। लेकिन इसमें कुछ भी नया नहीं है। हमारा देश विश्वगुरू है, सौ टंच ईमानदार है। यहाँ यह सब होता रहता है, फिर भी हमारी महानता बेदाग़ रहती है। यहाँ चार पाँच बार पार्टी बदल चुके सिद्धांतवादी भी बैठे हैं। याद करना मुश्किल है कि कब कहाँ से चले थे और किस किस घाट का पानी पीकर इस घाट लगे। जहाँ भी जाएंगे, दाना-पानी तो पायेंगे ही।

विधायक गुन्नू बाबू से पूछा जाता है कि पार्टी क्यों बदल रहे हैं। जवाब मिलता है, ‘अरे भाई,  क्या बताएँ! बहुत तकलीफ है। अंतरात्मा चैन से नहीं बैठने देती। बार बार पुकारती है ‘पार्टी बदलो, पार्टी बदलो’। इतना परेशान करती है कि रात को नींद नहीं आती। उठ उठ के बैठ जाता हूँ। उठ के लॉन में चक्कर लगाता हूँ, फिर भी चैन नहीं मिलता। पार्टी छोड़ना कोई आसान काम है क्या? अरे राम राम!’

सवाल होता है,  ‘अंतरात्मा क्यों परेशान करती है,  गुन्नू बाबू?’

गुन्नू बाबू बड़े भोलेपन से उत्तर देते हैं,  ‘देखो भाई,  हम पॉलिटिक्स में जनता की सेवा के लिए आये हैं। अब हमारी पार्टी में जनता की सेवा का मौका नहीं मिलता। जनता की सेवा का मौका नहीं मिलेगा तो हम पार्टी में कैसे रहेंगे? जनता को क्या मुँह दिखायेंगे?’

फिर कहते हैं,  ‘हमको एक ही काम आता है—जनता की सेवा करना। दूसरा काम नहीं आता। तीन पीढ़ी से यही कर रहे हैं और बाल-बच्चों को भी इसी की ट्रेनिंग दे रहे हैं। पूरी जिन्दगी जनता को समर्पित है। जनता के लिए जीना है और जनता के लिए मरना है। जनता की सेवा जैसा संतोष कहीं नहीं।’

रिपोर्टर पूछता है,  ‘कोई पद-पैसे का लालच है क्या?’

गुन्नू बाबू कानों को हाथ लगाते हैं,  कहते हैं,  ‘अरे राम राम! जनता की सेवा में पद-पैसे का क्या सवाल? ये तो अपने ध्यान में आता ही नहीं है। बस अंतरात्मा की पुकार सुनना है और जिधर जनता की सेवा का मौका मिले उधर जाना है। फायदा नुकसान का एकदम नहीं सोचना है। भारत माता की जय।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 59 ☆ साझा संकलन ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “साझा संकलन”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 59 – साझा संकलन ☆

समस्याओं का अंबार सबके पास रहता है,परन्तु कुछ लोग थोड़ा सा महत्व बढ़ते ही महत्वाकांक्षी हो सिर पर सवार हो जाते हैं। माना कि पुराने लोगों की कीमत आपकी नजरों में घटती जा रही है किंतु आप कीमतीलाल बनकर सबके ऊपर रौब तो नहीं झाड़ सकते हैं। आपका रुतबा बढ़ रहा है, आप रौबदार बनने की डींग हाँकते हुए लोगों को नजरअंदाज करें ये किसी भी सूरत में उचित नहीं हो सकता है। कहते हैं न कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता है। परन्तु यदि यही चना अंकुरित होकर झाड़ में बदल जाए तो कई चने अवश्य उत्पन्न कर सकता है। इसमें समय लगेगा, यदि जिद करो और दुनिया बदलो की राह पकड़ ली जाए तो कुछ भी असंभव नहीं होगा।

एक साथ जब लोग हुँकार भरते हैं तो पर्वत को भी झुकना पड़ता है। कुछ ऐसा ही संपादक महोदय के साथ भी हुआ। जब देखो साझा संकलन के नाम पर ऊल- जलूल पोस्ट बनाकर सबको भेज देना और उससे जुड़ने के लिए बाध्य करना। अरे भई साझा कार्यक्रम तो केवल पढ़ने और पढ़ाने में ही अच्छा लगता है। यदि साझा ही सही होता तो एकल परिवारों का चलन क्यों बढ़ता ? अब तो घर में जितने लोग उतने कमरे होते हैं, उतने ही सुविधाओं के समान।  शेयर इट भी ज्यादा दिनों तक नहीं चल पाया।  फेसबुक की पोस्ट को तो कोई आसानी से साझा करता नहीं है, टैग करने पर ही नाराज होकर झट से, रिमूव टैग कर दिया जाता है।

निःशुल्क यदि छपना और छपाना हो तो लोग आगे आते हैं। पर यहाँ भी लेखकीय प्रति हेतु इतनी जद्दोजहद करनी पड़ती है कि बस ऐसा लगता है कि बस्ती के नल से पानी भरने हेतु लोग खड़े हैं और आपस में उलझते हुए टाइम पास कर रहे हैं।  साझे के चक्कर में न जाने क्या- क्या गुल खिलाने लगते हैं। मुफ्त में कोई चीज नहीं मिलती,हर चीज की कीमत कभी न कभी चुकानी ही पड़ती है तो क्यों न व्यक्तिगत संकलन पर ध्यान दिया जाए।

खैर कीमतीलाल जी जैसा चाहेंगे वैसा होगा। चारो तरफ लोग अपने – अपने लक्ष्य को पूरा करने हेतु भागा- दौड़ी कर रहे हैं। करें भी क्यों न ? इतने सारे मोटिवेशनल  राइटर व स्पीकर हो गए हैं कि अब तो जिसको कुछ नहीं सूझता वो इसी राह पर चल देता है। लोगों को भी मुफ्त की चीज चाहिए, भले वो सलाह ही क्यों न हो। एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देने में तो हमें महारत हासिल होती है। बस आँख से आँख मिलाते हुए पूरी तन्मयता से सब सुनने का ढोंग करिए  किन्तु करिए वही जो दिल करे। जाहिर सी बात है कि  ये तो कंफर्ट जोन का ही आदी होता है सो फिर वही पुराना राग शुरू हो जाता है कि साझे का दौर अब नहीं अब तो एकल का ही चलन बढ़ चुका है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 19 ☆ व्यंग्य ☆ जम्बूद्वीप के सीधे हाथ की ओर घूम जाने की कथा ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  विचारणीय व्यंग्य  “जम्बूद्वीप के सीधे हाथ की ओर घूम जाने की कथा । इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 19 ☆

☆ व्यंग्य – जम्बूद्वीप के सीधे हाथ की ओर घूम जाने की कथा ☆

यह जम्बूद्वीपे भारतखंडे आर्यावर्ते देशांतर्गते कल्याणकारी राज्य के ‘सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ वाली व्यवस्था में बदल जाने की वृहद कथा का अंश है. वैसे तो जंबूद्वीप हजारों वर्ष पुराना राष्ट्र हुआ करता था, परंतु ताज़ा चेतना ईसा के उन्नीस सौ पचास वर्ष बाद आई थी. तब से चार दशक तक व्यवस्था अर्थनीति की बीचवाली राह पर चलती रही, न ज्यादा दांये न ज्यादा बांये. फिर राष्ट्र दांयी ओर मोड़ दिया गया, लगे हाथों प्रजाजन को हिन्दी में समझा दिया गया कि जन-उपयोगी सेवाएँ व्यापार का हिस्सा है और व्यापार करना सरकार का काम नहीं है. प्रजाजनों को अब आत्मनिर्भर हो जाना चाहिये, आगे से उन्हें आधारभूत सुविधाओं के लिए भी शासन के भरोसे नहीं रहना चाहिये.

इसका असर हुआ. बिजली पानी जैसी जरूरतों के लिये भी प्रजाजन शासक वर्ग पर निर्भर नहीं रहे. वे अपने लिये बोरवेल खुदवा लेते, वाटर प्यूरिफायर लगवा लेते, शासन के लिये परेशानी खड़ी नहीं करते थे. बिजली के लिये उन्होने इनवर्टर खरीद रखे थे, बहुतेरों ने डीजल जेनसेट भी लगवा लिये थे. निर्धन प्रजा पानी के टैंकर पर टूट पड़ती, ग्रामीण प्रजा चार किलोमीटर दूर से भर लाती. ढिबरी जलाकर रह लेती मगर शासन के इस निर्णय का सहर्ष अनुपालन करती कि एक सुखी और सम्पन्न राष्ट्र की तमाम जन-सुविधायें निजी हाथों में होनी चाहिये. इसकी कीमतें निजी बाज़ार तय करेगा, शासक इसके लिये दायी नहीं होगा. गाय एक पूजनीय चौपाया हुआ करती थी, प्रजाजन उसी की मानिंद सिर हिला देते. उनके रंभाने को शासन अपनी नीतियों का समर्थन मान लेता.

जंबूद्वीप की सड़कें ‘सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट’ का परफेक्ट एक्जाम्पल थीं. बलशाली लोग महंगी तेज गति की कार से एक नगर से दूसरे नगर जाते. उससे कम हैसियत के लोग आरामदेह वातानुकूलित कोचों से यात्रा करते. शेष हारून मियां की टंडिरा हो चुकी बसों से आते-जाते. ग्रामीण प्रजा भेड़बकरियों सी लदकर टाटा-मैजिक या टेम्पो में भर कर जाती. राज्य परिवहन निगम की व्यवस्था समाप्त कर गई दी थी. यह कथा कहे जाने तक रेल भी निजी हाथों में देने की तैयारी कर ली जा रही थी. किराये से ज्यादा का टोल चुकाना पड़ता. प्रजाजनों को समझा दिया गया था देखो भैया सड़क बनाना शासन का काम नहीं है, पब्लिक प्राईवेट पार्टनरशिप मॉडल में बनेगी तो लागत का आठ-दस गुना टोल तो चुकाना पड़ेगा. इस कालखंड के शासकों का मानना था कि रेल-मोटर चलाना राजकाज के काम का हिस्सा नहीं है. जनसंचार के सारे माध्यम भी प्रजाजनों को यही यकीन दिलाते. तो क्या करती गायें, उन्होने इसमें भी सिर हिलाकर सहमति दे दी.

सरकारी स्कूलों में न छत होती, न पंखे, न ब्लैक बोर्ड न चाक, और तो और शिक्षक भी पक्के नहीं होते. अतिथि शिक्षक होते जो अतिथियों की तरह आते. आते आते नहीं भी आते. तो क्या करते प्रजाजन? वे शिक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो गये,  श्रेष्ठीजन लक़दक़ पाँच सितारा स्कूलों में एजुकेशन दिलवाते, ट्यूशन लगवाते, कोटा भिजवाते, टैबलेट पर बायजूस खरीद लेते. शेष प्रजा बच्चों को मोहल्ले के सेंट भंवरलाल कान्वेंट स्कूल में भर्ती कर देती. जो वहाँ तक भी नहीं जा पाते वे चाय की दुकान पर गिलास धोने की नौकरी कर लेते.

प्रजाजन को इलाज के लिये बीमा करवाना पड़ता. वे शासकीय अस्पताल से विमुख हो चुके थे. कारपोरेट अस्पताल में केशलेस कार्ड लेकर घुसते और बीमित राशि के शून्य हो जाने तक भर्ती रहते. जो अफोर्ड नहीं कर पाते वे नीमहकीमों से या बंगाली बाबाओं से शर्तिया इलाज़ कराते. नीति नियंताओं ने स्वयं को हेल्थ सेक्टर के दायित्व से भी मुक्त कर लिया था.

जम्बूद्वीपवासी पत्र भेजने के लिये डाकघर जैसी चीज को विस्मृत कर चुके थे. वे कोरियर सेवा का उपयोग करते जो महंगी होने के साथ साथ बहुत जवाबदेह भी नहीं होती. लाल डिब्बे शहर में ढूँढे से नहीं मिलते. हर कोरियर कंपनी का अपना रेट होता. सो आप जानों और कंपनी जाने. शासन आपकी चिट्ठी सही जगह पर मामूली कीमत में क्यों पहुंचाये ?

शासन ने जन सुरक्षा क्षेत्र में भी अपने को सिकोड़ लिया था और प्रजाजन को आत्मनिर्भर होने का संदेश दे दिया था जिसका अनुपालन करते हुवे जिम्मेदार नागरिक प्राईवेट सिक्यूरिटी गार्ड रख लेते. पुलिस होती थी मगर जिनका डर दूर करने के लिये उसे बनाया गया वे ही उससे सबसे ज्यादा डरते. सामान्य श्रेणी के नागरिकों को ए स्तर की सुरक्षा नहीं मिल पाती, रसूखदार लोग ज़ेड केटेगरी की सुरक्षा ले उड़ते.

पूर्व चक्रवर्ती सम्राट अशोक के शासन पर जम्बूद्वीप के वर्तमान शासक जितना गर्व करते उसके कल्याणकारी मॉडल से उतनी ही दूरी बनाकर चलते. आवारा शब्द पूंजी के पहले जुड़ा हो तो उसे सम्मान के साथ बरता जाता था. आर्थिक समानता और सामाजिक समरसता बीते युग की अवधारणा हो चली थी. जिस नागरिक की जितनी हैसियत रही वो उतना आत्मनिर्भर होता रहा. जो आत्मनिर्भर हो पाने में असमर्थ रहता वो आत्महत्या  कर लेता. शासक को दांयी ओर चलना हो तो तो पीठ पर से बिजली, पानी, लोक परिवहन, संचार, शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा जैसे बैगेजेस झटककर फेंकने ही पड़ते. कथासार ये कि जम्बूद्वीपे भारतखंडे आर्यावर्ते देशांतर्गते राजाधिराज अपने व्यावसायिक प्रतिष्ठानों उपक्रमों को निजी क्षेत्र को सौंप कर कल्याणकारी राज्य होने के दायित्व से मुक्त होने की दिशा में द्रुत गति से चलने लगे. निर्बल निर्धन असहाय विवश नागरिक पीछे छूटते रहे, उनकी शेषकथा फिर कभी.

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 87 ☆ व्यंग्य – टूटी टांग और चुनाव ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। आज प्रस्तुत है आपका एक समसामयिक विषय पर आधारित व्यंग्य टूटी टांग और चुनाव। )  

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 87

☆ व्यंग्य – टूटी टांग और चुनाव ☆

इधर टांग क्या टूटी, सियासत गरमा गई। चुनावी चालें पलटी मार गईं। इतने दिन की मेहनत धरी रह गई। टांग ने सहानुभूति लहर पैदा कर परिवर्तन यात्राओं का बंटाधार कर दिया। चुनाव के समय एक हजार पुराने शिव मंदिर के नंदी महाराज नाराज हो गए। नाराजगी स्वाभाविक है, जय श्रीराम को जय सियाराम क्यों बोला। जय श्रीराम और जय सियाराम के नारे का झगड़ा है। चुनाव के समय नारों का बड़ा महत्व है, चुनाव के समय जितना घातक नारा लगेगा,वोटर पर उतना ज्यादा असर करेगा। राम का नाम चुनाव में बड़े काम का है, सामने वाले का काम तमाम कर ‘राम राम सत्य’ कर देता है। वैसे तो चुनाव के समय हर चीज का बड़ा महत्व है, बिकने वाले नेता तैयार बैठे रहते हैं, धजी का सांप बताने वाले खूब पैदा हो जाते हैं। पुराने देवी देवता जाग जाते हैं,परचा दाखिल करने के पहले पुराने देवी देवताओं की खूब पूछ परख होने लगती है, हनुमान जी को बड़ा माला पहनने का सुख मिल जाता है, फोटो-ओटो भी खिंच जाती है। चुनाव के समय दाढ़ी वालों की बाढ़ आ जाती है, कुछ लोग चुनाव में व्यस्तता दिखाने दाढ़ी बढ़ा लेते हैं, कुछ दाढ़ी कटा लेते हैं। चुनाव के समय पुलिस वालों के डण्डे ज्यादा तेल पीने लगते हैं, भीड़ बढ़ाने के हथकंडे अपनाए जाते हैं,बस और ट्रेन से लोगों को लोभ देकर लाया जाता है। शक्ति परीक्षण के लिए भीड़ सबसे अच्छा पेरामीटर होता है,पर बीच में अचानक ये टांग दिक्कत दे देगी, किसी ने भी सोचा न था।

चुनाव के समय सभी बड़े चैनल वाले चिल्लाने और मुंह चलाने वाली एंकरों को ज्यादा पसंद करते हैं। चुनाव के समय कुछ सेलीब्रिटी मुंह उठाए बैठे रहते हैं कि पार्टी में अचानक घुसने मिल जाएगा और मुफ्त में गृहमंत्रालय उन्हें वाई प्लस,जेड प्लस केटेगरी की सुरक्षा मुहैया करा देगा। टांग टूटने से व्हील चेयर चर्चा में आ जाती है,चेयर ढकेलने वाले और गोदी उठाने वालों के रुतबे बढ़ जाते हैं। हर नेता घायल होने के सपने देखने लगता है।आरोप-प्रत्यारोप, विरोध प्रदर्शन और टकराव के ठेके देने का काम पीक पर रहता है। समर्थकों को जगाने के लिए जानबूझकर शान्ति बनाए रखने की अपील जारी कर दी जाती है जिससे तैयारी अच्छी हो जाती है। शान्ति रखने की बयानबाजी से शान्ति और हिंसा के बीच कबड्डी मैदान बनाने का संकेत हो जाता है। माहौल में टूटी टांग की कीमत बढ़ जाती है,वोट प्रतिशत बढ़ने की खुशफहमी का प्लास्टर मीडिया की टीआरपी बढ़ाने के काम आता है, चैनलों में विज्ञापनों की बौछार लग जाती है। टूटी टांग और चुनाव की चर्चा से बाजार गुलजार हो जाता है, चर्चा में टूटी टांग और जनतंत्र का भावी रूप प्रगट होने लगता है, खबर पूरी दुनिया में फैल जाती है, आह और वाह के बीच नाज और नखरे वाले बयान आग में घी डालने का काम करने लगते हैं। अचानक काले कपड़े की बिक्री बढ़ जाती है, काले कपड़े से मुंह ढककर काले झंडे लिए सड़कें भर जातीं हैं। कुल मिलाकर चुनाव के समय सब कुछ जायज है, कोई भरोसा नहीं कौन सा नारा या शब्द चुनाव में कितना मार कर जाए , पिछले बार के चुनाव में ‘चौकीदार’ शब्द विपक्ष को दिक्कत देकर  खूब वोट बटोर लाया था, इस बार टूटी टांग का जलवा देखने लायक रहेगा क्योंकि चुनाव के समय टूटी टांग और व्हील चेयर जनता के मन में ‘ममता’ पैदा कर सकते हैं।

चुनाव के समय टांग टूटने से चुनाव लड़ने वाले का अलग व्यक्तित्व हो जाता है, लोगों का ध्यान बंट जाता है, सब टूटी टांग और प्लास्टर देखकर द्रवित हो जाते हैं, ऐसे समय टूटी टांग राष्ट्रीय महत्व की चीज हो जाती है, टूटी टांग चुनाव प्रचार में राष्ट्रीय मुद्दा बनकर उछल  पड़ती है। मीडिया चैनलों और सोशल मीडिया में टूटी टांग का कब्जा हो जाता है। टूटी टांग चुनाव के समय असली देशभक्ति जगाने में काम आती है, दर्द सहते हुए जनता के दुख दर्द की चिंता करने से चुनाव और वोटर के प्रति समर्पण दिखता है, बुद्धजीवी और शरीफ लोग इसे ‘परफेक्ट कमिटमेंट’ मानते हैं। ऐन वक्त कुछ लोग टांग टूटने को मजाक बना लेते हैं, कोई कहता है टांग नहीं टूटी, लिगामेंट टूटे हैं, कुछ लोग कहने लगते हैं कि यदि लिगामेंट टूटे हैं और दर्द भी है प्लास्टर लगा है तो बिस्तर में आराम क्यूं नहीं करते, व्हील चेयर में चुनाव प्रचार की धमकी क्यों देते हैं।

व्हील चेयर पर चुनाव प्रचार की धमकी से एक पार्टी घबरा गई है, उसने आरोप लगा दिया है कि टांग के बहाने फायदा उठाने की राजनीति की जा रही है,  राजनैतिक उथल-पुथल में टूटी टांग का अलग इतिहास रहा है, एक बार लालू की राजनीति सफाचट्ट होने के बाद लालू जी की अपनी टांग टूट गई थी, प्लास्टर लगा सिम्पेथी बटोरने की कोशिश की थी,पर शरद और नितीश ने बिल्कुल लिफ्ट नहीं दी थी तो लालू ने नयी पार्टी बना ली थी, चुनाव प्रचार में घोषणाएं होती हैं, भविष्यवाणी होती है, टांग टूटने के दो दिन पहले यदि किसी ने अपने भाषण में चोट लगने की भविष्यवाणी कर दी थी तो उनको अपनी टांग संभाल के रखनी थी, जो अपनी टांग नहीं संभाल सकता वो देश और प्रदेश की जनता की टांग की रखवाली कैसे कर सकता है। चुनाव के समय टांग पर राजनीति करना ठीक नहीं है, जनता परिवर्तन चाहती है, टूटी टांग विकास के रास्ते में बाधा उत्पन्न कर सकती है। बड़े लोगों की टांग यदि टूट भी जाती है तो अपनी टूटी टांग का प्रचार नहीं करते, परसाई जी अपनी टूटी टांग छुपा कर रखते थे, पर चुनाव के समय उनकी टूटी टांग पर पार्टी वाले राजनीति करने पर उतारू हो गए थे, चुनाव के समय उनकी टूटी टांग की बोली लगाने में नेता लोग चूके नहीं थे। चुनाव के समय एक दो पार्टी वाले उनकी टूटी टांग का जायजा लेने पहुंच जाते थे। एक पार्टी के लोगों ने प्रार्थना करते हुए उनसे कहा था कि ये एक ऐतिहासिक चुनाव है, और आपकी टूटी टांग इस चुनाव में बड़ा बदलाव ला सकती है, तानाशाही और जनतंत्र में संघर्ष है, सरकार ने नागरिक अधिकार छीन लिए हैं, वाणी की स्वतंत्रता छीन ली है, हजारों नागरिकों को बेकसूर जेल में डाल दिया गया है, न्यायपालिका के अधिकार नष्ट किए जा रहे हैं, हमारी पार्टी इस तानाशाही को ख़त्म करके जनतंत्र की पुनः स्थापना करने के लिए चुनाव लड़ रही है, इस पवित्र कार्य में आपकी टूटी टांग हमारी मदद कर सकती है, परसाई जी ने स्वार्थी, मौकापरस्त नेताओं को अपनी टांग नहीं दी, साफ मना कर दिया था। इस बार जिनकी टांग टूटी है उनकी टांग मीडिया में छा गई है, सहानुभूति की लहर दिनों दिन आंधी में तब्दील हो रही है ऐसे समय यदि उत्साह में टूटी टांग लंगड़ाते हुए मंच में चलती दिख गई तो सामने वाली पार्टी का बंटाधार होना तय है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 90 ☆ व्यंग्य – संपादक के नाम चन्द ख़ुतूत ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक  बेहद मजेदार व्यंग्य  ‘संपादक के नाम चन्द ख़ुतूत‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 90 ☆

☆ व्यंग्य – संपादक के नाम चन्द ख़ुतूत

[1]

श्रद्धेय संपादक जी,

सप्रेम नमस्कार।

आज आपकी पत्रिका का नया अंक देखा। देख कर चित्त प्रसन्न हो गया। मुझे पता नहीं था कि हमारे देश में इतनी बढ़िया पत्रिका निकल रही है। कवर बहुत सुन्दर बन पड़ा है। भीतर की सामग्री की जितनी तारीफ की जाए, कम है। कविताएं, कहानियाँ,निबंध, सब एक से बढ़कर एक हैं। पत्रिका आपकी योग्यता और सूझबूझ का जीता-जागता प्रमाण है। आपकी देख-रेख में पत्रिका दिन-दूनी रात-चौगुनी उन्नति करेगी इसमें मुझे कोई सन्देह नहीं। आपकी विद्वत्ता के बारे में बहुत सुना था, अब प्रत्यक्ष देख लिया।
एक परिचर्चा ‘साली, आधी घरवाली’ सेवा में भेज रहा हूँ। इसे पत्रिका में स्थान देकर अनुगृहीत करें। इसमें भाग लेने वाले सभी लोग मेरे नगर के बुद्धिजीवी हैं। आप पायेंगे कि परिचर्चा अत्यन्त मनोरंजक और समसामयिक है। इससे पहले ‘ससुराल की पहली होली’ पर मेरी एक परिचर्चा एक स्थानीय पत्र में छपी थी जो अत्यधिक सराही गयी थी और जिसकी नगर के कोने कोने में चर्चा हुई।

परिचर्चा में भाग लेने वालों के फोटो और मेरा फोटो जरूर छापें। फोटो संलग्न हैं।

आपका

कस्तूरचन्द ‘प्यासा’

[2]

श्रद्धेय संपादक जी,

सप्रेम नमस्कार।

आपके पत्र के साथ मेरी परिचर्चा वापस मिली। आपने लिखा है कि परिचर्चा घटिया है। पुनर्विचार और आत्ममंथन के बाद मुझे भी लगा कि परिचर्चा का विषय पर्याप्त स्तरीय नहीं है। मैं आपके विचार से सहमत हूँ।

एक दूसरी परिचर्चा भेज रहा हूँ जिसका विषय है ‘पिया बसे परदेस, कैसे मिटे कलेस’। यह परिचर्चा बिलकुल मौलिक और अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसमें अपने पतियों से विलग रहने वाली पत्नियों की व्यथा को खोल कर रख दिया गया है। अभी तक किसी परिचर्चाकार ने इस विषय को नहीं उठाया। इस परिचर्चा के आयोजन में मुझे जो श्रम और समय देना पड़ा है वह कहने की बात नहीं है। मुझे विश्वास है कि यह परिचर्चा आपकी पत्रिका के स्तर में चार चाँद लगा देगी।

भाग लेने वालों के फोटो और मेरा फोटो जरूर छापें। फोटो संलग्न हैं।

आपका।

कस्तूरचन्द ‘प्यासा’

[3]

संपादक जी.

सप्रेम नमस्कार।

दूसरी परिचर्चा भी वापस मिली। आपको यह परिचर्चा भी घटिया लगी, यह पढ़कर दुख हुआ, लेकिन आपका निर्णय सिर-आँखों पर। आपने ठीक लिखा है कि इस परिचर्चा में भाग लेने वाले भी वही लोग हैं जो पहली परिचर्चा में थे। दरअसल मैंने इन बुद्धिजीवियों को दूसरी परिचर्चा के लिए भी पूर्णतया उपयुक्त पाया। इसमें किसी तरह का जोड़-तोड़ नहीं है।

आपका यह अनुमान सही है कि परिचर्चा में भाग लेने वाली कोकिला देवी मेरी धर्मपत्नी हैं। यह मेरा सौभाग्य है कि मैं एक विदुषी का पति हूँ जो साहित्य और कला की मर्मज्ञ हैं। कोकिला देवी सिर्फ मेरी पत्नी नहीं, मेरी सचिव और सहायक भी हैं। उनके सहयोग से ही मेरी साहित्य-साधना सुचारु रूप से चल रही है।

मुझे लगता है आपकी रुचि परिचर्चाओं में नहीं है, इसलिए इस बार एक मौलिक और मार्मिक कहानी ‘जिगर का धुआँ’ भेज रहा हूँ। आप पायेंगे कि इस कहानी में प्रेम का एक बिलकुल नया कोण खोजा गया है जो आपको संसार की किसी प्रेम-कथा में नहीं मिलेगा। मेरा एक दोस्त इस कहानी को सुनकर दो दिन तक रोता रहा। मेरी पत्नी का विचार है कि इस कहानी की गणना संसार की श्रेष्ठतम प्रेम-कहानियों में होगी, लेकिन मैं एक अत्यन्त विनम्र व्यक्ति हूँ। मैं इस कहानी के संबंध में निर्णय आपके ऊपर छोड़ता हूँ।

फोटो संलग्न है।

आपका

कस्तूरचन्द ‘प्यासा’

[4]

संपादक जी,

आज की डाक से कहानी वापस मिल गयी। हृदय अत्यन्त दुखी हुआ। अब मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए विवश हूँ कि आपकी पत्रिका भाई-भतीजावाद और ठकुरसुहाती के आधार पर चलती है। जमाना ही ऐसा है, तो भला आप कैसे इन प्रवृत्तियों से मुक्त रहेंगे?

मैं इस दुखद निष्कर्ष पर भी पहुँचा हूँ कि आप में रचना के गुणों को परखने की पर्याप्त क्षमता नहीं है। आखिर हीरे को जौहरी ही परख सकता है, और हर आदमी जौहरी नहीं हो सकता। मैंने आपके पास अत्यन्त महत्वपूर्ण परिचर्चाएं और बढ़िया कहानी भेजी, लेकिन आप उनके गुणों को ग्रहण करने में असमर्थ रहे।
मुझे यह भी शक है कि मेरे कुछ साहित्यिक शत्रुओं ने भितरघात करके आपको मेरे विरुद्ध बरगलाया है और मेरी उज्ज्वल छवि को धूमिल करने का प्रयास किया है। नगर में मुझसे ईर्ष्या करने वालों की कमी नहीं है।

बहरहाल, अब मेरा आपकी पत्रिका को सहयोग देने का कोई इरादा नहीं है। आपकी पत्रिका से ज्यादा अच्छी पत्रिकाएं हैं और आपसे ज्यादा समझदार संपादक भी, जहाँ मेरी रचनाओं की सही कद्र होगी।

नमस्कार।

कस्तूरचन्द ‘प्यासा’

[5]

श्रद्धेय संपादक जी,

सप्रेम नमस्कार।

लगभग तीन माह पूर्व मेरा पत्र आपको मिला होगा। उस वक्त कुछ घरेलू परिस्थितियों के कारण विचलित होकर कुछ ऊटपटाँग लिख गया था। उसे अन्यथा न लें। बाद में मुझे दुख हुआ कि मैं असावधानी में कुछ अप्रिय बातें लिख गया था। आशा है आप मेरी परिस्थिति को समझ कर मेरी बातों का बुरा न मानेंगे और पहले की तरह स्नेह-संबंध बनाये रखेंगे। मैं जानता हूँ कि आप सुयोग्य संपादक हैं और आपकी पत्रिका निष्पक्ष और उच्च स्तर की है।

एक कहानी ‘दिल की दरार’ सेवा में भेज रहा हूँ। मेरे हिसाब से कहानी प्रथम श्रेणी की है। यह पहली कहानी होगी जिसमें नायक हवाई जहाज से कूद कर आत्महत्या करता है। इस दृष्टि से कहानी बिलकुल मौलिक और आधुनिक है। लेकिन आप खुद समझदार हैं, इसलिए ज्यादा कुछ कहना उचित नहीं समझता।

फोटो संलग्न है।

आपका

कस्तूरचन्द ‘प्यासा’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – मासिक स्तम्भ ☆ खुद से खुद का साक्षात्कार #2 – श्री संतराम पाण्डेय ☆ आयोजन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय, संपादक ई-अभिव्यक्ति (हिन्दी)

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

वर्तमान में साहित्यकारों के संवेदन में बिखराव और अन्तर्विरोध क्यों बढ़ता जा रहा है, इसको जानने के लिए साहित्यकार के जीवन दृष्टिकोण को बनाने वाले इतिहास और समाज की विकासमान परिस्थितियों को देखना पड़ता है, और ऐसा सब जानने समझने के लिए खुद से खुद का साक्षात्कार ही इन सब सवालों के जवाब दे सकता है, जिससे जीवन में रचनात्मक उत्साह बना रहता है। साक्षात्कार के कटघरे में बहुत कम लोग ऐसे मिलते हैं, जो अपना सीना फाड़कर सबको दिखा देते हैं कि उनके अंदर एक समर्थ, संवेदनशील साहित्यकार विराजमान है।

कुछ लोगों के आत्मसाक्षात्कार से सबको बहुत कुछ सीखने मिलता है, क्योंकि वे विद्वान बेबाकी से अपने बारे में सब कुछ उड़ेल देते है।

खुद से खुद की बात करना एक अनुपम कला है। ई-अभिव्यकि परिवार हमेशा अपने सुधी एवं प्रबुद्ध पाठकों के बीच नवाचार लाने पर विश्वास रखता है, और इसी क्रम में हमने माह के हर दूसरे बुधवार को “खुद से खुद का साक्षात्कार” मासिक स्तम्भ प्रारम्भ  किया हैं। जिसमें ख्यातिलब्ध लेखक खुद से खुद का साक्षात्कार लेकर हमारे ईमेल ([email protected]) पर प्रेषित कर सकते हैं। साक्षात्कार के साथ अपना संक्षिप्त परिचय एवं चित्र अवश्य भेजिएगा।

आज इस कड़ी में प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार – साहित्यकार श्री संतराम पाण्डेय जी का  खुद से खुद का साक्षात्कार. 

  – जय प्रकाश पाण्डेय, संपादक ई-अभिव्यक्ति (हिन्दी)  

☆ खुद से खुद का साक्षात्कार #2 – जो बात पत्रकार नहीं कह सकता, वह व्यंग्यकार कह डालता है…..  श्री संतराम पाण्डेय

श्री संतराम पाण्डेय

लेखक परिचय  

मेरा इस धरती पर अवतरण उस प्रदेश में हुआ, जहां मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम को यह सौभाग्य मिला था यानि कि अवध प्रदेश जिसे अब उत्तर प्रदेश का अयोध्या (फैजाबाद) कहा जाता है। मेरेे माता-पिता कहते थे कि जब मैं पैदा हुआ तो बहुत आंधी-तूफान आया था।

जन्म स्थान: ग्राम- बरांव, जनपद अयोध्या (फैजाबाद, उप्र)।

पिता : स्व. श्री राम मिलन पाण्डेय

माता: स्व. श्रीमती शिवपती पाण्डेय

अद्र्धांगिनी: श्रीमती कांति पाण्डेय

जन्म: ०२ अप्रैल १९५६

शिक्षा: स्नातक, बीटीसी

व्यवसाय: पत्रकारिता  लगभग ४० वर्षों से

रुचि: समाचार पत्र-पत्रिका संपादन, लेखन, पठन

साहित्य लेखन यात्रा: 

  1. दैनिक प्रभात में १२ वर्षों तक तिरछी नजर के नाम से नियमित व्यंग्य का स्तंभ लेखन, लगभग ३ हजार व्यंग्य एवं टिप्पणियां।
  2. दैनिक विजय दर्पण टाइम्स में जरा सोचिए स्तम्भ में 200 से अधिक आलेख लेखन।
  3. देश के विभिन्न समाचार पत्रों में आलेख, रिपोर्ट्स, साक्षात्कार, व्यंग्य, कविताएं प्रकाशित।

पुस्तक प्रकाशन-

व्यंग्य संग्रह- अगले जनम मोहे व्यंग्यकार ही कीजौ

अनुभव: अनेक समाचार पत्रों में संपादन, रिपोर्टिंग, साक्षात्कार।

संप्रति: कार्यकारी संपादक, सांध्य दैनिक विजय दर्पण टाइम्स, मेरठ

वर्तमान संपर्क: एफ-३२९, गंगानगर, मवाना रोड, मेरठ-२५०००१ (उत्तर प्रदेश)

सचलभाष: ०७८९५५०६२८६,  ०८२१८७७९८०५

मेल आईडी: [email protected]

blog: direct kalam se

स्वनाम धन्य संतराम पाण्डेय ले रहे हैं अपना साक्षात्कार…

०१. सवाल:- अपने बारे में कुछ बताइये?

-अपने बारे में बताने के लिए है ही क्या और जो  है, उसकी बहुत लंबी चौड़ी कहानी है। संक्षेप में ये है कि पाण्डेय जी ४ फुट ५ इंच के छोटे से ६५ साल के नौजवान हैं। पैदा तो एक किसान ब्राह्मण के घर हुआ। थोड़ी पढ़ाई लिखाई की। मास्टरी भी की, फिर अखबारबाजी में आ जुटा और इसमें जुटने के बाद बस, जुटा ही हूं। मुझे थकान नहीं होती। न किसी काम से ऊब होती है। जो करता हूं, मन से करता हूं। मन कहीं भटकता है तो ज्यादा काम उसे अपने से भटकने नहीं देता। जो ठान लिया करता ही हूं।

0२. सवाल: वाह पांडे जी! बहुत खूब। आज आया ऊंट पहाड़ के नीचे। सबको खबरों के कठघरे में खड़ा करने वाला आज अपनी मर्जी से खुद भी कठघरे में खड़ा है। या यूं कहें कि अपने ही सवालों के घेरे में खड़ा है। पूरी ईमानदारी और शिद्दत के साथ। कैसा लग रहा है इस अजीबोगरीब साक्षात्कार का कठघरा?

-अच्छा लग रहा है। अक्सर किसी भी विधा का लेखक हो, वह स्वयं को नहीं देखता। स्वयं से कूुछ नहीं पूछता। न स्वयं के बारे में जानना चाहता है। पाण्डेय जी को लोग पत्रकार के रूप में जानते हैं। व्यंग्यकार के रूप में कम ही जानते हैं। पाण्डेय जी एक संवेदनशील प्राणी हैं। जब लोगों के दो-दो रूप देखते हैं तो दर्द होता है और यहीं से एक पत्रकार में व्यंग्यकार जाग उठता है। तब वह पत्रकार की भी नहीं सुनता।

०३ सवाल: आज अखबारों में खबरों से कहीं ज्यादा साहित्य बाँचा जा रहा है। क्या यह सच है?

– आज अखबारों की दशा खराब है। उसमें साहित्य कहां बचा है। अब तो वह जो बिकता है, वह छपता है की नीति पर चलने लगा है। एक वक्त था कि अखबारों में साहित्य भरा होता था। अब ऐसा कम ही है। अब अखबार एक कारखाने की तरह चल रहे हैं। कुछ अखबार हैं जो साहित्य को गंभीरता से लेते हैं। जबसे युग अर्थ प्रधान हुआ, तबसे यह बदलाव भी आया है लेकिन जबसे साहित्य अखबारों से गायब होना शुरू हुआ, साहित्यकारोंं की रुचि भी अखबारों में कम होने लगी।

०४ सवाल: हास्य व्यंग्य के तीखे कालम पहले भी अख़बारों के हिस्से हुआ करते थे पर इस अचानक बदलाव को देख कर क्या ऐसा नहीं लगता कि साहित्य खबरों पर चड्ढी गांठ रहा है?

-सही कह रहे हैं। आदरणीय हरिशंकर परसाई, शरद जोशी जी, केपी सक्सेना जी, श्री गोपाल चतुर्वेदी जी के कॉलम अखबारों के हिस्सा हुआ करते थे। कितने लोग केवल इन्हें ही पढऩे के लिए अखबार खरीदते थे। अब अखबारों से व्यंग्य के कॉलम गायब से हो गए हैं।

०५. सवाल:  साहित्य की कौन कौन सी विधाएं जन मानस से जुड़ी हैं, इसमें हास्य और व्यंग्य की नुमाइंदगी कितनी है? क्या व्यंग्य समय की मांग है?

– पाठकों की अपनी रुचि होती है लेकिन व्यंग्य समाज से गहराई तक जुड़ा है। व्यंग्य आम आदमी की बात करता है। वह गंभीर बात को सहजता से कहने में सक्षम है और यह अखबारों की जरूरत भी है। व्यंग्य समय की मांग है।

०६. सवाल: तो क्या वह पूरी ईमानदारी के साथ अपनी भूमिका निभाने में सक्षम है।

– यही तो दुखद है। अधिकांश व्यंग्यकार व्यंग्य के नाम पर भड़ास लिख रहे हैं। व्यंग्यकार व्यंग्य का मर्म नहीं समझ पा रहे हैं। उन्हें समझना होगा कि व्यंग्य आम आदमी की बात करता है। वह आम आदमी के लिए बड़ी से बड़ी ताकत से टकराने का साहस रखता था लेकिन व्यंग्यकार इस बात को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं। उनमें पाले खिंच गए हैं। खेमेबंदी हो गई है। इससे व्यंग्य का नुकसान हो रहा है।

0७ सवाल: आप व्यंग्यकार हैं?

-हूँ तो नहीं। लोगों ने बना दिया और जबसे पता चला कि भाई लोग मुझे व्यंग्यकार मानने लगे हैं तो मैं गुलाटी मार गया। एक किताब लिख डाली-अगले जनम मोहे व्यंग्यकार ही कीजो। अब  बताइये, जब इस जनम में मैं व्यंग्यकार होता तो क्यों अगले जनम के लिए अपनी सीट आरक्षित कराता। हां, एक बात जरूर कहूंगा कि जो बात पत्रकार नहीं कह सकता, वह व्यंग्यकार कह डालता है।

0८. सवाल: कुछ व्यंग्य के बारे में बताइये?

-मैं तो कहता हूं कि-मारे और रोवन न दे, कुछ ऐसा जो लिख मारे, वही व्यंग्य। जो पढ़ेे तो गरियावे भी और शांत भी बैठे और सोचे तो शाबाशी भी दे।

0९.सवाल: और व्यंग्यकार?

-हुंह, टेढ़ी नजर। आंख पे चश्मा। दाढ़ी बढ़ी हुई। ऊटपटांग पहनावा। कुर्ता हो तो जेब फटी। जिसके पास अपना कुछ खोने को न हो, वही व्यंग्यकार। कबीरदास जी ने कहा है न- जो घर फूंके आपनो, चलै हमारे साथ, तो कुछ ऐसा होना चाहिए व्यंग्यकार को, नहीं तो दुनिया उसे जीने नहीं देगी।

१०. सवाल: आजकल व्यंग्य बहुत लिखे जा रहे हैं?

-तो लिखने दो न। रहेगा तो वही जो व्यंग्य होगा। भड़ास लिख रहे हैं लोग। भड़ास तो भड़ास ही है, वह व्यंग्य तो नहीं हो जाएगा।

११. सवाल: अच्छा ये तो ठीक है, ये दाढ़ी? फिर परिवार में निभती कैसे है?

-हा हा हा, कुछ दिन तो हाय, हंगामा होता रहा, फिर यथास्थिति बन गई। सच तो यह है कि समय नहीं मिलता थ्राा कि हर तीसरे दिन इसे घोटता रहूं, इसलिए बढऩे दिया। जब लोग टोकना शुरू करते हैं तो इसकी कटाई करनी पड़ती है।

१२. सवाल: अपने व्यंग्य पर कोई संस्मरण बताइये?

-एक बार मेरे एक सहकर्मी ने कहा कि चलो आपको अपने गांव घुमा लाते हैं। मैं भी तैयार हो गया। उनके गांव के बाहर एक पान की दुकान थी। वह भी वहां रोज पान खाते थे तो मुझे भी ले गए, कहा- चलो आपको आपके एक चाहने वाले से मिलाते हैं। मैं हैरान था कि इनके गांव में मेरा कौन है चाहने वाला। फिर भी मैं चला गया। दुकान के सामने पहुंचकर मेरे सहकर्मी ने दुकानदार से पूछा- इन्हें पहचानते हो। दुकानदार ने बड़ी देर तक घूरते हुए देखा, फिर बोला, कहीं देखा तो है, पर ध्यान नहीं आ रहा। सहकर्मी बोले- अरे वही हैं जिसे तुम कालम में पढ़कर रोज गरियाते हो कि आज तो इसने मेरे दिल की बात लिख दी है। वह हैरान और दुकान से उतरकर तुरंत मेरे पैर छूने लगा। मैंने कहा भाई यह तो मेरा सम्मान है कि हमें तुम जैसा पाठक मिला। उन दिनों समाचार पत्र में मेरा तिरछी नजर से रोज का एक कालम छपता था जो कि बहुत लोकप्रिय हुआ था।

१३. सवाल: एक सवाल लेखकों पर, आज हर लेखक या कवयित्री व्यंग्यकार होने के चक्कर में हैं, व्यंग्य खूब लिखे जा रहे हैं, क्या कारण है, इसे आप क्या कहेंगे?

-मैं तो यही कहूंगा कि दूसरे की थाली का भोजन अपनी थाली से अच्छा ही दिखता है। जो वाकई व्यंग्य लिख रहे हैं और अच्छा लिख रहे हैं, उन्हें लिखने दें। दाल-भात में मूसरचंद न बनें। जो विधा जिसे रुचती है, उसी में लिखे। मैं एक संपादक भी हूं। बहुत सारी व्यंग्य लिखी रचनाएं आती हैं लेकिन पढऩे पर पता चलता है कि इसमें तो व्यंग्य है ही नहीं। वास्तव में व्यंग्य है कि नहीं, इसे लिखने वाला नहीं, पढऩे वाला निर्धारित करता है।

१४. सवाल: पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी के व्यंग्य पर आप क्या सोचते हैं?

-ये आपने पते की बात पूछी। परिवर्तन तो ऊपर वाले का नियम है। सब कुछ बदला तो व्यंग्य भी बदल रहा है। व्यंग्यकार भी बदल रहे हैं। अब बहुत पढ़े-लिखे व्यंग्यकार हो गए हैं। कुछ तो ऐसा भी लिखते हैं कि अपनी सारी विद्वता उसमें दे मारते हैं जो पाठक के सिर के ऊपर से निकल जाती है। कुछ देश-विदेश के व्यंग्यकारों के इतिहास-भूगोल को अपने में समेटने में लगे हैं तो कुछ ठेठ गांव के होकर रह गए हैं। अरे भाई लिख किसके लिए रहे हो? ये तो सोचना ही पड़ेगा। जब पढऩे वाले को समझ में ही न आएगा तो लिखने का क्या लाभ। कबीरदास जी ने लिखा और कभी व्यंग्यकार का तमगा अपने गले में नहीं लटकाए लेकिन आज उनके लिखे पर शोध हो रहे हैं। इसलिए आज नई व पुरानी पीढ़ी के व्यंग्यकारों में तादात्म्य नहीं बन पा रहा है। वाहन भले ही नया लेकिन लीक तो पुरानी ही पकडऩी पड़ेगी न। तो पुराने लोगों के बताई लीक पर अपनी नई गाड़ी दौड़ाने लायक कूब्बत तो पैदा करनी पड़ेगी और उसके लिए पुरानी पीढ़ी के व्यंग्यकारों को पढऩा भी पड़ेगा लेकिन मुश्किल ये है कि नई पीढ़ी पढऩे को राजी नहीं है। बस अपनी गाड़ी दौड़ाई जा रही है।

१५. सवाल: पत्रकार संतराम पांडेय या व्यंग्यकार संतराम पांडेय में से आप किसकी बात अधिक सुनते है?

-पत्रकार तो मेरे रक्त में बसा है। वह अलग हो ही नहीं सकता। हां, कभी-कभी जब व्यंग्यकार जागता है तो वह किसी की नहीं सुनता। पत्रकार को भी चुप करा देता है और अपनी कह कर ही दम लेता है। जहां तक अधिक सुनने की बात है तो पाण्डेय जी के ेलिए दोनों एक दूसरे के पूरक बन गए हैं, इसलिए वक्त-वक्त पर दोनों की सुननी पडती है।

१६. एक आखिरी सवाल-व्यंग्य लिखा किस पर जाए?

-हुंह, लगता है कि तुम भी व्यंग्यकार बनने के चक्कर में हो। जो दिखता हो, और कोई साहित्यकार उस पर कुछ बोलने को तैयार न हो तो एक व्यंग्यकार बोल सकता है यानि लिख सकता है।

 

आयोजन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय, संपादक ई- अभिव्यक्ति (हिन्दी)  

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 58 ☆ एकला चलो रे… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय रचना “एकला चलो रे… ”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 58 – एकला चलो रे… ☆

छोटे – छोटे घाव भी नासूर बनकर पीड़ा पहुँचाते हैं। माना परिवर्तन प्रकृति का नियम है, परंतु अक्सर ऐसा क्यों होता है कि जब कोई व्यक्ति सफलता के चरम पर हो तभी उसे किसी न किसी कारण अपदस्थ होना ही पड़ता है। हम सभी एक लीक पर चलने के आदी होते हैं इसलिए आसानी से कोई भी बदलाव नहीं चाहते हैं। बस एक ही ढर्रे पर बने रहना हमारी नियति बन चुकी है। शायद इसी को मोटिवेशनल स्पीकर कंफर्ट जोन कहकर परिभाषित करते चले आ रहे हैं। बदलाव हमेशा बुरा नहीं होता है वैसे भी एक ही रंग देखकर मन परेशान हो उठता है, कुछ न कुछ नया होते ही रहना चाहिए तभी रोचकता बनी रहती है।

देश विदेशों सभी जगह बदलाव की ही बयार चल रही है। दरसल ये तो एक बहाना है, कुछ अपने लोगों को ही हटाना है। अब जो सच्चे सेवक हैं, उन्हें किस विधि से पदच्युत किया जावे सो बदलूराम जी ने एक नया ही राग अलापना शुरू कर दिया। चारो ओर गहमा – गहमी का माहौल बन गया। सोए हुए लोग भी सक्रिय हो गए, कहीं कोई अपने पद को छोड़ने से डर रहा था तो कहीं कोई नए पद के लालच में पूरे मनोयोग से कार्यरत दिखने लगे थे। अब तो उच्च स्तरीय कमेटी भी सक्रिय होकर अपनी भूमिका सुनिश्चित करने लगी। जो जिस पद पर है वो उससे आगे की पदोन्नति चाहता है।  सीमित स्थान के साथ,  एक अनार सौ बीमार की कहावत सच होती हुई दिख रही थी। अपने – अपने कार्यों का पिटारा सब ने खोल लिया। पूरे सत्र में जितने कार्य नहीं हुए थे उससे ज्यादा की सूची बना कर प्रचारित की जाने लगी।

लोग भी भ्रम में थे क्या करें, पर चतुरलाल जी समझ रहे थे कि ये सब कुछ कैबिनेट को भंग करने की मुहिम है, जब प्रधान बदलेगा तो अपने आप पुरानी व्यवस्था ध्वस्त होकर सब कुछ नया होगा, जिसमें वो तो बच जायेगा परन्तु पुराने लोग रिटार्यड होकर  वानप्रस्थ के नियमों का पालन करते हुए,स्वयं सन्यास की राह पकड़ने हेतु बाध्य हो जायेंगे। खैर ये तो सदियों से होता चला आ रहा है। फूल कितना ही सुंदर क्यों न हो उसे एक दिन मुरझा कर झरना ही होता है।

जब बात फूलों की हो तो काँटों की उपस्थिति भी जरूरी हो जाती है। यही तो असली रक्षक होते हैं। कहा भी गया है, सफलता की राह में जब तक कंकड़ न चुभे तब तक मजा ही नहीं आता है। वैसे भी शरीर को स्वस्थ्य रखने हेतु एक्यूप्रेशर का प्रयोग किया ही जाता। लाइलाज रोगों को ठीक करने हेतु इन्हीं विधियों का सहारा लिया जाता रहा है। व्यवस्था को ठीक करने हेतु इन्हीं उपायों का प्रयोग शासकों द्वारा किया जाता रहा है। कदम – कदम पर चुनौतियों का सामना करते हुए उम्मीदवार उम्मीद का दामन थामें, एकला चलो रे का राग अलापते हुए चलते जा रहे हैं। वैसे भी एकल संस्कृति का चलन परिवारों के साथ – साथ लोकतांत्रिक व्यवस्था पर भी नज़र आने लगा है। जब भी जोड़ -तोड़ की सरकार बनती है, तो छोटे – छोटे दलों की पूछ – परख बढ़ जाती है, क्योंकि उन्हें अपने में समाहित करना आसान होता है।

खैर परिणाम चाहें जो भी निष्ठा व आस्था के साथ सुखद जीवन हेतु हर संभव प्रयास सबके द्वारा होते रहने चाहिए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 89 ☆ व्यंग्य – मेरे ग़मगुसार ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज  प्रस्तुत है आपका एक  बेहद मजेदार व्यंग्य  ‘मेरे ग़मगुसार‘। इस अतिसुन्दर व्यंग्य रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 89 ☆

☆ व्यंग्य – मेरे ग़मगुसार

एक दिन ऐसा हुआ कि अचानक मेरी पत्नी का पाँव टूट गया। आजकल हाथ-पाँव टूटने का इलाज इतना मँहगा हो गया है कि दुख बाद में होता है, पहले खर्च की चिन्ता में दिमाग़ सुन्न हो जाता है। गिरने वाले पर सहानुभूति की जगह गुस्सा आता है कि इसने कहाँ से मुसीबत में डाल दिया। हमदर्दी के दो बोल बोलने के बजाय पतिदेव मुँह टेढ़ा करके पूछने लगते हैं, ‘पाँव संभाल कर नहीं रख सकती थीं?’ या ‘सीढ़ियों से उतरते में देख कर पाँव नहीं रख सकती थीं?’

कहने की ज़रूरत नहीं कि पत्नी की टाँग टूटने से मेरी कमर टूट गयी। करीब दो हज़ार की चोट लगी। पत्नी प्लास्टर चढ़वा कर आराम करने और सेवा कराने की स्थिति में आ गयीं। (नोट- पति से सेवा कराने पर पत्नी नर्क की अधिकारी बनती है। )

प्लास्टर वगैर से फुरसत पाकर उन सुखों का इंतज़ार करने लगा जो इस तरह की दुर्घटना के फलस्वरूप मिलते हैं, यानी पड़ोसियों और मुहल्लेवालों की सहानुभूति बटोरना। पत्नी से पूछ लिया कि सहानुभूति दिखाने के लिए आने वालों की ख़ातिर के लिए घर में पर्याप्त चाय-चीनी है या नहीं।

मुहल्ले के मल्होत्रा साहब के आने की तो उम्मीद नहीं थी क्योंकि पिछले साल जब उनकी पत्नी स्कूटर से लुढ़क कर ज़ख्मी हो गयी थीं, तब मैं उन्हें सहानुभूति दिखाने से चूक गया था। शहर में रिश्ते ऐसे ही काँटे की तौल पर होते हैं।

वर्मा जी के आने का सवाल इसलिए नहीं उठता था क्योंकि दो महीने पहले मैने उन्हें आधी रात को सक्सेना साहब के ईंटों के चट्टे से ईंटें चुराते हुए देखकर सक्सेना साहब को आवश्यक सूचना दे दी थी। तब से वे मुझसे बेहद ख़फ़ा थे।

बाकी लोगों के आने की उम्मीद थी और मैं उसी उम्मीद को लिये दरवाज़े की तरफ ताकता रहता था। कुछ रिश्तेदार आ चुके थे और श्रीमतीजी उन्हें अपना प्लास्टर इस तरह दिखा चुकी थीं जैसे कोई नयी साड़ी खरीद कर लायी हों।

जिस दिन प्लास्टर चढ़ा उस दिन शाम को बैरागी जी सपत्नीक आये। थोड़ा-बहुत दुख प्रकट करने के बाद वे आधा घंटा तक अपनी टाँग के बारे में बताते रहे जो पन्द्रह साल पहले टूटी थी। इस धूल-धूसरित इतिहास में भला मेरी क्या दिलचस्पी हो सकती थी, लेकिन वे अपनी पैंट ऊपर खिसकाकर मुझे मौका-मुआयना कराते रहे और मैं झूठी दिलचस्पी दिखाते हुए सिर हिलाता रहा।

जैसे ही उन्होंने थोड़ा दम लिया, मैंने पत्नी की टाँग को फिर फोकस में लाने की कोशिश की। लेकिन अफसोस, अब तक बैरागी जी टूटी टाँगों से ऊपर उठकर हमारे टीवी की तरफ मुखातिब हो गये थे, जिस पर ‘भाभीजी घर पर हैं’ सीरियल शुरू हो गया था। वे अपनी पत्नी से बोले, ‘अब यह प्रोग्राम देख कर ही चलेंगे। अभी चलने से मिस हो जाएगा। ’मैं खून के घूँट पीता शिष्टाचार दिखाता रहा। लगता था वे सहानुभूति दिखाने नहीं, सिर्फ चाय पीने, अपनी टाँग का पुराना किस्सा सुनाने और टीवी देखने आये थे। उनके जाने के बाद मैं बड़ी देर तक दाँत पीसता रहा।

पत्नी की टाँग तो टूटी ही थी, बैरागी जी ने मेरा दिल तोड़ दिया था। अब उम्मीद दूसरे पड़ोसियों से थी।

दूसरे दिन लल्लू भाई भाभी के साथ आये। उन्होंने पूरे विधि-विधान से सहानुभूति दिखायी। पत्नी का प्लास्टर इस तरह आँखें फाड़कर देखा जैसे ज़िन्दगी में पहली बार प्लास्टर देखा हो। पन्द्रह मिनट में पन्द्रह बार ‘बहुत अफसोस हुआ’ कहा। मेरा दिल खुश हुआ। लल्लू भाई ने सहानुभूति की रस्म पूरी करने के बाद ही चाय का प्याला ओठों से लगाया।

सहानुभूति के बाद लल्लू भाई चलने को हुए और हरे सिग्नल की तरह मैंने उनके सामने  सौंफ-सुपारी पेश कर दी। तभी टीवी पर ‘जीजाजी छत पर हैं’ सीरियल शुरू हो गया और लल्लू भाई दुनिया भूल कर उस तरफ मुड़ गये। उस दिन का एपिसोड भी ख़ासा दिलचस्प था। लल्लू भाई थोड़ी ही देर में ताली मार मार कर इस तरह हँस रहे थे जैसे अपने ही घर में बैठे हों। साफ था कि उन्होंने फिलहाल जाने का इरादा छोड़ दिया था।

थोड़ी देर में चोपड़ा जी सपत्नीक आ गये। आते ही उन्होंने ‘अफसोस हुआ’ वाला जुमला बोला। मैं आश्वस्त हुआ कि फिर मिजाज़पुर्सी का वातावरण बनेगा। चोपड़ा जी दुखी मुँह बनाये लल्लू भाई की बगल में बैठ गये। लेकिन दो मिनट बाद ही उनका मुखौटा गिर गया और वे भी लल्लू भाई की तरह ताली पीट पीट कर ठहाके लगाने लगे। मेरा दिल ख़ासा दुखी हो गया। एक तरफ मैं सहानुभूति की उम्मीद में उन्हें चाय पिला रहा था, दूसरी तरफ वे हँस हँस कर लोट-पोट हो रहे थे।

कार्यक्रम ख़त्म होने और लल्लू भाई के जाने के बाद चोपड़ा जी ने अपने मुँह को खींच-खाँच कर थोड़ा मातमी बनाया और हमदर्दी की बाकी रस्म पूरी की।

मैं समझ गया कि टीवी के रहते मेरे घर में हमदर्दी का सही वातावरण नहीं बनेगा। दूसरे दिन मैंने टीवी को दूसरे कमरे में रखवा दिया। सोचा, अब एकदम ठोस हमदर्दी का वातावरण रहेगा।

अगली शाम मेरे मुहल्ले के ठाकुर साहब सपत्नीक पधारे। मैंने सोच लिया कि अब हमदर्दी के सिवाय कुछ और नहीं होगा। ठाकुर साहब ने भी बाकायदा हमदर्दी की रस्में पूरी कीं। लेकिन चाय पीते वक्त लगा जैसे उनकी आँखें कुछ ढूँढ़ रही हों।

दो चार बार खाँसने के बाद उन्होंने पूछा, ‘आपका टीवी कहाँ गया?’

मैं तुरन्त सावधान हुआ, कहा, ‘खराब हो गया।’

उनके चेहरे पर अब असली दुख आ गया। बोले, ‘यह आपने बुरी खबर सुनायी। मेरा टीवी भी खराब है। अभी आठ बजे ‘मुगलेआज़म’ फिल्म आनी है। सोचा था आपको हमदर्दी दे देंगे और फिल्म भी देख लेंगे। यह तो बहुत गड़बड़ हो गया।’ सुनकर मुझे लगा वे मुझसे ज़्यादा हमदर्दी के काबिल हैं।

वे अपनी पत्नी से बोले, ‘जल्दी चलो, तिवारी जी के यहाँ चलते हैं।’ फिर वे हड़बड़ी में विदा लेकर चलते बने।

अगले दिन मुहल्ले की महिलाओं का जत्था आ गया। फिर उम्मीद बँधी। उन्होंने पत्नी का प्लास्टर देखकर खूब हल्लागुल्ला मचाया। मुझे भी अच्छा लगा। लेकिन इसके बाद वे सब ड्राइंगरूम में बैठ गयीं और चाय पीते हुए ऐसे बातें करने लगीं जैसे पिकनिक पर आयी हों। अब वे मेरी पत्नी की टाँग भूलकर चीख चीख कर यह बतला रही थीं कि किस सीरियल का हीरो बड़ा ‘क्यूट’ है और कौन सी हीरोइन पूरी बेशरम है। मुझे डर लगने लगा कि इन अहम मुद्दों पर यहाँ मारपीट हो जाएगी। मेरा जी फिर खिन्न हो गया।

घंटे भर तक मेरा घर सिर पर उठाने के बाद पत्नी को ‘बाय’ और ‘सी यू’ बोल कर वे विदा हुईं।

इन दुर्घटनाओं के बाद मेरा पड़ोसियों पर से भरोसा उठ गया है। असली हमदर्दी की उम्मीद जाती रही है और पत्नी की टाँग पर हुआ खर्च मुझे बुरी तरह साल रहा है।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 57 ☆ जनता जनार्दन… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक समसामयिक विषय पर विचारणीय रचना “जनता जनार्दन…”। इस सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 57 – जनता जनार्दन…

एक हाथ से लेना दूसरे हाथ से देना , ये तो अनादिकाल से चला आ रहा। आप यदि किसी को कुछ नहीं देते हैं तो भी वो अपनी योग्यता अनुरूप हासिल कर ही लेगा, तो क्यों न बहती गंगा में हाथ धोने के साथ -साथ स्नान भी कर लिया जाए। वो कहते हैं न मन चंगा तो कठौती में गंगा। ये गंगा भी श्रीहरि के चरणों से निकलकर, ब्रह्मा जी के कमण्डल तक जा पहुँचीं , फिर वहाँ से निकलकर भोले नाथ की जटा  में समा गयीं। अब भगीरथ को तो अपना कुल तारने के लिए गंगा जल की ही आवश्यकता थी। सो शिव की जटाओं से निकलकर भगीरथ के पीछे- पीछे वे गंगोत्री तक जा पहुँची और अलकनंदा से बहते हुए हरिद्वार, प्रयागराज , काशी से पटना (बिहार), झारखंड,,पश्चिम बंगाल होती हुई हिंद महासागर में समाहित हो गयीं।

ये सब कुछ केवल नदियों के साथ होता है , ऐसा नहीं है , हम सभी इसी तरह अपने को गतिमान बनाए हुए ,ये बात अलग है कि हमारा कर्म क्षेत्र सीमित है , हम स्वयं को तारने में ही सारा जीवन लगा देते हैं। कहते यही हैं कि तेरा तुझको अर्पण पर राम कहानी कुछ और ही होती है। आजकल तो जिस दल की हवा चल पड़ी समझो सारे लोग उसी में जाकर समाहित होने का ढोंग करने लगते हैं। ये हवा प्रायोजित होती है ,इसके मार्ग का चयन आयोजक करते हैं और प्रायोजकों को ढेर सारे धन के साथ पद लाभ भी देने का वादा करते हैं। फिल्मी तर्ज पर इसमें प्रोड्यूसर व कहानी लेखक का भी महत्वपूर्ण रोल होता है। मजे की बात तो ये की दोनों में जनता ही जनार्दन होती है। चाहे बॉक्स ऑफिस में सौ करोड़ की कमाई का आँकलन हो या  पोलिंग बूथ पर मतदाताओं की भीड़। सभी किसी न किसी के भाग्य लिखने का माद्दा रखते हैं।

मिशन 2021 से लेकर 2024 तक चारों ओर अपना ही डंका बजता रहना चाहिए तभी तो आगे की राह सरल होगी। वैसे बाधा आने पर सुंदर से प्रपात भी बनाए जा सकते हैं। कृत्रिम झीलों का निर्माण तो बाँध बनाने के दौरान हो ही जाता है। कितनी साम्यता है प्रकृति के कण – कण में सजीव, निर्जीव , जीव -जंतु, पशुपक्षी व मानव सभी इसी राह के अनुयायी बन ,अनवरत कर्मरत हैं।

छाया सक्सेना प्रभु

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 18 ☆ व्यंग्य ☆ बौने कृतज्ञ हैं, बौने व्यस्त हैं ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक  व्यंग्य  “बौने कृतज्ञ हैं, बौने व्यस्त हैं । इस साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक हैं ।यदि किसी व्यक्ति या घटना से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि  प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल # 18 ☆

☆ व्यंग्य – बौने कृतज्ञ हैं, बौने व्यस्त हैं ☆

वो हमारे घर आया करती थी, सिर पर टोकरा रखे, किसम किसम के बर्तनों से सजा टोकरा लिये. माँ उससे बर्तन ले लेती और बदले में पुराने कपड़े दे देती. फिर वो एक दूसरे अवतार में बदल गई, उसकी भूमिका भी बदल गई, उसका बेस भी बदल गया, उसके काम की व्याप्ति प्रदेश और देश के स्तर पर हो चली. मगर उसका मूल काम वही का वही रहा, अब उसके टोकरे में मिक्सर, कलर टीवी, स्कूटी, लैपटॉप, मंगलसूत्र, स्मार्ट फोन, फ्री वाईफ़ाई और साईकिल जैसी चीज़ें होती हैं, बदले में आपको उसके कहने पर महज़ एक वोट देना होता है. तस्दीक करना चाहते हैं आप? ध्यान से देखिये माई के टोकरे को, टोकरा इक्कीस-बाईस के बजट का. पूरे सवा दो लाख करोड़ रुपये का ऐलान चस्पा कर दिया गया है तमिलनाडु, केरल, बंगाल, असम के लिये. गिव, गेव, गिवन. उन्होने दे दिया है फिलवक्त रिस्पॉन्ड इन चारों राज्यों के वोटरों को करना है. ज्यादा कुछ नहीं, बैलट मशीन में उनकी छाप का बटन दबाकर आना है, बस हो गया, थैंक-यू. दर्जनों परियोजनाओं का शुभारंभ, भूमिपूजन या लोकार्पण उस राज्य में जहां चुनाव का तम्बू गड़ चुका. घबराईये नहीं आपके राज्य को भी मिलेगा, दो हजार चौबीस आने तो दीजिये. पुरानी पेंट सा कीमती वोट संभालकर रखियेगा अभी हम जरा दूसरे राज्यों में फेरी लगाकर आते हैं.

बर्तनों के उनके टोकरों ने अब तो स्टॉल का आकार ले लिया है, जनतंत्र के मेले में ‘फ्री-बीज़’ के स्टॉल्स, छांटो-बीनों हर माल एक वोट में. क्या करियेगा पुरानी पेंटों का – कम से कम एक पतीली ही ले लीजिये कि धरा रह जाएगा आपका वोट अठ्ठाईस तारीख की शाम पाँच बजे के बाद – हमें ही दे दीजिये, हम आपको साथ में एक बोतल भी दे रहे हैं. बाद में पेंट-कमीज़-वोट का क्या आचार डालियेगा. जब तक जनतंत्र है वोट की मंडी लगी पड़ी है. रंगीन टीवी, लैपटॉप और स्मार्ट-फोन – एक वोट में तीन आईटम फ्री बाबूजी. प्रोमो-कोड ‘VOTE’ डालिये और पाईये अपनी जात-बिरादारी के आदमी को मंत्री बनवाने का सुनहरा मौका. हमारी पार्टी को रेफर करिये और पाईये कैश-बैक सीधे खाते में. अभी मौका है, फिर पाँच साल तक न टोकरा रहेगा, न बर्तन, न पुरानी पेंटों पर एक्सचेंज की सुविधा.

जनतंत्र के मेले में दरियादिली की चकाचौंध इस कदर मची है कि दाताओं के मन का अंधियारा भांप नहीं पाते आप. इसका मतलब यह भी नहीं कि अंधेरा पसरा नहीं है. कृत्रिम उजास है, चुनाव की बेला में ‘गुडी-गुडी’ का एहसास कराता हुआ. अधिसूचना के जारी होते ही पाँच साल का स्याह समां गुलाबी हो उठता है, वोटिंग की शाम से पाँच साल के लिये काला हो जाने की नियति लिये. सारी चकाचौंध बस मशीन का खटका दबाने की घड़ी तक ही है, फिर तो अंधियारा ही अंधियारा है. अंधियारा बेरोजगारी का, महंगाई का, मुफ़लिसी का, बेबसी का. स्मार्ट फोन एक नहीं दो ले लीजिये – रोजगार नहीं दे पायेंगे.

सुपर-रिच घरों के कपड़ों में निकलते हैं बिग-टिकट इलेक्टोरल बॉन्ड, टोकरों में धरे महंगे सरोकार उन्ही के लिये हैं. टुच्चे प्रतिफल हैं आपके लिये – सस्ते घिसे पुराने कपड़ों के बद्दल. पुराने कपड़ों के ढ़ेर से बने चढ़ाव बौने नायकों को उंचे ओहदों तक पहुँचा सकते हैं. पहुँचा क्या सकते हैं कहिये कि पहुँचा दिये हैं, आसन जमा लिया है उन्होने वहाँ. वे वहाँ बने रहें इसी में उस एक प्रतिशत का फायदा है जो काबिज हैं मुल्क की सत्तर प्रतिशत संपदा पर. बौने जब पुरानी कमीज़-पेंट ले जाते हैं तब वे चुपके से जनतंत्र पर से आपका भरोसा भी ले जाते हैं और आपको पता भी नहीं चल पाता. बौने कृतज्ञ हैं – बर्तनवाली माई ने राह जो दिखाई है. ध्यान से देखिये – फिलवक्त, बौने इसी लेन-देन में व्यस्त हैं.

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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