हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 25 – लॉगिन और लॉगाऊट ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना लॉगिन और लॉगाऊट )  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 25 – लॉगिन और लॉगाऊट ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

रामस्वरूप के आंगन में पहले हमेशा चहल-पहल हुआ करती थी, लेकिन अब वह दौर भी बीत चुका था। 70 साल का रामस्वरूप, जो कभी बुद्धिजीवी कहलाता था, अब आंगन में चौकी पर बैठकर आसमान निहार रहा था। उसके पास उसका 25 साल का पोता गोपाल मोबाइल में आंखें गड़ाए बैठा था, उसकी उंगलियां तेजी से स्क्रीन पर चल रही थीं, मानो उंगलियों में ही पूरी दुनिया समा गई हो। इस बीच श्यामलाल, रामस्वरूप का पुराना दोस्त, कुर्सी खींचकर बगल में बैठ गया। दोनों दोस्त एक ही जमाने के थे, साथ-साथ जवानी बिताई और अब साथ-साथ बुढ़ापे का बोझ ढो रहे थे।

रामस्वरूप ने गहरी सांस लेते हुए कहा, “अरे भाई, ये दुनिया कहां जा रही है? हमारे जमाने में आदमी काम करता था, अब तो मोबाइल सब काम कर रहा है। इंसान खत्म हो रहा है, सब कुछ डिजिटल हो गया है।” श्यामलाल हंस पड़ा और मजाकिया लहजे में बोला, “अरे यार! अब सब कुछ ‘वायरलेस’ हो गया है। अब आदमी के पास ताकत नहीं, डेटा पैक की मोल-तोल है। जितना बड़ा डेटा पैक, उतनी बड़ी जिंदगी।” रामस्वरूप उसकी बातों को गंभीरता से सुन रहा था और पास बैठे गोपाल ने मोबाइल से नजरें उठाकर बोला, “दादा, आप लोग पुराने जमाने की बातें करते हो। अब सब डिजिटल हो गया है, असली जिंदगी तो ऑनलाइन चलती है।”

रामस्वरूप ने हल्की हंसी दबाते हुए कहा, “हां, अब आदमी का दिल नहीं, ‘वाइ-फाइ’ धड़कता है। पहले लोग मिलते थे, अब ‘ब्लूटूथ’ से जुड़ते हैं।” गोपाल ने सिर हिलाया, जैसे वह इन बातों को सुनकर बोर हो गया हो। तभी मालती, जो अंदर से बर्तन उठा रही थी, बातों में शामिल हो गई। उसने कहा, “रामस्वरूप, लड़के की बात समझो। अब जमाना बदल गया है। अब सब कुछ ‘इंस्टेंट’ हो गया है। पहले चिट्ठियां लिखी जाती थीं, अब ‘वॉट्सऐप’ पर बात होती है। उंगली हिलाओ, और काम हो जाता है।”

श्यामलाल ने ठहाका मारते हुए कहा, “बिल्कुल सही! अब दिल नहीं टूटते, नेटवर्क टूटते हैं। प्यार ‘डेटा पैक’ पर चलता है और रिश्ते ‘वायरलेस’ हो गए हैं।” रामस्वरूप ने सिर हिलाया और गहरी सांस लेते हुए कहा, “पहले प्यार इंतजार करता था, अब ‘ब्लॉक’ करता है। पहले लोग असलियत में मिलते थे, अब चाय पर बातें नहीं, ‘फ्री डेटा’ पर जिंदगी कटती है। आदमी के पास प्यार के लिए वक्त नहीं है, पर ‘नेटफ्लिक्स’ के लिए जरूर है।”

गोपाल ने फिर से मोबाइल से नजर हटाकर जवाब दिया, “दादा, अब लोग ‘ऑफलाइन’ ही नहीं होते। अब ‘ऑफलाइन’ होने का मतलब है कि आप दुनिया से गायब हो गए।” रामस्वरूप ने मुस्कुराते हुए कहा, “हां, अब आदमी ‘ऑफलाइन’ होते ही जंगल में खो जाता है। पहले जंगल थे, अब डिजिटल जाल है, जिसमें आदमी फंसता है।” श्यामलाल ने फिर से मजाक में कहा, “सच में, अब आदमी की जिंदगी ‘लॉगइन’ और ‘लॉगआउट’ के बीच ही रह गई है।”

रामस्वरूप ने गोपाल की तरफ देखा, जो एक बार फिर मोबाइल में डूब चुका था। उसने गोपाल से मोबाइल छीनते हुए कहा, “सुन बेटा, तुम लोग डिजिटल हो गए हो, लेकिन याद रखना, जब ये डिजिटल दुनिया टूटेगी, तब असली जिंदगी का एहसास होगा। उस दिन न डेटा पैक काम आएगा, न ‘लाइक’। असली खुशी तब होगी, जब तुम असलियत में किसी को छू सकोगे, महसूस कर सकोगे।” श्यामलाल ने रामस्वरूप की बात का समर्थन करते हुए कहा, “बिल्कुल यार, अब आदमी की खुशी ‘फिल्टर’ और ‘स्पैम’ के बीच कहीं खो गई है। जिंदगी एक ‘स्क्रीनशॉट’ बनकर रह गई है, जिसे कोई देखता भी नहीं।”

रामस्वरूप और श्यामलाल हंसते रहे, जबकि गोपाल फिर से मोबाइल में खो गया। मालती चाय लेकर आई, लेकिन किसी को उसे पीने की फुर्सत नहीं थी।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 260 ☆ व्यंग्य – जीवन और भोजन ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम विचारणीय व्यंग्य – ‘जीवन और भोजन। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 260 ☆

☆ व्यंग्य ☆ जीवन और भोजन ☆    

भोजन सभी जीवो के लिए ज़रूरी है। वन्य पशुओं में भोजन के लिए दिन रात मारकाट चलती है। चौबीस घंटे जीवन संकट में रहता है। मनुष्य  भी भोजन से पोषक तत्व और ऊर्जा प्राप्त करता है। समझदार कहते हैं कि बिना भोजन के आदमी का जीवन 35-40 दिन से आगे चलना मुश्किल है।

शुरू में आदमी गुफावासी था और भोजन के लिए उसे बाहर निकल कर पशुओं का शिकार करना पड़ता था। लेकिन वह अक्सर खुद भेड़ियों का शिकार हो जाता था, जो उस पर हमला करके तुरन्त उसका पेट फाड़ देते थे। यानी भोजन की तलाश में प्राण ही दांव पर लग जाते थे। महापंडित राहुल सांकृत्यायन की पुस्तक ‘वोल्गा से गंगा’ में इन स्थितियों का विशद वर्णन मिलता है।

आग का अविष्कार हुआ तो आदमी की ज़िन्दगी कुछ आसान हुई। हिंस्र पशुओं को आग से डरा कर दूर रखा जा सका और भोजन को पका कर कोमल और सुरक्षित बनाया जा सका। दांतों को कसरत और नुकसान से राहत मिली। इसके बाद धातुओं के अविष्कार से भोजन को काटना- छांटना सरल हुआ। कृषि और पशुपालन के साथ आदमी के जीवन में स्थिरता आयी और ख़ानाबदोशी में विराम लगा।

सामन्तों और राजाओं के उदय के साथ प्राकृतिक शक्तियों और देवताओं को प्रसन्न करने के इरादे से यज्ञ शुरू हुए और इसके साथ पुरोहितों की भूमिका महत्वपूर्ण  हुई। पुण्य कमाने के लिए ब्राह्मणों और अन्य नगरवासियों के भोज की व्यवस्था शुरू हुई। आनन्द और शोक के अवसर पर भोज देने के लिए नियम बने। हाल तक बड़े लोगों के शादी-ब्याह में पूरे गांव की पंगत होती थी। सड़क के किनारे ही आसन और पत्तल बिछ जाते थे। पानी के लिए लोग अपना-अपना लोटा या गिलास लेकर आते। रसूखदार लोगों के साथ उनके सेवक लोटा-गिलास लेकर चलते थे। जिन बिगड़े रईसों के पास सेवक नहीं होते थे वे किसी साधारण आदमी को उनका लोटा-गिलास लेकर चलने के लिए राज़ी करके अपनी इज़्ज़त बचाते थे।

धर्म के अनुसार तेरहीं पर भोज देना भी अनिवार्य था, अत: कई बार मृतक की तेरहीं के साथ जीवितों की भी तेरहीं हो जाती थी। आदमी अब इन कर्मकांडों से मुक्ति के लिए छटपटाता है, लेकिन समाज का दबाव और अदृश्य का भय उसे मुक्ति से दूर रखता है।

धर्म और जाति आये तो ‘रोटी-बेटी’ का परहेज़ भी आया। जिन्हें नीची जाति कहा जाता है उनकी उप-जातियों में भी रोटी-बेटी के संबंध में अड़चन आती है। विडंबना यह है कि मुफ्त में मिली श्रेष्ठता पर लोग गर्व करते हैं। अंतर्जातीय और अंतरधार्मिक विवाहों के कारण ये परहेज़ टूट रहे हैं, लेकिन उन्हें पोसने और पुष्ट करने वाली शक्तियां भी पूरी तरह सक्रिय हैं।

जल्दी ही आदमी की समझ में आ गया कि भोजन महज़ पेट भरने की चीज़ नहीं है। उससे पुण्य प्राप्ति के अतिरिक्त बहुत से काम साधे जा सकते हैं। अब संबंध बनाने और बढ़ाने के लिए भोजन का उपयोग किया जाने लगा। लोगों को भरोसा है कि जो नमक खाएगा वह नमक का ऋण ज़रूर चुकाएगा। राणा प्रताप के राजा मानसिंह से संबंध इसलिए दरक गये थे क्योंकि उन्होंने मानसिंह के साथ भोजन पर बैठने से इनकार कर दिया था।

भोजन का उपयोग रोब-दाब के लिए भी होता है। पैसे वाले ब्याह-शादी में भोजन में इतनी विविधता रखते हैं कि आमंत्रितों की आंखें चौंधया जाती हैं । व्यंजनों के दर्शन करते ही मन अघा जाता है।

राजनीतिक पार्टियों ने भी राजनीति के लिए भोजन का महत्व समझ लिया है। इसीलिए 80 करोड़ लोगों को प्रति माह 5 किलो अनाज मुफ्त प्राप्त हो रहा है। कई राज्यों में सस्ते भोजनालय खोले जा रहे हैं।

एक नयी प्रवृत्ति यह पैदा हुई है कि बड़े-बड़े नेता गरीबों के घर में बैठकर भोजन करने लगे हैं। इस बहाने गरीब के घर की सफाई और रंगाई- पुताई हो जाती है। कई बार भोजन होटलों से मंगवा लिया जाता है, गरीब के घर में सिर्फ बैठकर फोटो खिंचाने का काम होता है। जनता अपने नेताओं के इस ढोंग को देखकर अपना भाग्य सराहती है।

कवि ‘धूमिल’ की प्रसिद्ध कविता के अनुसार रोटी बेलने वालों और रोटी खाने वालों के बरक्स एक और वर्ग है जो रोटी से खेलता है। यह तीसरा वर्ग कौन है, इस प्रश्न का जवाब संसद से भी नहीं मिलता।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 24 – हैदराबादी कुर्सी ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना हैदराबादी कुर्सी।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 24 – हैदराबादी कुर्सी ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

अरे भाई, अपने शहर हैदराबाद की बात ही निराली है। यहाँ की गली-गली में जो बयार बहती है, वो क्या कहें! अब देखिए, दिल्ली में कभी कोई तैमूर, तो कभी चंगेज खाँ आए, वहाँ से लेकर यहां तक बड़े-बड़े लोग आए, लूट कर चले गए। सोने-चाँदी, हीरे-जवाहरात सब उठा ले गए, लेकिन हमारे हैदराबाद का वो ‘सिंहासन’, मतलब यहाँ के कल्चर का कोई जवाब नहीं मिला उनको। वो सिंहासन जो कि रिवायत और इज़्ज़त का हिस्सा था, वो यहाँ की हवा में ही रचा-बसा है।

अब बात करें सिंहासन की, तो आजकल वो कुर्सी बन गया है। पहले राजा-महाराजा सिंहासन पर बैठते थे, और शेर की तरह दहाड़ते थे, अब ये कुर्सी वाले भी कम नहीं हैं। कुर्सी पर बैठते ही बंदा खुद को असली शेर समझने लगता है। कुर्सी का अंग्रेजी नाम ‘चेयर’ है, जो अंग्रेजों की देन है। वैसे, उन्होंने हमें रंगरेज बना दिया, हर चीज़ में अपने रंग भर दिए। अब ये ‘चेयर’ असल में ‘चीयर’ से निकला है, जो उनके दोस्त-चमचों ने कुर्सी पर बैठने वाले पहले हिन्दुस्तानी को चियर-चियर करके इतना चीयर किया कि वो चेयर हो गया।

अब भाई, हम भी एक रिसर्च करने लगे थे, टॉपिक था ‘सिंहासन से कुर्सी तक – एक नज़र’। इसके लिए हमने किसी प्रोफेसर को गाइड नहीं बनाया, सीधे हमारे शहर के एक मंत्री साहब को गाइड बना लिया। उनकी एक खासियत थी – जब तक मंत्री रहे, उनका मुँह हमेशा टेढ़ा रहता था। सीधे मुँह बात कभी की ही नहीं। मुँह से सीधे शब्द भी निकलते थे, तो टेढ़े हो जाते थे। जैसे ही कुर्सी छूट गई, मुँह एकदम सीधा हो गया। फिर सोचा कि भाई, गलती मंत्री जी की नहीं, बल्कि कुर्सी की है।

एक दिन हम मेगनीफाइंग ग्लास लेकर मंत्री जी की कुर्सी का मुआयना करने लगे। वहाँ हमें छोटे-छोटे खटमल जैसे जीव मिले, जो सिर्फ वीआईपी लोगों की कुर्सियों में पनपते हैं। ये जीव, मंत्री साहब के साथ उनके बंगले तक चले आते थे और वहाँ जाकर अपनी जनसंख्या बढ़ा लेते थे। ये जीव परिवार नियोजन के सख्त खिलाफ थे। जो भी इन कुर्सियों पर ज्यादा समय तक बैठता, उसका मुँह भी टेढ़ा हो जाता। वजह ये कि ये जीव कुर्सीधारी के खून में से जनसेवा, कर्तव्यपरायणता, ईमानदारी, और काम के प्रति निष्ठा के कीटाणु चूस लेते हैं, और बदले में अहंकार, चालाकी, और वाक् पटुता के कीटाणु भर देते हैं। कुछ ही दिनों में कुर्सीधारी में बदलाव दिखने लगता है, और उसे इन जीवों से कटवाने का ऐसा नशा हो जाता है कि बिना इनके काटे एक दिन भी गुज़ारना मुश्किल हो जाता है।

अब हमारे हैदराबाद में एक बड़े ही नेक जनसेवक हैं। सोते-जागते जनसेवा करना उनकी आदत है। कांधे पर झोला लटकाए, और झोले में हर किस्म की चीजें ठूंसे हुए, बिना किसी स्वार्थ के लोगों की मदद करते हैं। उनकी निःस्वार्थ सेवा को देखते हुए शहर के कुछ बड़े लोग सोचने लगे कि इन्हें विधानसभा में होना चाहिए ताकि ये और अच्छी तरह से सेवा कर सकें। सो 67 में उन्हें जबरदस्ती एमएलए बना दिया गया। कुछ दिन कुर्सी पर बैठने के बाद ये जनसेवक भी कुर्सी के जीवों के असर में आ गए। अब हाल ये है कि कुर्सी के बिना उनका नशा पूरा ही नहीं होता। एक साथ तीन-तीन कुर्सियों पर बैठे रहते हैं, और हमेशा ऐसी कुर्सी की तलाश में रहते हैं जिसमें ज्यादा जीव बसते हों। सुना है कि एक खास मंत्रालय की कुर्सी में ये जीव भर-भर के होते हैं, तो अब जनाब उसी कुर्सी के पीछे पागलों की तरह दौड़ते फिर रहे हैं।

इससे सेठ लोग बहुत समझदार होते हैं। उन्हें पता है कि कुर्सी का नशा नुकसानदेह होता है। इसलिए उनकी दुकानों में कुर्सियों की जगह तख्त होते हैं, और उन पर मोटे गद्दे और तकिए रखते हैं। सेठ हमेशा सीधे मुँह बातें करता है, दाँत निपोरे रहता है, और इतनी दीनता दिखाता है कि तोंद के नीचे उसका सिर ही नहीं दिखता।

तो भाई, हैदराबाद की कुर्सी का मिजाज ऐसा है कि उस पर बैठते ही आदमी को अपने अहम का पूरा एहसास हो जाता है। ये कुर्सी धर्म, जाति, सब में बराबर है। चाहे कोई भी धर्म मानने वाला हो, कुर्सी उसे अपनाने में एक पल भी नहीं लगाती। आखिर, कुर्सी के जोड़ों में जो जीव बसे हैं, वो जानते हैं कि खून तो हर धर्म का लाल ही होता है, और उन्हें हर धर्म के लोगों की ईमानदारी, निष्ठा, और जनसेवा का खून चाहिए, जिससे वे खुद को तंदुरुस्त रख सकें।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 259 ☆ व्यंग्य – मिट्ठू बाबू और तत्वज्ञान ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम विचारणीय व्यंग्य – ‘मिट्ठू बाबू और तत्वज्ञान। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 259 ☆

☆ व्यंग्य ☆ मिट्ठू बाबू और तत्वज्ञान

मिट्ठू बाबू रात को आठ बजे के बाद ‘एन. ए.’ यानी अनुपलब्ध हो जाते हैं। आठ बजे के बाद वे भोजन की ‘तैयारी’ में लग जाते हैं, अर्थात क्षुधा जागृत करने के लिए जो तरल पदार्थ वे नियम से लेते हैं, उसे लेकर इत्मीनान की मुद्रा में बैठ जाते हैं। पत्नी को स्थायी निर्देश प्राप्त है कि आठ बजे के बाद कोई अपरिचित आये तो कह दिया जाए कि वे नहीं हैं, और अगर कोई परिचित हो तो सीधे उनके कमरे में भेज दिया जाए। एक बार पेय पदार्थ सामने आ जाने के बाद आसन छोड़ने से रस भंग हो जाता है।

मिट्ठू बाबू मुझ पर कृपालु हैं। सीधे उनके कमरे तक पहुंचने का स्थायी परमिट मुझे प्राप्त है। मुझे देखकर वे प्रसन्न हो जाते हैं। उन्हें दुख बस यही रहता है कि मैं मदिरा-सेवन में उनका साथ नहीं देता। बस, बैठा बैठा मूंगफली के दाने या नमकीन टूंगता रहता हूं। उन्हें सुख यही रहता है कि मैं तन्मयता से उनकी बात सुनता रहता हूं। मदिरा- प्रेमी को उसकी बकवास सुनने के लिए कोई धैर्यवान श्रोता मिल जाए तो उसका मज़ा दुगुना हो जाता है।

मिट्ठू बाबू के सामने रखी अंग्रेजी शराब की बोतल को देखकर मैं कहता हूं , ‘मिट्ठू बाबू , यह तो बड़ी मंहगी होगी।’

मिट्ठू बाबू लापरवाही से जवाब देते हैं, ‘ज्यादा मंहगी नहीं है। दो सौ की है।’

मेरी आंखें कपार पर चढ़ जाती हैं। विस्मय से कहता हूं, ‘दो सौ रुपये ?’

मिट्ठू बाबू हंस कर जवाब देते हैं, ‘और नहीं तो क्या दो सौ पैसे? अरिस्टोक्रैट है।’

थोड़ी देर में नशे के असर में मिट्ठू बाबू नाना प्रकार का मुख बनाते हुए कहते हैं, ‘भाई देखो, कमाई जैसी हो वैसी खर्च करना चाहिए। दफ्तर में मैं किसी से कुछ मांगता नहीं। लोग अपने आप जेब में रकम खोंसते जाते हैं। शाम तक हजार दो हजार इकट्ठे हो ही जाते हैं। अब भैया, अपन मानते हैं कि इस तरह की कमाई ज्यादा दिन टिकती नहीं, इसलिए इसको तुरत फुरत खर्च करना चाहिए। बस मस्त रहो और मौज करो। दुनिया की ऐसी तैसी।’

मैं उनमें से हूं जिनकी ऐसी तैसी हो रही है, इसलिए श्रद्धा भाव से बैठा उनका भाषण सुनता रहता हूं।

मैं मिट्ठू बाबू से पूछता हूं, ‘मिट्ठू बाबू, यह एक बोतल आपको कितने दिन खटाती है?’

मिट्ठू बाबू झूमते हुए कहते हैं, ‘अकेले को दो दिन, और कोई यार मिल गया तो एक ही दिन में खलास।’

मैं भकुआ सा कहता हूं, ‘यानी सौ रुपये रोज?’

मिट्ठू बाबू मुंह पर चिड़चिड़ाहट का भाव लाकर कहते हैं, ‘यार, हिसाब किताब की बातें करके मजा खराब मत करो। जिन्दगी मौज- मस्ती के लिए है। मौज-मस्ती के बिना पैसा किस काम का? मैं पैसे को मिट्टी से ज्यादा नहीं समझता।’

उनका दर्शन मेरे काम का नहीं है क्योंकि अपने हाथ बिल्कुल साफ रहते हैं। पैसा नाम की जो मिट्टी है वह इतनी देर हाथ में रुकती ही नहीं कि हाथ गन्दा हो।

मिट्ठू बाबू गर्दन एक तरफ लटका कर, आंखें मींचे कहते हैं, ‘देखो भई, जिन्दगी चार दिन की है। साथ कुछ नहीं जाना। इसलिए पैसा जोड़कर क्या करना है? सकल पदारथ हैं जग माहीं। संसार की वस्तुओं का भोग करना चाहिए और बेफिक्र होकर रहना चाहिए।’

ऐसा तत्वज्ञान मैं कई बार इसी तरह के लोगों से प्राप्त कर चुका हूं जिनकी जेब में ऊपरी कमाई के दो चार हजार रुपये रोज अपने आप चले आते हैं। ऐसे लोग बड़े तत्वज्ञानी होते हैं क्योंकि वे सांसारिक चिन्ताओं से ऊपर उठ जाते हैं। उनके प्रवचन सुनने के लिए बच जाते हैं मुझ जैसे मूढ़ लोग जिनकी ऊपरी कमाई नहीं होती।

सामने रंगीन टीवी चालू रहता है। मैं कहता हूं, ‘मिट्ठू बाबू ,यह देखो, सीरिया में कैसी मार-काट मची है।’

मिट्ठू बाबू मुश्किल से अपनी आंखें खोलते हैं,  एक नज़र टीवी पर डालकर ठंडी सांस भरकर कहते हैं, ‘कैसा जीना और कैसा मरना। जीवन खुद माया है। दूसरों के लिए दुखी होने से कोई फायदा नहीं।’

मैं उन्हें चैन से बैठने नहीं देता। एक मिनट बाद ही कहता हूं, ‘यै बर्मा वाले आपस में ही एक दूसरे को मार रहे हैं।’

मिट्ठू बाबू फिर मुश्किल से आंखें खोल कर कहते हैं, ‘हानि लाभ जीवन मरन, जस अपजस बिधि हाथ।’

मुश्किल यह होती है कि मैं नशे में नहीं होता, इसलिए ज़मीन की बातें ही करता हूं। थोड़ी देर बाद फिर कहता हूं , ‘अपने देश की हालत कम खराब नहीं है, मिट्ठू बाबू। उड़ीसा में भुखमरी के मारे लोग अपने बच्चों को बेच रहे हैं।’

मिट्ठू बाबू का शान्त मुखड़ा विकृत हो जाता है। रिमोट उठा कर टीवी बन्द कर देते हैं, फिर कहते हैं, ‘भैया, लगता है तुम मेरा नशा उतारने की सोच कर आये हो। अपन टीवी मनोरंजन के लिए देखते हैं, रोने के लिए नहीं। दुनिया में किस-किस के लिए रोयें? बोर करके हमारी शाम खराब मत करो। इसीलिए कहता हूं कि थोड़ी सी ले लिया करो, इन आलतू-फालतू बातों की तरफ ध्यान ही नहीं जाएगा।’

मैं कहता हूं, ‘मिट्ठू बाबू ,लेने लगूंगा तो बीवी झाड़ू मार कर घर से निकाल देगी।’

मिट्ठू बाबू नशे में ‘ही ही’ हंसते हैं। कहते हैं, ‘तुम रहे भोंदू के भोंदू। जरा मेरा जलवा देखो।’

फिर रौब से चिल्लाते हैं, ‘कहां हो जी?’ 

उनकी पत्नी अवतरित होती हैं। मिट्ठू बाबू लटपटाती आवाज़ में डपटते हैं, ‘जरा आकर देख नहीं सकतीं क्या? ये घंटे भर से बैठे हैं। चाय नहीं भेज सकतीं?’

पत्नी दबे स्वर में ‘अभी लाती हूं ‘ कहकर विदा हो जाती हैं।

मिट्ठू बाबू ओंठ फैला कर कहते हैं, ‘देखा? मजाल है जो कोई चूं कर ले। घर में शेर की तरह रहना चाहिए।’

मैं मिट्ठू बाबू को उनकी मर्दानगी के लिए दाद देता हूं।

कुछ ऐसा हुआ कि दो-तीन महीने मिट्ठू बाबू से भेंट नहीं कर पाया। इस बीच सुना कि दफ्तर में उनकी शिकायतें हुईं जिसके फलस्वरूप उन्हें ऐसे सूखे विभाग में स्थानान्तरित कर दिया गया जहां उल्लुओं और चमगादड़ों का साम्राज्य है। पान भी अपनी गांठ से खाना पड़ता है। सुना कि मिट्ठू बाबू भारी कष्टों से गुज़र रहे हैं।

एक दिन उनके घर पहुंचा तो वे मातमी मुद्रा में सिर लटकाये बैठे थे। बोतल गायब थी। पहले मलूकदास की तत्वज्ञानी मुद्रा में पांव कुर्सी पर धरे बैठते थे। आज पांव ठोस ज़मीन पर थे और चेहरा विशुद्ध दुनियादार जैसा था।

मैंने पूछा, ‘क्या हाल है?’

उन्होंने मरी आवाज़ में उत्तर दिया, ‘हाल क्या बतायें! किसी ने झूठी शिकायत कर दी और मुझे पटक दिया सड़ियल विभाग में। मेरा तो दुनिया पर से भरोसा ही उठ गया।’

मैंने कहा, ‘फिकर मत करो, मिट्ठू बाबू। सब ठीक हो जाएगा। बोतल कहां गयी?’

मिट्ठू बाबू बोले, ‘अरे भैया, बोतल दो सौ की आती है। इतने पैसे कहां से लाएं? कभी ले भी आते हैं तो दाम याद आते ही आधा नशा उतर जाता है। बीवी अलग खाने को दौड़ती है। बोतल देखते ही चंडी बन जाती है।’

मैंने कहा, ‘क्या बात करते हो यार! तुम्हारा रौब-दाब कहां गया?’

मिट्ठू बाबू आह भर कर बोले, ‘ऊपरी आमदनी खत्म होते ही रौब-दाब की कमर टूट गयी। जो आदमी गिरस्ती न चला सके उसका रौब-दाब कैसा? जो देखो वही चार बातें सुना कर जाता है।’

फिर थोड़ा रुक कर बोले, ‘बाजार का यह हाल है कि गेहूं पच्चीस रुपये किलो बिक रहा है।’

मैंने कहा, ‘यह भाव तो कई साल से चल रहा है।’

वे बोले, ‘मुझे पता नहीं था। किराने वाले के यहां से आ जाता था, मैं भाव-ताव देखता ही नहीं था। बीवी को पैसे दे देता था। अब बहुत दिन बाद भाव-ताव देख रहा हूं तो तबीयत बहुत परेशान रहती है।’

मैं चलने को उठा तो वे बोले, ‘रुको। तुम्हारे साथ मन्दिर तक चलता हूं। आजकल नियम से मन्दिर जाता हूं। सोचता हूं अच्छे दिन नहीं रहे तो बुरे दिन भी नहीं रहेंगे।’

तभी भीतर से उनकी पत्नी निकलीं। तेज स्वर में बोलीं, ‘कहां जा रहे हो?’

मिट्ठू बाबू मिमिया कर बोले, ‘बस यहीं मन्दिर तक। अभी आता हूं।’

वे उसी स्वर में बोलीं, ‘कहीं इधर-उधर बोतल खोलकर मत बैठ जाना, नहीं तो हमसे बुरा कोई नहीं होगा।’

मिट्ठू बाबू कानों को हाथ लगाकर बोले, ‘अरे राम राम। कैसी बातें कर रही हो। बोतल के लिए पैसे किसके पास हैं? बस मैं अभी गया और अभी आया।’

पत्नी मुड़कर भीतर चली गयीं और वे चेहरे पर बड़ी बेचारगी का भाव लिये मेरे साथ बाहर आ गये।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 23 – चबूतरी का चक्कर ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना अगला फर्जी बाबा कौन)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 23 – चबूतरी का चक्कर ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

अरे भाई, किस्सा ऐसा है कि गाँव का चौधरी हमेशा अपनी चाल में बड़े गुमान से रहता था। उसका तो बस ये मानना था कि जो वो कहे, वही सही। एक दिन चौधरी अपने चौपाल पे बैठा था, गाल पे हाथ धरे, जब एकाएक गाँव में हड़कंप मच गया। खबर आई कि चौधरी ने जो नई बनाई थी बड़ी-बड़ी चबूतरी (गाँव की बैठकें), वो सब धड़ाम से गिर गई।

एक चेला दौड़ता-भागता चौधरी के पास पहुंचा। बोला, “चौधरी साब, आपने जो चबूतरी बनवाई थी, वो सब गिर गई।”

चौधरी की आँखें फैल गईं, “के कह सै रे?”

“हाँ चौधरी साब, बिलकुल सही कह रह्या हूँ, चबूतरी टूट कर जमीन पे बिखरी पड़ी हैं।”

चौधरी जो हमेशा दूसरों पे धौंस जमाने का आदी था, अब खुद पे आई तो उसकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। उसने चेला को घूरते हुए कहा, “के तू झूठ बोल रा सै? झूठी बात निकली तो तेरा बंटाधार हो जाएगा!”

चेला ने सिर झुकाए हुए कहा, “चौधरी साब, अगर मेरी बात झूठ निकली, तो मुझे आप गाँव के चौराहे पे उल्टा लटका देना।”

चौधरी एक पल के लिए सोच में पड़ गया। खुद भी तो ऐसे ही डायलॉग मारने का शौक रखता था। पर इस बार मामला सच्चा था। उसने फिर चेले से पूछा, “तू अपनी आँखों से देखी सै ये बात?”

चेला बोला, “हाँ जी चौधरी साब। कोई चबूतरी की दीवार ढह गई सै, किसी की छत नीचे आ गिरी सै, और एक तो पूरी की पूरी चबूतरी मिट्टी में मिल गई सै।”

चौधरी का मुँह सूख गया। उसने जल्दी से गाँव के ठेकेदार को बुलाया और चबूतरियों के गिरने की जांच के आदेश दे दिए।

ठेकेदार ने तुरंत एक कमेटी बना दी, जिसमें मिस्त्री से लेकर मजदूर तक सबको डाल दिया। मिस्त्री ने कहा, “किस बात का रोना कर रा सै भाई? चबूतरियां तो पक्की थी, बस मिट्टी थोड़ी कमजोर थी। चबूतरी फिर से बनवा देंगे, जब तक साँस है, तब तक चबूतरी बनेगी।”

आखिरकार, जांच की रिपोर्ट भी आ गई। जांच कमेटी ने माना कि चबूतरियां तो ठीक थी, पर जमीन ने धोखा दे दिया। असली कसूर तो जमीन का सै, चबूतरी बनाने वाले निर्दोष हैं। और जो पैसा लगाया गया था, वो तो बिल्कुल जायज था। कोई भ्रष्टाचार नहीं हुआ। और ये भी हो सकता सै कि विरोधी पार्टी ने ही जमीन को कमज़ोर कर दिया हो।

रिपोर्ट पढ़कर चौधरी मियां खुश हो गया, क्योंकि वो जानता था कि ऐसी ही रिपोर्ट आएगी। अगर भ्रष्टाचार का पता चलता, तो उसका नाम मिट्टी में मिल जाता।

अगले दिन चौधरी ने पूरे गाँव में ऐलान करवा दिया कि चबूतरियां गिरने का असली गुनहगार जमीन है। उसने जमीन को दुरुस्त करने के आदेश दिए और नए चबूतरी बनाने का काम शुरू करा दिया। अब ठेकेदार और मिस्त्री फिर से हाथों में नया काम देख कर खुश हो गए। नई चबूतरियों के लिए फिर से गाँव का खजाना खुल गया।

और भाई, चौधरी की चालें भले ही तिरछी हों, पर उसकी किस्मत हमेशा सीधी रही। इस खेल में सबकी चाँदी हो गई, बस गाँव वालों की मुश्किलें फिर वहीँ की वहीँ रह गईं।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 258 ☆ व्यंग्य – मनुष्यों में आहार-श्रृंखला ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम विचारणीय व्यंग्य – ‘मनुष्यों में आहार-श्रृंखला । इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 258 ☆

☆ व्यंग्य ☆ मनुष्यों में आहार-श्रृंखला 

आदमी अपनी उपलब्धियों की कितनी ही डींग मार ले, कभी न कभी उसे प्रकृति की अद्भुत व्यवस्था के सामने नतमस्तक होना पड़ता है। प्रकृति की ऐसी ही एक व्यवस्था ‘फूड-चेन’ यानी आहार-श्रृंखला है जिसके अनुसार पोषक-तत्व और ऊर्जा एक जीव से दूसरे जीव में स्थानांतरित होती है। जब एक जीव दूसरे को अपना भोजन बनाता है तो पोषक-तत्वों और ऊर्जा का स्थानांतरण पहले जीव से दूसरे जीव में हो जाता है। सन्देह होता है कि कहीं इस प्रकृति-प्रदत्त ऊर्जा को ही हम ‘आत्मा’ कह कर तो नहीं पुकारने लगे,जिसे भगवद्गीता में अच्छेद्य,अदाह्य, अक्लेद्य और अशोष्य कहा गया है।

विज्ञान के अनुसार ऊर्जा न तो निर्मित की जा सकती है, न ही वह नष्ट होती है। वह केवल जीवों के बीच में हस्तांतरित होती है। ऊर्जा के इस हस्तांतरण के कई स्तर होते हैं। सबसे निचले स्तर पर पौधे होते हैं जिन्हें उत्पादक या प्रोड्यूसर कहा जाता है क्योंकि ये सूर्य से ऊर्जा प्राप्त कर अपना भोजन तैयार करते हैं। इस प्रक्रिया को ‘फोटोसिंथेसिस’ कहते हैं। इनके ऊपर उपभोक्ताओं की अनेक श्रेणियां होती है जिन्हें प्राथमिक, द्वितीयक, तृतीयक उपभोक्ता कहा जाता है। उदाहरण के लिए, घास उत्पादकों की श्रेणी में आती है, उसे खाकर एक टिड्डा पोषक-तत्व और ऊर्जा प्राप्त करता है। टिड्डे को चूहा, चूहे को सांप और सांप को उकाब या गरुड़ खाता है। इस प्रकार ऊर्जा के स्थानांतरण का क्रम चलता रहता है और आहार-श्रृंखला का निर्माण होता जाता है। श्रृंखला के अन्तिम छोर पर ‘स्केवेंजर्स’ यानी सियार और लकड़बग्घे जैसे सफाई करने वाले जीव और  ‘डीकंपोज़र्स’ यानी मरे पशुओं को खाकर मिट्टी में बदल देने वाले फंगस और बैक्टीरिया जैसे जीव होते हैं।

जब ‘डीकंपोज़र्स’ जीव के शरीर को मिट्टी में परिवर्तित कर देते हैं तो ऊर्जा पुनः मिट्टी की शक्ल में प्रकृति की व्यवस्था में लौट आती है और चक्र पूरा हो जाता है।
मनुष्य भी इसी प्रकार ऊर्जा प्राप्त करता है। वह शाकाहारी भी होता है और मांसाहारी भी। इसलिए उसे प्राथमिक उपभोक्ता या द्वितीयक (अथवा  तृतीयक)उपभोक्ता कहा जा सकता है।

लेकिन मनुष्य अन्य जीवों की तुलना में अधिक बुद्धि-संपन्न प्राणी है, प्रकृति के द्वारा निर्मित आहार-श्रृंखला से उसका पेट नहीं भरता। इसलिए उसने अपने लिए प्रकृति की आहार- श्रृंखला से इतर आहार-श्रृंखला निर्मित की है जो उसे अधिक पोषण और ऊर्जा प्रदान करती है। इस श्रृंखला को ‘उत्कोच-श्रृंखला’ कहा जा सकता है। इस आहार-श्रृंखला के उपभोक्ता कुछ खास पदों पर बैठे खुशकिस्मत लोग होते हैं जब कि इसमें उत्पादक विभिन्न व्यवसायों में लगे बहुसंख्यक लोग होते हैं।

मनुष्य के द्वारा निर्मित इस आहार- श्रृंखला में उत्पादक से ऊर्जा और पोषण का संग्रह सबसे निचले अधिकारी या सबसे ऊपर के अधिकारी के द्वारा किया जाता है। इसके बाद ऊर्जा का स्थानांतरण उचित अंशों में नीचे से ऊपर की ओर या ऊपर से नीचे की ओर होता है। इस क्रम में थोड़ी बहुत हिंसा या क्रूरता उत्पादक के साथ ही होती है। उसके बाद पोषक-तत्वों का हस्तांतरण प्रेमपूर्वक, ईमानदारी से होता है, जबकि अन्य जीवों में उपभोग के प्रत्येक स्तर पर हिंसा और क्रूरता का व्यवहार होता है। इस दृष्टि से मनुष्य के द्वारा निर्मित आहार-श्रृंखला प्रकृति की आहार- श्रृंखला की तुलना में अधिक  मानवीय कही जा सकती है।

मनुष्यों की आहार-श्रृंखला में ‘स्केवेंजर्स’ भी होते हैं जो आहार-ग्रहण की प्रक्रिया के सबूतों को मिटाते हैं। इसी प्रकार इसमें ‘डीकंपोज़र्स’ होते हैं जो मरे-गिरे मनुष्य को अपना भोजन बनाकर उसे मिट्टी बना देते हैं।

मनुष्य को इस श्रृंखला में अपने संचित पोषक-तत्वों को चोरों, लुटेरों,ई.डी.,इनकम टैक्स जैसे शिकारियों से बचाना पड़ता है। इनसे बच गये तो फिर मनुष्य को यह सुविधा मिलती है कि अपने पोषक-तत्वों को अपनी सन्तानों को हस्तांतरित कर सके और अपनी तरह उनके जीवन को भी खुशहाल बना सके।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य # 227 – “बैठे ठाले – ‘कौआ महासंघ की मीटिंग के मिनिट’” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है पितृपक्ष में एक विचारणीय व्यंग्य  “बैठे ठाले – ‘कौआ महासंघ की मीटिंग के मिनिट’” ।)

☆ व्यंग्य जैसा # 227 – “बैठे ठाले – ‘कौआ महासंघ की मीटिंग के मिनिट’☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

पितृपक्ष के पहले ‘अखिल भारतीय कौआ महासंघ’ की गंभीर मीटिंग सम्पन्न हुई, जिसमें १७ तारीख से चालू होने वाले  पितृपक्ष पर बहुत से ऐजेण्डों पर बातचीत हुई, महासंघ के महासचिव ने बताया कि कोई भी देश या समाज कितना भी विकसित या शिक्षित कहा जाए किन्तु यह सच है कि बिना अपनी आदिम परम्पराओं, विश्वास और आस्था के नही रह सकता। पूर्णरूपेण नास्तिक और भौतिकवादी रहने के अपने खतरे हैं। इस साल पितृ पक्ष 17 सितम्बर से आरंभ हो गया है, अखिल भारतीय कौआ महासंघ’ के डर से शासन ने 14 तारीख से 17 तारीख तक छुट्टी की घोषणा भी कर दी है ये हमारे महासंघ की विशेष उपलब्धि है। ऐसा मत सोचना कि ये पितृपक्ष सिर्फ हमारे भारत में ही मनाया जाता है, अमेरिका और अन्य देशों में ३१ अक्टूबर को इसे उत्सव के रूप में मनाया जाता है। हेलोवीन पश्चिमी देशों का पितृपक्ष कहा जा सकता है। इस दिन आत्माओं को संतुष्ट करने उनकी कुदृष्टि से बचने उनको खुश रखने के लिए जो त्यौहार मनाया जाता है उसका नाम है हेलोवीन! कद्दू, कुम्हड़े या कुष्मांड का उस दिन अनेक प्रकार का व्यंजन बनाना, कद्दू के भूतिया डरावने चेहरे बनाकर पहनना ये सब हेलोवीन में होता है। आप सब बोर हो रहे हैं, इसलिए कुछ तुकबंदी भरी कविता सुनाना जरूरी लग रहा है। हमारे हितचिंतक बनारस के साहित्यकार सूर्य प्रकाश मिश्र जी को हम कौवा महासंघ की ओर से बधाई देना चाहते हैं उनका लिखा कौवा पुराण बहुत लोकप्रिय हुआ है, कौवा पुराण की कुछ पंक्तियां सुनिए…

“सूखे का मौसम रहे चाहे आये बाढ़ 

कागचन्द जी को खुदा देता छप्पर फाड़ 

देता छप्पर फाड़ बन गये हातिमताई 

काग संगठन चला रहे हैं कौवा भाई 

खास ख्याल रखते हैं हर नंगे भूखे का 

इन्तजार करते रहते पानी -सूखे का”

‘कौवा महासंघ’ के महासचिव के रूप में मुझे यह बताते हुए खुशी हो रही है कि कौवे अब हंस की चाल चलने की गलती नहीं करते। वे जान गए हैं कि हंसो को आजकल कोई नहीं पूछता इसलिए वे अपनी ही चाल चल रहे हैं। एक और कहावत ‘कौआ कान ले गया’ आये दिन हम सब मीडिया और इन्टरनेट पर चरितार्थ होते देखते हैं। मसला कुछ भी हो सकता है, कोई वीडियो, कोई खबर या किसी फिल्म की विषयवस्तु। ख़बर चलती है कौआ कान ले गया और पब्लिक अपना कान चेेेक करने के बजाय डंंडा लेकर कौए को ढूंढने निकल पड़ती है। मनुष्य की ये आदत बिल्कुल गलत है, कौवा महासंघ’ इस प्रवृत्ति की निंदा करता है। कौवा महासंघ की सागर जिला ईकाई ने शिकायत दर्ज कराई है कि आजकल महिलाएं हम कौवों का नाम लेकर अपने पति को धमकी देतीं हैं और आंगन में नाचते हुए कहतीं हैं…

“झूठ बोले कौआ काटे,

काले कौए से डरियो

मैं मायके चली जाऊंगी 

तुम देखते रहिओ “

भीड़ में पीछे से इंदौर के कौवे की आवाज आई, यदि झूठ बोलने वाले को कौआ काटता है तो नेता लोगों को अभी तक कोई कौवे ने क्यों नहीं काटा ? राम के नाम से वोट मांगकर लोग मंत्री बन जाते हैं फिर  स्वयं प्रभु राम ने बाण मारकर हमें काना क्यों बना दिया ? संघ के महासचिव ने अपने दार्शनिक अंदाज में उत्तर दिया – देखिए इंदौर वाले भैया आपकी बात से हम सहमत हैं, पर हम कौवों को गर्व करना चाहिए कि प्रभु राम जी ने काना बनाकर हमें अमर कर दिया। कौवा जिसे आमतौर पर कोई देखना भी पसंद नहीं करता दुनिया के टाॅप टेन बुद्धिमान पशु-पक्षियों में गिना जाता है। बच्चों को सिखाया जाता है- काक चेष्टा, बको ध्यानम… ‘काक चेष्टा’ यानि कौए की तरह कोशिश, प्रयास करने वाला। मतलब ध्यान और लक्ष्य केन्द्रित।  

भाईयो और बहनों…आपको लग रहा है कि मैं बहुत देर से कांव कांव कर रहा हूं, इसलिए ये माइक हम महासंघ के अध्यक्ष के हवाले कर रहा हूं, आप शांति बनाए रखें और वायदा करें कि इस बार पितृपक्ष में घर में बनाए बेस्वाद भोजन न करें, इस बार हमारा स्विगी, और जोमेटो से बहुत तगड़ा एग्रीमेंट हो गया है कि सब जगह के कौवे स्विगी, जोमोटो से मंगाएं गये भोजन का स्वाद लेंगे, और इस बाबत चित्रगुप्त जी को भी सूचना दी जा चुकी है कि वे सब पितर जरूर पधारें जिनकी बहुओं ने जीवन भर बेमन से बेस्वाद खाना खिलाया था, इस बार बढ़िया गर्मागर्म जोमेटो वाले सुस्वाद खाना सप्लाई करने वाले हैं…

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 22 – अगला फर्जी बाबा कौन ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना अगला फर्जी बाबा कौन)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 22 – अगला फर्जी बाबा कौन ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

धूप जोरां की पड़ री थी, और नन्दू खाट पे पैर लटकाए पंखी के नीचे बिड़ी सुलगावण लाग रहा था। गांव की चहल-पहल तो न रई पर खबरां में हर रोज़ कुछ ना कुछ नया गुल खिला ही रहा था। आज कल खबरे देख-सुन के आदमी सोच में पड़ जा सै कि के हो रे है। पहले तो इया आलम था कि बस खेत-खलियाण की बातें, अब तो गांव के लौंडे तक पॉलिटिक्स की गुत्थी सुलझावण की बातां करै।

आज नन्दू का ध्यान एक नए तरह की लुगाई पे अटका सै – फर्जी बाबा। गांव में तो सुण्या सै कि बाबा सच्चा और ज्ञान का पिटारा होवै, पर आज कल हर नुक्कड़ पे फर्जी बाबे मिलैं। अबके ही अखबार में देख्या, “गांव में नया बाबा प्रकट, तीन दिन में चमत्कार दिखाएगा।” तावड़े राम, चमत्कार देखण की भी कोई फ़ीस लगेगी। नन्दू हंसण लाग गया, “हां भाई, पैसा फेंको और आशीर्वाद लो।”

अबके गांव में भी बाबागिरी का कारोबार बढ़ता जा रया सै। नन्दू ने बताया, “पिछली हफ्ते अपने ही काका, जिनने कभी मंदिर का रस्ता न देख्या, वो अब बाबा बनग्या। बोले, ‘मुझे भगवान का आशीर्वाद मिला सै, सब दुख दूर कर दूंगा।'”

काका ने क्या किया? वो पहले बगड़वा में दुकान करदा था, पर कर्जा हो गया। लुगाई छोड़ गई, फिर काका ने सोचा बाबा बन लेता हूँ, बाबा की चोंगी लगा, भव्य दरबार सजाया। गांव के लोग भी लाइन लगाके बैठण लाग गए। सब चाहते थे चमत्कार। जो आदमी खुद की जिंदगी में कुछ न कर पाया, अब दूसर्यां की जिंदगी सुधारण चला। बस बाबा का जलवा चालू हो गया।

गांव के लोग भी एकदम अंधभक्त। कोई बाल बच्चा ठीक करावण आया, तो कोई नौकरी की बात लेके। और बाबा के पास हर सवाल का जवाब। ऊपर से अंधेरे में दीपक जला के बाबा जी बोले, “बस, मेरे चरणों में बैठ जा, सब ठीक होगा।” और असली चमत्कार तो यारा ये सै कि बाबे के पास जेब खाली होवै और भक्तां के जेब का माल धीरे-धीरे उसकी थैली में चल्या आवै।

गांव के हाकिम तक बाबे की शरण में आगए। ताऊ बोला, “बेटा जी, ईमानदारी से तो कुछ होवै न सै, बाबे के आशीर्वाद से सब कुछ हो जागा।” और उधर से नेता जी, बाबे के साथ तस्वीरा खिंचवा रहे थे। सोचो भाई, बाबे का आशीर्वाद लिया, अब अगला चुनाव पक्का।

अब तो नेतागिरी भी बाबागिरी से चलती सै। बाबा जी बोले, “मैं देखता हूं, आज कल नेता भी मेरे आशीर्वाद के बिना कुछ न कर पावैं। सबकी डोर मेरे हाथ में सै।” बाबा जी के भक्त झट से बोले, “बिलकुल जी, आपकी लीला अपरम्पार सै।”

नन्दू तो बस अपना सिर धुनता रया। “अरे भाई, सबको सबकुछ दिख रया सै, पर कोई आंख खोलण को तैयार न सै।”

फिर गांव में फर्जी बाबे की चर्चा और जोर पकड़ गई। कोई बोला, “बाबा जी ने गंगाजल छिड़क के खेतों में पानी बरसाया सै,” तो कोई बोला, “बाबा ने मेरी बीमार गाय को ठीक कर दिया।” नन्दू तो सोच में पड़ गया, “अरे भाई, बाबे ने तो डॉक्टरों की नौकरी ही खा ली।”

इतने में गांव में नए बाबे का आगमन होया, और उसने गांव के बीचों बीच अखाड़ा बना दिया। अजीब लटके-झटके। हुक्का पीते-पीते बाबा जी बोले, “मैं ध्यान लगाऊं, और सब दुख दूर करूं।” लोग लाइन में खड़े हो गए – सिरदर्द ठीक कराणा हो, या नोकरी लगवाणा हो। बाबा के पास हर समस्या का हल था।

पर एक दिन अजब बात होई। बाबे का असली चेहरा तब सामने आया जब उसने गांव की चौधरी की जमीन पे हाथ मारा। चौधरी ने बोले, “अबे बाबा, तूं भगवान सै तो सब कुछ तेरे नाम करे देऊँ क्या?” बाबा हड़बड़ा के बोला, “नहीं चौधरी जी, आप गलती समझे।”

पर गांव वाले अब जाग गए। चौधरी जी के पास जाके बोले, “सारा खेल बाबे का सै। अबके देख लेंगे।” और गांव वालों ने एकजुट होके बाबे को दौड़ा दिया।

बाबा जो दिन रात चमत्कार दिखावण की बात करदा था, अब सरपट भाग रया था। गांव के बुजुर्ग हंसण लागे, “देखा बेटा, असली चमत्कार तो यो सै कि जूठा फर्जी बाबा अब लुगाई की तरह घर बैठ के चूल्हा फूंकता मिलेगा।”

और नन्दू ने बिड़ी का आखरी कश खींचते हुए कहा, “अबके समझ में आ गया कि बाबागिरी और नेतागिरी में ज़्यादा फर्क न सै। बस लोग आंख मूंद के यकीन कर लेते सै। आज का जमाना ही ऐसा हो गया सै।”

गांव में फर्जी बाबे का खेल खत्म हो गया, पर नन्दू के मन में एक सवाल बाकी रह गया – “कहीं अगला फर्जी बाबा कौन होगा?”

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #186 – व्यंग्य- अथकथा में, हे कथाकार! – ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय व्यंग्य “अथकथा में, हे कथाकार!) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 186 ☆

☆ व्यंग्य- अथकथा में, हे कथाकार! ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

सभी जीवों में मानव जीव श्रेष्ठ है। यह उक्ति प्राचीनकाल से चली आ रही हैं। वर्तमान युग ‘फेसबुक’ का है। उसी का हर जुबान पर बोलबाला है। इस कारण जिसका बोलबाला हो उसका कथाकार ही श्रेष्ठ हो सकता है। ऐसा हम सब का मानना है। यही वजह है कि ‘फेसबुक का कथाकार’ ही आज का श्रेष्ठ जीव है।

उसी की श्रेष्ठता ‘कथा’ में है। कथा वही जो छप जाए। शायद, आपने ठीक से समझा नहीं। यह ‘छपना’ पत्रपत्रिकाओं में छपना नहीं है। उसमें तो ‘मसि कागद करें,’ वाले ही छपते हैं। मगर ‘फेसबुक’ पर जो ‘छप’ जाए, वही आज का ‘हरि’ है।

‘हरि’ भी अपनी श्रेणी के हैं। इन्हें ‘फेसबुक’ के ‘फेस’ के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है। इसमें पहले टाइप के जीव वे हैं जो ‘छपते’ कम है मगर उसकी चर्चा ‘फेसबुक’ पर ज्यादा करते हैं। बस, हर रोज इस रचना का ‘फेस’ ही इसी ‘बुक’ पर पेस्ट करते रहते हैं। ताकि अपनी चर्चा होती रहे।

ये ‘मसिजीवी’ इस मामले में माहिर होते हैं। हां, रोज 5 से 7 घंटे इसी पर लगे रहते हैं। ‘फेस’ को किस तरह चमकना है? उसी के लिए ‘बुक’ पर लगे रहते हैं। यही वजह है कि ये लिखने भले ही कम हो, छपते भले ही एक बार हो, इनका ‘फेस’ हमेशा चमकता रहता है।

कुछेक नामधन्य ‘हरि’ भी होते हैं। वह छपते तो हैं पर ‘फेस’ चमकना उन्हें नहीं आता है। वे ‘फेसबुक’ से दूर रहते हैं। उन्हें नहीं पता है कि इस तरह की कोई ‘बीमारी’ भी होती है।जिसमें ‘फेस’ को ‘बुक’ में चमकाया जाता है।

तीसरे ‘हरि’ निराले होते हैं। लिखते तो नहीं है पर ‘फेस’ पर ‘फेस’ लगाए रहते हैं। ये ‘काम’ की बातें ‘फेस’ पर लगाते हैं। फल स्वरूप इनका ‘फेस’ हमेशा ‘फेसबुक’ पर चमकता रहता है। इनके ‘पिछलग्गू’ इस पर संदेश पर संदेश लगाया करते हैं। इस कारण बिना ‘फेस’ के भी उनका ‘फेस’ चमकता रहता है।

चौथे तरह के ‘हरि’ अपनी छपास प्रवृत्ति से ग्रसित होते हैं। छपना तो बहुत चाहते हैं मगर छप नहीं पाते हैं। एक दिन सोचते हैं कि कविता लिखेंगे। मगर लिख नहीं पाते हैं। दूसरे, तीसरे, चौथे दिन कहानी, लघुकथा से होते हुए उपन्यास लिखने पर चले जाते हैं। मगर लिखने का इनका ‘फेस’ तैयार नहीं होता है। बस इसी उधेड़बुन में ‘फेसबुक’ पर बने रहते हैं। ये ‘सर्वज्ञाता’ होने का दम भरते रहते हैं।

पांचवें क्रम के ‘हरि’ संतुलित ‘फेस’ के होते हैं छपते तो हैं। ‘फेसबुक’ पर ‘फेस’ चमका देते हैं। नहीं छपे तो वे बैठे हुए चुपचाप देखते रहते हैं। इन्हें बस उतना ही काम होता है जितनी रचना छप जाती है। उसे ‘फेसबुक’ पर ‘फेस’ किया और चुप रह गए।

छठे क्रम में वे ‘हरि’ आते हैं जिन्हें अपना गुणगान करने की कला आती है। ये अपना ‘फेस’ को चमकाने में कलाकार होते हैं। इसी जुगाड़ में दिन-रात लगे रहते हैं। अपनी रचना को ‘फेस’ पर ‘पेश’ करते रहते हैं। मगर ‘पेश’ करने का रूप व ढंग हमेशा बदलते रहते हैं। कभी रचना की भाषा का उल्लेख करेंगे, कभी उसकी आवृत्तियों का।

कहने का तात्पर्य यह है कि ‘फेसबुक’ के ये ‘मसिजीवी’ अकथा की कथा बनाने में माहिर होते हैं। इन्हें हर कथा व अकथा से ‘फेस’ निकालना आता है। यही वजह है कि यह ‘फेसबुक’ पर अपना ‘फेस’ चमकाते रहते हैं।

इसके अलावा भी और कई कथा के अकथाकार हो सकते हैं। मगर मुझ जैसे मसिजीवी को इन्हीं का ज्ञान है। इस कारण उनका उल्लेख ध्यान यहां पर कर पा रहा हूं। बस, आप भी इनमें से अपना ‘फेस’ पहचान कर अपनी ‘पहचान’ बना सकते हैं।

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

16-07-2024

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 21 – महंगाई भगाओ अभियान ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना महंगाई भगाओ अभियान।)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 21 – महंगाई भगाओ अभियान ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

गजबपुरिया देश की सरकार महंगाई जैसी महामारी से त्रस्त थी। उन्होंने कटौती स्थली के मस्तकलाल देश की सरकार से मदद मांगी। मस्तकलाल देश का हाल तो वही है, जहाँ तोंद बाहर निकाले बाबाओं और पुजारियों की एक टीम हर काम की एक्सपर्ट होती है। गजबपुरिया सरकार ने लिखा, “हमने सुना है कि आपके यहाँ टोटके और तंत्र-मंत्र से महामारी भगाई जाती है। हमारे यहाँ मौत का आँकड़ा आपके देश की धार्मिक किताबों में दी गई कहानियों जितना बढ़ रहा है। हमारा धैर्य आपके देश की लोकतंत्र जितना कम हो गया है।”

मस्तकलाल देश की सरकार ने मदद देने की हामी भर दी। वहां के बाबा और तांत्रिकों की टीम ने अपनी ‘धार्मिक दवाइयों’ के बंडल तैयार करने का आदेश दिया। ये दवाइयाँ गंगा जल, गोबर, गोमूत्र और कुछ विशेष मंत्रों से बनाई गई थीं। जैसे ही इन दवाइयों को पता चला कि इन्हें गजबपुरिया भेजा जाना है, वे सारे बंडल से भागने लगे। एक नेत्री ने कहा, “हमें वहाँ क्यों भेजा जा रहा है? हम तो यहीं की जनता का मानसिक शोषण करने में व्यस्त थे।”

बाबा लोग तो पहले ही किसी घने जंगल में अपनी कुटिया बनाकर गायब हो गए थे। दवाइयों के थोक और फुटकर विक्रेताओं ने भी अपनी-अपनी दुकानें बंद कर ली और भूमिगत हो गए। आखिरकार, मस्तकलाल सरकार ने सख्ती से इन्हें पकड़ा और बंडल में पैक किया।

एक अधिकारी ने पूछा, “यहां क्या चल रहा है?” एक साधु ने उत्तर दिया, “हम देख रहे हैं कि हम अपनी दवाइयों से दूसरे देश में भी हमारा उल्लू सीधा कर सकते हैं या नहीं।” अधिकारी ने कहा, “यहाँ उल्लू नहीं बल्कि धर्म का कारोबार चल रहा है, समझे?”

मस्तकलाल देश की सरकार ने भारी मशक्कत से उन दवाइयों के बंडल बनाए और उन्हें एक विशेष विमान में लादकर गजबपुरिया भेजा। गजबपुरिया में, मेडिकल विशेषज्ञ और सुरक्षा एजेंसियां सतर्क थीं। विमान के लैंड करते ही, एक बंडल उतारते समय ही मजदूर आपस में लड़ने लगे। गालियों का आदान-प्रदान होने लगा, जाति-धर्म की बातों पर बवाल मच गया।

मेडिकल विशेषज्ञ ने तुरंत सबको सतर्क किया और दुग्गल साहब को फोन कर सारी स्थिति बताई। उन्होंने कहा, “देखो, ये दवाइयाँ हैं। इनका उपयोग महंगाई को मिटाने की जगह नफरत और अंधविश्वास का वायरस फैलाने में उपयोग में लाया जा सकता है। यदि यह फैल गया तो अगले पाँच साल तक आपका कोई कुछ नहीं उखाड़ सकता है। ये वायरस लोगों को मानसिक गुलाम बना देता है।”

दुग्गल साहब ने कहा, “इन्हें तुरंत हमारे गुर्गों के बीच भेजो और मस्तकलाल देश की इस अद्भुत सद्भावना को धन्यवाद कहना।” एक बड़ा सा स्टिकर “ये दवाई केवल धार्मिक मूर्खों के लिए है” लिखकर उस विमान की सारी दवाई अंधभक्तों के बीच बटवा दी गई।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

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