(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है व्यंग्य/आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ व्यंग्य # 90 ☆ देश-परदेश – चर्चा : राष्ट्रीय विवाह ☆ श्री राकेश कुमार ☆
खिलाड़ी और बॉलीवुड के विवाह की चर्चा तो होती ही रहती हैं। कुछ दिन पूर्व रामायण परिवार की सुपुत्री सोनाक्षी का विवाह चर्चा और विवाद में रहा हैं। अभिताभ बच्चन का विवाह के फोटो में ना दिखना आदि। जब तक कोई और फिल्मी विवाह नहीं हो जाता तब तक इसके किस्से और अफवाहें गर्म रहेंगे।
इसी बीच एक भारतीय आर्थिक भगोड़े ने अपने पुत्र का विवाह लंदन में आयोजित कर दिया। कुछ चर्चा भी हुई, विशेष कर एक अन्य चर्चित नाम ललित मोदी उपस्थित थे। चोर चोर मोसरे भाई।
हाल ही में एक सर्वे रिपोर्ट आई है, जिसमें ये जानकारी दी गई है, कि भारतीय शिक्षा से अधिक विवाह में खर्च करते हैं। इस बात का राष्ट्रीय विवाह जोकि 12 जुलाई को अम्बानी परिवार में होने जा रहा है, से कोई दूर दूर तक संबंध नहीं हैं।
विवाह पूर्व आयोजनों को प्रोहत्सन देने के लिए देश व्यापी प्रचार के लिए दो कार्यक्रम तो संपन्न हो चुके हैं। ये तो ट्रेलर है, पिक्चर अभी बाकी हैं, मेरे व्हाट्स एपिया दोस्तों।
विषय राष्ट्रीय है, निमंत्रण पत्र, मेहमान, स्थान, भोजन, रिटर्न गिफ्ट, आदि लंबी सूची है। अलग अलग विषयों पर चर्चा भी तो अलग अलग ही होनी चाइए।
हमने तो आशीर्वाद के रूप में प्रति माह कुछ राशि जियो के जुलाई माह से बढ़े हुए बिल के माध्यम से देना तय कर लिया हैं। आप भी तो कुछ तय करें।
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम व्यंग्य रचना – ”किताब के कर्मकांड ‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 248 ☆
☆ व्यंग्य – किताब के कर्मकांड ☆
कवि कोमल प्रसाद ‘उदासीन’ का पहला कविता-संग्रह छप पर आ गया है। ‘उदासीन’ जी बहुत प्रसन्न हैं। कल से मोबाइल कान से हट नहीं रहा है। सभी मित्रों, शुभचिन्तकों को खुशखबरी दे रहे हैं। मिलने वालों के लिए मिठाई का इन्तज़ाम कर लिया है।
अगले दिन शहर के तीन चार साहित्यकार मिलने आ गये। सबसे आगे नगर के वरिष्ठ कवि झलकनलाल ‘अनोखे’। सब ने ‘उदासीन’ जी को बधाई दी। ‘अनोखे’ जी बोले, ‘अब आप असली साहित्यकार बन गये। किताब छपे बिना लेखक पक्का साहित्यकार नहीं माना जाता। अब आप हमारी जमात में शामिल हो गये।’
‘उदासीन’ जी खुश हुए। ‘अनोखे’ जी को धन्यवाद दिया।
‘अनोखे’ जी बोले, ‘अब आप बाकी कर्मकांड भी कर डालिए। उसके बिना किताब के प्रति लेखक का फर्ज पूरा नहीं होता।’
‘उदासीन’ जी ने पूछा, ‘कैसा कर्मकांड?’
‘अनोखे’ जी बोले, ‘किताब का विमोचन, किताब की चर्चा, किताब का प्रचार। इनके बिना आजकल लेखन का काम पूरा नहीं होता।’
‘उदासीन’ जी सोच में पड़ गये।
‘अनोखे’ जी बोले, ‘हम इस काम में आपकी मदद करेंगे। ये जो ‘निर्मम’ जी हैं, इन्हें कल आपके पास भेजूँगा। इन्हें अभी बीस हजार रुपये दे दीजिएगा। ये हॉल की बुकिंग वगैरह करा लेंगे, बैनर वैनर बनवा लेंगे, नाश्ते पानी,फोटो वीडियो का इन्तजाम कर लेंगे। मैं दिल्ली के दो कवियों— ‘नश्तर’ जी और ‘खंजर’ जी से बात कर लूँगा। उनसे मेरी रसाई है। जब बुलाता हूँ, आ जाते हैं। उन्हीं के कर-कमलों से किताब का विमोचन हो जाएगा। शाम को किताब पर उनके व्याख्यान हो जाएँगे। फिर होटल में बीस-पच्चीस लोगों का भोजन हो जाएगा। उसमें पत्रकार भी आमंत्रित हो जाएँगे। पत्रकारों को छोटी-मोटी भेंट दे देंगे तो कार्यक्रम का अच्छा प्रचार हो जाएगा। ‘निर्मम’ जी सब प्रबंध कर लेंगे। उन्हें इन बातों का बहुत अनुभव है।
‘नश्तर’ जी और ‘खंजर’ जी के लिए भोजन से पहले कुछ तरल पदार्थ का इन्तजाम करना पड़ेगा। वह भी ‘निर्मम’ जी देख लेंगे। मेरे खयाल से चालीस पचास हजार तक किफायत से सब काम हो जाएगा।’
सुनकर ‘उदासीन’ जी की आँखें माथे पर चढ़ गयीं। भयभीत स्वर में बोले, ‘इतना पैसा कहाँ से लाऊँगा? यह मेरी हैसियत से बाहर है।’
‘अनोखे’ जी कुपित हो गये। बोले, ‘आपको कवि के रूप में अपने को स्थापित भी करना है और अंटी भी ढीली नहीं करनी है। दोनों बातें एक साथ कैसे चलेंगीं?
‘भैया, किताब के कर्मकांड के लिए लोग अपने प्रॉविडेंट फंड का पैसा खर्च कर देते हैं, बेटी के ब्याह के लिए रखा पैसा समर्पित कर देते हैं, और आप ऐसे आँखें फाड़ रहे हैं जैसे हम कोई अनुचित बात कर रहे हों।’
‘उदासीन’ जी बोले, ‘ना भैया, इतना पैसा खर्च करना अपने बस का नहीं है। किताब में दम होगा तो अपने आप प्रचार हो जाएगा।’
‘अनोखे’ जी अपनी मंडली के साथ उठ खड़े हुए, बोले, ‘किताब में कितना भी दम हो लेकिन शुरू में उसे लोगों की आँखों के सामने चमकाना पड़ता है। बिना हर्रा फिटकरी डाले रंग चोखा नहीं होता। सोच लो, मन बदल जाए तो फोन कर देना। हम ‘निर्मम’ जी को भेज देंगे।’
दरवाज़े तक पहुँच कर ‘अनोखे’ जी घूम कर बोले, ‘किताब के कर्मकांड में पैसा तो जरूर खर्च होता है, लेकिन उसकी खुमारी महीने,दो महीने तक रहती है। बाद में कसके तो कसकती रहे।’
(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना पत्थर की बात।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 11 – पत्थर की बात☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
वह बेल्ट, लात-घूंसों से पीटा गया था। रोता-चिल्लाता धड़ाम से फर्श पर ऐसा गिरा कि उसकी चोटों से शर्मिंदा होकर हाइड्रोजन अणु ऑक्सीजन के परमाणु से मिलकर अश्रुजल बनने से मना कर रहा था। आदमी जब कुछ नहीं कर सकता, रो तो सकता है। अब वह रो भी नहीं सकता। पता चला है कि रोने का पेटेंद किसी ने अपने नाम से सुरक्षित करवा लिया है। आजकल वह इसका इस्तेमाल केवल जनता को भावनात्मक ढंग से बेवकूफ बनाकर वोट बटोरने के लिए कर रहा है।
‘सर जी हमने इसको पीटने को तो पीट दिया लेकिन इसकी पहचान करना भूल गए!’ अट्ठावन इंच की तोंदवाला कांस्टेबल बोला।
इसे पहचानने की क्या जरूरत। पत्थरबाजों की भीड़ में यह भी था। पत्थरबाजों का एक ही मजबह होता है और वह है….
लेकिन इसके हाथ में पत्थर तो नहीं था…फिर
इंस्पेक्टर ने कांस्टेबल की बात को बीच में ही काटते हुए – नहीं था का क्या मतलब। उसने मारा होगा…हम खुशकिस्मत वाले थे कि हमें नहीं लगा। समझे। फिर भी एक बार इसकी अच्छे से तलाशी लो। हो सकता है कि इसका कोई कनेक्शन आतंकवादी संगठन से निकल आए। न भी निकले तो अपने किसी छोटे-मोटे केस में इसी को मुख्य अपराधी बताकर केस सॉल्व कर लो। जब हमने इसको इतना पीटा है तो पूरा लाभ उठाने में ही समझदारी है।
उसके पर्स से आधार मिला!!
माँ की दवाइयों की पर्ची!! गोद में उठाए बिटिया की तस्वीर!!
कई परतों में फोल्ड एक ऐसा पत्र जिसमें उसे नौकरी से हटा देने की सूचना और बाकी का हिसाब-किताब था!!
‘सर आधार में इसका नाम रामलाल है और पता वहीं का है जहाँ पत्थरबाजी हुई थी!’ कांस्टेबल ने घबराते हुए कहा।
‘रामलाल! यह कैसे हो सकता है? वह तो पत्थरबाजों के साथ था।’
‘लेकिन सर उसका मकान भी तो वही था! अब क्या करें सर यह तो बड़ी मिस्टेक हो गई।’ कांस्टेबल ने माथे पर हाथ फेरते हुए कहा।
‘लगता है तुम सठिया गए हो। इतना घबराने की जरूरत नहीं। इस पेशे में रहने वाला सही को गलत और गलत को सही बनाने में एक्सपर्ट होना चाहिए। और तुम हो कि बेवकूफों जैसी बात करते हो। बाहर पत्थरबाजी के सबूत पड़े हुए हैं। वहीं उसे सुला देते हैं। तब किसी को संदेह नहीं होगा। जल्दी-जल्दी करो हमें और भी कई काम हैं..आज हमारी बिटिया को शॉपिंग पर ले जाने का वादा किया है। देर हुई तो वह रूठ जाएगी। फिर पहाड़ सिर पर उठा लेगी। समझे।‘’ पैर पर पैर धरे इंस्पेक्टर ने सिगरेट का कश खींचते हुए कहा।
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम व्यंग्य रचना – ”मेरे मकान के ख़रीदार‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 247 ☆
☆ व्यंग्य – मेरे मकान के ख़रीदार ☆
रमनीक भाई कॉलोनी में चार छः मकान आगे रहते हैं। सबेरे टहलने निकलते हैं। घर के गेट पर मैं दिख गया तो वहीं ठमक जाते हैं। इधर उधर की बातें होने लगती हैं। रमनीक भाई बातों के शौकीन हैं। बातों का सिलसिला शुरू होता है तो सारी दुनिया की कैफियत ले ली जाती है। उनके पास हर समस्या का हल मौजूद है, बशर्ते उनकी राय कोई ले। रूस-यूक्रेन और इसराइल- ग़ज़ा की समस्या का फौरी हल उनके पास है, लेकिन नेतन्याहू और पुतिन उनकी तरफ रुख़ तो करें।
एक दिन रमनीक भाई चेहरे पर कुछ परेशानी ओढ़े मेरे घर आ गये। बैठकर बोले, ‘मैं यह क्या सुन रहा हूँ, बाउजी? आप शहर छोड़ कर जा रहे हैं?’
मैंने जवाब दिया, ‘विचार चल रहा है, रमनीक भाई। यहांँ हम मियाँ बीवी कब तक रहेंगे? इस उम्र में कुछ उल्टा सीधा हो गया तो किसकी मदद लेंगे? बड़ा बेटा पीछे पड़ा है कि यहाँ की प्रॉपर्टी बेच कर उसके पास पुणे शिफ्ट हो जाऊँ।’
रमनीक भाई दुखी स्वर में बोले, ‘कैसी बातें करते हैं, बाउजी! मदद के लिए हम तो हैं। आप कभी आधी रात को आवाज देकर देखो। दौड़ते हुए आएँगे। कॉलोनी छोड़ने की बात मत सोचो, बाउजी। आप जैसे लोगों से रौनक है।’
मैंने उन्हें समझाया कि अभी कुछ फाइनल नहीं है। जैसा होगा उन्हें बताएँगे। वे दुखी चेहरे के साथ विदा हुए।
दो दिन बाद वे फिर आ धमके। बैठकर बोले, ‘ मैं यह सोच रहा था, बाउजी, कि जब आपको मकान बेचना ही है तो हमें दे दें। हमारे साले साहब इसी कॉलोनी में मकान खरीदना चाहते हैं। नजदीकी हो जाएगी। भले आदमी को देने से आपको भी तसल्ली होगी।’
मैंने फिर उन्हें टाला, कहा, ‘फाइनल होने पर बताऊँगा।’
फिर वे रोज़ गेट खटखटाने लगे। रोज़ पूछते, ‘फिर क्या सोचा, बाउजी? साले साहब रोज फोन करते हैं।’
एक दिन कहने लगे, ‘वो रौनकलाल को मत दीजिएगा। सुना है कि वो आपके मकान में इंटरेस्टेड है। बहुत काइयाँ है। दलाली करता है। आपसे खरीद कर मुनाफे पर बेच देगा।’
मैंने उन्हें आश्वस्त किया।
दो दिन बाद एक सज्जन बीवी और दो बच्चों के साथ आ गये। बोले, ‘मैं रमनीक जी का साला हूँ। उन्होंने आपके मकान के बारे में बताया था। आपको तकलीफ न हो तो ज़रा मकान देख लूँ।’
मेरा माथा चढ़ गया। रमनीक भाई के लिहाज में मना भी नहीं कर सकता था। उन्हें मकान दिखाया। वे देख देख कर टिप्पणी करते जाते थे कि कौन सी जगह कौन से इस्तेमाल के लिए ठीक रहेगी। बच्चों में झगड़ा होने लगा कि वे कौन से कमरे पर कब्ज़ा जमाएँगे।
अगले दिन फिर रमनीक भाई आ गये। मैंने उनसे निवेदन किया कि अभी कुछ फाइनल नहीं है, परेशान न हों। यह भी कहा कि पत्नी को इस घर से बहुत लगाव है, इसलिए निर्णय लेने में समय लगेगा। सुनकर वे प्रवचन देने लगे, बोले, ‘बाउजी, बेटा बुला रहा है तो उसकी बात मान लेना चाहिए। आप ठीक कहते हो कि यहाँ कुछ उल्टा सीधा हो गया तो कौन सँभालेगा। वैसे, बाउजी, मकान से क्या लगाव रखना? ना घर मेरा, ना घर तेरा, चिड़िया रैन बसेरा। ईंट पत्थर से क्या दिल लगाना।’
दो दिन बाद वे फिर गेट पर मिले तो मैंने उनसे कहा कि अभी मकान की बात न करें, अभी हमारा इरादा उसे बेचने का नहीं है। सुनकर वे उखड़ गये, नाराज होकर बोले, ‘ये तो ठीक बात नहीं है, बाउजी। मैंने साले साहब को भरोसा दिया था कि मकान मिल जाएगा। यह दुखी करने वाली बात है। आपसे ऐसी उम्मीद नहीं थी।’
उस दिन के बाद रमनीक भाई मेरे गेट से तो बदस्तूर गुज़रते रहे, लेकिन उन्होंने मेरी तरफ नज़र डालना बन्द कर दिया। मुँह फेरे निकल जाते। मतलब यह कि मकान के चक्कर में हम सलाम-दुआ से भी जाते रहे।
(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना चौथे माले की चाय।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 10 – चौथे माले की चाय☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
एनईईटी परीक्षा का नाम सुनते ही एक शानदार नाटक का दृश्य आंखों के सामने आ जाता है। ये नाटक नहीं, बल्कि एक महाभारत है, जिसमें हर पात्र अपनी जगह पर एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। परीक्षा का उद्देश्य है डॉक्टर बनना, पर इसमें डाकुओं की तरह नकल करने वालों का भी हिस्सा है। मेहनत करने वाले बेचारे कौरवों की तरह नक्कलचियों के सामने हार मान लेते हैं।
ग्रेस अंकों का नाटक ग्रेस अंकों की कहानी भी किसी टीवी सीरियल के ट्विस्ट से कम नहीं है। मानो परीक्षार्थियों की मेहनत पर एक तमाचा मारते हुए ये अंक उनके माथे पर लगते हैं। “मेहनत करने वाले तो बेवकूफ होते हैं,” ऐसा नारा लगाने वाले लोग शायद नहीं जानते कि असली ‘ग्रेस’ तो नकल के बहादुरों में होती है। जिनकी किस्मत अच्छी हो, वे ही ग्रेस अंकों के नाटक में अव्वल आते हैं। मेहनत की क्या जरूरत, जब चाय पीते-पीते ग्रेस अंक मिल जाएं।
नकल का रोमांच एनईईटी परीक्षा की नकल के बारे में पूछना, मानो मुहावरों में चाय की पत्ती डालना हो। परीक्षा से पहले की रात को परीक्षार्थी नकल के सुपरहीरो बनने के सपने देखते हैं। इंटरनेट से लेकर कोचिंग सेंटर तक, हर जगह नकल के नए-नए तरीके ढूंढे जाते हैं। आखिर, मेहनत क्यों करें जब नकल करके टॉप किया जा सकता है? परीक्षा हॉल में नकल करते समय दिल की धड़कनें बढ़ जाती हैं, जैसे किसी एक्शन फिल्म का क्लाइमेक्स हो।
एनटीए और चौथे माले की चाय जो लोग नीट परीक्षा की चोरी के बारे में पूछते हैं, उन्हें एनटीए के चौथे माले पर चाय पीने के लिए बुलाया जाता है। एनटीए के अधिकारी, जो चाय की प्याली में सुकून ढूंढते हैं, नकल के सवाल सुनते ही मुस्कुरा देते हैं। वे सोचते हैं, “ये बेचारे भी क्या समझेंगे, मेहनत और नकल का फर्क।” चौथे माले की चाय, जहां नकलचियों के राज़ खुलेआम बताये जाते हैं, मेहनत करने वालों के लिए सिर्फ एक सपना बनकर रह जाती है।
मेहनत और बेवकूफी मेहनत करने वाले तो बेवकूफ होते हैं, यही तो परीक्षा का असली मंत्र है। जो रात-रात भर जागकर पढ़ाई करते हैं, वे समझते नहीं कि मेहनत का फल सिर्फ किताबों में ही मीठा होता है। असल जिंदगी में, नकल करने वाले ही असली हीरो होते हैं। मेहनत की चक्की में पिसने वाले ये समझ नहीं पाते कि परीक्षा बेवकूफों के लिए नहीं, बल्कि नकलचियों के लिए है।
व्यंग्य का पंच इस व्यंग्य में एक ही पंचलाइन है: मेहनत का फल बेशक मीठा हो, पर नकल का स्वाद चौथे माले की चाय से भी ज्यादा लाजवाब होता है। इसलिए, मेहनत करने वालों को चाहिए कि वे भी इस नाटक का हिस्सा बनें और नकल के गुर सीखें। आखिर, जब तक नकल का खेल चलता रहेगा, मेहनत की किताबें सिर्फ अलमारियों में सजी रहेंगी।
तो दोस्तों, अगली बार जब आप एनईईटी परीक्षा के बारे में सोचें, तो मेहनत और नकल के इस महाभारत को जरूर याद रखें। क्योंकि, मेहनत करने वाले तो बेवकूफ होते हैं, और असली खिलाड़ी तो वही हैं जो नकल के खेल में माहिर होते हैं।
(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना किताबों की व्यथा।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 9 – किताबों की व्यथा ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
वे किताबें नालों में पड़ी लोट रही थीं। पहले लगा कि उन किताबों में शराब की प्रचार-प्रसार सामग्री छपी होगी, तभी तो उन पर ऐसा नशा चढ़ा होगा। बाद में किसी भलमानुस ने बताया कि इन्हें बच्चों तक पहुँचाना था क्योंकि स्कूल जो शुरू होने वाले हैं। किताबें भी सोचने लगीं – मज़िल थी कहीं, जाना था कहीं और तक़दीर कहाँ ले आई है। कहने को तो स्मार्ट सिटी में हैं, फिर यह स्वच्छ भारत अभियान के पोस्टर के साथ इस नाले में क्या कर रही हैं? बाद में उन्हें समझ में आया कि स्मार्ट होने का मतलब शायद यही होता होगा।
किताबें आपस में बातें करने लगीं। थोड़ी पतली सी, एकदम स्लिम ब्यूटी की तरह लग रही अंग्रेजी की किताब ने कहा – “वाट इज हैपिनिंग हिअर? आयम फीलिंग डिस्गस्टिंग।” तभी हिंदी की किताब, जो थोड़ी मोटी और वाचाल लग रही थी, बीच में कूद पड़ी – “अरे-अरे, देखिए मैम साहब के नखरे। तुमको डिस्गस्टिंग लग रहा है। तुम्हारे चलते मेरे भीतर से कबीर, तुलसी की आत्मा निकाल दी गई है। बच्चे मुझे पाकर न ठीक से दो दोहे सीख पाते हैं और न कोई नौकरी। तुम हो कि ट्विंकिल-ट्विंकिल लिटिल स्टार, बा बा ब्लाक शिप, रेन रेन गो अवे जैसी बिन सिर पैर की राइम सिखाकर बड़ी बन बैठी हो। तुम्हारी इन राइमों के चक्कर में हमारे बच्चे हिंदी के बालगीत भी नहीं सीख पाते। तुमने तो हमारा जीना हराम कर दिया है।”
इस पर अंग्रेजी किताब बोली – “नाच न जाने आंगन टेढ़ा। बच्चों को लुभाना छोड़कर मुझ पर आरोप मढ़ रही हो। बाबा आदम का जमाना लद चुका है। कुछ बदलो। मॉडर्नाइज्ड बनो। चाल-ढाल में बदलाव लाओ।”
इन सबके बीच सामाजिक अध्ययन की किताबें कूद पड़ी – “अरे-अरे! तुम लोगों में थोड़ी भी सामाजिकता नहीं है। मिलजुलकर रहना आता ही नहीं। कुछ सीखो मुझसे।” इतना सुनना था कि विज्ञान की किताबें टूट पड़ी – “अच्छा बहन, तुम चली हो सामाजिकता सिखाने। तुम्हारी सामाजिकता के चलते लोग आपस में लड़ रहे हैं। कोई नरम दल है तो कोई गरम दल। कोई पूँजीवाद का समर्थक तो कोई किसी और का। तुम तो रहने ही दो। कहाँ की बेकार की बातें लेकर बैठ गई हो। आज न कोई भाषा पढ़ता है न सामाजिक अध्ययन। लोग तो विज्ञान पढ़ते हैं। डॉक्टर बनते हैं। कभी सुना किसी को कि वह कवि या लेखक बनना चाहता है या फिर समाज सुधारक?”
तभी मोटी और बदसूरत सी लगने वाली गणित की किताब ने सभी को डाँटते हुए कहा – “मेरे बिना किसी की कोई हस्ती नहीं है। आज दुनिया में सबसे ज्यादा लोग इंजीनियर बन रहे हैं। सबका हिसाब-किताब रखती हूँ।”
सभी एक-दूसरे से लड़ने लगीं। वहीं एक कोने में कुछ किताबें सिसकियाँ भर रही थीं। यह देख हिंदी, अंग्रेजी, सामाजिक अध्ययन, विज्ञान और गणित की किताबें लड़ाई-झगड़ा रोककर कोने में पड़ी किताबों की सिसकियों का कारण पूछने लगीं। उन किताबों ने बताया – “हम मूल्य शिक्षा, जीवन कौशल शिक्षा और स्वास्थ्य शिक्षा की किताबें हैं। हम छपती तो अवश्य हैं लेकिन बच्चों के लिए नहीं बल्कि कांट्रेक्टरों के लिए। आप सभी सौभाग्यशाली हो कि कम से कम आप लोगों को बच्चों की छुअन का सुख तो मिलता है। हम हैं कि स्टोर रूम में पड़ी-पड़ी सड़ने के सिवाय कुछ नहीं कर सकतीं।”
उधर, व्हाट्सप पर यह किस्सा पढ़कर बच्चे लोट-पोट हो रहे थे।
इस कथा का यथार्थ केवल उन किताबों की नहीं, बल्कि हमारे शिक्षा तंत्र की भी है। स्मार्ट सिटी की स्मार्टनेस का यही तो प्रतीक है कि कागज पर किताबें स्मार्ट हो गई हैं और असलियत में नाले में बहती नजर आती हैं। ‘स्वच्छ भारत’ का नारा देने वाले ही शायद इन किताबों को नालों में बहा आए। आखिर किताबें भी तो आधुनिक होनी चाहिए, डिजिटल होना चाहिए। यह बात अलग है कि हमारे बच्चे अब किताबें नहीं, बल्कि स्मार्टफोन और टैबलेट में खोए रहते हैं। किताबें अब पुरानी हो गईं, पुराने जमाने की चीज बन गईं। स्मार्ट होने का यही तो मतलब है, कि आधुनिक बनो, किताबें पढ़ने का झंझट छोड़ो और स्क्रीन पर नजरें जमाओ।
किताबों की हालत देखकर लगता है जैसे शिक्षा तंत्र का मजाक उड़ाया जा रहा हो। कितनी विडंबना है कि जिन किताबों को बच्चों के हाथों में होना चाहिए था, वे नाले में बह रही हैं और बच्चे स्मार्टफोन में व्यस्त हैं। शिक्षा का स्तर गिरता जा रहा है और इसके बावजूद हम स्मार्ट सिटी के नारे लगा रहे हैं। क्या यह विडंबना नहीं कि किताबें जिन्हें बच्चों की ज्ञान का स्रोत होना चाहिए, वे नालों में बह रही हैं और हम इसे स्वच्छ भारत अभियान का हिस्सा मान रहे हैं?
विचार करने वाली बात यह है कि हम कहां जा रहे हैं और किस दिशा में बढ़ रहे हैं। अगर शिक्षा का स्तर ऐसा ही रहा तो आने वाली पीढ़ी का भविष्य क्या होगा? क्या हम वाकई में स्मार्ट बन रहे हैं या फिर सिर्फ नारे और पोस्टर के सहारे जी रहे हैं? किताबों की व्यथा हमारी शिक्षा प्रणाली की असली तस्वीर दिखाती है, जिसे सुधारने की सख्त जरूरत है। तब तक, नाले में बहती इन किताबों की आवाज सुनते रहें और सोचें कि हम अपने बच्चों को कैसा भविष्य दे रहे हैं।
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम व्यंग्य रचना – ”खुसखबरी’ की मार’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 245 ☆
☆ व्यंग्य – ‘खुसखबरी’ की मार ☆
‘हलो!’
‘हलो!’
‘जी, गप्पू दादा से बात कराइए।’
‘हम उनकी वाइफ बोल रहे हैं। वे आराम कर रहे हैं। हमें बताइए, क्या काम है? उनें बता देंगे।’
‘जी, उन्हें एक खुशखबरी देनी थी।’
‘कैसी खुसखबरी?’
‘उन्हें बताइएगा कि जुगाड़ूलाल का फोन आया था। कल शाम पाँच बजे हमें मानस भवन में मंत्री जी के हाथों से पच्चीस हजार का पुरस्कार दिया जाएगा। कार्यक्रम में गप्पू दादा पधारें तो हमें बड़ी खुशी होगी।’
‘आपने इनाम के लिए किसी से सिफारिस करायी होगी।’
‘राम राम! कैसी बातें करती हैं, भाभी! ये हमारी समाज सेवा का इनाम है।’
‘ठीक है। बधाई आपको। लेकिन उन्नें अभी कोई भी खुसखबरी देने से मना किया है।’
‘क्यों भला?’
‘पिछले दो तीन दिन में उनें तीन चार खुसखबरी मिली थीं। उनें सुनके उनकी तबियत खराब हो गयी थी। बोला है कि अभी दो तीन दिन तक उनें कोई खुसखबरी न बतायी जाए।’
‘अरे, यह तो बड़ी गड़बड़ बात है। दोस्तों को खुशखबरी नहीं देंगे तो किसे देंगे?’
‘वो ठीक है, लेकिन ज्यादा खुसखबरी सुनने से उनकी तबियत बिगड़ जाती है। उन्नें कहा है कि उनें हफ्ते में दो तीन खुसखबरी से ज्यादा न बतायी जाएं। इस्से ज्यादा खुसखबरी झेलना उनके बस में नहीं है।’
‘ठीक है, भाभी। आप जब ठीक समझें, उन्हें बताइएगा। उनकी तबियत का ध्यान रखना हमारा फर्ज है। नमस्ते।’
(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना अजीब समस्या।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 8 – मुफ्ताटैक ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
राजस्व विभाग में मेरा काम मुफ्त में हो गया। इतनी खुशी मुझे जीवन में कभी नहीं मिली थी। एक बार के लिए मैं मूर्छित होने वाला था। वो तो मेरे परिजनों ने मुझे सही समय पर डॉक्टर के पास पहुँचाया। डॉक्टर ने मेरे परिजनों को बताया कि मुझे मुफ्ताटैक का दौरा पड़ा है। इन्हें ज्यादा खुश होने के अवसर मत दीजिए। नहीं तो आगे इन पर फिर से इस तरह का दौरा पड़ सकता है।
मुझे घर पर लाया गया। कुछ दिन बीते। एक दिन अचानक मेरी बंजर भूमि के लिए किसान फसल योजना के पैसे मेरे खाते में जमा होने लगे। मैं दिल्ली का किसान हूँ। यहाँ केवल राजनीति नहीं होती। कभी-कभी चमत्कार भी होते हैं। मैंने जीवन में कभी खेती नहीं की। इसलिए बिन उगाई फसल के लिए पैसे मिलने लगे तो किसे खुशी नहीं होगी। मुझे फिर से मुफ्ताटैक का दौरा पड़ने ही वाला था कि बेटे ने आकर बताया कि सरकार ने केवल आधे पैसे जमा किए हैं और आना बाकी है। जैसे-तैसे मैं मुफ्ताटैक से बच पाया।
मैं आधार कार्ड से बूढ़ा हो चला हूँ। इसलिए वृद्ध पेंशन योजना का लाभार्थी हूँ। असलियत में मेरी उम्र कुछ और है। उम्र ऐसी कि मैं कहीं भी नौकरी कर सकता हूँ। लेकिन जब बैठे-बिठाए चार पैसे मिल रहे हों, तो भला कोई नौकरी क्यों करेगा। कभी-कभी मेरा ईमान जाग उठता था। चुल्लू भर पानी में डूब मरने की इच्छा भी होती थी। हाय मैं यह भी न कर सका, क्योंकि सरकार मुफ्त का पानी चुल्लू भर की मात्रा से अधिक देती थी।
मैं अपनी इकाई से कम सरकार की इकाई से ज्यादा चलता हूँ। सरकार ने फलाँ इकाई तक बिजली मुफ्त कर दी थी। इसलिए मैंने उस इकाई को कभी पार नहीं की जहाँ मुझे सरकार को एक रुपया भी देना पड़े। कहते हैं मुफ्त की आदत पड़ जाए तो कैंसर और एड़स की बीमारियाँ भी बौने लगने लगती हैं। कभी-कभी तो लगता है कि मुफ्त की फिनाइल पैसे देकर खरीदे गए दूध से भी अधिक मजा देता होगा। मैं जब भी टीवी चलाता हूँ तो एक नई उम्मीद जाग उठती है कि आज सरकार कौनसी मुफ्त योजना लाने जा रही है। अब मुझे मुफ्तखोरी की आदत पड़ गई है। बीवी-बच्चों को भी मुफ्तभोगी बनने की ट्रेनिंग देता रहता हूँ। वे समझदार हैं। इसीलिए काम की तलाश से ज्यादा मुफ्त स्कीमों की खोज में लगे रहते हैं। मुझे गर्व है कि वे मुझ पर गए हैं। अब तो डॉक्टरों का कहना है कि मुझे मुफ्ताटैक का दौरा नहीं पड़ सकता, क्योंकि उन्होंने मुझे अनंत इच्छाओं की डोज़ वाली दवा लेने की सलाह जो दी है।
(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना अजीब समस्या।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 7 – अजीब समस्या ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
रूढ़ीवादी सोच विज्ञान का मजाक उड़ाने में सबसे आगे होती है। यही कारण था कि उसकी कोख में बच्ची थी। अब आप पूछेंगे कि मुझे कैसे पता? कहीं डॉक्टरों को खिला-पिलाकर मालूम तो नहीं करवा लिया। यदि मैं कहूँ कि उसकी कोख में बच्चा था, तब निश्चित ही आप इस तरह का सवाल नहीं करते। आसानी से मान लेते। हमारे देश में लिंग भेद केवल व्याकरण तक सीमित है। वैचारिक रूप से हम अब भी पुल्लिंगवादी हैं। खैर जो भी हो उसकी कोख में बच्चा था या बच्ची यह तो नौ महीने बाद ही मालूम होने वाला था। चूंकि पहली संतान होने वाली थी सो घर की बुजुर्ग पीढ़ी खानदान का नाम रौशन करने वाले चिराग की प्रतीक्षा कर रही थी। वह क्या है न कि कोख से जन्म लेने वालौ संतान अपने साथ-साथ कुछ न दिखाई देने वाले टैग भी लाती हैं। मसलन लड़का हुआ तो घर का चिराग और लड़की हुई तो घर की लक्ष्मी। कोख का कारक पुल्लिंग वह इस बात से ही अत्यंत प्रसन्न रहता है कि उसके साथ पिता का टैग लग जाएगा, जबकि कोख की पीड़ा सहने वाली ‘वह’ माँ बाद में बनेगी, सहनशील पहले।
घर भर के लोगों को कोख किसी कमरे की तरह लग रहा है। जिसमें कोई सोया है और नौ महीने बाद उनके सपने पूरा करने के लिए जागेगा और बाहर आएगा। सबकी अपनी-अपनी अपेक्षाएँ हैं। सबकी अपनी-अपनी डिमांड है। दादा जी का कहना है कि उनका चिराग आगे चलकर डॉक्टर बनेगा तो दादी का कहनाम है कि वह इंजीनियर बनेगा। चाचा जी का कहना है कि वह अधिकारी बनेगा तो चाची जी उसे कलेक्टर बनता देखना चाहती हैं। पिता उसे बड़ा व्यापारी बनता देखना चाहते हैं तो कोई कुछ तो कुछ। सब अपनी-अपनी इच्छाएँ लादना चाहते हैं, कोई उसे यह पूछना नहीं चाहता कि वह क्या बनना चाहता है। मानो ऐसा लग रहा था कि संतान का जन्म इच्छाओं की पूर्ति करने के लिए हो रहा है, न कि उसे खुद से कुछ करने की।
उसकी कोख में संतान की पीड़ा से अधिक घर भर की डिमांड वाली पीड़ा अधिक सालती है। आँसुओं के भी अपने प्रकार हैं। जो आँसू कोरों से निकलते हैं उसकी भावनात्मक परिभाषा रासायनिक परिभाषा पर हमेशा भारी पड़ती है। वह घर की दीवारों, खिड़कियों और सीलन पर पुरुषवादी सोच का पहरा देख रही है। उसकी कोख पीड़ादायी होती जा रही है। उसमें सामान्य संतान की तुलना में कई डिमांडों की पूर्ति करने वाले यंत्र की आहट सुनाई देती है। ऐसा यंत्र जिसे न रिश्तों से प्रेम है न संस्कृति-सभ्यता से। न प्रकृति से प्रेम है न सुरीले संगीत से। उस यंत्र के जन्म लेते ही रुपयों के झूले में रुपयों का बिस्तर बिछाकर रुपयों का झुंझुना थमा दिया जाएगा और कह दिया जाएगा कि बजाओ जितना बजा सकते हो। बशर्ते कि ध्वनि में रुपए-पैसों की खनखनाहट सुनाई दे। भहे ही रिश्तों के तार टूटकर बिखर जाएँ और अपने पराए लगने लगें। चूंकि जन्म किसी संतान का नहीं यंत्र का होने वाला है, इसलिए सब यांत्रिक रूप से तैयार हैं।
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम व्यंग्य – ‘ग़मे-इश्क और ग़मे-रोज़गार‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 243 ☆
☆ व्यंग्य – ग़मे-इश्क और ग़मे-रोज़गार ☆
आम आदमी के लिए भले ही ‘ग़म’ या ‘दर्द’ या ‘रंज’ नागवार रहा हो, लेकिन शायरों और गीतकारों ने इसे ख़ूब पाला-पोसा है। उनके उनवान से लगता है कि ज़िन्दगी में ग़म न हो तो ज़िन्दगी दोज़ख हो जाए। शायरों और गीतकारों के लिए ग़म ख़ूबसूरत भी है और मीठा भी। फिल्मी गीतों के नमूने देखिए— ‘शुक्रिया अय प्यार तेरा, दिल को कितना ख़ूबसूरत ग़म दिया।’ और, ‘एक परदेसी मेरा दिल ले गया, जाते-जाते मीठा मीठा ग़म दे गया।’
यह ग़म या दर्द शायरों को बेतरह परेशान करता रहा है। न इसका कारण समझ में आता है, न उपचार। प्रमाण के तौर पर ‘ग़ालिब’ को देखें— ‘दिले नादाँ तुझे हुआ क्या है, आख़िर इस दर्द की दवा क्या है?’
ज़ाहिर है कि यह ग़म या दर्द इश्क से पैदा होने वाला ग़म है, इसका ग़मे-रोजगार से कोई ताल्लुक़ नहीं है। ग़मे-रोज़गार से उलट यह ग़म सुकून और चैन देने वाला होता है, इसीलिए शायर उससे निजात पाने की ख्वाहिश नहीं रखता।
शायरों,गीतकारों की ज़िन्दगी में ग़मों की आवाजाही बनी रहती है। एक फ़िल्मी गीतकार ने लिखा— ‘घर से चले थे हम तो ख़ुशी की तलाश में, ग़म राह में खड़े थे वही साथ हो लिये।’ हालत यह होती है कि ग़म या दर्द ज़िन्दगी का ज़रूरी हिस्सा बन जाते हैं। एक फ़िल्मी गीत का मुलाहिज़ा करें—‘मुझे ग़म भी उनका अज़ीज़ है, कि उन्हीं की दी हुई चीज़ है। यही ग़म है अब मेरी ज़िन्दगी,इसे कैसे दिल से जुदा करूँ?’ यानी महबूबा को प्रेमी का दिया हुआ ग़म भी इतना प्यारा है कि उसे दिल से जुदा करना मुश्किल हो जाता है।
एक और फ़िल्म में नायिका फ़रमाती है— ‘न मिलता ग़म तो बरबादी के अफ़साने कहाँ जाते, अगर दुनिया चमन होती तो वीराने कहाँ जाते?’ मतलब यह कि ज़िन्दगी में बरबादी के अफ़साने ज़रूरी हैं और उनकी पैदावार के लिए ग़मों का होना ज़रूरी है। अगर चमन ज़रूरी हैं तो वीराने भी ज़रूरी हैं।
इसी गीत में आगे देखें—‘तुम्हीं ने ग़म की दौलत दी, बड़ा एहसान फ़रमाया। ज़माने भर के आगे हाथ फैलाने कहाँ जाते?’ यानी ग़म न हों तो ग़मों को हासिल करने के लिए ज़माने के आगे हाथ फैलाने की नौबत आ सकती है।
एक और नायिका ग़मों से मिली समृद्धि से गद्गद है— ‘दिल को दिये जो दाग़, जिगर को दिये जो दर्द, इन दौलतों से हमने ख़ज़ाने बना लिये।’ यानी, दूसरों के लिए भले ही ग़म या दर्द तक़लीफ़देह हों, नायिका के लिए वे ख़ज़ाने से कम नहीं हैं।
दर्द की स्वाभाविकता के बारे में ‘ग़ालिब’ ने लिखा, ‘दिल ही तो है न संगो-ख़िश्त, दर्द से भर न आये क्यों : रोयेंगे हम हज़ार बार, कोई हमें सताये क्यों?’ और, ‘दर्द मिन्नत कशे दवा न हुआ, मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ।’
मतलब यह कि मेरे दर्द का अच्छा न होना बेहतर है क्योंकि मुझे दवा का मोहताज नहीं होना पड़ा।
प्रेमी के प्रति नायिका का लगाव इस मयार का है कि नायिका प्रेमी से इल्तिजा करती है कि वह अपने दुख उसे देकर हल्का हो जाए। ‘तुम अपने रंजो-ग़म, अपनी परेशानी मुझे दे दो।’ और, ‘अगर मुझसे मुहब्बत है, मुझे सब अपने ग़म दे दो।’ वैसे यह समझना मुश्किल है कि ग़मों का स्थानांतरण कैसे हो सकता है। ग़म अगर कर्ज़- वर्ज़ का है तो बात अलहदा है।
हमारे शायरों ने ज़िन्दगी में ग़म को बहुत तरजीह दी। ‘शकील’ साहब ने लिखा— ‘मेरी ज़िन्दगी है ज़ालिम तेरे ग़म से आशकारा, तेरा ग़म है दर हकीकत मुझे ज़िन्दगी से प्यारा।’
एक दिलचस्प थियरी हमारे शायरों ने पेश की है, जिस पर आज के औषधि-विशेषज्ञों को तवज्जो देना चाहिए। अनेक शायरों का मत है कि दर्द हद से गुज़र जाए तो ख़ुद ही दवा बन जाता है। ‘ग़ालिब’ ने लिखा— ‘इशरते क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना, दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना।’ दूसरी जगह ‘ग़ालिब’ लिखते हैं—‘रंज से ख़ूगर हुआ इंसाँ तो मिट जाता है रंज, मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसाँ हो गयीं।’
शायर का मक़सद शायद यह है कि दर्द या ग़म के हद से गुज़रने पर आदमी उसका आदी हो जाता है, जो बड़ी सीमा तक सच भी है। हर दिल अज़ीज़ गायक तलत महमूद के जिस गीत में ‘ख़ूबसूरत ग़म’ देने के लिए प्यार का शुक्रिया अदा किया गया है, उसी में आगे गीतकार कहता है— ‘आँख को आँसू दिये जो मोतियों से कम नहीं, दिल को इतने ग़म दिये कि अब मुझे कोई ग़म नहीं।’
इसी तबियत के एक गीत की पंक्ति है— ‘ये दर्द दवा बन जाएगा, इक दिन जो पुराना हो जाए।’ लेकिन गीत के रचने वाले ने यह नहीं बताया कि दर्द से निजात देने वाला वह शुभ दिन कब आएगा।
शायर ‘जिगर’ मुरादाबादी एक कदम आगे बढ़ जाते हैं। उन्हें उनका दर्द मज़ा देने लगता है— ‘आदत के बाद दर्द भी देने लगा मज़ा, हँस हँस के आह आह किये जा रहा हूँ मैं।’ इसी रंग के एक फ़िल्मी गीत के बोल हैं— ‘जब ग़मे इश्क सताता है तो हँस लेता हूँ।’
एक दूसरी ग़ज़ल में, जिसे बेगम अख़्तर ने अपना ख़ूबसूरत स्वर दिया, ‘जिगर’ फ़रमाते हैं— ‘तबीयत इन दिनों बेगानए ग़म होती जाती है, मेरे हिस्से की गोया हर ख़ुशी कम होती जाती है।’ यानी ज़िन्दगी में ग़म के न रहने से ख़ुशियाँ भी घटती जाती हैं। ग़रज़ यह कि ख़ुशियाँ ग़मों पर ही मुनहसिर हैं।
ग़ालिब ने लिखा— ‘इश्क से तबीयत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया, दर्द की दवा पायी, दर्द बे-दवा पाया।’ यानी इश्क से ज़िन्दगी का मज़ा भी मिला और दर्द की दवा और लाइलाज दर्द भी।
प्रेमी के लिए दर्दे-इश्क इतना ज़रूरी है कि सोये दर्द को जगाया जाता है— ‘जाग दर्दे इश्क जाग। दिल को बेक़रार कर, छेड़ के आँसुओं का राग।’
कहने की ज़रूरत नहीं कि ये ग़म और दर्द इश्के-मजाज़ी से पैदा होते हैं, इनका ताल्लुक़ ग़मे-रोज़गार से क़तई नहीं है। ग़मे- रोज़गार से यह ख़ूबसूरत और मीठा-मीठा दर्द हासिल होना मुमकिन नहीं है। ‘ग़ालिब’ ने लिखा कि किसी न किसी ग़म में मुब्तिला होना इंसान की नियति है— ‘ग़मे इश्क गर न होता, ग़मे रोज़गार होता।’
लेकिन सब शायर ग़म को ओढ़ने- बिछाने के क़ायल नहीं हैं। उनके लिए ग़म कोई पालने-पोसने की चीज़ नहीं है। शायर जाँनिसार अख़्तर लिखते हैं— ‘ग़म की अँधेरी रात में, दिल को न बेक़रार कर, सुबह ज़रूर आएगी, सुबह का इन्तज़ार कर।’
और वह ‘फ़ैज़’ साहब का सदाबहार शेर— ‘दिल नाउमीद तो नहीं, नाकाम ही तो है। लंबी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है।’
‘ग़ालिब’ के फलसफ़े के अनुसार ग़म ज़िन्दगी का ज़रूरी हिस्सा हैं, उन्हें ज़िन्दगी से अलग करना मुमकिन नहीं है— ‘क़ैदे हयात बन्दे ग़म अस्ल में दोनों एक हैं, मौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाये क्यों?’
‘फ़ैज़’ साहब की एक और मशहूर नज़्म, जिसे महान गायिका नूरजहाँ ने स्वर देकर अमर बना दिया, का शेर है— ‘और भी ग़म हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा, राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा।’ वहीं एक दूसरी तबियत का, प्यारा शेर, शायर अमीर ‘मीनाई’ का है— ‘ख़ंजर चले किसी पे, तड़पते हैं हम अमीर, सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है।’
ग़म को पालने-पोसने वाला क्लासिक पात्र मशहूर अंग्रेज़ उपन्यासकार चार्ल्स डिकेंस के उपन्यास ‘ग्रेट एक्सपेक्टेशंस’ में मिस हैविशाम के रूप में मिलता है। मिस हैविशाम का प्रेमी उन्हें धोखा देकर उस वक्त भाग जाता है जब वे शादी की पूरी तैयारियों के साथ उसका इंतज़ार कर रही थीं। उसके धोखे की ख़बर पाकर मिस हैविशाम ने समय को उसी क्षण पर रोक देने की कोशिश की। घर की घड़ियाँ उसी क्षण पर रोक दी गयीं, वे जीवन भर शादी की वही पोशाक पहने रहीं, शादी की केक पर मकड़जाले तन गये, एक जूता पैर में और एक मेज़ पर ही रहा। लेकिन उनकी सारी कोशिशों के बावजूद वक्त उनकी बन्द मुट्ठी से रिसता गया और धीरे-धीरे वे बूढ़ी हो गयीं।