हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ तंजखोर शब्दों की बीमारी ! ☆ श्री राकेश सोहम

श्री राकेश सोहम

( श्री राकेश सोहम जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है।  श्री राकेश सोहम जी  की संक्षिप्त साहित्यिक यात्रा कुछ इस प्रकार है – 

साहित्य एवं प्रकाशन – ☆ व्यंग्यकार प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं, कथाओं आदि का स्फुट प्रकाशन आकाशवाणी और दूरदर्शन से प्रसारण बाल रचनाकार प्रतिष्ठित मासिक पत्रिका और दैनिक अखबार के लिए स्तंभ लेखन दूरदर्शन में प्रसारित धारावाहिक की कुछ कड़ियों का लेखन बाल उपन्यास का धारावाहिक प्रकाशन अनकहे अहसास और क्षितिज की ओर काव्य संकलनों में कविताएँ प्रकाशित व्यंग्य संग्रह ‘टांग अड़ाने का सुख’ प्रकाशनाधीन।

पुरस्कार / अलंकरण – ☆ विशेष दिशा भारती सम्मान यश अर्चन सम्मान संचार शिरोमणि सम्मान विशिष्ठ सेवा संचार पदक

☆ व्यंग्य – तंजखोर शब्दों की बीमारी ! 

(हम आभारी है  व्यंग्य को समर्पित  “व्यंग्यम संस्था, जबलपुर” के जिन्होंने  30 मई  2020 ‘ की  गूगल  मीटिंग  तकनीक द्वारा आयोजित  “व्यंग्यम मासिक गोष्ठी’”में  प्रतिष्ठित व्यंग्यकारों की कृतियों को  हमारे पाठकों से साझा करने का अवसर दिया है।  इसी कड़ी में  प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध लेखक/व्यंग्यकार श्री राकेश सोहम जी का  एक  विचारणीय व्यंग्य – तंजखोर शब्दों की बीमारी !।  कृपया  रचना में निहित सकारात्मक दृष्टिकोण को आत्मसात करें )

कविता सृजन के मध्य कुछ शब्द व्यंग्य से निकल कर शरणागत हुए. वे उनींदे और परेशान थे. प्रतिदिन देर रात तक जागना. किसी पर पर तंज कसने के लिए अपने आप को तैयार करना. फिर अलसुबह निकल जाना. उनके चेहरों पर कटाक्ष से उपजीं तनाव की लकीरें स्पष्ट दिख रहीं थीं. व्यंग्य के पैनेपन को सम्हालते हुए वे भोथरे हो चले थे.

ये शब्द, ससमूह तकलीफों का गान करने लगे. कुछ ने कहा कि वे समाज को कुछ देने की बजाए कभी राजनीति को पोसते, और कभी कोसते है. व्यवस्थाओं पर राजनीतिक तंज और अकड़बाज़ी दिखाते-दिखाते उनकी तासीर ही अकड़कर कठोर हो चली है. वे प्रतिदिन सैकड़ों हज़ारों की संख्या में व्यंग्य के तीर बनकर निशाने से चूक जाते है. व्यवस्थाओं को सुधारने में असमर्थ पाते है. व्यवस्थाएं केवल और केवल राजनीतिक मुद्दा बन कर रह गयीं हैं. इन्हें चुनावों के दौरान भुनाया जाता है. ये शब्द प्रतिदिवस अखबारों में बैठकर केवल चटखारे बन कर रह गए है. उनके पैनेपन से, उनकी चुभन से जिम्मेदार आला दर्जे के लोग अब दर्द महसूस नहीं करते. अजीब तरह का आनंद अनुभव करते हैं. बल्कि ये लोग उम्मीद करते हैं कि अगली सुबह उन पर निशाना कसा जाएगा और वे चर्चा में बने रहने का सुख भोग पाएंगे.

कठोर मानसिकता से बीमार अनेक शब्द सीनाजोरी पर उतर आए. बहुत समझाने पर भी वे माने नहीं. मांगे मनवाने हेतु जोर आजमाईश पर उतारू हो गए. कवि विचलित हो गया. अतः उनकी इच्छा जाननी चाही. वे बोले कि उन्हें व्यंग्य से निजात दिला दी जाए और कविता में बिठा दिया जाए. उन्हें अपनी बीमार कठोरता से मुक्ति चाहिए.

‘ऐसा क्यों? कविता में क्यों बैठना चाहते है !’, कवि ने फिर पूछा. वे समवेत स्वर में बोल पड़े, ‘क्योंकि कविता स्त्रैण होती है. वह कोमल होती है. सुन्दर और सुवासित होती है. कविता में सरलता और तरलता दोनों होती है, इसलिए.’

कवि ने समझाया, ‘ऐसा नहीं है कि कविता स्त्रैण है इसलिए उसमें कठोरता का कोई स्थान नहीं है. वह कोमल है ज़रूर किन्तु कमज़ोर नहीं है. वह सबला है. आज की स्त्री पुरषोंचित सामर्थ्य जुटाने में सक्षम है. उसे अपना हक़ लेना आ गया है. ज्यादतियों के विरोध में स्वर सुनाई देने लगे है. कविता का तंज व्यंग्य की मार से कमतर नहीं है. कविता दिल से उपजती है और व्यंग्य दिमाग से. इसलिए तुम्हारी मांगें अनुचित है. व्यवस्थाओं के सुधार के लिए दिल-दिमाग दोनों चाहिए.’

व्यंग्य से पलायनवादी शब्द अपने भोथरेपन के साथ निशब्द होकर लौट गए.

 

©  राकेश सोहम्

एल – 16 , देवयानी काम्प्लेक्स, जय नगर , गढ़ा रोड , जबलपुर [म.प्र ]

फ़ोन : 0761 -2416901 मोब : 08275087650

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 53 ☆ व्यंग्य – वेलकम बैक डियर मेड ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक अतिसुन्दर एवं समसामयिक व्यंग्य   “वेलकम बैक डियर मेड।  श्री विवेक जी  ने आज के समय का सजीव चित्रण कर दिया है।  हमें वास्तव में यह स्वीकार करना चाहिए कि हमें कोरोना के साथ ही अपने और परिवार के ही नहीं  अपितु सारे समाज और मानवता के हित में  स्वसुरक्षा का ध्यान रखना ही पड़ेगा। श्री विवेक जी की लेखनी को इस अतिसुन्दर  व्यंग्य के  लिए नमन । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 53 ☆ 

☆ व्यंग्य – वेलकम बैक डियर मेड ☆

 

मेड के बिना लाकडाउन में घर के सारे सदस्य और खासकर मैडम मैड हो रही हैं. मेड को स्वयं कोरोना से बचने के पाठ सिखा पढ़ाकर खुशी खुशी सवैतनिक अवकाश पर भेजने वाली मैडम ही नहीं श्रीमान जी भी लाकडाउन खुलते ही इस तरह वेलकम बैक डियर मेड करते दिख रहे हैं, मानो कोरोना की वैक्सीन मिल गई हो. मेड की महिमा, उसका महात्म्य कोरोना ने हर घर को समझा दिया है. जब खुद झाड़ू पोंछा, बर्तन, खाना नाश्ता, कपड़े, काल बेल बजते ही बाहर जाकर देखना कि दरवाजे पर कौन है, यह सब करना पड़ा तब समझ आया कि इन सारे कथित नान प्राडक्टिव कामों का तो दिन भर कभी अंत ही नही होता. ये काम तो हनुमान जी की पूंछ की तरह बढ़ते ही जाते हैं. जो बुद्धिजीवी विचारवान लोग हैं, उन्हें लगा कि वाकई मेड का वेतन बढ़ा दिया जाना चाहिये. कारपोरेट सोच वाले मैनेजर दम्पति को समझ आ गया कि असंगठित क्षेत्र की सबसे अधिक महत्वपूर्ण इकाई होती है मेड. बिना झोपड़ियों के बहुमंजिला अट्टालिकायें कितनी बेबस और लाचार हो जाती हैं, यह बात कोरोना टाईम ने एक्सप्लेन कर दिखाई है. भारतीय परिवेश में हाउस मेड एक अनिवार्यता है. हमारा सामाजिक ताना बाना इस तरह बुना हुआ है कि हाउस मेड यानी काम वाली हमारे घर की सदस्य सी बन जाती है. जिसे अच्छे स्वभाव की, साफसुथरा काम करने वाली, विश्वसनीय मेड मिल जावे उसके बड़े भाग्य होते हैं. हमारे देश की ईकानामी इस परस्पर भरोसे में गुंथी हुई अंतहीन माला सी है. किस परिवार में कितने सालों से मेड टिकी हुई है, यह बात उस परिवार के सदस्यो के व्यवहार का अलिखित मापदण्ड और विशेष रूप से गृहणी की सदाशयता की द्योतक होती है.

विदेशों में तो ज्यादातर परिवार अपना काम खुद करते ही हैं, वे पहले से ही आत्मनिर्भर हैं. पर कोरोना ने हम सब को स्वाबलंब की नई शिक्षा बिल्कुल मुफ्त दे डाली है. विदेशो में मेड लक्जरी होती है. जब बच्चे बहुत छोटे हों तब मजबूरी में  हाउस मेड रखी जाती हैं. मेड की बड़ी डिग्निटी होती है. उसे वीकली आफ भी मिलता है. वह घर के सदस्य की तरह बराबरी से रहती है. कुछ पाकिस्तानी, भारतीय युवाओ ने जो पति पत्नी दोनो विदेशो में कार्यरत हैं, एक राह निकाल ली है, वे मेड रखने की बनिस्पत बारी बारी से अपने माता पिता को अपने पास बुला लेते हैं. बच्चे के दादा दादी, नाना नानी को पोते पोती के सानिध्य का सुख मिल जाता है, विदेश यात्रा और कुछ घूमना फिरना भी बोनस में हो जाता है, बच्चो का मेड पर होने वाला खर्च बच जाता है.

कोरोना के आते ही सब यकायक डर गये. बचपन में हौवा से बहुत डराया जाता था, सचमुच कोरोना हौवा के रूप में आ गया. लगा कि थाली बजाने से, दिये जलाने से, मेड को सवैतनिक अवकाश दे देने से हम कोरोना संकट से निपट लेंगें. पर लाकडाउन एक, दो, तीन, चार बढ़ते ही गये कोरोना है कि जाने का नाम ही नही ले रहा. श्रीमती जी की छिपी अल्प बचत के जमा रुपये खतम होने लगे. सरकार का असर बेकार होने लगा, डाक्टर्स थकने लगे, पोलिस वाले लाचार होने लगे, तब कोरोना के साथ जीने का फार्मूला ढ़ूंढ़ा गया. अनलाक शुरू हुआ. कुछ को लग रहा है  जैसे कर्फ्यू खतम, उन्हें समझना जरूरी है कि लाकडाउन से कोरोना से निपटने की जनजागृति भर आ पाई है , कोरोना गया नही है. अब हमारी सुरक्षा हमें स्वयं ही करनी है, पर फिलहाल तो हम इसी में खुश हैं कि मास्क के घूंघट और हैंडवाश की मेंहदी के संग हमारी कामवाली फिर से बुला ली गई है, हम सब समवेत स्वर में कह रहे हैं वेलकम बैक डियर मेड.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 21 ☆ लॉक और अनलॉक के बीच झूलती जिंदगी☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं प्रेरणास्पद रचना “लॉक और अनलॉक के बीच झूलती जिंदगी।  वास्तव में रचना में चर्चित ” हेल्पिंग  हैंड्स” और समाज एक दूसरे के पूरक हैं। यदि समाज अपना कर्तव्य नहीं निभाएगा तो लोगों का मानवता पर से विश्वास उठ जायेगा। इस समसामयिक सार्थक रचना के लिए  श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन ।

आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 21 ☆

☆ लॉक और अनलॉक के बीच झूलती जिंदगी

जबसे रमाशंकर जी ने अनलॉक -1 की खबर सुनी तभी से उन्होंने अपने सारे साठोत्तरीय दोस्तों को मैसेज कर दिया कि अब हम लोग आपस में मिल सकते हैं ;  मॉर्निंग वॉक पर, गार्डन में व चाय की चुस्कियों के साथ चाय वाले के टपरे पर,  जो बहुत दिनों से बंद था।

सभी दोस्तों की ओर से सहमति भी मिल गयी।

अब तो सुबह 5 बजे से ही सब लोग मास्क लगा कर, दूरी को मेंटेन करते हुए चल पड़े टहलने के लिए। अक्सर ही जब वे टहल कर थक जाते तो वहाँ पास में ही बने टपरे पर बैठकर चाय बिस्किट का आनंद लेते हुए नोक झोक करते थे। पर आज तो पूरा सूना सपाटा था। कहाँ तो लाइन से अंकुरित अनाज का ठेला, ताजे फलों के जूस का ठेला व और भी कई लोग आ जाते थे।

अब क्या करें यही प्रश्न भरी निगाहें एक दूसरे को देख रहीं थीं।

रमाशंकर जी ने कहा ” हम लोगों से चूक हो गयी, हमने सबके बारे में तो सोचा पर इधर ध्यान ही नहीं गया कि ये लोग बेचारे क्या करेंगे। हमारी सुबह को सुखद बनाने वाले परेशान होते रहे और हम लोग घरों में ही रहकर लॉक डाउन का आनंद लेते रहे।

हाँ, ये चूक तो हुयी, सभी ने एक स्वर से कहा।

अब चलो वहाँ बैठे गार्ड से पूछते हैं, ये लोग कहाँ मिलेंगे ?

सभी गार्डन की देखभाल करने वाले गार्ड के पास गए तो उसने बताया कि ये लोग अपने गाँव चले गए। जहाँ रहते थे,वहाँ मकान मालिक परेशान करते थे। खाना तो समाज सेवी संस्था से मिल रहा था किंतु रहने की दिक्कत के चलते क्या करते।

गार्डन भी तो कितना अस्त- व्यस्त लग रहा है, रमाशंकर जी ने कहा।

यही तो माली काका के साथ भी हुआ। उनको भी एक महीने का वेतन तो मिल गया था, उसके बाद का आधा ही मिला। वैसे तो कोई न कोई और भी काम कर लेते थे पर इस समय वो भी बंद, रहने की दिक्कत भी हो रही थी सो वे भी चले गए, गार्ड ने बताया।

क्या किया जाए, ये महामारी बिना लॉक डाउन जाती ही नहीं, इसलिए ये तो जरूरी था, रमाशंकर जी ने कहा।

आज देखो सब लोग घूमते दिख रहे हैं, बस वही लोग जो हमारे हेल्पिंग हैंड थे वे ही नहीं हैं क्योंकि जो मदद हम घरों में रहकर कर सकते थे उस ओर हमने ध्यान नहीं दिया,  रमाशंकर जी ने कहा।

कोई बात नहीं साहब, अब भी अगर आप लोग चाहें तो सब ठीक हो सकता है। इनका पता लगाइए, ये जहाँ रहते थे उनके पास इन लोगों का मो. न. अवश्य होगा, इन्हें फिर से हिम्मत दिलाइये कि ये शहर इनका अपना है, हम लोगों से भूल हुई है, इन्हें इनका व्यवसाय स्थापित करने में  सक्षम लोग यदि थोड़ी -थोड़ी भी मदद करें तो फिर से ये शहर चहकने – महकने लगेगा, गार्ड ने कहा।

तुमने तो हम सबकी आँखें खोल दी। तुम्हें सैल्यूट है। हम लोग मिलकर अवश्य ही अपना दायित्व निर्वाह करेंगे, सभी ने एक स्वर में कहा।

 

© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ सस्ते का चक्कर ☆ डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। 

☆ व्यंग्य – सस्ते का चक्कर

(हम आभारी है  व्यंग्य को समर्पित  “व्यंग्यम संस्था, जबलपुर” के जिन्होंने  30 मई  2020 ‘ की  गूगल  मीटिंग  तकनीक द्वारा आयोजित  “व्यंग्यम मासिक गोष्ठी’”में  प्रतिष्ठित व्यंग्यकारों की कृतियों को  हमारे पाठकों से साझा करने का अवसर दिया है।  इसी कड़ी में  प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध लेखक/व्यंग्यकार डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी का  बुंदेली भाषा का पुट लिए एक  विचारणीय व्यंग्य – “सस्ते का चक्कर”।  कृपया  रचना में निहित मानवीय दृष्टिकोण को आत्मसात करें )

 

काय बड्डे, जो का हो गओ?

कल तक तो बड़ी-बड़ी डींगें हाँकत रहे! आज इते दुबके बैठे हो। रामू ने जगदीश से कहा।

जगदीश बोला: कुछ मत पूछो रामू। किस्सू भैया का दाँव उल्टा पड़ गया। जिस नेता को ये अपना सगा समझते थे, उन्होंने ही कन्नी काट ली। जिनकी दम पर ये उछल कूद मचाते रहते थे, उन्होंने ही अपना हाथ खींच लिया, बस इतना पता चलते ही अगले दिन बजरंगी महाराज ने चढ़ाई कर दी। चार-छह लठैत-कट्टाधारी साथ में लाये और चौराहे वाला मकान खाली करवा दिया। किस्सू भैया की एक न चली। भीगी बिल्ली बने सिकुड़े खड़े रहे।

रामू बोला: हमाई जा समझ में नईं आबे कि जब लड़बे-झगड़बे की औकातई नैयाँ तो औरों के दम पे।  जे किस्सू भैया काय इतरात रहे। कछु अपनी भी दम  भी भओ चहिए।

जगदीश बोले: बात तो आपने सही कही रामू , लेकिन किस्सू भैया पार्षद की टिकिट के जुगाड़ में लगे हैं। अपना दबदबा बढ़ाने के चक्कर में मौका पाकर अपने से कमजोरों पर रौब झाड़ने लगते हैं। अब इस बार जब इनके नेता जी ने खुद ही पार्टी बदल ली तो सारे समीकरण बदल गए।  भला ऐसे समय में किस्सू जैसे छुटभैयों के चक्कर में कोई अपनी लुटिया क्यों डुबोयेगा। आखिर किस्सू भैया के नेता जी को भी तो नई पार्टी में अपनी साख जमाना है। वैसे सही बात तो ये है कि किस्सू के पास कोई दमदारी या धन-दौलत तो है नहीं। जीवन भर चमचागिरी ही करते आये हैं। दो-चार बड़े नेताओं से परिचय क्या हो गया, टिकट की दावेदारी ठोकने लगे।

रामू बोला: तो अब का बचो है इनके पास?

किस्सू भैया ने पानी पी-पीकर जितनो कोसो है दूसरी पार्टी वालों खें, अब वे इन्हें अपने पास तक नें बिठेंहें, टिकट की बात तो बहुत दूर की है। इनकी ओछीं हरकतें, चाहे जब मार-पीट, लड़ाई-झगड़े और जा कलई की बेइज्जती कम है का। इनकी पार्टी वाले भी इन्हें टिकट देबे की पहलऊँ सौ बार सोचहें। बेचारे किस्सू भैया। का सोचत रयै और का हो गओ। अब तो तुम्हाये किस्सू न घर के रहे नें घाट के, तुम्हईं बताओ हम सही कै रये की नईं।

जगदीश: अरे भाई, मैं क्या बताऊँ। मैं कोई नेता-वेता तो हूँ नहीं। पड़ोसी होने के नाते साथ में उठना-बैठना तो पड़ता ही है न। अब कल से सीधे दुकान ही जाया करूँगा और अपना धंधा में अपना ध्यान लगाऊँगा।

रामू: और जो किस्सू भैया ने तुम्हें ओई चौरस्ते बारे मकान खें सस्ते में दिलाबे की बात कही ती, अब ओ को का करहो?

जगदीश: अरे रामू भैया, अब छोड़ो उस बात को, अब जो पैसे हमने उन्हें दिए थे, वे तो डूबे ही समझ लो, कोई लिखा पढ़ी तो की नहीं थी। और फिर किस्सू जैसे लोगों से पैसे वापस लेना टेढ़ी खीर है।

हमें तो इस विपदा की घड़ी में  कोई रास्ता ही सुझाई नहीं दे रहा है।

रामू: अच्छा तुम्हईं बताओ जगदीश भैया कि हमनें तुम्हें कितनी बार समझाओ रहो कि अपनी दुकान की तरफ ध्यान लगाओ लेकिन तुमने लालच के चक्कर में एकऊ नें मानी। अब खुदई भुगतो और घर बारों को भी अलसेट में डालो। अब हमारी एक सलाह मानो, आज के बाद तुम भूल खें भी बो किस्सू के पास नें जईयो, गए तो बो उल्टे चार-छह लात-घूँसे मार खें भगा देहे और यदि तुमने थाने में रिपोट लिखबा भी दई तो ओ के डर से तुम्हें कोई गवाह तक नें मिलहे।

जगदीश: अरे भाई, आप भी न, सांत्वना और समझाने की जगह हमें डरा रहे हो। कोई उपाय हो तो वह बताओ।

रामू: सुनो जगदीश भैया, किस्सू को पैसा देने के पहले  तुमने हमसे पूछी रही का? कोई सलाह लई रही का? अब तुम उनके चंगुल में फँस गए हो तो अब हम का बताएँ तुम्हें। अब तो बस उन पैसों खें भूलई जाओ और भगवान के ऊपर छोड़ दो। कायसें के कभऊ किस्सू खें  सद्बुद्धि आई तो बो लौटा भी सकत है।

जगदीश: काश रामू, मैंने अपनी घरवाली की बात मान ली होती तो ये दिनन देखना न पड़ते। अब तो वो महीनों रोज सौ-सौ सुनाएगी। पैसों की अलग चिंता और अब बीवी के दिनरात ताने, कहाँ फँस गया मैं रामू!

रामू: और ले लो सस्ते में मकान। सस्ते का चक्कर होता ही ऐसा है जिसमें अक्सर लुटिया डूबतई है। भैया हम भले और हमारी मजदूरी भली। हम तो घरें जात हें, पेट में चूहे कूद रयै हें।

और  बैठ लो अपने किस्सू भैया के संगे। हमारी मानो तो अब ओ से सौ गज दूरई रहियो!!! जाते जाते एक और सलाह दे गया रामू..

यहाँ जगदीश के दिमाग में किस्सू भैया, नेता जी, बजरंगी महाराज, मकान, डूबे पैसे, रामू के कटाक्ष, और बीवी के ताने चलचित्र की भाँति दिखाई दे रहे थे। जगदीश अब किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में था।

 

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ मैं भी पोते का दादा हूँ ☆ श्री रमेश सैनी

श्री रमेश सैनी

(हम आभारी है  व्यंग्य को समर्पित  “व्यंग्यम संस्था, जबलपुर” के जिन्होंने  30 मई  2020 ‘ की  गूगल  मीटिंग  तकनीक द्वारा आयोजित  “व्यंग्यम मासिक गोष्ठी'”में  प्रतिष्ठित व्यंग्यकारों की कृतियों को  हमारे पाठकों से साझा करने का अवसर दिया है।  इसी कड़ी में  प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध लेखक/व्यंग्यकार श्री रमेश सैनी जी का  एक समसामयिक एवं विचारणीय भावप्रवण व्यंग्य – “मैं भी पोते का दादा हूँ”।  कृपया  रचना में निहित मानवीय दृष्टिकोण को आत्मसात करें )

☆ मैं भी पोते का दादा हूँ ☆

कोरोना का लाकडाउन चालू है.. बाजार बंद हैं. चारों तरफ मातमी सन्नाटा है. पुलिस जगह जगह मुस्तैद है. आवाजाही पूर्णतया बंद है. कुछ बहादुर लोग नियमों को तोड़ने के लिए सड़क पर घूमते नज़र आ रहे हैं. ये लोग शेखी बघारने निकलते हैं. पुलिस के पास भी इनका इंतजाम है. कहीं पर ऊठक बैठक हो रही है, कहीं पर कान पकड़कर कसरत कराई जा रही है. कहीं पर लोग अपने पिछवाड़े पर हाथ रखकर दौड़ते नजर आ रहे हैं और जो लोग बच जाते हैं. वे फोन पर परिचितों को आँखों देखा हाल सुना रहे हैं. ये सब किस्से घरों में आम है. मै भी घर पर बैठा बैठा बोर हो रहा हूँ. बाहर घूमने की तलब बढ़ गई है. मुझे याद है, शहर में दंगे फसाद के समय दुस्साहस कर घुस जाता था. मुझे रोमांच लगता था. अभी भी मेरा मन बाहर जाने के लिए भड़भड़ा रहा है. सोचा चौराहे तक का चक्कर लगा आऊं. जैसे ही बाहर निकलने के लिए कदम बढ़ाए कि पीछे से आवाज आई.

“आप कहाँ चल दिए”-बेटे ने टोंका

” वैसे ही! थोड़ा माहौल का जायजा ले लूँ.”

“ठीक है, बाहर दुनिया ठीक चल रही है. सरकार ने जायजे के लिए पुलिस का बढ़िया इंतजाम कर रखा है. आप बिलकुल चिंता न करें. आपको अपनी उम्र का ख्याल रखना चाहिए. सरकार आप लोगों की चिंता में परेशान है. इतनी चेतावनी और एडवाइजरी जारी कर रही है पर आप लोग मानते ही नहीं.” – बेटे ने चिड़चिड़ा कर कहा.

“बेटा! अपनी उम्र का ख्याल रखता हूँ. यह इंडिया है दूसरे लोग भी हमारे बालों का ख्याल रखते हैं.” मैंने कहा.

तब उसने कहा- “आप लोग भी अपने बालों से बेज़ा फायदा उठाने में बाज नहीं आते” उसकी बात सुनकर मन खिन्न हो गया मैं वापस आकर सोफे पर बैठ गया. मुझे उदास बैठा देखकर बेटे ने फिर कहा “देखिए ! आपको मैं रोक तो नहीं पाऊंगा. अत: आप पूरी सावधानी के साथ चौराहे तक जाएं और दस मिनट में लौट के आज जाएं.” मैं खुश हो गया और जाने के लिए बाहर निकलने लगा. पीछे से आवाज आई – “दादू आप कहां जा रहे हैं. मेरे लिए कुछ फल ले आना. यह आवाज मेरे पोते कृष्णा की थी. मैं खुश था और इशारे से कहा-” हां ठीक ले आऊंगा”

मैं स्कूटी से चौराहे के पास पहुंचा है. सामने पुलिस ही पुलिस नजर आ रही थी. मुझे दूर से ही देख कर एक जवान पुलिस वाले ने इशारा किया. “रुक जाओ”. मैं उसके पास जाकर रुक गया. मुझे पास आते देख, वह पीछे हट गया. फिर उसने दूर से ही मेरा ऊपर से नीचे तक मुआयना  किया.  उसकी नजर मेरे सर पर गई. सिर पर पूरे सफेद बाल  देखते ही उसने हाथ जोड़कर कहा -“अंकल कहां जा रहे हैं?”

“बेटा ! पोते के लिए फल लेने निकला हूँ” मैंने कहा.

“आप भी अंकल! अरे मोहल्ले में फल वाले निकलते होंगे” उसकी मिठास भरी आवाज मुझे अंदर तक ठंडा कर गई. पुलिस का यह रूप देखकर मैं चकित हो गया. मैंने सोचा यह करोना  किसी से कुछ भी करवा सकता है. पुलिस वालों के सामने गरीब, अमीर ,जवान और बुड्ढे सब बराबर है. सच्चा समाजवाद यहीं है. ये लोग सिर्फ मनीपावर से डरते हैं.

“बेटा बहुत दिन से नहीं आया है. बच्चे जिद करने लगे तो निकलना पड़ा.”

” आपको अपना ख्याल रखना चाहिए करोना सबसे ज्यादा आप बुजुर्गों को असर करता है.”

मैं शर्मिंदा होगया  उसकी बात सुनकर कहा”आप ठीक कह रहे हो।“

“अच्छा ऐसा करो! अंकल आप यहां से दाएं मुड़ जाइए और आगे फलों के ठेले मिल जाएंगे

“मैंने उसे धन्यवाद कहा आगे से दायें मुड़ गया. थोड़ा आगे बढ़ने पर दो-तीन फलों के ठेले दिखने लगे. मैं पहले ही ठेले पर रुक गया. ठेले पर पहले से ही तीन-चार लोग खड़े थे. मैं थोड़ी दूरी पर सोशल डिस्टेसिंग बना कर खड़ा हो गया. मैं देखा एक ने फलों को चुनकर अलग किया और उससे पूछा-” क्या भाव है ?” भाव सुनकर वह ठिठका और फलों को छोड़कर आगे बढ़ गया. ठेले वाले ने आवाज लगाई- “कुछ कम कर दूंगा”  पर वह नहीं रुका. दूसरा भी उसको देख कर आगे बढ़ गया. उसने फिर आवाज लगाई-” ले लो यह सब ताजे हैं” वे दोनों आगे बढ़ गए और अगले के पास रुक गए. इस बीच तीसरे ने कुछ फल चुन लिए थे. जैसे ही उसने भाव पूछा. उसका  भी मूड बदल गया और कहा- “अभी नहीं लेना है” यह कह वह भी आगे बढ़ गया. उन सब के जाने से ठेला वाला निराश और हताश हो गया.

मैंने कुछ तरबूज और अच्छे फल चुनकर उससे कहा -“तौल दो” उसने तौलने के लिए तराजू और बांट उठाएं. उसके गले में लटका चांद तारा वाला लॉकेट दिख गया. मुझे बिजली का करंट सा लग गया. टी व्ही पर आती हुई खबरें दिमाग में घूम गई .जमाती लोग बसों में यहां वहां थूक रहे हैं. कोई ठेला वाला थूक लगाकर फल और सब्जी बेच रहा है. तो कोई दरवाजे और हैंडलों में थूक लगा रहा है. ठेले वाले को देख मुझे टी व्ही वाले चित्र नज़र आने लगे. मैं सहम गया. मन में भय व्याप्त हो गया. अनेक विचार आने लगे. और कुछ सोच कर आगे बढ़ गया. मुझे बढ़ता देख ठेले वाले ने आवाज लगाई -“बाबू जी ! क्या हो गया? बाबू जी, सब ताजे फल हैं. उसकी आवाज सुनकर, मैं रुक गया, कहां -“हां ताजे हैं, मैं अभी लौट कर आता हूँ. और आगे बढ़ गया. ठेला वाला मेरा चेहरा देखता रहा फिर कुछ पल रुक कर कहा- “कोई बात नहीं बाबू जी”, फिर हाथ जोड़कर कहा- “बाबू जी जय श्रीराम”. जय श्रीराम सुनकर मैं भीतर तक कांप गया. मुझे जय श्रीराम का जवाब देते नहीं बना. मैं अपनी गाड़ी वहीं खड़ी कर  ठेले वाले के पास आया. मैं कुछ देर उसे देखता रहा. फिर उससे पूछा- “कब से यह काम कर रहे हो” व्हाट्सएप और सोशल मीडिया से खबरें आ रही थी कि कुछ लोग मजबूरी के चलते अपना धंधा बदलकर फल और सब्जियों का ठेला लगाने लगे हैं, क्योंकि लाकडाउन में इन्हीं चीजों को बेचने की अनुमति थी. उसने कहा- “बाबूजी मैं अच्छा टेलर हूँ. मेरी छोटी दुकान है. पर लाकडाउन की वजह से वह बंद है. पेट पालने के लिए कुछ काम तो करना था. यह ठेला किराए पर लेकर फल बेचने लगा. मैं कुछ कहता, उसके पहले वह फिर बोला – बाबूजी ! यह नया धंधा है. मुझे कुछ समझ में नहीं आता. टेलर हूँ. इसलिए आदमी को नाप लेता हूँ. पर आदमी को तौल नहीं पाता. मैं कुछ देर उसे देखता रहा. फिर कहा-” तुम तो मुसलमान हो, फिर जय श्रीराम. मेरी बात सुनकर उसकी आंखें पनीली हो गई. -” हां! मुसलमान हूँ और एक इंसान भी. साथ में दो छोटे बच्चों का बाप भी हूँ. मैं उनको भूखा भी नहीं देख सकता. उसकी आंखें और बातें मुझे अंदर तक गीला कर गयीं. मैंने फल उठाएं उसे दो सौ का नोट दिया और आगे बढ़ गया. उसने पीछे से आवाज लगाई  -“बाबूजी बाकी पैसे” मैंने कहा -“तुम रख लो. मैं भी पोते का दादा हूँ.

© रमेश सैनी 

जबलपुर 

मोबा. 8319856044  9825866402

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 52 ☆ व्यंग्य – मांगो सबकी खैर ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का एक अतिसुन्दर एवं विचारणीय व्यंग्य   “मांगो सबकी खैर।  श्री विवेक जी का यह कथन अत्यंत सार्थक है – “हम फकीर कबीर पर डाक्टरेट करके अमीर तो बनना चाहते हैं किन्तु महात्मा कबीर के सिद्धांतों से नही मिलना चाहते.” यह कटु सत्य विश्व के सभी महात्माओं के लिए सार्थक लगता है। श्री विवेक जी की लेखनी को इस अतिसुन्दर  व्यंग्य के  लिए नमन । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 52 ☆ 

☆ व्यंग्य – मांगो सबकी खैर ☆

महात्मा कबीर बजार में खड़े सबकी खैर मांगते हैं  ! पर खैर मांगने से करोंना  करुणा करे तो क्या बात होती.

निर्भया को, आसिफा को,दामिनी को  खैर मिल जाती तो क्या बात थी.मंदसौर हो, दिल्ली हो बंगलौर हो मुम्बई हो ! ट्रेन हो उबर, ओला हो ! हवाई जहाज हो ! शापिंग माल हो हर कहीं जंगली कुत्ते तितलियों के पर नोंचने पर आमादा दिखते हैं. हर दुर्घटना के बाद केंडल मार्च निकाल कर हम अपना दायित्व पूरा कर लेते हैं, जिसे जिस तरह मौका मिलता है वह अपनी सुविधा से अपनी पब्लिसिटी की रोटी सेंक लेता है, जिससे और कुछ नही बनता वह ट्वीट करके, संवेदना दिखाकर फिर से खुद में मशगूल हो जाता है. जिसके ट्वीटर पर एकाउंट नही है वे भी व्हाट्सअप पर इसकी उसकी किसी न किसी की कविता को हरिवंशराय बच्चन की, जयशंकर प्रसाद  या अमृता प्रीतम की रचना बताकर कम से कम पोस्ट फारवर्ड करने का सामाजिक दायित्व तो निभा ही लेता है. पर स्त्री के प्रति समाज के मन में सम्मान का भाव कौन बोयेगा यह यक्ष प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाता है.

खैर मांगने से किसान के इंजीनियर बेटे को नौकरी मिल जाती तो क्या बात थी. खैर मांगने से मजदूर की मजबूरी मिट जाती तो क्या बात थी ।खैर मांगने से रामभरोसे को जीवन यापन की न्यूनतम सुविधायें मिल जातीं तो क्या बात थी.और तो और खैर मांगने से नेता जी को वोट ही मिल जाते तो क्या बात होती. वोट के लिये भी किसी को गरीबी हटाओ के नारे देने पड़े, किसी को फुल पेज विज्ञापन देना पड़ा कि हम सुनहरे कल की ओर बढ़ रहे हैं, किसी को फील गुड का अहसास टी वी के जरिये करवाना पड़ा तो किसी को पंद्रह लाख का प्रलोभन देना पड़ा. अच्छे दिन आने वाले हैं यह सपना दिखाना पड़ा. सलमान की तरह शर्ट भले ही न उतारनी पड़ी हो पर सीने का नाप तो बताना ही पड़ा, चाय पर चर्चा करनी पड़ी तो खटिये पर चौपाल लगानी पड़ी. वोट तक इतनी मशक्कत के बाद मिलते हैं, खैर मांगने से नहीं. दरअसल अबकी बार जब महात्मा कबीर से मेरी मानसिक भेंट होगी तो मुझे उन्हें बतलाना है कि आजकल  बिन मांगे मोती मिले मांगे मिले न खैर.

सच तो यह है कि हम महात्मा कबीर से एकांत में मिलते ही तो नही. जिस दिन महात्मा कबीर से हम अलग अलग अकेले में गुफ्तगू करने लगेंगे, सबको हर व्यंग्यकार में महात्मा कबीर नजर आने लगेगा. जिस दिन हर बंदा महात्मा कबीर के एक दोहे को भी चरित्र में उतार लेगा उस दिन महात्मा कबीर फिर प्रासंगिक हो जायेंगे. पर हम फकीर कबीर पर डाक्टरेट करके अमीर तो बनना चाहते हैं किन्तु महात्मा कबीर के सिद्धांतों से नही मिलना चाहते.

क्योकि महात्मा कबीर ढ़ाई अक्षर प्रेम के  पढ़वा देगे, वे हमारे साथ बुरा देखने  निकल पड़ेगे और हमें अपना दिल खोजने को कह देगे. यदि कहीं महात्मा कबीर ने याद दिला दिया कि जाति न पूछो साधु की तब तो चुनाव आयोग के ठीक सामने धर्मनिरपेक्ष देश में  जाति के आधार पर सरे आम जीतते हारते हमारे कैंडिडेट्स का क्या होगा ? इसलिये  हमें तो महात्मा कबीर के चित्र पसंद है जिसका इस्तेमाल हम अपनी सुविधा से अपने लिये करके प्रसन्न बने रह सकें.महात्मा कबीर पर पीएचडी की जाती है, महात्मा कबीर के नाम पर सम्मान दिया जाता है, महात्मा कबीर पर गर्व किया जाता है उन पर भाषण  और निबंध लिखा  जाता है.हमने उन्हें पाठो में सहेजकर प्रश्न पूंछने उत्तर देने और नम्बर बटोरने का टापिक बना छोड़ा है.  सब करियेगा पर उससे पहले मेरे कहने से ही सही कभी एकांत में महात्मा कबीर के विचारों से अपनी एक मीटिंग फिक्स कीजीये. उनके विचार मालुम न हो तो गूगल से निसंकोच पूछ लीजियेगा.

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ शेष कुशल # 5 ☆ कोरोना काल में चैलेंजेस….जाने भी दो यारों ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक सार्थक  व्यंग्य “कोरोना काल में चैलेंजेस….जाने भी दो यारों।  इस  साप्ताहिक स्तम्भ के माध्यम से हम आपसे उनके सर्वोत्कृष्ट व्यंग्य साझा करने का प्रयास करते रहते हैं । श्री शांतिलाल जैन जी के व्यंग्य में वर्णित सारी घटनाएं और सभी पात्र काल्पनिक होते हैं ।यदि किसी व्यक्ति से इसकी समानता होती है, तो उसे मात्र एक संयोग कहा जाएगा। हमारा विनम्र अनुरोध है कि श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य  को हिंदी साहित्य की व्यंग्य विधा की गंभीरता  को समझते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण से आत्मसात करें। ) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – शेष कुशल #5 ☆

☆ कोरोना काल में चैलेंजेस….जाने भी दो यारों

इस समय का सबसे बड़ा चैलेंज कौन सा है ?

आईये पता करते हैं.

***

“हलो,  मिसेज जुनेजा इस समय का सबसे बड़ा चैलेंज कौनसा है ?”

“ए-फोर वेस्ट चैलेंज. थ्वानू नी पता! आज सेकण्ड डे है और असि जीतने दा चांस नज़र नी आ रिया.”

“थोडा डिटेल में बताईये”

“सोश्यल मीडिया में कितना तो ट्रेंड कर रहा है जी. देक्खो, साड्डा ग्रुप है ना. उना दी सारी लेडीज को अपनी अपनी कमर के आगे ए-फोर साईज का पेपर रख के सेल्फी अपलोड करनी है. मेरी कमर ना 2 सेंटीमीटर तो बाहर निकल रही है.”

“ओफ्फ!, अब क्या करेंगी आप ?”

“डाईटिंग पर हूँ. चैलेंज जीत के रहूंगी. चार दिन भूख्या ही तो रेना पड़ेगा, होर कि ? उस मटकू रजनी की कम्मर से घट ही है साड्डी.”

***

“इस समय का सबसे बड़ा चैलेंज कौनसा है मिसेज विश्वनाथन ?”

“साड़ी का चैलेंज. अमको ना एथनिक वियर में साड़ी पहन के फोटो अपलोड करने का ….वो चैलेंज का बोला.”

बताते हुवे वे पसीना पसीना हो गईं. उनके दामाद ने तुरंत उन्हें रक्तचाप नियंत्रित करने की गोली दी. उनकी घबराहट बता रही है कि चैलेंज  काफी मुश्किल है.

“इसमें प्रोब्लेम क्या है ?”

“अमारा पंचम्पामपल्ली सिल्क साड़ी. एक दम बेस्ट…फस्ट क्लास. टोंटी टू थाउजंड में खरीदा. उदर विजयवाड़ा में रक्खा है फोल्ड करके और अम इदर लॉकडाउन में भोपाल में पड़ा है …फूल अन फोल्ड….. मेचिंग ब्लाऊज भी उदर को है वो ड्राय कलीन है. अबी क्या करेगा हम,  चैलेंज तो ले लिया है.” उन्होंने स्मरण किया – “भक्तवत्सल गोविंदा…गोविंदा.”

***

“हलो रोहित,  इस समय का सबसे बड़ा चैलेंज कौनसा है ?”

“यस ब्रो, चैलेंज ट्रेडिशनल ड्रेस पहनने का दिया है फ्रेंड्स ने. वीडियो डालना है. कमीने हैं साले,  उनको मालूम है आई कांट वियर सिली ओल्ड फैशंड धोती यार. …..एनी वे, उपरवाले अंकल से मिल तो गई मगर बंध नहीं रही. बार बार खुल जाती है. यू नो,  ग्रुप में पियूषा भी है. क्या सोचेगी – आई कांट डू दिस मच ओनली. शिट यार.”

“नेक्स्ट चैलेंज आपको देना है, वो भी ग्रुप की गर्ल्स को. क्या सोचा है ?”

“बेली बटन चैलेंज. ग्रुप में कोई नहीं जीत पायेगी, एक्सेप्ट माय लव पियूषा. एक दम जीरो फिगर. ये इन्स्टाग्राम वाला केस मीडिया में नहीं आता तो ब्रेस्ट ग्रेबिंग चैलेंज देता. वैसे चैलेंज गर्ल्स के शॉपिंग बैग पहनकर फोटो खिंचवाने का भी जोरदार है ब्रो. देखते हैं.”

***

“आप तो जनप्रतिनिधि हैं,  इस समय का सबसे बड़ा चैलेंज कौनसा है ?”

“गमछा बांधना. देखा नहीं जननायक कैसे गमछा लपेट के आ रहे हैं फोटो में. सारे कार्यकर्ताओं को चैलेंज दिया है गमछा मुंह पे बांध के फोटो अपलोड करने का.”

“कुछ तो और भी होगा. आप बता नहीं रहे.”

“वे धीरे से मुस्कराये और लगभग कान में बोले महीना वसूली बड़ा चैलेंज है बॉस. सरकारी दफ्तर ज्यादातर बंद चल रहे हैं. अफसरों से दो महीने का मंथली ड्यू हो गया है. साले बाद में देंगे नहीं. चैलेंज-रिकवरी.”

***

“हलो मि. सिस्टम,  इस समय का सबसे बड़ा चैलेंज कौनसा है ?”

“मैं चैलेंज लेता नहीं, देता हूँ. लाखों लोगों ने स्वीकार किया है ये चैलेंज.”

“किसी से मिलवायेंगे”

“ओके, इनसे मिलिये. नाम बताईये आपका ?”

“जयराम”

“कहाँ से निकले हो, कहाँ जा रहे हो ?”

“दिल्ली से निकले हैं साब, मोतिहारी जा रहे हैं, बिहार में. बरवा गाँव है उहाँ. वहीं जायेंगे.”

“पैदल जायेंगे ?”

“हाँ साब, घर तो जाना ही परेगा. खाये-पिये का कुछ नहीं है पास में. बीच बीच में कोई कुछ दे देता है तो खा पी लेते हैं. पईसा भी सब ख़तम हो गया बस किसी तरह गाँव घर पहुँच जायें साब.”

****

सरोकार में मि. सिस्टम के फेंके चैलेंजेस तो और भी हैं, बट फ़िलवक्त ….जाने भी दो यारों.

 

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, टी टी नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 49 ☆ व्यंग्य – दचक्का संस्कृति ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  व्यंग्य – दचक्का संस्कृति। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे ।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 49

☆ व्यंग्य –  दचक्का संस्कृति ☆ 

पहले हम दिल्ली से अपने शहर लौटते थे तो हमारा शहर गांव जैसा लगता था बेहद आत्मीयता लिए पोहा – जलेबी सुबह और इमरती शाम को। हरि पान वाला तत्कालीन कपड़ा मंत्री की उधारी का हिसाब लगाता मिलता। दचका भरी सड़कों के जंजाल में अस्पताल पहुंचने के पहले रिक्शे में नार्मल डिलेवरी हो जाती, इत्ता प्यारा था हमारा अपना शहर। तीन साल पहले  इसे स्मार्ट सिटी बनाने हेतु घोषित किया गया, तीन साल गुजर गए पर सड़कों के गड्ढेे दिलेरी से सड़क पर कब्जा जमाये हुए हैं ऐसे में सड़क पर चलते हुए अचानक स्मार्ट सिटी का नाम याद आ जाता है।

क्या आप किसी ऐसे शहर की कल्पना कर सकते हैं जिसकी सड़कें चमचमाती सपाट सजी हुई हों, सड़कों पर हर खम्भे पर झकास बल्ब लगे हों, रात में पैदल यात्री के उपस्थित होने पर बल्ब स्वत: जल जाऐं अन्यथा डिम हो जाएं। सूर्य की रोशनी के अनुरूप घरों की लाइटें घटाई-बढ़ाई जा सकें, स्वच्छ पर्यावरण सुंदर परिवहन व्यवस्था, बिजली पानी की 24 घंटे उपलब्धता, स्मार्ट कूड़ेदान… आदि…. ये सब स्मार्ट सिटी की बातें दचके खाते हुए याद करने में मजा तो आता है। हमारे शहर की किच्च पिच्च गड्ढेदार सड़कों में चलते चलते इतने दचक्के पड़ जाते हैं कि हड्डी के डाक्टर के पास जाना मजबूरी हो जाती है। खपरैल अस्पताल इन्हीं कारणों से कई मंजले में तब्दील हो गए। जब हड्डी के डाक्टर के पास ज्यादा पैसा बढ़ जाता है तो उसका मन राजनीति की हड्डी खाने की तरफ लपलपाने लगता है। दचक्का लगने से कई फायदे हैं पंचर की दुकानें खूब चलतीं हैं, अस्थि रोग विशेषज्ञ के पास मरीजों की रेलमपेल भीड़ पहुंचती है दचके खाने से महिलाओं में समय पूर्व प्रसव पीड़ा उठ बैठती है। एक अस्थि रोग विशेषज्ञ ने अपनी एक्सरे मशीन में ऐसा इंतजाम किया है कि हड्डी भले न टूटी हो एक्सरे रिपोर्ट में हड्डी में क्रेक जरुर दिखेगा।

पान की दुकान में जाओ तो वहां भी गड्ढों और स्मार्ट सिटी की चर्चा होती है, सड़क का ठेकेदार सड़कों की दशा और दिशा पर कहता है कि यहां की जमीन में लफड़ा है ऊपर से डामल पोतो तो गड्ढा छुपा बैठा रहता है पानी गिरा और गड्ढा फन काड़ के बाहर निकला। ठेकेदार का ये भी कहना जायज है कि सड़क में ज्यादा गड्ढे रहने से ट्रैफिक कन्ट्रोल रहता है और स्पीड ब्रेकर बनाने के झंझट से मुक्ति मिलती है। सड़क की बात बदलते हुए ठेकेदार  पान की पीक से पास के पोल को रंग देता है और स्वच्छता अभियान के बैनर में हिज्जे की गलती दिखा देता है।

दूसरा ठेकेदार पान में बाबा चटनी चमनबहार और चवन्नी डालने की फरमाइश कर रहा है पान खाने का जो मजा इहां है वो कहीं नहीं….. और अपना शहर राष्ट्रीय एकता की मिसाल है इहां व्हीकल स्टेट में बंगाली, गोरखपुर प्रेमनगर में सरदार जी, मदार टेकरी में भाई जान, गढ़ा में बम्हना, और इहां जे और उहां बे….।शहर से खुश होकर एक कह गए संस्कारधानी तो दूसरे कह गए गुंडाधानी। अभी स्मार्ट सिटी मामले में भी अपना शहर सातवें पायदान पर बैठ गया है और सड़क के गड्ढे हैं कि हटने का नाम ही नहीं ले रहे हैं। रिमझिम पानी गिर रहा है गड्ढे लबालब भर गए हैं थोड़ी थोड़ी देर में मोटरसाइकिल वाले गड्ढे में दचक्का खाके पलटी मार रहे हैं और ऐसे में पान की दुकान के बाजू में खड़ा शराबी खूब मजा ले रहा है ज्यादा लग गई है इसलिए स्मार्ट सिटी पर बक बक कर रहा है बीच बीच में देश की दुर्दशा पर रोने लगता है कहता है बड़े बाबू दौड़ दौड़ चीन काहे को जाते हैं, चीन मिलाके मारेगा तो सब समझ में आ जायेगा।

पान की दुकान टाइम पास करने का अच्छा अड्डा होता है तरह-तरह के लोग आते जाते रहते हैं उस तरफ से मस्ती में चूर एक शराबी पान की दुकान की तरफ गाना गाते हुए बढ़ रहा है

“जिंदगी ख्बाब है… ख्बाब में सच है क्या.. और भला झूठ है क्या……..”

सबका ध्यान उसी की तरफ हो जाता है, सड़क के गड्ढे में पैर पड़ जाने से गिरकर उठता है फिर पास खड़े लोगों को गलियाने लगता है पान की दुकान पर खड़े लोगो सड़क के गड्ढों को दोष नहीं देना, मेरा शहर स्मार्ट सिटी बन रहा है……. बाजू वाले भाई ने आंख मारकर ईशारा किया इहां से बढ़ लेओ, ये आदमी लफड़ेबाज है जेब में कट्टा रखे है।

हम लोग डरते हुए, दचक्के खाते हुए और स्मार्ट सिटी की खूबियों पर बहस करते हुए आगे बढ़ ही रहे थे कि अचानक मोटर साइकिल वाले ने गड्ढे को बचाने के चक्कर में हमारी टांग तोड़ दी, अस्पताल पहुंचे तो नर्स झपकियां ले रही थी और हम लुटे लुटे दर्द से पिटे पिटे टूटा पैर लिए हुए नर्स को पुकारते रहे …………।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 52 ☆ व्यंग्य – भाग्य से मिला मानुस तन ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  प्रस्तुत है व्यंग्य  ‘भाग्य से मिला मानुस तन ’। यह सच है कि मानव जीवन भाग्य से मिलता है। किन्तु, जीवन मिलने  के आगे भी तो बहुत कुछ है……..। ऐसे अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को  सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 52 ☆

☆ व्यंग्य – भाग्य से मिला मानुस तन ☆

गोसाईं जी बहुत सही लिख गये हैं——‘बड़े भाग मानुस तन पावा,सुर दुरलभ सब ग्रंथनि गावा।’ यानी यह मनुष्य का चोला बड़े भाग्य से मिलता है और यह देवताओं के लिए भी दुर्लभ है।

मनुष्य-जन्म मिला तो रीढ़ सीधी हुई, आँखों के सामने संसार बड़ा हो गया और हाथों को चलने के काम से मुक्ति मिली। आदमी के स्वतंत्र हाथों ने दुनिया को बदल कर रख दिया।रीढ़ की अहमियत के बारे में आचार्य विश्वनाथ तिवारी की एक कविता है—–

         ‘रीढ़ न हो सीधी तो कैसे बनेगा आदमी,

          रीढ़ झुकी है तो हाथ बँथे हैं,

          हाथ बँथे हैं तो बँधी हैं आँखें,

          आँखें बँधी हैं तो बँधा है मस्तिष्क,

           मस्तिष्क बँधा है तो बँधी है आत्मा।’

यानी हाथ मुक्त हुए तो मस्तिष्क और आत्मा भी मुक्त हो गये। निःसंदेह यह मनुष्य-जन्म की बड़ी उपलब्धि है।

लेकिन शंका यह उठती है कि क्या मात्र मनुष्य-जन्म पाने से संसार-सागर में अपनी नैया पार हो जायेगी? विचार करने पर बहुत से प्रश्न और सन्देह कुलबुलाने लगते हैं।

ज़ाहिर है कि सिर्फ मनुष्य का जन्म लेने से काम नहीं चलेगा। जन्म लेते ही देखना होगा कि आप किस जाति में अवतरित हुए हैं।यदि ऊँची जाति में जन्म नहीं हुआ तो मनुष्य-जन्म अकारथ हो जायेगा। ऊँची जाति में अवतरित होते ही ज़िन्दगी की आधी मुश्किलें हल हो जाती हैं।यदि दुर्भाग्य से नीची जाति में जन्म हो गया तो पुराने दागों को छुड़ाते ही उम्र बीत जायेगी।न मन्दिर की सीढ़ियाँ चढ़ने को मिलेंगी, न गाँव के सार्वजनिक कुएँ से पानी नसीब होगा।न घोड़ी पर बारात निकलेगी, न चढ़ी- पनहियाँ गाँव के दबंगों के घर के सामने से निकलना हो पायेगा।कभी कभी ताज्जुब होता है कि क्या ‘इनको’ और ‘उनको’ बनाने वाला भगवान एक ही है? एक ही होता तो हज़ारों साल तक इतना ज़ुल्म कैसे होने देता?सारे कानूनों और सरकारी वीर-घोषणाओं के बावजूद निचली जातियों का एक बड़ा तबका अभी भी अपने पुराने, गंदे धंधों में लिथड़ने के लिए अभिशप्त है जहाँ आगे अँधेरे के सिवा कुछ नहीं है।

दूसरे, मनुष्य-जन्म तभी सार्थक हो सकता है जब घर में इतना पैसा-कौड़ी हो कि पढ़-लिख कर मुकम्मल आदमी बना जा सके। अब शिक्षा इतनी मँहगी हो गयी है कि खर्च उठाने की कूवत न हुई तो मनुष्य-जन्म प्राप्त करने के बाद भी ‘साक्षात पशु, पुच्छ विषाण हीना’ बने रहने की नौबत आ सकती है। शिक्षा प्राप्त करने के बाद कुछ बचे तो कुछ पैसा ‘रिश्वत फंड’ के लिए रखना ज़रूरी होगा अन्यथा काबिलियत के बाद भी नौकरी और रोज़गार पाने में अनेक ‘दैवी’ अड़चनें पैदा हो सकती हैं।

दर असल मनुष्य-जन्म को सार्थक बनाने के लिए कुछ ‘पावर’ होना ज़रूरी है, अन्यथा मनुष्य-जन्म बिरथा हो जाएगा। ‘पावर’  पालिटिक्स का हो सकता है या पैसे का या पद का। ये तीनों अन्योन्याश्रित हैं। पैसा पालिटिक्स में  घुसने की राह हमवार करता है। पैसे से पद और पद से पैसा प्राप्त होने का सुयोग बनता है। पालिटिक्स में सफलता मिल जाए तो पैसा और पद सब सुलभ हो जाता है। आजकल एक और पावर धर्म का है जो मनुष्य-जीवन को बड़ी ऊँचाइयाँ प्रदान करता है। धर्म का पावर सब पावर से बढ़ कर है। यह पावर मिल जाए तो लक्ष्मी अपने आप खिंची चली आती है। साथ ही राजनीतिज्ञ,थनकुबेर और बड़े पदाधिकारी सभी धर्म की शक्ति वालों के आगे नतमस्तक होते हैं। धर्म का चमत्कार देखना हो तो धार्मिक पावर वालों के जीवन पर दृष्टि डालें।

किस्सा-कोताह यह कि मनुष्य-जन्म की सार्थकता तभी है जब ऊपर दी हुई शर्तें भी पूरी हों, अन्यथा कोरा मनुष्य-जन्म साँसत में गुज़र सकता है।

फिलहाल खबर यह है कि हमारे देश में कई लोग अपने शरीर में रीढ़ की उपस्थिति से परेशान हैं। उनका कहना है कि पालिटिक्स और नौकरी में सफलता के लिए रीढ़ को बार बार झुकाना पड़ता है और मनुष्य के रूप में उन्हें जैसी रीढ़ मिली है उसमें पर्याप्त लचक नहीं है।इसलिए वे डाक्टरों से मिलकर संभावना तलाश कर रहे हैं कि उनकी रीढ़ अलग करके उन्हें केंचुए जैसा बना दिया जाए ताकि उनका जीवन सरल और सफल हो सके।

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 51 ☆ व्यंग्य – मानहानि का मुकदमा यानी फेसवाश ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  मानहानि के मुकदमों के अंजाम पर आधारित एक अतिसुन्दरव्यंग्य  “मानहानि का मुकदमा यानी फेसवाश ।   श्री विवेक जी ने उस मानहानि का भी जिक्र किया है जो पारिवारिक होती हैं और कदाचित वैसे ही रफा दफा हो जाती हैं जैसी ….. .  श्री विवेक जी की लेखनी को इस अतिसुन्दर व्यंग्य के लिए नमन । )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 51 ☆ 

☆ व्यंग्य – मानहानि का मुकदमा यानी फेसवाश 

 व्यंग के हर पंच पर किसी न किसी की मानहानि ही की जाती है, ये और बात है कि सामने वाला उसका नोटिस लेता है या नही, और व्यंगकार को मानहानि का नोटिस भेजता है या नही. व्यंगकार अपनी बात का सार्वजनिककरण इनडायरेक्ट टेंस में कुछ इस तरह करता है कि सामने वाला टेंशन में तो होता है पर मुस्करा कर टालने के सिवाय उसके पास दूसरा चारा नहीं होता.लेकिन जब बात सीधी टक्ककर की ही हो जाये तो मानहानि का मुकदमा बड़े काम आता है. सार्वजनिक जीवन में स्वयं को बहुचर्चित व अति लोकप्रिय होने का भ्रम पाले हुये किसी शख्सियत को जब कोई सीधे ही मुंह पर कालिख मल जाये तो तुरंत डैमेज कंट्रोल में, बतौर फेसवाश  मानहानि का मुकदमा किया जाता है. जब  समय के साथ मुकदमें की पेशी दर पेशी, मुंह की कालिख कुछ कम हो जाये, लोग मामला भूल जायें तो आउट आफ कोर्ट माफी वगैरह के साथ मामला सैट राइट हो ही जाता है. लेकिन यह तय है कि रातो रात शोहरत पाने के रामबाण नुस्खों में से एक है मानहानि के मुकदमें में किसी पक्ष का हिस्सा बन सकना.  मैं भी बड़े दिनो से लगा हुआ हूं कि कोई तो मुझे मानहानि का नोटिस भेजे और अखबार के संपादकीय पृष्ठ पर छपते व्यंगो में बतौर लेखक मेरा नाम  अंदर के पन्ने से उठकर कवर पेज पर बाक्स न्यूज में  पढ़ा जाये. पर  मेरी तमाम कोशिशो के बाद भी मेरी पत्नी के सिवाय कोई अब तक मुझसे खफा ही नही हुआ. और पत्नी से तो मैं सारे मुकदमें पहले ही हारा हुआ हूं. पुराने समय में साले सालियो की तमाम सावधानियो के बाद भी जीजा और फूफा  वगैरह की मानहानि हर वैवाहिक आयोजन का एक अनिवार्य हिस्सा होता था. मामला घरेलू होने के कारण मानहानि के मुकदमें के बदले रूठने, और मनाने का सिलसिला चलता था. किसकी शादी में कौन से जीजा कैसे रूठे और कैसे माने थे यह चर्चा का विषय रहता था.

लोक जीवन में देख लेने की धमकी,धौंस जमाकर निकल लेना आदि  मानहानि के मुकदमें से बचने के सरल उपाय हैं. सामान्यतः जब यह लगभग तय हो कि मानहानि के मुकदमें में सामने वाला कोर्ट ही नही आयेगा तो उसे देख लेने की धमकी देकर छोड़ दिया जाता है. देख लेने की धमकी से बेवजह उलझ रहे दोनो पक्ष अपनी अपनी इज्जत समेट कर पतली गली से निकल लेने का एक रास्ता पा जाते हैं.  देख लेने की धमकी कुछ कुछ लोक अदालत के समझौते सा व्यवहार करती है. इसी तरह जब खुद की औकात ही किसी अपने की औकात पर टिकी हो जैसे आपका कोई नातेदार थानेदार हो, बड़ा अफसर हो या मंत्री वंत्री हो, विपक्ष का कद्दावर नेता हो तो भले ही आपका स्वयं  का  कुछ मान न हो पर आप अपना सम्मान अपने  उस  महान रिश्तेदार के मान से जोड़ सकते हैं और सड़क पर गलत ड्राइविंग या गलत पार्किंग करते पाये जाने पर, बिना रिजर्वेशन आक्यूपाइड अनआथराइज्ड बर्थ पर लेटे लेटे, किसी शो रूम में मोलभाव करते हुये  बेझिझक अपनी रिलेशन शिप को जताते हुये, धौंस जमाने के यत्न कर सकते हैं. धौंस जम गई और आपका काम निकल गया तो बढ़िया. वरना आप जो हैं वह तो हैं ही.  तुलसी बाबा बहुत पहले चित्रकूट के घाट पर गहन चिंतन मनन के बाद लिख गये हैं ” लाभ हानि जीवन मरण यश अपयश विधि हाथ “. तुलसी की एक एक चौपाई की व्याख्या में, बड़े बड़े शोध ग्रंथ लिखे जा चुके हैं. कथित विद्वानो ने  डाक्टरेट की उपाधियां लेकर  यश अर्जित किया है, और इस लायक हुये हैं कि उनकी मानहानि हो सके, वरना तो देश के करोड़ो लोगो का मान है ही कहाँ कि उनकी मानहानि हो . तो जब आपकी भी धौंस न चले, देख लेने की धमकी काम न आवे तो बेशक आप विधाता को अपने मान के अपमान के लिये दोषी ठहरा कर स्वयं खुश रह सकते हैं.  तुलसी की चौपाई का स्पष्ट अर्थ है कि यश और अपयश विधि के हाथो में है, फिर भी जाने क्यो लोग मान अपमान की गांठें बाधें अपने जीवन को कठिन बना लेते हैं. देश की अदालत में वैसे ही बहुत सारे केस हैं सुनवाई को. ए सी लगे कमरो के बाद भी कोर्ट को गर्मी की छुट्टियां भी मनानी पड़ती है,  इसलिये हमारी विनम्र गुजारिश है कि कम से कम मान हानि के मुकदमें दर्ज करने पर रोक लगा दी जाये अध्ययन किया जाये कि क्या इसकी जगह अपनी ऐंठ में जी रहे नेता धमकी, धौंस, बयान वगैरह से काम चला सकते हैं ?

 

© विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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