हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 21 – व्यंग्य – बड़ा आदमी साइकिल पर ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं.  हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं.  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं. कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं.  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है. डॉ परिहार जी ने  एक ऐसे चरित्र का विश्लेषण किया है जो आपके आस पास ही मिल जायेंगे.  एक खानदानी मामूली आदमी की किसी भी हरकत को नजरअंदाज किया जा सकता है किन्तु, एक बड़े आदमी की एक एक हरकत पर समाज की नजर रहती है।   ऐसे सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  कलम को नमन. आज प्रस्तुत है उनका ऐसे ही विषय पर एक व्यंग्य  “बड़ा आदमी साइकिल पर  ”.)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 21 ☆

 

☆ व्यंग्य  – बड़ा आदमी साइकिल पर  ☆

 

मगन बाबू ख़ानदानी रईस हैं, वैसे ही जैसे हम ख़ानदानी मामूली आदमी हैं। वे विशाल भवन, पन्द्रह-सोलह कारों और दीगर संपत्ति के स्वामी हैं।

मौजी तबियत के आदमी हैं। नौकरों और परिवार के सदस्यों से उनकी चुहलबाज़ी चलती है। तुफ़ैल मियाँ उनके ख़ास मुँहलगे नौकर हैं। वे जब-तब तुफ़ैल मियाँ के पेट में गुदगुदी मचाते रहते हैं और तुफ़ैल मियाँ नाराज़ी का अभिनय करते, शरीर को टेढ़ा-मेढ़ा करते रहते हैं। एकान्त पाकर मगन बाबू तुफ़ैल मियाँ को कुछ ‘जनता छाप’ गालियाँ भी देते हैं। तुफ़ैल मियाँ ऊपर से ग़ुस्से का प्रदर्शन करते हुए भीतर-भीतर गदगद होते रहते हैं।

उस दिन मगन बाबू अधिक ही मौज में थे। न जाने क्या सूझी कि उन्होंने दीवार से टिकी तुफ़ैल मियाँ की साइकिल एकाएक उठायी और सवार होकर पैडल मारते हुए बंगले के गेट से बाहर निकल गये।

बंगले में तहलका मच गया— ‘बाबूजी साइकिल पर बैठकर निकल गये’, ‘मगन बाबू साइकिल पर बाहर चले गये।’ भारी दौड़-धूप शुरू हो गयी। तुफ़ैल मियाँ चप्पलें फेंककर पीछे-पीछे दौड़े। तीन-चार सेवक और दौड़े। तुरन्त दो कारें गैरेज से निकलीं और बाबूजी की तलाश में दौड़ पड़ीं। मगन बाबू की माताजी ऊपर से उतरकर लॉन में परेशान घूमने लगीं।  बंगले के सारे प्राणी नाना प्रकार की वेशभूषा में लॉन पर जमा होकर उत्सुकता से ख़बर का इन्तज़ार करने लगे।

मगन बाबू उस समय पैडल मारते हुए बाज़ार से गुज़र रहे थे।  पीछे-पीछे चार-पाँच नौकर ‘बाबूजी’ ‘बाबूजी’ चिल्लाते उनके पीछे भाग रहे थे। तुफ़ैल मियाँ उन्हें अपने सर की कसम देते दौड़ रहे थे। लेकिन मगन बाबू मौज में दाहिने-बायें सिर हिलाते बढ़ते जा रहे थे।

बाज़ार के लोग यह कौतुक देख देखकर दूकानों के सामने जमा हो रहे थे। मगन बाबू को सब जानते थे। जो नहीं जानते थे वे दूसरों से पूछ रहे थे, ‘यह क्या है भाई?’ जानकार हँसकर सिर हिलाते, कहते, ‘वे मगन बाबू हैं न? साइकिल पर निकल पड़े हैं। मौजी आदमी हैं। ‘जो मगन बाबू से ज़्यादा परिचित थे,वे उन्हें सम्बोधन करके ‘वाह बाबू साहब’ ‘वाह बाबू साहब’ कह रहे थे। मगन बाबू के इस कौतुक ने पूरे बाज़ार में मौज और दिल्लगी का वातावरण बना दिया था। जहाँ देखो वहाँ ‘मगन बाबू भी क्या हैं!’, ‘मगन बाबू भी खूब हैं!’ सुनायी पड़ रहा था।

साइकिल की रफ़्तार थोड़ी धीमी होते ही तुफ़ैल मियाँ और दूसरे सेवकों ने उनके पास पहुँचकर साइकिल को थाम लिया। तब तक एक कार भी आ पहुँची। मगन बाबू को साइकिल से उतारकर कार में बैठाया गया।  बाज़ार वालों की अच्छी-ख़ासी भीड़ उनके इर्दगिर्द जमा हो गयी थी। ‘अरे वाह रे बाबू साहब!’ ‘धन्य हो बाबू साहब!’ की टिप्पणियाँ चल रही थीं।  मगन बाबू मन्द मन्द हँस रहे थे।

कार के बंगले में दाख़िल होने पर मगन बाबू बाहर निकलकर लॉन में आरामकुर्सी पर फैल गये। उनकी माताजी विह्वल भाव से उनके शरीर पर हाथ फेरने लगीं।  बंगले के सब छोटे-बड़े उन्हें घेरकर खड़े हो गये। उलाहने के स्वर में टिप्पणियाँ आ रही थीं, ‘कुछ तो सोचना चाहिए’, ‘कुछ हो जाता तो?’, ‘बड़ी बेफिक्र तबियत के हैं’, वगैरः वगैरः।  तुफ़ैल मियाँ कह रहे थे, ‘अबकी बार आप ऐसा करके देखिए, लौट के मुझे ज़िन्दा न पाएंगे। ‘ माताजी कह रही थीं, ‘तू क्यों हमको इतना सताता है रे? सब दिन बच्चा ही बना रहेगा? छः बच्चों का बाप बन गया, कुछ तो समझ से काम ले।’ और मगन बाबू आँखें बन्द किये मन्द-मन्द मुस्कराए जा रहे थे।

बंगले के भीतर उनकी पुत्री अपने चाचा से फ़ोन पर बात कर रही थी—-‘आज साइकिल से निकल पड़े।  आफत मच गयी थी। बिलकुल ठीक हैं।  कुछ नहीं हुआ।  मानते नहीं हैं न। कुछ न कुछ मज़ाक करते ही रहते हैं।’

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य- दीपावली विशेष – व्यंग्य – ☆ और लक्ष्मी जी स्वर्ग वापस हो गईं ☆ – डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित एक सामयिक व्यंग्य  “और लक्ष्मी जी स्वर्ग वापस हो गईं ”.)

 

☆ व्यंग्य – और लक्ष्मी जी स्वर्ग वापस हो गईं

 

लक्ष्मी जी सजधज कर जैसे ही बाहर निकलने लगीं वैसे ही भगवान विष्णु ने उन्हें टोंका–“अरे अमावस्या की अर्धरात्रि के अंधेरे में कहाँ जा रही हो इस तरह भरपूर साज श्रंगार कर?”

“ओफ़ ओ, आपको इतना भी याद नहीं कि आज मृत्यु लोक में स्थित भारत में दीपावली का त्योहार मनाया जा रहा है । करोड़ों लोग मेरा पूजन कर मेरी कृपा प्राप्त करने को बेकरार हैं । मैं अपने भक्तों के पास जा रही हूँ ।”

“यह तो ठीक है, भक्तों की पुकार सुनना भी चाहिये, किंतु तुम्हें यह नहीं मालूम कि भारत में अब ऐसी स्थिति नहीं है कि कोई महिला रात्रि में निशंक  विचरण कर सके । वहाँ पर लूट मार, बलात्कार की घटनायें बहुत बढ़ गई हैं । महिलाओं के गले से जेवर, सोने की चैन, पर्स आदि लूटने की घटनायें आम बात हो गयी हैं । नेताओं, अधिकारियों के रिश्तेदारों को भी बेख़ौफ़ लूटा जा रहा है । अतः  मेरा सुझाव है कि इस समय तुम्हारा वहाँ जाना ठीक नहीं है ।” भगवान विष्णु ने कहा ।

“अरे मुझे किस बात का डर? मैं कोई साधारण महिला थोड़े न हूँ, लक्ष्मी हूँ लक्ष्मी, और फिर वहां मेरे भक्तों की संख्या कोई कम तो है नहीं । पग पग पर मेरे भक्त हैं वहां । जब भक्तों को मालूम होगा कि मैं आ रही हूं तो लोग झपट पड़ेंगे । मेरे भक्तों का मेला लग जावेगा । अच्छा अब चलूँ, देर हो रही है भक्तगण व्याकुल हो रहे होंगे ।” लक्ष्मी जी ने समाधानकारक शब्दों में उत्तर दिया ।

“यहाँ हम भी तो आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं काफी देर से । हम पर भी कृपा करिये न ।” भगवान विष्णु के स्वर में शरारत थी ।

“अरे हटो भी, आप पर तो 24 घन्टे मेरी कृपा दृष्टि रहती है ।”

लक्ष्मी जी का वाहन तेजी से धरती की ओर बढ़ रहा था । चारों ओर घोर अंधकार था पर वाहन की गति में कोई अवरोध नहीं हो रहा था । उलूक महोदय निविड़ अंधकार को चीरते हुए पृथ्वी पर भारत की ओर बढ़ते जा रहे थे । गति काफी तेज थी किंतु लक्ष्मी जी सन्तुष्ट नहीं थी वे शीघ्रातिशीघ्र अपने भक्तों के पास पहुंचना चाहती थीं। उन्होंने उलूक से पूछा –” अभी कितनी देर और लगेगी ?”

“बस कुछ क्षणों की बात है देवी जी, देखिये दियों का प्रकाश दिखने लगा है ।”

लक्ष्मीजी आश्वस्त हुईं ।

अभी लक्ष्मी जी का वाहन भारत की धरती पर उतरने ही वाला था कि आग के शोले उगलता एक अग्नि बाण उनके नजदीक से निकला । लक्ष्मी जी एकाएक घबरा उठीं और उलूक से बोलीं “ये अग्निबाण जरा निकट से गुजरता तो मेरी साड़ी जल जाती । कैसे हैं यहाँ के लोग ?”

आखिर लक्ष्मी जी भी महिला ही थीं उनको भी साड़ी फोबिया था कि उसकी साड़ी मेरी साड़ी से अच्छी कैसे  वाला । अतः वे अपनी साड़ी की विशेष देखभाल करती थीं ।)

उलूक ने तत्काल अपना ज्ञान परिचय दिया – “देवीजी ये तो मेरे भी चचा हैं बुद्धि के मामले में । इनसे संभल कर व्यवहार कीजियेगा ।”

इस बीच वे भारत के एक शहर में उतर चुके थे । सारा वातावरण ज्योतिर्मय था ।चारों ओर रोशनी की जगमगाहट थी, दीपों की मालिकायें जगमगा रही थीं । घर -घर किये गये पूजन और हवन के परिणामस्वरूप सारा वातावरण सुगन्धित हो रहा था । सजी धजी महिलाएं बच्चों के साथ दीप प्रज्वलित कर मंदिरों को जा रही थीं। जगह -जगह बच्चे पटाखे फोड़ रहे थे ।

वातावरण में अजीब सा उल्लास तथा उमंग थी । लक्ष्मी जी को आत्मसंतोष हुआ, चलो भारत में अभी भी आस्था, श्रद्धा तथा विश्वास है । लक्ष्मी जी यह सब सोच ही रही थीं कि उनके निकट ही एक बम जोरदार आवाज के साथ फटा, वे हड़बड़ा गईं। कुछ ही दूर पर लड़के ताली  बजाकर हंस रहे थे । उनको लड़कों की यह हरकत अच्छी नहीं लगी, वे गुस्से में आगे बढ़ गई । उन्हें यह मालूम था कि भारत में रात्रि 10 बजे के बाद तेज आवाज वाले पटाखे फोड़ने पर प्रतिबंध है, लेकिन यहां तो लोग 10 बजे के बाद ही पटाखे फोड़ रहे हैं । नियम कानून का कोई भय ही नहीं है ।

उलूक महाशय पेड़ की डाल पर बैठ कर आराम फरमाने लगे ।

लक्ष्मी जी जैसे -जैसे आगे बढ़ती गईं वैसे-वैसे बमों-पटाखों की आवाज तेज होती गयी । भारी शोर शराबे से परेशान होकर वे शांत स्थान खोजने लगीं और अपनी खोज के दौरान वे कालोनी के बाहरी छोर पर जा पहुंचीं जहां एक बस्ती थी और वहां अपेक्षाकृत बहुत ही कम रोशनी थी तथा पटाखों का शोर भी नहीं था। उन्होंने देखा, जहां वे खड़ी हैं  उस झोपड़ी में कोई सजावट भी नहीं थी और दरवाजा भी बंद था । कदाचित जलाये गये दो -चार दिये भी बुझ चुके थे ।लक्ष्मी जी से रहा नहीं गया उन्होंने दरवाजा खटखटाया।

एक वृद्ध ने खांसते हुए दरवाजा खोला और पूछा-  “अरे कौन है भाई? इतनी रात को क्या काम है ? ” वृद्ध की जर्जर अवस्था देख लक्ष्मी जी को दया आ गई। वे बोलीं – ” बाबा, मैं लक्ष्मी हूँ …  ”

बूढ़े ने बीच में ही बात काट कर पूछा- “कौन लक्ष्मी, परसादी लाल की बिटिया ?”

” नहीं बाबा, मैं स्वर्ग की लक्ष्मी देवी हूँ जिसकी आप लोग पूजा करते हैं ।” लक्ष्मी जी ने हड़बड़ाहट में अचानक अपना परिचय दे दिया ।

बूढ़े ने लालटेन की मद्धिम रोशनी में लक्ष्मी जी को ऊपर से नीचे तक  घूरा और बोला – “स्वर्ग की लक्ष्मी का यहां क्या काम ? वहां जाओ अमीरों की कालोनी में, जहां तुम्हारी भारी पूजा होती है । हमारे यहां क्या रखा है सिर्फ गरीबी के । जाओ वहीं जाओ जहां पार्टी चल रही होगी, ताश के पत्ते  फेंटे जा रहे होंगे लाखों के दांव लग रहे होंगे, शराब छलक रही होगी । वहीं जाओ, वहीं रहते हैं तुम्हारे भक्त, हाँ तुम्हारे भक्त …” बड़बड़ाते हुए बूढे ने दरवाजा बंद कर  लिया ।

लक्ष्मी जी बूढ़े की बात सुनकर गम्भीर हो गईं । उन्हें अपनी उपेक्षा पर आश्चर्य हुआ और वे आगे बढ़ गईं ।

अभी लक्ष्मी जी कुछ ही कदम बढ़ पाई होंगी कि अचानक अंधकार में दो चाकू चमक उठे, वे सहम गईं, उनके मुख से चीख निकल गई ।

“शोर मचाने की जरूरत नहीं है, चुपचाप जितने जेवर पहने हो, निकालकर दे दो वरना खैर नहीं ।” दो लड़कों  ने चाकू उनके और नजदीक कर कहा ।

लक्ष्मी जी को विष्णुजी की वह बात याद आ गई कि भारत में लूटमार की घटनायें बहुत बढ़ गई हैं । उन्होंने साहस बटोरकर कहा -“जानते नहीँ हो हम कौन हैं, हम लक्ष्मी हैं लक्ष्मी।”

“लक्ष्मी हो पार्वती, हमें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । उतारो जल्दी उतारो सभी गहने। हमारे लिये तो ये गहने ही असली लक्ष्मी हैं । उतारो वरना ….” गुंडे ने चाकू की ओर इशारा किया ।

लक्ष्मी ने सोचा  किन लोगों के चंगुल में फंस गई मैं । उन्होंने चाहा कि वे इनको समझायें लेकिन अनुभव किया कि इसका कोई लाभ नहीं । अंतर्ध्यान होने में ही  उन्होंने अपनी खैर समझी और दो चार गहने उतार कर वे स्वर्ग वापस चली गईं ।

© डॉ . प्रदीप शशांक 
37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 18 ☆ दीपावली विशेष ☆ पटाख साले ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे.  अब लीजिये दीपावली का रंग बिरंगे   उत्सव का  भी शुभारम्भ हो चूका है. आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य  “पटाख साले”.  श्री विवेक रंजन जी का यह व्यंग्य शुभ दीपावली पर विभिन्न  रिश्तों को विभिन्न पटाखों  की उपमाएं देकर सोशल मीडिया पर ई -दीपावली में ई-पाठकों के साथ  ई-मिठाई  का स्वाद देता है . श्री विवेक रंजन जी ने  व्यंग्य  विधा में इस विषय पर  गहन शोध किया है. इसके लिए वे निश्चित ही बधाई के पात्र हैं.  )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 18 ☆ 

 

☆ पटाख साले ☆

 

कल एक पार्टी में मेरे एक अभिन्न मित्र मिल गये. उनके साथ जो सज्जन थे उनसे उन्होने मेरा परिचय करवाते हुये कहा, इनसे मिलिये ये मेरे पटाख साले हैं. मैने गर्मजोशी से हाथ तो मिलाया, पर प्रश्नवाचक निगाहें डाली अपने मित्र की ओर. “पटाख साले” वाला रिश्ता समझना जरुरी था. मित्र ने मुस्कराते हुये खुलासा किया हम साले साहब के साले जी को पटाख साला कहते हैं. मैं भी हँसने लगा. दीपावली के मौके पर एक नये तरह के रिश्ते को समझने का अवसर मिला,  रिश्ते की ठीक ही विवेचना थी साला स्वयं ही बहुत महत्वपूर्ण होता है, क्योकि  “जिसकी बहन अंदर उसका भाई सिकंदर”, “सारी खुदाई एक तरफ, जोरू का भाई एक तरफ”. फिर ऐसे साले के साले जी को पटाख साले का खिताब दीपावली के मौके पर स्वागतेय है.

यूँ हमारे संस्कारो में रिश्तो को पटाखो से साम्य दिया ही जाता है. प्रेमिकाओ को फुलझड़ी की उपमा दी जाती है. पत्नी शादी के तुरंत बाद अनार, फिर क्रमशः चकरी और धीरे धीरे अंततोगत्वा  प्रायः बम बन जाती  हैं. वो भाग्यशाली होते हैं जिनकी पत्नियां फुस्सी बम होती हैं. वरना अधिकांश पत्नियां लड़लड़ी, कुछ लक्ष्मी बम तो कुछ रस्सी वाला एटमबम भी होती हैं. साली से रंगीन दियासलाई वाला बड़ा प्रेमिल रिश्ता होता है. हाँ, सासू माँ के लिये फटाखो में से समुचित उपमा की खोज जारी है. मायके का तो कुत्ता भी बड़ा प्यारा ही होता  है.

इसी क्रम में देवर को तमंचा और जेठ को बंदूक कहा जा सकता है. बच्चे तो फटाको का सारा बाजार लगते हैं बिटिया आकाश में  प्यारा रंगीन नजारा बना देती है और बेटा हर आवाज हर रोशनी होता है.पतिदेव बोटल से लांच किये जाने वाले राकेट से होते हैं. ससुर जी को  आकाश दीप सा सुशोभित किया जा सकता है.  हाँ, ननद जी वो मोमबत्ती होती हैं जिसकी लौ  हर फटाके को फोड़ने में उपयोग होती है और जिसके पिघल कर बहते ही पति सहित  फटाको का पूरा पैकेट रखा रह जाता है.  सासू माँ जो कितना भी प्रयास कर लें कभी भी माँ बन ही नही पातीं, रोशनी और बम के कॉम्बिनेशन वाला फैंसी फटाका होती हैं  या फिर कुछ सासू जी देसी मिट्टी वाले अनार कही जा सकती हैं जो कभी कभी बम की तरह आवाज के साथ फूट भी जाती हैं.

यूँ अब ग्रीन फटाखो का युग आने को है, जिसके स्वागत के लिये मीलार्ड ने भूमिका लिख डाली है. आईये निर्धारित समय पर मशीन की तरह फटाके फोड़ें और व्हाट्सअप पर बधाई, देकर ई-मिठाई खाकर दीपावली मना लें. प्रार्थना करें कि  माँ लक्ष्मी की जैसी कृपा राजनीतिज्ञों पर रहती है वैसी ही वोटरो पर भी हो.

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ काश ये हो पाता …. ☆ – डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

 

(आज प्रस्तुत है डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’ जी  द्वारा रचित एक सामयिक, सार्थक एवं सटीक व्यंग्य  “काश ये हो पाता …”।   व्यंग्य के अंत में  कमेंट बॉक्स में कमैंट्स देना न भूलें। )

 

☆ काश ये हो पाता …. ☆

 

भारतीय संस्कृति, हिन्दुधर्म, सनातन परम्पराओं तथा रिश्तों की प्रगाढ़ता से तो विदेशी भी अभिभूत रहते हैं परन्तु जमीनी हकीकत शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में नजदीकी भ्रमण से ही पता चलती है। हम अपने मियाँ मुँह मिट्ठू सदा से बनते आये हैं। अपनी तारीफों के पुल बाँधते लोग कहीं भी दिख जायेंगे। वैसे तो देश के मंत्री-संतरियों से लेकर आम आदमी तक विदेशों तक में अपना लोहा मनवाने और अपना झंडा गाड़ने का सामथ्र्य रखता है। अपने दृष्टिकोण और अपनी हर अच्छी-बुरी बात को सही मनवाना अपने बाँये हाथ का खेल समझता है। ऐसा ही एक वाक्या विगत दिनों मेरे साथ हुआ जब एक सज्जन ने अपने इस शहर की सड़कों, स्ट्रीट लाईट्स, सरकारी नलों, ट्रैफिक पुलिस और साहित्यकारों की विचित्र स्थितियों पर हमसे लम्बी चर्चा की। कई विषयों पर उन्होंने मुझे विस्तार पूर्वक समझाने की कोशिश की पर मेरी समझ के परे ही रहा।  उनका कहना था कि जबलपुर की सड़कों के गड्ढों से लोग परेशान कम लाभान्वित ज्यादा हो रहे हैं। मैंने जब बड़े विस्मयभाव से पूछा कि कैसे, तो उन्होंने बताना शुरू किया कि गड्ढों भरी सड़क पर चलते समय कूद-कूदकर गड्ढे पार करने और संतुलन बनाए रखने से लोगों की एक्सरसाइज होती है, जिससे मॉर्निंग अथवा ईव्हनिंग वाक पर जाने की जरूरत नहीं पड़ती, इस बचे हुए समय का उपयोग ये लोग बड़ी सिद्दत से किसी दूसरे महत्त्वपूर्ण कार्यों में कर लेते हैं। इन सड़कों पर जब वाहनों का उपयोग किया जाता है तो गड्ढों द्वारा उत्पन्न हिचकोलों से लोगों का पाचन संस्थान और एक्टिव हो जाता है। भोजन को पचाने के लिए अलग से कोई डाईजिन टेबलेट्स या अन्य पाचक चूर्ण नहीं खाना पड़ता। इन गड्ढों के कारण लोगों के वाहन तेज रफ्तार से नहीं भाग पाते जिससे एक्सीडेंट के खतरे की गुंजाईश लगभग समाप्त हो जाती है। आप मानें या न मानें, ये गड्ढे स्पीड ब्रेकर का भी काम करते हैं, जिससे स्पीड ब्रेकर बनाने में खर्च होने वाले सरकारी पैसे तथा समय दोनों की बर्बादी रुकती है। ऐसे में आपके दिमाग में ये जरूर आया होगा कि जब तेज रफ्तार नहीं तो ट्रैफिक पुलिस की क्या आवश्यकता है। तब उनका मानना था कि यदि फायदे न होते तो ट्रैफिक पुलिस का गठन ही क्यों किया जाता? वैसे भी बिना गड्ढों वाली सड़कों पर ये पुलिस वाले ट्रैफिक व्यवस्था देखते ही कब हैं। हमने तो इन्हें बगुलों की तरह शिकार पर पैनी नजर रखते देखा है अथवा चंद पैसों के लिए लार बहाते देखा है। कतिपय पुलिस वाले एनकेनप्रकारेण चालान काटने का डर दिखाकर लोगों से पैसे ऐंठ लेते हैं और उन पैसों से अपनी जरूरतें तथा शौक पूरे करते हैं। होटलों तथा बार में लंच, डिनर, पीना-खाना इनके प्रिय शगल होते हैं। इससे एक ओर इनको होटल का लजीज खाना मिल जाता है वहीं घर में उनकी बीवियों को भी खाना न बनाने की वजह से आराम मिल जाता है। फिर यदि  सड़कों की मरम्मत हेतु जनता परेशान होकर गुहार लगाती है तो नगर निगम सड़कों के गड्ढे भरने के लिए ठेका दे देता है। ठेका में कमीशन बाजी होती है। जब कमीशन बाजी होगी तो गुणवत्ता निश्चित रूप से कम होगी ही। जहाँ गिट्टी-डामर या सीमेंट-रेत-गिट्टी लगाना चाहिए वहाँ आसपास का मलमा, मिट्टी और राखड़ वगैरह डालकर गड्ढे भर दिए जाते हैं। लोगों और संबंधित अधिकारियों की आँखों में धूल झोंकने के लिए ज्यादा हुआ तो मलमा और ईंटों के टुकड़ों से भरी गई सड़कों पर काली डस्ट डाल दी जाती है, जिससे यह समझ में नहीं आता कि इनमें केवल खानापूर्ति की गई है।

अब स्ट्रीट लाइट की बात करें तो स्ट्रीट लाइट से दबंग लोगों के घरों के सामने लगे सोडियम लेम्प, मरकरी लेम्प, हाई मॉस लाइट उनकी बिल्डिंगों को जगमगाते हैं। अपने जगमग घरों को देखकर ये लोग फूले नहीं समाते, वहीं आम लोगों की भी समझ में आता रहता है कि ये धन्नासेठों-राजनेताओं के मकान हैं। इससे यह भी होता है कि इन बिल्डिंग वालों को बाहर अतिरिक्त कोई लाईट नहीं जलाना पड़ती। कारपोरेशन का प्रकाश आँगन, लॉन या टेरिस पर आने-जाने, उठने-बैठने या मौज-मस्ती हेतु पर्याप्त होता है। स्ट्रीट लाईट वाले अक्सर लाईट बुझाना भूल जाते हैं, इससे फायदा ये होता है कि ये लाइटें उल्टे दिन में सूर्य को प्रकाशित करती रहती हैं। वहीं शाम को कर्मचारी द्वारा लाईट जलाने की जहमत नहीं उठाना पड़ती, इससे मानो कुछ कर्मचारियों की अघोषित छुट्टी हो जाती है और ये अपने दूसरे काम निपटा लेते हैं। लाईटें खराब न होने पर भी उन्हें बदलने के बहाने कीमती लाईट से संबंधित सामान इश्यू करा लिए जाता है, जिसे बेचकर कर्मचारी कुछ अतिरिक्त पैसे कमा लेते हैं। इससे उनके कई छोटे-मोटे सपने भी पूरे होते रहते हैं। मैंने सोचा इसमें भी क्या बुरा है, देश का पैसा देश में तो रहता है। लोग तो विदेशी स्विस बैंक में पैसे जमा करते हैं, जो उनके अलावा दूसरे के काम आता ही नहीं है। शिकायतें करने का दायित्व पब्लिक हमेशा की तरह एक-दूसरे पर छोड़ती है, जिससे कार्यवाही के अभाव में कर्मचारियों पर अंकुश नहीं लग पाता और सब यूँ ही चलता रहता है।

यही हाल सरकारी नलों एवं निगम के टैंकरों के होते हैं। इसी तरह की छोटी-छोटी छूटों या खामियों का फायदा उठाने में कुछ विशेष किस्म के माहिर लोग होते हैं। ये लाईट न होने या फाल्ट सुधारने के नाम पर नल-जल की सप्लाई बंद करवा देते हैं जिससे पानी के टैंकरों की बिक्री बढ़ जाती है। वाटर सप्लायर्स भी खुश हो जाते हैं। वहीं पत्नीव्रता पतियों की सारे घर के कपड़े धोने की छुट्टी स्वतंत्रता दिवस के रूप में बदल जाती है। शहर के अधिकांश नलों की टोंटियाँ लोगों के घरों में देखी जा सकती हैं। बूँद-बूँद पानी का महत्त्व समझने वाले बड़े शहरों के लोगों को ये सब देखकर आश्चर्य होता है। उन्हें हमारी खुशकिस्मती पर ईष्र्या होने लगती है, पर हमारे नगर निगम का तजुर्बा है कि बिना टोंटी के नलों से बहने वाला पानी वातावरण को शीतलता प्रदान करता है और पानी द्वारा उत्पन्न लहलहाती हरियाली से शहर की सुंदरता में चार चाँद लगते हैं। कहीं कहीं यह पानी छोटी-छोटी झीलों का रूप धारण कर लेता है जहाँ लोग श्वेत बगुलों को तैरते देख आनन्दानुभूति प्राप्त कर सकते हैं।

हमारे एक दोस्त का कहना है कि जो आदमी अपनी बुद्धि का जितना उपयोग करता है उसकी जेब उतनी ज्यादा गर्म रहती है। पर मेरा मानना है कि बुद्धि के सदुपयोग से ज्यादा बुद्धि के दुरुपयोग से जल्दी और ज्यादा पैसा कमाया जा सकता है परन्तु यह काम सोने पर सुहागा तब हो जाता है जब इन परम बुद्धिमानों का जेल गमन होता है। वहाँ तो खाना-पीना और पैर पसार कर सोना सब मुफ्त उपलब्ध होने लगता है, समाचार पत्रों और मीडिया की हेड लाइन बनना उनके लिए आम बातें हो जाती हैं।

आगे साहित्यकारों के बारे में उन्होंने बताया कि आज के साहित्यकारों द्वारा दूसरों की रचनाएँ पढ़ने का शौक ही खत्म हो गया है। ये तो बस अपनी सुनाना चाहते हैं, जिससे आत्मावलोकन या स्वमूल्यांकन के अवसर ही नहीं आ पाते। इसीलिए किसी दूसरे की नई या पुरानी रचना को देखकर, उसमें कुछ फेरबदल कर या पात्र बदलकर कम मेहनत में रचना तैयार कर ली जाती है, जो कुछ साहित्यकारों के बीच अपनी धाक जमाने में काम आती है। ऐसे लोग भाषा के जानकार तो होने के साथ साथ अपने नकल-कौशल से अपना लोहा मनवाने का भी हुनर रखते हैं। इनसे पूछने पर इनका सीधा जवाब होता है कि रचना तो ऊपर से उतरती है, हम तो बस अपनी कलम चलाते हैं। परोक्ष रूप में उनके श्रीमुख से सच ही निकल जाता है कि वे बस अपनी कलम चलाते हैं। विचार तो पके-पकाये मिल ही जाते हैं। रात के 2,00 – 3,00 बजे तक जागने की बजाए दूसरों का, दूसरे देशों का साहित्य चुराकर अपना सीना ठोकते हुए ऐसे लोग अपने नाम से उस रचना को सुनाना ज्यादा आसान मानते हैं। पकड़े जाने पर उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे वाली कहावत सार्थक कर देते हैं। अक्सर इन सबका एक ही कहना रहता है कि मैंने नहीं उनने मेरी रचना चुराई है। ऐसे शब्दों के हेरफेर करने वाले लोग आज बहुतायत में देखे जा सकते हैं। आजकल यह भी देखा गया है कि लोग अपना बेशकीमती समय खपाकर जब एक रचना का सृजन करते हैं तो उसका प्रतिफल उन्हें न के बराबर मिलता है, लेकिन एक या दो रचना लेकर पूरा इंडिया घूमने वाले कवि, चुटकुलेबाज अनेक मिल जाएँगे। इतना सब कुछ करने और चिंतन-मनन के बाद अब हमारी भी तीव्र इच्छा होने लगी है कि ऐसी मेहनत किस काम की जो दो पैसे भी न दिला सके। इससे अच्छा तो आज मंच से तथाकथित नामी-गिरामी चुटकुलेबाज, कवि एक-दो मुक्तक की आड़ में 25-50 चुटकुले सुनाकर रुपये कमा लेते हैं, वाहवाही लूटते रहते हैं। हम ऐसे श्रोताओं को अतिरिक्त धन्यवाद देना चाहेंगे जो इन तथाकथित प्रसिद्धिप्राप्त चुटकुलेबाजों की आय के साधन हैं। लेकिन हमें तरस आता है अपने उन उत्तम और सच्चे साहित्यकारांें पर जो धन के महत्त्व को समझते हुए भी उनकी लाईन में जाना पसंद नहीं करते! और देखिए, जनता आखिरी तक इंतजार करती रह जाती है कि शायद अब एक आदर्श रचना उनसे सुनने मिलेगी मगर चुटकुलेबाज कभी अपने घटियापन से बाज नहीं आते। वे निम्न स्तरीय बातों या नेताओं पर बनाये चुटकुलों की झड़ी लगा देंगे लेकिन उस कवि सम्मेलन के नाम की सार्थकता एक दिशाबोधी कविता सुनाकर सिद्ध नहीं करेंगे। अरे भाई वे तो बस फिल्मी धुनों पर पैरोडी सुनाते हैं और जनता को चुटकुले सुना-सुनाकर बहलाते रहते हैं।

तथाकथित सज्जन की बातों से मेरा सिर चकराने लगा था। उनकी बातों में कुछ बात तो थी। मैंने उनसे कहा बस भी करो भाई। मुझे और भी काम हैं, इतना कहते हुए तेजी से उन्हें वहीं छोड़कर भाग निकला परंतु उनकी उल्टी बातें मुझे सीधा सोचने पर मजबूर कर रहीं थी। काश! एक बार फिर हमारे साहित्यकार बंधु अपने दायित्व को समझते। बिजली वाले, नगर निगम वाले या और सभी सरकारी कर्मचारी- अधिकारी अपना फर्ज निभाते तो समाज और देश की आधी से ज्यादा समस्याएँ वैसे ही समाप्त हो जातीं और सामान्य जनता राहत की साँस लेती। काश! ये हो पाता…, यही सोचता हुआ मैं अपने घर की ओर भाग रहा था।

 

© विजय तिवारी  “किसलय”, जबलपुर 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 17– व्यंग्य – नीबू मिर्ची के टोटके ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में उनका  व्यंग्य   “नीबू मिर्ची के टोटके” । आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 17☆

 

व्यंग्य –  नीबू मिर्ची के टोटके  

 

हमारा गंगू छोटा आदमी है, कम पढ़ा लिखा है पर तेज बुद्धि का है। पहले सड़क के किनारे लकड़ी का पटा बिछाकर आम आदमी के बाल काटता था, फिर बाद में कचहरी की दीवार के किनारे एक पुरानी कुर्सी में ग्राहकों को बैठाकर दाढ़ी बनाने लगा, बाल काटने लगा, चम्पी करने लगा तो थोड़ी इन्कम बढ़ी। गंगू खुश रहता। दिन भर में जितना पैसा आता उससे गुजर बसर हो जाती। इधर जबसे गंगू ने बाई के बगीचे में छोटी सी दुकान किराये पर ली है तब से गंगू कुछ परेशान सा रहता है। पड़ोसी भाईजान से परेशान है, पुलिस की उगाही से परेशान है, बढती उधारी से परेशान है, मोहल्ले के दादा लोगों की हफ्ता वसूली से परेशान है, बिजली के बिल से परेशान है, मंहगाई डायन से परेशान है और मकान मालिक से परेशान है। जब दुकान ली थी तो काम अच्छा आता था। अच्छी ग्राहकी जम गई थी। सब लोग अपनी सुविधानुसार बाल कटवाने दाढ़ी बनवाने आते थे जब से ये अमित और नरेन्दर ने दाढ़ी रखने का फैशन निकाला है लोग दाढ़ी नहीं बनवाते सिर्फ दाढ़ी सेट कराते हैं। जब दुकान ली थी तो दिन भर ग्राहकों का आना जाना लगा रहता था कोई दिन-रात का टोटका नहीं था। इधर जबसे पड़ोसी भाईजान से झगड़ा हुआ है, झगड़ा क्या बहस हो गई। क्या है कि फ्रांस में जाकर नेता जी ने राफेल के दोनों चकों के नीचे हरा नीबू रखने का टोटका कर दिया तो भाईजान नाराज हो गए, कहने लगे – टोटका करना ही था तो पीले नीबू भी रख सकते थे। भाईजान चिढ़ गए। कहने लगे राफेल के चकों के नीचे हरा नीबू रखना, सिंदूर से ॐ लिखना फिर नारियल फोड़ने से जनता के बीच अंधविश्वास को बढ़ावा मिलेगा। बहस के बीच नेता जी का बचाव करते हुए गंगू बोला – राफेल भले अभी फ्रांस में खड़ा है पर हमारी लोक परंपराओं और धार्मिक मान्यताओं का पालन करने से नेताओं का जनता के बीच विश्वास बढ़ता है और वैश्विक स्तर पर मीडिया में पब्लिसिटि भी अच्छी मिलती है और विरोधियों को भी बड़बड़ाने का मुद्दा मिल जाता है। हो सकता है कि नेता जी ने ये टोटका इसीलिए किया हो कि विरोधियों की बुरी नजर राफेल पर न लगे इसीलिए नजर उतारने के लिए नीबू का उपयोग करना पड़ा साथ ही आतंकवाद फैला रहे पड़ोसी को भी संकेत देना रहा होगा कि जब राफेल उड़ान भरेगा तो हरे रंग के नीबू को कुचल देगा। गंगू के तर्कों से पड़ोसी नाराज हो गया, और खुन्नस निकालने के लिए गंगू के सब ग्राहकों को धीरे-धीरे भड़काने लगा, राफेल के साथ किए गए टोटकों के बहाने गंगू के ग्राहकों को बरगलाने लगा। गंगू का धंधा धीरे-धीरे चौपट होने लगा।

मैं अक्सर गंगू के सैलून में कटिंग कराने और डाई लगवाने जाता हूँ। हर महीने गंगू से मुलाकात हो जाती है।  गंगू दिलचस्प आदमी है इसलिए उससे दुनियादारी की बात करने में मजा आता है। उस दिन बाल काटते हुए गंगू बोला – साहब… आजकल पडोसियों से बड़ा डर लगता है कब क्या कर दें, कब क्या कह दें कोई भरोसा नहीं। हमारा पड़ोसी राफेल के टोटके का बहाना लेकर हमारी ग्राहकी बिगाड़ने पर तुला है, हमारे ग्राहकों को अंधविश्वास वाले तरह-तरह के टोटके बताकर सैलून का धंधा चौपट करा दिया है। ग्राहकों से कहता है कि वृहस्पतिवार को दाढ़ी और बाल कटवाने से घर की लक्ष्मी भाग जाती है और मान सम्मान की हानि होती है। एक ग्राहक को तो ऐसा डराया कि वो हमारे सैलून तरफ झांकता भी नहीं है।  उससे कह दिया कि सोमवार के दिन भूलकर भी गंगू की दुकान जाना नहीं क्योंकि सोमवार के दिन बाल कटवाने से मानसिक दुर्बलता आती है और संतान के लिए हानिकारक होता है। कुछ ग्राहकों को कह दिया कि मंगलवार के दिन बाल कटवाने से अपनी उम्र का नुकसान होता है और इसे ही अकाल मृत्यु का कारण माना जाता है।

गंगू की बातें सुनकर कुछ अजीब सा लगा कि हर दिन अशुभ है तो आम आदमी बाल कब कटायेगा? फिर मैंने पूछा – गंगू इतवार को छुट्टी का दिन रहता है तो इतवार को तो खूब काम मिल जाता होगा?

अनमने मन से गंगू बोला – ऐसा नहीं है साहब, पड़ोसी ने सब जगह ये फैला दिया है कि रविवार का दिन सूर्य का दिन होता है इस दिन बाल कटवाने से धन, बुद्धि और धर्म का नाश हो जाता है। मुझे आश्चर्य हुआ फिर मैंने कहा कि  सुना है बुधवार का दिन सबसे अच्छा होता है बुधवार को तो काफी लोग आते होंगे?

गंगू बोला – कहां साब, बुधवार को तो मार्केट बंद होने का दिन होता है उस दिन दुकान खोल नहीं सकते। और यदि खोल लिया तो पडोसी गुमाश्ता एक्ट में चालान करा देता है।

मैंने गंगू से मजाक करते हुए कहा – कि यदि पडोसी ज्यादा गड़बड़ कर रहा है तो ट्रंप से मध्यस्थता करा देते हैं। या फिर एक काम करो कि राफेल जैसा टोटका करने के लिए नीबू मिर्ची के 251 जोड़ा दुकान में टंगवा देते हैं और दुकान की पूरी दीवार पर बड़े अक्षरों में 786 लिखवा देते हैं। गंगू को हमारी बात जम गई। उसने दूसरे दिन ही सैलून के बाहर हरे नीबू और हरी मिर्ची के 251 जोड़े लटका दिये और बाहर की दीवार में 786 लिखवा दिया। पूरे मार्केट में हरे नीबू और मिर्ची की अचानक डिमांड बढ़ गई। गंगू के पास इतने अधिक आर्डर आये कि सब आश्चर्यचकित हो गए, उसकी दुकान में नीबू हरी मिर्ची का जोड़ा लेने वालों की भीड़ बढने लगी। पडोसी देख देख कर जलने भुनने लगा। पडोसी को जलता – भुनता देख एक रात गंगू ने पड़ोसी की दुकान के सामने सिंदूर एवं नारियल रखकर अण्डा फोड़ दिया। दूसरे दिन पडोसी जब दुकान खोलने पहुंचा तो दुकान के सामने टोना – टोटका का सामान देखकर डर से कांपने लगा। बेहोश होकर गिर पड़ा तो गंगू ने दौड़ कर उसे संभाला। पडोसी टोना टोटका से मुक्ति का उपाय गंगू से पूछने लगा। गंगू गदगद हो गया, 56 इंच का सीना फुलाकर बोला – देखो भाईजान, आपने राफेल के टोटके से नाराज होकर मेरे खिलाफ जो षड्यंत्र रचा उसके लिए हमें दुख है पर आपके टोटकों से प्रेरणा लेकर टोटके वाले सामान की दुकान खोलने से हमारे ऊपर लक्ष्मी प्रसन्न हो गई है इसलिए आपके भले के लिए हम जो सलाह दे रहे हैं उसका शुद्ध मन से पालन करना तो लक्ष्मी आप पर भी प्रसन्न हो जाएगी। अब आप सिर्फ बुधवार को बाल कटवाना ये दिन बाल कटवाने के लिए शुभ दिन है। इस दिन बाल कटवाने से धन बढ़ता है, घर में खुशहाली आती है और धन्धे में बरक्कत होती है। बाल कटवा कर मंगलवार को नारियल अगरबत्ती बजरंगबली को चढ़ाना फिर नमाज पढ़ने जाना तो लक्ष्मी जल्दी घर में प्रवेश कर जायेगी। लक्ष्मी आगमन का एक और उपाय पता चला है, अपने मकान के बाहर कौड़ियों का तोरण बनवाकर बाहर लटका देना इससे बुरी नजर और ऊपरी हवाएं दूर रहती है साथ ही लक्ष्मी आगमन के द्वार खुल जाते हैं फिर लक्ष्मी हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख ईसाई नहीं देखती सीधे घर में प्रवेश कर जाती है। पड़ोसी को डरा देख गंगू ने उसे समझाया कि ये टोटके किसी को हानि नहीं पहुंचाते, ये मंगलसूचक, अनिष्टकारी, रोगनिवारक या टोने से बचाव के लिए किए जाते हैं। डरने की कोई बात नहीं है चुपके से अकेले में करते रहना। सब कहेंगे ये अंधविश्वास है तो तुम भी राफेल का उदाहरण दे देना। तुम्हें लक्ष्मी से मतलब है धर्म – वर्म तो बाद की चीज है।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 20 – व्यंग्य – एक संगीतप्रेमी ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं.  हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं.  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं. कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं.  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है. डॉ परिहार जी ने   एक ऐसे चरित्र का विश्लेषण किया है जो आपके आस पास ही मिल जायेंगे.  फिर ऐसे चरित्रों से पीछा छुड़वाना किसी कठिन कवायद से कम नहीं है. ऐसे सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  कलम को नमन. आज प्रस्तुत है उनका ऐसे ही विषय पर एक व्यंग्य  “एक संगीतप्रेमी ”.)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 20 ☆

 

☆ व्यंग्य  – एक संगीतप्रेमी ☆

 

नन्दू भाई को वैसे तो संगीत से कभी कुछ लेना-देना नहीं रहा। संगीत में वे कव्वाली ही पसन्द करते थे, या फिर कोई ‘आसिक मासूक’ की ‘सायरी’ सुनकर मगन हो जाते थे। लेकिन एक दिन एक घटना हो गयी। एक मित्र उनको संगीत समाज के एक कार्यक्रम में पकड़ ले गया। नन्दू भाई वहाँ शास्त्रीय गायन सुनकर उबासियाँ लेते रहे और चुटकियाँ बजाते रहे। गायिका वृद्धावस्था की देहरी पर थी, इसलिए वे उसके मुखमंडल में भी कोई रुचि नहीं ले सके। लेकिन गायिका के साथ जो तबलावादक था उसने समय मिलने पर तबले के कुछ ‘लोकप्रिय’ हाथ दिखाये। नन्दू भाई को और हाथ तो खास नहीं रुचे, लेकिन जब तबलावादक ने तबले पर ट्रेन चलने की आवाज़ निकाली तब वे मुग्ध हो गये। उसी क्षण उन्होंने निश्चय कर लिया कि तबला सीखना है और ज़रूर सीखना है।

शहर में संगीत विद्यालय नया नया खुला था। उसे छात्रों की ज़रूरत थी। इसलिए जब नन्दू भाई वहाँ पहुँचे तो प्राचार्य ने सर-आँखों पर बैठाया। जब नन्दू भाई ने तबला सीखने की इच्छा प्रकट की तो प्राचार्य ने गौ़र से उनकी अरवी के गट्टे जैसी उँगलियों को देखा। पूछा, ‘आप तबला सीखेंगे?’ नन्दू भाई ने उत्तर दिया, ‘जी हाँ, मुझे बड़ा ‘सौक’ है। ‘

नन्दू भाई की तबला ट्रेनिंग शुरू हो गयी। तबला शिक्षक अपनी मेहनत को अकारथ जाते देखता और कुढ़ता, लेकिन क्या करे? बेचारा रेत में से तेल निकालने के लिए मगज मारता रहता।

ट्रेनिंग के दूसरे महीने में एक दिन नन्दू भाई ने तबले पर ज़ोर का ठेका लगाया कि उनका हाथ तबले में घुस गया। तबले का चमड़ा उनकी शक्ति के आगे चीं बोल गया। तबला-शिक्षक का खून सूख गया, लेकिन वह क्या कहे?

उसके अगले महीने फिर एक तबले ने नन्दू भाई के प्रहार के आगे दम तोड़ दिया। संस्था में खलबली मच गयी। नया नया काम था, अगर ऐसे दस-बीस विद्यार्थी आ जाएं तो संस्था का दम निकल जाए।

चौथे महीने में फिर नन्दू भाई ने जोश में ठेका लगाया और उनका हाथ फिर भीतर घुसकर तबले की भीतरी खोजबीन करने लगा। प्राचार्य जी ने हथियार फेंक दिये।

उन्होंने नन्दू भाई को बुलाया, कहा, ‘नन्दू भाई, हमारे खयाल से आप काफी सीख चुके, और फिर पूरा कोर्स करके कौन आपको कहीं नौकरी करना है। जो बाकी बचा है उसे आप घर पर खुद ही सीख सकते हैं। ‘

नन्दू भाई बोले, ‘साहब, नौकरी तो नहीं करनी है लेकिन मेरी डिगरी लेने की इच्छा थी। ‘

प्राचार्य महोदय को पसीना आ गया। बोले, ‘डिग्री लेकर क्या करोगे? वैसे हमने विशिष्ट व्यक्तियों को देने के लिए कुछ मानद उपाधियाँ रखी हैं। आप चाहें तो इनमें से एक आपको दे सकते हैं। ‘

नन्दू भाई ने पूछा, ‘कौन कौन सी उपाधियाँ हैं?’

प्राचार्य बोले, ‘एक ‘तबला वारिधि’ की उपाधि है, एक ‘तबला निष्णात’ की और एक ‘तबलेश’ की। आप जो उपाधि पसन्द करें हम आपको दे सकते हैं। ‘

‘तबला वारिधि’ और ‘तबला निष्णात’ शब्द नन्दू भाई की समझ में नहीं आये। उन्हें ‘तबलेश’ पसन्द आया। एक दिन प्राचार्य जी ने विद्यालय के दस-पाँच लोगों को इकट्ठा करके भाई धनीराम को यह उपाधि प्रदान कर दी और छुटकारे की साँस ली।

चलते समय नन्दू भाई ने प्राचार्य से पूछा, ‘क्या मैं इन फूटे हुए तबलों को निशानी के तौर पर रख सकता हूँ? मैं इनका पैसा दे दूँगा। ‘ प्राचार्य जी ने सहर्ष उनको तीनों फूटे हुए तबले सौंप दिये।

अब नन्दू भाई अपनी तबला ट्रेनिंग के प्रमाण के रूप में लोगों को अपनी ‘तबलेश’ की उपाधि और तीनों फूटे हुए तबले दिखाते हैं। उनको एक ही अफसोस है कि तबला शिक्षक ने उन्हें तबले पर ट्रेन चलाना नहीं सिखाया।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆☆ आँसूओं की भी एक फितरत होती है ☆☆ – श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। आज  प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का सार्थक  एवं सटीक  व्यंग्य   “आँसूओं की भी एक फितरत होती है।  इस व्यंग्य को पढ़कर निःशब्द हूँ। मैं श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य पर टिप्पणी करने के जिम्मेवारी पाठकों पर ही छोड़ता हूँ। अतः आप स्वयं  पढ़ें, विचारें एवं विवेचना करें। हम भविष्य में श्री शांतिलाल  जैन जी से  ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा रखते हैं। ) 

 

☆☆ आँसूओं की भी एक फितरत होती है ☆☆

 

कुदरत हैरान थी. इतना पानी बरसाया, बांध भरा भी, मगर लबालब नहीं हो पाया. हार मानने को ही थी कुदरत कि कचरू पिता मांगीलाल निवासी ग्राम चिखल्दा की आँख से एक आँसू छलका, सरोवर में गिरा और झलक गया बांध. विकास के लिये तैयार – चारों और पानी ही पानी. बैकवाटर है श्रीमान. एक चुल्लू पीकर तो देखिये. मीठा  लग रहा है ना ! आँसूओं की एक फितरत होती है, जब इंसान अपने स्वयं के पीता है तो वे खारे लगते हैं, जब दूसरों के पीता है तो फीके लगते हैं, जब दूसरों के एंजॉय करता है तो मीठे लगते हैं. विकास जिनके घरों का बंधुआ है – मीठे आंसुओं की उनकी प्यास बुझती नहीं.

तो आईये श्रीमान, दिलकश नज़ारा है. जहाँ गाँव थे वहाँ पानी ही पानी है. वाटर स्पोर्ट्स के लिये फेसिनेटिंग डेस्टिनेशन. एक्वाजॉगिंग, वाटर एरोबिक्स, स्कीईंग, कयाकिंग, केनोइंग या फिर रिवर राफ्टिंग हो जाये. क्या कहा आपने – राफ्टिंग कैसे करते हैं ? कमाल करते हैं आप. कभी बाढ़ में डोंगियों पर जिंदगी बचाने का संघर्ष करते मज़लूम नहीं देखे आपने ? कुछ ऐसी ही डोंगियों पर खाये-पिये अघाये लोग रोमांच के लिये जब बहते हैं तो वे बहते नहीं हैं, राफ्टिंग करते हैं. उनके पीछे–पीछे चलती है लाइफ सेविंग बोट. आईये, उन खूबसूरत तितलियों को उड़ते हुये एंजॉय कीजिये जो थैले में से मुक्त कर दी गईं हैं. ये सवाल बेमानी है वे किसने कैद की थीं और क्यों? आईये, जंगल सफारी एंजॉय कीजिये. अब ये आदिवासी मुक्त क्षेत्र है. झोपड़े थे उनके, मिट्टी के चूल्हे, हंडा, थाली, कड़छी, चटाई, मुर्गा, बकरी, छोटी सी ही सही पूरी एक दुनिया, जो अब डूब गई है. बस एक जिंदगी बची थी जिसे लेकर वे मजदूरी करने शहरों की ओर निकल गये हैं. मिलेंगे आपको, शहर के लेबर चौक पर.

यहाँ से देखिये, एक सौ चालीस मीटर ऊपर से, जहां तक नज़र जायेगी, पानी ही पानी दिखेगा आपको. डूबने को तो गाँव के गाँव डूब गये हैं मगर चुल्लू भर पानी में कोई नहीं डूबा. डूबेगा भी नहीं. जो दूसरों को डुबोने के प्लान्स पर काम करते हैं वे चुल्लू भर पानी के पास भी नहीं फटकते हैं. बोतल में कैद करके साथ लिए चलते हैं, लीटर भर. वाटर ऑफ कार्पोरेट, वाटर फॉर कार्पोरेट. पूरी नदी उनकी कैद में. विकास की अट्टालिकाओं के निर्माण में पानी आँख का लगता है श्रीमान और जिनकी ये अट्टालिकायेँ हैं उनकी आँखों में बचा नहीं, सो कचरू, दत्तू, मोहन, बेनीबाई, कमलाबाई या मानक काका की आँखों से छलकवा लेते हैं. कुदरत नदी में पानी लाती है, वे मज़लूमों की आँख में लाते हैं. मीठे आँसू पीने का चस्का जो है उनको. बहरहाल, तब भी बद्दुआएँ देना कचरुओं की तासीर में नहीं है, एक आँसू ढलका कर जी हल्का कर लेते हैं, फिर निकल जाते है खंडवा, इंदौर, भोपाल की ओर. मीठे आंसुओं के चस्केबाज जीने नहीं देते, जिजीविषा मरने नहीं देती. जिजीविषा कुदरत को परास्त नहीं कर पाती मगर वो उसे हैरान तो कर ही देती है. कुदरत हैरान थी. कुदरत हैरान है.

 

© श्री शांतिलाल जैन 

F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, टी टी नगर, भोपाल – 462003  (म.प्र.)

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 17 ☆ लो फिर लग गई आचार संहिता ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य  “लो फिर लग गई आचार संहिता”.  काश अचार संहिता हमेशा ही लागू रहती तो कितना अच्छा होता. लोगों का काम तो वैसे ही हो जाता है. लोकतंत्र में  सरकारी तंत्र और सरकारी तंत्र में लोकतंत्र का क्या महत्व होगा यह विचारणीय है. श्री विवेक रंजन जी ने  व्यंग्य  विधा में इस विषय पर  गंभीरतापूर्वक शोध किया है. इसके लिए वे निश्चित ही बधाई के पात्र हैं.  )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 17 ☆ 

 

☆ लो फिर लग गई आचार संहिता ☆

 

लो फिर लग गई आचार संहिता। अब महीने दो महीने सारे सरकारी काम काज  नियम कायदे से  होंगें। पूरी छान बीन के बाद। नेताओ की सिफारिश नही चलेगी। वही होगा जो कानून बोलता है, जो होना चाहिये । अब प्रशासन की तूती बोलेगी।  जब तक आचार संहिता लगी रहेगी  सरकारी तंत्र, लोकतंत्र पर भारी पड़ेगा। बाबू साहबों  के पास लोगो के जरूरी  काम काज टालने के लिये आचार संहिता लगे होने का  आदर्श बहाना होगा । सरकार की उपलब्धियो के गुणगान करते विज्ञापन और विज्ञप्तियां समाचारों में नही दिखेंगी। अखबारो से सरकारी निविदाओ  के विज्ञापन गायब हो जायेंगे। सरकारी कार्यालय सामान्य कामकाज छोड़कर चुनाव की व्यवस्था में लग जायेंगे।

मंत्री जी का निरंकुश मंत्रित्व और राजनीतिज्ञो के छर्रो का बेलगाम प्रभुत्व आचार संहिता के नियमो उपनियमो और उपनियमो की कंडिकाओ की भाषा  में उलझा रहेगा। प्रशासन के प्रोटोकाल अधिकारी और पोलिस की सायरन बजाती मंत्री जी की एस्कार्टिंग करती और फालोअप में लगी गाड़ियो को थोड़ा आराम मिलेगा।  मन मसोसते रह जायेंगे लोकशाही के मसीहे, लाल बत्तियो की गाड़ियां खड़ी रह जायेंगी।  शिलान्यास और उद्घाटनों पर विराम लग जायेगा। सरकारी डाक बंगले में रुकने, खाना खाने पर मंत्री जी तक बिल भरेंगे। मंत्री जी अपने भाषणो में विपक्ष को कितना भी कोस लें पर लोक लुभावन घोषणायें नही कर सकेंगे।

सरकारी कर्मचारी लोकशाही के पंचवर्षीय चुनावी त्यौहार की तैयारियो में व्यस्त हो जायेंगे। कर्मचारियो की छुट्टियां रद्द हो जायेंगी। वोट कैंपेन चलाये जायेंगे।  चुनाव प्रशिक्षण की क्लासेज लगेंगी। चुनावी कार्यो से बचने के लिये प्रभावशाली कर्मचारी जुगाड़ लगाते नजर आयेंगे। देश के अंतिम नागरिक को भी मतदान करने की सुविधा जुटाने की पूरी व्यवस्था प्रशासन करेगा।  रामभरोसे जो इस देश का अंतिम नागरिक है, उसके वोट को कोई अनैतिक तरीको से प्रभावित न कर सके, इसके पूरे इंतजाम किये जायेंगे। इसके लिये तकनीक का भी भरपूर उपयोग किया जायेगा, वीडियो कैमरे लिये निरीक्षण दल चुनावी रैलियो की रिकार्डिग करते नजर आयेंगे। अखबारो से चुनावी विज्ञापनो और खबरो की कतरनें काट कर  पेड न्यूज के एंगिल से उनकी समीक्षा की जायेगी राजनैतिक पार्टियो और चुनावी उम्मीदवारो के खर्च का हिसाब किताब रखा जायेगा। पोलिस दल शहर में आती जाती गाड़ियो की चैकिंग करेगा कि कहीं हथियार, शराब, काला धन तो चुनावो को प्रभावित करने के लिये नही लाया ले जाया रहा है। मतलब सब कुछ चुस्त दुरुस्त नजर आयेगा। ढ़ील बरतने वाले कर्मचारी पर प्रशासन की गाज गिरेगी। उच्चाधिकारी पर्यवेक्षक बन कर दौरे करेंगे। सर्वेक्षण  रिपोर्ट देंगे। चुनाव आयोग तटस्थ चुनाव संपन्न करवा सकने के हर संभव यत्न में निरत रहेगा। आचार संहिता के प्रभावो की यह छोटी सी झलक है।

नेता जी को उनके लक्ष्य के लिये हम आदर्श आचार संहिता का नुस्खा बताना चाहते हैं। व्यर्थ में सबको कोसने की अपेक्षा उन्हें यह मांग करनी चाहिये कि देश में सदा आचार संहिता ही लगी रहे, अपने आप सब कुछ वैसा ही चलेगा जैसा वे चाहते हैं। प्रशासन मुस्तैद रहेगा और मंत्री महत्वहीन रहेंगें तो भ्रष्टाचार नही होगा।  बेवजह के निर्माण कार्य नही होंगे तो अधिकारी कर्मचारियो को  रिश्वत का प्रश्न ही नही रहेगा। आम लोगो का क्या है उनके काम तो किसी तरह चलते  ही रहते हैं धीरे धीरे, नेताजी  मुख्यमंत्री थे तब भी और जब नही हैं तब भी, लोग जी ही रहे हैं। मुफ्त पानी मिले ना मिले, बिजली का पूरा बिल देना पड़े या आधा, आम आदमी किसी तरह एडजस्ट करके जी ही लेता है, यही उसकी विशेषता है।

कोई आम आदमी को विकास के सपने दिखाता है, कोई यह बताता है कि पिछले दस सालो में कितने एयरपोर्ट बनाये गये और कितने एटीएम लगाये गये हैं। कोई यह गिनाता है कि उन्ही दस सालो में कितने बड़े बड़े भ्रष्टाचार हुये, या मंहगाई कितनी बढ़ी है। पर आम आदमी जानता है कि यह सब कुछ, उससे उसका वोट पाने के लिये अलापा जा रहा राग है।  आम आदमी  ही लगान देता रहा है, राजाओ के समय से। अब वही आम व्यक्ति ही तरह तरह के टैक्स  दे रहा है, इनकम टैक्स, सर्विस टैक्स, प्रोफेशनल टैक्स,और जाने क्या क्या, प्रत्यक्ष कर, अप्रत्यक्ष कर। जो ये टैक्स चुराने का दुस्साहस कर पा रहा है वही बड़ा बिजनेसमैन बन पा रहा है।

जो आम आदमी को सपने दिखा पाने में सफल होता है वही शासक बन पाता है। परिवर्तन का सपना, विकास का सपना, घर का सपना, नौकरी का सपना, भांति भांति के सपनो के पैकेज राजनैतिक दलो के घोषणा पत्रो में आदर्श आचार संहिता के बावजूद भी  चिकने कागज पर रंगीन अक्षरो में सचित्र छप ही रहे हैं और बंट भी रहे हैं। हर कोई खुद को आम आदमी के ज्यादा से ज्यादा पास दिखाने के प्रयत्न में है। कोई खुद को चाय वाला बता रहा है तो कोई किसी गरीब की झोपड़ी में जाकर रात बिता रहा है, कोई स्वयं को पार्टी के रूप में ही आम आदमी  रजिस्टर्ड करवा रहा है। पिछले चुनावो के रिकार्डो आधार पर कहा जा सकता है कि आदर्श आचार संहिता का परिपालन होते हुये, भारी मात्रा में पोलिस बल व अर्ध सैनिक बलो की तैनाती के साथ  इन समवेत प्रयासो से दो तीन चरणो में चुनाव तथाकथित रूप से शांति पूर्ण ढ़ंग से सुसंम्पन्न हो ही जायेंगे। विश्व में भारतीय लोकतंत्र एक बार फिर से सबसे बड़ी डेमोक्रेसी के रूप में स्थापित हो  जायेगा। कोई भी सरकार बने अपनी तो बस एक ही मांग है कि शासन प्रशासन की चुस्ती केवल आदर्श आचार संहिता के समय भर न हो बल्कि हमेशा ही आदर्श स्थापित किये जावे, मंत्री जी केवल आदर्श आचार संहिता के समय डाक बंगले के बिल न देवें हमेशा ही देते रहें। राजनैतिक प्रश्रय से ३ के १३ बनाने की प्रवृत्ति  पर विराम लगे,वोट के लिये धर्म और जाति के कंधे न लिये जावें, और आम जनता और  लोकतंत्र इतना सशक्त हो की इसकी रक्षा के लिये पोलिस बल की और आचार संहिता की आवश्यकता ही न हो।

 

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 16 – जुग जुग जियो ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में उनका  व्यंग्य विधा में एक प्रयोग  “माइक्रो व्यंग्य  – जुग जुग जियो” । आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 16☆

 

☆ माइक्रो व्यंग्य –  जुग जुग जियो   

 

ये बात तो बिलकुल सही है कि लोगों ने मरने का सलीका बदल दिया है।

रात में सोये और बिना बताए चल दिए, कहीं टूर में गए और वहीं दांत निपोर के टें हो गए, न गंगा जल पीने का आनन्द उठाया न गीता का श्लोक सुना ,…..अरे ऐसा भी क्या मरना?

…..पहले मरने का नाटक कर लो थोड़ी रिहर्सल हो जाय, नात – रिस्तेदार सब जुड़ जाएँ। पहले से रोना धोना सुन लिया जाय। कुछ अतिंम इच्छा पूरी हो जाए।

भई मरना तो सभी को है तो तरीके से मरो न यार,  घर वालों को मोहल्ले पड़ोस से पर्याप्त सहानुभूति बगैरह मिल जाए। अब तुम तो जाय ही रहे हो कुछ पडो़स वालों को भी डराय दो कि लफड़ा किया तो भूत बनके निपटा दूंगा।

यदि दिल के कोई कोने में कोई बचपन की पुरानी प्रेमिका छुपी रह गई हो तो उसको भी कोई बहाने से बुला लिया जाए।

बुलंद इमारत के खण्डहर में भी ताकत होती है, जश्न मनाके मरने का तरीका होना चाहिए।  मरने के पहले अड़ जाओ कि आज ही 500 लोगों को जलेबी पोहा मेरे सामने खिलाओ। अड़ जाओ कि जिस पुलिस वाले ने डण्डे से घुटना तोड़ा था उसको  सामने गुड्डी तनवायी जाए। ऐसी अनेक तरह के अविस्मरणीय मजेदार किस्सों के साथ मरोगे तो मरने का अलग मजा आएगा ………! आदि इत्यादि।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 19 – व्यंग्य – व्यवस्था का सवाल ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं.  हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं.  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं. कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं.  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं ,जो कथानकों को सजीव बना देता है. डॉ परिहार जी ने   विवाह के अवसर पर बारातियों के एक विशिष्ट चरित्र के आधार पर न सिर्फ विवाह अपितु साड़ी व्यवस्था के सवाल पर एक सटीक एवं सार्थक व्यंग्य की रचना की है.  ऐसे सार्थक व्यंग्य के लिए डॉ परिहार जी की  कलम को नमन. आज प्रस्तुत है उनका ऐसे ही विषय पर एक व्यंग्य  “व्यवस्था का सवाल  ”.)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 19 ☆

 

☆ व्यंग्य  – व्यवस्था का सवाल  ☆

 

रज्जू पहलवान के सुपुत्र की बरात दो सौ किलोमीटर दूर एक कस्बे में गयी।लड़की के बाप ने अच्छा इन्तज़ाम किया, वैसे भी सभी लड़कियों के बाप उनकी शादी के वक्त अपनी जान हाज़िर कर देते हैं। उसके बाद भी सारे वक्त उनकी जान हलक़ में अटकी रहती है।

रास्ते में दो जगह लड़की के चाचा-मामा ने बरात के स्वागत का इन्तज़ाम किया। नाश्ता-पानी पेश किया, काजू-किशमिश के पैकेट भेंट किये,पान-मसाला के पाउच हाज़िर किये। समझदार लोगों ने काजू-किशमिश के पैकेट जेब में खोंस लिये कि बरात से लौटकर बाल-बच्चों को देंगे। बरात संतुष्ट होकर आगे बढ़ गयी।

बरात लड़की वाले के घर पहुँची तो वहाँ भी भरपूर स्वागत हुआ। रुकने-टिकने की व्यवस्था माकूल थी, सेवा के लिए सेवक और घर के लोग मुस्तैद थे। धोबी, नाई, पालिश वाला अपनी अपनी जगह डटे थे। मुँह से निकलते ही हुकुम की तामीली होती थी। सब जगह इन्तज़ाम चौकस था। कहीं भी ख़ामी निकालना मुश्किल था।

रात को वरमाला के बाद सब भोजन में लग गये। तभी वधूपक्ष को सूचना मिली कि वरपक्ष के कुछ लोग भोजन के लिए नहीं पधार रहे हैं। शायद नाराज़ हैं।

लड़की के चाचा चिन्तित बरात के डेरे पर पहुँचे तो पाया कि वर के चाचा सिर के नीचे कुहनी धरे लम्बे लेटे हैं और उनके आसपास पाँच छः सज्जन अति-गंभीर मुद्रा धारण किये बैठे हैं।

लड़की के चाचा ने हाथ जोड़कर कहा, ‘भोजन के लिए पधारें। ‘

उनकी बात का किसी ने जवाब नहीं दिया। लड़के के चाचा छत में आँखें गड़ाये रहे और उनकी मंडली मुँह पर दही जमाये बैठी रही।

लड़की के चाचा ने दुहराया, ‘चला जाए। ‘

अब लड़के के चाचा ने कृपा करके अपनी आँखें छत पर से उतारकर उन पर टिकायीं, फिर उन्हें सिकोड़कर बोले, ‘आप मज़ाक करते हैं क्या?’

लड़की के चाचा घबराकर बोले, ‘क्या बात है? क्या हुआ?’

वर के चाचा आँखें तरेरकर बोले, ‘होना क्या है? आपकी कोई व्यवस्था ही नहीं है। ‘

लड़की के चाचा परेशान होकर बोले, ‘कौन सी व्यवस्था? कौन सी व्यवस्था रह गयी?’

लड़के के चाचा की नज़र वापस छत पर चढ़ गयी। वहीं टिकाये हुए बोले, ‘कोई व्यवस्था नहीं है। कोई एक कमी हो तो बतायें।’

उनकी मंडली भी भिनभिनाकर बोली, ‘सब गड़बड़ है। ‘

वधू के चाचा और परेशान होकर बोले, ‘कुछ बतायें तो।’

वर के चाचा फिर उनकी तरफ दृष्टिपात करके बोले, ‘आप तो ऐसे भोले बनते हैं जैसे कुछ समझते ही नहीं। हम घंटे भर से यहाँ लेटे हैं, लेकिन कोई पूछने आया कि हम क्यों लेटे हैं?’

लड़की के चाचा झूठी हँसी हँसकर बोले, ‘हम तो आ गये।’

वर के चाचा हाथ नचाकर बोले, ‘आप के आने से क्या फायदा? जब कोई व्यवस्था ही नहीं है तो क्या मतलब?’

लड़की के चाचा ने विनम्रता से कहा, ‘हमने तो व्यवस्था पूरी की है।’

वर के चाचा व्यंग्य के स्वर में बोले, ‘दरअसल आप खयालों की दुनिया में रहते हैं। आप सोचते हैं कि आपने जो कर दिया उससे बराती खुश हो गये। असलियत यह है कि बरातियों में दस तरह के लोग हैं। किसको क्या चाहिए यह आपको क्या मालूम। जिसे दूध पीना है उसे पानी पिलाएंगे तो कैसे चलेगा?’

मंडली ने सहमति में सिर हिलाया।

लड़की के चाचा परेशान होकर बोले, ‘किसे दूध पीना है? अभी भिजवाता हूँ।’

वर के चाचा खिसियानी हँसी हँसकर बोले, ‘हद हो गयी। हम कोई दूध-पीते बच्चे हैं?आप की समझ में कुछ नहीं आता।’

लड़की के चाचा ने दुखी होकर कहा, ‘हमने तो अपनी तरफ से पूरी कोशिश की है कि बरात को शिकायत का मौका न मिले।’

वर के चाचा विद्रूप से बोले, ‘हमीं बेवकूफ हैं जो शिकायत कर रहे हैं। हमने सैकड़ों बरातें की हैं। कोई पहली बरात थोड़इ है।’

लड़की के चाचा हाथ जोड़कर बोले, ‘तो हुकुम करें। क्या व्यवस्था करूँ?’

वर के चाचा वापस छत पर चढ़ गये, लम्बी साँस छोड़कर बोले, ‘क्या हुकुम करें? जब कोई व्यवस्था ही नहीं है तो हुकुम करके क्या करें?’

मंडली ने ग़मगीन मुद्रा में सिर लटका लिया।

लड़की के चाचा के साथ उनके जीजाजी भी थे। वे समझदार, तपे हुए आदमी थे। अपने साले का हाथ पकड़कर बोले, ‘आप समझ नहीं रहे हैं। इधर आइए।’ फिर लड़के वालों से बोले, ‘आप ठीक कह रहे हैं। व्यवस्था में कुछ खामी रह गयी। हम अभी दुरुस्त कर देते हैं।’

सुनते ही लड़के वाले सीधे बैठ गये, जैसे मुर्दा शरीर में जान आ गयी हो। लड़के के चाचा का तना चेहरा ढीला हो गया।

जीजाजी अपने साले को खींचकर बरामदे में ले गये। वहाँ उन्होंने कुछ फुसफुसाया। साले साहब प्रतिवाद के स्वर में बोले,  ‘लेकिन हम तो दस साल पहले गुरूजी के सामने छोड़ चुके हैं। हमारे तो पूरे परिवार में कोई हाथ नहीं लगा सकता।’

जीजाजी बोले, ‘तुम्हें हाथ लगाने को कौन कहता है? तुम ठहरो, हम इन्तजाम कर देते हैं।’

फिर वे बरातियों के सामने आकर बोले, ‘आप निश्चिंत रहें। अभी व्यवस्था हो जाती है। सब ठीक हो जाएगा।’

उनकी बात सुनते ही उखड़े हुए बराती एकदम सभ्य और विनम्र हो गये। हाथ जोड़कर बोले, ‘कोई बात नहीं। आप व्यवस्था कर लीजिए। कोई जल्दी नहीं है।’

आधे घंटे में व्यवस्था हो गयी और बराती सब शिकायतें भूल कर व्यवस्था का सुख लेने में मशगूल हो गये।

कुछ देर बाद फिर लड़की के चाचा बरातियों के हालचाल लेने उधर आये तो लड़के के चाचा ने कुर्सी से उठकर उन्हें गले से लगा लिया। उन्हें खड़े होने और बोलने में दिक्कत हो रही थी, फिर भी भरे गले से बोले, ‘ईमान से कहता हूँ, भाई साहब, कि इतनी बढ़िया व्यवस्था हमने किसी शादी में नहीं देखी। बेवकूफी में आपकी शान के खिलाफ कुछ बोल गया होऊँ तो माफ कर दीजिएगा। अब तो हमारी आपसे जिन्दगी भर की रिश्तेदारी है।’

उनके आसपास गिलासों में डूबी मंडली में से आवाज़ आयी, ‘बिलकुल ठीक कहते हैं।  ऐसी ए-वन व्यवस्था हमने किसी शादी में नहीं देखी।’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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