हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 15 ☆ ये सड़कें ये पुल मेरे हैं ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे.  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “ये सड़कें ये पुल मेरे हैं”.  धन्यवाद विवेक जी , मुझे भी अपना इन्वेस्टमेंट याद दिलाने के लिए. बतौर वरिष्ठ नागरिक, हम वरिष्ठ नागरिकों ने अपने जीवन की कमाई का कितना प्रतिशत बतौर टैक्स देश को दिया है ,कभी गणना ही नहीं की.  किन्तु, जीवन के इस पड़ाव पर जब पलट कर देखते हैं तो लगता है कि-  क्या पेंशन पर भी टैक्स लेना उचित है ?  ये सड़कें ये पुल  विरासत में देने के बाद भी? बहरहाल ,आपने बेहद खूबसूरत अंदाज में  वो सब बयां कर दिया जिस पर हमें गर्व होना चाहिए. )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 15 ☆ 

 

 ☆ ये सड़कें ये पुल मेरे हैं ☆

 

रेल के डिब्बे के दरवाजो के ऊपर लिखा उद्घोष वाक्य  “सरकारी संपत्ति आपकी अपनी है”, का अर्थ देश की जनता को अच्छी तरह समझ आ चुका  है. यही कारण है कि भीड़ के ये चेहरे जो इस माल असबाब के असल मालिक हैं, शौचालय में चेन से बंधे मग्गे और नल की टोंटी की सुरक्षा के लिये खाकी वर्दी तैनात होते हुये भी गाहे बगाहे अपनी साधिकार कलाकारी दिखा ही देते हैं. ऐसा नही है कि यह प्रवृत्ति केवल हिन्दोस्तान में ही हो, इंग्लैंड में भी हाल ही में टाइलेट से पूरी सीट ही चोरी हो गई, ये अलग बात है कि वह सीट ही चौदह कैरेट सोने की बनी हुई थी. किन्तु थी तो सरकारी संपत्ति ही, और सरकारी संपत्ति की मालिक जनता ही होती है. वीडीयो कैमरो को चकमा देते हुये सीट चुरा ली गई.

हम आय का ३३ प्रतिशत टैक्स देते हैं. हमारे टैक्स से ही बनती है सरकारी संपत्ति. मतलब पुल, सड़कें, बिजली के खम्भे, टेलीफोन के टावर, रेल सारा सरकारी इंफ्रा स्ट्रक्चर गर्व की अनुभूति करवाता है. जनवरी से मार्च के महीनो में जब मेरी पूरी तनख्वाह आयकर के रूप में काट ली जाती है,  मेरा यह गर्व थोड़ा बढ़ जाता है. जिधर नजर घुमाओ सब अपना ही माल दिखता है.

आत्मा में परमात्मा, और सकल ब्रम्हाण्ड में सूक्ष्म स्वरूप में स्वयं की स्थिति पर जबसे चिंतन किया है, गणित के इंटीग्रेशन और डिफरेंशियेशन का मर्म समझ आने लगा है. इधर शेयर बाजार में थोड़ा बहुत निवेश किया है, तो  जियो के टावर देखता हूँ तो फील आती है अरे अंबानी को तो अपुन ने भी उधार दे रखे हैं पूरे दस हजार. बैंक के सामने से निकलता हूँ तो याद आ जाता है कि क्या हुआ जो बोर्ड आफ डायरेक्टर्स की जनरल मीटींग में नहीं गया, पर मेरा भी नगद बीस हजार का अपना शेयर इंवेस्टमेंट है तो सही इस बैंक की पूंजी में, बाकायदा डाक से एजीएम की बैठक की सूचना भी आई ही थी कल. ओएनजीसी के बांड की याद आ गई तो लगा अरे ये गैस ये आईल कंपनियां सब अपनी ही हैं. सूक्ष्म स्वरूप में अपनी मेहनत की गाढ़ी कमाई बरास्ते म्युचुएल फंड देश की रग रग में विद्यमान है. मतलब ये सड़के ये पुल सब मेरे ही हैं. गर्व से मेरा मस्तक आसमान निहार रहा है. पूरे तैंतीस प्रतिशत टैक्स डिडक्शन का रिटर्न फाइल करके लौट रहा हूँ. बेटा अमेरिका में ३५ प्रतिशत टैक्स दे रहा है और बेटी लंदन में, हम विश्व के विकास के भागीदार हैं, गर्व क्यो न करें?

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ लोकतन्त्र का महाभारत ☆ – श्री हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

 

आप निश्चित ही चौंक गए होंगे कि यह व्यंग्य तो आप पढ़ चुके हैं फिर पुनरावृत्ति क्यों?

आज यह व्यंग्य प्रासंगिक भी है  एवं सामयिक भी है.

प्रासंगिक इसलिए क्योंकि आज ही  आदरणीय गृह मंत्री जी ने जिस बहु उद्देश्यीय कार्ड (एक कार्ड जिसमें आधार कार्ड, पासपोर्ट, ड्राइविंग लाइसेंस और बैंक खातों जैसी जानकारी समाहित हो)  की चर्चा की है, उस प्रकार के कार्ड की कल्पना मैंने अपने जिस व्यंग्य के माध्यम से गत वर्ष 4 नवम्बर 2018  को किया था  वह सामयिक हो गई है. 

इसे आप निम्न लिंक पर क्लिक कर के पढ़ सकते हैं :-

 

कृपया यहाँ क्लिक करें – >>>>>>>>>>  व्यंग्य – लोकतन्त्र का महाभारत

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे

 

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 14 – माइक्रो व्यंग्य – फूलमाला और फोटो ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में उनका  “माइक्रो व्यंग्य – फूलमाला और फोटो” आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 14 ☆

 

☆ माइक्रो व्यंग्य – फूलमाला और फोटो  

 

साहित्यकार –  वाटस्अप, फेसबुक, ट्विटर पर रात में उपस्थित मित्रों को सूचना देना चाहता हूँ कि आज दिन को  साहित्य संस्थान की  काव्य गोष्ठी हुई, जिसमें अनेकानेक महिलाओं को सम्मान दिया गया, साथ ही आसपास के शहर की साहित्य संस्थाओं के अध्यक्ष व संस्थापकों को तिलक लगाकर तथा फूलमाला पहनाकर सम्मानित किया गया। मुझे भी सम्मानित किया गया है। माइक के साथ मंच पर प्रूफ के रुप में मेरी तस्वीर है जिन्हें विश्वास न हो वे तस्वीर देख सकते हैं कि मंच भी है और माइक भी है और इत्ती सी बात के लिए मैं झूठ क्यों बोलूंगा, हालांकि मुझे अभी तक 8999 सम्मान मिल चुके हैं। कैसे मिले हैं आप खुद समझदार हैं।

संस्था मुखिया –  तुम्हें कब सम्मानित किया गया ? मै तो वहीं थी ।कार्यक्रम की समाप्ति पर आप खाली मंच पर माइक लेकर फोटो खिंचवा रहे थे ।कार्यक्रम मे संचालन मेरा था। झूठमूठ का साहित्यकार बनना चाहता है। सोशल मीडिया में झूठमूठ की अपनी पब्लिसिटी करता है। शाल और श्रीफल लिए किसी से भी फोटो खिंचवाता फिरता है इसलिए बेटा तेरी घरवाली तुझसे बदला ले रही है। सबकी बीबी तीजा का उपवास रखतीं हैं, पर तेरी बीबी तीजा का उपवास नहीं रखती। सच में किसी ने सही लिखा है कि इस रंग बदलती दुनिया में इंसानों की नीयत ठीक नहीं।

साहित्यकार – मैं झूठ क्यों बोलूंगा…? अपनी संस्था के मालिक ने मंच से एलांऊस कर बुलाया था। टीका लगाकर फूल माला पहनाकर मंच में सम्मानित किया था। आप शायद कही खाना खा रही थी या टायलेट में मेकअप कर रही होगीं। श्याम जी, नयन जी और मुझे शायद गुप्ता जी और बेधड़क जी ने भी फूल माला पहनाकर सम्मानित किया था, और कई लोगों ने भी माला पहनाई थी उनके नाम याद नहीं है क्योंकि उस समय मैं इतना गदगद हो गया था कि होश गवां बैठा था। और तू कौन सी दूध की धुली है…? सबको मालूम है ।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 16 – व्यंग्य – भला आदमी / बुरा आदमी ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं.  हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे.  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं. कुछ पात्र तो अक्सर हमारे गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं.  उन पात्रों की वाक्पटुता को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं जो कथानकों को सजीव बना देता है. यूँ कहिये की कि कोई घटना आँखों के सामने चलचित्र की तरह चल रही हो. यह व्यंग्य केवल व्यंग्य ही नहीं हमें जीवन का व्यावहारिक ज्ञान भी देता है. आज प्रस्तुत है  उनका  व्यंग्य  “भला आदमी / बुरा आदमी ” .)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 16 ☆

 

☆ व्यंग्य – भला आदमी/ बुरा आदमी ☆

 

बिल्लू की शादी के वक्त मैंने बनवारी टेलर को कोट दिया था बनाने के लिए। शादी निकल गयी और बिल्लू की जोड़ी बासी भी हो गयी, लेकिन मेरा कोट नहीं मिला। हर बार बनवारी का एक ही  जवाब होता, ‘क्या बताएं भइया, बीच में अर्जेंट काम आ जाता है, इसलिए पुराना काम जहाँ का तहाँ पड़ा रह जाता है।’

मैं चक्कर पर चक्कर लगाता हूँ लेकिन मेरा कपड़ा कोट का रूप धारण नहीं करता। अब बनवारी ने दूसरा रोना शुरू कर दिया था, ‘भइया, इस मुहल्ले के आदमी इतने गन्दे हैं कि क्या बतायें। उनका काम करके न दो तो सिर पर चढ़ जाते हैं। आप ठहरे भले आदमी, आपसे हम दो चार दिन रुकने को कह सकते हैं लेकिन इन लोगों से कुछ भी कहना बेकार है।’

‘भला आदमी’ की पदवी पाकर मैं खुश हो जाता और चुपचाप लौट आता। लेकिन तीन चार दिन बाद फिर मेरा दिमाग खराब होता और मैं फिर बनवारी के सामने हाज़िर हो जाता।

बनवारी फिर वही रिकॉर्ड शुरू कर देता, ‘भइया, आपसे क्या कहें। इस मुहल्ले में नंगे ही नंगे भरे हैं। अब नंगों से कौन लड़े? उनका काम करके न दो तो महाभारत मचा देते हैं। आप समझदार आदमी हैं। हमारी बात समझ सकते हैं। वे नहीं समझ सकते। मैं तो इस मुहल्ले के लोगों से तंग आ गया।’

जब भी मैं उसकी दूकान पर जाता, बनवारी बड़े प्रेम से मेरा स्वागत करता। अपनी दूकान में उपस्थित लोगों को मेरा परिचय देता। साथ ही यह वाक्य ज़रूर जोड़ता, ‘खास बात यह है कि बड़े भले आदमी हैं। यह नहीं है कि एकाध दिन की देर हो जाए तो आफत मचा दें।’

अंततः मेरे दिमाग में गर्मी बढ़ने लगी। एक बार तो ऐसा हुआ कि एक आदमी मेरे सामने कोट का नाप देकर गया और अगली बार मेरे ही सामने कोट ले भी गया। मैंने जब यह बात बनवारी से कही तो वह बोला, ‘अरे भइया, इस आदमी से आपका क्या मुकाबला? इसका काम टाइम से न करता तो ससुरा जीना मुश्किल कर देता। बड़ा गन्दा आदमी है। ऐसे आदमियों से तो जितनी जल्दी छुट्टी मिले उतना अच्छा। आप ठहरे भले मानस। आपकी बात और है।’

लेकिन मेरा दिमाग गरम हो गया था। मैंने कहा, ‘बनवारी, तुम मेरा कपड़ा वापस कर दो। अब मुझे कोट नहीं बनवाना।’

बनवारी बोला, ‘अरे क्या बात करते हो भइया! बिना बनाये कपड़ा वापस कर दूँ? अब आप भी उन नंगों जैसी बातें करने लगे। दो तीन दिन की तो बात है।’

चार दिन बाद फिर बनवारी की दूकान पर पहुँचा तो वह मुझे देखकर आँखें चुराने लगा। मुझे शहर के समाचार सुनाने लगा। मैंने कहा, ‘बनवारी, मैं कोट लेने आया हूँ।’

वह बोला, ‘क्या बतायें भइया, वे उपाध्याय जी हैं न, वे बहुत अर्जेंट काम धर गये थे। उल्टे-सीधे आदमी हैं इसलिए उनसे पीछा छुड़ाना जरूरी था। बस,अब आपका काम भी हो जाता है।’

मैं कुछ क्षण खड़ा रहा, फिर मैंने कहा, ‘बनवारी!’

वह बोला, ‘हाँ भइया।’

मैंने कहा, ‘तुम इसी वक्त मेरा नाम अपनी भलेमानसों की लिस्ट में से काट दो। बोलो, कोट लेने कब आऊँ?’

वह मेरे मुँह की तरफ देखकर धीरे से बोला, ‘कल ले लीजिए।’

दूसरे दिन पहुँचने पर उसने मुझे कोट पहना दिया। तभी एक और आदमी उससे अपने कपड़ों के लिए झगड़ने लगा। मैंने सुना बनवारी उससे कह रहा था, ‘भइया, तुम ठहरे भले आदमी। नंगे-लुच्चों को पहले निपटाना पड़ता है।’

©  डॉ. कुन्दन सिंह परिहार , जबलपुर (म. प्र. )

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हिन्दी साहित्य – ☆ व्यंग्य – हिन्साप ☆ – श्री हेमन्त बावनकर

श्री हेमन्त बावनकर

 

(श्री हेमन्त बावनकर जी  द्वारा अस्सी नब्बे के दशक में  लिखा गया  राजभाषा  पखवाड़े पर  एक विशेष  व्यंग्य .)

 

☆ हिन्साप

 

“हिन्साप”! कैसा विचित्र शब्द है; है न? मेरा दावा है की आपको यह शब्द हिन्दी के किसी भी शब्दकोश में नहीं मिलेगा। आखिर मिले भी कैसे? ऐसा कोई शब्द हो तब न। खैर छोड़िए, अब आपको अधिक सस्पेंस में नहीं रखना चाहिये। वैसे भी अपने-आपको परत-दर-परत उघाड़ना जितना अद्भुत होता है उतना ही शर्मनाक भी होता है। आप पूछेंगे कि- “हिन्साप की चर्चा के बीच में अपने-आपको उघाड़ने का क्या तुक है? मैं कहता हूँ तुक है भाई साहब, “हिन्साप” जैसे शब्द के साथ तुक होना सर्वथा अनिवार्य है। आखिर हो भी क्यों न; हिन्साप”  की नींव जो हमने रखी है? आप सोचेंगे कि “हिन्साप” की नींव हमने क्यों रखी? चलिये आपको सविस्तार बता ही दें।

हमारे विभाग में राजभाषा के प्रचार-प्रसार के लिये विभागीय स्तर पर प्रतियोगिताओं का आयोजन किया गया था। साहित्य में रुचि के कारण मैंने भी प्रतियोगिता में भाग लिया। पुरस्कार भी प्राप्त किया। किन्तु, साथ ही ग्लानि भी। ग्लानि होना स्वाभाविक था क्योंकि प्रतियोगिता, प्रतियोगिता के तौर पर आयोजित ही नहीं हुई थी। क्योंकि प्रतियोगिता विभागीय स्तर की थी तो निर्णायक का किसी विभाग का अधिकारी होना भी स्वाभाविक था, बेशक निर्णायक को साहित्य का ज्ञान हो या न हो। फिर, जब निर्णायक अधिकारी हो तो स्वाभाविक है कि पुरस्कार भी किसी परिचित या अधिकारी को ही मिले, चाहे वह हिन्दी शब्द का उच्चारण इंदी या “इंडी” ही क्यों न करे। अब आप सोच रहे होंगे कि मुझे पुरस्कार इसलिए मिला होगा क्योंकि मैं अधिकारी हूँ? आप क्या कोई भी यही सोचेगा। किन्तु, मैं आपको स्पष्ट कर दूँ कि मैं कोई अधिकारी नहीं हूँ। अब मुझे यह भी स्पष्ट करना पड़ेगा कि- जब मैं अधिकारी नहीं हूँ तो फिर मुझे पुरस्कार क्यों मिला? इसका एक संक्षिप्त उत्तर है स्वार्थ। वैसे तो यह उत्तर है किन्तु आप इसका उपयोग प्रश्न के रूप में भी कर सकते हैं। फिर मेरा नैतिक कर्तव्य हो जाता है कि मैं इस प्रश्न का उत्तर दूँ।

चलिये आप को पूरा किस्सा ही सुना दूँ। हुआ यूँ कि- प्रतियोगिता के आयोजन के लगभग छह-सात माह पूर्व वर्तमान निर्णायक महोदय जो किसी विभाग के विभागीय अधिकारी थे उनके सन्देशवाहक ने बुलावा भेजा कि- साहब आपको याद कर रहे हैं। मेरे मस्तिष्क में विचार आया कि भला अधिकारी जी को मुझसे क्या कार्य हो सकता है? क्योंकि न तो वे मेरे अनुभागीय अधिकारी थे और न ही मेरा उनसे दूर-दूर तक कोई व्यक्तिगत या विभागीय सम्बंध था। खैर, जब याद किया तो मिलना अनिवार्य लगा।

अधिकारी जी बड़ी ही प्रसन्न मुद्रा में थे। अपनी सामने रखी फाइल को आउट ट्रे में रख मेरी ओर मुखातिब हुए “सुना है, आप कुछ लिखते-विखते हैं? मैंने झेंपते हुए कहा- “जी सर, बस ऐसे ही कभी-कभार कुछ पंक्तियाँ लिख लेता हूँ।“

शायद वार्तालाप अधिक न खिंचे इस आशय से वे मुख्य मुद्दे पर आते हुए बोले- “बात यह है कि इस वर्ष रामनवमी के उपलक्ष में हम लोग एक सोवनियर (स्मारिका) पब्लिश कर रहे हैं। मेरी इच्छा है कि आप भी कोई आर्टिकल कंट्रिब्यूट करें।“

उनकी बातचीत में अचानक आए अङ्ग्रेज़ी के पुट से कुछ अटपटा सा लगा। मैंने कहा- “मुझे खुशी होगी। वैसे स्मारिका अङ्ग्रेज़ी में प्रकाशित करवा रहे हैं या हिन्दी में?” वे कुछ समझते हुए संक्षिप्त में बोले – “हिन्दी में।“

कुछ देर हम दोनों के बीच चुप्पी छाई रही। फिर मैं जैसे ही जाने को उद्यत हुआ, उन्होने आगे कहा- “आर्टिकल हिन्दी में हो तो अच्छा होगा। वैसे उर्मिला से रिलेटेड बहुत कम आर्टिकल्स अवेलेबल है।  मैंने उठते हुए कहा- “ठीक है सर, मैं कोशिश करूंगा।“

फिर मैंने कई ग्रन्थ एकत्रित कर एक सारगर्भित लेख तैयार किया “उर्मिला – एक उपेक्षित नारी”।

कुछ दिनों के पश्चात मुझे स्मारिका के अवलोकन का सुअवसर मिला। लेख काफी अच्छे गेटअप के प्रकाशित किया गया था। आप पूछेंगे कि फिर मुझे अधिकारी जी से क्या शिकायत है? है भाई, मेरे जैसे कई लेखकों को शिकायत है कि अधिकारी जी जैसे लोग दूसरों की रचनाएँ अपने नाम से कैसे प्रकाशित करवा लेते हैं? अब आप इस प्रक्रिया को क्या कहेंगे? बुद्धिजीवी होने का स्वाँग रचकर वाह-वाही लूटने की भूख या शोषण की प्रारम्भिक प्रक्रिया!  थोड़ी देर के लिए मुझे लगा कि उर्मिला ही नहीं मेरे जैसे कई लेखक उपेक्षित हैं। यह अलग बात है कि हमारी उपेक्षाओं का अपना अलग दायरा है। अब यदि आप चाहेंगे कि स्वार्थ और उपेक्षित को और अधिक विश्लेषित करूँ तो क्षमा कीजिये, मैं असमर्थ हूँ।

शायद अब आपको “हिन्साप” के बारे में कुछ-कुछ समझ में आ रहा होगा। यदि न आ रहा हो तो तनिक और धैर्य रखें। हाँ, तो मैं आपको बता रहा था कि- मैंने और शर्मा जी ने “हिन्साप” की नींव रखी। वैसे मैं शर्मा जी से पूर्व परिचित नहीं था। मेरा उनसे परिचय उस प्रतियोगिता में हुआ था जो वास्तव में प्रतियोगिता ही नहीं थी। मैंने अनुभव किया कि उनके पास प्रतिभा भी है और अनुभव भी। यह भी अनुभव किया कि हमारे विचारों में काफी हद तक सामंजस्य भी है। हम दोनों मिलकर एक ऐसे मंच की नींव रख सकते हैं जो “हिन्साप” के उद्देश्यों को पूर्ण कर सके। अब आप मुझ पर वाकई झुँझला रहे होंगे कि- आखिर “हिन्साप” है क्या बला? जब “हिन्साप” के बारे में ही कुछ नहीं मालूम तो उद्देश्य क्या खाक समझ में आएंगे? आपका झुँझला जाना स्वाभाविक है। मैं समझ रहा हूँ कि अब आपको और अधिक सस्पेंस में रखना उचित नहीं। चलिये, अब मैं आपको बता दूँ कि “हिन्साप” एक संस्था है। अब तनिक धैर्य रखिए ताकि मैं आपको “हिन्साप” का विश्लेषित स्वरूप बता सकूँ। फिलहाल आप कल्पना कीजिये कि- हमने “हिन्साप” संस्था की नींव रखी। उद्देश्य था नवोदित प्रतिभाओं को उनके अनुरूप एक मंच पर अवसर प्रदान करना और स्वस्थ वातावरण में प्रतियोगिताओं का आयोजन करना जिसमें किसी पक्षपात का अस्तित्व ही न हो।

कई गोष्ठियाँ आयोजित कर प्रतिभाओं को उत्प्रेरित किया। उन्हें “हिन्साप” के उद्देश्यों से अवगत कराया। सबने समर्पित भाव से सहयोग की आकांक्षा प्रकट की। हमने विश्वास दिलाया कि हम एक स्वतंत्र विचारधारा की विशुद्ध साहित्यिक पत्रिका भी प्रकाशित करना चाहते हैं, जो निष्पक्ष और बेबाक हो तथा जिसमें नवोदितों को भी उचित स्थान मिले। सब अत्यन्त प्रसन्न हुए। सबने वचन दिया कि वे तन-मन से सहयोग देंगे। किन्तु, धन के नाम पर सब चुप्पी साध गए। भला बिना अर्थ-व्यवस्था के कोई संस्था चल सकती है? खैर, “हिन्साप” की नींव तो हमने रख ही दी थी और आगे कदम बढ़ाकर पीछे खींचना हमें नागवार लग रहा था।

“हिन्साप” के अर्थ व्यवस्था के लिए शासकीय सहायता की आवश्यकता अनुभव की गई। संस्थागत हितों का हनन न हो अतः यह निश्चय किया गया कि विभागीय सर्वोच्च अधिकारी को संरक्षक पद स्वीकारने हेतु अनुरोध किया जाए। इस सन्दर्भ में प्रशासनिक अधिकारियों के माध्यम से विभागीय सर्वोच्च अधिकारी को अपने विचारों से अवगत कराया गया। विज्ञापन व्यवस्था के तहत आर्थिक स्वीकृति तो मिल गई किन्तु, “हिन्साप” को इस आर्थिक स्वीकृति की भारी कीमत चुकानी पड़ी। एक पवित्र उद्देश्यों पर आधारित संस्था में शासकीय तंत्र की घुसपैठ प्रारम्भ हो गई और विशुद्ध साहित्यक पत्रिका की कल्पना मात्र कल्पना रह गई जिसका स्वरूप एक विभागीय गृह पत्रिका तक सीमित रह गया। फिर किसी भी गृह पत्रिका के स्वरूप से तो आप भी परिचित हैं। इस गृह पत्रिका में अधिकारी जी जैसे लेखकों की रचनाएँ अच्छे गेट अप में सचित्र और स्वचित्र अब भी प्रकाशित होती रहती हैं।

इस प्रकार धीरे धीरे अधिकारी जी ने “हिन्साप” की गतिविधियों में सक्रिय भाग लेकर अन्य परिचितों, परिचित संस्थाओं के सदस्यों, चमचों के प्रवेश के लिए द्वार खोल दिये। फिर उन्हें महत्वपूर्ण पदों पर बैठा कर “हिन्साप” की गतिविधियों में हस्तक्षेप करने का सर्वाधिकार सुरक्षित करा लिया। हम इसलिए चुप रहे क्योंकि वे विज्ञापन-व्यवस्था के प्रमुख स्त्रोत थे।

जब अर्थव्यवस्था सुदृढ़ हो गई तो कई मौकापरस्त लोगों की घुसपैठ प्रारम्भ हो गई। पहले जो लोग तन-मन के साथ धन सहयोग पर चुप्पी साध लेते थे आज वे ही सक्रिय कार्यकर्ताओं का स्वाँग रचा कर आर्थिक सहयोग की ऊँची-ऊँची बातें करने लगे। अध्यक्ष और अन्य विशेष पदों पर अधिकारियों ने शिकंजा कस लिया। और शेष पदों के लिए कार्यकर्ताओं को मोहरा बना दिया गया। फिर, वास्तव में शुरू हुआ शतरंज का खेल।

हमें बड़ा आश्चर्य हुआ कि- शासकीय तंत्र के घुसपैठ के साथ ही “हिन्साप” अतिसक्रिय कैसे हो गई? लोगों में इतना उत्साह कहाँ से आ गया कि वे “हिन्साप” में अपना भविष्य देखने लगे। कर्मचारियों को उनकी परिभाषा तक सीमित रखा गया और अधिकारियों को उनके अधिकारों से परे अधिकार मिल गए या दे दिये गए। इस तरह “हिन्साप” प्रतिभा-युद्ध का एक जीता-जागता अखाड़ा बन गया।

सच मानिए, हमने “हिन्साप” की नींव इसलिए नहीं रखी थी कि- संस्थागत अधिकारों का हनन हो; प्रतिभाओं का हनन हो? उनकी परिश्रम से तैयार रचनाओं का कोई स्वार्थी अपने नाम से दुरुपायोग करे? विश्वास करिए, हमने “हिन्साप” का नामकरण काफी सोच विचार कर किया था। अब आप ही देखिये न “हिन्साप” का उच्चारण “इन्साफ” से कितना मिलता जुलता है? अब जिन प्रतिभाओं के लिए “हिन्साप” की नींव रखी थी उन्हें “इन्साफ” नहीं मिला, इसके लिए क्या वास्तव में हम ही दोषी हैं? खैर, अब समय आ गया है कि मैं “हिन्साप” को विश्लेषित कर ही दूँ।

परत-दर-परत सब तो उघाड़ चुका हूँ। लीजिये अब आखिरी परत भी उघाड़ ही दूँ कि- “हिन्साप” का विश्लेषित स्वरूप है “हिन्दी साहित्य परिषद”। किन्तु, क्या आपको “हिन्साप” में “हिंसा” की बू नहीं आती? आखिर, किसी प्रतिभा की हत्या भी तो हिंसा ही हुई न? अब चूंकि, हमने “हिन्साप” को खून पसीने से सींचा है अतः हमारा अस्तित्व उससे कहीं न कहीं, किसी न किसी आत्मीय रूप से जुड़ा रहना स्वाभाविक है। किन्तु, विश्वास मानिए अब हमें “हिन्साप”, “हिन्दी साहित्य परिषद” नहीं अपितु, “हिंसा परिषद लगने लगी है।

अब हमें यह कहानी मात्र हिन्दी साहित्य परिषद की ही नहीं अपितु कई साहित्य और कला अकादमियों की भी लगने लगी है। आपका क्या विचार है? शायद, आपका कोई सुझाव हि. सा. प. को “हिंसा. प. के हिसाब से बचा सके?

 

© हेमन्त  बावनकर,  पुणे 

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 14 ☆ डाग शो बनाम कुत्ता नहीं श्वान ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “डाग शो बनाम कुत्ता नहीं श्वान”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 14 ☆ 

 

 ☆ डाग शो बनाम कुत्ता नहीं श्वान☆

 

मेरे एक मित्र को पिछले दिनो ब्लडप्रेशर बढ़ने की शिकायत हुई, तो अपनी ठेठ भारतीय परम्परा के अनुरुप हम सभी कार्यलयीन मित्र उन्हें देखने उनके घर गये, स्वाभाविक था कि अपनी अंतरंगता बताने के लिये विशेषज्ञ एलोपेथिक डाक्टरो के इलाज पर भी प्रश्न चिन्ह लगाते हुये उन्हें और किसी डाक्टर से भी क्रास इक्जामिन करवाने की सलाह हमने दी, जैसा कि ऐसे मौको पर किया जाता है किसी मित्र ने जड़ी बूटियो से शर्तिया स्थाई इलाज की तो किसी ने होमियोपैथी अपनाने की चर्चा की। मुफ्त की सलाह के इस क्रम में एक जो विशेष सलाह थोड़ा हटकर थी वह एक अन्य मित्र के द्वारा, कुत्ता पालने की सलाह थी। बड़ा दम था इस तथ्य में कि रिसर्च के मुताबिक जिन घरों में कुत्ते पले होते हैं वहां तनाव जन्य बीमारियां कम होती हें, क्योकि आफिस आते जाते डागी को दुलारते हुये हम दिनभर की मानसिक थकान भूल जाते हैं, इस तरह ब्लड प्रैशर जैसी बीमारियों से, कुत्ता पालकर बचा जा सकता है। ये और बात है कि पड़ोसियो के घरो के सामने खड़ी कार के पहियो पर, बिजली के खम्भो के पास जब आपका कुत्ता पाटी या गीला करता है तो उसे देखकर पड़ोसियो का ब्लड प्रैशर बढ़ता है।

वैसे कुत्ते और हमारा साथ नया नहीं है, इतिहासज्ञ जानते हैं कि विभिन्न शैल चित्रों में भी आदमी और कुत्ते के चित्र एक समूह में मिलते हैं। धर्मराज युधिष्ठिर की स्वर्ग यात्रा में एक कुत्ता भी उनका सहयात्री था यह कथानक भी यही रेखांकित करता है कि कुत्ते और आदमी का साथ बहुत पुराना है। कुत्ते अपनी घ्राण, व श्रवण शक्ति के चलते कम से कम इन मुद्दो पर इंसानो से बेहतर प्रमाणित हो चुके हैं। अपराधो के नियंत्रण में पुलिस के कुत्तों ने कई कीर्तीमान बनायें है। सरकस में अपने करतब दिखाकर कुत्ते बच्चों का मन मोह लेते है और अपने मास्टर के लिये आजीविका अर्जित करते हैं। संस्कृत के एक श्लोक में विद्यार्थियो को श्वान निद्रा जैसी नींद लेने की सलाह दी गई है। भाषा के संदर्भ में यह खोज का विषय है कि कुत्ते शब्द का गाली के रूप में प्रयोग आखिर कब और कैसे प्रारंभ हुआ क्योकि वफादारी के मामले में कुत्ता होना इंसान होने से बेहतर है। काका हाथरसी की अगले जन्म में विदेशी ब्रीड का पिल्ला बनने की हसरत भी महत्वपूर्ण थी क्योकि शहर के पाश इलाके में किसी बढ़िया बंगले में, किसी सुंदर युवती के साथ उसकी कार में घूमना उसके हाथों बढ़िया खाना नसीब होना इन पालतू डाग्स को ही नसीब हो सकता है। फालतू देशी कुत्तो को नही, जो स्ट्रीट डाग्स कहे जाते हैं। यूं तो स्लम डाग मिलेनियर, फिल्म को आस्कर मिल जाने के बाद से इन देशी कुत्तो का स्टेटस भी बढ़ा ही है।

पिछले दिनों मुझे एक डाग शो में जाने का अवसर मिला। अलशेसियन, पामेरियन, पग, डेल्मेशियन, बुलडाग, लैब्राडोर, जर्मन शेफार्ड, मिनिएचर वगैरह वगैरह ढ़ेरो ब्रीड के तरह तरह की प्रजातियो के कुत्तो से और उनके सुसंपन्न मालिकों से साक्षात्कार का सुअवसर मिला। ऐसे ऐसे कुत्ते मिले कि उन्हें कुत्ता कहने भी शर्म आये। और यदि कही कोई उन्हें कुत्ता कह दें तो शायद उनके मालिक बुरा मान जाये, बेहरत यही है कि हम उन्हें श्वान कहें। थोड़ा इज्जतदार शब्द लगता है। वैसे भी घर में पले हुये कुत्ते घर के बच्चो की ही तरह सबके चहेते बन जाते है, वे परिवार के सदस्य की ही तरह रहते, उठते बैठते हैं। उनके खाने पीने इलाज में गरीबी रेखा के आस पास रहने वाले औसत आदमी से ज्यादा ही खर्च होता है।

डाग शो में जाकर मुझे स्वदेशी मूवमेंट की भी बड़ी चिंता हुई। जिस तरह निखालिस देशी ज्वार और देशी भुट्टे, या गन्ने से, भारत में ही बनते हुये, यहीं बिकते हुये सरकार को खूब सा टैक्स देते हुये भी और पूरी की पूरी बोतल यही कंज्यूम होते हुये भी आज तक विदेशी शराब, विदेशी ही है,जिस तरह भारत के आम मुसलमान आज तक भी भारतीय नही हैं,या माने नही जाते हैं ठीक वैसे ही डाग शो में आये हुये सारे के सारे कुत्ते बाई बर्थ निखालिस हिन्दुस्तानी नागरिकता के धारक थे, पर स्वयं उनके मालिक ही उन्हें देशी कहलाने को तैयार नही थे, विदेशी ब्रीड का होने में जो गौरव है वह अभिजात्य होने का अलग ही अहं भाव जो पैदा करता है। एक जानकार ने बताया कि रामपुर हाउण्ड नामक देसी प्रजाति का कुत्ता भी डाग शो में प्रदर्शन के लिये पंजीकृत है, तो मेरे स्वदेसी प्रेम को किंचित शांति मिली, वैसे खैर मनाने की बात है कि स्वदेशी,दुत्कारे जाने वाले, टुकड़ो पर सड़को के किनारे पलने वाले ठेठ देशी कुत्तो के हित चिंतन के लिये भी मेनका गांधी टाइप के नेता बन गये हैं, पीपुल्स फार एनीमल, जैसी संस्थायें भी सक्रिय हैं। नगर निगम की आवारा पशुओ को पकड़ने वाली गाड़ी इन कुत्तो की नसबंदी पर काम कर रही है अतः हालात नियंत्रण में है, मतलब चिंता जनक नहीं है, विदेशी श्वान पालिये, ब्लड प्रैशर से दूर रहिये। श्वानों के डाग शो में हिस्सा लीजिये, और पेज थ्री में छपे अपने कुत्ते की तस्वीर की मित्रो मे खूब चर्चा कीजीये। पर आग्रह है कि अब विदेशी ब्रीड के कुत्तो को देशी माने न माने पर कम से कम देश में जन्में हुये आदमी को भले ही वह मुसलमान ही हो देसी मान ही लीजीये।

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆☆ मेहमानी, सशर्त जो हो गयी है’☆☆ – श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। आज  प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का नया व्यंग्य   मेहमानी, सशर्त जो हो गयी है”। मैं श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य पर टिप्पणी करने के जिम्मेवारी पाठकों पर ही छोड़ता हूँ। अतः आप स्वयं  पढ़ें, विचारें एवं विवेचना करें। हम भविष्य में श्री शांतिलाल  जैन जी से  ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा रखते हैं। ) 

 

☆☆ मेहमानी, सशर्त जो हो गयी है’ ☆☆

 

माफ करना दोस्त, हम तुम्हारी पार्टी में आ नहीं पायेंगे.

तुम्हारा ग्रीन थीम पार्टी का एक आकर्षक, संगीतमयी आमंत्रण वाट्सअप पर मिला. बुलावे में तुमने एक ड्रेस-कोड भी दिया है. हमें डार्क-ग्रीन पंजाबी ड्रेस पहनकर आने को कहा गया है. मेहमान वैसे दिखें जैसे तुम देखना चाहते हो. गहरा हरा रंग ठीक भी है दोस्त, कहते हैं ईजी मनी के सावन में चुंधियायी आँखों को सब तरफ हरा-हरा नज़र आता है. तुमने वही रंग चुना. ड्रेस-कोड फॉर मेंस – गहरा हरा पंजाबी कुर्ता और एम्ब्रोयडरी वर्क वाली मैचिंग लुंगी या डबल प्लेट वाली लूज पैंट. विमेन्स के लिये डार्क-ग्रीन पटियाले सूट या साड़ी. साथ में ब्रेडेड बालों में ग्रीन परांदे और हरी जुत्तियाँ.

बस यहीं पर मात खा गये अपन. गहरी हरी पंजाबी पोशाक का जुगाड़ बन नहीं पा रहा. हमारी मुफ़लिसी की थीम तुम्हारे आयोजन की थीम से मैच नहीं कर पा रही. निमंत्रण ग्रीन का है और हम पीले पड़ते जा रहे हैं.

ऐसा नहीं कि हमने कोशिश नहीं की. हमारे वार्ड-रोब का क्षेत्रफल एक सेकंड-हेंड गोदरेज अलमारी तक सिमट गया है. उसे उलट पुलट करने पर एक हरा कुर्ता निकला है, मगर वो गहरा हरा नहीं है. लुंगी हरी जैसी दिखती है मगर उस पर एम्ब्रोयडरी वर्क नहीं है. अक्सर हम उसे रात में सोते समय लपेट लेते हैं. जैसी भी है पार्टी में उसके बार-बार खिसक जाने की रिस्क तो है ही. हरे पैंट की चैन खराब है. रफूसाज एक दिन में उसे ठीक करके देगा नहीं. हुक टूट जाये तो बेल्ट बांध ले आदमी, चैन खुली रख कर कैसे आये ? एक व्हाईट ड्रेस भी है मेरे पास. पार्टी के लिये उसे गहरा हरा रंगवाया जा सकता है मगर तब मैं छब्बीस जनवरी को क्या पहनूंगा ?

समस्याएँ वाईफ़ की ड्रेस के साथ भी हैं. कुर्ती तो डार्क ग्रीन है मगर सलवार कंट्रास्ट है. किसी शादी की विदाई में मिली एक डार्क ग्रीन साड़ी है मगर उसमें फाल पिको होना बाकी है. मैचिंग पोल्का भी नहीं मिल रहा. पार्लरवाली ब्रेडेड बाल सजाने के साढ़े आठ सौ रूपये लेती है और पहली तारीख निकले को बाईस दिन बीत गये हैं. फिर ड्रेस हो कि जुत्तियां, मांग कर पहनना हमारी फितरत में नहीं है दोस्त.

ये कोशिशें हमने इसलिए की हैं कि नहीं आयेंगे तो तुम बुरा मान जाओगे. और बदरंग कपड़े पहन के आयेंगे तो पार्टी में तुम्हारी भद पिटेगी. हम तुम्हारी भद नहीं पिटवायेंगे. तुम्हारे इन्विटेशन में, छोटे-छोटे दो चौकोर में छपे ड्रेस के फोटो ताकीद करते हैं कि मेहमान घर से चले तो अपनी ड्रेस चेक करके चले. थीम से मैच करे तो आये. आये तो आये, नी तो…… सो हमने भाड़ में जाने का मन बनाया है दोस्त.

थीम पार्टियाँ निओ-रिच क्लास का पसंदीदा शगल है जिसमें तुम बाहैसियत शामिल हो गये हो दोस्त. तुम्हारी मेहमानी अब सशर्त होने लगी है और शर्त पूरी करने की हैसियत अपन की है नहीं. होती भी तो हम मेहमानी शर्तों पर क्यों करवायेँ? हम तुम्हारे लिये उपयुक्त मेहमान नहीं हैं दोस्त. तो माफ करना, हम नहीं आ रहे हैं.

 

© श्री शांतिलाल जैन 

F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, TT नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 13 – ख्यातिलब्ध व्यंग्यकार श्री आलोक पुराणिक जी से साक्षात्कार☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  तेरहवीं कड़ी में   उनके द्वारा  ख्यातिलब्ध व्यंग्यकार श्री आलोक पुराणिक जी से साक्षात्कार ।  आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।)

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 13 ☆

 

☆ख्यातिलब्ध व्यंग्यकार श्री आलोक पुराणिक जी से साक्षात्कार ☆ 

☆ रचनाशील व्यक्ति भावुक ही होता है -आलोक पुराणिक

 

जय प्रकाश पाण्डेय  – 

किसी भ्रष्टाचारी के भ्रष्ट तरीकों को उजागर करने व्यंग्य लिखा गया, आहत करने वाले पंंच के साथ। भ्रष्टाचारी और भ्रष्टाचारियों ने पढ़ा पर व्यंग्य पढ़कर वे सुधरे नहीं, हां थोड़े शरमाए, सकुचाए और फिर चालू हो गए तब व्यंग्य भी पढ़ना छोड़ दिया, ऐसे में मेहनत से लिखा व्यंग्य बेकार हो गया क्या ?

आलोक पुराणिक  –

साहित्य, लेखन, कविता, व्यंग्य, शेर ये पढ़कर कोई भ्रष्टाचारी सदाचारी नहीं हो जाता। हां भ्रष्टाचार के खिलाफ माहौल बनाने में व्यंग्य मदद करता है। अगर कार्टून-व्यंग्य से भ्रष्टाचार खत्म हो रहा होता श्रेष्ठ कार्टूनिस्ट स्वर्गीय आर के लक्ष्मण के दशकों के रचनाकर्म का परिणाम भ्रष्टाचार की कमी के तौर पर देखने में आना चाहिए था। परसाईजी की व्यंग्य-कथा इंसपेक्टर मातादीन चांद पर के बाद पुलिस विभाग में भ्रष्टाचार कम नहीं हुआ है। रचनाकार की अपनी भूमिका है, वह उसे निभानी चाहिए। रचनाकर्म से नकारात्मक के खिलाफ माहौल बनाने में मदद मिलती है। उसी परिप्रेक्ष्य में व्यंग्य को भी देखा जाना चाहिए।

जय प्रकाश पाण्डेय – 

देखने में आया है कि नाई जब दाढ़ी बनाता है तो बातचीत में पंच और महापंच फेंकता चलता है पर नाई का उस्तरा बिना फिसले दाढ़ी को सफरचट्ट कर सौंदर्य ला देता है पर आज व्यंग्यकार नाई के चरित्र से सीख लेने में परहेज कर रहे हैं बनावटी पंच और नकली मसालों की खिचड़ी परस रहे हैं ऐसा क्यों हो रहा है  ?

आलोक पुराणिक –

सबके पास हजामत के अपने अंदाज हैं। आप परसाईजी को पढ़ें, तो पायेंगे कि परसाईजी को लेकर कनफ्यूजन था कि इन्हे क्या मानें, कुछ अलग ही नया रच रहे थे। पुराने जब कहते हैं कि नये व्यंग्यकार बनावटी पंचों और नकली मसालों की खिचड़ी परोस रहे हैं, तो हमेशा इस बयान के पीछे सदाशयता और ईमानदारी नहीं होती। मैं ऐसे कई वरिष्ठों को जानता हूं जो अपने झोला-उठावकों की सपाटबयानी को सहजता बताते हैं और गैर-झोला-उठावकों पर सपाटबयानी का आऱोप ठेल देते हैं। क्षमा करें, बुजुर्गों के सारे काम सही नहीं हैं। इसलिए बड़ा सवाल है कि कौन सी बात कह कौन रहा है।  अगर कोई नकली पंच दे रहा है और फिर भी उसे लगातार छपने का मौका मिल रहा है, तो फिर मानिये कि पाठक ही बेवकूफ है। पाठक का स्तर उन्नत कीजिये। बनावटी पंच, नकली मसाले बहुत सब्जेक्टिव सी बातें है। बेहतर यह होना चाहिए कि जिस व्यंग्य को मैं खराब बताऊं, उस विषय़ पर मैं अपना काम पेश करुं और फिर ये दावा ना  ठेलूं कि अगर आपको समझ नहीं आ रहा है, तो आपको सरोकार समझ नहीं आते। लेखन की असमर्थता को सरोकार के आवरण में ना छिपाया जाये, जैसे नपुंसक दावा करे कि उसने तो परिवार नियोजन को अपना लिया है। ठीक है परिवार नियोजन बहुत अच्छी बात है, पर असमर्थताओं को लफ्फाजी के कवच दिये जाते हैं, तो पाठक उसे पहचान लेते हैं। फिर पाठकों को गरियाइए कि वो तो बहुत ही घटिया हो गया। यह सिलसिला  अंतहीन है। पाठक अपना लक्ष्य तलाश लेता है और वह ज्ञान चतुर्वेदी और दूसरों में फर्क कर लेता है। वह सैकड़ों उपन्यासों की भीड़ में राग दरबारी को वह स्थान दे देता है, जिसका हकदार राग दरबारी होता है।

जय प्रकाश पाण्डेय – 

लोग कहने लगे हैं कि आज के माहौल में पुरस्कार और सम्मान “सब धान बाईस पसेरी” बन से गए हैं, संकलन की संख्या हवा हवाई हो रही है ऐसे में किसी व्यंग्य के सशक्त पात्र को कभी-कभी पुरस्कार दिया जाना चाहिये, ऐसा आप मानते हैं हैं क्या ?

आलोक पुराणिक –

रचनात्मकता में बहुत कुछ सब्जेक्टिव होता है। व्यंग्य कोई गणित नहीं है कोई फार्मूला नहीं है। कि इतने संकलन पर इतनी सीनियरटी मान ली जायेगी। आपको यहां ऐसे मिलेंगे जो अपने लगातार खारिज होते जाने को, अपनी अपठनीयता को अपनी निधि मानते हैं। उनकी बातों का आशय़ होता कि ज्यादा पढ़ा जाना कोई क्राइटेरिया नहीं है। इस हिसाब से तो अग्रवाल स्वीट्स का हलवाई सबसे बड़ा व्यंग्यकार है जिसके व्यंग्य का कोई  भी पाठक नहीं है। कई लेखक कुछ इस तरह की बात करते हैं , इसी तरह से लिखा गया व्यंग्य, उनके हिसाब से ही लिखा गया व्यंग्य व्यंग्य है, बाकी सब कूड़ा है। ऐसा मानने का हक भी है सबको बस किसी और से ऐसा मनवाने के लिए तुल जाना सिर्फ बेवकूफी ही है। पुरस्कार किसे दिया जाये किसे नहीं, यह पुरस्कार देनेवाले तय करेंगे। किसी पुरस्कार से विरोध हो, तो खुद खड़ा कर लें कोई पुरस्कार और अपने हिसाब के व्यंग्यकार को दे दें। यह सारी बहस बहुत ही सब्जेक्टिव और अर्थहीन है एक हद।

जय प्रकाश पाण्डेय – 

आप खुशमिजाज हैं, इस कारण व्यंग्य लिखते हैं या भावुक होने के कारण ?

आलोक पुराणिक –

व्यंग्यकार या कोई भी रचनाशील व्यक्ति भावुक ही होता है। बिना भावुक हुए रचनात्मकता नहीं आती। खुशमिजाजी व्यंग्य से नहीं आती, वह दूसरी वजहों से आती है। खुशमिजाजी से पैदा हुआ हास्य व्यंग्य में इस्तेमाल हो जाये, वह अलग बात है। व्यंग्य विसंगतियों की रचनात्मक पड़ताल है, इसमें हास्य हो भी सकता है नहीं भी। हास्य मिश्रित व्यंग्य को ज्यादा स्पेस मिल जाता है।

जय प्रकाश पाण्डेय –

वाट्सअप, फेसबुक, ट्विटर में आ रहे शब्दों की जादूगरी से ऐसा लगता है कि शब्दों पर संकट उत्पन्न हो गया है ऐसा कुछ आप भी महसूस करते हैं क्या ?

आलोक पुराणिक –

शब्दों पर संकट हमेशा से है और कभी नहीं है। तीस सालों से मैं यह बहस देख रहा हूं कि संकट है, शब्दों पर संकट है। कोई संकट नहीं है, अभिव्यक्ति के ज्यादा माध्यम हैं। ज्यादा तरीकों से अपनी बात कही जा सकती है।

जय प्रकाश पाण्डेय – 

हजारों व्यंग्य लिखने से भ्रष्ट नौकरशाही, नेता, दलाल, मंत्री पर कोई असर नहीं पड़ता। फेसबुक में इन दिनों “व्यंग्य की जुगलबंदी” ने तहलका मचा रखा है इस में आ रही रचनाओं से पाठकों की संख्या में ईजाफा हो रहा है ऐसा आप भी महसूस करते हैं क्या?

अनूप शुक्ल ने व्यंग्य की जुगलबंदी के जरिये बढ़िया प्रयोग किये हैं। एक ही विषय पर तरह-तरह की वैरायटी वाले लेख मिल रहे हैं। एक तरह से सीखने के मौके मिल रहे हैं। एक ही विषय पर सीनियर कैसे लिखते हैं, जूनियर कैसे लिखते हैं, सब सामने रख दिया जाता है। बहुत शानदार और सार्थक प्रयोग है जुगलबंदी। इसका असर खास तौर पर उन लेखों की शक्ल में देखा जा सकता है, जो एकदम नये लेखकों-लेखिकाओं ने लिखे हैं और चौंकानेवाली रचनात्मकता का प्रदर्शन किया है उन लेखों में। यह नवाचार  इंटरनेट के युग में आसान हो गया।

हम प्राचीन काल की अपेक्षा आज नारदजी से अधिक चतुर, ज्ञानवान, विवेकवान और साधनसम्पन्न हो गए हैं फिर भी अधिकांश व्यंग्यकार अपने व्यंग्य में नारदजी को ले आते हैं इसके पीछे क्या राजनीति है ?

आलोक पुराणिक –

नारदजी उतना नहीं आ रहे इन दिनों। नारदजी का खास स्थान भारतीय मानस में, तो उनसे जोड़कर कुछ पेश करना और पाठक तक पहुंचना आसान हो जाता है। पर अब नये पाठकों को नारद के संदर्भो का अता-पता भी नहीं है।

जय प्रकाश पाण्डेय – 

व्यंग्य विधा के संवर्धन एवं सृजन में फेसबुकिया व्यंगकारों की भविष्य में सार्थक भूमिका हो सकती है क्या ?

आलोक पुराणिक –

फेसबुक या असली  की बुक, काम में दम होगा, तो पहुंचेगा आगे। फेसबुक से कई रचनाकार मुख्य धारा में गये हैं। मंच है यह सबको सहज उपलब्ध। मठाधीशों के झोले उठाये बगैर आप काम पेश करें और फिर उस काम को मुख्यधारा के मीडिया में जगह मिलती है। फेसबुक का रचनाकर्म की प्रस्तुति में बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार – # 15 – व्यंग्य – हश्र एक उदीयमान नेता का ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

 

(आपसे यह  साझा करते हुए मुझे अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  e-abhivyakti के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं.  हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे. डॉ कुंदन सिंह परिहार जी ने अपने प्राचार्य जीवन में अपने छात्रों को  छात्र नेता , वरिष्ठ नेता , डॉक्टर , इंजीनियर से लेकर उच्चतम प्रशासनिक पदों  तक जाते हुए देखा है. इसके अतिरिक्त  कई छात्रों को बेरोजगार जीवन से  लेकर स्वयं से जूझते हुए तक देखा है.  इस क्रिया के प्रति हमारा दृष्टिकोण भिन्न हो सकता है किन्तु, उनके जैसे वरिष्ठ प्राचार्य का अनुभव एवं दृष्टिकोण निश्चित ही भिन्न होगा जिन्होंने ऐसी प्रक्रियाओं को अत्यंत नजदीक से देखा है. आज प्रस्तुत है  उनका  व्यंग्य  “हश्र एक उदीयमान नेता का” .)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 15 ☆

 

☆ व्यंग्य – हश्र एक उदीयमान नेता का ☆

 

भाई रामसलोने के कॉलेज में दाखिला लेने का एकमात्र कारण यह था कि वे सिर्फ इंटर पास थे और धर्मपत्नी विमला देवी बी.ए.की डिग्री लेकर आयीं थीं।  परिणामतः रामसलोने जी में हीनता भाव जाग्रत हुआ और उससे मुक्ति पाने के लिए उन्होंने बी.ए. में दाखिला ले लिया।

दैवदुर्योग से जब परीक्षा-फार्म भरने की तिथि आयी तब प्रिंसिपल ने उनका फार्म रोक लिया।  बात यह थी कि रामसलोने जी की उपस्थिति पूरी नहीं थी।  कारण यह था कि बीच में विमला देवी ने जूनियर रामसलोने को जन्म दे दिया, जिसके कारण रामसलोने जी ब्रम्हचारी के कर्तव्यों को भूलकर गृहस्थ के कर्तव्यों में उलझ गये।  कॉलेज से कई दिन अनुपस्थित रहने के कारण यह समस्या उत्पन्न हो गयी।

प्रिंसिपल महोदय दृढ़ थे।  रामसलोने की तरह आठ-दस छात्र और थे जो पढ़ाई के समय बाज़ार में पिता के पैसे का सदुपयोग करते रहे थे।

सब मिलकर प्रिंसिपल महोदय से मिले।  कई तरह से प्रिंसिपल साहब से तर्क-वितर्क किये, लेकिन वे नहीं पसीजे।  रामसलोने जी आवेश में आ गये।  अचानक मुँह लाल करके बोले, ‘आप हमारे फार्म नहीं भेजेंगे तो मैं आमरण अनशन करूँगा।’ साथी छात्रों की आँखों में प्रशंसा का भाव तैर गया, लेकिन प्रिंसिपल महोदय अप्रभावित रहे।

दूसरे दिन रामसलोने जी का बिस्तर कॉलेज के बरामदे में लग गया।  रातोंरात वे रामसलोने जी से ‘गुरूजी’ बन गये।  कॉलेज का बच्चा-बच्चा उनका नाम जान गया।  साथी छात्रों ने उनके अगल-बगल दफ्तियाँ टांग दीं जिनपर लिखा था, ‘प्रिंसिपल की तानाशाही बन्द हो’, ‘छात्रों का शोषण बन्द करो’, ‘हमारी मांगें पूरी करो’, वगैरः वगैरः।  उन्होंने रामसलोने का तिलक किया और उन्हें मालाएं पहनाईं।  रामसलोने जी गुरुता के भाव से दबे जा रहे थे।  उन्हें लग रहा था जैसे उनके कमज़ोर कंधों पर सारे राष्ट्र का भार आ गया हो।

अनशन शुरू हो गया।  साथी छात्र बारी- बारी से उनके पास रहते थे।  बाकी समय आराम से घूमते-घामते थे।

तीसरे दिन रामसलोने जी को उठते बैठते कमज़ोरी मालूम पड़ने लगी।  प्रिंसिपल महोदय उन्हें देखने आये, उन्हें समझाया, लेकिन साथी छात्र उनकी बातों को बीच में ही ले उड़ते थे।  उन्होंने प्रिंसिपल की कोई बात नहीं सुनी, न रामसलोने को बोलने दिया।

रामसलोने जी की हालत खस्ता थी।  उन्हें आवेश में की गयी अपनी घोषणा पर पछतावा होने लगा था और पत्नी के हाथों का बना भोजन दिन-रात याद आता था।  उनका मनुहार करके खिलाना भी याद आता था।  लेकिन साथियों ने उनका पूरा चार्ज ले लिया था। वे ही सारे निर्णय लेते थे। रामसलोने जी के हाथ में उन्होंने सिवा अनशन करने के कुछ नहीं छोड़ा था।

डाक्टर रामसलोने जी को देखने रोज़ आने लगा।  प्रिंसिपल भी रोज़ आते थे, लेकिन न वे झुकने को तैयार थे, न रामसलोने जी के साथी।

आठवें दिन डाक्टर ने रामसलोने जी के साथियों को बताया कि उनकी हालत अब खतरनाक हो रही है। रामसलोने जी ने सुना तो उनका दिल डूबने लगा। लेकिन उनके साथी ज़्यादा प्रसन्न हुए।  उन्होंने रामसलोने जी से कहा, ‘जमे रहो गुरूजी! अब प्रिंसिपल को पता चलेगा। आप अगर मर गये तो हम कॉलेज की ईंट से ईंट बजा देंगे।’  रामसलोने के सामने दुनिया घूम रही थी।

दूसरे दिन से उनके साथी वहीं बैठकर कार्यक्रम बनाने लगे कि अगर रामसलोने जी शहीद हो गये तो क्या क्या कदम उठाये जाएंगे।  सुझाव दिये गये कि रामसलोने जी की अर्थी को सारे शहर में घुमाया जाए और उसके बाद सारे कॉलेजों में अनिश्चितकालीन हड़ताल और शहर बन्द हो।  ऐसा उपद्रव हो कि प्रशासन के सारे पाये हिल जाएं।  उन्होंने रामसलोने जी से कहा, ‘तुम बेफिक्र रहो, गुरूजी। कॉलेज के बरामदे में तुम्हारी मूर्ति खड़ी की जाएगी।’

रात को आठ बजे रामसलोने जी  अपने पास तैनात साथी से बोले, ‘भैया, एक नींबू ले आओ, मितली उठ रही है।’  इसके पाँच मिनट बाद ही एक लड़खड़ाती आकृति सड़क पर एक रिक्शे पर चढ़ते हुए कमज़ोर स्वर में कह रही थी, ‘भैया, भानतलैया स्कूल के पास चलो। यहाँ से लपककर निकल चलो।’

एक घंटे के बाद बदहवास छात्रों का समूह रामसलोने जी के घर की कुंडी बजा रहा था, परेशान आवाज़ें लगा रहा था। सहसा दरवाज़ा खुला और चंडी-रूप धरे विमला देवी दाहिने कर-कमल में दंड।  धारे प्रकट हुईं।  उन्होंने भयंकर उद्घोष करते हुए छात्र समूह को चौराहे के आगे तक खदेड़ दिया।  खिड़की की फाँक से दो आँखें यह दृश्य देख रही थीं।

कुन्दन सिंह परिहार

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हिन्दी साहित्य – राजभाषा दिवस विशेष – ☆ व्यंग्य – राजभाषा अकादमी अवार्ड्स ☆ – श्री हेमन्त बावनकर

राजभाषा दिवस विशेष 

श्री हेमन्त बावनकर

 

(राजभाषा दिवस पर श्री हेमन्त बावनकर जी का  विशेष  व्यंग्य  राजभाषा अकादमी अवार्ड्स.)

 

☆ राजभाषा अकादमी अवार्ड्स

 

गत कई वर्षों से विभिन्न राजभाषा कार्यक्रमों में भाग लेते-लेते साहित्यवीर को भ्रम हो गया कि अब वे महान साहित्यकार हो गए हैं। अब तक उन्होने राजभाषा की बेबुनियाद तारीफ़ों के पुल बाँध कर अच्छी ख़ासी विभागीय ख्याति एवं विभागीय पुरस्कार अर्जित किए थे। कविता प्रतियोगिताओं में राजभाषा के भाट कवि के रूप में अपनी कवितायें प्रस्तुत कर अन्य चारणों को मात देने की चेष्टा की। वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में अपने अकाट्य तर्क प्रस्तुत कर प्रतियोगियों एवं निर्णायकों में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा लिया। कभी सफलता ने साहित्यवीर के चरण चूमें तो कभी साहित्यवीर धराशायी होकर चारों खाने चित्त गिरे।

साहित्य की विभिन्न विधाओं में अपनी साहित्यिक प्रतिभा की तलवार भाँजते-भाँजते साहित्य की उत्कृष्ट विधा समालोचना के समुद्र में गोता लगाने का दुस्साहस कर बैठे। कुछ अभ्यास के पश्चात उन्हें भ्रम हो गया कि उन्होंने समालोचना में भी महारत हासिल कर लिया है। खैर साहब, साहित्यवीर जी ने प्रतिवर्षानुसार अपनी समस्त प्रविष्टियों को गत वर्ष प्रायोगिक तौर पर समालोचनात्मक व्यंग के रंग में रंग कर प्रेषित कर दी।

उनकी कहानी और लेख का तो पता नहीं क्या हुआ, किन्तु, कविता बड़ी क्रान्तिकारी सिद्ध हुई। कविता का शीर्षक था साहित्यवीर और भावार्थ कुछ निम्नानुसार था।

एक सखी ने दूसरी सखी से कहा कि- हे सखी! जिस प्रकार लोग वर्ष में एक बार गणतंत्रता और स्वतन्त्रता का स्मरण करते हैं उसी प्रकार वर्ष में एक बार राजभाषा का स्मरण भी करते हैं। जिस प्रकार सावन में सम्पूर्ण प्रकृति उत्प्रेरक का कार्य करते हुए वातावरण  को मादक बना देती है और युवा हृदयों में उल्लास भर देती है उसी प्रकार राजभाषा के रंग बिरंगे पोस्टर, प्रतियोगिताओं के प्रपत्र और राजभाषा मास के भव्य कार्यक्रम प्रतियोगियों के हृदय को राजभाषा प्रेम से आन्दोलित कर देते हैं। अहा! ये देखो प्रतियोगिताओं के प्रपत्र पढ़-पढ़ कर प्रतियोगियों के चेहरे कैसे खिल उठे हैं? पूरा वातावरण राजभाषामय हो गया है। अन्तिम तिथि निकट है। हमें कार्यालयीन समय का उपयोग करना पड़ सकता है। हे सखी! जब कार्यालयीन समय में राजभाषा कार्यक्रम हो सकता है, तो प्रविष्टियों का सृजन क्यों नहीं?

दूसरी सखी ने पहली सखी से कहा – हे सखी! तुम कुछ भी कहो मुझे तो कार्यालय की दीवारों पर लगे द्विभाषीय पोस्टर द्विअर्थी संवाद की भाँति दृष्टिगोचर होते हैं। अब तुम ही देखो न एक पोस्टर पर लिखा है “इस कार्यालय में हिन्दी में कार्य करने की पूरी छूट है। तो इसका अर्थ यही हुआ न कि- “इस कार्यालय में अङ्ग्रेज़ी का प्रयोग हानिप्रद है। क्या तुम्हें यह पढ़कर ऐसा नहीं लगता कि जिस प्रकार लोग धूम्रपान की “वैधानिक चेतावनी” पढ़ कर भी धूम्रपान करते हैं उसी प्रकार द्विभाषीय पोस्टर पढ़ कर अङ्ग्रेज़ी का प्रयोग करते हैं।

पहली सखी ने दूसरी सखी से कहा – हे सखी! तुम उचित कह रही हो। अब देखो न  जब कस्बा, जिला, प्रदेश, राष्ट्र और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के साहित्यकार हो सकते हैं तो सरकारी कार्यालयों तथा सरकारी उपक्रमों के विभागों में कार्यरत विभागीय स्तर के साहित्यकार, राष्ट्रीय स्तर के  साहित्यकार क्यों नहीं हो सकते?   कुछ समझ में ही नहीं आ रहा है कि ये विभागीय स्तर के साहित्यकार आखिर कब तक हिन्दी टंकण, हिन्दी शीघ्रलेखन, हिन्दी कार्यशाला, हिन्दी कार्यक्रम से लेकर राजभाषा मास में आयोजित कार्यक्रमों/प्रतियोगिताओं में कुलाञ्चे भरते रहेंगे? हे सखी! बड़े आश्चर्य की बात है कि राजभाषा अधिनियम लागू होने के इतने वर्षों के पश्चात भी किसी के मस्तिष्क में “राजभाषा अकादमी” की स्थापना का पवित्र विचार क्यूँ नहीं आया? जब अन्य तथाकथित भाषा-भाषी लोग अपनी भाषायी अकादमी के माध्यम से अपनी तथाकथित भाषाओं का तथाकथित विकास कर सकती हैं तो राजभाषा अकादमी के अभाव में तो राजभाषा के विकास का सारा दायित्व ही हमारे कन्धों पर आन पड़ा है। मुझे तो ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मैं राजभाषा के रथ की सारथी हूँ। अतः

“यदा यदा ही राजभाषस्य ग्लानिर्भवती सखी …”

अर्थात हे सखी! जब-जब राजभाषा की हानि और आङ्ग्ल्भाषा का विकास होता है तब तब मैं अपने रूप अर्थात विभागीय साहित्यकार के रूप में लोगों के सम्मुख प्रकट होती हूँ।

हे सखी! धिक्कार है हमें, हम पर और स्वतन्त्र भारत के उन स्वतन्त्र नागरिकों पर जिन्हें उनके मौलिक अधिकारों का स्मरण कराने की आवश्यकता नहीं होती, किन्तु, उन्हें उनकी गणतन्त्रता, स्वतन्त्रता और राजभाषा का मूल्य और उसका औचित्य स्मरण कराने के लिए उत्सवों और महोत्सवों की आवश्यकता पड़ती है। वैसे भी उत्सव और महोत्सव से ज्यादा लोगों की उत्सुकता मित्रों के साथ या सपरिवार अवकाश मनाने में होती है।

साहित्यवीर को अपनी प्रयोगवादी, क्रान्तिकारी, समालोचनात्मक व्यंग के रंग में रंगी कविता पर बड़ा गर्व था। किन्तु, जब उन्हें पुरस्कार वितरण के समय मंच के एक कोने में बुलाकर अमुक अधिनियम की अमुक धारा का उल्लंघन करने के दोष में अपनी सफाई देने हेतु ज्ञापन सौंपा गया कि- “क्यों ना आपसे पूछा जाए कि …. ?”  वे मंच के किनारे मूर्छित होते-होते बचे। पुरस्कार वितरण करने आए मुख्य अतिथि ने उन्हें सान्त्वना स्वरूप निम्न श्लोक सुनाया।

“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन …”

अर्थात कर्म करने में ही तुम्हारा अधिकार है, फल में नहीं। अतः तुम कर्मफल हेतु भी मत बनो और तुम्हारी अकर्मण्यता में भी आसक्ति न हो। इससे उनकी थोड़ी हिम्मत बँधी और उन्होने चुपचाप अपना स्थान ग्रहण किया। उनकी आँखों के सामने अंधेरा छा गया और रोम-रोम पसीने से भींग गया। उस दिन से उनका राजभाषा प्रेम जाता रहा।

अब पुनः राज भाषा मास आ गया है। चारों ओर बैनर पोस्टर लगे हुए हैं। प्रतियोगिताओं के प्रपत्र बाँटे जा रहे हैं। विभागीय साहित्यकारों में जोश का संचार होने लगा है। प्रेरक वातावरण साहित्यवीर को पुनः उद्वेलित करने लगता है। राज भाषा प्रेम उनके मन में फिर से हिलोरें मारने लगता है। “राजभाषा अकादमी अवार्ड्स की स्थापना और उसके अस्तित्व की कल्पना का स्वप्न पुनः जागने लगता है। वे अपनी कागज कलम उठा लेते हैं। किन्तु, यह क्या? वे जो कुछ भी लिखने की चेष्टा करते हैं, तो प्रत्येक बार उनकी कलम पिछले ज्ञापन का उत्तर ही लिख पाती है।

 

© हेमन्त  बावनकर,  पुणे 

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