हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – ☆ मेरा अभिनंदन ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

☆ मेरा अभिनंदन ☆

(प्रस्तुत है  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी का एक बेहतरीन व्यंग्य।  अभी तक  जिन  साहित्यकारों का अभिनंदन नहीं हुआ  है यह व्यंग्य उनके लिए प्राणवायु का  कार्य अवश्य करेगा। )

आम तौर से जो साहित्यकार पचास पार कर लेते हैं उनका खोज-खाज कर अभिनंदन कर दिया जाता है।कोई और नहीं करता तो उनकी मित्रमंडली ही कर देती है। पचास पर अभिनंदन करने के पीछे शायद भावना यह होती है कि अब तुम जीवन की ढलान पर आ गये, पता नहीं कब ऊपर से सम्मन आ जाए। इसलिए समाज पर जो तुम्हारा निकलता है उसे ले लो और छुट्टी करो। बिना अभिनंदन के मर गये तो कब्र में करवटें बदलोगे।

लेकिन कुछ अभागे ऐसे भी होते हैं जिनका पचास से आगे बढ़ लेने के बाद भी अभिनंदन नहीं होता। ऐसे अभागों में से एक मैं भी हूँ। पचास पार किये कई साल हो गये लेकिन इतने बड़े शहर से कोई चिड़िया का पूत भी अभिनंदन की बात लेकर नहीं आया। धिक्कार है ऐसे जीवन पर और लानत है ऐसी साहित्यकारी पर।

इसी ग्लानि से भरा एक दिन बैठा ज़माने को कोस रहा था कि दो झोलाधारी युवकों ने मेरे घर में प्रवेश किया। हुलिया से ही समझ गया कि उनका संबंध साहित्य से है। काफी ऊबड़-खाबड़ दिख रहे थे। उनमें से एक का कुर्ता घुटने के नीचे तक था। थोड़ा और लंबा सिलवा लेते तो पायजामे की ज़रूरत न रहती।

छोटे कुर्ते वाला बोला, ‘हम लोग अभिशोक साहित्यिक संस्था से आये हैं। मैं ‘कंटक’ हूँ, संस्था का सचिव, और ये ‘शूल’ जी हैं, संस्था के सहसचिव।’

मैंने दुखी स्वर में कहा,’मिलकर खुशी हुई। क्या सेवा करूँ?’

वे बोले,’हमारी संस्था साहित्यकारों का अभिनंदन करती है। खोजने पर पता चला कि आप उन दो चार साहित्यकारों में से हैं जिनका अभी तक अभिनंदन नहीं हुआ,  इसलिए आपके पास चले आये। हम आपका अभिनंदन करना चाहते हैं।’

मेरे मन के सूखे पौधों में एकाएक हरीतिमा का संचार हुआ। प्राणवायु के लिए फड़फड़ाते आदमी को आक्सीजन मिली। मन की पुलक को दबाते हुए मैंने कहा, ‘जैसी आपकी मर्जी, लेकिन मैं तो बहुत छोटा लेखक हूँ। इस सम्मान के योग्य कहाँ!’

मेरी विनम्रता को सराहने के बजाय ‘शूल’ जी आह भरकर बोले, ‘आप ठीक कहते हैं। लेकिन हमें तो किसी का अभिनंदन करना है।’

‘कंटक’ जी कागज़-कलम निकालकर बोले, ‘इस कागज़ पर अपना नाम ठीक ठीक लिख दीजिए। मैंने आपकी एक दो रचनाएं तो देखी हैं, लेकिन पूरा नाम याद नहीं है। बाकी अपना और कच्चा-चिट्ठा भी लिख दीजिए। झूठ मत लिखिएगा। कई साहित्यकार झूठ ही लिख देते हैं कि यह पुरस्कार मिला, वह पुरस्कार मिला। ज़्यादा तारीफ भी मत लिखिएगा। वह काम हम पर छोड़ दीजिए। हम दस साल से यही कर रहे हैं।’

कच्चा-चिट्ठा लिखवाने के बाद ‘कंटक’ जी बोले, ‘एक बात स्पष्ट कर देना ज़रूरी समझता हूँ। हमारा बजट सिर्फ श्रीफल के लिए ही पर्याप्त है। अगर आपको शाल भी लेना हो तो कुछ आर्थिक सहयोग देना होगा।’

मैं तुरंत सतर्क हुआ। कहा, ‘श्रीफल काफी है। मेरे पास तीन चार शाल हैं। और लेकर क्या करूँगा?’

‘शूल’ जी बोले,’तो फिर ऐसा करते हैं, आप अपना कोई नया सा शाल दे दीजिए। हम मुख्य अतिथि के हाथों वही आपको ओढ़वा देंगे।’

मेरे भीतर का वणिक और सतर्क हुआ। मैंने कहा, ‘अजी छोड़िए। कहीं शाल आपसे खो-खा गया तो अभिनंदन मुझे मंहगा पड़ जाएगा।’

‘कंटक’ जी बोले, ‘हमारे बजट में उपस्थित लोगों के लिए सिर्फ चाय की गुंजाइश है। आप अगर कुछ और जोड़ना चाहें तो आर्थिक सहयोग करना होगा।’

मैंने तुर्की-ब-तुर्की जवाब दिया, ‘चाय काफी है। खाने पीने की चीज़ें ज़्यादा रखने से कार्यक्रम की गंभीरता नष्ट होती है।’

‘कंटक’ जी हंसकर बोले, ‘मैं समझ गया कि आपका अभिनंदन अभी तक क्यों नहीं हुआ।’

फिर बोले, ‘हम चलते हैं। शीघ्र ही आपको सूचित करेंगे।’

मैंने कहा, ‘एक बात बताते जाइए। आपकी संस्था के नाम का अर्थ क्या है? ‘अभिषेक’ शब्द तो जानता हूँ, ‘अभिशोक’ पहली बार सुना।’

वे पुनः हँस कर बोले, ‘बात यह है कि हमारी संस्था साहित्यकारों के लिए दो ही काम करती है—–अभिनंदन और शोकसभा। इसीलिए दोनों शब्दों को मिलाकर अभिशोक नाम रखा।’

मैंने हाथ जोड़कर कहा, ‘यह अच्छा है कि आप मेरा अभिनंदन किये दे रहे हैं, अन्यथा फिर शोकसभा के लायक ही रह जाता।’

अभिनंदन के लिए बड़ी उमंग से सज-धज कर पहुंचा, लेकिन वहां उपस्थित सिर्फ दस बारह श्रोताओं को देखकर मेरा दिल बैठ गया। उनमें भी दो तीन मेरे मित्र थे। इनका अभिनंदन अभी बाकी था, इसलिए वे अपने अभिनंदन में मेरी उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए आये थे। यह परस्पर लेन-देन का मामला था।

‘कंटक’ जी मुझसे फुसफुसा कर बोले, ‘थोड़ा और रुक लें? शायद कुछ लोग और आ जाएं।’

मैंने फुसफुसा कर जवाब दिया, ‘बिलकुल मत रुकिए। विलंब होने पर इनमें से भी कुछ खिसक सकते हैं।’

कार्यक्रम शुरू हुआ। शुरू में ‘कंटक’ जी बोले। उन्होंने मेरी प्रशंसा के खूब पुल बांधे। उस दिन ही मुझे पता चला कि मैं कितने वज़नदार गुणों का स्वामी हूँ। कस्तूरी-मृग की तरह मैं उनसे अनभिज्ञ ही रहा।’कंटक’ जी बार बार कहते थे ‘अब इनके बारे में क्या कहूँ’, और फिर आगे कहने लगते थे।

उनके बाद संस्था के अध्यक्ष ने बाकी बचे हुए गुणों से मुझे विभूषित किया। उनके भाषण के खत्म होने तक संसार के सारे गुण मेरे हिस्से में आ गये। मैं समझ गया कि उन्हें मेरे गुण-दोषों से कुछ लेना-देना नहीं है। उनके पास खूबियों की एक फेहरिस्त थी जिसे वे हर अभिनंदन में बाँच देते थे। अब कोई उसे सच समझ ले तो उनकी बला से।

उनके भाषण के बाद मुझे अभिनंदन-पत्र और श्रीफल भेंट किया गया। मेरे आश्चर्य और सुख की सीमा न रही जब श्रीफल देने के बाद मुझे एक शाल उढ़ाया गया। मैं समझ गया कि मेरे लिए संस्था ने कुछ गुंजाइश निकाल ही ली। यह एक ठोस उपलब्धि थी।

जब मैंने बोलना शुरू किया तो ज़्यादातर श्रोता जम्हाइयाँ लेने लगे। उनके खुले मुख के अंधकार को देखकर मुझे अपना भाषण छोटा करना पड़ा। संस्था के पदाधिकारियों को उनके साहित्य-प्रेम के लिए बधाई देकर मैं बैठ गया।
वापस लौटते वक्त मैं अकेला था। मित्र लोग अपनी ड्यूटी करके और मुझे ईर्ष्यापूर्ण बधाई देकर फूट लिये थे।

दस पंद्रह कदम ही बढ़ा हूँगा कि किसी ने पीछे से आवाज़ दी। मुड़ कर देखा तो ‘कंटक’ जी थे। मैंने सोचा उन्हें शाल की अप्रत्याशित भेंट के लिए धन्यवाद दे दूँ।

वे नज़दीक आये तो मैंने कहा, ‘शाल के लिए – – – –

वे मेरी बात बीच में ही काटकर बोले, ‘मैं शाल के लिए ही आया हूँ। दरअसल संस्था के अध्यक्ष जी कहने लगे कि अब तक ऐसा कभी नहीं हुआ कि हमने अभिनंदित को शाल न उढ़ाई हो, भले ही वह उसी के पैसे की हो। बोले कि शाल नहीं उढ़ाई तो संस्था की पोल खुल जाएगी। इसलिए मैं अपने एक मित्र से शाल लेकर आया। अब काम हो गया। शाल वापस कर दीजिए।’

मेरा मुंह फूल गया। गुस्से में बोला, ‘यह क्या तरीका है? आपको शाल वापस ही लेना था तो आप कल मेरे घर आ सकते थे।’

‘कंटक’ जी बोले, ‘चीज़ एक बार पेटी में पहुँच जाए तो निकलवाना मुश्किल होता है। आपके घर पहुँचकर हल्ला भी नहीं कर सकता, क्योंकि संस्था की बदनामी होगी। इसलिए आप यहीं दे दीजिए। यह हमारा इलाका है, यहाँ वसूल करना आसान है।’

स्थिति प्रतिकूल देखकर मैंने तुरंत रुख बदला और हँस कर कहा, ‘मैं तो मज़ाक कर रहा था। यह रहा आपका शाल।’

मैंने शाल उतारकर उन्हें पकड़ा दिया। वे उसे तह करते हुए बोले, ‘प्रणाम! फिर भेंट होगी। कहा-सुना माफ कीजिएगा।’

फिर वे घूम कर अंधेरे में अंतर्ध्यान हो गये और मैं अपने अभिनंदन के बचे हुए प्रमाण श्रीफल और अभिनंदन-पत्र को लिये घर आ गया। कहने की ज़रूरत नहीं कि शाल की दास्तां मैं घर के लोगों से साफ छिपा गया।

© कुन्दन सिंह परिहार
जबलपुर (म. प्र.)

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ किटी पार्टी ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

☆ किटी पार्टी ☆

Smiley, Happy, Face, Smile, Lucky, Luck(प्रख्यात व्यंग्यकार श्री विवेक  रंजन  श्रीवास्तव जी   ने   किटी पार्टी पर काफी शोध कर लिया है। किन्तु, शोध के पश्चात ऐसे पारिवारिक /सामाजिक विषय पर व्यंग्य लिखने के लिए काफी हिम्मत की आवश्यकता पड़ती है। श्री विवेक जी को बधाई।)

पुराने जमाने में महिलाओं की परस्पर गोष्ठियां पनघट पर होती थी। घर परिवार की चर्चायें, ननद, सास की बुराई, वगैरह एक दूसरे से कह लेने से मनो चिकित्सकों की भाषा में, दिल हल्का हो जाता है, और नई ऊर्जा के साथ, दिन भर काटने को, पारिवारिक उन्नति हेतु स्वयं को होम कर देने की हमारी सांस्कृतिक विरासत वाली ’नारी’ मानसिक रूप से तैयार हो लेती थी। समय के साथ बदलाव आये हैं। अब नल-जल व्यवस्था के चलते पनघट इतिहास में विलीन हो चुके हैं। स्त्री समानता का युग है। पुरूषों के क्लबों के समकक्ष महिला क्लबों की संस्कृति गांव-कस्बों तक फैल रही है। सामान्यतः इन क्लबों को किटी-पार्टी का स्वरूप दिया गया है। प्रायः ये किटी पार्टियां दोपहर में होती है, जब पतिदेव ऑफिस, और बच्चे स्कूल गये होते हैं। महिलायें स्वयं अपने लिये समय निकाल लेती है। और मेरी पत्नी इस दौरान सोना, टी.वी. धारावाहिक देखना, पत्रिकायें-पुस्तकें पढ़ना, संगीत सुनना, और कुछ समय बचाकर लिखना जैसे षौक पाले हुए थी। पर हाल ही उसे भी  किटी पार्टी का रोग लग ही गया।

प्रत्येक मंगलवार को मैं महावीर मंदिर जाता हूं, अब श्रीमती जी इस दिन किटी पार्टी में जाने लगी है। कल क्या पहनना है, ज्वेलरी, साड़ी से लेकर चप्पलें और पर्स तक इसकी मैंचिंग की तैयारियां सोमवार से ही प्रारंभ हो जाती हैं। कहना न होगा इन तैयारियों का अर्थिक भार मेरे बटुये पर भी पड़ रहा है। जिसकी भरपाई मेरा जेबखर्च कम करके की जाने लगी है। ब्यूटी कांषेस श्रीमती जी, नई सखियों से नये-नये ब्यूटी टिप्स लेकर, मंहगी हर्बल क्रीम, फेस पैक वगैरह के नुस्खे अपनाने लगी है। किटी पार्टी कुछ के लिये आत्म वैभव के प्रदर्शन हेतु, कुछ के लिये पति के बॉस की पत्नी की बटरिंग के द्वारा उनकी गुडबुक्स में पहुंचने का माध्यम कुछ के लिये नये फैशन को पकड़ने की अंधी दौड़, तो कुछ के लिये अपना प्रभुत्व स्थापित करने का एक प्रयास कुछ के लिये इसकी-उसकी बुराई भलाई करने का मंच, कुछ के लिये क्लब सदस्यों से परिचय द्वारा अपरोक्ष लाभ उठाने का माध्यम तो कुछ के लिये सचमुच विशुद्ध मनोरंजन होती है। कुछ इसे नेटवर्क मार्केटिंग का मंच बना लेती हैं।

क्लब में हाउजी का प्रारंपरिक गेम होता है, जिस किसी की टर्न होती है, उसकी रूचि, क्षमता एवं योग्यता के अनुरूप सुस्वादु नमकीन-मीठा नाश्ता होता है। चर्चायें होती हैं। गेम आफ द वीक होता है, जिसमें विनर को पुरस्कार मिलता है। मेरी इटेलैक्चुअल पत्नी जब जाती है, ज्यादातर कुछ न कुछ जीत लाती है। आंख बंद कर अनाज पहचानना, एक मिनट में अधिकाधिक मोमबत्तियां जलाना, जिंगल पढ़कर विज्ञापन के प्राडक्ट का नाम बताना, एक रस्सी में एक मिनट में अधिक से अधिक गठाने लगाना, जैसे कई मनोरंजक खेलों से, किटी पार्टी के जरिये हम वाकिफ हुये हैं। मेरा लेखक मन तो विचार कर रहा है एक किताब लिखने का- गेम्स आफ किटी पार्टीज मुझे भरोसा है, यह बेस्ट सैलर होगी। क्योंकि हर हफ्ते एक नया गेम तलाशने में महिलायें काफी श्रम कर रही है।

इस हफ्ते मेरी श्रीमती जी ’लेडी आफ दि वीक’ बनाई गई है। यानी इस बार टर्न उनकी हैं। चलतू भाषा में कहें तो उन्हें मुर्गा बनाया गया है- नहीं शायद मुर्गी। श्रीमती जी ने सर्वश्रेष्ठ प्रस्तुति देने के अंदाज में मेरे सारे मातहत स्टाफ को तैनात कर रखा है, चाट वाले को मय ठेले के क्लब बुलवाया जाना है, आर्डर पर रसगुल्ले बन रहे हैं, एस्प्रेसों काफी प्लांट की बुकिंग कराई जा चुकी है, हरेक को रिटर्न गिफ्ट की शैली में कुछ न कुछ देने के लिये मेरी किताबों के गिफ्ट पैकेट बनाये गये हैं- ये और बात है कि इस तरह श्रीमती जी लाफ्ट पर लदी मेरी किताबों का बोझ हल्का करने का एक और असफल प्रयास कर रही है, क्योंकि जल्दी ही मेरी नई किताब छपकर आने को है। क्या गेम करवाया जावे इस पर बच्चों से, सहेलियों से, बहनों से मोबाईल पर, लम्बे-लम्बे डिस्कशंस हो रहे हैं- मोबाईल पर कर्टसी काल करके वैयक्तिक आमंत्रण भी श्रीमती जी अपने क्लब मेम्बरस् को दे रही है। श्रीमती जी की सक्रियता से प्रभावित होकर लोग उन्हें क्लब सेक्रेटरी बनाना चाह रहे हैं। मैं चितिंत मुद्रा में श्रीमती जी की प्रगति का मूक प्रशंसक बना बैठा हूँ। उन्हें चाहकर भी रोक नहीं सकता क्योंकि क्लब से लौटकर जब चहकते हुये, वे वहाँ  के किस्से सुनाती है, तो उनकी उत्फुल्लता देखकर मैं भी किटी पार्टी में रंग जमाने वाली संदर, सुशील, सुगढ़ पत्नी पाने हेतु स्वयं पर गर्व करने का भ्रम पाल लेता हूं। अब कुछ प्रस्ताव किटी पार्टी को आर्थिक लाभों से जोड़ने के भी चल रहे हैं, जिनमें बीसी के साथ ही, नेटवर्क मार्केटिंग, सहकारी खरीद, पारिवारिक पिकनिक वगैरह के हैं। आर्थिक सामंजस्य बिठाते हुये, श्रीमती जी की प्रसन्नता के लिये उनकी पार्टी में हमारा पारिवारिक सहयोग बदस्तूर जारी है। क्योंकि परिवार की प्रसन्नता के लिये पत्नी की प्रसन्नता सर्वोपरि है।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ अमेरिका से फोन ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जय प्रकाश पाण्डेय  जी का एक प्रयोग – एक मार्मिक माइक्रो व्यंग्य आज सोशल मीडिया इस तरह की अनेकों मार्मिक घटनाओं से भरा पड़ा है। प्रश्न यह उठता है कि इनसे कितने लोगों की आँखें खुलती हैं? किन्तु, ऐसे माइक्रो व्यंग्य के प्रयोग आवश्यक हैं।)

“हलो…. बेटा तुम्हारे पापा अस्पताल में बहुत सीरियस हैं तुम्हें बहुत याद कर रहे हैं, उनका आखिरी समय चल रहा है। यहां मेरे सिवाय उनका कोई नहीं है। कब आओगे बेटा ?”

“माँ बहुत बिजी हूँ । वैसे भी इण्डिया में अभी बहुत गर्मी होगी, तुम्हारे घर में एसी भी नहीं है। छोटे भाई से बात करता हूँ कि अभी वो इण्डिया जाकर उन्हें देख ले फिर माँ के समय मैं चला जाऊँगा। तुम तो समझती हो माँ … मुझे तुम से ज्यादा प्यार है।”

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य- व्यंग्य – ☆ समझदारी का त्रासद अन्त ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

☆ समझदारी का त्रासद अन्त ☆

(प्रस्तुत है  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी का एक बेहतरीन व्यंग्य।  डॉ कुन्दन सिंह जी के पात्रों  के सजीव चित्रण का मैं कायल हूँ। लगता है उनके पात्र हमारे आस पास ही हैं। आवश्यकता से अधिक ज्ञान प्राप्त करना और उसे बांटने में अपनी ऊर्जा खत्म कर तनाव झेलना आम हो गया है। फिर ऐसी समझदारी का त्रासद अन्त कैसे होता है वह आप ही पढ़ लीजिये।)

रामसुख अपने नाम के हिसाब से ही हमेशा शान्त और सुखी रहते हैं। दफ्तर से लौटते हैं, थोड़ी देर टाँगें सीधी करते हैं, फिर टहलने निकल जाते हैं। लेकिन उनका टहलना दूसरों के टहलने जैसा नहीं होता। दूसरे लोग स्वास्थ्य-वर्धन के लिए, भोजन पचाने के लिए टहलते हैं, रामसुख सिर्फ दुनिया देखने के लिए, मन बहलाने के लिए टहलते हैं। दाहिने बायें देखते हुए, धीरे धीरे चलते हैं। जहाँ कुछ दिलचस्प दिखा, रुक गये। कोई मजमा, कोई तमाशा, झगड़ा, मारपीट होती दिखी, रुक गये। जितनी देर झगड़ा, मारपीट चलती रही, देखते रहे, फिर धीरे धीरे आगे बढ़ गये। कहीं भाषण होता दिखा तो वहीं रुक गये। थोड़ी देर सुना, फिर आगे बढ़ गये। रास्ते में कोई मंदिर पड़ा तो भीतर जाकर सिर झुकाकर प्रसाद ले लिया। भजन-कीर्तन हो रहा हो तो थोड़ी देर उसमें शामिल हो गये, नहीं तो प्रसाद फाँकते आगे बढ़ गये।

ऐसे ही रामसुख एक शाम एक ऐसी सभा में पहुँच गये जहाँ एक संत का प्रवचन चल रहा था। रामसुख टाइम काटने को भाषण सुनने बैठ गये, लेकिन जल्दी ही उनके कान खड़े हुए। संत बड़ी दिलचस्प बातें कह रहे थे। कह रहे थे—–‘भक्तजनो! हम पुरूष बहुत बड़ी गलती करते हैं कि अपनी पत्नियों को वैधव्य के लिए तैयार नहीं करते। जीवन अनिश्चित है, आज है कल नहीं। सामान सौ बरस का है, कल की खबर नहीं। पति को अचानक कुछ हो जाता है तो पत्नी को न उसके बैंक का पता होता है, न पासबुक का। यह भी पता नहीं होता कि उसका बीमा कितने का है, बीमा दफ्तर कहाँ है। किससे कितना लेना है, किसे कितना देना है। कई स्त्रियों ने तो अपने पति का दफ्तर तक नहीं देखा। पति एकाएक परलोक सिधार जाए तो पत्नी असहाय हो जाती है। उसे समझ में नहीं आता कि कहाँ जाएँ, क्या करें। यह हाल पढ़ी-लिखी स्त्रियों का भी है, बेपढ़ी लिखी स्त्रियों को तो छोड़ ही दीजिए।

‘इसलिए पतियों को चाहिए कि पत्नियों को इस बात की पूरी जानकारी दें कि यदि उनका ऊपर से अचानक बुलावा आ जाए तो उन्हें क्या करना है, किस तरह रहना है। अपने को अमर समझकर नहीं रहना चाहिए।’

सुनकर रामसुख के दिमाग़ में जैसे बल्ब जला। क्या मार्के की बात कही है! जिंदगी का क्या ठिकाना?सौ नयी बीमारियां पैदा हो गयी हैं। अभी सड़क पर चल रहे हैं, दूसरे पल पता चला ऊपर ट्रांसफर हो गया। सड़क पर इतने वाहन चलते हैं। थोड़ा धक्का लगा और छुट्टी। लूट-मार इतनी बढ़ गयी है कि अंधेरे में कहीं से निकलने में डर लगता है। आजकल लौंडे बात बाद में करते हैं, पहले चाकू निकालते हैं। संत जी ने ठीक कहा। पत्नी को सब जानकारी दे देना चाहिए।

घर आये तो खटिया पर लेट गये। पत्नी शकुंतला देवी को बुलाकर पास बैठा लिया। छत की तरफ देखकर दार्शनिक अंदाज़ में बोले, ‘जिन्दगी का कोई ठिकाना नहीं है। आज यहां कल वहां।’

शकुंतला देवी बोलीं, ‘क्या हुआ? कोई मर वर गया क्या?’

रामसुख गंभीर मुद्रा में बोले, ‘नहीं! मैं तो आदमी की जिंदगी के बारे में सोच रहा था। क्या पता कब क्या हो जाए! जिंदगी और मौत के बीच कितना फासला है, किसे मालूम?’

शकुंतला देवी बोलीं, ‘टीवी में किशन जी महाराज जो गीता का परवचन दे रहे हैं, लगता है उसी का असर हो गया है।’

रामसुख बोले, ‘नहीं! आज एक संत जी का भाषण सुना। वे कह रहे थे कि आदमी की जिंदगी का कोई ठिकाना नहीं है, इसलिए पत्नी को घर-द्वार के बारे में सब समझा कर रखना चाहिए।’

शकुंतला देवी गुस्से में बोलीं, ‘चूल्हे में जाएं ऐसे संत। खबरदार जो आगे ऐसी बात मुँह से निकाली। जिंदगी जाए तुम्हारे दुश्मनों की।’

वे झपट कर घर के भीतर चली गयीं। रामसुख तम्बाकू की जुगाली करते, छत की तरफ ताकते, लेटे सोचते रहे।

दूसरी शाम उन्होंने अपनी दोनों पासबुक निकालकर तकिये के नीचे रख लीं, फिर शकुंतला देवी को बुलाया। जब वे आकर बैठ गयीं तो पासबुक निकालकर उन्हें दिखाकर बोले, ‘बताओ ये पासबुक किन बैंकों की हैं।’

शकुंतला देवी भौंहें चढ़ाकर बोलीं, ‘हमें क्या मालूम।’

रामसुख दुखी भाव से बोले, ‘यही तो गड़बड़ी है। देखो, यह काली वाली पासबुक महाराष्ट्र बैंक की है और गुलाबी वाली नागरिक बैंक की।’

शकुंतला देवी बोलीं, ‘होगी। तो हम क्या करें?’

रामसुख बोले, ‘अरे भाई, जरा समझो तो। सब दिन मूरख ही बनी रहोगी। आओ तुम्हें समझायें कि पासबुक में रकम कहाँ लिखी होती है।’

शकुंतला देवी फिर झटक कर खड़ी हो गयीं। बोलीं, ‘तुम पर फिर कल वाला भूत सवार हो गया। पहले तो कभी कभी भांग खाते थे, अब लगता है रोज जमाने लगे हो। ज्यादा आंय बांय बकोगे तो ओझा जी को बुलाकर तुम्हारा भूत उतरवाऊँगी।’

रामसुख चुप्पी साध गये।

लेकिन संत जी की बातें उनके दिमाग़ से निकलती नहीं थीं। अगले दिन फिर उन्होंने शकुंतला देवी को बुलाकर बैठा लिया। पुचकार कर बोले, ‘तुम मेरी बात का बुरा मान जाती हो। अरे, मैं मर थोड़े ही रहा हूँ। देखो न काठी एकदम ठोस है, टनाटन। लेकिन आदमी और औरत गिरस्ती की गाड़ी के दो पहिये होते हैं। दोनों को सब चीजों की जानकारी होनी चाहिए। अब देखो, वर्मा जी बीच में पत्नी को बिना कुछ बताये परलोक चले गये तो मिसेज़ वर्मा को कितनी परेशानी हुई। इसलिए सब बातों की जानकारी रखना जरूरी है।’

अब की बार शकुंतला देवी नाराज़ नहीं हुईं। बोलीं, ‘बाद में देखेंगे। अभी ये रामायण बन्द करो।’

रामसुख खुश हुए। चलो, बीजारोपण हो गया। अब धीरे धीरे सब हो जाएगा।

अगले दिन से वे शकुंतला देवी को पासबुक के बारे में समझाने लगे। कहाँ जमा पैसा लिखा जाता है, कहाँ निकाला हुआ, कहाँ बाकी चढ़ता है। शकुंतला देवी थोड़ी देर सुनतीं, फिर ‘उँह, बाद में देखेंगे, काम पड़ा है,’ कह कर उठ जातीं।

धीरे धीरे शकुंतला देवी की दिलचस्पी बढ़ने लगी। अब वे खुद ही पतिदेव से प्राविडेंट फंड, बीमा वगैरः के बारे में पूछताछ करने लगीं। फुरसत में उनके कागजात उलट-पलट कर समझने की कोशिश करती रहतीं। रामसुख और खुश हुए। एक दिन उन्हें अपनी स्कूटर के पीछे बैठा कर बैंक ले गये। वहाँ समझाते रहे कि पैसा कहाँ और कैसे जमा किया और निकाला जाता है। एक दिन बाहर से उन्हें अपने दफ्तर के दर्शन भी करा लाये।

एक दिन शकुंतला देवी पूछने लगीं, ‘क्यों जी! जिसका बैंक में खाता है, उसे भगवान न करे कुछ हो जाए तो उसका पैसा पत्नी को मिल जाता है न?’

रामसुख उत्साह से बोले, ‘हाँ, हाँ, बैंक में फार्म भरते वक्त उसका नाम देना पड़ता है जिसे पैसा मिलेगा। कोई दिक्कत नहीं होती।’

लेकिन उत्तर देने के बाद रामसुख के मन में ‘टुक्क’ से डंक जैसा लगा। यह तो एकदम मेरे मरने की सोचने लगी।मन कुछ बुझ गया।

एक दो दिन बाद रामसुख खटिया पर लेटे लेटे शकुंतला देवी को सुनाकर बोले, ‘आजकल सरकार ने अच्छा इंतजाम कर दिया है। कोई सरकारी कर्मचारी मर जाता है तो कफन-दफन के लिए चौबीस घंटे के भीतर आठ-दस हजार रुपये मिल जाते हैं।’

शकुंतला देवी सब्जी काटते काटते बोलीं, ‘यह तो अच्छी बात है।’

रामसुख के मन में फिर ‘टुक्क’ हुआ। यह तो ऐसे सहज भाव से बोल रही है जैसे मैं आलू खरीदने की बात कर रहा हूँ।

तीन चार दिन बाद शकुंतला देवी पूछने लगीं, ‘क्यों जी, यह जो आदमी के मरने के बाद औरत को पिंसिन ग्रेचूटी मिलती है उसमें कोई घपला तो नहीं होता? पूरा पैसा मिल जाता है?’

रामसुख भकुर गये। कुढ़ कर बोले, ‘तुम्हें और कोई काम नहीं है क्या? दिन भर यही फालतू बातें सोचती रहती हो।’

शकुंतला देवी बोलीं, ‘अरे भाई, आजकल हर जगह भरस्टाचार मचा है। इसलिए पूछ रही हूँ।’

रामसुख बड़ी देर तक भकुरे लेटे रहे।

अब रामसुख ने शकुंतला देवी को ज्ञान देना बन्द कर दिया था।शकुंतला देवी ही उनसे जब-तब पूछती रहती थीं। अब उनके हर सवाल पर रामसुख को झटका लगता था। उन्हें लगता जैसे वे उनके परलोक सिधारने का इंतज़ार कर रही हों।

एक दिन शकुंतला देवी पूछने लगीं, ‘आदमी नौकरी करता मर जाए तो औरत को कितनी पिंसिन मिलती है?’

रामसुख लेटे थे, उठ कर बैठ गए। खीझ कर बोले, ‘दो चार दिन में मर जाऊँगा तो अपने आप पता लग जाएगा। यही चाहती हो न?’

शकुंतला देवी ठुड्डी पर उंगली रखकर बोलीं, ‘हाय राम! मरें तुम्हारे दुश्मन। तुम्हीं तो कहते थे कि सब जानना चाहिए।’

रामसुख बोले, ‘हाँ, बहुत जान लिया। अब आज से जानना और पूछना बंद करो, नहीं तो मैं पगला जाऊँगा। ज्योतिषी ने कहा है कि मैं नब्बे साल की उमर तक जिऊँगा। बत्तीस साल पेंशन खाऊँगा।’

शकुंतला देवी बोलीं, ‘ए लो। पहले तो हमारे पीछे पड़े रहते थे कि यह जानो वह जानो। अब कहते हैं पगला जाएंगे। हमें क्या करना है, तुम जानो तुम्हारा काम जाने। अब आगे से हमें किन्हीं संत जी की बातें मत बताना।’

 

© कुन्दन सिंह परिहार
जबलपुर (म. प्र.)

 

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ सवाल एक – जवाब अनेक – 8 ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

 

 

 

“सवाल एक – जवाब अनेक (8)”

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के एक प्रश्न का  विभिन्न  लेखकों के द्वारा  दिये गए विभिन्न उत्तरआपके ज्ञान चक्षु  तो अवश्य ही खोल  देंगे।  तो प्रस्तुत है यह प्रश्नोत्तरों की श्रंखला।  

वर्तमान समय में ठकाठक दौड़ता समाज घोड़े की रफ्तार से किस दिशा में जा रहा, सामूहिक द्वेष और  स्पर्द्धा को उभारकर राजनीति, समाज में बड़ी उथल पुथल मचा रही है। ऐसी अनेक बातों को लेकर हम सबके मन में चिंताएं चला करतीं हैं। ये चिंताएं हमारे भीतर जमा होती रहतीं हैं। संचित होते होते ये चिंताएं क्लेश उपजाती हैं, हर कोई इन चिंताओं के बोझ से त्रास पाता है ऐसे समय लेखक त्रास से मुक्ति की युक्ति बता सकता है। एक सवाल के मार्फत देश भर के यशस्वी लेखकों की राय पढें इस श्रृंखला में………

तो फिर देर किस बात की जानिए वह एकमात्र प्रश्न  और उसके अनेक उत्तर।  प्रस्तुत है  आठवाँ  जवाब  अबू धाबी से ख्यातिलब्ध व्यंग्यकारा  सुश्री समीक्षा तेलंगजी  एवं सवाई माधोपुर से श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी की ओर से  –  

सवाल :  आज के संदर्भ में, क्या लेखक  समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?

अबु धाबी से सुश्री समीक्षा तेलंग जी का जबाब ___
यदि आप समाज को घोड़ा मानते हैं तो आप खुद को उसकी आंख या लगाम भी मान सकते हैं। पर मैं, लेखक को स्वयं अश्व मानती हूं। आपने हॉर्सपावर सुना होगा…। किसी भी मशीन की क्षमता इसी इकाई से मापी जाती है। घोड़े की बुद्धि और ताकत का कोई सानी नहीं। वो चाहे तो दुनिया को हांक सकता है। उसकी तीक्ष्ण बुद्धि हवा के वेग से भी ज़्यादा होती है। और मनुष्य से अधिक संवेदनशील भी घोड़ा ही होता है। मैं लेखक को भी उतना ही संवेदशील मानती हूँ। तभी वो सृजन भी करता है।
लेकिन एक बात जो लेखकों को ही अपने आप में बाँटती है वो ये कि लेखक अपनी मानसिकता के हिसाब से लिखता है। कुछ लोगों के लिए वह दिशाविहीन लेखन होता है। कोई उसे सृजनात्मक मानता है। तो कोई उस लेखन को किसी दस्तावेज़ से कम नहीं मानता। एक का ही लिखा पढ़ने वाले की मानसिकता और लेखक की अपनी मानसिकता पर निर्भर करता है।
यदि लेखक घोड़ा है तो समाज उस ताँगे की तरह है, जिसके विचारों को लेखक और सुदृढ़ बनाता है। बशर्ते वह लेखन समाज को ध्यान में रखकर लिखा गया हो। हम भूल जाते हैं कि ताँगे के घोड़े की आँख पर ऐनक चढ़ा होता है। तभी वो अपने ताँगे को सही दिशा में हाँक पाता है, ख़ाली लगाम से नहीं। लगाम उसके वेग को कम ज़्यादा कर सकती है लेकिन दिशा नहीं दिखा सकती।
बग़ैर ऐनक वह आजू बाजू आगे और कुछ हद तक पीछे भी देख सकता है। क्या हो यदि उसे ऐनक न चढ़ाया जाए? वह मात्र भटका हुआ प्राणी हो जाता है। यही स्थिति लेखक की भी है।
मनुष्य भले ही अपनी गर्दन ३६० डिग्री पर नहीं घुमा सकता लेकिन ख़ुद घूमकर सही ग़लत का जायज़ा लेकर समाज में पनप रही विकृतियों को ज़रूर उजागर कर सकता है।
पहले के युद्धों में हरेक राजा का एक प्रिय घोड़ा ज़रूर होता था। किन्हीं स्थितियों तक वह उस राजा की जीत का भागीदार होता था। क्योंकि वह दुश्मन की आहट को बख़ूबी भाँप लेता था। और अपने प्रिय घुड़सवार को उन परिस्थितियों से बचा लेता था।
लेखक की भूमिका समाज के प्रति भी ऐसी ही होनी चाहिए। पीत पत्रकारिता जिस प्रकार समाज को विषैला प्रदूषित कर रही है। उसी प्रकार लेखक के एक एक शब्द का प्रभाव समाज पर भी पड़ता है। इसलिए लेखक, घोड़े की आँख या लगाम बनने से बचें और ख़ुद अश्व बनकर दुनिया की असलियत उजागर करने का दंभ रखें।
– समीक्षा  तैलंग, अबु धाबी (यू.ए.ई.)

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सवाई माधोपुर से श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी का जबाब ___
वर्तमान समाज, बेलगाम घोड़ा है। इसकी लगाम छीन कर कहीं गहरे दफन कर दी गई है। लाख ढूंढो तो भी नहीं मिलेगी। फिर सवाल घोड़े की आंख का है। पहले वे आंखें सीधे ही लक्ष्य पर केन्द्रित होती थीं। भटकने की कोई गुंजाइश ही नहीं थी। अब, आंखों का वह दिशा नियंत्रक भी नदारद है और यह बेशर्म घोड़ा अब खूब नैन मटक्का करता है। लेखक भी समाज का अंग है। अत:, आज के सन्दर्भ में लेखक घोड़े की आंख है।
– प्रभाशंकर उपाध्याय, सवाई  माधोपुर 

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ हेलो व्हाट्सएप ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव “विनम्र”

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव “विनम्र”

☆ हेलो व्हाट्सएप ☆

 

(प्रस्तुत है श्री विवेक  रंजन  श्रीवास्तव जी  का  सटीक एवं सार्थक व्यंग्य।  हमारी और हमारी वरिष्ठ पीढ़ी ने पत्र ,टेलीग्राम और टेलीफ़ोन से कैसे दिन गुजारे होंगे इसका एहसास, कष्ट और मजा नई पीढ़ी को क्या मालूम। उन्होने तो ऑर्कुट  या इससे मिले जुले डिजिटल सोशल मीडिया मंच से लेकर व्हाट्सएप तक की ही यात्रा तय की है। अभी भी हमारी वरिष्ठ पीढ़ी इन डिजिटल सोशल मीडिया मंचों से सहज नहीं है। जिन्होने स्वयं को अपडेट नहीं किया है इसका कष्ट वे ही जानते हैं।)

 

स्टेटस सिंबल के चक्कर में लांच के साथ ही लेटेस्ट माडेल महंगी कीमत पर स्मार्ट फोन खरीदा गया है. पत्नी से मोबाईल खरीदी का बजट स्वीकृत करवाने में उनका  तर्क बहुत वजनदार था,  “महिलाओ के पास तो ज्वेलरी, कभी जभी ही पहने जाने वाली साड़ियां, इंटरनेशनल ब्रांड के बैग और परफ्यूम, लाइटवेट ब्रांडेड फुटवियर और तो और किसी और को न दिखने वाले इनर वियर हर कुछ कीमती होता है” जबकि बेचारे पुरुष के पास स्टेटस सिंबल के नाम पर एक मोबाईल ही तो होता है. श्रीमती जी ने तर्क दिया कि  कहने को तो आप १० पैसे मिनट टाक वैल्यू का प्लान रिचार्ज करते हैं पर आपकी बातें १० रु मिनट से कम की नही पड़ती. उन्होने  चौंकते हुये पूछा आखिर कैसे ? प्लान तो दस पैसे मिनिट वाला ही है. पत्नी ने जबाब दिया,  आप किसी से भी मेरी तरह लम्बी बातें नहीं करते इसलिये आपकी मोबाईल का टोटल यूज टाइम बहुत कम है, मुश्किल से साल भर में या तो मोबाईल गुमा देते हैं या मोबाईल टूट जाता है या  फिर माडल बदल लेते हैं, तो मोबाईल की मंहगी कीमत में जितनी देर बातें हुई उससे तुलना करें तो आप की प्रति  मिनिट बातचीत दस रु मिनिट से ज्यादा  ही पड़ेगी. पत्नी के जबाब में दम था . फिर भी पत्नी ने थोड़ा तरस खाते और थोड़ा प्यार जताते हुये, मंहगा लेटेस्ट एप्पल लांच के साथ ही दिलवा ही दिया था. भले ही वे वन एप्पल ए डे न खाते हो पर अपना न्यू लेटेस्ट माडेल का एप्पल मोबाईल सदैव हाथो में गर्व से थामे रहते हैं, सारे दिन दो पांच मिनिट के अंतर से  उस पर दृष्टि बनाये रखते हैं, प्ले स्टोर से डाउनलोडेड अनेकानेक एप्स पर निरंतर सर्फिंग करते रहते हैं.

युग व्हाट्सअप का है. वे सोकर उठते ही वे पाखाना जाने से पहले व्हाट्सअप मैसेजेज चैक करते हैं. हाजमा ठीक रहा और हाजत तेज हुई तो मोबाईल सहित स्वच्छ कमोट पर भीतरी तन से फिजकली  आउटगोईंग  और मस्तिष्क में व्हाट्सएप से वर्चुएल वैचारिक  इनकमिंग साथ साथ जारी रहती है. आखिर इतने मंहगे  मोबाईल और घोटाला मुक्त सस्ती दरो पर सुलभ फोर जी स्पीड का क्या फायदा यदि समय पर दूर बैठे आत्मीय जनो को सचलितचित्र गुड मार्निग ही नही की . ये और बात है कि छै बाई छै के सुकोमल बैड पर बाजू में ही पसरी सात जनमो की साथिन की ओर मुस्कान भरी निगाहें तक डालने का ध्यान इस व्हाट्सअप अपडेट के चक्कर में नही जाता. वैसे भी  अब कौन सी नई नवेली शादी है. एप्पल का मोबाईल जरूर बीबी से बहुत नया है.

व्हाट्सएप उन्हें मोबाईल मय बनाये रखने में सर्वाधिक मदद करता है. हर थोड़े अंतराल पर व्हाट्स अप नोटिफिकेशन उनके वैश्विक संबंधो की पुष्टि करता है. कहीं गलती से कुछ घंटे वे मोबाईल न देख पायें तो विभिन्न ग्रुप्स से प्राप्त पेंडिग मैसेजेज की गिनती हजारो में पहुंच जाती है. वो तो भला हो मैसेजेज का कि वे वर्चुएल होते हैं, वरना होली, दीवाली, ईद, न्यूईयर जैसे  मौको पर तो व्हाट्सएप मैसेजेज से मोबाईल ऐसा भर जाता है कि यदि ये मैसेज वर्चुएल न होते तो शायद उन्हें संभालना मुश्किल हो जाता. दरअसल ये मैसेज अनेकता में एकता के राष्ट्रीय चरित्र के परिचायक होते हैं.  गणतंत्र दिवस और स्वाधीनता दिवस का अंतर भले ही पता न हो पर इन राष्ट्रीय त्यौहारो पर भी बड़े प्रेम से हर मोबाईल धारक अपनी डी पी बदलने से लेकर हर कांटेक्ट को मैसेज करना नही भूलता. स्कूल के, कालेज के, साहित्य के, कार्यालय के, शहर के स्वजातीय बंधुओ के  ग्रुप्स ने कनेक्टिविटी ऐसी बढ़ा दी है कि पास के लोग दूर और दूर के लोग पास हो गये हैं. ससुराल के ग्रुप, परिवार के ग्रुप और बच्चों के ग्रुप की नोटीफिकेशन टोन ही उन्होने बिल्कुल अलग रख ली है, जिससे वे सदैव सबके निकट  बने रहें.

यदि व्हाट्सअप को मालूम हो जावे कि उनका कार्यालय ही व्हाट्सअप पर चल रहा है तो निश्चित ही इसके एवज में व्हाट्सअप कुछ रायल्टी क्लेम कर सकता है. आजकल आफिस में मीटिंग की सूचना से लेकर फोटो सहित कम्पलाइंस रिपोर्ट व्हाट्सअप पर ही ली दी जा रही हैं. इधर मैसेज में दो नीली टिक हुई नहीं कि दूसरे छोर से अपेक्षा की जाती है कि साइट से फोटो सहित रिपोर्ट आ जावे. ग्रुप में परिपत्र डालकर यह मान लिया जाता है कि सभी को सूचना मिल चुकी है. वे जमाने यादें बनकर रह गये हैं, जब डाकिया लिफाफा लाता था, रिसीप्ट क्लर्क शाम को सारी डाक खोलकर तरीके से सील ठप्पे लगाकर डाक पैड में बांधकर करीने से टेबिल के कोने में रखा करता था, फिर हम इत्मिनान से एक एक पत्र पढ़ते और उसके मार्जिन में सबार्डिनेट्स को इंस्ट्रक्शन्स लिखा करते थे.

पहले  लोग सामूहिक ठहाके लगाते थे, एक जोक सुनाता था सब हंसते थे, अब जमाना व्हाट्सअप युगीन है, मैसेज पढ़कर मैं मंद मंद मुस्करा रहा था, मित्र ने देखा तो कहा मुझे भी फारवर्ड कर दे मैं भी हंसू. तो व्हाट्सअप युग के साक्षी बने रहिये जब तक कोई और इसे धक्का मारने न आ जावे, मौलिकता छोड़िये,  फारवर्ड करिये, डाउनलोड करिये अपलोड करिये बस दिल पर लोड मत लीजिये.

 

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव  “विनम्र”

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८

 

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ वे दिन हवा हुए☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

 

 

 

 

☆ वे दिन हवा हुए☆

 

गॉव के चौपाल में चुनाव की चर्चा जोरों पर है। बैल जोड़ी का एक जमाना था, चुनाव बैलजोड़ी के लिए होता था, तब सबके घरों में कम से कम एक बैलजोड़ी तो होती ही थी। बैलजोड़ी का एक बैल इमानदार चुस्त दुरुस्त तो था, पर दूसरा बैल बात – बात में चिंतन-मनन करने लगता था फिलासफर जैसा व्यवहार करने लगता, प्रेम – वेम के चक्कर में पड़ गया था और निकम्मा हो गया था। ऐसे में कैसे चलती बैलजोड़ी और कैसे चलती बैलगाड़ी……… निकम्मा इसलिए हो गया था कि एक गाय पर उसका दिल दरिया की तरह बह गया था, गाय से चुपके-चुपके मिलता-जुलता था।

ऐसे तो निकम्मा हर कोई होता है और चुनाव के समय निकम्मेपन पर खूब बहसें होती हैं। कुछ जन्मजात निकम्मे होते हैं और कई लोग “निकम्मा ” शब्द का राजनैतिक इस्तेमाल करने लगते हैं, जब राजनीति में इसका प्रयोग बढ़ जाता है तो शब्द नये अर्थ ग्रहण कर लेता है।जैसे अच्छे दिन बाजार में अच्छे अच्छे नामों से खूब चला, ज्यादा चलने से नये-नये शब्दों का अविष्कार हुआ। इन दिनों चौकीदार और चोर शब्दों के दिन फिरे हैं सबको समझ आ रहा है कि सब के सब चौकीदार भी हैं और चोर भी…….. यहां बैल के निकम्मे हो जाने की बात इसलिए चली कि बैलजोड़ी टूट गई, तब पहला बैल अपनी

वफादारी और इमानदारी पर धार धार रोया और रेडियो में गाना बजा……

“दो हंसों का जोड़ा

बिछड़ गयो रे,

गजब भयो रामा जुलम

भयो रे,”

गाने की आवाज पर दूसरा बैल आकर पहले बैल से लिपटकर रोया और बोला –

“इश्क ने हमको निकम्मा कर दिया,

वरना हम भी बैल थे

काम के,”

खैर… जो हुआ तो हुआ, गाय बैल के इश्क में बैल जोड़ी टूट गई। कुछ दिन बाद गाय का बछड़ा हुआ, बछड़ा भी निकम्मा निकला, वह अपने निकम्मेपन को दूसरों पर देखने लगा। कुछ लोग अपने आप निकम्मे हो जाते हैं कुछ बन जाते हैं कुछ बना दिये जाते हैं कई के स्वाभाव में निकम्मापन आ जाता है।

“अजगर करे न चाकरी…. दास मलूका कह गए सबके दाता राम”

ऐसे लोगों पर लोग दया करने लगते हैं दया से कई काम बन जाते हैं चुनाव में वोट भी पड़ जाते हैं, और गरीबी हटाओ के नारे भी लगने लगते हैं। बछड़ा निकम्मा जरुर था पर निकम्मेपन को अपनी उपलब्धि मानता था एक दिन अचानक बछड़ा गायब हो गया। गाय अपना दुखड़ा प्रगट करने संतों के पास दौड़ती रही बड़े संत ने हाथ उठाकर आशीर्वाद दे दिया, हाथ सपने में आया और “हाथ “बन गया। दीपक टिमटिमाता फिर बुझने का नाटक करता, अंधेरे में आधी रात के बाद महत्वपूर्ण निर्णय होते हाहाकार मचने लगा, उन्हीं दिनों कन्याएं फिल्मी स्टार कमल हसन की फिल्में खूब देखने लगीं थीं कन्याओं और महिलाओं का कमल के के प्रति पसंद बढ़ गई थी, अचानक राजनीति में कमल की मांग बहुत बढ़ गई थी।

एक नेता ने चुनाव की सभा में कमल की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए बताया कि प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 में लड़ा गया था, क्रांति हुई थी क्रांति के आयोजक अपना संदेश ‘रोटी और कमल’ का संदेश घुमाकर सुना देते थे, हिन्दू धर्म के अलावा बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म के लोगों ने उस समय कमल को महत्व दिया था। क्या करोगे कमल सुंदर होता है कोमल होता है। सुंदरी के मुखमण्डल का विकास खिले कमल जैसा होता है।

कुछ लोग कीचड़ में घुसकर कमल तोड़ लाए और चुनाव आयोग की सुंदरी को भेंट कर दिया,

“फूल लाये हैं कमल के

पसारें आप आंचल,”

कमल काम का हो गया। धीरे-धीरे फैलने लगा कमल के अच्छे दिन आ गए मांग बढ़ गई शहरों के पोखर तालाबों में जहां कमल खिलते थे वहां कमल प्रेमियों ने कंक्रीट के जंगल खड़े कर दिए थे।

नकली कमल खिलाने के ठेके दिये गये नकली रासायनिक कमल की सुगंध डालकर नकली कमल बाजार में छा गया बैनरों में, झण्डों में, होर्डिंग में। ऐसे में चुनाव के समय लोग कीचड़ में खिले कमल को याद करने लगे। चुनाव और उपचुनाव में सबके हाथ कमल में दबने लगे फिर कमल वाले अहंकार में चूर होकर मूर्तियां तोड़ने लगे, झटकेबाजी करने लगे, और दोनों हाथों से धन लुटा कर विदेश भगाने लगे। अटल कृष्ण ने आम लगाए थे फल नीरव मोदी जैसे लोगों ने खाए। पता नहीं क्या हो गया ये नयी पीढ़ी को चुनाव में भरोसा नहीं रहा फेसबुक से डाटा चुराकर अब चुनाव जीते जा रहे हैं, आजकल के भाई-बहन कमल शब्द से अचानक चिढ़ने लगे हैं हर बात पर अगले चुनाव में देख लेने की बात करते हैं।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

 

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ खिचड़ी सरकार और कोप भवन की जरूरत ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव “विनम्र”

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव “विनम्र”

☆ खिचड़ी सरकार और कोप भवन की जरूरत ☆

(प्रस्तुत है श्री विवेक  रंजन  श्रीवास्तव जी  का  सटीक एवं सार्थक व्यंग्य।  बतौर सिविल इंजीनियर  कोपभवन के आर्किटेक्ट की परिकल्पना उनका तकनीकी अधिकार है किन्तु एक सधे हुए व्यंग्यकार के तौर पर उन्होने वर्तमान राजनीति में कोपभवन की आवश्यकता का सटीक विश्लेषण किया है। निश्चित ही श्री विवेक जी ने ऐसे रेसोर्ट्स की भी परिकल्पना की होगी  जो कोपभवन के रास्ते में पड़ते  हैं । एक बेहतरीन व्यंग्य के लिए श्री विवेक जी को बधाई।)

भगवान श्री राम के युग की स्थापत्य कला का अध्ययन करने में एक विशेष तथ्य उद्घाटित होता है, कि तब भवन में रूठने के लिये एक अलग स्थान होता था। इसे कोप भवन कहते थे। गुस्सा आने पर मन ही मन घुनने के बजाय कोप भवन में जाकर अपनी भावनाओं का इजहार करने की परम्परा थी। कैकेयी को श्री राम का राज्याभिषेक पसंद नहीं आया वे कोप भवन में चली गई। राजा दशरथ उन्हें मनाने कोप भवन पहुंचे- राम का वन गमन हुआ। मेरा अनुमान है कि अवश्य ही इस कोप भवन की साज-सज्जा, वहां का संगीत, वातावरण, रंग रोगन, फर्नीचर, इंटीरियर ऐसा रहता रहा होगा, जिससे मनुष्य की क्रोधित भावना शांत हो सके, उसे सुकून मिल सके। यह निश्चित ही हम सिविल इंजीनियर्स के लिये शोध का विषय है। बल्कि मेरा कहना तो यह है कि पुरातत्व शास्त्रि़यों को श्री राम जन्म भूमि प्रकरण सुलझाने के लिये अयोध्या की खुदाई में कोप भवन की विशिष्टता का ध्यान रखना चाहिए।

अटल जी की सरकार, जार्ज साहब के समय  पुन: कोप भवन प्रासंगिक हो गया था ।  खिचड़ी सरकारों के युग में यह सर्वविदित सत्य है कि खिचड़ी में दाल-चावल से ज्यादा महत्व घी, अचार, पापड़, बिजौरा, सलाद, नमक और मसालों तथा दही, प्याज का होता है। सुस्वादु खिचड़ी के लिये इन सब की अपनी-अपनी अहमियत होती है, भले ही ये सभी कम मात्रा में हो, पर प्रत्येक का महत्व निर्विवाद है।

प्री पोल एक्जिट पोल के चक्कर में हो, या कई चरणों के मतदान के चक्कर में, पर हमारे वोटर ने जो `राम भरोसे´ है कई बार ऐसा मेन्डेट दिया कि सरकार ही `राम भरोसे´ बन कर रह गई .  राम भक्तों के द्वारा, राम भरोसे के लिये, राम भरोसे चलने वाली सरकार। आम आदमी इसे खिचड़ी सरकार कहता है। खास लोग इसे `एलायन्स´ वगैरह के उम्दा नामों से पुकारते हैं।

इन सरकारों के नामकरण संस्कार, सरकारों के मकसद वगैरह को लेकर मीटिंगों पर मीटिंगें होती हैं, नेता वगैरह  रूठते ही हैं, जैसे बचपन में मै रूठा करता था, कभी टॉफी के लिये, कभी खिलौनों के लिये, या आजकल मेरी पत्नी रूठती है, कभी गहनों के लिये, कभी साड़ी के लिये, या मेरे बच्चे रूठते हैं, कभी बड़े टी वी के लिये या कभी मूवी के लिये .देश-काल, परिस्थिति व हैसियत के अनुसार रूठने के मुद्दे बदल जाते हैं, पर रूठना एक `कामन´ प्रोग्राम है।

रूठने की इसी प्रक्रिया को देखते हुये `कोप भवन´ की जरूरत प्रासंगिक  है। कोप भवन के अभाव में बडी समस्या होती रही है। ममता रूठ कर सीधे कोलकाता चली जाती थी, तो जय ललिता रूठकर चेन्नई। बेचारे जार्ज साहब कभी इसे मनाने यहां, तो कभी उसे मनाने वहां जाते रहते थे। खैर अब उस युग का पटाक्षेप हो गया है. जार्ज साहब को विनम्र श्रद्धांजली, उनका रूठो को मनाने में एक्सपर्टाईज था.  भगवान उन्हें कम से कम अब चिर विश्राम दे , वरना उस युग में उनके जैसा संयोजक ही था जो सरकार को संयोजित रख सका. पर आज भी केवल किरदार ही तो बदले हैं। कभी अचार की बाटल छिप जाती है, कभी घी की डिब्बी, कभी पापड़ कड़कड़ कर उठता है, तो कभी सलाद के प्याज-टमाटर-ककड़ी बिखरने लगते हैं- खिचड़ी का मजा किरकिरा होने का डर बना रहता है।जार्ज साहब ने रूठो को मनाने की, संयोजन की अपनी कला का चार्ज किसी को नही दिया .

अब जब हमें खिचड़ी संस्कृति को ही प्रश्रय देना है, तो मेरा सुझाव है, प्रत्येक राज्य की राजधानी में जैसे विधान सभा भवन और दिल्ली में संसद भवन है, उसी तरह एक एक कोप भवन भी बनवा दिया जावे। इससे सबसे बड़ा लाभ मोर्चा के संयोजको को होगा। विभागो के बंटवारे को लेकर, किसी पैकेज के न मिलने पर, अपनी गलत सही मांग न माने जाने पर जैसे ही किसी का दिल टूटेगा, वह कोप भवन में चला जाएगा। रेड अलर्ट का सायरन बजेगा। संयोजक दौड़ेगा। सरकार प्रमुख अपना दौरा छोड़कर कोप भवन पहुंच, रूठे को मना लेगा- फुसला लेगा। लोकतंत्र पर छाया खतरा टल जायेगा।

जनता राहत की सांस लेगी। न्यूज वाले चैनलों की रेटिंग बढ़ जायेगी। वे कोप भवन से लाइव टेलीकास्ट दिखायेंगे। रूठना-मनाना सार्वजनिक पारदर्शिता के सिद्धांत के अनुरूप, सैद्धांतिक वाग्जाल के तहत पब्लिक हो जायेगा। आने वाली पीढ़ी जब `घर-घर´ खेलेगी तो गुडिया का कोपभवन भी बनाया करेगी बल्कि, मैं तो कल्पना करता हूँ  कि कहीं कोई मल्टीनेशनल कंपनी `कोप-भवन´ के मेरे इस 24 कैरेट विचार का पेटेन्ट न करवा ले, इसलिये मैं जनता जनार्दन के सम्मुख इस परिकल्पना को प्रस्तुत कर रहा हूँ . स्वर्गीय जार्ज साहब को नमन करते हुये .

मनोवैज्ञानिक भी मानते हैं कि कुण्ठित रहने से बेहतर है, कुण्ठा को उजागर कर बिन्दास ढंग से जीना। अब हम अपने राजनेताओं में त्याग, समर्पण, परहित के भाव पैदा नहीं कर पा रहे हैं, तो उनके स्वार्थ, वैयक्तिक उपलब्धियों की महत्वकांक्षाओं के चलते, खिचड़ी सरकारों में उनका कुपित होना जारी रहेगा, और कोप भवन की आवश्यकता, अनिवार्यता में बदल जायेगी।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव  “विनम्र”

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो ७०००३७५७९८

 

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ? रोमांच पैदा करते दर्रे ? – श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

? रोमांच पैदा करते दर्रे ?
अगर आप जोजिल्ला दर्रा पार करने का रोमांच अनुभव करना चाहते हैं और इस समय वहाँ जा पाने की सुविधा नहीं है तो एक आसान सा विकल्प और भी है. आप भोपाल के न्यू मार्केट तक आ जाईये और उस दर्रे को पार करिए जो हनुमान मंदिर से शुरू होता है और स्टेट बैंक की ओर निकलता है. इसे पार करना एक चैलेंज भी है और जोखिम भरा साहस भी.
आईये इसे पार करते हैं. अगर आपकी हाईट साढ़े तीन फीट से ज्यादा है तो आपको कोहनी के बल ‘क्रॉल’ करते हुए निकलना पड़ेगा. बेहतर है आप टिटनस टॉक्साईड का इंजेक्शन पहले से लगवाकर आयें और बिटाडीन का छोटा ट्यूब कॉटन के साथ जेब में धरकर चलें. जरा चूके तो डिस्प्ले में लटकी किसी बाल्टी, अटैची या मनेक्वीन हॉफ पुतली से सिर टकराना तय है. छतरियों के नुकीले सिरों, साड़ियों, कुर्तियों, नाईटियों से बचते हुए आप घुटने-घुटने या करीब करीब रेंगते हुए चलें. एक सावधानी और रखें, स्पोर्ट्स शूज पहनकर दर्रा पार करें अन्यथा पूरी संभावना है कि पहाड़ के किसी काउंटर की ठोकर से आपके पैर के अंगूठे का नाखून उखड़ जाये.
दर्रा क्या है साहब प्रेम की गली है, अति साँकरी. मनचलों की मुराद पूरी करती हुई. इसे पार करते समय थोड़ा दिल बड़ा रखियेगा. कोई शोहदा जितनी शिद्दत से आंटीजी के कंधे से अपना कंधा टकराता है उससे ज्यादा फूर्ती से “सॉरी” बोल देता है. इस ‘बेखुदी’ पर कौन न मर जाये या खुदा! हाथ में कैरीबेग उठाये पीछे पीछे चल रहे विवश अंकलजी और कर ही क्या सकते हैं सिवाय ‘इट्स ओके’ बोलने के. इक आग का दर्रा है और बच के पार करना है.
जोजिल्ला के दर्रे में कचोरी नहीं मिलती साहब, यहाँ मिलती है. तपती भट्टी की मुंडेर से सटकर खड़ी हैप्पी फॅमिली कचोरी सेंव के साथ सलटा रही है. कृपया थोड़ा तिरछा होकर निकलें, आपके शर्ट की कोहनी में लाल चटनी लग सकती है. वैरी गुड. चलिए थोड़ा आगे निकलिए. दर्रों में गार्डन नहीं हुआ करते, यहाँ भी नहीं है. मगर, गार्डन चेयर्स हैं. जूसवाले संजूभाई ने खास तौर पर लगवाई हैं. बैठिये श्रीमान, हॉफ-हॉफ पाइनेपल हो जाए, ऐसी मेजबानी जोजिल्ला में तो मिलेगी नहीं.
नेशनल जियोग्राफिक चैनलवाले परेशान हैं साहब. डाक्यूमेंट्री नहीं बना पा रहे. क्योंकि, दर्रा-इन-मेकिंग किसी भौगोलिक घटना का परिणाम तो है नहीं. पॉपुलर स्टोरी कुछ यूं है कि जब इसके दोनों ओर खड़े दुकानों के पहाड़ अपने शटर की सीमाओं के अन्दर थे तब एक दिन तत्कालीन दरोगाजी की एक्चुअल वाईफ़ आदरणीया देवकलीबाई ने एक-दो नई नाईटीज की फरमाईश कर दी. पहाड़ी समझदार था, उसने एक के साथ छह नाईटीज फ्री पैक कर दिए और अपना पहाड़ छह इंच आगे की ओर सरका लिया. फिर तो ये इन्सिडेन्स ट्रेंड करने लगा. इन दिनों दोनों छोर पर खड़े दुकानों के पहाड़ इतने आगे सरक आये हैं कि इससे कृत्रिम दर्रों को वैश्विक अजूबों में प्रथम स्थान मिलने को है.
आड़े-टेढ़े, घुमावदार, संकरे, ऊँचे-नीचे, सर्पीले इन दर्रों में जोजिल्ला की वीरानी नहीं है, रोमांच के साथ जीवन के रंग हैं. चिढ़ है, खीज है, परेशानियां हैं, तो खरीदारी का आनंद है, दुकानदारों से अपनापा है, मोलभाव का सुख है, दर्रे की चौड़ाई से भी छोटे सपने हैं. कुछ साकार होते कुछ टूटते सपने. कितने भी सिकुड़ जाएँ दर्रे, इनकी रवानियत को बचायेंगी इनके मुहाने पर बैठ शहनाज़ को चैलेन्ज करती मेहंदी लगानेवालियां और फ्लिप्कार्ट, अमेज़न के बंसलों-जेफ़ बोजेसों को मुँह चिढ़ाता सूती नाड़े की गुच्छी बेचता आठ साल का राजू.
तो श्रीमान, आईये एक बार जरूर पार कीजिये दर्रे, न्यू मार्केट भोपाल के.

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, TT नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ सवाल एक – जवाब अनेक – 7 ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

 

 

 

“सवाल एक – जवाब अनेक (7)”

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी के एक प्रश्न का  विभिन्न  लेखकों के द्वारा  दिये गए विभिन्न उत्तरआपके ज्ञान चक्षु  तो अवश्य ही खोल  देंगे।  तो प्रस्तुत है यह प्रश्नोत्तरों की श्रंखला।  

वर्तमान समय में ठकाठक दौड़ता समाज घोड़े की रफ्तार से किस दिशा में जा रहा, सामूहिक द्वेष और  स्पर्द्धा को उभारकर राजनीति, समाज में बड़ी उथल पुथल मचा रही है। ऐसी अनेक बातों को लेकर हम सबके मन में चिंताएं चला करतीं हैं। ये चिंताएं हमारे भीतर जमा होती रहतीं हैं। संचित होते होते ये चिंताएं क्लेश उपजाती हैं, हर कोई इन चिंताओं के बोझ से त्रास पाता है ऐसे समय लेखक त्रास से मुक्ति की युक्ति बता सकता है। एक सवाल के मार्फत देश भर के यशस्वी लेखकों की राय पढें इस श्रृंखला में………

तो फिर देर किस बात की जानिए वह एकमात्र प्रश्न  और उसके अनेक उत्तर।  प्रस्तुत है  सातवाँ  जवाब  लखनऊ शहर की ख्यातिलब्ध व्यंग्यकारा  सुश्री इन्द्रजीत कौर जी  (हाल ही में आपका व्यंग्य संकलन “पंचरतंत्र की कहानियां”  प्रकाशित हुआ है) की ओर से  –  

सवाल :  आज के संदर्भ में, क्या लेखक  समाज के घोड़े की आंख है या लगाम ?

साहित्य समाज का दर्पण होने के साथ ही सुधारक भी होता है । दूसरे शब्दों में वह समाज की आंख के साथ लगाम भी होता है।
लेखक आंख बनकर समाज की तस्वीर लोगों के सामने रखता है। अनदेखे व अनछुए पहलुओं को  उजागर करवा कर आमजन में जागरूकता फैलाता है ।  इसके लिए जरूरी है कि लेखक आखों को हमेशा और पूरी खुली रखें। ऐसा न हो कि कुछ घटनाओं पर वह आंखें बंद कर ले और कुछं पर आंखे इतनी ज्यादा चौड़ी कर ले कि समाज के लिए खतरा ही बन जाए। किसी भी घटना के अनेक कोण होते हैं लेखक की सजगता इस बात में है कि वह हर कोण से देखकर कार्य ,कारण और परिणाम में संबंध स्पष्ट करें।
 हां ,वह लगाम भी है ।सिर्फ आँखं बनकर नहीं रहा जा सकता कि समाज की तस्वीर देखी और पेश कर दी । दंगा ,फसाद , भ्रष्टाचार, छेड़खानी , दबंगई आदि देखकर उसनेे हूबहू कागज पर उतार दिया। इससे तो हम महाभारत के संजय ही बन पाएंगे कृष्ण नहीं। उचित /अनुचित की राह दिखाना भी जरूरी है । विनाश की राह से विकास की तरफ लगाम खींचना  आवश्यक है  ।
इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि सदा चाबुक मारते जाए । लेखक को इस परिवर्तनशील समाज में अपनी मानसिकता भी बदलनी होगी। वह अगर इस बात का रोना रोए कि अब महिलाओं के सिर पर घूंघट नहीं है। सांस्कृतिक पतन हो रहा है तो इसे लगाम नहीं कहेंगे ।
बढ़ते दायरे में लगाम को ढीला करना ही पड़ेगा ताकि घोड़े की दृष्टि और पहुंच व्यापक हो सके। कोई भी चीज सदियों से चली आ रही है इसका मतलब यह नहीं कि वह सही है । जींस पर बहुत कलमें चलीं। इस भागदौड़ वाली अति व्यस्त जिंदगी में लड़कियों के लिए जींस एक सुविधा की तरह है । इस पर बहुत लगाम खींचे गये। क्या यह समझने की कोशिश की गई कि समाज में वह आगे बढ़ने की जद्दोजहद करें या मर्द को देखकर पल्लू ही संभालती रह जाए । ऐसा भी तो लिखा जा सकता था कि पुरुष अपना दृष्टिकोण सही करें। अगर सही अर्थों में लेखक को समाज की आंख और लगाम बनना है तो कुए के मेंढक बनने से परहेज करते हुए उसे कलम चलानी होगी।
इतना ध्यान रखना होगा कि ज्यादा लगाम खींचने से लगाम टूट भी सकती है और अति ढीला करने से घोड़ा छूट सकता है। सन्तुलन आवश्यक है।
– सुश्री इंद्रजीत कौर
(अगली कड़ियों में हम आपको विभिन्न साहित्यकारों के इसी सवाल के विभिन्न जवाबों से अवगत कराएंगे।)

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